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 4. गूँगी गुड़िया से देवी तक in  |  Audio book and podcasts

4. गूँगी गुड़िया से देवी तक

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इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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गूंगी गुडिया से तेरी तक साल उन्नीस सौ चौंसठ नेहरू की मृत्यु के बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने और इंदिरा गांधी ने भी उनके मंत्रिमंडल में सूचना एवं प्रसारण मंत्री का पदभार संभाला । शास्त्री की मृत्यु के बाद में प्रधानमंत्री बन गई और उन्नीस सौ सत्तर तक इस पद पर रही साल से के बीच में बढते बढते सप्ताह के शिखर पर पहुंच गई । उन्होंने उन्नीस सौ बहत्तर में कांग्रेस पार्टी को तोड दिया । उन से सत्तर चुनाव में अपने बेहद लोकप्रिय नारे गरीबी हटाओ की बदौलत उन्होंने चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की । उन्नीस सौ इकहत्तर में बांग्लादेश युद्ध में भारत की जबरदस्त जीत का नेतृत्व किया । इन वर्षों में भारत की सम्राज्ञी के रूप में उनकी जय जयकार प्रिया श्रीमती गांधी भारत के प्रधानमंत्री के रूप में क्या आप हमेशा अपने मन में अपने पिता की उत्तराधिकारी बनने की आकांक्षा गुप्त रूप से पाले हुए थी? क्या आप हमेशा ऐसा सोचती थी कि अपने माता पिता के सपनों का भारत सिर्फ आप ही बनाकर उसे अक्षर रख सकती थी? नेहरू जब सलाह के लिए मोरारजी देसाई और के कामराज जैसे अपने साथियों से मंत्रणा करते थे, आप सिर्फ मेहमान नवाज की भूमिका तक सीमित थी । अब आप अपने को उपेक्षित महसूस करती थी । आपके अपने मित्र ने कहा था, आप को कभी कभी लगता था आपके पिता को आपसे भी और जिक मंत्रणा करनी चाहिए थी । प्रधानमंत्री के रूप में आपके आरंभिक वर्ष कठिनाई से भरपूर थे । आपके विरोधी आपको गूंगी गुडिया पुकारते थे । क्या आपको उनकी बुद्धि पर तरह चाहता था या आपके विरोधी आपके भीतर दबे फलादि इरादों को भाव नहीं पाते थे? आपने लोकप्रिय बनने के लिए अपने भीतर छिपे शक्तिपुंज को चतुराईपूर्वक दबा रखा था और आप उन पर मन ही मन ऐसा करती होंगी । वो आपके भीतर से भी परमाणु ऊर्जा को आंख नहीं पाते थे । इसके बारे में कभी आपने कहा था की आपके भीतर उभरती रहती है । राजनीति में आपका आगमन लगभग अनियंत्रित ताकत के झटके की तरह हुआ था । मैं जब ऐसे कामों को देखती हूँ जिन्हें अंजाम नहीं दिया जा रहा है तो उन्हें करने की मेरे भीतर प्रबल इच्छा उम्र नहीं लगती है । मेरा यही रवैया है । यदि ये कमरा गंदा है तो मैं इसमें झाडू लगा देंगे । सच तो यह है कि आप होंगी कोरिया कभी नहीं थी और राजनीति से बचने के बाद आप का पसंदीदा जुमला था उन काली मगर उन पहनी आंखों में आपके अपने विलक्षण कदम ने विश्वास की जो चला करती थी । ये आपके शब्दों में शुद्र गहरी गहरे नहीं थे बल्कि आप स्वयं थी जिसे आप अपने पिता का सबसे उपयुक्त उत्तराधिकारी मानती थी । भले ही स्वयं ऐसा ना चाहते हूँ मगर बीके नेहरू आपकी उस क्रोध भरी दृष्टि को याद करते हैं जब उन्होंने राजीव और संजय की तरह नेहरू की अस्थियां जमा करने में हाथ बटाने की कोशिश की तो उन्हें आपकी कडी मना ही कर दी नहीं रहा था । सामना करना पडा । इंदिरा के चेहरे पर आए भाव देखकर मुझे ये पक्का पता चल गया कि उन्हें वहाँ मेरी उपस् थिति पर साॅस था । उसके जरिए साफ और बिना लाग लपेट के जब आ रही थी इस सप्ताह के उत्तराधिकारी सिर्फ वहीं होंगी और उनके बाद उनके पुत्र होंगे । नेहरू की विरासत पर किसी भी अन्य नेहरू को हक जमाने की जरूरत नहीं करनी चाहिए । कांग्रेस की सर्वोच्च नेता बनने तक के सफर में इंदिरा गांधी को पार्टी के बुजुर्ग और अपने प्रति सतत विरोध से भरे नेताओं के गिर हो और संसद में उनका मजाक उडाते, विपक्षियों से अपन और मन को घायल कर देने की हद तक लडाई करनी पडी और अंततः कठिन बाधाओं पर उनकी इच्छा शक्ति की जीत हुई । ऐसी स्थिति कि शिखर तक दृढ इच्छाशक्ति के साथ कठिन चढाई थी । ना सिर्फ अपने पूर्व लिखित भाग्य के प्रति लगातार जागरूक थी बल्कि सत्ता को समझने और उसके प्रयोग की इसके पास स्वाभाविक क्षमता भी मौजूद थी । वो क्रांति की बेटी थी और उन्होंने राजनीति के लहराते समुद्र को मुझे हुए राजनीतिक खिलाडी की चतुराई से पार किया । नटवर सिंह कहते हैं, अपने पिता के मुकाबले उनकी राहत बेहद कठिन रही । उन्होंने जो कठिनाइयां झेली वैसी कभी नेहरू को नहीं झेलनी पडी । नेहरू के मुकाबले कोई था ही नहीं । उन के समय में तो विपक्ष भी नहीं था । नेहरू के आरंभिक दस साल तो एक दम आराम से कट रहे लेकिन उनके साथ ऐसा नहीं रहा लेकिन उनका दिमाग ही सियासती था । नेहरू के मुकाबले भले ही कोई कद्दावर राजनीतिक प्रतिद्वंदी नहीं था लेकिन उनका कार्यकाल भी कोई फूलों की सेज नहीं था । उन्हें भी अर्थव्यवस्था से लेकर बढते भ्रष्टाचार, राज्यों में भाषाई आंदोलन तथा दक्षिणपंथी हिंदू और कम्युनिस्ट जमातों के हिंसक विरोध जैसे बहन चुनौतियों का सामना करना पडा था । भाषाई आधार पर राज्यों के पुनर्गठन के बारे में बहुत चिंतित थे । आंध्र प्रदेश के गठन के बाद उनका कहना था, हमने ततैया के छत्ते में हाथ डाल दिया है और मुझे लगता है कि हम सबको उनके डंक झेलने पडेंगे । नेहरू की सरकार ने जब हिंदू कोड बिल को संसद में मंजूरी दी इससे महिलाओं के विरासत और विभाग के अधिकार मजबूत हुए थे । उसके विरोध में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ नहीं सडकों पर जुलूस निकाला और नारा लगाया हूँ मेहरू मुर्दाबाद । तेलंगाना वितरकों के दौरान उन्होंने आंध्र प्रदेश में वामपंथियों के विप्लब को झेला । उन की पंचवर्षीय योजना की कडी आलोचना हुई और उनके अपना मूड साथ ही चक्रवर्ती राजगोपालाचारी नहीं नहीं सो सत्तावन में अस्सी साल की उम्र में कांग्रेस छोडकर उन्नीस सौ उनसठ में नेहरू की समाजवादी नीतियों के विरोध में स्वतंत्र पार्टी बनाने की धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में भारत के भविष्य के प्रति चिंतित थे क्योंकि मुसलमान बडी तादाद में लगातार भारत छोडकर पाकिस्तान जा रहे थे । उन्होंने से चिंतित होकर राज्यों के मुख्यमंत्रियों में बेहद व्यथापूर्ण पत्र लिखा । पंत रहा, ये हमारे ही हाथ में है कि हम अपने अल्पसंख्यकों के लिए ऐसा माहौल पैदा करें जिसमें वो हमारी और से अधिकारपूर्ण और बराबर व्यवहार के प्रति आश्वस्त होकर जी सकें । हम यदि ऐसा नहीं कर पाए तो हम नाकाम हो जाएंगे । उनके मित्र आंध्र माल रोने जब उनसे पूछा की आजादी के बाद से उन्हें सबसे बडी चुनौती क्या झेलनी पडी । नेहरू का जवाब था धार्मिक देश में धर्मनिरपेक्ष राज्य की स्थापना । नेहरू ने स्वतंत्र भारत को सफलतापूर्वक कार्यरत संवैधानिक धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र बनाने के लिए दिन रात एक कर दिया था । ऐसा करके विमानों उन सब लोगों को मुंहतोड जवाब दे रहे थे । उन्होंने आजादी के समय लडखडाते भारत के प्रति भविष्य पर प्रश्नचिन्ह लगाया था । ऐसा करके वो शायद अपने ही पिता के सामने अपना पक्ष सही सिद्ध करने की कोशिश कर रहे थे । जिन्होंने कभी स्वतंत्र देश के लिए अपने बेटे के मूल परिवर्तनकामी आंदोलन का मखौल उडाया था । उनकी कैसी भी विचित्र समस्याएँ रही हूँ । मगर संवैधानिक अनुशासन के अनुरूप नहरो हमेशा बातचीत और लचीलेपन से पेश आएगा । हालांकि उनकी बेटी का रुख ऐसा नहीं था । मेरे पिता तो संत थे, जिन्होंने भटक कर राजनीति का रुख कर लिया । वो कहाँ करती थी लेकिन मैं तो कठोर राजनेता हूँ लुइस कैरोल की पूछता हूँ तू लुकिंग ऍम पर बनी फिल्म में जैसा रेड ग्रीन कहती हैं, मेरे अनेक रूप है प्रिया लेकिन दिल्ली ईमानदारी उनमें शामिल नहीं है । अपनी ही पार्टी के बुजुर्ग नेताओं द्वारा जबरदस्त विरोध के कारण वो आम सहमती की राहत कतई नहीं अपना सकती थी । उनके प्रति मर्दाना पूर्वाग्रह निर्माण और उद्दंडता की हद तक था जिसके सामने तो बहुत अकेली पड जाती थी अपनी जगह पर डटे रहना और फिर शिखर पर पहुंचने की राव में उन्हें उखाड पछाड की राजनीति अपनानी पडेंगी । इसके नेहरू को शायद ही कभी जरूरत पडी थी । मेहरू भले ही शिथिल रहकर भी महान कहना सकते थे मगर उन्हें हमेशा सावधान रहना पडता था भरमाने के लिए और छापामार शैली में और अपने खिलाफ षड्यंत्र करने वालों को ध्वस्त करने के अपने सबसे भरोसेमंद हथियार जनता के साथ । उन्हें हर एक मोड पर सत्ताधारी नेताओं से निपटना बडा जिन पुरुषों को प्यार करती थी, उन का अनुमोदन लेना पडा और अपने खिलाफ साजिश रचने वालों को जिन्होंने रियो चित अप्रत्याशित तौर से परास्त किया, अपनी परिस्थितियों की आवश्यक हो, उन्हें लगने लगा था की उदारता की कोई गुंजाइश उनके कोटे में ही नहीं, नेहरू द्वारा अपनी बेटी को अपनी उत्तराधिकारी के रूप में तैयार कर नहीं है या आगे बढने का कोई सबूत नहीं मिलता । इस बात का उल्लेख पहले भी किया जा चुका । अपने आपको नेहरू का स्वाभाविक उत्तराधिकारी मानने वाले कांग्रेस के ही सिद्धांतवादी अनुभवी नेता मोरारजी देसाई नहीं जब इशारे इशारे में बताने की कोशिश की । नेहरू स्वयं इंदिरा को प्रधानमंत्री पद के लिए तैयार कर रहे थे । नेहरू ने साफ साफ कहा इससे साफ है ये कल्पना की सबसे ऊंची उडान है । संसदीय लोकतंत्र में वंशवादी उत्तराधिकार की अवधारणा की कोई जगह नहीं है । इसके अलावा मैं स्वयं भी इस प्रवर्ति का घोर विरोधी हूँ । इंदिरा ने भी लगभग शिकायती जैसे मैं कहा था मेरे पिता नहीं, सरकारी कामकाज के बारे में उस से कभी बात नहीं । कभी नहीं नहीं । मैंने कभी उनसे पूछा और उन्होंने खुद भी कोई सूचना मुझे कभी नहीं दी । नेहरू की मृत्यु से पहले ही लोग अमूमन ये मानने लगे थे कि दिखने में छोटे से दुबले पतले, मगर दृढनिश्चयी नंबर और सम्माननीय लालबहादुर शास्त्री ही अगले प्रधानमंत्री होंगे । नेहरू ने भी शास्त्री के लिए भरपूर अनुमोदन जताया था नेहरू को दरअसल अपने साथ ही शास्त्री पर गहरा भरोसा था । उनको वे और अधिक सत्ता हस्तांतरित करने को तैयार देखने लगे थे । साल में रेल दुर्घटना के बाद लाल बहादुर शास्त्री ने रेलवे मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया तो नेहरू ने मुझे लक्ष्मी को लिखा । इस बात पर पूरे देश में जिस पर पश्चाताप जताया जा रहा है इससे पता चलता है । लाल बहादुर कितने अधिक लोकप्रिय हैं? मैं देख कर बहुत खुश हूँ कि अतिरिक्त जिम्मेदारियों के निर्वाह में कितने पर पक्का हो गए हैं । अपनी मृत्यु से छह महीने पहले ही नेहरू ने अपनी अधिकतर जिम्मेदारियाँ शास्त्री को सौंप दी थी, जिन्हें कामराज प्लान में मंत्री पद से इस्तीफा दे देने के बाद भी मंत्रिमंडल में अचानक दोबारा शामिल कर लिया गया था । नेहरू के जीवन की सांस इस तेजी से डालने लगी थी और में भारत चीन युद्ध के बाद वेतन और मन से जिस गहराई तक रहे थे, उसे देखकर कांग्रेस पार्टी ने उन्नीस सौ बासठ में ही अपनी रणनीति बना ली थी । कामराज प्लान के रूप में मशहूर ये ऐसी रणनीति थी । जाहिर है, लोगों के साथ कांग्रेस के संपर्क को उन्हें स्थापित करने के लिए से बनाया गया था । जो लोग लगातार विभिन्न उच्च पदों पर विराजमान थे, ऐसी धारणा बनी कि जनता से उनका संपर्क खत्म हो गया था । कामराज योजना के मुताबिक वरिष्ठ कांग्रेसियों को भले ही वह मुख्यमंत्री हूँ, क्या फिर कैबिनेट मंत्री अपने पद को त्यागकर पार्टी के काम नहीं छुप जाना था? काम राज्य हो जाने का मतलब था उन्हें पद से हटाकर पार्टी के लिए धरातल पर काम करने को भेजा गया । कुछ लोगों की राय में योजना इंदिरा के चतुर दिमाग की दूरगामी सोच की उपज थी । नेहरू के आखिरी दिनों में राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को ठिकाने लगाने की शादी । चार । इंदिरा ने हालांकि ये दावा किया कि उन्हें इसकी भनक ही नहीं थी । मैं तो अपने पिता के साथ पहलगांव में थी । श्री बीजू पटनायक नमक से इस योजना का प्रस्ताव किया । मुझे ये नहीं पता था ये श्री कामराज के दिमाग की उपज थे । मैंने पूछा लोगों की प्रतिक्रिया क्या होगी? उनका जवाब था मैं उन्हें समझा होगा । बहुत दिनों में सुना ये वाकई श्री कामराज की ही योजना थी । उसके बाद योजना के लिए प्रतिबद्धता और उसे एक झटके में लागू किया जाना । उसके लिए इंदिरा का पत्ता समर्थन होना भी चलता है । योजना के पीछे ये बात भी साफ थी कि वह सत्ता को अपने हाथों में समेटना चाहती थी । उनके शातिर दिमाग झडक इस बात में भी मिलती है कि वे तमाम बडे नेताओं के पर उतर कार सबको बराबरी पर लाना चाहती थी ताकि उन में से कोई भी खुद को नेहरू के उत्तराधिकारी के तौर पर पेश न कर सके । नेहरू ने खुद भी इस योजना को भरपूर अनुमोदित किया । वो जैसे पत्ते भी मिलते हैं । उन्हीं के दिमाग की उपज थी और कहा था ये ऐसी सोच थी जो अचानक सूजी और खुद ब खुद धीरे धीरे बढती गई । योजना के तहत छह कैबिनेट मंत्रियों और छह सबसे सत्तावन मुख्यमंत्रियों ने अपने पदों को त्याग दिया । इस बता मोरारजी देसाई, लालबहादुर शास्त्री, जगजीवन राम, खुद कामराज, बीजू पटनायक और इसके पाटल आदि अपने पदों से इस्तीफा देकर पार्टी के लिए काम करने चले गए । इस प्रकार मोरारजी और उनके समकक्ष अन्य नेता बराबरी पर आ गए । योजना का नामकरण कुमार सोनी कामराज के नाम पर हुआ । घनी मूंछों और हट्टे कट्टे वजूद वाले कामराज तब तमिलनाडु के मुख्यमंत्री थे । वो इतिहास में किंगमेकर के रूप में दर्ज तो हुए साथ ही उम्मीद सूत्री चढ गयी । कांग्रेस अध्यक्ष बने काम रात में ही अन्य अनुभवी बुजुर्ग नेताओं को मिलाकर वो गुड बनाया था जो सिंडिकेट के नाम से मशहूर हुआ । सिंडीकेट में स्वतंत्रता आन्दोलन और राजनीति में तपे तपाए वो बहादुर लडाके नेता शामिल थे तो कांग्रेस के सत्ता संपन्न छत्रक थे और मैं शामिल थे । पश्चिम बंगाल के दुर्जेय संगठक अतुल्य हो बाद में कर्नाटक बने तत्कालीन मैसूर राज्य के चश्मा धारी मगर शक्तिशाली सिद्धू वन हल्ली निजलिंगप्पा स्वतंत्रता आन्दोलन के विकेट नेता और आंध्र प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री एन । संजीव रेड्डी और विद्वान जबरदस्त वक्ता तथा बम्बई के बेताज बादशाह फैलाने वाले सदाशिव कानून जी । एस । के । पाटिल नेहरू दरअसल संघवाद यानी ऍम को संसदीय प्रणाली की कुंजी मानते थे । यह बात दीगर है कि वो अपनी कल्पना के अनुसार संघवाद की जडें उतनी गहराई तक जमा कर उसे संस्थागत रूप नहीं दे पाए जितना चाहते थे । बावजूद इसके उन्होंने छत्रपों के साथ परस्पर सम्मानजनक ढंग से सहयोग किया क्योंकि उनकी मान्यता थी कि भारत दरअसल राजनीतिक हम सांस्कृतिक विविधता से ही मजबूत पडेगा । नेहरू के किसी भी उत्तराधिकारी के चरणों में आपने वफादारी समर्थक करने में नाकाम इन क्षत्रपों का मानना था उनके अवसान के बाद पार्टी सामूहिक नेतृत्व के आधार पर अपना दबदबा बरकरार पाएगी । नेहरू की मृत्यु गए कुछ ही समय बाद कामराज ने कहा था, राष्ट्रीय परिदृश्य से नेहरू की विदाई के बाद हुए खालीपन को कोई भी नेता अकेले भर पाने के लायक नहीं है । इसलिए पार्टी को सामूहिक नेतृत्व, सामूहिक दायित्व और सामूहिक रंग ढंग के सिद्धांत पर अमल करना होगा । इस प्रकार कांग्रेस के सप्ताह सिंडिकेट के हाथों में केंद्रित हो गई । नेहरू की मृत्यु होने पर वही लोग भाग्य नियंता हो गए, उन का दबदबा तो खाता था, मगर उनकी दृष्टि अपने प्रादेशिक नजरिए के कारण बहुत सीमित थे । शारदा प्रसाद लिखते हैं, सिंडिकेट में शामिल क्षेत्रीय वर्चस्व नहीं, अब वह थे । मगर उनमें से किसी के भी व्यक्तित्व में नेहरू पत्ते अथवा आजाद जैसी विराटता नहित नहीं है । वेस्ट महत्वपूर्ण तथ्य को समझने में नाकाम रहे । प्रधानमंत्री का किसी भी समूह के आगे नतमस्तक होना दरअसल संसदीय लोकतंत्र की मूल भावना के विपरीत था । नेहरू की मृत्यु के वक्त कांग्रेस की चमक भी फीकी पडने लगी थी । क्षेत्रीय और भाषाई अस्मिता के मुखर होने के कारण सौ पचास के दशक में भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन हो चुका था । अब प्रभुत्वशाली जातियों को पिछडी जातियों से चुनौती मिलने लगी थी । कांग्रेस की स्थापित प्रणाली प्रभावशाली व्यक्तित्वों की छत्रछाया की श्रृंखला के जरिए सत्ता में बने रहने अथवा वोट पाने के लिए छत्रपों परनिर्भरता की चूलें हिलने लगी थी । राजनीतिक परिदृश्य में वामपंथियों का उदय हो चुका था