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3. सत्ताकांशी स्त्री से नेहरु की उत्तराधिकारी in  |  Audio book and podcasts

3. सत्ताकांशी स्त्री से नेहरु की उत्तराधिकारी

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इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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सत्ता आकांक्षी इस तरी से नेहरू की उत्तराधिकारी इंदिरा नेहरू ने उन्नीस सौ बयालीस में फिरोजगांधी से विभाग क्या जिनसे उन्होंने दो पुत्रों राजीव और संजय को जन्म दिया । जवाहरलाल नेहरू के में प्रधानमंत्री बनने के बाद अपने पिता के घर में उनकी आधिकाधिक मेजबान के रूप में उनके साथ आकर रहने लगी । में कांग्रेस के अध्यक्ष बने नेहरू की मृत्यु के बाद में लाल बहादुर शास्त्री की सरकार में सूचना एवं प्रसारण मंत्री के रूप में शामिल हो गए तथा उनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षा उजागर हो गई । फिर उसके साथ इंदिरा का प्रेम फिर उनसे विवाह उनकी माँ तथा उनके परिवार के साथ उनकी निकटता की स्वाभाविक परिणति थी । उनके बीच का इस संबंध बीमार कमला नेहरू की देखभाल के दौरान परवान चला था । दिन के अंतिम दिनों में दोनों ही बहुत ख्याल रखते थे क्योंकि वे उन्हें बेहद चाहते थे । हम देख चुके ऍम में कमला के उपचार के दौरान रोज भी वहाँ इंदिरा का साथ देने पहुंच गए थे । उनके मित्र क्षमता गांधी के मुताबिक इंदिरा और फिर उसके बीच कमला कि यादव का मजबूत बंधन था । उनके मन में नेहरू पर विजय लक्ष्मी के बढते प्रभाव के प्रति रोष था । दोनों को ऐसा था कि जवाहर लाल उनका परिवार कमला के भोलेपन वार शादी को समझने में नाकाम रहा । विवाह करने का उनका फैसला भी पिता की इच्छा के प्रति विद्रोही अभिव्यक्ति थी । रोज गांधी तेज तर्रार, प्रबल तथा मिलनसार व्यक्ति थे, जिन्हें उम्दा भोजन वहाँ आराम है । जीवन जीना पसंद था । ये आदतें परिष्कृत एवं सभ्य मिजाज वाले जवाहर लाल के विपरीत थी । वे उच्चवर्गीय परिवार के वंशज भी नहीं थे तथा उनकी बुआ डॉक्टर कमी सारी के उच्चशिक्षित होने के बावजूद फिर उसका परिवार नेहरूके पुलिन खानदानों की बराबरी नहीं कर सकता था । रूस, जो व्यवस्था के दौरान नेहरू के सच्चे अनुयायी रहे थे, जो कमला से पहली मुलाकात में ही उनके प्रति बुद्ध हो गए थे । कमला तथा फिर उसके बीच प्रेम संबंध के बारे में बातें की कुछ जुगाली भी हुई थी, जिसे फिर उसके जीवनी लेखक नहीं ये कहते हुए खारिज कर दिया नेहरू ने भी या फाइन सुनी थी, लेकिन उन्होंने इन्हें खारिज कर दिया था और फिर उसके आनंद भवन आने जाने पर कोई रोक नहीं लगाई गई । यद्यपि उनके बीच संबंधों की अफवाह चलती रही और इलाहाबाद में दो और इंगित करते पोस्टर भी दिखाई दिए । जवाहरलाल ने अपने कांग्रेस साथी और मित्र मीनू मसानी से कभी मजाक में कहा भी था हूँ क्या तुम कल्पना कर सकते हो की कोई मेरी पत्नी से प्रेम कर सकता है । इस पर मसानी ने हिम्मत करके कहा कि वे खुद ही कमला से प्रेम कर सकते थे जिसपर नेहरू ने टेढी नजर से उन्हें पूरा आसानी ने बाद में लिखा था । रोज का कमला के प्रति बच्चे जैसा प्रेम था । हालांकि कमला और फिर उस की प्रेम कहानी की संभावना मामूली सी भी नहीं थी क्योंकि अपने पति तथा परिवार के साथ उन्हें गहरा लगाव था और आनंद भवन सबके लिए हमेशा खुला रहता था । सच्चाई ये भी थी युवाओं आदर्शवादी फिरो दरअसल कमला तथा जवाहर लाल को अपना शुभचिंतक समझते थे कमला जब ब्रेडन वीलर भी मृत्युशैया पर थी तब इंदिरा को फिर उसका बहुत बडा सहारा था । अपनी माँ की मृत्यु के बाद जब इंदिरा को अकेलापन महसूस हुआ रोज उनके साथ खडे थे । इंदिरा कहती दीजिए, रोज हमेशा मेरे साथ खडे रहे इंदिरा ने जब स्पोर्ट में दाखिला लिया तो फिर उस पहले से ही लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में थे और इस दौरान इंदिरा पूरी समय फिर उसके साथ ही व्यस्त रहती थी । पढाई लिखाई में होशियार उग्र सुधारवादी इलाहाबादी कश्मीरी युवक परमेश्वर डाॅ में लंदन की वकालत की पढाई कर रहे थे, बहुत उम्दा खाना पकाते थे और अपने घरों का खाना याद करने वाले भारतीय अक्सर उन्हें उनके खास कश्मीरी व्यंजन पकाने के लिए निमंत्रित करते थे । फिर उसके घर में इंदिरा और फिर उसके लिए खाना पकाने को याद करते हैं । लाॅरी हमसे अपनी लंबी बीमारी का इलाज करवाकर इंदिरा जब वापस आई तो वह थकी हुई थी तो याद करते हैं कि फिर उसके सानिध्य में वो