हमेशा साथ ही हूँ । आप सुने हैं चाइना की नीति ऍम के साथ हम शुरू करने जा रहे हैं चाणक्य नीति का पांचवां ध्यान । चलिए प्रारंभ करते हैं पांच है के प्रारंभ चाइना के कहते हैं कि स्त्रियों का गुरु पति होता है । अतिथि सबका गुरु है । ब्राह्मण, क्षत्रिय और एशिया का गुरु अग्नि हैं तथा चारों वर्णों का गुरु ब्राम्हण है । आगे समझाते हैं कि जिस प्रकार की इसने काटने, आग में तापने पीटने, इन चार उपायों से सोने की परख की जाती है वैसे ही त्याग, शील, गुड और कर इन चारों से मनुष्य की पहचान होती है । वैसे तभी तक डरना चाहिए जब तक भर आये नहीं । आये हुए भाई को देख कर मिशन होकर प्रहार करना चाहिए अर्थात इस भय की परवाह कभी नहीं करना चाहिए । एक ही माता के पेड से और एक ही क्षेत्र में जन्म लेने वाली संतान समान गुण और शील वाली नहीं होती है । जैसे देर के काटे सभी बच्चों का स्वभाव अलग अलग होता है । भले ही मैं जुडवा पैदा हो, देर के पेड पर फल भी लगाते हैं और काटे भी । यही ईश्वर की विचित्र लीला है । जैसे समझना सरल नहीं । जिसका जिस वस्तु से लगाव नहीं है तो उस वस्तु का मैं अधिकारी नहीं है । यदि कोई व्यक्ति सौन्दर्यप्रेमी नहीं होता तो श्रंगार शोभा के प्रति उसकी आशक्ति नहीं होती है । मुझे एक व्यक्ति प्री और मधुर वचन नहीं बोल पाता और और स्पष्टवक्ता कभी धोखेबाज या दूर दिया मक्कार नहीं होता है । साफ साफ बोलने वाला करवा जरूर होता है, पर वह धोखेबाज नहीं होता है । मूर्खों के पंडित दरिद्रों के धनी मैं जवाब की सुहागिने पार वैष्णव की कुल धन रखने वाली पति व्रता स्त्रियाँ क्षत्रों के समान होती है । ये संसारिक नियम है कि मूर्ख व्यक्ति पंडितों से एशिया करते हैं । निर्धन व्यक्ति धनिकों से ईर्ष्या करते हैं, वैश्य है, धर्म का पालन करने वाली पतिव्रता स्त्री से एशिया करती है और विधवाएं सुहागिनों को देखकर अपने भाग्य को कोसती रहती है । यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । दूसरों को सुखी देख कर कोई सुखी नहीं होता है । आगे समझाते हैं कि आलस्य से अध्ययन कभी ना करें, क्योंकि विद्या नष्ट हो जाती है । दूसरे के पास गई इसी बीच की कमी से खेती और सेनापति न होने से सेना नष्ट हो जाती है । आगे जाने के समझाते हैं कि विद्या अभ्यास से आती है । सुशील स्वभाव से कुल का बडा होता है । श्रेष्ठ तत्व की पहचान गुणों से होती है और करोड का पता आंकडों से लगता है । धर्म की रक्षा धन से होती है । विद्या की रक्षा निरंतर साधना से होती है । राजा की रक्षा मृदु स्वभाव से और पतिव्रता स्त्रियों से घर की रक्षा होती है । ऐसा कहने वाले की बेड और पंडित व्यर्थ है । शास्त्रों का ज्ञान व्यर्थ है । ऐसे कहने वाले स्वयं ही व्यर्थ होते हैं । इनकी एशिया और दुख भी व्यक्त होता है । वे व्यर्थ में दुखी होते रहते हैं । जबकि वेदों और शास्त्रों का ज्ञान तो कभी भी व्यर्थ नहीं होता है । आगे कहते हैं की दरिद्रता का नाश दान से, दुर्गति का नाश, शालीनता से मूलता का नाश सद्बुद्धि से और भय का नाश अच्छी भावना से होता है । काम वासना की