और उन्होंने कांग्रेस की छत्रछाया में से गांवों के गरीबों को अपने बारे में खींचना शुरू कर दिया था । कांग्रेस की मध्यम वाम धर्मनिरपेक्ष राजनीतिक पहचान को एक और तो वामपंथियों से कडी चुनौती मिलने शुरू हो गई थी । वहीं दूसरी और जनसंघ के झंडे तले लामबंद हो रहे हैं तो की और से हिंदूवादी राजनीति की पूंछ भी लगातार बढ कर कांग्रेस को डराने लगी थी । जनसंघ को दरअसल कांग्रेस में मौजूद रूढिवादी हिन्दू तब तो भी अपनाने लगे थे । नेहरू की समाजवादी नीतियों से नाराज होकर कांग्रेस से पल्ला झाडना चाहते थे । सांप्रदायिक तनाव सुतर्रा रूप में पसंद नहीं लगा था । बार बार दंगे होने लगे थे । उन्नीस सौ इकसठ में जबलपुर में हुए भीषण दंगे तो यहाँ तक नारे लग गए पाकिस्तान या कब्रिस्तान । सारे का मतलब सब था कि मुसलमान या तो पाकिस्तान चले जाएं वरना उनकी हत्या कर दी जाएगी । इस साहिर है कि धर्म के नाम पर हिंदूवादी उग्रवाद बढ रहा था । कांग्रेस के सामने जब नई और विविध चुनौतियां पेश आ रही थी ऍम उसी भी उसका असाधारण नेता दुनिया से विदा हो गया । नेहरू की मृत्यु के बाद पहले प्रधानमंत्री की इच्छा के अनुरूप सिंडीकेट ने अपना समर्थन शास्त्री को दिया । हालांकि सबकी जुबान पर यही बात थी कि बेहद सक्षम मोरारजी देसाई को जान बूझकर वंचित किया गया । सत्तर साल के लपेटे में पहुंच चुके देसाई हालांकि नेहरू के मंत्रिमंडल में प्रधानमंत्री का पद संभाल चुके थे मगर सब सिद्धांतवादी होने के कारण अकेले पड जाते थे । राहुल प्रशासन तो थे ही अगर सिंडिकेट को उनसे सबसे बडा खतरा यही था कि वह सत्ता को अपने मुठ्ठी में करके उन सब की छुट्टी कर देंगे । नैतिक मूल्यों के प्रबल हानि देसाई शराबबंदी के लिए चुम्मी थे । उन्होंने फिल्मों में चुंबन को किसी भी प्रकार से दिखाने को प्रतिबंधित कर दिया था । मोरारजी भाई का दिल्ली में कांग्रेस सरकार की पेचीदा राजनीति से इसीलिए शायद कभी तालमेल नहीं बैठ पाया । इंदिरा को मोरारजी से डर भी लगता था और उनसे नफरत की थी । उनके कथित दक्षिणपंथी रूझान के प्रति हमेशा शंकित रहती थी । नेहरूवादी उन्नीस सौ पचास के दशक के आदर्शवाद से भटकते हुए कांग्रेस उन्नीस सौ साठ के दशक में सत्ता में बने रहने की खातिर समझौता परस्ती पर उतारू हो गई थी । मोरारजी क्योंकि कडाई से मूल गांधीवाद के पालन के हामिद थे इसलिए नेहरू के बाद कांग्रेस का नया नेतृत्व उनसे घबराने और डरने के कारण उन्हें किनारे कर देने पर आमादा था । लाल बहादुर शास्त्री को नौ जून उन्नीस सौ को बकायदा प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने के साथ ही जहाँ सिंडिकेट हावी हुआ वहीं मोरारजी भाई को नीचा देखना पडा । शास्त्री ने इंदिरा गांधी को अपने मंत्रिमंडल में शामिल किया क्योंकि वह नेहरू की बेटी थी और इस नाते नई सरकार तथा नेहरू और स्वतंत्रता संग्राम के आधार मंडल के बीच महत्वपूर्ण कडी साबित हो सकती थी । उन्होंने ये जानते हुए ही इंदिरा में उन्हें पछाडने की पूरी काबिलियत थी । उन्हें सूचना और प्रसारण जैसे अपेक्षाकृत हल्के मंत्रालय का प्रभारी बनाया था । शास्त्री के जीवनी लेखक सीपी श्रीवास्तव ने लिखा है, नेहरू के देहांत के तीन दिन बाद ही शास्त्री ने इंदिरा को ये कहने के लिए फोन किया अब आप मुल्क को संभाल लीजिए लेकिन उन्होंने इस समझना कर दिया । बाद में उनका कहना था की उनकी एक नहीं चली और शास्त्री के मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए उन पर दबाव डाला गया । उनकी कथित जैसे आपको वेलेस हैंं गन्ने सत्ता के नजदीक रहने की । उनके सत्रह के बावजूद राजनीतिक महत्वाकांक्षा से इनकार करने की उनकी आदत पता है । यदि वो वाकई इतनी ही ज्यादा अन बनी थी तो सरकार में शामिल होने के लिए उन्होंने हामी क्यों भरी । वो भी तब जबकि उन्होंने एक ही साल पहले डोसी नॉर्मन को लिखा था । वो हमेशा के लिए भारत को छोडना चाहते थे । इंदिरा गांधी सुर्खियों में रहने की आदी थी । जीवन भर सबसे महत्वपूर्ण बनी रही और समय की किताब में कुमराह बंद हो जाने वाली नहीं थी । मंत्री पद की शपथ लेने के बाद उन्नीस सौ चौंसठ में उत्तर प्रदेश से राज्यसभा के लिए निर्वाचित हुईं क्योंकि उन्होंने नेहरू के चुनाव क्षेत्र फूलपुर से उप चुनाव नहीं लडना तय किया था । सूचना और प्रसारण मंत्रालय तक सीमित कर दिए जाने से तो मंत्री पद संभालने के बाद से ही परेशान थी और बहुत इस बात से अपमानित और खुद को अलग थलग महसूस कर दी थी । भास्कर हो पश्चिम बंगाल के तबादले पर मंत्रालय ने उप सचिव बनकर आए तो उनसे उन्होंने पहला सवाल ये पूछा था हमारी पार्टी का प्रबंध उत्तरी बंगाल में कैसा चल रहा है और स्थानीय विधायक कैसा काम कर रहे हैं? उनकी दिलचस्पी पूरी तरह कांग्रेस के राजनीतिक भविष्य में थी । ये लगभग ऐसा ही था । मानव को तत्कालीन नेतृत्व के प्रति आश्वस्त नहीं थी और इस बात से चिंतित थी । शास्त्री के बस का ये काम नहीं था । इंदिरा ने बाद में कहा थी, शास्त्री सब कुछ सक्षम थे अथवा नहीं । मगर वो हमेशा कहते थे कि पंडित जी के बाद वो तो मामूली व्यक्ति ही थे । इससे लोग असुरक्षित महसूस करने लगे । नेतृत्व जो भी करें उसे अपने नेता होने पर भरोसा होना चाहिए । शुरू में लोग बडे ही उनकी सादगी के कायल रहे । मगर वो ये भी सोचते थे कि कहीं इससे शक्ति पर असर तो नहीं पडेगा । उनके पास शास्त्री का इंतजार करने का धैर्य नहीं था और जिस पद पर वह थे उसके दायित्वों के निर्भर के लिए वे उन्हें कमजोर और अक्षम मानते थे । वे तो उनकी सरकार के प्रति अनादर भी जताने से बात नहीं आती थी । सूचना प्रसारण मंत्री के रूप में उन्हें सफदरगंज रोड का नया मकान आवंटित किया गया तो पेडों और बागीचों से भरपूर लुटियन शैली का खूबसूरत ढांचा था सफदरगंज रोड । हालांकि अपेक्षाकृत छोटा बंगला था मगर उन्होंने अपने सार्वजनिक जीवन की पूरी उम्र किसी में गुजारे । इसी में उन्होंने लोगों से मुलाकात के लिए सुबह अपना दरबार लगना प्रारम्भ किया, जो अपने पिता की विरासत पर धीरे धीरे अपना दावा ठोकने की शुरुआत था । लोगों के बीच अपनी लोकप्रियता का प्रदर्शन करने से वो कभी नहीं चुकी थी और आने वाले महीनों में सत्ता पर इंदिरा की दावेदारी में यही सबसे महत्वपूर्ण कारक साबित होने वाला था । उसके दरवार उनकी दृष्टि में व्यवहारिक लोकतंत्र की मिसाल थे । मेरे हिसाब से लोकतंत्र को इसी तरह काम करना चाहिए । मुझसे मिलने हरेक तबके के लोग आते हैं । मध्यमवर्गीय गरीब उद्योगपति पेशेवर और मैं उनसे सूचना जमा करती हूँ । ये कोई शांतिकाल नहीं था । मद्रास में भाषाई दंगे छोडे हुए थे । अंग्रेजी की जगह हिंदी को भारत की राजभाषा बनाने की आशंका से प्रदर्शनकारी सडकों पर खुद आत्मदाह कर रहे थे । तमिलनाडू में इसी आंदोलन की पीठ पर चढकर द्रविड पार्टियों ने अपनी जगह बनाई । इंदिरा चीन से युद्ध के दौरान जिस प्रकार अचानक तेजपुर जा पहुंची थी उसी तरह मद्रास के लिए पहली उडान में बैठकर इंदिरा फिर से आंदोलन के गढ में जा को दें । वहां पहुंचकर हालात शांत करने के लिए आंदोलनकारियों से बात की जबकि प्रधानमंत्री चुपचाप दिल्ली में ही बैठे रहे । उन्होंने सूचना प्रसारण मंत्री के अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करके ऐसा जताया मानो वही सब कुछ संभाल नहीं हूँ । इंद्रा मल्होत्रा ने जब उन्हें याद दिलाया कि उन्होंने तो प्रधानमंत्री को भी पीछे छोड दिया तो भडक गयी बोलिंग मैं सूचना और प्रसारण मंत्री ही नहीं थी बल्कि मैं देश के नेताओं में शामिल हो । मैं भी आज इस्तीफा दे दूँ तो तुम्हें क्या लगता है ये सरकार बच पाएगी । मैं तो मैं बता रही हूँ कि ये नहीं बचेगी । मैंने प्रधानमंत्री के अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है और यदि जरूरत पडी तो दोबारा करोंगे । नेहरू के बेटे देश को व्यवस्थित रहा पर अगर सरकार नहीं उनकी परिकल्पित व्यवस्था का काम पूरा करने से पहले चैन से कतई बैठने वाली नहीं थी, उनका ये दृढविश्वास उनके पिता की इच्छानुसार परिस्थितियों से निपटने के फैसले किया जाए । ऐसा करना उनके और सिर्फ नहीं के भाग्य में पता था । ये बात उनके दिमाग में इस कदर बैठ चुकी थी कि मंत्रिमंडल के पद में अनुसार उनकी हैसियत की सीमा क्या हूँ । वैसी छोटी छोटी बातें उनसे नजर अंदाज हो जाती थी । शास्त्री को उनके मन में प्रतिद्वंदता का भान हो गया और उन्होंने सरकार के ऊंचे गलियारों के दरवाजे उनके लिए बंद कर दिए । उसके बावजूद बाद नहीं आई और जनता की आवाज को समझने के तुरूप के इक्के की आड में उनके अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण करते रहेंगे । नेहरू की बेटी को काम करते दोबारा देखने का बडा मौका जल्द ही हाथ लग गया । उसी साल अगस्त में कश्मीर में भारी संकट खडा हुआ या होने लगी । पाकिस्तानी सेना के घुसपैठिये श्रीनगर में आ चुके थे और वहाँ के नागरिक सरकार को जल्दी उखाड फेंकने की तैयारी में थे । इंदिरा गांधी उन दिनों सहयोग से श्रीनगर में ही छुट्टियाँ मना रही थी, भारत नहीं । जम्मू कश्मीर में घुसपैठ के विरुद्ध पाकिस्तान पर जबरदस्त सैन्य हमला कर दिया और सौ पैंसठ के युद्ध की लडाई शुरू हो गई और खतरे की तमाम चेतावनियों को नजरंदाज करके इंदिरा कश्मीर में ही डेटिंग नहीं । इतना ही नहीं बकायदा हेलीकॉप्टर पर सवार होकर मोर्चे पर जा पहुंची और जवानों का मनोबल बढाने के लिए सैन्य शिविरों और अस्पतालों का दौरा करने लगी । वे उडकर रणनीतिक लिहाज से बेहद महत्वपूर्ण हाजीपीर दर्रे तक जा पहुंची । इससे भारतीय सेना ने आपने अनेक जवानों की वीरगति की कीमत पर लडकर पाकिस्तान से छीन लिया था । उनके अचानक वहाँ पहुंचने से चकित जवानों ने उनका जोरदार नारेबाजी से स्वागत किया । हाजीपीर दर्रे पर कब्जे की जंग के अगुवा से पैसा ला मेजर रणजीतसिंह दयाल थे । बाद नहीं, दयाल साहब नहीं उन्नीस सौ चौरासी में अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर पर सेना के ऑपरेशन ब्लूस्टार की रणनीति बनाई । सैनिकों के बीच पहुंचकर इंदिरा के भी उल्लास का ठिकाना नहीं रहा । युद्ध लड रहे जवान मान उनके द्वारा भारत की जाबाज और लडाकू अंदाज में रक्षा का ही प्रतिरूप थे । चीन से युद्ध के बाद में लगातार सीमा पर तैनात जवानों के बीच आ जा रही थी और हथियारबंद सेना से मुझे विशेष लगाव हो गया था । खुशी के बारे मेरे लिए नारे लगा रहे जवानों से मैंने कहा कि हम हाजीपीर कतई नहीं लौटाएंगे । बूढी महिलाओं के मंत्रिमंडल में अकेला हूँ । हालांकि एकदम नारीवादी प्रशंसा नहीं है । मगर इस समय इन्दिरा के बारे में ऐसा ही कहा जाता था । वैसी छोकरी थी जिन्होंने ये दिखा दिया की लडाई में अटूट मर्दानगी के क्या मायने होते थे । उनके दिल्ली लौटने पर उन्होंने शास्त्री के अनमनेपन के बावजूद उन से मिलकर उन्हें युद्ध की दिशा तय करने के बारे में समझाने की कोशिश की । उन्होंने युद्ध की रणनीतियों के बारे में पूरा पडता ही लिख कर शास्त्री को दे डाला । तत्कालीन खबरों के अनुसार अच्छा सच्चाई शास्त्री ने अपने हाथ में मरे हुए चूहे की पूछ की तरह उस पर्चे कोकोनेट थामकर पूछा इसका क्या करेंगे? बावजूद इसके शास्त्री जल्द ही देश के नायक बनने वाले थे और नहीं रोकी बेटी फिर से अपने को किसी कोने में सिमटी हुई पाने वाली थी । पाकिस्तानी हम लोगों का भारतीय सैनिकों ने मुंहतोड जवाब दिया । सितंबर में संयुक्त राष्ट्र ने बिना शर्त युद्ध ग्राम का आह्वान किया और लडाई हो खत्म हुई थी । भारत ने कश्मीर हथियाने की पाकिस्तान की और एक कोशिश नाकाम कर दी थी और पाकिस्तानी सेना के दाम घटते कर दिए थे । साल उन्नीस सौ बासठ के मुकाबले उम्मीद सौ पैंसठ गर्वपूर्ण खडी थी और छोटे कद के शास्त्री की हैसियत दस फुट जितनी लंबी हो गई । उनका नारा जय जवान, जय किसान हर किसी की जवान था । शास्त्री को सोवियत संघ की मध्यस्थता में पाकिस्तान के आयुक्त खान से वार्ता के लिए पांच कर्मचार पडा । रास्ते की सफलता देखकर इंदिरा प्रिफर पडी । उन्होंने अपने बेटे संजय को लिखा, शास्त्री कमजोर थे मगर हमने उन्हें राष्ट्रनायक बना दिया । ऐसा लगता है संजय तभी से उनका राजनीतिक हमराज हो गया था । उन्होंने अपने निकटवर्ती सलाहकारों को बुलाया । इनमें शामिल थे प्रदेश उपमंत्री दिनेशसिंह, योजना आयोग के उपाध्यक्ष अशोक मेहता, तत्कालीन राज्यसभा सदस्य इंद्रकुमार गुजराल और पत्रकार रोमेश आपा । उन लोगों ने उनसे राजनीतिक छत पर अपना वाजिब हक हासिल करने की गुजारिश साल पैंसठ के युद्ध के बाद उनके मन में घूमती । राजनीतिक महत्वाकांक्षा, उनके कार्यकाल आपसे जाहिर होने लगी । ॅ और अधिक लोहा लेने के लिए खुद को तैयार करने लगी । जाहिर है कि अपनी आदत के मुताबिक सबसे वो लगातार इंकार कर दे रहे हैं । उन्होंने में विजय लक्ष्मी पंडित को लिखा, ये बात सोचकर विचित्र लग सकता है कि राजनीति में कोई व्यक्ति राजनीतिक महत्वाकांक्षा विहीन भी हो सकता है । लेकिन मुझे लगता है मैं वैसी ही सनकी हूँ आॅडीशन की थी । उन्हें पता था कि उनकी गति राजनीति में ही थी । उसके बावजूद वो दिखाने के लिए उस से इंकार करते रहेंगे । इसके बजाय वो बार बार यही बात दोहराती रही । शास्त्री ने अपने कामकाज से सिद्ध कर दिया कि वह दरअसल उनके पिता के पासंग भी नहीं थे । श्री शास्त्री ऐसे लोगों से घिरे हैं जो पश्चिमी गुटके समर्थक थे । साल के लिए रूसियों ने जब ताशकंद नहीं सुलहनामे की बैठक का सुझाव दिया तो शास्त्री ने पूछा इस बात का कहीं अमेरिका तो बुरा नहीं मान जाएगा । मुझे याद है इस रवैये से मैं बहुत परेशान थे क्योंकि मुझे लग रहा था कि हमें किसी भी देश को हमारे अंदरूनी मामलों में दखल देने को बढावा नहीं देना चाहिए । मुझे याद है समाजवादी रहा से कांग्रेस के भटकने के बारे में मुझे चेतावनी देनी पडी थी । पिता की मृत्यु के बाद रूढीवादी ताकतें सर उठाने लगी थी । शब्दकोश के अनुसार समाजवादी का मतलब था उनके समर्थक और रूढिवादी वो थे जो उनका विरोध करते थे । उनका साथ देने वाले सब समाजवादी और प्रगतिशील थे । मगर उनके मुकाबले सब अमेरिकी, पिट्ठू और दक्षिणपंथी विध्वंसक थे । हाँ, शास्त्रीय दी प्रधानमंत्री के रूप में जिंदा रहकर अपनी जडे जमाने में कामयाब हो जाते तो इंदिरा गांधी को शायद उनका कार्यकाल नेहरूवादी रास्ते से भटकाव के रूप में दिखाई देता है । वो होकर कहती थी, राष्ट्रीय जी जनसंघ के प्रति नरमी से पेश आने प्रतीत होते थे तो स्वभाव में अत्यंत रवि नाम हैं और कुछ लोग विनम्रता तथा समझौतापूर्ण व्यवहार की कमजोरी समझ लेते हैं । समय ने अचानक करवट ली और ऐतिहासिक दुर्घटना के कारण और इतिहास ऐसी दुर्घटनाओं से भरा पडा है । इनका फायदा उन लोगों को मिला जिनकी किस्मत ने इतिहास पर अपनी छाप छोडना लिखा हुआ है । मिसाल के लिए यदि उन्नीस सौ पचास में सरदार पटेल की मृत्यु होती तो क्या नेहरू निर्द्वंद्व भाव से राज कर पाते? भारत और पाकिस्तान के बीच ताशकंद समझौते के अगले दिन ग्यारह जनवरी उन्नीस सौ छियासठ की सुबह मात्र उन्नीस महीने प्रधानमंत्री रहे इकसठ वर्षीय लालबहादुर शास्त्री का देहांत हो गया । कांग्रेस में खलबली मच गई । चांदी कटने शास्त्री की जगह स्वीकार करने के लिए कामराज को मनाने की जी तोड कोशिश की । इसके जवाब में बताते हैं कि उन्होंने ये कहा हिंदी जानता हूँ अंग्रेजी अब फिर कैसे? चंडीगढ फिर से एक बात पर बैठ गई । मोरारजी को इस पद से दूर रखना होगा । उनके अडियल स्वभाव के कारण चंडीगढ के नेता डरते थे कि प्रधानमंत्री बनते ही वो निर्दोष होकर अपनी पैठ बना लेंगे और फिर से सत्ता का संतुलन उनके हाथ से निकल जाएगा । ऐसे हालत में सिंडिकेट की निगाहा अंततः नेहरू की बेटी पर जाते गी साल के आम चुनाव में महज तेरह महीने बाकी थे । वो राष्ट्रीय हसती थी, गुटों और क्षेत्रवाद से कहीं ऊपर थी । नेहरू का भी वही प्रत्यक्ष सूत्र थी और वोटरों को आकर्षित करने में उन सबसे अधिक काजल थी । वो महज अडतालीस साल की अपेक्षा कृत युवा थी । संसद में किसी सवाल का जवाब देते समय उनके हाथ पूरी तरह काम करते थे क्योंकि वे सार्वजनिक भाषण करते समय पूरी तरह खबर आ जाती थी । इसलिए उन्होंने सोचा कि अपनी प्रवर्ति के अनुसार की पृष्ठभूमि में ही रहना पसंद करेंगे । मृदुभाषी तो समझकर बोलने वाली थी वो पिछले चंडीगढ ने उन्हें निरापद माना । उनका महिला होना उनके लिए फायदेमंद साबित हुआ । इंदिरा ने कहा था, मैं भी बेटा होती तो नेहरू जी की इतनी