खुश रहती थी और ये युगल किताबों से भरे फिर उसके छोटे से घर में अपने सोने की व्यवस्था के बारे में कोई दिखावा नहीं करते थे । इससे पहले उन्नीस सौ सैंतीस में ऑॅल तक की पढाई पूरी होने से पूर्व रूस के प्रभाव में इंदिरा जब इंडिया लीग के परिवर्तनकामी सिद्धांतों से प्रभावित थी तब ही पहली बार नेहरू से उन्होंने खुलकर कटु मतभेद जताया । नेहरू ने दरअसल इंदिरा को अपने इस निर्णय के बारे में लिखा था आपने अगले इंग्लैंड दौरे में लोथियन के राइस फिलिप्स हेनरी घर के घर में रहेंगे । उन्हें ये कबूल नहीं था । डाॅन ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लॉयड जॉर्ज का पूर्व निजी सचिव था और से हिटलर के हितरक्षक के रूप में जाना जाता था । इसलिए इंदिरा लोथियन के घर ठहरने का आमंत्रण अपने पिता द्वारा स्वीकार करने पर नाराज हो गई थी । सर्वसम्मति को तवज्जो देने वाले नेहरू ने अपने इस निर्णय का आधार ये बताया कि वो तथा मेहरू प्रतिष्ठित राजनेता के दिन की भारत में विशिष्ट पहचान थी । नेहरू का ये जवाब अपनी पुत्री के विचारों को चतुराई से खारिज करने की कोशिश थी और ये उत्तरी द्वारा पिता का डटकर विरोध किए जाने तथा उनके विचारों से मुखर असहमती जताने का पहला अवसर लिखित उदाहरण है । रिजल्ट ही उनका और भी हटीला विरोध करने वाली थी । फिर उस और इंदिरा डरबन होते हुए उन्नीस सौ बार इसमें भारत वापस आ गए । रंगभेद से जूझ रहे दक्षिण अफ्रीका में इंदिरा ने नस्ली भेदभाव को नजदीक से देखा । वहाँ के भारतीय समुदाय ने उन्हें अपने समारोह में आने को निमंत्रित किया तो उन्होंने श्रोताओं को झकझोरते हुए आपने पहले जोशीले भाषण में ताज्जुब जताया जितनी निरीहता से भारतीयों ने रंगभेद गोरों की सत्ता के आगे घुटने टेक रखे थे । अपनी शादी के निर्णय पर अटल इंदिरा भारत पहुंची है । इस मामले में जवाहर लाल का डटकर विरोध करने के लिए भी वो उद्वेलित अधीर थी । यहां पहुंचते ही वे महात्मा गांधी से मिलने गयी । गांधी आश्रम में उन्हें सिल्क की साडी पहने और लिपस्टिक लगाए देखकर उनसे चेहरा धो लेने और खादी पहनने को कहा गया । सुनते ही इंदिरा का आश्रम से मोहभंग हो गया । सेवाग्राम के वातावरण में छोटी छोटी बातों पर झगडे होते थे । जैसे आज गांधी जी का भोजन कौन अंदर लेकर जाएगा, उनके कागजात कौन ली जाएगा? प्रवर्ति से दिक्कत आई गांधीवादी नहीं थी । यद्यपि इस बात की प्रशंसक थे महात्मा बहस और विरोध से कितने आनंद होते थे । उनके साथ मैंने वाद विवाद काम नहीं किया । वो ईमानदारी से दी गई राय को कभी छोटा नहीं समझते थे और ऐसे लोगों से हमेशा बात करते थे तो उनसे असहमत होते थे । वे भी उनसे असहमत लोगों में शुमार थी । कुछ बातों को गांधीवाद का नंबर कहकर उनकी आलोचना करती थी । यद्यपि बाद के जीवन में उन्हें ये स्वीकार करना पडा । जिन बातों को वह बौद्धिकता हुआ, आज की उलट समझती थी, वहीं उनका जबरदस्त संबंध था । उन्हें जनसाधारण को साथ लेकर चलना होता था । हर बात को इतनी सरल भाषा में प्रस्तुत करना होता था, उसे वे समझ सके । फिर भी गांधी के विचार उनकी समझ के लिहाज से काल्पनिक थे । उन्हें लगता था महात्मा के मन में नए राष्ट्र का कोई खाता ही नहीं था । उस खाके का सर्वाधिकार पूर्ण कहा उनके पापु का था । हालांकि तब तो बापू के साथ घमासान बाकी था । इस युवा इंग्लैंड पलट क्रांतिकारी का गांधी के आश्रम से मोहभंग हो चुका था । वहीं इस से भी गहरा अंतर इंदिरा और उनके पिता के बीच में फिर उसको लेकर मौजूद था । मैं इस संबंध के कट्टर विरोधी थे । ऐसा दोनों की अलग अलग जाति या संप्रदाय होने के कारण नहीं, बल्कि इसलिए था कि फिर उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि दरअसल इंदिरा के सामान नहीं थी । नेहरू की बहन हूँ विजय लक्ष्मी पंडित तथा कृष्णा हठीसिंह ने भी कश्मीरी पंडित, जाति व संप्रदाय से बाहर विवाह किया था, लेकिन उन के पति रणदीप पंडित वगैरह । तब राजा ऍम बहुत शिक्षित तथा विद्वान लोग थे । दोनों वकील थे, नामी परिवारों से थे । परस्पर जुडे कुलीन भारतीय समाज से थे । उत्कृष्ट वाला उत्तम लोगों का समुदाय । इसका नेहरू बहुत ध्यान रखते थे । रोज दुनिया में शामिल नहीं थे और इंदिरा के समान उनके पास विश्वविद्यालय की कोई डिग्री भी नहीं थी । जवाहरलाल के लिए खानदानी इज्जत बहुमूल्य थी । उन्होंने आशंका हुई उनके अनुसार जो महान विरासत थी, उससे इंदिरा भूख फेर रही थी । उन्होंने विस्तृत होकर इंदिरा को लिखा, खराब स्वास्थ्य