सामान दूसरा कोई रोग नहीं । मूड के समान शत्रु नहीं । क्रोध के समान आग नहीं और ज्ञान से बढकर सुबह नहीं । मनुष्य अकेला है, जान लेता है और अकेला ही मारता है । वहाँ अकेला ही अपने अच्छे और बुरे कर्मों को भोक्ता है । अकेला ही नर्क में जाता है और परम पद को पाता है । ब्रह्मज्ञानी की दृष्टि में स्वर्ग तिनके के समान है । शूरवीर ओके दृष्टि में जीवंत इनको के समान है । इंद्रजीत के लिए स्त्री तिनके किस सामान है और जिसे किसी भी वस्तु की कामना नहीं है, उसकी दृष्टि में यह सारा संचार तिनके के समान है । उसे सारा संचार क्षणभंगुर दिखाई देता है, वहाँ तत्वज्ञानी हो जाता है । विदेश में विधेयक ही मित्र होती है, घर में पत्नी है, मित्र होती है, रोगियों के लिए औषधि मित्र हैं और मारते हुए व्यक्ति का मित्र धर्म होता है अर्थात उसके सत्कर्म होते हैं । इसलिए विद्या पति व्रता विदेशी स्तरीय रोक के समय उचित पांच नहीं और मृत्युकाल निकट आने पर व्यक्ति के सत्तर में ही उस का साथ देते हैं । इसी प्रकार आगे समझाते हैं कि समुद्र में बरसात का होना व्यस्त है तब व्यक्ति को भोजन कराना व्यर्थ है । धनिक को दान देना व्यर्थ है और दिन में दीपक जलाना व्यर्थ हैं । चाइना के कहते हैं कि बादल के जल के समान कोई दूसरा जल नहीं होता । आत्मबल के समान कोई दूसरा बाल नहीं होता । अपनी आंखों के समान कोई दूसरा प्रकाश नहीं है और अन्य के सम्मान दूसरा प्रिया प्रधान नहीं होता । निर्धन लोग धन चाहते हैं, पशु वाणी चाहते हैं । मनुष्य स्वर्ग की शिक्षा करता है और देवगढ मुख्य चाहते हैं । संसार में सभी पानी किसी ने किसी अभाव से ग्रस्त रहते हैं । इस अभाव को मिटाने के लिए वे प्रयत्न करते रहते हैं । टायर जिस प्राणी के पास जिस वस्तु का अभाव होता है, वहाँ उसी को पाना चाहता है । सत्य पर पृथ्वी टिकी है । सत्य से सूर्य तपता है, सत्य से वायु बहती है । संचार के सभी पदार्थ सत्य में ही नहीं होते हैं । यहाँ सत्य की मेहता का प्रतिपादन करते हुए आचार्य चाणक्य कहते हैं कि समस्त पृथ्वी हवा की गति, सूर्य की तपिश पार, संपूर्ण ब्रह्मांड सत्य में ही समय हुआ है । सत्य के द्वारा ही सारा ब्रह्मांड चलाया जाता है और कहाँ भी जाता है? सत्यम शिवम सुंदरम अर्थात सत्य ही सबसे बडा धर्म है । सत्य से बढकर कुछ भी नहीं । लक्ष्मी अनित्य और अस्थिर है, ब्रांड अनित्य हैं और जीवन भी लेते हैं । इस चलते फिरते संसार में केवल धर्म ही स्थिर है । पुरुषों में नई भूत होता है, पक्षियों में हुआ, पशुओं में गेधर और स्त्रियों में मालिन धूप होती है । ये चारों साडी दूसरों के कार्य को बिगाडने वाले होते हैं । मनुष्य को जन्म देने वाला, यज्ञोपवित संस्कार कराने वाला, पुरोहित, विद्या देने वाला, आचार्य अन्य देने वाला, भय से मुक्ति दिलाने वाला अथवा रक्षा करने वाला ये पांच पिता कहे गए हैं । अगर समाज में इन्हें पिता अर्थात पालन करने वाला उच्च स्थान दिया गया है । यहाँ पर समाप्त होता है पांचवां अध्याय । अब हम बढेंगे छठे अध्याय की ओर आप सुन रहे हैं ऍम के साथ हूँ हूँ ऍम हूँ हूँ हूँ