मदद नहीं कर पाती । राजनीति की दुनिया उन हालात के प्रति कहीं अधिक संवेदनशील और चौकन् नहीं होती । महिला होना जहाँ उनके लिए मददगार था वहीं मुसीबत भी बन जाता था । सत्ता में मतदान सिंडिकेट को लगा कि वह निरापद तो रहेंगे ही, उनकी सत्ता को भी उनसे कोई चुनौती मिलने की गुंजाइश नहीं थी । उन्हें लगा सकता की सीढियाँ चढने के बावजूद वो नाम के लिए ही प्रधानमंत्री होंगे । चिकनी मिट्टी का ऐसा लाॅट इसे वह मन माफिक आकार में ढालते रहेंगे उनकी राय ने वो इंग्लैंड की महारानी के सवाल सरकार की लगभग प्रतिकात्मक मुखिया रहेंगी और ये लोग पर्दे के पीछे से राज करते रहेंगे । बीके नेहरू ने लिखा उनके लिए इंदिरा किसी अलग किशोरी के समान थी जिनके बारे में वे सोचते थे कि उन्हें मनमाने ढंग से चलाना आसान होगा । मुझे से लड किशोरी समझते थे उसे आंकडे में उनसे कितनी बडी भूल हुई ये उन्हें जल्द ही बाजी हारने पर समझ आ जाने वाला था । शारदा प्रसाद लिखते हैं, अपनी औकात से कम आंका जाना हमेशा फायदे मंद रहता है । उन्होंने देश को जल्द ही बता दिया कि राजनीतिक शतरंज की बिसात पर वो कितनी शातिर खिलाडी थी । पिछले अध्याय में हमने जैसा पाया अपने पिता के देहांत से एक साल पूर्व इंदिरा गांधी ने डोरोथी नार्मन को भारत छोड देने की अपनी इच्छा के बारे में लिखा था । यदि शास्त्री की मृत्यु होती यदि वह कनिष्ठ मंत्री ही बनी रहती तो शायद वो अंततः भारत छोडकर चले जाते हैं । समय ने ऐसी करवट ली शास्त्री की मृत्यु ने उन का रास्ता साफ कर दिया । सत्ता के शिखर पर पहुंचकर उन्होंने अपने बेटे राजीव को रॉबर्ट फ्रांस की ये पंक्तियां लिखें राजा बनने से महरूम रहना कितना अधिक कठिन है वो भी तब जबकि वह गुण आपके भीतर हो और हालात भी अनुकूल हो । पुपुल जयकर उनसे जब शास्त्री जी की मृत्यु के बाद मिलने आई तो उन्हें इंदिरा अपने उत्साह को छुपाती लगी है । बाहर से शांत मगर मन ही मन खुश । मेरे समर्थन के बिना कोई भी प्रधानमंत्री नहीं बन सकता । उन्होंने अपने पत्ते बडी होशियारी से चले देसाई जहाँ प्रधानमंत्री पद पर अपना दावा सार्वजनिक कर चुके थे, ये शरमाते हुए रणनीतिक चुप्पी धारण किए हुए रहे । बस इतना ही बोले कि वे कांग्रेस तथा उसके अध्यक्ष कामराज की इच्छा के अनुसार चलेंगी । मोरारजी ने अपने और इंदिरा के बीच खुले चुनाव की मांग की जिसमें कांग्रेस के सारे सांसद मतदान करें । नेतृत्व के लिए की उम्मीद फरवरी को गुप्त मतदान द्वारा इंदिरा को तीन सौ पचपन और मोरारजी को महज एक सौ उनहत्तर वोट मिले । इंदिरा गांधी ने उन्नीस सौ चौंसठ कि चौबीस जनवरी हो वर्ष की आयु में पहली बार प्रधानमंत्री पद की शपथ ली । उन्होंने स्वीकारा मोरारजी देसाई के विरुद्ध हवा ही बनी हुई थी । मुझे लगता है कि उस क्षण लोग मेरे पक्ष में होने से कहीं अधिक उनके खिलाफ थे । मान मनोवल और लोगों का मन जीतने के रणनीतिक कौशल से मेहरु मोरारजी को शास्त्री और इंदिरा दोनों से ही मात खानी पडे । इंदिरा ने सब के मन में ये बात बिठाने की कोशिश की कि वह आजादी के गौरवपूर्ण संघर्ष के आशीर्वाद से ही अपना पद संभालने जा रही थी । अपने चुनाव के दिन वो संसद भवन में आपने शौल पर गुलाब का फूल तंग कर पहुंची थी । बिल्कुल वैसे ही जैसे नेहरू अपनी शेरवानी पर गुलाब चाहते थे । पद की शपथ लेते समय भी उन्होंने मैं ईश्वर के नाम पर शपथ लेती हूँ । कहने के बजाय उन्होंने मैं विधिपूर्वक प्रतिज्ञा करदी हूँ । शब्दों का उच्चारण क्या वे सत्ता में नेहरू की परछाई थी? बेटी के सिर के ऊपर पहले प्रधानमंत्री की आत्मा मंडराती लगती थी । वे अगले ग्यारह साल प्रधानमंत्री रहने वाली थी । उस दौरान उनका जो कायापलट हुआ उसे कई विश्लेषक महाकाव्यात्मक बताते हैं । जिस व्यक्ति हुए नौसिखिया से लेकर निरंकुश कुलमाता किसी भी बयान कर सकते हैं कि उन का मामला काया पलट के बजाय उनके मूल स्वभाव का करवट लेना था । ये उनके व्यक्तित्व के ऐसे लक्षणों का प्रस्फुटन था जो उनके भीतर हमेशा से दबे हुए थे । पर्दा हटने भर से भीतरी गुण नमूदार हो गए थे । अलग बच्चा अब भले ही कांपते हाथों वाला बालिग युवा बन गया था मगर ये पूर्वाभ्यास के दौरान होने वाली स्वाभाविक घबराहट, भर्ती आखिरकार फैसले की रात आई तो अभिनय के दौरान ऐसी प्रतिभा निखर कर सबके सामने आई जो भीतर ही भीतर से से पढ रही थी । स्मार्टली याद करते हैं आरंभ वो एकदम असहाय देखती थी । वे आगे कहते हैं, साल में हुई उनकी प्रेस कॉन्फ्रेंस में जब पत्रकार चारों और से सवालों की बौछार कर रहे थे तो उनकी भी बन गई थी । किसी अन्य पत्रकार ने लिखा, उनकी अपनी कोई शैली ही नहीं है । यदि कोई शैली है भी तो दिखावटी है । उनकी हरेक जुंबिश मरहूम जवाहरलाल नेहरू की नकल भर लगती है । कुछ तो हर ढंग से नकल की गई । कुछ हास्यास्पद क्योंकि उससे मूलतत्व की मधुर यादें ताजा हो जाती हैं, लेकिन जल्द ही वह विशिष्ट शैली की छाप छोडने लगे । सिर्फ पांच साल बाद उनसे जब मैं बंगलादेश शुद्ध के दौरान मिला तो उनका व्यक्तित्व समूचा बदल चुका था । ऐसी शख्सियत जिसे आप साक्षात्कार के दौरान पछाड नहीं सकते थे, उनकी छरहरी काया से उनकी क्षमताओं का अनुमान लगाना असंभव हो गया था । उनके सचिवालय में उन्नीस सौ छियासठ में शामिल हुए नौकरशाह मनमोहन मौनी मल्होत्रा याद करते हैं, आप जब पहली बार उन्हें देखते थे, ये देखते हैं कि वो कितनी छोटी और दुबली पतली थी । तो तत्काल तो यही प्रतिक्रिया होती थी । भगवान भला करें देश को चलाने की कोशिश करने वाली यही औरत है । भगवान ऐसा वो कैसे कर लेती है । भारत को उस की पहली महिला प्रधानमंत्री मिली जिससे अपनी शख्सियत को महिला तक सीमित करने से साफ इंकार कर दिया । हालांकि पश्चिम में नारीवादी आंदोलन आगे बढ रहा था लेकिन उन्होंने खुद को किसी भी वैकल्पिक कोने में कैद करने से इंकार कर दिया । पूरी शिद्दत से मुख्यधारा में शामिल होने के अलावा उन्हें कुछ भी गवारा नहीं था । इस काम के बारे में मैं खुद को और अब समझकर कभी नहीं सोचती । यदि कोई स्त्री किसी भी पेशे के लिए योग्य है तो उसे उस पेशे में काम करने का अवसर मिलना चाहिए । मैं भी अपना काम करते समय खुद को और उसके रूप में नहीं आते हैं । मैं तो बस भारत की अपना नागरिक हूँ और इस देश की प्रथम से विकास देश से भी हूँ । आरंभ में तो ये अग्नि परीक्षा ही थी । अनुभवी न होने और अपने विरोधियों द्वारा हताश करने की हद तक खेले जाने के कारण संसद ने आवाज लडखडाने से उनकी कितनी बन जाती थी । उन्नीस सौ छियासठ उनके लिए बेहद डरावना था । इंदिरा ने भारत की सत्ता ऐसे समय में संभाली जबकि बारिश लगातार दो साल से रूठी हुई थी । भारत झूठें खाद्यान की जबरदस्त में और चावल लूटने के लिए मचे दंगों की चपेट में था । नागालैंड में उग्रवाद जारी था जो आदिवासी अलग राज्य मांग रहे थे और पंजाबी सुबह की मांग भी जोर पकड रही थी जिसका सीधा मतलब था सिख राज्य की सरेआम सांप्रदायिक मांग । अर्थव्यवस्था बुरी तरह लडखडा रही थी । समाचारों के अनुसार इक्कीस सौ चौरानवे करोड रुपये मूल्य के आयात के मुकाबले महज बारह सौ चौंसठ करोड रुपये मूल्य का माल ही निर्यात होने के कारण व्यापार घाटा नौ सौ तीस करोड रुपए जा पहुंचा था हूँ । संयुक्त राज्य अमेरिका नहीं । उन्नीस सौ पैंसठ के युद्ध के दौरान भारत और पाकिस्तान दोनों की सहायता करना बंद कर दिया था और अतिरिक्त खाद्यान्न वाले क्षेत्रों से खाद्यान्न संकट वाले क्षेत्रों को अनाज भेजने संबंधी खाद्यान वितरण प्रणाली का बता बैठ गया था । असंतोष सुलग रही उन सर्दियों में सरकार के खिलाफ ताशकंद समझौते के तहत हाजीपीर कर रहा है । पाकिस्तान का लौटा देने के कारण लोग गुस्से में थे । इंदिरा का संसद में जबरदस्त मखौल उडा और उन्हें तरह तरह के ताने सुनने पडे । नेहरू परिवार के ताजिंदगी आलोचक रहे समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया ने एक सेक्सिस्ट यानी लैंगिक भेदभाव से भरे हमले में यहाँ तक ताना दे डाला । ये तो और कुछ नहीं बस गूंगी गुडिया है । नटवर सिंह याद करते हैं, उन्होंने संसद में उनसे बेहद भद्दा व्यवहार किया । मीनू मसानी ना, किरन मुखर्जी लोहिया, इन्होंने उनकी दुर्गत का डाली चुटीले उन्मुक्त मसानी लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स के ग्रेजुएट और वकील, शानदार वक्ता और जुनूनी समाजवादी नाथ पाई । विद्वतापूर्ण और स्पष्टवादी लोग क्या और वामपंथी बॉक्स फूट से बडे वकील हीरेन मुखर्जी नेहरू के पसंदीदा सांसद । वो इतनी बढिया ऑफिस ओनियन अंग्रेजी बोलते थे । उनके भाषणों के दौरान नेहरू तक मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे, उन दूर गए और साहसी संसदीय प्रभाव में शामिल थे, जिनसे इंदिरा का अपने आरंभिक वर्षों में पारा पडा । ये ऐसे लोग थे जो खुले हम उनका मखौल उडाते थे और उनकी कमियों को मजे ले लेकर दोहराते हुए उन्हें नीचा दिखाने का कोई भी मौका नहीं कम आते थे । सोनिया गांधी ने हाल में एक साक्षात्कार में याद किया, बेंद्र का किस कदर उपहास उडाया जाता था, हाँ और याद करते हैं । आरंभिक दिनों में तो घबराहट के मारे उनका पेट ही खराब हो जाया करता था । बाद में भी उन्नीस सौ बहत्तर में उन्हें जब बजट पेश करना था तो वो इस कदर घबरा गई, उनके मुझसे आवाज निकलने ही बंद हो गई । मैंने उन्हें कुल्ले करने पे करने की सलाह दी है । मगर कोई उपाय कारगर नहीं हुआ । बोझ तो दरअसल उनके दिमाग पर था । ये तो अग्नि दीक्षा थी, जिसे वह कभी नहीं भुला पाई और इसी वजह से अपने बाद के सालों में संसद का दर्जा गिराकर उन नेहरू की तरह उनकी बहसों का आनंद लेने के बजाय उसका तिरस्कार करने लगी । नटवर सिंह आग्रहपूर्वक कहते हैं, उनकी वास्तव में कोई तुलना ही नहीं थी । सदन में नेहरू जब भी बोलने के लिए खडे होते थे और एक व्यक्ति खुद ब खुद बैठ जाता था और चुप चाप उन्हें सुनने लगता था । उन्हें तो वैसी जब कतई नहीं मिली । इंदिरा गांधी को उन्नीस सौ छियासठ में ये साफ पता था कि उनके सामने सबसे आवश्यक कार्य अनाज की समुचित मात्रा में आपूर्ति का प्रबंध करना था । खाद्यान के भंडार रीत रहे थे और अनाज के आयात के लिए विदेशी मुद्रा का भी भारी टोटा था । भुखमरी का खतरा सिर पर मंडरा रहा था । भारत को बिना मांगी खाद्यान और विदेशी मुद्रा देने के लिए राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को मनाने के इरादे से मार्च के आखिरी दिनों में अमेरिका की यात्रा पर रवाना हुई । वो जब संयुक्त राज्य में पहुंची तो हालांकि वहाँ के कुछ अखबारों का शीर्षक था न्यू इंडियन लीडर । काम पे गए आधार भारत की नई नेता भीक मांगने चली आई । टेक्सस के ऊंचे पूरे जॉनसन के मन को भारत की सुरूचिपूर्ण युवा प्रधानमंत्री भाग गई । शानदार ढंग से सजीली ऑपरेशन से भरपूर गुफा शैली में बाल बनाकर, खूबसूरत चुनिंदा साडी पहनकर और ध्यानाकर्षक शिष्टाचार के बूते वहाँ छा गई । नटवर सिंह याद करते हैं विदेश में उन्होंने अपने पहनने ओढने तथा अपनी सात सजा पर खासा ध्यान दिया । सलीके से बने । बालो ऊंची एडी के जूतों को पहने हुए वो किसी महारानी जैसी लग रही थी । वो विलक्षण दिख रही थी । जॉनसन तो एकदम बिच ही गए और बोले की उनकी इच्छा है । इस लडकी का कोई नुकसान न होने पाए । इंदिरा ने बाद याद किया । अखबारों ने लिखा, राष्ट्रपति जॉनसन ने मेरी जैसी आवभगत की । वैसी आतुरता किसी भी राष्ट्रपति रहे, कभी किसी मेहमान के लिए नहीं दिखाई । वो रात के खाने पर आए, मगर वापस जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे । उन दिनों उनका दौरा बेहद सफल रहा था । उनकी उपस् थिति से वशीभूत जॉनसन ने तीस लाख टन खाद्यान्न और नब्बे लाख डॉलर की सहायता देने का वादा कर दिया । हालांकि भारत को भी उन के बदले विश्व बैंक अंतरराष्ट्रीय मुद्रा को और अमेरिकी प्रशासन की इच्छा के अनुरूप आर्थिक सुधार शुरू करने थे । उन सुधारों में शामिल थे कृषि को ज्यादा से ज्यादा प्राथमिकता देना, निजी निवेश और निजी विदेशी निवेश को बढावा देने के और अधिक उपाय करना, सार्वजनिक प्रतिष्ठानों को कम तवज्जो देना और उन सबसे अधिक महत्वपूर्ण ये कि भारतीय रुपये का बडे पैमाने पर अवमूल्यन करना । शायद वे क्योंकि इस निर्णय के परिणामों को गहराई से समझ नहीं पाएंगे । इसलिए उन्हें तब तक शायद इस मुहावरे की जानकारी ही नहीं थी । स्वस्थ आर्थिक से एक खराब राजनीति है । शायद इसलिए कि अमेरिका में गर्मजोशी से हुए स्वागत और राष्ट्रपति जॉनसन से हुई अपनी बैठक के बेहद सकारात्मक रुख के कारण विश्वास ने आसमान पर थी । उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के चार महीने में ही कडा फैसला करने का दुस्साहस किया । अमेरिका के अपने दौरे के मुखर विरोध को नजरअंदाज करके उन्होंने भारतीय रुपए का अवमूल्यन कर दिया । छह जून उन्नीस सौ छियासठ को किए गए इस मशहूर फैसले की खबर देते हुए टाइम्स ऑफ इंडिया ने पहले पन्ने पर बैनर हेडलाइन छापी, रुपये ॅ छत्तीस दशमलव पांच परसेंट रुपए का छत्तीस दशमलव पांच प्रतिशत अवमूल्यन वो बडी से तो बच गए । भारत दिवालियेपन की कगार से भी लौट आया । घरेलू उत्पादन में अंधाधुंध तेजी लाकर व्यापार घाटा कम करने में भी कामयाबी मिलेगी । लेकिन राजनीतिक मोर्चे पर तो हल्ला बोल की नौबत आ गई । अमेरिका से खाद्यान सहायता को ही अपमानजनक माना जा रहा था और ऊपर से अमेरिकी दबाव में रुपये के मूल्य नहीं । राजनीति की आग में ही डालकर उसे और भडका दिया । समाजवादी भारत निर्गुट आंदोलन का प्रामाणिक हुआ । अब हाथों में कटोरा लेकर अंकल सैम के हो हो, बिना नानुकुर किए सर झुकाकर तामील करने पर आमादा था । अवमूल्यन ने इंदिरा गांधी को सबकी नजरों में गिरा दिया । कांग्रेस कार्यसमिति ने भी इसके बहुत निंदा प्रस्ताव पारित किया । उनके पुराने साथ ही कृष्ण मेनन ने उन पर जबरदस्त जुबानी हमले की अगुवाई की । उनके वामपंथी रुझान वाले मित्रों और सलाहकारों, उनके निजी वफादारों के मंत्रणा दल के सदस्यों जैसे युवा नंदनी सत्पथी, जो समय लेखक और ओडिशा से सांसद तथा उनकी नजदीकी सहकर भी थी और बाद में ओडिशा के मुख्यमंत्री बनने वाली थी । उमाशंकर दीक्षित, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री द्वारका प्रसाद मिश्र और इंद्रकुमार गुजराल ने तत्काल समाजवादी राष्ट्रवादी नीतियों को फिर से अपनाने की वकालत की ताकि जनता का भरोसा फिर से पुख्ता किया जा सके और इस आरोप का भी मुकाबला किया जा सके । इंदिरा दरअसल अमेरिकी मिट्ठू बन गई थी । इतनी अप्रत्याशित और तीसरी आलोचना से सुधबुध खो बैठी इंदिरा तेजी से अपनी वाम धर्मनिरपेक्ष साहब को बचाने की राह पर चलने के लिए उन्होंने वियतनाम में अमेरिका द्वारा बमबारी और साम्राज्यवादी आक्रमण की तीखी निंदा की । पूंजी की आवक पर नियंत्रण खत्म करने जैसे और उदारवादी उपायों को अपनाने से परहेज किया । नवंबर में त्रिशूल लहराते हजारों नागा सन्यासियों के साथ हिंदू समूहों ने गौहत्या पर तत्काल रोक लगवाने के लिए संसद में घुसने की कोशिश की । बेकाबू भीड हिंसक हुई तो पुलिस ने गोली चला दी । बवाल में कुछ प्रदर्शनकारी मारे गए । इससे हालत और बिगड गए । दुकानों और इमारतों में आगजनी होने लगी । इससे काबू करने के लिए रात होते होते उम्मीद सौ सैंतालीस यानी आजादी के बाद पहली बार सेना को सडकों पर करना पडा । इंदिरा गांधी ने ये घोषणा करके अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि चमकाने की कोशिश की । वो गौरक्षकों के सामने कतई हथियार नहीं डालेगी । उनसे पहले नेहरू ने गौहत्या पर रोक लगाने से ये कहते हुए इंकार कर दिया था कि वे फिजूल, मूर्खतापूर्ण और बेहुदा मांग को मानने के बजाय इस्तीफा देना पसंद करेंगे । नेहरू की बेटी ने भी उसी नजरिये से बलवाई साधुओं की बुद्धि पर तरस खाते हुए कडाई से ही नहीं बल्कि बेरहमी से गौरक्षा आंदोलन को कुचल दिया । मौके का फायदा उठाकर उन्होंने गृहमंत्री गुलजारीलाल नंदा से इस्तीफा भी ले लिया क्योंकि उन्हें हमेशा वो ना पसंद थे । नंदा धर्मनिष्ठ हिंदू और गौरक्षा के लिए प्रतिबद्ध थे । अमेरिकी आलोचना परस्पर वामपंथ की और अचानक रुख मोड लेने को जाहिर है संयुक्त राज्य खत्म नहीं कर पाएगा । इंदिरा पर मोहित जॉनसर अब उनके द्वारा अमेरिका की निंदा किए जाने से आगबबूला हो गए । संयुक्त राज्य में आरंभ हुई मत्री टूट गई । खाद्यान् की खेप आने में तेज होने लगी । अमेरिका की अहमदाबाद पहले से ही बेहद धीरे धीरे