के बावजूद तुम्हारा यूरोप से वापस आना तथा अचानक शादी करना बेहद न समझे की बात है । इंदिरा की जीवनीकार कैटरीना फ्रेंड को लगता है कि नेहरू की नाराजगी की वजह कुछ और भी थी । उनके अनुसार कमला ने पारिवारिक मित्र एसी ऍफआईआर के सामने ही नेहरू से कहा था इंदिरा को फिर उससे शादी नहीं करनी चाहिए क्योंकि सरोज और स्थिरचित्त है तथा ये इंदिरा के जीवन की भारी भूल होगी । भुआ होने के नाते एक ना मुनासिब से बात करते हुए विजय लक्ष्मी ने सुझाव दे दिया कि विभाग करने के बजाय इंदिरा को फिर उसके साथ प्रेम सम्बन्ध चला लेना चाहिए । इस अपमानजनक टिप्पणी राहत इंदिरा पारिवारिक दबाव के बर्तन मैदान में कट गई । हालत बिगडते देख महात्मा गांधी को हस्तक्षेप करना पडा और उन्होंने रिश्ते को कबूल कर लिया । उनका कहना था की युगल की व्यक्तिगत निर्णय का सम्मान किया जाना चाहिए । गांधी ने फिर ओवर इंदिरा के विवाह के बारे में लिखा, रोज नहीं । कमला नेहरू की बीमारी में उनकी सेवा की उनके लिए पुत्र के समान था । यूरोप में इंदिरा की बीमारी के दौरान भी उसने उसकी बहुत मदद की । उन दोनों के बीच स्वाभाविक निकटता हो गयी थी । धीरे धीरे परस्पर आकर्षण में सब्बीर हो गए । विभाग के लिए स्वीकृति न देना, निर्दयता होती समय बदलने के साथ इस प्रकार के गठजोडों का समाज के हित में बढना और हम भारी है । गांधी जी का आशीर्वाद प्राप्त कर युवा दंपत्ति पसंद थे । जब भी उन्होंने इसके बाद महात्मा द्वारा दिए गए व्यवहारिक ब्रह्मचर्य के सुझाव का मजबूती से विरोध किया । नेहरू भी अब विरोध नहीं कर पाए और पिता पुत्री के बीच इच्छा शक्ति के इस गंभीर मुकाबले में चीज बेटी की हुई । यदि इंदिरा का व्यक्ति तो अपने पिता की शागिर और माँ की संरक्षक के दो भागों में विभाजित था तो कमला का पक्ष पति के चुनाव में जवाहरलाल के पक्ष पर भारी पढाते । कमला के प्रति लगभग इंदिरा के समान ही समर्पित । फिर उससे व्यवहार करना केवल अपनी माँ के प्रति समर्पण का प्रदर्शन ही नहीं था बल्कि पिता के लिए ये इशारा भी था । ये सोच, विचार और व्यवहार की दृष्टि से भी स्वायत्त हो चुके हैं । उन्होंने कहा पापु सिद्धांतों को समझाते थे, लेकिन संबंधों को समझने में उन्हें बहुत समय लगा । बात के जीवन में इंदिरा ने अपने पत्रों में या फिर बोल कर भी अपने पिता का जिक्र, प्रशंसा तथा लगाव से क्या तो वे कभी भावनाओं में नहीं नहीं मान उनके लिए उनके मनोभाव पर पीडा तथा असुरक्षा का पर्दा बडा हो । इन्दिरा व नेहरू के मध्य बहुत आदमी है उस नहीं जन्नत संबंध था तो उनमें कर जोशी का अभाव था । फिर भले ही वो उनके लिए समर्पित थी और हमेशा उनके आदेश के पालन को तैयार रहती थी । रोज वो इंदिरा नेहरू का व्यवहार छत्तीस मार्च उन्नीस सौ बयालीस को रामनवमी के दिन हुआ था । इसी वर्ष गांधी ने अंग्रेजों के विरुद्ध भारत छोडो का नारा दिया था । उन्होंने अपने पिता द्वारा जेल में काटे गये सूत से बोली साडी पहनी और तू लेने कांग्रेसकार्यकर्ता कि सफेद खादी की वर्दी धारण की । विभाग के रस्में खुले आसमान के नीचे आनंद उनके पिछले बरामदे में संपन्न हुई । छरहरी और कोमल इंदिरा अपने तीखे नए नक्ष वाले दमकते और तरोताजा चेहरे के साथ कुछ उदास मगर बहुत सुन्दर लग रही थी । फिर उससे शादी करके मैं सदियों पुरानी परंपराओं को तोड रही थी और इससे तूफान खडा हो गया था तो निसंदेह मेरे ही परिवार के कई लोग बहुत खडे हुए थे । पुरुष प्रधान असहमती के विरुद्ध तनकर खडे रहने की प्रवर्ति उनके जीवन में बार बार दिखाई दी । बाहर से नर्म देखने वाले तत्व को जो चलाते हुए उन्होंने ऐसी दृढता दिखाई जो देखने में तो अचानक उनके वास्तविक चरित्र का उजागर होना प्रतीत हुआ मगर इसे सोच समझकर विनम्रता के मुखौटों के पीछे छुपा हुआ था । आपने विद्रोह के बारे में कुछ गर्व के साथ उनका कहना था, पूरा तेजेश मेरी शादी के खिलाफ था । अपने पिता के विरुद्ध उन्होंने खुद का तो मित्रता संघर्ष छोडा था और अपनी जीत से वह बेहद कुश्ती बावजूद इसके इंग्लैंड से वापसी की । रोमानियत को जल्द ही उदासी निकलने वाली थी श्रीमती गांधी फिर उसे आपका विवाह सफल नहीं था और उसने खुशियों को ग्रहण लगाकर आप दोनों को एकाकीपन की खाई में धकेल लिया । अपने त्यौहार के तेरह साल बाद उन्नीस सौ पचपन में आपने डॉरोथी नॉर्मल को लिखा । मैं अपने घरेलू जीवन में अत्यधिक दुखी हूँ और रही हूँ । अपीडा तथा नाखुशी बेमानी हो चुकी है । मुझे हालांकि दुख है कि मुझे किसी अन्य मनुष्य