और रुक रुक कर आ रही थी । वहाँ और दक्षिणपंथी हूँ । दोनों की ओर से देश है । गिरवी रखने के आरोप तो झेल ही नहीं थी । ऊपर से अनाज की आधी अधूरी खेत होने के कारण राजनीतिक पटल पर एक दम अकेली पड गई । ऐसा लगता है कि तब तक वो राजनीतिक प्रक्रिया को ठीक से समझ नहीं पाएंगे अथवा नीतियों की घोषणा से पहले राजनीतिक सहमती बनाने की तैयारी करने के गोर से वो अनजान थी । इसकी समझना होने के कारण जनता से अपने जुडाव के अपने यकीन नहीं हो रहा । भटक गए । उनका यह बयान उनके राजनीतिक अंदाज की झलक देता है । इसमें अपने ही धन के भीतर से आलोचना झेलने के बावजूद उन्होंने ऐलान किया, यहाँ सवाल यह है कि पार्टी किसको चाहती है और जानता किसको चाहती है? जनता के बीच मेरी लोकप्रियता एकछत्र है । नटवर सिंह कहते हैं, अवमूल्यन के फैसले पर उन्हें सचमुच रंज था । उन्हें उस फैसले की महत्ता अमेरिका में भारत के तत्कालीन राजदूत बीके नेहरू और उनके प्रमुख सचिव एलके झा जैसे दक्षिणपंथियों ने समझाई थी । बाद में उनको समझाया कि उनसे तो बडी भारी गलती हो गई । सिंडीकेट सरेआम धमकाने लगा । अपने पद और अस्तित्व के लिए उन के रहमोकरम पर निर्भर और निर्वाचित एवं नाम है इस जीव कि इतनी मजाल कैसे हो, ये स्वायत्त होकर सोचने और फैसले करने लगे । अवमूल्यन से पहले उनके द्वारा कामकाज तक को विश्वास में नहीं लेने से उनके और उनके पूर्व खैरख्वाहों के बीच हालत सैनी की खाई पैदा हो गयी । अवमूल्यन के कारण इंदिरा और कामराज के रास्ते जुदा जुदा होने की बुनियाद पड गई । सिंडिकेट को लगता था कि फैसलों के अनुमोदन का हक सिर्फ पार्टी को ही था, जबकि इंद्रा अपने बारे में उनके आरंभिक आकलन के ठीक विपरीत प्रधानमंत्री के रूप में अपनी प्रभुता पर जोर देने पर उतारू थी । कामराज गुस्से में बन बनाए । बडे आदमी की बेटी होकर छोटे लोगों जैसी गलती इंदिरा ने बारह जून को आकाशवाणी पर देश को भरोसे में लिया । मैं आपसे साथ साथ कह रही हूँ, रुपये के अवमूल्यन का फैसला कतई आसान नहीं था । हर एक देश की तारीख में ऐसे मौके आते हैं, जब उसकी इच्छाशक्ति कसौटी पर कसी जाती है और उसका भविष्य संकल्पबद्ध कार्यवाही तथा साहसिक फैसले करने की क्षमता पर निर्भर करता है । अमेरिकी मदद और अवमूल्यन के लिए अमेरिकी दबाव उन्नीस सौ छियासठ में राजनीतिक रूप से विस्फोटक पहले ही साबित हुए हो, मगर मैं तीन ही साल बाद एक अमेरिकी ने आकर भारत को उबारा । वे नेहरू के काल में पहली बार भारत आए थे । इतिहास में दर्ज हरित क्रांति ने उन्नीस सौ सत्तर के दशक में भारत को गेहूं, मक्का और चावल की पैदावार में आत्मनिर्भर बना दिया । हरित क्रांति की बुनियाद लाल बहादुर शास्त्री और उनके कृषि मंत्री सी । सुब्रमण्यम ने डाली थी । उस क्रांति के जनक थे आयोगों से आए नॉर्मन बोरलॉग । नोबेल पुरस्कार प्राप्त इस अमेरिकी कृषि विशेषज्ञ को दशकों बाद भारत सरकार पद्मविभूषण से सम्मानित करने वाली थी । प्रिया श्रीमती गांधी रुपए का अवमूल्यन क्या सिंडिकेट को तिलांजलि देने की और आपका पहला कदम था? चाहिए स्वायत्त रूप से काम करने के आपके संकल्प की उनके लिए पहली झलक थी । इस बात की पहली बात की थी क्या भले ही उनके द्वारा नियुक्त गूंगी गुडिया कितनी भी हूँ, मगर प्रधानमंत्री कि हत्यारों के प्रयोग के लिए आप खुद फैसला करेंगे और पार्टी के नंबरदारों का नहीं देखेंगे । आप उस कुर्सी पर बैठी थी, जिसकी आप सही मायनों में हकदार थी और उसी हिसाब से शासन करेंगी । इससे देश हित में उचित मानेंगे । आप ये भी जानती थी कि प्रधानमंत्री के रूप में काम करने और नेहरू के सपनों का भारत बनाने के लिए आपको उनकी मन मर्जी से कभी भी दिए गए अधिकारों से कहीं अधिक स्वायत्तता चाहिए थी । आपको नियंत्रन से नफरत थी, जो पार्टी के बहुत लोगों की नजर में वो आप पर लगाते रहे थे । कामराज चाहते थे सत्ता को सिर्फ पार्टी के नेताओं के साथ ही नहीं बल्कि राज्यों के मुख्यमंत्रियों के साथ भी साझा किया जाए । जाहिर है कि सत्ता को इस तरह साझा करते ही आपको प्रधानमंत्री के रूप में हाथ पर हाथ धरकर बैठना पड जाता और राजकाज ठप हो जाता । नेहरू को सत्ता को साझा करने की जरूरत अभी इसलिए नहीं पडी, उनका कद सबसे ऊंचा था । लेकिन आप के समर्थकों को लगता था कि आपको पार्टी के बहुत लोगों पर चोट करनी चाहिए । जबकि आपके आलोचक कहते थे क्या आम सहमती से रात नहीं चला पा रही और निर्णय करने के सारे अधिकार अपनी मुट्ठी में करना चाहती थी? क्या तक आपको यह लग गया था आपकी पार्टी के बहुत लोगों को आप बेहद असहनीय होती जा रही थी और उनके तथा आपके बीच साझेदारी नहीं चल पाएगी । क्या अवमूल्यन के मुद्दे पर कटे बवाल ने आपको ये अच्छी तरह समझा दिया था कि आगे से हर एक फैसले को लोकप्रियता और जनसमर्थन की कसौटी पर प्रश्न जरूरी होगा क्योंकि आपके प्रतिद्वंदी पीठ में खंजर भोंकने को तब पर थे भारत की आजादी बीस साल गिरा के साल इंदिरा पचास साल की होने वाली थी । अपनी स्वीकारोक्ति के अनुसार बेहद चुस्त दुरुस्त थी और रोजाना नियमित योग करती थी । इसी साल उन की सहनशीलता की परीक्षा हुई । आम चुनाव नियत समय पर फरवरी में हुए उन पर और भी सेक्सिस्ट टिप्पणियों की बौछार की गई । राममनोहर लोहिया ने लोगों का आह्वान किया कि वे कांग्रेस को सत्ता से उखाड है कि ताकि बिहारी स्त्री को अपनी बर्दाश्त थे, अधिक पीडा और परेशानी न झेलनी पडे । इंदिरा तो धुआंधार चुनाव प्रचार कर रही थी । इसके दौरान भुवनेश्वर में उनकी ना की हड्डी भी टूट गई क्योंकि भीड में से किसी ने उनके चेहरे पर सामने से पत्थर दे मारा था । वो फिर भी डटी रही और पत्थरबाज भीड पर चलाई क्या भ्रष्टता है? मुकाबले में डटे रहने पर उतारू होकर उन्होंने सभा डर सभा चुनाव प्रचार जारी रखा, भले ही उनकी नाक पर चढी पट्टी ने उनका आधा चेहरा ढाकरिया था जिससे वे उन्ही के शब्दों में बैटमेन जैसी लगने लगी थी । ना की हड्डी टूटने के बाद बिना की प्लास्टिक सर्जरी करवाने की भी सोचने लगी थी और उन्होंने इस बारे में डॉरोथी नॉर्मल को लिखा नहीं था । प्लास्टिक सर्जरी के बारे में जब से सुना था मैं अपनी ना का कुछ करवाना चाहती रही हूँ । मुझे लगा की रस्मी हल्ले गुल्ले के बिना ये तभी हो सकता है जबकि छुटपुट एक्सीडेंट हो जाए इसकी वजह से मैं इसमें ठीक करा सकूँ । लेकिन वो इस कॉस्मेटिक सर्जरी के लिए कभी समय ही नहीं निकाल पाएं और सारी जिंदगी अपनी लंबी न की दुखद याद के साथ ही जीती रहें । वे तो सुसंस्कृत मेमसाहब थी । भारत की जनता के लिए कौतूहल फॅसने है की प्रति जो उन्नीस सौ साठ के दशक में भी मेम साहबों की एक झलक पाने को आतुर रहती थी । उसके साथ ही साथ बीमा प्रभाव की कोमलता भरी झाप भी अपने श्रोताओं के मन पर छोडती थी जिससे भारतीय गृहणियां बेहद प्रभावित होती थी । उनके एक जीवनीकार ने भी लिखा है कि अभी जांच और लोकलुभावन नारों का यही अदृश्य मेल उनकी राजनीतिक सफलता का रास्ता सिंडिकेट से घिरी होने के कारण उन्होंने उन्नीस सौ सडसठ का चुनाव अभियान किसी विरांगना के सवाल लडा और भारत के सभी लोगों को ऐसे लहजे में अपना परिवार बताकर लोगों का दिल जीता । इसकी नकल कुछ नेता आज कल भी कर रहे हैं । छोटी सी स्त्री मद्रासी छोकरी ने लोगों के दिलों में अपनी जगह बनाने की ठानी और ये कहते हुए गले लगाने से भी परहेज नहीं किया । आप ही मेरा परिवार हैं । मेरे करोडों परिवारजन इनकी मुझे देखभाल करनी है । उन्हें पता था कि परिवार की भाषा ऐसा संसाधन है । इसे सिंडिकेट वाले कभी नहीं पा सकते थे । क्या कामराज भीड के अरब पर सवार होकर हर बार लोगों का वैसा ही प्यार पा सकते थे? क्या मोरारजी में वह हुनर था? लडती आवाज वाली काफी लडकी तो ना जाने कहां ओझल हो गई थी । घबराहट में बार बार पहलू बदलने की मुद्रा की जगह अब साडी और तेज कदमों ने ले ली थी । उनकी आवाज हालांकि अभी पतली ही थी मगर नई ऊर्जा ने उनमें जोश भर दिया था । अक्सर उनके चेहरे पर आने वाले शर्मीले उबाऊ भाव बदल चुके थे । अब उनकी थोडी दृढता से बनी होती थी । उनकी ठीक इसी मुस्कराहट भी आत्मविश्वास से लबरेज चमकती आंखों वाली मोहक मुस्कान में बदल चुकी है । उन्होंने इसी चुनाव में रोज गांधी के चुनाव क्षेत्र रायबरेली से पहली बार चुनाव लडा । शायद रोज की गरीब परस्त वाम पैरोकारी की विरासत पर दावा करना चाहती थी । रायबरेली के बुजुर्गवार को उनका वो चुनाव प्रचार अब भी याद है । उस समय कांग्रेस सेवादल के युवा सदस्य रहे दीनदयाल शास्त्री कहते हैं वो यहाँ पर हूँ के रूप में आई थी । उनके सिर का पल्लू कभी नहीं पडता था और वो जनता के बीच में जा घुसती थी । उन्होंने जब फिरोज गांधी के लिए चुनाव प्रचार किया था, हम उन्हें तभी से जानते थे । वो खुद के गरीब परस्त होने की छवि पर भरोसा कर रही थी और कोशिश कर रही थी कि आम आदमी का समर्थन पा सकें । राजनीति के मंत्रं से नई देवी निकलकर आई थी इंदिरा गांधी आम जनता की मसीहा । उन्हें सुनने के लिए अच्छा भीड जुटने लगी । गरीबों के लिए उम्मीद की बात सुनने के लिए मानव उनकी आवाज वंचितों और दबे कुचलों की आवाज बनने वाली थी । विचारधारा राजनीति की वाहक बनने के बजाय उसकी पिछलग्गू बन गई । इंदिरा गांधी के लिए विचारधारा यू भी प्रतिबद्धता नहीं बल्कि सत्ता हथियाने का उपकरण मात्र थी । विचारधारा का महत्व उनके लिए तभी तक था जब तक वो सत्ता दिला सकें । उसके लिए वैसी प्रतिबद्धता तो कतई नहीं थी, जैसी नेहरू अथवा फिर उसके भीतर दी । ये रुपये के अवमूल्यन से लगे झटके का सबका था । आर्थिक निर्णयों को उनके राजनीतिक परिणामों के तराजू पर तोला जाना जरूरी है । यदि उसका राजनीतिक नतीजा फायदेमंद होने का भरोसा हो तो आर्थिकी को भी उसी राह पर चलना पडता है । उनके भीतर सच को परखने का माद्दा अब तक नहीं था । के नेताओं को आर्थिक नीतियों यानी अवमूल्यन जैसी के लिए अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाना पडता है । जान है, वे लागू करना चाहते हैं । राजनीतिक सहमती निर्माण की कोशिश के बजाय उनकी राजनीति टकराव और लाठी डंडे की थी । अपने प्रतिद्वंदियों से मुकाबले के लिए इंदिरा गांधी ने लोकलुभावन आर्थिक नीतियों और जनता से भावनात्मक बंधन को सबसे कामयाब उपकरणों के रूप में प्रयोग किया और इनकी हमेशा अहमियत रहने वाली थी । बावजूद इसके वोट खींचने की उनकी पहली परीक्षा के नतीजे योजना पर पूरी तरह खरे नहीं उतरे । कांग्रेस के वोटों की संख्या में बहुत घट गई । सिंडीकेट का सूपडा साफ हुआ और अपने ही घरों में उन्हें धूल चाटनी पडी । कामराज किसी काल्पनिक पछाड के समान द्रविड मुनेत्र कडगम प्रमुख के अट्ठाईस वर्षीय छात्र नेता से पूरी तरह चुनाव हार गए । अजी एसके बाटेल्को अपना से जॉर्ज फर्नांडीज नहीं मुंबई में पटक नहीं दे दी । अपनी सी उपलब्धि के बूते जॉर्ज को जॉर्ज फॅस मिला । मतदाताओं ने ओडिशा में बीजू पटनायक पता पश्चिम बंगाल में अतुल्य घोष को भी ठुकरा दिया । सिंडीकेट ठारी मगर इंदिरा गांधी जीत गई । रायबरेली के चुनाव में वे भारी बहुमत से विजयी रही । अपने नेतृत्व में हुए पहले ही चुनाव में मिली उत्साहजनक जीत से पुपुल जयकर को अपनी दोस्त की पहुंची खेली हुई मिली और उनका कहना था कि कांग्रेस के बुजुर्ग नेताओं का जनता से नाता टूट चुका था । शुद्ध हो गया चांदी कैट को उसकी औकात बताने के बाद वो अकेली हो जाने वाली थी, जिससे आने वाले सालों में उन के सबसे अच्छे और सबसे पूरे पहलू नमूदार होने वाले थे । कांग्रेस को उन्नीस सौ सडसठ के चुनाव से गहरा झटका लगा । राजनीति विज्ञानी रजनी कोठारी जैसा लिखते हैं, ये भारतीय राजनीति में निर्णायक सब हुए । स्वतंत्र भारत में पहली बार कांग्रेस के आधिपत्य को गंभीर चुनौती मिली थी । कांग्रेस दो सौ तेरह सीटों के मामूली बहुमत के साथ सदन में जीत कराई थी । स्वतंत्र पार्टी और भारतीय जनसंघ के प्रति चंद समर्थन में देशभर में जबरदस्त बढोतरी हुई । इन दोनों ही दलों को इंद्रा, हमारी धर्मनिरपेक्षता, हमारे समाजवाद और हमारी विदेश नीति की सर असर विरोधी मानती थी । स्वतंत्र पार्टी अथवा दक्षिणपंथी दल नहीं, चौवालीस सीट जीतकर और हिंदू पुनरुत्थानवादी भारतीय जनसंघ ने पैंतीस सीटें जीतकर जबरदस्त बढत दर्ज की । उसी साल राज्यों के विधानसभा चुनाव में महान अनुभवी दल को मतदाता ने कई राज्यों में ठुकरा दिया । उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे हिंदी पट्टी के रीड दुवा राज्यों सहित केरल, पंजाब, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, तमिलनाडु में कांग्रेस की कमर टूट गई और कांग्रेस के विरोधी वामपंथियों, अकालियों प्रमुख तथा संयुक्त विधायक दल ने उसकी जगह सत्ता हासिल कर ली । संयुक्त विधायक दल हालांकि सब यही गठबंधन ही साबित हुआ । कांग्रेस का देशव्यापी स्तर पर इतने जबरदस्त स्वरूप से पहली बार ही साहब का पडा था और अनेक पर्यवेक्षकों ने इसकी वजह बहुत क्या बंदी के लिए दिल्ली आर्डर टेस्ट साधुओं के प्रति अपना ही बर्बरता बताएंगे । इंदिरा गांधी इसका जवाब अपने चिरपरिचित मास्टर फॅस इंद्रा यानी अमन की प्रतीक इंदिरा ठोक कर देने वाली थी । क्या दी उन्नीसवी सदी और बीसवीं सदी के आरंभ में फॅसने का अथवा ब्रिटिश साम्राज्य के आधिपत्य के कारण दुनिया भर में अपेक्षाकृत शांति रहेगी तो उसी तरह फॅस । इंदिरा भी इंदिरा गांधी के आधिपत्य द्वारा स्थापित हुआ । इंदिरा गांधी की साम्राज्यवादी लहजे में थोडी गई व्यवस्था थी । फॅस । इंद्रा तभी तो करती थी, जब उनका मुकाबला उनकी राय में अव्यवस्था से होता था । साल उन्नीस सौ उनहत्तर आते आते पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू हो गया । टूट की कगार पर खडी पार्टी में इंदिरा और सिंडिकेट साथ साथ शांतिपूर्वक नहीं रह सकते थे और करो या मरो का टकराव अवश्यंभावी हो गया । उन्हें सिंडिकेट को नष्ट करना था, ऍम निपटा देता है । हालांकि उस समय अपने बूते आम चुनाव जीत लेने के कारण इंदिरा को सिंडिकेट सर्वोच्च कार्यकारी पद लेने से रोक नहीं सका । इंदिरा गांधी को तेरह मार्च ऍम लगातार दूसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई । अब पार्टी के आता हूँ द्वारा नामांकित नहीं, बल्कि निर्वाचित नेता थी, जिनके पीछे जनता की ताकत थी । उसके बावजूद उन्हें चुनाव जीतकर आए मोरारजी देसाई को काम रांची समझौते के तहत बर्दाश्त करके उप प्रधानमंत्री और वित्तमंत्री बनाना पडा । अपनी स्वायत्तता और कार्यकारी प्राधिकार जताने के लिए उन्होंने रामराज अथवा मोरारजी से बिना सलाह ये ही अपने वफादारों वाईबी चव्हाण हो । प्रधानमंत्री और जगजीवन राम को कृषि जैसे महत्वपूर्ण मंत्रालय सौंपे । उनके सामने दोहरी चुनौती थी अपने हिसाब से तय नीतियों को कायम करना और मंत्रिमंडल में अपना एक बार स्थापक करना । जाहिर है कि आसान नहीं था । मोरारजी ने जानबूझकर सार्वजनिक रूप में उन्हें नीचा दिखाया । योजना आयोग की बैठक में उनका उपहास किया इंदिराबेन आप ये मामला नहीं समझती । इससे मुझे कर लेने दीजिए । वो गुस्से में आगबबूला हो गयी । कत्रिम शांति के भीतर तनाव करवटे ले रहा था । बावजूद इसके अब उनके साथ एक काबिल सलाहकार था । ऐसा व्यक्ति जो उन्हें राजनीति कि भूल भुलैया में पैर जमा कर चलने के लिए दिशा दिखा रहा था । रुपए के अवमूल्यन से चीजें गए । सबका ने इस व्यक्ति को इंदिरा के पास पहुंचा दिया । इंदिरा गांधी के आगामी वैभवशाली दिनों के पीछे किसी व्यक्ति का दिमाग था । उनका जाना के और रणनीति का । अपने कार्यकाल का अंत आते आते उन्हें किवदंती कहा जाने लगा था । वो सफल मिस्त्री के पीछे खडे पुरुष थे । अमेरिका के सामने घुटने देखने के कानफोडू आरोपों के बाद और चुनाव में आधी हार के बाद इंदिरा वामपंथ और पति की हद तक लोकलुभावन नीति की शरण में चली गई । सत्ता भी में वापसी के बाद उन्होंने अवमूल्यन की पैरोकारी करने वाले सलाहकार अशोक मेहता और सी । सुब्रमण्यम की छुट्टी कर दी । उन्होंने उन नीतियों के समर्थक अपने प्रमुख सचिव एलके झा को भी हटा दिया । झा की जगह पर उन्होंने परमेश्वर नारायण हक्सर को नियुक्त किया । पी एन हजार अथवा बब्बू अच्छा उम्मीद में इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव बने और पद संभालने के कुछ ही समय के भीतर उन्हें देश के सबसे अधिक सत्ता संपन्न नौकरशाह कहा जाने लगा । उन्नीस सौ तक इस पद पर रहे सुदर्शन विद्वान कश्मीरी पंडित रोज गांधी के दोस्त ॅ लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स स्नातक और पूर्व राजनयिक पीएन हक्सर प्रकृति की सौगात थे । कई साल पहले लंदन में उन्होंने अपने मित्रों इंदिरा और फिर उसको लजीज कश्मीरी खाने बनाकर खिलाये थे । अब उन का सबसे अधिक विश्वासपात्र नौकरशाह बनने पर उन्होंने कश्मीरी कोष दावा से भी कहीं अधिक प्रभावशाली नीतियां बनाई । बलोतरा कहते हैं, गर्मजोश उदार, प्रखर विद्वान । यह अक्सर ही थे जिनका हाथ उनकी अनेक जीतों के पीछे था । बैंकों के राष्ट्रीयकरण में उन्होंने प्रमुख भूमिका निभाई । गरीबी हटाओ, नारा भी उन्होंने खडा और उन्नीस सौ इकहत्तर के युद्ध के सारथी भी वही थे । अक्सर को हालांकि धर्मनिरपेक्ष मूल्यों में पक्का यकीन था, फिर भी संस्कृत श्लोक और पारसी शेयर उनके मुंह से पांच बात पर निकल आते थे । उनके तर्कों में भी वाल्मिकी से लेकर वॉल्तेयर पक्की उक्तियां बखूबी शामिल रहती थी । अक्सर का वामपंथी बहुत गहरा था । वजाहत हबीबुल्लाह के अनुसार अक्सर उनके रोमेश थापर जैसे अन्य दोस्तों के वामपंथ को व्यावहारिक जामा पहनाकर हजम होने लायक बनाते थे और उनके सामने पेश कर देते हैं । रक्षा के कारण ही दे उस और वाममार्ग की अनुगामी बनने से बची रही दिन पर उनके दोस्तों ने लाना चाहते थे । साल के लिए उन्होंने अपने समाजवादी एजेंडे को जब बढाया तब भी उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण तो किया मगर विदेश व्यापार को छोड दिया नहीं । उन्होंने विदेशी निवेशकों को मिलने वाली सारी रियायतों को खत्म किया । अक्सर का वामपंथ उनकी यानी अक्सर कि व्यावहारिक सोच को उस कदर होत्रा नहीं कर पाया था । नटवर सिंह कहते हैं, अक्सर के रूप में उन्हें विलक्षण व्यक्ति मिल गया था । उन्हें यदि कोई बात गलत लगती थी तो वो उनसे साफ साफ पैसा कहने में हिस्से चाहते भी नहीं थे । वो कह देते थे, मेरा जी ये नहीं होगा । इसके बारे में सोची । साल उन्नीस सौ इकहत्तर के युद्ध के पीछे वही थे । सच यह है ये युद्ध उन्ही के दिमाग की उपज था, इन्दिरा के नहीं । अक्सर की इस भूमिका को हालांकि अन्य लोग कितनी तारीख नहीं करते । इंदर मल्होत्रा की मान्यता थी अक्सर उन्हें कसकर वामपंथी वैचारिक रहा, पर ले गए और प्रतिबद्ध जन सेवा यानी ऐसा अवसर जो तटस्थ कार्यकारी होने के बजाय विचारधारात्मक रूप से जुडा हो, के प्रति पक्षपात करके प्रशासनिक मूल्यों को कमजोर । क्या राजनीति में रंगी नौकरशाही की हालांकि समाधान में मना ही है? आर । के । धवन कहते हैं, इंदिरा खुद न तो वामपंथी थी और ना ही दक्षिणपंथी । दरअसल अक्सर में उन्हें वामपंथी रहा, पर चलाया अक्सर कि वह बडी गलती थी । इस प्रकार इंदिरा गांधी के आरंभिक साल अक्सर राज के बन गए थे । नेहरू को समर्पित ये वामपंथी भारत को नेहरू की दृष्टि के देश में बदलने को आतुर था । इस मिशन के लिए सरकार में हरेक स्तर पर समान सोच वाले लोगों की नियुक्ति की गई । इससे विचारधारा और निष्पक्ष नौकरशाही के बीच की बारीक रेखा मिट गई । अक्सर के अंतर्गत प्रधानमंत्री सचिवालय सुसंगठित और बेहद शक्तिशाली समूह बन गया । सामान्यतः मंत्रिमंडलीय सचिव ही नौकरशाही के सर्वोच्च अवसर होते थे, मगर तब हक्सर का समूह उस को भी आदेशित करने लगा । अवसर के बाद पी । एन । धरने प्रमुख सचिव का पद संभाला था । बेहक सर को आंदोलनकारी बताते हैं कि अपने बॉस को सफल प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे । प्रधानमंत्री सचिवालय में हर एक नियुक्ति से पहले तो ये तस्वीर कर लेते थे । उसकी इंदिरा के प्रति निष्ठा होनी चाहिए । अक्सर की देख रेख में ही इंदिरा ने आर्थिक सुधार और अमेरिका विरोधी धारा वाली नेता के रूप में अपनी पहचान बनाई । अक्सर और उनके मगन साथ ही राजनयिक ऍम डीपी धर, अर्थशास्त्री एंड घर और सुरक्षा सलाहकार आरॅन । सभी बेहद योग्य कश्मीरी पंडित नौकरशाह इंदिरा के दरबार के नवरत्न थे और प्रगतिशील छवि में भारत का निर्माण करना चाहते थे । छवियों का पूजक प्रशासन और सर्वशक्तिमान प्रधानमंत्री सचिवालय के व्यापक संस्थागत परिणाम तो भारत को सही और प्रगतिशील तरीके से बदलने के उत्साह में कहीं मिला गए । अंततः अक्सर के अपनी बहुत से मतभेद हो गए । एक झटके में उनकी नजरों से गिरने के क्रम में इंदिरा उनकी शक्ल देखना भी ना पसंद करने लगी । उन का कसूर बस इतना था कि उनकी टकरा उन्हें खुद से भी कहीं अधिक प्रिय व्यक्ति से हो गई थी । वे उनके वरिष्ठ पुत्र संजय गाँधी, इंदिरा और पार्टी के पीछे में ही इस बात पर नया मोर्चा खुल गया कि भारतीय गणतंत्र का तीसरा राष्ट्रपति कौन होगा? राष्ट्रपति सर्वपल्ली राधा कश्मीर का कार्यकाल समाप्त होने वाला था । इन्दिरा के लिए अपनी पसंद के राष्ट्रपति का चुनाव निहायत जरूरी था । पार्टी द्वारा उनसे खार खाने के कारण बर्खास्तगी की तलवार उनके सिर पर हमेशा लडती रहती थी । राधाकृष्णन इंदिरा को अपने द्वारा संरक्षित मानते थे । उन के प्रति उनके मन में बात चल ले और अनौपचारिकता का भाव था । उनकी बात सुनने के बजाय वे उन्हें कामकाज के बारे में उपदेश दिया करते थे । अपनी पार्टी से बढ रहे तनाव से निपटने के लिए उनको अपने पर हूँ नहीं चला पाने वाले राष्ट्रपति की जरूरत थी और उन्हें डॉक्टर जाकिर हुसैन के रूप में उपयुक्त उम्मीदवार मिल गए । हालांकि चांदी के डॉक्टर राधाकृष्णन को दोबारा निर्वाचित करने पर आमादा था । उन्होंने अपने प्रतिद्वंदियों पर महज एक सवाल दागकर हालात अपने पक्ष में कर लिए । उनके उस सवाल का कांग्रेस की पवित्र धर्मनिरपेक्ष छवि से सीधा ताल्लुक था जिससे उस दौरान बढ रहे सांप्रदायिक दंगों के कारण फिर से स्थापित करना उनके लिए बेहद जरूरी था । उन्होंने सिंडिकेट से पूछा, लोग जब ये पूछेंगे कि जाकिर हुसैन का नाम टूट कराया गया, आप क्या जवाब देंगे? फिर उन्होंने सिंडिकेट को ये कहकर ताना मारा । इसी मुसलमान का राष्ट्रपति बनना बहुत सारे लोगों को राज नहीं आ रहा । धर्मनिरपेक्ष उपलब्धि पर इंदिरा को बहुत ना आस्था अपनी पढाई में वो कहती थी, मैं जब कांग्रेस अध्यक्ष थी और उससे पहले भी अनेक लोगों को लगता था कि कोई अल्पसंख्यक कैसे मुख्यमंत्री हो सकता है । क्योंकि बहुमत दूसरे धर्म के लोगों का है । वो इसे कभी कुबूल नहीं करेंगे । इसलिए इसपर मैंने चुपचाप बिना शोर अथवा नारेबाजी किए काम किया और मैं माहौल बदलने में कामयाब रही । इसलिए अब भारत के राष्ट्रपति जैसे सर्वोच्च पदों पर भी मुसलमान निर्वाचित हो रहे हैं । प्रभागीय सही भविष्य में ये स्पष्ट हो जाएगा कि धर्मनिरपेक्षता पर अमल के मामले में उनकी नीति गहराई तक काम करने के बजाय महज प्रतीकात्मक थी । जाकर उसे के मई महीने में विधि विधान से राष्ट्रपति बन गए । उसी साल इंदिरा ने दस सूत्री समाजवादी कार्यक्रम की घोषणा की । हरित क्रांति का शुरूआती फायदा उन्नीस सौ तक आते आते नजर आने लगा । जो जिला कलक्टर तमाम किसानों को बोरलॉग दौरा इजात किए गए अधिक उपज वाले बीच को अपनाने के लिए बनाने में नाकाम रहे थे, उन्हीं के मूवी अब आश्चर्य से खुले रह गए थे । किसान अब उन चीजों को काला बाजार से खरीद रहे थे । भारत के स्थानीय धान के पौधे तेज बारिश अथवा आंधी में जहाँ धराशाई हो जाते थे वहीं बोलो के बीच से निकले बोलने पौधे, आंधी, बारिश और बाढ में भी निरापद खडे थे । मजबूत होने वाले ये पौधे पैदावार भी जबरदस्त ले रहे थे । बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और पंजाब में निर्वाचित सरकारों की बर्खास्तगी के कारण इंदिरा शक्तिशाली राजनीतिक प्रतिद्वंदी बन गई थी और उनकी सफलता उनके राजनीतिक निंदकों के गले की फांस बन रही थी । साल उन्नीस सौ अडसठ खत्म होने पडते हैं । इंदिरा को सत्ता से बेदखल करने के लिए कामराज और मोरारजी ने कमर कस लें । वे दोनों तब तक हालांकि इस हकीकत से वाकिफ नहीं थे । उनका साबका इससे पढा था । इन्दिरा जल्दी अपने प्रतिद्वंदियों के मंसूबे विफल करने के लिए ऐसा अभियान चलाएंगी जिससे सचमुच उनका दिवाला निकल जाएगा । चुनाव में में लगे झटके के बाद कांग्रेस के अपेक्षाकत युवा सदस्य करीब समाजवादी, अनुसूचित जाति, अल्पसंख्यक और वंचितों को आकर्षित करने संबंधी नीतियों की और लौटने की मांग कर रहे थे । अवमूल्यन और अमेरिका से सम्बंधों जैसी दक्षिणपंथी पैतरेबाजी को उन्नीस सौ सडसठ के आम चुनाव में पार्टी की दुर्गति के लिए जिम्मेदार माना जा रहा था । चंडीगढ को प्रतिक्रियावादी दक्षिणपंथी उन लोगों का गिरोह प्रचारित करके इंदिरा को युवा तुर्कों का मुखिया बताया गया । आंखों में चमक ला देने वाली समाजवादी आशा की किरण जो कांग्रेस के यशस्वी अतीत को लौटा लाएंगे, कांग्रेस नहीं था और इंदिरा के वफादार पसंद साठे नहीं याद किया । वो धीरे धीरे कांग्रेस के युवाओं को अपने चारों और लामबंद करने लगे । उन्होंने तमाम समाजवादी और प्रगतिशील लोगों को इकट्ठा कर लिया जिससे सिंडिकैट अलग थलग पड गया । दूसरे वाम उन्मुख दौर की बढती मांग के बीच इंदिरा गांधी नहीं, राजनीतिक लडाई के रुख को विचारधारा के टकराव का रूप दे दिया । छातर हक्सर तो साथ ही तो उनकी लगभग हर एक चाल सटीक पड रही थी । जाकिर हुसैन का उन्नीस सौ उनहत्तर में तीन मई को अचानक देहांत हो जाने से भाग जब आने की लडाई का नया दौर शुरू हो गया । चंडीगढ फिर से अपनी पसंद नीलम संजीव रेड्डी हो उम्मीदवार के रूप में थोपने पर आमादा था । इंदिरा गांधी ने पैसे कहा, प्रधानमंत्री पर राष्ट्रपति उम्मीदवार थोपना दरअसल उनके पद पर हमला है । प्रधानमंत्री की स्वायत्तता के लिए लडेंगे । हालांकि चंडीगढ उनको नीचा दिखाने पर उतारू था । अंततः था । संजीव रेड्डी की उम्मीदवारी स्वीकार करने के बजाय उन्होंने वीवी गिरी को मैदान में उतार दिया । अपने प्रतिद्वंदियों से लडाई के निर्णायक दौर में इंदिरा गांधी एकदम चौकस और होशियार थी और मजबूत किसे कदम रह रही थी वो तवे उल्लेखनीय और प्रतिभाशाली राजनेता दिए नटवर सिंह लगते हैं । इंदिरा गांधी को ये हो गया था कि सिंधी के द्वारा संजीव रेड्डी बनाने के लिए समर्थन देने का मकसद उन्हें प्रधानमंत्री पद से बेदखल करके उनकी जगह पर मोरारजी को बढाना है । सोलह जून उन्नीस सौ सत्तर हो बिजली गिरफ्तार से चोट करते हुए अपने कट्टर प्रतिद्वंदी मोरारजी देसाई को वित्त मंत्री के पद से हटा दिया और मीडिया को बताया उन के वित्त मंत्री रहते अपना प्रगतिशील आर्थिक एजेंडा लागू करने से उन्हें रोका जा रहा था । उन्हें हालांकि उप प्रधानमंत्री पद से नहीं हटाया गया था मगर इंदिरा की चाल से संदेश आई नहीं और उन इस्तीफा दे दिया और इंदिरा तथा अक्सर की चाल सफल हो गई । कुछ ही दिन के भीतर इंदिरा गांधी ने और भी सनसनीखेज चाल चलते हुए राष्ट्रपति के अध्यादेश के जरिए प्रधानमंत्री की निजी कार्यवाही के रूप में देश के सबसे बडे चौदह व्यापारिक बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया । सरकार के नजरिए से ये बैंक सिर्फ अमीरों के लिए काम कर रहे थे और गरीबों को कर्ज नहीं देते थे । भारत माता नहीं, इसका दिल आपने वंचित बच्चों के लिए उनके आंसू होता था । आकाशवाणी पर घोषणा की मैंने शिकायत की । मेरे पास जूते नहीं थे, जब मैं ऐसे किसी से मिली जिसके पास पाओ नहीं थे । व्यापारिक समुदाय उत्तराधिकार पाए । राजकुमार और अन्यों ने राष्ट्रीयकरण की निंदा करते हुए कहा कि भारत ने इंदिरा सामने बाद राज्य स्थापित करना चाह रही थी । उन्होंने अपनी सफाई कुछ इस प्रकार दी । बैंक राष्ट्रीयकरण तो सामने वाले को रोकने के लिए जरूरी था । व्यापारिक समुदाय को ये समझ में नहीं आता । इसका कोई विकल्प नहीं है । धुर दक्षिणपंथी नीतियों कि भारत में कतई गुंजाइश नहीं थी । देश का समूचा रुझान मध्य वामपंथी हैं । बैंक राष्ट्रीयकरण का मकसद गरीबों के दिल को जीतना और ऍम तथा विपक्ष को दूर बिठाए रखना था । ये तो साहसी सोचा समझा और रणनीतिक राजनीतिक डाउट था जिसका मकसद राजनीति के केंद्र में स्थापित होना था । खाला के भारत के उदार अर्थव्यवस्था बनने की राह बंद हो गई थी । बोरी मल्होत्रा कहते हैं बढकर देखने पर ये साफ दिखता है । उनके अनेक आर्थिक निर्णय गलत थे । बैंक राष्ट्रीयकरण से दरअसल सिंडिकेट के मंसूबों पर जबरदस्त चोट पडी थी । मगर वृद्धि में तेजी लाने के समीचीन उपायों के अभाव में जैसा की कुछ ने डर जताया भी था, ये और अधिक लोकलुभावन नीतियों के गर्त में ले जाएगा । वहाँ लिखते हैं, बैंक राष्ट्रीयकरण दरअसल नीति के रूप में अक्सर को इसलिए पसंद आया उन के समाजवाद की बुनियाद नैतिकता की । हालांकि इंदिरा के लिए उपाय कांग्रेस के पुराने नेताओं के मुकाबले अपने को भिन्न दिखाने का जरिया मात्र था । पत्रकार स्वामिनाथन अय्यर बताते हैं, जो उन्नीस सौ उनहत्तर से पहले बैंकों पर दरअसल बडे उद्योगों का रास्ता और इंदिरा गांधी ने उन का राष्ट्रीयकरण उन पर राजनेताओं की था जमाने के लिए किया । उनका मकसद अगर गरीबों की मदद कर रहा था तो वे उन्हें आसानी से गरीबों को कर्ज देने का आदेश दे सकती थी । उसके बजाय बैंकों को सरकार के तहत करने का उनका मकसद विपक्ष का दिवाला निकालना और स्वतंत्र पार्टी को पैसे की आमद रोकना था, जो के बाद से मुख्य विपक्षी दल था और जिसके आका उद्योगपति और महाराजा लोग थे । इसका नतीजा यह रहा स्वतंत्र पार्टी की कमर टूट गई और उद्योगपति उनके कदम चूमने लगे । हालांकि गरीबी तो से लेकर उन्नीस सौ तक रत्ती भर भी दूर नहीं हुई । इंदिरा की बैंक राष्ट्रीयकरण जैसी गरीबी हटाओ, नीतियों की झूठी मंशा और परिणाम की पोल अपने आप खुल जाती है । धोखाधडी हो अथवा नहीं, मगर बैंक राष्ट्रीयकरण का मुख्य उद्देश्य सिंडिकेट के पांव बांध देना था । इसे कुछ लोगों ने धोबीपाट जैसा असरदार बताया । नीति के रूप में बैंक राष्ट्रीयकरण के पक्ष में उनकी दिलचस्पी भले न रही हो, मगर इस साल से जानता उनके पीछे जी जान से एकजुट हो गई । चांदी काट के मन में यदि अब भी उन्हें बर्खास्त करने के मंसूबे रहे हो तो इंदिरा गांधी के चारों और जबरदस्त सकारात्मक जनसमर्थन का सुरक्षा कवच बन चुका था । नटवर सिंह याद करते हैं, बैंक राष्ट्रीयकरण भारत सरकार के सबसे गुप्त रहे उपायों में शामिल है । कुछ जवाब चार पांच लोगों के अलावा इस की किसी को भनक भी नहीं थी । उसी के कारण उनके विरोधियों पर यह गाज की तरह गिरा । अचानक आई इस आफत से वो विस्मित रह गए । उन दिनों में सचिवालय सुराग तक नहीं लगने देते थे । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा दो हजार सोलह के नवंबर वहाँ में विमुद्रीकरण की घोषणा से भी देश ऐसे ही चकित रह गया और उसका राजनीतिक फायदा भी वैसा ही हुआ । हालांकि इसकी अर्थव्यवस्था पर पडे प्रभावों पर मतभेद हैं । केंद्र मल्होत्रा दिल्ली की गलियों में बैंक राष्ट्रीयकरण की खुशी मना रही भीड के बीच उसके परिणाम की खबर करने गए थे । मल्होत्रा ने गलियों में खुशी से नाच रहे रिक्शावालों और अन्य गरीबों से पूछा ऐसा अब आपको भी बैंक के अंदर गए हो । उनका जवाब था, नहीं, हम तो नहीं है । मल्होत्रा का अगला सवाल था क्या आप आगे कभी बैंक के भीतर जाएंगे? उनका उत्तर था नहीं और उत्तरा ने पडताल करनी चाहिए । फिर आप खुशी से पागल को हो रहे हैं । चलाई हमारी समझ में क्यों नहीं आता? आखिरकार अब जाकर ही सही, गरीबों के लिए कुछ किया है और अमीरों को सबक सिखाया गया है । जनता की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जनता के प्यार के मचान पर चढकर सिंडिकेट की कब्र खोद डाली । पुराने नेताओं को चिडचिडे रूढिवादी बूढों के रूप में शैतान की तरह पेश किया गया जिन्हें नए भारत की हिलोरे मारती ऊर्जा और नए समाजवादी गरीब परस्त आंदोलन का आभाष ही नहीं था । सडकों पर लोग को लसत थे और इंदिरा गांधी की तेज तर्रार युवा छवि जनता के मन में बस गई थी । उनकी जीत में सोने पर सुहागा साबित हुआ । इंदिरा गांधी के उम्मीदवार बीवी गिरी कर राष्ट्रपति के चुनाव में विजयी घोषित होना मुकाबला बेहद खडा था । इंदिरा इस चुनौती से भी शाम चेहरे पर हास्यपूर्ण भाव के साथ निफ्टी परिणामों की घोषणा की । तारीख से पहली शाम को वे पुपुल जयकर को आमलेट खाते और बीच ओवन का संगीत सुनते मिलेगी । वो पल घबराने की कतई जरूरत नहीं है । ये मुकाबला कडा है अगर मैं इसके लिए तैयार हूँ । गिरि सिंडिकेट के उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी को हराकर चौबीस अगस्त उन्नीस सौ उनहत्तर को राष्ट्रपति बन गए । गिरी की जीत की घोषणा होते ही कांग्रेस के भीतरी संकट में उफान आ गया । इंदिरा गांधी और सिंडिकेट के बीच टकराव का निर्णायक दौर पहुंचान कांग्रेस में विभाजन की नौबत आ गई थी । कामराज की जगह सिंडिकेट के दिग्गज शुद्ध वन हल्ली निजलिंगप्पा उन्नीस सौ में कांग्रेस अध्यक्ष बने थे । उन्होंने उन्नीस सौ उनहत्तर के अक्टूबर माह में इंदिरा गांधी को खुला खत लिखा जिसमें उन पर व्यक्ति पूजा चलाने का आरोप लगाया गया । साथ ही इस बात पर भी जोर दिया गया जिन मुट्ठीभर लोगों पर वो सत्ता पर कब्जा करने की कोशिश का आरोप लगा रही हैं उन्होंने ही उनको प्रधानमंत्री बनाया था । छठी भविष्यवाणी की तरह उन्होंने ये भी आरोप उन पर लगाया की अपने प्रति निजी वफादारी को आप कांग्रेस तथा देश के प्रति वफादारी का पैमाना बना रही हैं । शारदा प्रसाद लिखते हैं, आपके निजलिंगप्पा के सत्रह तो अच्छी थी लेकिन उनमें राष्ट्रीय नेता जैसी गहराई और बडप्पन नहीं था । तोड फोड की राजनीति में माहिर शक्तिशाली शब्दों से जूझ रहे थे इसलिए उनके पास भी नहीं थे । साल उन्नीस सौ करके एक नवंबर को कांग्रेस कार्यसमिति की दूर समानांतर बैठकें हुई । इनमें से बुजुर्गों द्वारा बुलाई गई बैठक कांग्रेस के जंतर मंतर मार्ग स्थित मुख्यालय में हुई और दूसरी बैठक प्रधानमंत्री के एक सफदरगंज मार्ग स्थित निवास पर हुई । बैठक के बाद इंदिरा गांधी ने कांग्रेस जनों को लिखा । महज व्यक्तित्व के अहम का टकराव नहीं है कि समाजवाद के लिए परिवर्तन के हमी लोगों और यथा इस प्रतिवादियों तथा लकीर के फकीर ओ के बीच का संघर्ष है । इस झटके से उत लेकिन और कमजोर पड चुके निजलिंगप्पा नहीं उन्हें कांग्रेस की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित कर दिया । इसकी घोषणा का मजबून कुछ इस प्रकार था । कांग्रेस को अफसोस के साथ मजबूरन इंदिरा गांधी को पार्टी की प्राथमिक सदस्यता से निलंबित करना पड रहा है । इंदिरा ने गुस्से में ईंट का जवाब पत्थर से देते हुए लिखा, मुट्ठी भर लोगों की ये दृष्टता है कि लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित जनता की नेता के विरुद्ध है अनुशासनात्मक कार्रवाई करें । हम उनके सामने हथियार डाल दी अथवा अपने संगठन से ऐसे अलोकतांत्रिक और फासीवादी लोगों को निकाल बाहर करके उसे साफ कर लें । राजनीतिक गहमागहमी के बीच आप सरकार वो हुआ तो टाला नहीं जा सकता था । महान टूट साकार हुई । कांग्रेस जनों से दोनों गुटों में से किसी को भी चुन लेने को कहा गया । संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस के कुल चार सौ सांसदों में से तीन सौ दस नहीं इंदिरा को अपना नेता मान लिया । इंदिरा ने नई कांग्रेस का नेतृत्व संभाल लिया और सिंडीकेट कांग्रेस बना ली । संसद के दोनों सदनों में वह अल्पमत में आ गई, लेकिन उनके सौभाग्य से सामने वादियों और क्षेत्रीय दलों ने उन्हें समर्थन देकर कांग्रेस द्वारा सदन में लाए गए अविश्वास प्रस्ताव को गिरा दिया । इंदिरा गांधी अब नई कांग्रेस की सर्वोच्च नेता थी । इनके सदस्य समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता संबंधी उनकी विचारधारा के अनुयायी थे । उन्होंने सिंडिकेट को बार बार पटक नहीं । हालांकि उनका लक्ष्य कांग्रेस को तोडना नहीं, बल्कि उस पर नियंत्रण हासिल करना था । मानव महात्मा जी कि ऊंचे आदर्शों वाली राजनीति को दफन करने के लिए ही गांधी के जन्म शताब्दी वर्ष में ही कांग्रेस में दो फाड हुआ । वहाँ डाली कहते हैं, कांग्रेस में विभाजन के साथ ही पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र भी चीज ना शुरू हो गया । उन्होंने पार्टी में खुद को सर्वोच्च नेता घोषित कर के आंतरिक लोकतंत्र खत्म कर दिया । उन्होंने जब पार्टी को तोडा तभी उन का असली रूप सामने आया । लेकिन कांग्रेस कान्त भी समझो तभी हो गया और फिर एकाधिकारवाद शुरू हुआ । पार्टी ने विभाजन से ही आगे जाकर वंशवादी शासन की नींव पडी । एक ही नेता के नेतृत्व वाली पार्टी में कांग्रेस के संस्थागत स्वरूप को खत्म करने की भी शुरुआत हुई । कार्यसमिती और संसदीय बोर्ड जैसे पार्टी के महत्वपूर्ण हम लोगों पर इंदिरा ने एकछत्र नियंत्रण जमा लिया । उनके बाकी जीवन काल गए । उनके नियंत्रण वाली कांग्रेस में पार्टी चुनाव कभी नहीं हो पाएगा । हर एक कांग्रेसी को इंदिरा के प्रति वफादारी का नया इम्तिहान देना होता है । धीरे धीरे उन सभी मुख्यमंत्रियों की भी छुट्टी कर दी गई जिन्होंने चंडीगढ के विरुद्ध उनका समर्थन नहीं किया था और उनकी जगह उनके द्वारा मनोनीत मुख्यमंत्री लेने लगे । उन्होंने छत्रपों की नई खेप को उभरने की इजाजत नहीं दी । कांग्रेस को तोडने की उनकी हरकत हो राजनीतिक गैंगस्टर का कारनामा बताया गया हूँ । एक ऐसे व्यक्तित्व का कारनामा इसके निजी प्रभुत्व को अब डरावना और खतरनाक माना जाने लगा । ये नेहरू की कांग्रेस का अंतर था । राजनीतिक सत्ता संबंधी इंदिरा की समझ नेहरू की समझ से बुनियादी रूप से अलग थी । नेहरू की मान्यता थी कि असली सत्ता ऐसी परिस्थिति को प्रोत्साहित करते हुए आती है, जहां सत्ता का भौंडा प्रदर्शन नहीं करना पडेगा । इंदिरा को बहुत अपनी ताकत दिखाकर अपने विरोधियों की नजरों में अपनी साख की कमी की भरपाई करनी पडती थी । उन्हें शायद ऐसा लगता था कि नेहरू की समझ गलत थी की सत्ता का प्रयोग भर ही काफी नहीं था, बल्कि सत्ता का उस तरह प्रयोग होते देखना भी जरूरी था । तभी उन्होंने अपने किसी मित्र से कहा था कि नेहरू अपने को चुनौती देने वालों के प्रति भी बेहद उदार थे और यदि उनके वर्ष में होता तो वे उन्हें बेहिचक दरवाजा दिखा देती है । वेज ऐसा करने की स्थिति में आई तो उन्होंने एक दम पैसा ही किया भी । उन्होंने क्वीन ऑफ ऑर्ट्स के प्रसिद्ध प्रतिशोध सिर कलम कर देने को बार बार आजमाया । सत्ता को समझ नहीं और सत्ता के प्रयोग की जब नौबत आई तो इंदिरा ने अपने बापू को मीलों पीछे छोड दिया । उन्होंने शारदा प्रसाद को कभी ऐसी कविता भेजी, इसका भाव उनके जीवन से मिलता जुलता था । मेरे प्रभु को जरूरत होती तो मैं उनके पास जाती । पूरी रास्ते सरपट दौडते हुए । लेकिन ये मामला राज्य से संबंधित है और महिला होने के नाते मुझे रुकना चाहिए । मैं बागीचे में घूमने, लघु और जमा करूँ मदर ऑफ वर्ल्ड की ले ली । मेरे पास योजना थी जिससे राज्य बच जाता है । लेकिन मेरे विचार तो लडकी के हैं । बुजुर्ग सियासत दान चटाई पर बैठते हैं और आधा दिन तक बहस में निकाल देते हैं । उनके पास सौ योजनाएं हैं, बनाई और रद्द की गई मेरा तरीका ही अकीला उपाय था । प्रिया श्रीमती गांधी कांग्रेस पार्टी तोडने का आपको मलाल भी हुआ क्या कांग्रेस ऐतिहासिक ताकत रही थी । ऐसा आंदोलन जिसके प्रति आपका परिवार समर्पित था । ऐसी पार्टी जिसके लिए आपके ज्यादा प्रताप पति ने भी पसीना बहाया था । इस दल के लिए आप की माता ने भी स्वेच्छा से कुर्बानी दी । उसके बावजूद आप जरा भी नहीं हिचकिचाएगी और आपने पार्टी के दो खाड कर दिए । आप के अस्तित्व पर जब संकट आया तो आपने पार्टी में आंतरिक लोकतंत्र की भी परवाह नहीं की । यदि आपने परिस्थिति की और लगन से हल करने और बातचीत तथा सलाह मशविरे के जरिए मुस्लिम को सुलझाने की कोशिश की होते हैं । शायद सिंडीकेट से आपका झगडा ऐसे निर्णायक बोर्ड पर नहीं पहुंचता । उसकी कितनी बडी कीमत चुकानी पडती है । लेकिन कांग्रेस को तोडे बिना शायद आप अपना अस्तित्व को बचा नहीं और अपना वर्चस्व बनाने में कामयाब हो पाती है । आपने कभी निजी राज के खतरों के बारे में सोचा? यहाँ कभी विराट अस्तित्व वाली कांग्रेस मैं एक व्यक्ति के चारों और सिमट कर रहे जाएगी । नहीं, ऐसी बातों से आप कभी विचलित नहीं हुई । आपने जो किया वैसा इसलिए क्या ॅ आपको नफरत हो गई थी और आपके पापु के अंतिम वर्षों में उन का जो हाल किया गया उस से भी आप दुखी थी । आपने ये पक्की धारणा बना ली थी कि आपके पिता की शराफत नहीं भी कमजोर कर दिया था । उनके आदर्शवादी स्वभाव ने उन्हें अपने विरोधियों पर कडी कार्यवाही करने के मामले में अक्षम कर दिया था । आपने इसी साक्षत्कार ने कहा था इसी अवधि में कुछ लोग मेरी कार्यों की तुलना मेरे पिता के मानकों से करने लगे । ऐसी तुलना मुझे नहीं सुहाती । अब कोई वॅार ऍम अपने पिता का प्रतिशोध लेने वाले के लिए कुछ भी असंभव नहीं । कुछ उसी भाव की स्थिति थी । कम से कम आरंभ में तो क्योंकि मुझे लगा कि उनकी दृष्टि है और राजनीति को सही सिद्ध करना चाहिए, लेकिन अपने पिता का प्रतिशोध लेने के फेर में नहीं । आपने उनके दल की अकाल मृत्यु का मार्ग तो नहीं प्रशस्त कर दिया? इंदिरा नहीं जब देश की बागडोर संभालने, उसके बाद उनके लिए वह मानो जैसे उनकी बहुत ही बन गई । सत्ता के लिए उन की कोशिश पवित्र कर्तव्य ऐसा करता है जिससे उनके परिवार और स्वतंत्रता के संघर्ष का मान पडता था । उनके बिना भारत भारत ही नहीं था । स्वतंत्रता संग्राम के काल से उनका कोई सूत्र ही नहीं था । नेहरू गांधी की विरासत भी नहीं थी । उनकी विजय भारत की जीत थी । उनकी पराजय भारत की हार थी । गरीब परस्त आंदोलनकारी रवैया अब सत्ता को हासिल करने का उपकरण बन गया था । हालिया राष्ट्र के बाद तेज तरार युवरानी को अब अपना ऊर्जावान समाजवादी एजेंडा नई नहीं ऊर्जावान हुई जनता की कांग्रेस के हिस्से के रूप में आगे बढाना था । बैंक राष्ट्रीयकरण के बाद इंदिरा गांधी की सरकार ने भारत के उत्तराधिकार प्राप्त हो राजे रजवाडों के लिए लागू विशेषाधिकार भी उन्हें सरकार से मिलने वाली मान राशि यानी प्रीविपर्स बंद करके समाप्त कर दिए । इसके लिए मैं संसद नहीं उन्नीस सौ सत्तर के सितंबर माह में बकायदा संविधान संशोधन विधेयक लेकर आई । अभी जाते वर्ग के विशेषाधिकारों के खिलाफ लडाई का इससे बेहतर उदाहरण क्या हो सकता था की सामंतवादी महाराजाओं के विरुद्ध मोर्चा खोला जायेंगे जिन्हें खजानों और जमीन जायदाद की विरासत मिली थी । इस कार्यवाही से भारत सरकार के खजाने को सालाना साठ लाख डॉलर से अधिक राशि की बचत हुई । उन्होंने कहा है लोगों को सबसे ज्यादा पर विपक्ष नहीं बल्कि बाकी सुविधाएं बडी लगती थी । पूर्व राजघराने मुफ्त की बिजली और पानी का लुत्फ उठाते थे । गरीब से गरीब आदमी को भी पानी का बिल चुकाना पडता था । अगर राज्य महाराजाओं को नहीं यही सब विशेषाधिकार आम आदमी की आपस में खटकते थे । ये विधेयक जब राज्यसभा में गिर गया तो इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश जारी करवाकर इसे कानूनी जामा पहना दिया । लेकिन रजवाडों ने इसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देकर वहाँ से इसे रद्द करवा लिया । सर्वोच्च अदालत इससे पहले राष्ट्रीयकृत बैंकों के लिए मुआवजा संबंधी प्रावधानों को भी ठुकरा चुकी थी । हालांकि बैंकों तथा अन्य उद्योगों का राष्ट्रीयकरण करने संबंधी संसद के अधिकार पर उस ने मुहर लगाई थी । ऐसे में साफ हो गया सुधारवादी सरकार को जनता से किए गए वायदे पूरे करने तथा लोकतांत्रिक पद्धति से सामाजिक एवं आर्थिक परिवर्तन लाने संबंधी एजेंडा लागू करने के लिए संविधान के संशोधन के लायक व्यापक बहुमत चाहिए । इसलिए अक्सर की सलाह पर उन्होंने उन्नीस सौ इकहत्तर में मध्यावधि चुनाव करवा डाले । इंदिरा बैंकों के राष्ट्रीयकरण, प्रीविपर्स की जडों पर आघात और कांग्रेस में बंटवारे की पृष्ठभूमि में लोकप्रिय नारे गरीबी हटाओ के साथ उन्नीस सौ के मध्यावधि चुनाव मैदान में उतरी । विरोधियों के अपने विरुद्ध निजी और निम्न स्तरीय इंदिरा हटाओ जैसे नारे के साथ प्रचार के उलट वो नैतिकता का उच्च मानदंड स्थापित करने का संदेश देती हुई प्रचार में जुट गई । मोनी मल्होत्रा कहते हैं, गरीबी हटाओ दरअसल हक्सर के दिमाग में उपजा था और ये दूसरा सफल दांव था । रायबरेली के निवासी याद करते हैं कि चुनावी सभाओं में आपको कैसे विपक्ष के महागठबंधन इसमें शामिल थे । जनसंघ, स्वतंत्र पार्टी, कांग्रेस संगठन, समाजवादी और अन्य का माहौल उडा दी थी, जो उन के गरीबी हटाओ नारे के जवाब में इंदिरा हटाओ नारा गढकर उनके खिलाफ प्रचार कर रहा था । अपनी सभाओं में इंदिरा करती थी । वो कहते हैं, इंदिरा हटाओ हूँ । मैं कहती हूं गरीबी हटाओ । न्यूजवीक पत्रिका के संवाददाता ने जब उनसे पूछा कि चुनाव के प्रमुख मुद्दे क्या है, उन्होंने चमकती आंखों से जवाब दिया, मैं हूँ मुद्दा । जब से भरी नौसीखिया राजनेता नहीं मिला चुकी थी उसकी जगह खडी थी दोषी वक्ता प्रतिक्रिया के विरुद्ध नायके समाजसुधार चुनाव प्रचार के दौरान बयालीस दिन में उन्होंने छत्तीस हजार किलोमीटर से ज्यादा फाॅर्स करके तीन सौ से ज्यादा चुनाव सभाओं में भाषण दिए और उन्हें दो करोड से अधिक लोगों ने सुना अथवा देखा । उनकी दूर खुश ऊर्जा का जबरदस्त पुरस्कार मिला । नहीं कांग्रेस आर्को उन्नीस सौ में लोकसभा की तीन सौ बावन सीटों पर जबरदस्त जीत मिले । इसके बूते उसे सदन में दो तिहाई बहुमत मिल गया । पिछले के चुनावों में हुई हानि की भरपाई हो गई । इंदिरा गांधी ने सत्ता के शिखर पर नई लकीर खींचती । उन्हें में अठारह मार्च को तीसरी बार प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई गई । उन्नीस सौ इकहत्तर की चुनावी जीत के पैमाने कांग्रेस के रेडिकल हिस्से को ये भरोसा दिलाया कि जनता ने उनके समाजवादी एजेंडे के पक्ष में बहुमत दिया था । प्रगतिशील शक्तियों की चीज पुरानी सामंतवादी व्यवस्था का ध्वस्त हो, ना ऐसे कानून बनाना जिनसे ये सामाजिक और आर्थिक परिवर्तन मुकम्मल होगा । इंदिरा की क्रांति के यही सब घोषित मकसद थे । और वह अवधि शुरू हुई जब इंदिरा गांधी ने फ्रेंड्स के शब्दों में लाल देखना शुरू कर दिया । लाल रंग जल्द ही उनकी भी दृष्टि और विचारों पर हावी हो जाने वाला था क्योंकि शुद्ध शुरू हो गया था और उनके दिमाग ने रक्तिम लहरें हिलोरे लेने लगी थी । क्रांतिकारी नेता की लोकप्रियता में जबरदस्त बढोतरी होने वाली थी । उनके गरीब परस्त सुधारवादी व्यक्तित्व में युद्ध की नायिका का तेजपुंज भी छोडने वाला था । भारतीय सेना ने के दिसंबर में निर्णय क्षेत्र के बाद पूर्वी पाकिस्तान को मुक्ति दिला दी । इससे बांग्लादेश का जन्म हुआ और इंदिरा गांधी युद्ध में निर्णायक जीत हासिल कर पाने वाली भारत की पहली प्रधानमंत्री बन गई । बांग्लादेश युद्ध के बाद तो उनकी लोकप्रियता कुलांचे भरने लगी । प्रिया श्रीमती गांधी बांग्लादेशी शुद्ध क्या आपके लिए इतिहास से बदला लेने का मौका था? क्या ये पाकिस्तान से हिसाब बराबर करने की कोशिश थी? संयुक्त राज्य अमेरिका से पाकिस्तान के समर्थन का बदला था तो राष्ट्रवाद के खोखलेपन का पर्दाफाश करने का अवसर था । इसका गांधी और आपके पिता ने डटकर विरोध किया । इस उन्नीस सौ इकहत्तर के युद्ध ने आपके पिता द्वारा उन्नीस सौ बासठ में भुगते अपमान को धो दिया । नेहरू को दुनिया में जबरदस्त सम्मानित भारत की विरासत मिली थी महात्मा गांधी का भारत लेकिन आपने ऐसा भारत पाया जो चीन के हाथों से अपनी था । ऐसा भारत जो पाकिस्तान के रहमोकरम पर निर्भर लगता था । ऐसा भारत जिसने घमासान लडाई के बाद जीते गए हाजीपीर दर्रे को ताशकंद वार्ता में अपने हाथ से झटक दिया था । भारत की महानता खुद के पुनर्स्थापित होने की बात हो रही थी । कल्पना करें तो पूर्वी पाकिस्तान के बंगाली क्या आपको इसलिए प्रिया थे? क्या आपका बंगाल से लंबा जुडाव रहा था? टैगोर का एथना चलो रहे आपके प्रिय गीतों में शामिल था । आप बंगाल में स्तर शांति निकेतन में पडी थी । यही वो जगह थी जहां आपकी आत्मा स्पोर्ट से भी अधिक खुलेपन के साथ परवान चढी और आप रविंद्रनाथ टैगोर को पूछती थी । बांग्लादेश शुद्ध की पूर्व संध्या पर आपने कलकत्ता में हुई आमसभा में कहा आमी बंगला बूझते परी बोलते बारी ना मैं बंगाली भाषा समझ लेती हूँ, बोल नहीं सकती । इस तरह बंगलादेशियों के मन में आपके लिए जो खास भाव है उसी तरह शायद आपके मन में भी बंगाल के लिए विशेष पढ सकती । बंगलादेश शुद्ध ने वैश्विक मंच पर भी आपको खास दर्जा दिला दिया था । आपके पिता ने वैश्विक नेता बनने के लिए निर्गुट आंदोलन का नेतृत्व किया था । अब आपने भी दुनिया को जता दिया था कि नेहरू की बेटी ने भी सचमुच अपनी जगह दुनिया में बना ली थी । उपमहाद्वीप का भूगोल बदल कर और पाकिस्तान को तोडकर आप पाकिस्तान और अमेरिका दोनों को ही कडा संदेश दे रही थी । उन्नीस सौ इकहत्तर के युद्ध के बाद आप इंदिरा गांधी भारत की सबसे अधिक सत्तावन प्रधानमंत्री थी जो अपने देश हित में और अपने नैतिक