के साथ सामान्य वहाँ परिपूर्ण संबंध बन पाने संबंधी जीवन की सबसे खूबसूरत नियामक हासिल नहीं हो पाई क्योंकि मुझे लगता है कि केवल इसी प्रकार किसी का व्यक्तित्व पूरा विकसित फल फूल सकता है । आपके फिर उसके बीच क्या अनिश्चित हुआ? क्या उनको इस बात से तकलीफ होने लगी थी । क्या प्रधानमंत्री की बेटी थी जिसे उदाहरण के लिए सरकारी दावतों में आप अपने पिता की बगल में बैठती थी जबकि दामाद होने तो बाद में संसद सदस्य होने के कारण उन्हें हमेशा पीछे की पंक्तियों में कमतर लोगों के साथ बैठना पडता था । नेहरू ने आपसे प्रधानमंत्री निवास में रहने के लिए कहा तो आपने हामी भर दी और लखनऊ के उस घर को जैसे आपने अपने पति के साथ बताया था । लगभग छोड दिया । आप हमेशा ही फिर उसकी पत्नी होने से पहले नेहरू की बेटी थी । लखनऊ की गृहणी बनकर खुश नहीं थी क्योंकि आपको तीन मूर्ति भवन में अधिक हव्यवाट् रोमांचक जीवन बुला रहा था । ऐसा जीवन आपको लगता था कि आपकी तकदीर था लखनऊ में फिर उसके साथ आपके लिए पत्नी और मां के रूप में नीरज जीवन था । लेकिन आपको हमेशा से लगता था कि आप अधिक बडे काम करने के लिए बनी थी और आपको देश के फलक पर अपनी जगह बनानी थी । यह पूछे जाने पर कि आप अपने पिता के पास वापस आ गई आप कहाँ करती थी? मेरे लिए ऐसा करना स्वाभाविक था क्योंकि मेरे पति के मुकाबले मेरे पिता अधिक महत्वपूर्ण काम कर रहे थे । आपने अपने पिता के घर में वापस आने को लेकर किसी मित्र से ये कहते हुए देश भक्ति के कार्य जैसा मोड दे दिया था । ये मुल्क के लिए जरूरी था उनकी कोई देखभाल करें और ये काम करने के लिए मेरे अलावा कोई नहीं था । आपने फिर उससे विवाह करने के लिए अपने पिता का मुकाबला किया । लेकिन नेहरू और फिर उसके बीच किसी एक को चुनने के मौके पर आखिरकार आपने नेहरू को तरजीह दी और उसके परिणाम की भी परवाह नहीं की या आपके जीवन का सबसे कठिन व्यक्तिगत फैसला था । ऐसा फैसला जिसका पति व पुत्रों के साथ आपके संबंधों पर प्रतिकूल प्रभाव पडने वाला था । अपनी शादी के छह माह के बाद भारत छोडो आंदोलन में पूरे जोश के साथ भाग लेने के कारण फिर उस और इंदिरा जेल चले गए । इंदिरा को नैनी जेल तथा फिर उसको फैजाबाद जेल में भेजा गया । इंदिरा को लगभग एक साल के बाद छोड दिया गया परन्तु जेल जाना यात्रा में महत्वपूर्ण पढा था । अपने पिता और बहुत से रिश्तेदारों को बार बार जेल जाते हुए देखकर उनको विश्वास हो चला था । ये उनकी पारिवारिक जीवन पद्धति का ही संस्कार था । जेल मेरे लिए खास अनुभव था । वो कहती थी मेरी माँ और पिता दोनों की तरफ से दर्जनों रिश्तेदारों ने जेल में लंबे समय गुजारे थे । मुझे और किसी भी दूसरे परिवार की कोई जानकारी नहीं है जो आजादी की लडाई और उसकी तकलीफों से इतना जुडा रहा हो । जानवरों की तरह झंडों में आत्म सम्मान से वंचित जब मैं बीमार हुई तो मुझे ओवल टीम पीने के लिए कहा गया । फिर अधीक्षक में पडता फाड दिया और मुझसे कहा अगर तुम्हें लगता है कि तुम्हें ये सब मिलने वाला है तो तुम भुलावे में हो । जेल में वो महीने मेरे जीवन का महत्वपूर्ण थे । जब उन्हें और फिर उसको जेल से रिहा कर दिया गया तो दोनों आनंद भवन में रहने लगे । वो घर जिस पर दोनों को अपने साझा इतिहास की धुरी होने का गर्व था, फिर उस बागीचे की देखभाल में लग गए और इंदिरा इस भव्य पुराने घर की दीवारों पर रंग कर रहे हैं और उसके कमरों को खोया गौरव लौटाने के काम में जुट गई । इंदिरा जल्द ही गर्भवती हुई और बीस अगस्त उन्नीस सौ चौमाल इसको मुंबई में उनकी पहली संतान राजीव रतन फिर जिस नेहरू गांधी का जन्म हुआ, उनका ये नाम इसलिए चुना गया समझ रहे जितना वो फिरोज गांधी का बेटा था उतना ही नेहरू का नाती भी था । बापू ने जेल से उसे लिखा नेहरू को अतिरिक्त नाम की तरह जोड दिया जाए तो कैसा रहेगा? नेहरू गांधी नहीं वो मूर्खतापूर्ण लगता है बल्कि नेहरू अतिरिक्त नाम के रूप में बच्चे के जन्म के बाद पैसे के लिए इंदिरा की चिंता बढने लगी क्योंकि उस समय कांग्रेस की कानूनी सहायता समिति ने काम कर रहे विरोध की कमाई काफी नहीं थी और तीन लोगों के परिवार को धन के लिए इंदिरा के पिता पर निर्भर होना पडा । नेहरू ने लिखा पैसों के मामले में चिंता करना तो भरी बोलता है । काम बिना हित के चाय मेरे खाते से पैसे निकाल सकती हूँ । चाहे जब उसको जरूरत हो तो केन्द्र के लिए शर्मनाक स्थिति थी और कुछ समय के लिए चिंता से बचने के लिए वे नवजात राजीव के साथ कश्मीर की चीड की महक