मूल्यों के अनुसार बेहद लडाकू अंदाज में डेट जाती थी । बाहरी अमेरिका के सामने छाती तानकर प्रतिरोधी अंदाज में आप जैसे डेटिंग उसमें आपको इस समय भारत की सुपर वो मैं यानी जाबाज महिला के रूप में स्थापित कर दिया । इसके बाद दुनिया के किसी भी महाशक्ति ने आपसे अथवा भारत से पंगा लेने की जरूरत नहीं । करीब एक हजार मील लंबी भारतीय सीमा से विभाजन पश्चिमी पूर्वी क्षेत्रों में बता पाकिस्तान अपने जन्मकाल से ही शीजोफ्रेनिया था । वहाँ की सरकार पर पश्चिमी पाकिस्तान के पूरे क्षेत्र के पंजाबियों और पठानों का रास्ता है । उनके मुकाबले सांवले सलोने, पूरब के बांग्लाभाषियों, पाकिस्तान के प्रशासन अथवा पाकिस्तानी प्रतिष्ठान में कोई जगह नहीं थी । पूरब के बंगालियों के लिए उनकी बंगाली भाषा उनकी अस्मिता से जुडी थी और उर्दू को पाकिस्तान की राजभाषा बनाना उन्हें कतई राज नहीं आया । उर्दू विरोधी दंगों में उम्मीद सौ बावन में मारे गए छात्रों का बंगलादेश में आज भी शहीदों जैसा सम्मान किया जाता है । पाकिस्तान के पहले आम चुनाव में उन्नीस सौ सत्तर में छह मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग को जबरदस्त जीत हासिल हुई । ऐसी जी जिसके बूते उसके पाई पीने वाले नेता शेख मुझे पाकिस्तान के प्रधानमंत्री पद के हकदार हो गए थे जिन्हें इंदिरा ने भावुक गर्मजोशी से लबरेज पितृतुल्य व्यक्तित्व कहा था । लेकिन पश्चिमी पाकिस्तान में सबसे बडे दल के रूप में आई पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के नेता जाॅन और फौजी प्रशासक जनरल यहाँ या खान ने अवामी लीग की विजय को स्वीकार करने से इंकार कर दिया क्योंकि उन्हें शक था कि मुझे पाकिस्तान को तोडकर अलग हो जाएंगे । और तो दरअसल मुझ को अपना राजनीतिक दुश्मन समझते थे और उन्हें पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनाए जाने के बाद उनके गले उतरनी नामुमकिन थी । यहाँ खान ने मुझे को सत्ता से बाहर रखने के लिए पाकिस्तान की नेशनल असेंबली को अनिश्चितकाल के लिए स्थगित कर दिया । यहाँ क्या बताते हैं कि अपने अफसरों से उन्होंने कहा इन बैंको लोगों से कोई समझौता नहीं हो सकता जब तक उनकी अकेले ठीक से और बडे पैमाने पर ठिकाने ना लगा दी जाए । नेशनल असेंबली में अवामी लीग को उसका हक देने से मेहरूम रखने के बाद जब साफ हो गई तो पूर्वी पाकिस्तान नहीं, जबरदस्त नागरिक अवज्ञा आंदोलन शुरू हो गया । यहाँ या खान और उनके साथ ही इधर तो आवामी लीग और शेख मुजीब से बातचीत कर रहे थे और उधर पश्चिमी पाकिस्तान द्वारा पूरा सेना तैनात की जाने लगे । पूर्वी पाकिस्तान में जब जबरदस्त प्रदर्शन होने लगे तो यहाँ याने उन्हें दबाने के लिए नेशनल सकता और कठोरताओं से ताकत का प्रयोग किया और पाकिस्तानी सेना के हाथों जनसंहार, बलात्कार, लूटपाट और आगजनी के दौर पर दौर उन पर थोपे गए । हजारों मासूम प्रोफेसर, बुद्धिजीवी और विद्यार्थियों को मौत के घाट उतार दिया गया । स्वतंत्र शोधकर्ताओं के अनुसार तीन लाख लोगों की हत्या की गई और कम से कम चार लाख औरतों से बडा किया गया । बच्चों की आंखें निकाल दी गई और उनके अंग काट काट कर हवा में उछाले गए और क्योंकि छातियां खास किस्म के चाकुओं से तराशकर अलग कर दी गई । यहाँ या ने कहा, उनमें से तीस लाख को मौत के घाट उतार हो और फिर बाकी सब हमारे गुलाम हो जाएंगे तथा कथित लोकतांत्रिक भुट्टों ने भी प्रत्यक्षतः है इस जनसंहार को मंजूरी दी थी जब उन्होंने सेना को ये कहते हुए धन्यवाद दिया की उन्होंने पाकिस्तान को बचा लिया । मुझे को पश्चिमी पाकिस्तान की जेल में डाल दिया गया । लुटे पिटे और दहशत जगह पूर्वी पाकिस्तान के शरणार्थियों ने बचने के लिए भारत का रुख कर लिया और संकट के सबसे गहरे वक्त में दस लाख बंगाली शरणार्थी भारत आए । इसके कारण भारत के संसाधनों पर दबाव पड गया । असल में अमेरिका नहीं उन अधिकारियों की आवाज दबा दी जिन्होंने इस जनसंहार के बारे में बोलने की कोशिश की । इस्लामाबाद को अगर रूप से हथियार दिए गए और चीन को भी भारत की सीमा पर अपनी सेना तैनात करने को प्रोत्साहित किया गया । गैरी जे बॉस नहीं । अपनी सेहरा देने वाली किताब ब्लड टेलीग्राम में लिखा है कि अमेरिका की कूटनीति के लिए ये बेहद लज्जाजनक अच्छा था क्योंकि वाशिंगटन में इतने बडे जनसंहार की तरफ से जान बूझ कर आंखें मूंदे रखें । जिस समस्या को पाकिस्तान की आंतरिक समस्या बताया गया तो भारत के लिए भी आंतरिक समस्या बन गई थी । इंदिरा कहने वाली थी इंदिरा गांधी कुछ समय के लिए एकदम निष्क्रिय थी और जयप्रकाश नारायण जैसे आंदोलनकारियों ने पूर्वी पाकिस्तान में जनसंहार पर वैश्विक सम्मेलन का आयोजन किया था । उन्होंने गुस्से में कहा, इंडिया को क्या ये मुगालता है कि वो मेरी अनदेखी कर सकती हैं? मैंने उसे फ्रॉक में बच्ची के रूप में भी देखा है । यप्रकाश नहीं । अधीर होते हुए इंदिरा से कहा, पाकिस्तान पर फौरन हमला होना चाहिए । लेकिन इंदिरा गांधी सही समय का इंतजार करती रही । उन्होंने उन्नीस सौ सत्तर की मई के अंत में पश्चिम बंगाल आसान और त्रिपुरा जाता है । वहाँ शरणार्थी शिविरों का जायजा लिया । उनके साथ गए सीएन धर लिखते हैं, हमने जो देखा उसे बयान करना असंभव है । उनकी शारीरिक और मानसिक स्थिति, उनके भर यात्रा, चेहरे और निजी त्रासदियों ने हमारी नैतिक संवेदना को छोड कर रख दिया । शरणार्थियों के झुंड के झुंड उनसे बात करने के लिए उन के इंतजार में थे । प्रधानमंत्री मानवीय त्रासदी की इस पराकाष्ठा को देखकर इतनी भावुक हो गई, उनका गला हीरोज गया । बांग्लादेश सेना के अनेक रेजीमेंट भी जिन्होंने पश्चिमी पाकिस्तान के खिलाफ विद्रोह किया था, शरणार्थियों में शामिल थी । आगे जाकर वही बंगलादेश को मुक्त कराने के लिए बनी छापा बार सेना मुक्ति वाहिनी की शक्ल लेने वाली थी जिन्हें भारतीय सेना से सलाह और प्रशिक्षण दोनों मिले । इंदिरा ने कहा, दुनिया को ये पता लगना चाहिए की यहाँ क्या हो रहा है । हम पाकिस्तान को ये जनसंहार जारी नहीं रखने दे सकते । इंदिरा ने खुद मोर्चा संभाला । वो अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को पाकिस्तान द्वारा अपने पूर्वी हिस्से में चलाए जा रहे आतंकराज के बारे में चेताती रही । उन्होंने कहा कि वह दुनिया की चेतना को झकझोर देंगे और पूर्वी पाकिस्तानियों द्वारा झेली जा रही है । परवत्ता को दुनिया को बताएंगे । पाकिस्तान को रोकने के लिए कभी कुछ भी क्यों नहीं किया जा रहा था? युद्ध से पहले की गई राजनयिक तैयारियाँ अत्यंत चौकस और सुव्यवस्थित थी । अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हेनरी किसिंजर सात जुलाई उम्मीद और हो भारत आए । उनके जाने के बाद जल्द ही भारत को पता चला । किसिंजर चीन के रास्ते में दिल्ली भी इसलिए रुके थे इस संबंध सुधारवाने का नाटक कर सके । ये सहयोग ही है कि किसिंजर जब दिल्ली में थे, भारत सरकार ने उनके लिए चीन के लजीज खाने की दावत आयोजित की थी । व्यंजनों की उपयुक्तता के बारे में बाद में अक्सर नहीं । ये टिप्पणी की थी दिल्ली से किसिंजर पाकिस्तान के लिए रवाना हुए । यहाँ से यहाँ खान ने उन्हें पाकिस्तानी सेना के हवाई जहाज में बीजिंग के लिए रवाना किया । कुछ दिनों के भीतर दो दशक से अधिक चले चीन अमेरिकी संबंध विच्छेद के बाद निक्सन नहीं चीन के दौरे की घोषणा की और उन्होंने फरवरी उन्नीस सौ को वहाँ का दौरा किया । भारत ने अपने संक्षिप्त प्रवास के दौरान किसिंजर ने इशारा किया था कि पाकिस्तान से यह युद्ध हुआ तो भारत को चीन के मित्र पाकिस्तान के विरुद्ध किसी भूमिका की अपेक्षा अमेरिका से नहीं करनी चाहिए । सच तो यह है कनेक्शन के चीन दौरे की अधिकतर तैयारी को यहाँ खान ने ही पाकिस्तान के मित्र चाहूँ लाइसेंस गुप्त वार्ता के जरिए अंजाम लिया था । भारत के विरुद्ध अमेरिका ने पाकिस्तान की और गहरा झुकाव दिखाया । भारत को भी मित्रों की तलाश थी । इंदिरा और हक्सर नहीं लिया । ऍफ द्वारा तीन साल पूर्व की गई मित्रता संधि के न्यौते पर पांच चीजें शुरू की । इसमें दोनों देशों के लिए प्रतिबद्धता का अनुच्छेद चलवाया के एक दूसरे के विरुद्ध वो किसी भी तीसरे पक्ष को उस स्थिति में कोई भी सहायता नहीं देंगे यदि वह दूसरे पक्ष के साथ किसी लडाई झगडे में लिप्त होगा । इंदिरा के राजनाथ डीपी धरने जो तब सोवियत संघ में भारत के राजदूत थे । मॉस्को में इसकी जमीन तैयार की भारत सोवियत शांति, मैत्री और सहयोग समझौते पर दिल्ली में नौ अगस्त उन्नीस सौ अठहत्तर को दस हुए । इसके लिए सोवियत विदेश मंत्री आंद्री ग्रोमिको भारत आए थे कि समझौता होने के बाद इंदिरा गांधी अक्सर और अन्य वफादारों के साथ पहले सोवियत संघ गई ताकि सोवियत नेताओं ब्लॅक और करुँगी । इनसे बात करके की निश्चित कर लिया जाए यदि सैन्य संघर्ष होता है और सोवियत संघ से मदद नहीं जाए । उसके बाद देख यूरोप और अमेरिका के तीस दिन लंबे दौरे पर गई और उन्होंने लंदन तथा वाशिंगटन में बुद्धिजीवियों और मीडिया की सहानुभूति लेने के लिए अनेक सभाओं को संबोधित किया । बीबीसी को दिए इंटरव्यू में उनसे पूछा गया, बंगलादेश के मामले में भारत को और अधिक धीरज क्यों नहीं रखना चाहिए? आंखों से अंगारे, बरसाते हुए जल करने, इंदिरा में मोतीलाल जैसी दृढता देखिए । इंदिरा ने चोट कि हिटलर ने जब हमले किए तो आप क्यों नहीं कहा कि आओ बर्दाश्त करें, चुप रहे, जर्मनी से शांति बनाए रखें और यहूदियों को मरने दे वॅार में ये जताने से नहीं चूकी । मुझे नहीं लगता है एक पडोसी देश के हालात के बारे में हम अपनी आंखे बंद कर सकते हैं । हमें पाकिस्तान के सैनिक शासन से खतरा है अप्रत्यक्ष हमले की स्थिति बनी हुई है । पाकिस्तान जैसे पहले था, पैसे दोबारा कभी नहीं रह पाएगा । यहाँ खान ने मानो मदहोशी में दावा किया, बहुत मुझे नहीं करा सकती है । इंदिरा ने जवाबी हमला किया । मुझे उस टिप्पणी की परवाह नहीं है । इससे उस व्यक्ति की मानसिकता जाहिर होती है । अमेरिका के रास्ते में मौनी मल्होत्रा खुद को उनके द्वारा रूढिवादी निक्सन के बारे में दी गई चेतावनी याद करते हैं, जिसके प्रशासन की प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों से ही अदावत हो गई थी । उस समय मेरे बाल लंबे थे और मुझे याद है उन्होंने मुझसे कहा था कि मौनी मुझे लगता है कि तुम्हारे बाल कटवा लेने में ही खैरियत है । मैंने सुना है कनेक्शन लंबे बालों वाले युवाओं को ना पसंद करता है । बाद में पता चला कि इंदिरा और राष्ट्रपति निक्सन दोनों ही एक दूसरे को ना पसंद करते थे । वो आखिरी उपाय के रूप में अमेरिकी राष्ट्रपति से मिलने के लिए गई थी ताकि अमेरिका यहाँ या खान पर कुछ दबाव डाले । लेकिन दिल्ली से गई जिद्दी महिला और कैलिफोरनिया के रिपब्लिकन पार्टी का निर्दयी नेता इसके बाद भारत के लिए समय ही नहीं था । दोनों आरंभ से ही एक दूसरे को पसंद नहीं आए । बास के अनुसार निक्सन ने भारतीयों को एकदम घृणास्पद, धोखेबाज और सोवियत समर्थक पाया और इंदिरा को भद्दे तरीके से बूढी कुतिया बताया और कहा, मेरी समझ में नहीं आ रहा उस बेकार देश में आखिर क्यों कोई बच्चे पैदा करेगा? लेकिन वो करते हैं और यहाँ तक किया गया भारतीय ऐसे हरामी है । उन्हें एक व्यापक अकाल की जरूरत है । वो सब था और अमेरिकी पत्रकार ऍम हर्ष ने लिखा, उसने इंदिरा से पैंतालीस मिनट तक इंतजार करवाया । उसने किसिंजर को उद्धृत किया हूँ । इंदिरा ने बडी नफासत सेलेक्शन के साथ थोडी पिछडे हुए विद्यार्थी की प्रशंसा करने वाले प्रोफेसर की डर है व्यवहार किया । फॅमिली बर्दाश्त नहीं कर पाया और उनके बारे में उसकी टिप्पणियां हमेशा छापने लायक नहीं होती थी । कैसा? किसिंजर ने बाद में लिखा दोनों नेताओं के बीच जबरदस्त तू तू मैंने हो जाने के बाद निक्सन ने किसिंजर से कहा, हम बूढी चुडैल पर कुछ ज्यादा ही मेहरबान हो गए । वो कहते हैं, इंदिरा और निक्सन के बीच शिखर वार्ता एकदम मन की भडास निकालने वाला वाकया था ही । मल्होत्रा कहते हैं वार्ता बेहद बुरी हुई है । किसिंजर दरअसल यहाँ से उपग्रह था और भारत से उसका रिश्ता हमेशा छत्तीस का रहा लेकिन को उनसे यानी इंदिरा से घना थे और उनके प्रति बेहद कट था । ऐसी भी खबरें आई ऍम नहीं । किसेन्जर से कहा था कि वह बांग्लादेशी शरणार्थियों को भारत आने ही क्यों दे रही है । उन्हें तो सीमा पर ही गोली मार देनी चाहिए । वैसी मानसिकता से मुकाबला कर रही थी । मल्होत्रा अपनी आंखों के सामने घटी घटना याद करते हैं । इससे साफ साफ पता चलता है इंदिरा विपरीत परिस्थितियों से कैसे भी पडती थी । इलेक्शन ने उनके सम्मान में जिस राजकीय भोज का आयोजन किया था, उसमें वो अर्ध अंडाकार मेज के सिरे पर राष्ट्रपति के साथ बैठी थी । पूछ के दौरान उन्होंने अपनी आंखें दस के बंद कर रखी थी और वो एक शब्द भी नहीं बोली । वहाँ के बंद किए बैठी रही और निक्सन की घबराहट बढती गई । यदि कोई उनसे सवाल करदाम उनका जवाब नपा तुला होता हूँ । सारे मेहमानों के बीच में वो निश्चल बैठी रही और औपचारिक दावत के दौरान पूरे समय उन्होंने अपनी आंखे कसकर बांध रखी । ये बेहतरीन मगर गहरी चोट करने वाला इंदिरा का हजार था । बाद में मल्होत्रा ने जब उनसे पूछा कि उन्होंने वैसा क्यों किया तो उन्होंने उडता हुआ सा जवाब दिया । उनके सिर में भीषण दर्द हो रहा था और उतरा कहते हैं जाहिर है कि सिर दर्द की बात सरासर झूठी है । वे तो नाटकीयता में प्रवीण थी । संयुक्त राज्य द्वारा अपमानित इंदिरा गांधी ने निक्सन को बडी सफाई से सार्वजनिक तौर पर जलील कर दिया था । युद्ध की आकस्मिकता ने हालांकि खाने की उनकी सुरूचिपूर्ण शैली के शौक में कोई दखल नहीं दी । संयुक्त राज्य से वापसी के समय ब्रसल्स में रुकने के दौरान और उतना याद करते हैं ये किसी राष्ट्र में मैन्यू पडने के लिए । उन्होंने सजीले लाॅस यानी चश्मे को बहुत ही चुटीले अंदाज में निकाल कर पढना अपने सिर पर मंडराते । युद्ध के बादलों के बावजूद न्यूयॉर्क में उन्होंने न्यूयॉर्क, फिल हार्मोनिक और सिस्टर कि संगीत संध्या को सुनने का समय निकाल ही लिया । लंदन में रॉयल पहले में इगोर स्टाॅक्स की का पहले नृत्य राइट्स ऑफ स्प्रिंग देखा जिसमें महान सो भी अपना ऍफ नृत्य कर रहे थे और जियाना में बीथोवन के फिर डेलिया का आनंद लिया । यूरोप का आनंद दरअसल उन्होंने जवानी के दिनों में खूब उठाया था । वो यहाँ विश्व युद्ध से बिगडे हालात के दौरान ही रही थी । उसी समय उनका साबका नई राजनीतिक विचारधाराओं और कलाओं से पडा था । पहले नेहरू के साथ और बाद में फिर उसकी संगत में यूरोप और अमेरिका की अभी जाती संस्कृति उनके भारतीय और पश्चिमी दोनों ही संस्कृतियों की प्राचीन परंपराओं की उत्तराधिकारी की आत्म छवि में शामिल थी । उनके हर एक कदम को घूरते मीडिया की निगाहों से उस दौरान क्योंकि वह मुक्ति । इसलिए सत्तर के दशक के आरंभ में कोई भारतीय प्रधानमंत्री वहाँ कुछ मौज मस्ती भी कर सकता था । पहले ही युद्ध सामने दिख रहा हूँ और सीमाओं पर कत्लेआम चल रहा हूँ । पहले और पाकिस्तान से दुश्मनी, रणनीति, कूटनीति और बीथोवन ये सभी मानव इंदिरा के व्यक्तित्व में शामिल थे । उनका व्यक्तित्व दरअसल स्वयं के लिए और सभी भारतीयों के लिए वैश्विक पहचान का उद्घोष था । वो अंतर राष्ट्रवादी देशभक्ति जो सिर्फ भारत का नैतिक नेतृत्व ही नहीं कर रही थी बल्कि विश्व में इसकी सांस्कृतिक अगुवाई पर भी जोर देते थे । काम और मौज मस्ती उनके लिए कोई अलग अलग व्यवसाय नहीं थे बल्कि वे उनकी रगों में साथ साथ दौडते थे । उसी साल बाद में बांग्लादेश शुद्ध शुरू होने से ठीक पहले कलकत्ता से जल्दबाजी में वापस आते समय पे नॉर्वे के खोजी जाया वार और एयर डाल की पुस्तक पडने में शांतचित्त तू भी हुई थी जिसमें उसने अटलांटिक महासागर को भोजपत्र की नाव पार पार करने के रोमांचित अनुभवों को लिखा था । उन के आस पास मौजूद सभी लोग इतने बडे संकट से दत्तचित्त होकर निपटने की उनकी क्षमता पर चकित थे । उनके अमेरिकी दौरे के बाद ये स्पष्ट था की निक्सन कोई मदद नहीं करेंगे और भारत को अपने बूते पर ही संकट से निपटना होगा । शर्णार्थियों की मौजूदगी और निर्वाचन में ताजउद्दीन अहमद कि बंगलादेश सरकार के दबाव में नई दिल्ली के लिए कार्रवाई करना अवश्यंभावी हो गया था । इंदिरा नहीं चाहती थी कि भारत को हमलावर माना जाए लेकिन पाकिस्तान बडी आसानी से इंदिरा के हाथों में खेल गया । पाकिस्तानियों ने तीन दिसंबर