वाली सजाओं में छुट्टियाँ बिताने चली गई जहां वे फिर उसके बढते हुए चिडचिडेपन से दूर अपने रिश्तेदारों के सुविधा संपन्न बंगलो में रही । वे कश्मीर आकर हमेशा बेहद खुश होती थी । आपने कश्मीरी चलों पर उन्हें लास्ट था और उन्होंने आजीवन कश्मीर आना जाना जारी रखा । उनका जन्म बेशक इलाहाबाद में हुआ था लेकिन मैं अपने आपको पहाडों की बेटी कहती थी और हमेशा अपने परिवार को हम कश्मीरी बुलाती थी । भगत याद करती हैं । वो कहती थी हम ऐसे नहीं पकाते हैं या फिर हम कुछ मसाले नहीं डालते । इस हमसे तात्पर्य कश्मीरी होने से था । कश्मीर के पहाडों, उनके पेडों की तस्वीरें, पूरे जीवन उनके बैडरूम में टंगी रही । कश्मीर उनका पुरखों का घर था । जीवन का सहारा था, सपनों की जन्मभूमि थी । भारत का सिरमौर था । उत्कृष्ट, शानदार, बुलंद और हिमालयी मैदान के भीड भरे सबते हुए राज्यों के मुकाबले हर लिहाज से ऊंचा कश्मीर में चिनार के वक्ष सम्बल का माध्यम और अपरिवर्तनीय भारत के प्रतीक बन जाएंगे । उनके कश्मीर प्रवास के दौरान समाचार मिला । नेहरू को अंग्रेजों के जेल से उनके सबसे लंबे और थकाऊ दौरे के बाद आजाद कर दिया गया है । इंदिरा को ये लगा कि उन्हें फौरन अपने पिता के साथ होना चाहिए । इस समय में मैं और कुछ नहीं केवल पत्नी और माफी । जिस क्षण मैंने सुना कि मेरे पिता रहा हो गए, उसी पल में अपने बच्चे को भूल गयी के परिवार ने ये कहा कि मेरे जाने से क्या होगा । मैंने कहा नहीं मालूम लेकिन मुझे बचाना है । महिलाबाद वापस आ गई मुझे सिर्फ जाना है । यही इशारा बाद में उन्होंने अपने पति को भी क्या नेहरू ने उन्हें प्रधानमंत्री निवास कि मेजबान और गृहस्वामिनी के रूप में आने के लिए कहा । यद्यपि वे स्वयं कबूल कर चुकी थी कि वह पत्नी और मां थी । उनके लिए सबसे जरूरी था अपने पिता के साथ होना । पति और बच्चों का नंबर उनके बाद आता था । जवाहरलाल नेहरू अपनी अंतिम जेलयात्रा से जून उन्नीस सौ पैंतालीस को बाहर आए नेहरू जेल से निकलकर महापुरुष के रूप में छा गए । उनका उद्दाम सहारा विशाल जनसमूह के प्यार और विश्वास का प्रतीक बन गया । छप्पन वर्षीय पंडित जी समुद्री तूफान को पार करके आए थे । आजादी के कष्टदायक संघर्ष के दौरान गांधी के साथ खडे नेहरू पटेल जख्मी हुए और उन्हें विश्वास खाद भी झेलना पडा । लेकिन उनके बावजूद भारत के भविष्य के अपने आदर्शों को धूमिल नहीं होने दिया । आजादी के ठीक पहले जेल में भी थे । कुछ अत्यंत महत्वपूर्ण वर्षों में उन्हें मुस्लिम लीग के कुछ करो तथा भारत के बंटवारे की भावी योजना की जानकारी नहीं थी । रूप से चौधरी आई आंखों के साथ जेल से बाहर आए । फिर भी ये शानदार वापसी थी । हम लाए हैं तूफान से कश्ती निकाल के उन्नीस सौ पचास के दशक का एक मशहूर हिंदी गाना था जो आजाद भारत के संस्थापकों के लंबे संघर्ष का सटीक वर्णन करता था । फूफा के बीस घुसकर जाने और उसकी हर हर आती गहराइयों में से स्वतंत्र भारत की छोटी सी कश्ती को खींच करने का लाने की एक का था अंग्रेजों के गुलाम । भारत में उन्नीस सौ सैंतालीस में एक सौ दो सीटों के लिए हुए आखिरी आम चुनाव में कांग्रेस उनसठ सीटों के साथ एक मात्र सबसे बडे दल के रूप में चुनकर आएँ, लेकिन जिन्ना की मुस्लिम लीग ने मुस्लिम निर्वाचन क्षेत्रों में एकतरफा जीत हासिल कर लें । नेहरू के नेतृत्व में जब अंतरिम सरकार को शपथ दिलाई गई, इंदिरा नहीं त्यारी पापु को लिखा मैं दिल्ली में आपकी और से आप से ज्यादा उस महान संगठन की इसके आप प्रतिनिधि हैं तो जीत को अपने आंखों से देखने के लिए बेहद तरस रही हूँ । इंदिरा के आरंभ में दोबारा गर्भवती हुई । इस समय तक फिर उसको लखनऊ में नेहरू द्वारा स्थापित अखबार नेशनल हेरॉल्ड के निदेशक पद पर नौकरी मिल गई थी और उन्होंने हजरतगंज इलाके में किराए पर बंगला ले लिया था । रोज कुशल भागवा और बडे थे और इंदिरा की गृह संचार योग्यता के साथ मिलकर उन्होंने छोटा सा पारिवारिक घरौंदा बना डाला । लेकिन वो खुश नहीं थी और उन्होंने अपने पिता को लिखा हमारे सुनवाई शहरों में एक अजीब सी मुर्दनी छाई है । भ्रष्टाचार और ढिलाई माहौल को दुखद बना रहे हैं । कुछ लोगों की आत्मसंतुष्टि, कुछ का कपट । जीवन में यहाँ जरा सी भी रवानी नहीं है या विश्वसनीय नहीं है कि फासीवाद के आडम्बरपूर्ण, जालने दासियों लाखों लोगों को आकर्षित कर लिया है । राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ आरएसएस जर्मनी की तर्ज पर तेजी से मजबूत होता जा रहा है । अधिकतर कांग्रेसियों और सरकारी नौकरों का भी इन प्रवृत्तियों को समर्थन हासिल है । हिंदू दक्षिणपंथ उनका जीवन भर दुश्मन रहा । हालांकि बाद में अनेक अवसरों पर इंदिरा ने उन्हें बहुत उनकी ही चालू में मात देने की कोशिश की । खुशहाल पारिवारिक जीवन शायद उनके भाग्य में नहीं था । उन का संबंध बेवफाई क्षेत्र रहा । ऍम फिरो जिन्हें डोरोथी नार्मन सरासर ना पसंद करती थी और जिन्हें उन्होंने मुझे बताया था एक बेवफा पति थे । इंदिरा अपने पति की आवारा नजरों को हमेशा लडती रहती थी । रूस के दोस्त निखिल चक्रवर्ती को लगता था रोज और तू के मामले में कमजोर था । वो जब इंदिरा से हर एक हफ्ते मिलने चाहता था तब भी उसकी इंग्लैंड में एक और प्रेमिका थी । उसके अनेक प्रेम संबंध थे और वह संबंधों को नकार नहीं पाता था और ये सब इंदिरा जानती थी । हेराल् जल्द ही वित्तीय संकट में फंस गया और फिर उस पर अखबार के पैसे के दुरुपयोग का आरोप लगा । इससे इंदिरा बहुत नाराज हुई । करेले पर नीम चडने की कहावत तब और चढता हुई जब वो लखनऊ के एक राजनेता अली जहीर की बेहद खूबसूरत बीवी के इश्क में पड गए । जबकि इंदिरा के गर्व में संजय पड रहा था । कहा तो यह भी जाता है कि वो इंदिरा की नजदीकी रिश्ते की छोटी बहन चंद्रलेखा पंडित पर भी विदा थे । बॉटल फॅर उसके किसी मित्र के हवाले से रखा है । स्वभाव से रोमानी फिर रोज कामदेव बालों का जल्दी और आसानी से शिकार हो जाता था । अली जहीर की पत्नी के साथ प्रेम संबंध ने इतना तूल पकडा । नेहरू को अपने मित्र की रफी अहमद किदवई को मामले को संभालने और फिर उसको ये समझाने के लिए लखनऊ भेजना पडा कि वो इस प्रेम सम्बन्ध से तौबा कर ले । दिल्ली में यॉर्क रोड स्थित नेहरू के घर पर गहरी प्रसव पीडा के बाद नेहरू परिवार नहीं चौदह दिसम्बर उन्नीस सौ छियालीस को और एक बेटे संजय का जन्म हुआ । प्रस्तुति में इंदिरा का अत्यधिक खून रह गया और वो बस मौत के मुंह से वापस आएँ । इंदिरा ने याद करते हुए बताया हम बेटी की आशा कर रहे थे । सच्ची है कि हमने सिर्फ लडकियों के नाम ही सोचे हुए थे । बस बच्चे का नाम महाभारत के चरित्र के नाम पर संजय रखा गया जिसने कुरुक्षेत्र के युद्ध के दृश्यों का प्रस्तान नेत्रहीन राजा धृतराष्ट्र को सुनाया था । नाम का चयन विचित्र रूप में उपयुक्त अपने समय में संजय ने अपनी माँ को दृष्टिहीन माँ जैसा बना दिया था जिसे धृतराष्ट्र प्रवर्ति का शिकार भी कहाँ जा सकता है अथवा कहा जाए । ऐसी माँ जो अपनी संतान की गलतियों पर भी ममता में अंधी हो चुकी थी । संजय के जन्म के समय नेहरू के घर में मेहमानों की भीड लग गई थी और फिर उसको दिल्ली की ठिठुरती सर्दी में बागीचे में गडे । तंबू में सोना पडा उपेक्षित से दामाद के लिए जो अपने ही पुत्र के जन्म की प्रतीक्षा में था । घर के बाहर तंबू में रहना लज्जाजनक स्मृति थी । उनके बेटे जब बडे हुए तो वही अपने नाना द्वारा रोज की अनदेखी का विरोध करने लगे और उन्हें लगने लगा कि इंदिरा उनके पिता की उपेक्षा करती है, लेकिन बालकों ने अपने नाना को गलत समझा था । नेहरू पर हालांकि आरोप लगे कि अपनी बेटी को अपने घर में रहने के लिए कहकर उन्होंने उसकी शादी के टूटने में योगदान किया, मगर दिल से चाहते थे केंद्र और फिर रोज खुश रहे हैं । उन्होंने विजय लक्ष्मी पंडित को लिखा, मेरी ये दिले अच्छा हिन्दू की गृहस्ती बस जाए तो रोज हैराल्ड में ही काम करते रहे और हिंदू साल में अधिकतर समय वहीं बिताए । नेहरू मध्यरात्रि से एक मिनट पहले दिल्ली में चौदह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस को संविधान समिति में दुनिया को भारत के नियति सम्मेलन के बारे में बताने के लिए जब खडे हुए तो दर्शक दीर्घा में उन्हें ध्यान से सुन रही इंदिरा पिछले दूसरी ही दुनिया में पहुंच गई । ये मेरे जीवन के सबसे अधिक चौरानवे बार रोमांचक झंड थे । वो परिणति जिसके लिए बहुत सारे लोगों ने संघर्ष दिया था । पंद्रह अगस्त उन्नीस सौ सैंतालीस हो अब भारत के गवर्नर जनरल लॉर्ड बहुत बैटर ने नेहरू को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाई । उसके बाद माउंटबेटन दंपत्ति द्वारा दी गई शानदार दावत में इंदिरा अपने पिता के साथ बैठी थी और फिर उसको माउंटबैटन के प्रेस हताश के साथ दूर की मेज पर बैठना पडा । माउंटबेटन दंपत्ति ने फिर उसको कोई भाव नहीं दिया की साफ हो गया कि वे दो दिशाओं में खिंच रही थी और दांपत्य जीवन में कलेश था । इंदिरा प्रारब्ध की और पिछले को