उन्नीस सौ को भारत के विरुद्ध ऑपरेशन चंगेज खान के नेतृत्व में धावा बोल दिया । पाकिस्तान की वायुसेना ने पश्चिमी सेक्टर में भारतीय वायुसेना के अड्डों पर बमबारी और कश्मीर में गोलाबारी के जरिए हमला किया कि हमला पाकिस्तान का अनलकी स्ट्राइक यानी दुर्भाग्यपूर्ण हमला बताया गया । जुम्ला दरअसल अंग्रेजी नाम से बाजार में उपलब्ध है । मशहूर ब्रांड की सिगरेट लकी स्ट्राइक के विलोम के रूप में गढा गया था । इंदिरा को जब खबर मिली तो उस समय वो कलकत्ता में किसी सभा को संबोधित कर रही थी । उन्होंने कहा, प्रभु का लाख लाख शुक्र है कि उन्होंने हम पर हमला कर दिया । भारत को युद्ध छेडने का उपयुक्त करन दे दिया था और इंदिरा जब हमले का फैसला लेती हमेशा ही वह बहुत देर हम हमला होता था । इंदिरा गांधी ने अपने जनरलों तत्कालीन सेनाध्यक्ष ऍफ जे मानिकशा, पूर्व कप्तान के मुख्य कमांडर जगजीत सिंह अरोडा के नेतृत्व में सेना की मदद से पूर्वी पाकिस्तान पर चढाई कर दी । अब मशहूर हो चुके उस खुले खत्म ऍम को लिखा था । रोधक और छुप दिखने में कोई हिचक नहीं हुई । उन्होंने संयुक्त राज्य पर सीधे अपनी जिम्मेदारी से बचने का आरोप लगाया । यहाँ राजनीतिक समाधान की जरूरत थी । वहाँ जबानी जमा खर्च किया गया । लेकिन ऐसा करने के लिए एक भी कदम नहीं उठाया गया । हमें अपने लिए कुछ नहीं चाहिए । हमें इन तोहमतों और उकसावों से गहरी पीडा हुई है कि हमने इस संकट को तूफान तक पहुंचाया लेकिन गुस्से से आगबबूला हो गए और भारत के हमले की निंदा की । अमेरिका के सातवें बेडे का कार्यबल रवाना किया गया और वो बंगाल की खाडी की ओर बढने लगा । इस बडे का नेतृत्व परमाणु युद्धक जहाज एंटरप्राइज कर रहा था । इंद्र उसके बावजूद भी रही । नई दिल्ली के रामलीला मैदान बारह दिसंबर को जनसभा कर रही थी । अभी सातवें बेडे के भारत की ओर बढने की बना के हम की तरह प्रश्न फूटी और भारत के लडाकू विमानों ने सभा में मौजूद लोगों की सुरक्षा के लिए सभास्थल पर मंडराना शुरू कर दिया । अगर जी हम पीछे नहीं हटेंगे हम एक कदम भी पीछे नहीं हटेंगे । बादमें वह कहने वाली थी हम अपनी आजादी की हमेशा रक्षा करेंगे तो नौ बताई सिर्फ घूंसों से भी अपने देश की रक्षा के लिए हमारे पास हथियार होने चाहिए । हमारे आदर्शों के पीछे मेरी प्रतिबद्धता होनी चाहिए । बीके नेहरू, जिनकी अमेरिका परस्ती युद्ध के प्रति अमेरिका के रवैये से ध्वस्त हो गई थी, लिखते हैं भारत को आतंकित करने की इसको हर कोशिश का इंदिरा गांधी ने माकूल मुंहतोड जवाब दिया । दिन के इस दौरान प्रदर्शित साहस पर उनके बडे से बडे विरोधी ने भी कभी सवाल नहीं उठाया । गुहा हालांकि इस और ध्यान आकर्षित करते हैं कि भारत को दी गई अमेरिकी धमकी खोखली थी । वियतनाम ने पहले ही मुक्की खा चुका संयुक्त राज्य अमेरिका एक नए युद्ध का बोझ नहीं उठा सकता था, खासकर भारत सोवियत समझौते के वजूद आ जाने के कारण । लेकिन इंदिरा के दृढ आत्मसंयम की पूरी दुनिया ने तारीख मोतीलाल की तरह वह पहाड जैसी स्थिरता से अपने इरादे पर डटी रही । युद्ध चौदह दिनों में खत्म हो गया । पाकिस्तान ने साथ में बडे की बंगाल की खाडी में पहुंचने से पहले ही आत्मसमर्पण कर दिया और भारतीय सेना ने ढाका को मुक्त करा दिया । इंदिरा गांधी ने निक्सन और किसेन्जर को ऐसे विपत्तिकाल में धूल चटाई जबकि जरा सा भी देखने पर भारत जबरदस्त युद्ध मैं गिर जाता । पश्चिमी पाकिस्तान की सेना कि नेशनल्स पार्टी थी विपरीत भारतीय सेना ने आचार संहिता के कडाई से पालन की मिसाल बना दी । ब्रिटेन के पत्रकार ने लिखा, अस्थाई तौर पर कब्जा करने वाली सेना के रूप में भारतीय सेना का आचरण रणभूमि में उसके आचरण से कहीं अधिक श्रेष्ठ हुआ है और अजित पाकिस्तानी सेना ने सोलह दिसंबर से सत्तर को भारत के सामने बिना शर्त हथियार डाल दिए । दूसरे विश्वयुद्ध के बाद इतनी बडी तादाद में पहली बार किसी सेना ने आत्मसमर्पण किया था । अपने हथियार डालने वाले इन सैन्य अफसरों और जवानों की संख्या हजार से अधिक थी । बांग्लादेश का जन्म हुआ, इंदिरा गांधी ने उसी दिन संसद में घोषणा की । पश्चिमी पाकिस्तान की सेना ने बंगलादेश में बिना शर्त हथियार डाल दिए हैं । आत्म समर्पण की दरख्वास्त पर पाकिस्तान पूर्वी कमान की ओर से लेफ्टिनेंट जनरल एके नियाजी ने दस्तखत किए थे । लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोडा ने आत्मसमर्पण की दरख्वास्त मंजूर की । यहाँ का अब स्वतंत्र देश की मुफ्त राजधानी है । हमें अपनी थल सेना, नौसेना, वायुसेना तथा सीमा सुरक्षाबल पर नाज है । नए देश बांग्लादेश की जनता को हमारी शुभकामनाएं । सदन ने खडे होकर इस वक्तव्य का गर्मजोशी से स्वागत किया । संसद और पूरे देश में लोग उत्साह से सडकों पर नारेबाजी करने लगे और नाच गाने, ढोल बाजे के साथ मिठाई बातें । कुछ नेताओं ने उनकी प्रशंसा करते हुए उन्हें देवी दुर्गा का अवतार ही कह दिया । जनसंघ के नेता अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में खबर छपी । उन्होंने उन्हें अभिनव चंडी दुर्गा कहकर विभूषित किया । भारत के बाद में उन्होंने इसका खंडन किया । विपक्ष के सांसदों ने उनकी प्रशंसा की । जनता खूब उमंग थी । महज एक दशक पहले चीन द्वारा पराजित थे । अपने पैरों पर खडा हो गया था । इसकी देशभक्ति और उसका नैतिक मकसद फिर से कुलांचे भरने लगा । इंदिरा गांधी ने युद्ध की जिम्मेदारी सीधे अपने कंधों पर ली थी और उनके साथ मुट्ठीभर अफसरों का समूह शामिल था । अच्छा जासूस शिरोमणि, विदेशी खुफिया सूचना विशेषज्ञों आॅव होंगे । संघ में राजदूत दीप ईधर और विदेश सचिव ऍम उनके कश्मीरी नवरत्न थे जिन्हें कश्मीरी माफिया भी पुकारा जाता था । ये भरी छोटी उठाने वाली रणनीति थी । इसका मतलब था यदि वो विफल होती तो वो उनका वॉटर लू साबित होते हैं । आत्मविश्वास से लबरेज होकर उन्होंने कहा कि मुझे इस बारे में रखती भर शंका नहीं थी कि बांग्लादेशी अपनी स्वतंत्रता जीत लेंगे और हम गलत पक्ष का साथ कतई नहीं दे सकते थे । मुझे इस बात पर सबसे अधिक गर्व है । युद्ध को इतनी सफाई से अंजाम दिया गया । सेना के नेतृत्व और मेरे तथा सशस्त्र बलों के बीच जबरदस्त समझदारी के कारण लगातार उनके संपर्क में नहीं स्मार्टली मानते हैं इस चाइना की भूमिका निर्णायक रहें उन्नीस सौ में बुनियादी भूमिका सेना की थी । वो इस से पहले ही निपटाना चाहती थी । लेकिन मानिकशॉ पूर्वी कमान से मिली जानकारी के आधार पर इंकार कर दिया । उन्होंने साफ साफ उनसे कहा की समुचित तैयारी और बारिश का मौसम समाप्त हुए बगैर इस कार्यवाही को अंजाम नहीं दिया जा सकता वाली बताते हैं । बावजूद इसके सेना के इतिहासकार श्रीनाथ राघवन का तर्क है कि बांग्लादेश संकट के आरंभिक काल में पूर्वी पाकिस्तान पर चढाई की योजनाओं के बारे में भारत यूपी सावधान था । इसलिए मान अच्छा द्वारा थोडा ठहरकर हमला करने की कहाँ नहीं किसी हद तक असत्य भी हो सकती है । उनके द्वारा पश्चिमी मोर्चे पर घोषित तत्काल युद्धविराम की जो उन्होंने कथित रूप से हक्सर की ही सडक पर किया था । उच्च राजनीतिक सूझबूझ के लिए खूब तारीफ हुई । पाकिस्तान को धराशाई करने वाले घूसे को तत्काल मखमली दस्ताने में लौटाने का असर उतना कारगर नहीं रहा होता अगर पश्चिम में लडाई अटकती, भटकती और गैर जरूरी तौर पर जारी रहती है । विजयी होने के बावजूद इंदिरा बहुत शिष्ट और सयाना थी । बाद के महीनों में एक करोड बांग्लादेशी शरणार्थियों को बहुत तेजी और दक्षतापूर्वक स्वदेश वापस भेज देने से उनके बांग्लादेश विजय अभियान का आदर्श समापन हुआ । भारत की पहली और एकमात्र ऐसी प्रधानमंत्री रही प्रदेश की मुख्य सेनापति ना होते हुए भी उस ऊंचाई तक पहुंची हमेशा के दुश्मन । पाकिस्तान के वक्त निर्णायक सैन्य विजय की विजेता रहें, असहाय बांग्लादेशियों की मुक्तिदाता बनी जो अदम्य, साहसी महिला थी । सब के बावजूद उनके लिए ये उनकी दिनचर्या में मानव सामान्य काम रहा हो । क्या होता है यदि पाकिस्तान की सहायता के लिए महाशक्ति अमेरिका बीच में कूद पडता क्या होता? यदि भारत के विरुद्ध चीन भी कार्रवाई कर देता हूँ? क्या होता यदि भारत सोवियत शांति संधि पर अमल नहीं होता ये स्पष्ट है । इनमें से कोई भी आशंका उन्हें दिखा नहीं पाई । भारतीय सेना ने जिस तरह चढाई की उस दिन डॉक्टर माथुर जब उनके घर पहुंचे तो उन्होंने देखा वे अपना दीवान की चादर बदल रही थी और भगत याद करती हैं । युद्ध तेज होने के बावजूद उत्तर जाने से पहले अपने घर के फूलदान के फूल बदलना नहीं भूलते थे । नटवर सिंह बताते हैं कि वो इतनी शांत क्यों थी जो युद्ध के बावजूद उनका नेतृत्व इतना धीर गंभीर रहा । इसलिए उन्नीस सौ सत्तर को लगभग पूरा का पूरा अकेले हक्सर नहीं संचालित किया । सिंह कहते हैं, उनके प्रधानमंत्रित्व के पीछे उन्हीं का दिमाग चलता था । साल उन्नीस सौ इकहत्तर की कार्यवाही का संचालन उन्होंने क्या? इसमें उनके साथ डीपी धर टी, एम कॉम, रक्षा सचिव ये भी लाल और सेना के पक्ष से जनरल मानिकशा तथा अन्य तो थे ही । पाकिस्तान की हार के बाद के जून में शिमला में हुई शांति वार्ता के दौरान इंदिरा पूरी तरह ये जताने में लगी रही । भारत का इरादा ऐसा पता ही नहीं है कि पाकिस्तान मूंग की खाता हुआ दिखाई पडे । रीजन हिमाचल भवन पहुंची जहाँ भुट्टो को ठहरना था । उन्होंने देखा कि व्यवस्था बेहद लचर थी । पदों और गद्दियों के खिलाफ ओके रंग अलग अलग थे । फर्नीचर भी बेमेल रखा था और पढते जमीन से करीब एक एक फुट छोटे थे । इस पर उन्होंने भट्टों के ठहरने की जगह की सजावट खुद शुरू कर दी और वहाँ जमा कर्मचारी आपस में प्रधानमंत्री के अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के बारे में कानाफूसी करते रहे । अगर लिखती हैं कि नए सिरे से व्यवस्थित करने का लम्बा तौर शुरू हुआ, मुख्यमंत्री के घर गए और वहाँ से उनके बैठ सहित कुछ सामान उठा लाये । हम राजभवन गए और गहरे लाल रंग कि मूंगिया रेशम के बिस्तर पर बिछाने वाली मोटी चादर ले आए । हमने राष्ट्रपति भवन से चांदी की कलम, दवात का सेट और स्टेशनरी देने की दरख्वास्त की । मुझे नहीं लगता कि श्री फट तो और उनकी बेटी को पूरा इस बात का एहसास भी हुआ होगा । उनके ठहरने की जगह को कुछ बेहतर बनाने में श्रीमती गांधी ने खुद कितनी मेहनत की थी । आंतरिक साथ सब जा के प्रति अपने गहरे रुझान की वो बहुत चर्चा कर दी थी और खुद आंतरिक सज्जा का जानी इंटीरियर डिजाइनर बनने की अपनी इच्छा बताने से भी नहीं जी सकते थे । भीतरी सज्जा से लेकर युद्ध लडने वर्क बढे लिया । हल करने से लेकर चालाक राजनेताओं के ग्रहों को मात देने सहित इंदिरा गांधी अनेक दुनियाओं में जीती थी का भारत पाकिस्तान के बीच स्थिर शांति स्थापित करना थी । इसी कमरे की नए सिरे से साथ सजा करना जितना आसान होता है । भारत और पाकिस्तान के प्रतिनिधिमंडल एक दूसरे की मौजूदगी में सर असर असहज थे और शिमला वार्ता टूटने के कगार पडती, मगर अंतिम क्षणों में इंदिरा और भट्टों के बीच अलग से हुई बातचीत में नई राह दिखा दी । शिमला समझौते के अंतर्गत भारत और पाकिस्तान कश्मीर के मामलों में द्विपक्षीय बातचीत करने के लिए प्रतिबद्ध हुए और दिसंबर उन्नीस सौ सत्तर की युद्धविराम रेखा को नियंत्रन रेखा का नाम दे दिया गया । उसके पीछे भारतीय पक्ष रमन नहीं उम्मीद थी क्या होता था कि अंतरराष्ट्रीय सीमा बन जाएगी जिससे कश्मीर के दर्जे का मुद्दा भी सुबह जाएगा, जिसके लिए दोनों देश सहमत थे । उसका दोनों पक्ष सम्मान करेंगे और किसी विपक्ष की पूर्वघोषित स्थिति पर पांच नहीं आएगी । लेकिन शिमला समझौते में गंभीर कमियां थी । ये कानूनी रूप में बाध्यकारी तो था ही नहीं, बल्कि जिन दो नेताओं के दस्तखत से लागू माना गया समझौता उन्हीं के लगातार सप्ताह में बने रहने का मोहताज था । फोटो तो महीने भर में ही समझौते से मुकर गए । उन्होंने पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में ये कहकर इसे खारिज कर दिया किसी भी अंतरराष्ट्रीय सीमा का पालन करना तो दूर जम्मू कश्मीर की आवाम के आत्मनिर्णय के लिए संघर्ष को जारी रखेंगे । पाकिस्तानी और बांग्लादेशी युद्धबंदियों के लौटने का मामला भी घर में रहा क्योंकि स्वतंत्र देश के तौर पर बांग्लादेश को पाकिस्तान मान्यता ही नहीं दे रहा था । युद्धबंदियों की अदला बदली का मामला लंबी बात चीत के बाद उन्नीस सौ चौहत्तर में जाकर सोडा शिमला समझौते को आज कर आए दिन तोडा जा रहा है । कश्मीर के मुद्दे को पाकिस्तान बहुरा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर उठाता रहता है और नियंत्रण रेखा के पालन की उसकी नियत पढ तो करगिल युद्ध और सीमापार से होने वाले हमले और छापे सवाल उठाते ही रहे हैं । इंदिरा ने बाद में शिमला वार्ता के बारे में अपने मन में निराशा की भावना का इजहार भी किया । उन्हें लगता था कि वह भुट्टो के प्रति अत्यधिक उदार रही और बडों ने अपनी और से भारत के प्रति मैत्री की कोई प्रतिबद्धता नहीं जताई । उन्हें लगता था की फोटो क्योंकि सेना कि मुट्ठी में थे इसलिए भारत के साथ शांति स्थापक की भूमिका निभाना उनके लिए मुश्किल था । वो कहती थी, जब उन्होंने सेना से समझौता करना शुरू किया, अभी सही के ते था इस सेना अभी हो जाएगी । इन सब के बावजूद बांग्लादेश शुद्ध नहीं । इंदिरा गांधी की छवि को जनमानस में गहराई तक बच्चा दिया अविस्मर्णीय नेता ऐसी इस तरह जिन्होंने पाकिस्तान को इतनी बुरी तरह हराया और थोडा जिस पर कोई भी अन्य नेता शायद कभी न करवाता है । भारत अलग अलग पडने के बावजूद विजेता था और एक स्त्री का साहस भारत का साकार स्वरूप था । उनके द्वारा ही चुने गए राष्ट्रपति वीवी गिरि ने उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया । कांग्रेस ने में तेरह राज्यों के विधानसभा चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की । राज्यों में ताजा चुनाव युद्ध में जीत से जगह आश्वस्ति भाव के तहत कराए गए थे । हजारों बच्चियों का नामकरण भी इंदिरा के नाम पर हुआ । अब गूंगी गुडिया की जगह दुर्गा की अवतार खडी थी । इसे पांच साल पहले संसद में तानाकशी और अपमान का जबरदस्त शिकार होना पडता था । उनकी शक्ति की अवतार के रूप में पूजा होने लगी तो इकनॉमिस् पत्रिका ने उन्हें भारत की सम्राज्ञी का खिताब दे डाला । अच्छा साल उन्नीस सौ सत्तर के आम चुनाव में भारत के ऐसे जननेता का उदय हुआ जिससे भारत ने कभी नहीं देखा गया था और बांग्लादेश के युद्ध ने ऐसे प्रधानमंत्री से परिचय कराया तो लगभग पूरी दुनिया द्वारा ठुकराए जाने के बावजूद अपने संकल्प पर साहस के साथ टट्टी रहने वाली थी । दुनिया में इंदिरा की भूमिका दरअसल उनकी भारत में भूमिका जैसी ही थी । नगर अपने प्रति ईमानदार और जिसे वे राष्ट्रीय अस्मिता समझती थी, उसकी लगन से रक्षा करने के जज्बे से प्रेरित वो कहती थी खुले देवा, ईमानदार साम्राज्यवाद की जगह लुकी छिपे उपनिवेशवाद ने ले ली है । उनके मुकाबले के लिए हमें कोरे आदर्शवाद अथवा पूरी भावनात्मकता से आगे जाना पडेगा । हमें स्पष्ट सोच और निरपेक्ष विश्लेषण की आवश्यकता है । दुनिया में स्वायत्तता पर जोर देने की उनकी प्रवर्ति चंडीगढ अपने पिता अपने पति के मुकाबले कम करने के लिए अपनी स्वायत्तता के लिए की गई लडाई की याद दिलाती थी । निर्गुट ता सिर्फ प्रतिबद्धता से ही नहीं बल्कि अस्मिता का दावा करने का साधन भी था । बांग्लादेश शुद्ध से पहले दुनिया में भारत अलग थलग था और सोवियत संघ के अलावा कोई भी देश के साथ नहीं था । फिर भी इंदिरा ने सार युद्ध को अंजाम ही नहीं दिया बल्कि दुनिया को अपने मकसद के न्यायोचित होने का भरोसा दिलाने की कोशिश भी की । पत्रका इंद्रजीत बनवार लिखते हैं, अपनी मृत्यु के समय तक वो भारत को वैश्विक पटल पर स्थापित कर चुकी थी । ये कोई अविकसित मनमानी से चलने वाला देश नहीं था और अपने राष्ट्रीय हित के बारे में बोलने के अपने अधिकार की तनकर ऍफ करेगा । इंदिरा गांधी ने भारत की शेरनी की तरह रक्षा की । अपना समझकर मातृत्व कर्तव्य के साथ लोकतांत्रिक होने के अलावा सभी कुछ था । इसी मातृवत नियंत्रन के कारण जल्द ही लोकतंत्र का गला घुटने वाला था । लोकतांत्रिक भारत का सबसे अंधेरा अध्याय मोबाइल खडा था जब नेहरू की बेटी ही नेहरू के सपने हो रॉम देने वाली थी ।

Details
इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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