लालायित थी । उनकी महत्वाकांक्षा और आत्मा नई पहल की और कुलांचे भर रही थी । उनका चुका जैसे जैसे अपने पिता की और हो रहा था, विरोध चर्चा हाथ में दूर छिटक रहे थे । अपना समय पे लखनऊ में व्यतीत कर रहे थे । रोजाना सुबह लखनऊ के कॉफी हाउस जाते और अपने दोस्तों से राजनीतिक चर्चा करते हैं । जबकि इंदिरा दिल्ली वाली मन स्थिति में थी । उमंगे करने वाली मध्यरात्रि के बाद उस जाग्रत अवस्था में थी । उनका अदम्य साहस इन्होंने मार रहा था । स्वतंत्रता तो आई मगर उसकी खुशी पर बटवारे के दौरान एशियाना सांप्रदायिक दंगों का ग्रहण लग गया जिससे कम से कम दस लाख लोगों को लिया । बंटवारे में लगभग एक करोड सत्तर लाख लोग अपने घरों से विस्थापित हो गए । भारतीय साम्राज्य से अंग्रेजों की वापसी अपने पीछे जनसंहार का साया छोड गई थी । भारत या पाकिस्तान की और समुदायों के पलायन के संघर्ष में सिख एवं हिंदू और मुसलमान एक दूसरे को बेरहमी से मार रहे थे । खचाखच भरी ट्रेनों की सारी सवालिया मार दी जाती है । रेलवे स्टेशन खून से लाल थे । बंटवारे के बाद भयाक्रांत नेहरू ने लिखा, लोगों ने जैसी भीषण पाशविकता और परपीडक टूटता दिखाई उसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता हूँ । दहशत की भी कोई सीमा नहीं होती होगी । अगर उत्तर भारत में इंदिरा हो वो भी बार की जा चुकी है । बच्चों को सडकों पर जानवरों की तरह जगह किया जा रहा है । ये तो मेरी बर्दाश्त से बाहर है । उन्होंने बाद में कहा मेरे जीते जी भारत हिन्दू राष्ट्र नहीं बन पाएगा । धर्म आधारित राष्ट्र का विचार मात्र ही न केवल मध्ययुगीन है, अब तो मूर्खतापूर्ण भी है । हम महात्मा गांधी द्वारा दिखाए गए रास्ते का या तो पालन कर सकते ही या इसका विरोध कर सकते हैं । तीसरा कोई भी मार्ग उपलब्ध नहीं है । भारत की विदेशों में बदनामी हो रही है । भारत की धर्मनिरपेक्षता को सुरक्षित रखने के नेहरू के निश्चय ही उनके गृह राज्य कश्मीर को लडखडाते हुए राष्ट्र पाकिस्तान के चंगुल में जाने से बचाया । अक्टूबर उम्मीद सौ सैंतालीस में पाकिस्तान के उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत के पख्तून कबाइलियों को पाकिस्तान की तरफ से सीमा पार करा के कश्मीर में गुपचुप रातोरात फसाया गया । वो कश्मीर पर जबरदस्ती कब्जा करने के लिए लोग हत्या, बलात्कार करते हुए आगे बडने लगे । कश्मीर के महाराजा हरि सिंह अपनी जान बचाकर जम्मू पहुंचे और जहाँ उन्होंने ते मुझे मन पर दस्तखत करके जम्मू कश्मीर को भारत में शामिल कर दिया । भारतीय सेना की टुकडियां सत्ताईस अक्टूबर को सुबह श्रीनगर पहुंची थी और उन्होंने राजधानी की मोर्चाबंदी कर ली थी । सोच ये है कि आज कश्मीर को भी भारतीय धर्मनिरपेक्ष अंक का अभिन्न हिस्सा बनाने के नेहरू के सपने की धज्जियां उड रही हैं । उसके बजाय जिन्ना का तो राष्ट्र का सिद्धांत हावी होता दिखाई दे रहा है । घाटी में अंतहीन खूनी विरोध जारी है और हिंदू जम्मू तथा मुस्लिम कश्मीर के बीच विभाजन की कडवी हकीकत साफ दिख रही है जिससे नेहरू ने बचने का भरसक प्रयत्न किया था । बंटवारे के खून खराबे के दौरान इंदिरा ट्रेन से मसूरी से दिल्ली वापस आ रही थी । तभी उन्होंने देखा कि शादी स्टेशन पर दो व्रत मुसलमानों पर लोगों का पूरा हुजूम हमला कर रहा था । केवल तौलिया लपेटे तुरंत ट्रेन से कूद पडे हैं और उन्होंने भीड के बीच में से एक बूढे व्यक्ति को बचा लिया । संघर्ष की स्थिति में उनकी तात्कालिक प्रतिक्रिया यही होती थी कि वे सकुचाने के बजाय हमेशा भीतर घुसकर हालात को नियंत्रित कर लेती थी । वे तनावपूर्ण स्थिति में कभी भी हिम्मत नहीं हारती थी । मानो बचपन से ही उन्हें हर एक विपदा का निपुणता से सामना करना सिखाया गया हो । दंगों के दौरान किसी दूसरी घटना में उन्होंने भीड को गुस्से से घूम कर देगा और कहा, मैं इस आदमी का जीवन बचा रही हूँ । हम लोग मुझे मारने के बाद ही इसे मार सकते हो । महात्मा उनकी हिम्मत से प्रभावित थे । उन्होंने दिल्ली में उनसे शरणार्थी शिविरों में काम करने के लिए कहा । राहत और सेवा में मर स्कूल हो गई जिसके लिए उनकी तारीफ हुई और संकटकाल लें । हमेशा की तरह उनकी सर्वोत्तम क्षमताओं को काम पर लगा दिया । आगे चलकर उन्होंने बताया कि शरणार्थी शिविरों में ही आरएसएस के साथ मेरा संघर्ष शुरू हुआ । कुछ भोलेभाले देखने वाले लोग आसपास घूम रहे थे । उनके पास गुप्ती थी । इसमें छडी के अंदर तलवार होती थी । उससे वो किसी के भी सर पर मारते तो वो तो टुकडे हो जाता है । आपकी संघर्ष उनके समूचे राजनीतिक जीवन में बरकरार रहा हूँ । उन्नीस सौ सत्तर के दशक में आरएसएस को जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले इंदिरा विरोधी आंदोलन के जरिए मुख्यधारा में आने का मौका मिल गया । इंदिरा ने उसका बदला । इमरजेंसी के दौरान उस पर प्रतिबंध लगाकर निकाला । धार्मिक घृणा रहे । उन्नीस सौ अडतालीस में जनवरी की एक सर्द शाम हो प्रेम के दूध का जीवन हर लिया । नई दिल्ली स्थित बिडला हाउस में जनवरी की शाम को जब महात्मा प्रार्थनास्थल की और जा रहे थे, तभी नाथूराम गोडसे ने तीन खातक गोलियाँ गांधी जी की देह में चौक नहीं । इस नफरत के खिलाफ महात्मा ने आजीवन संघर्ष किया । उन पर भी भारी पडा । घटना से इंदिरा हिल गयी । जन्म से अब तक गांधी का सारा उनके जीवन में चट्टान की तरह बना रहा । उन्होंने जैसी खबर सुनी बिरला हाउस की तरफ लपकी । बाद में दोनों हाथों में फूल भर उन्होंने पार्थिव शरीर पर चलाने के लिए ले गई । बिरला हाउस तब आपकी हुई निस्तब्धता थी । हवा में बाबू की हत्या का गहरा सदमा कह रहा था । नाॅक कमरे में लाइफ पत्रिका की फोटोग्राफर मार्केट बुर्के वाई । अत्यधिक ऊंची एडी के जूते पहने, ठक ठक करती कमरे में फंसी । वहाँ मौजूद फिर ओजने लगभग करुँगा । कैमरा छीना उसे कमरे से पहले और उस महिला ने श्रद्धांजलि, प्रार्थना और गहरे शोक में डूबे स्थान को पवित्र कर दिया । इंडिया ने कहा, गांधी जी ने अपने दो दुर्बल हाथों से समुचित ऍम का मनोबल ऊपर उठाया था । नेहरू ने देश को संबोधित किया, हमारे जीवन की रोशनी पहुँच गयी है और चारों तरफ अधिकार है । किसी विक्षिप्त आदमी ने बापू का जीवन समाप्त कर दिया और हमें इस शहर का सामना करना होगा नहीं, जहर को निकाल फेंकना होगा । अब नेहरू की सुरक्षा पर भी ध्यान दिया गया और तय हुआ कि उन्हें अंग्रेजों के मुख्य सेनापति के निवास तीन मूर्ति भवन में आ जाना चाहिए । नेहरू की सुरक्षा के लिए तब तक कोई भी अंगरक्षक तैनात नहीं था । प्रधानमंत्री के कार्यालय या निवास में कोई भी आ जा सकता था, लेकिन नेहरू का पुलिस की सुरक्षा की सरकार थी । नेहरू के तीन मूर्ति भवन में आ जाने के साथ इंदिरा और दोनों बेटों ने भी लगभग पूरी तरह उनके साथ ही आ गए थे । इंदिरा स्थिति में न तो शादीशुदा थी और न ही चुनाव । अगर मैं नहीं आती तो मेरे पिता को बुरा लगता । मना करना कठिन था । बडी समस्या थी क्योंकि फिर उसके लिए स्वाभाविक था कि उन्हें मेरा जाना कतई पसंद नहीं आएगा । क्या कभी नेहरू ने उन्हें अपने लिए अथवा उनकी खाते अपने साथ रहने को कहा था हूँ । सागर लिखते हैं, रूस के साथ की परेशानियों ने उन्हें जिस अकेलेपन और दिल टूटने के त्रास में धकेल दिया था, उसे झेल पाना उनके पिता के लिए बेहद तकलीफ तेज था । अपने पति का घर छोडने का फैसला और उन के बजाय अपने पिता के घर रहने जाना उनके जीवन का बेहद महत्वपूर्ण निर्णय था जिससे फिर उसको इंदिरा के जीवन में अपनी दोयम हैसियत का अहसास हो गया था । कांग्रेस की किसी बैठक में नहीं हूँ तो कांग्रेस के लोगों पर अपने बीवी और बच्चों को साथ लाने पर भडके रोज फट पडेगी अपनी पत्नी को यहाँ साथ मैं नहीं लाया हूँ । बच्चों का दाखिला दिल्ली के ही नर्सरी स्कूल में हो गया और इंदिरा तीन मूर्ति भवन में घर गृहस्ती की व्यवस्था के किशीदा काम में व्यस्त हो गई । औपचारिक बोझ कार्यक्रमों के आकर्षक शांत वर्ष सुरूचिपूर्ण आयोजन में इंदिरा को उम्मीद सौ उनचास नहीं अगर पांच का सामना करना पडा और उनके वैवाहिक जीवन में नई जान डाल सकने वाली संतान के अनार पानी से उनके प्रभाविक संबंधों पर भी तुषारापात हो गया । यह बात दीगर है । इसके बदले पिता के साथ उनके लिए नई दुनिया के दरवाजे खुल गए थे । त्रिमूर्ति भवन में सत्ता के हिलोरे लेते जीवन का कुशल प्रबंध करने के साथ ही नेहरू के साथ अमेरिका और बाद में अन्य देशों की यात्रा पर भी गई कर बात के बाद डॉक्टर नहीं । हालांकि उन्हें अमेरिका की यात्रा रद्द करने की सलाह दी थी तो उन्होंने जाने की ठान रखी थी और हो कहीं भी फिर उसको छोड कर नई राह पर निकल गई थी । अमेरिका में भारत की तत्कालीन राजदूत मुझे लक्ष्य में पंडित नहीं जानबूझ कर इंदिरा को सारे सरकारी समारोह से अलग था । उन्हें उपेक्षित देख कर बहुत शास्त्री होमी जे बाबा ऍम तथा परमाणु ऊर्जा आयोग के संस्थापक थे । उन्हें दोपहर व रात के खाने के लिए बाहर ले जाने लगे । यात्रा के दौरान लेखक फोटोग्राफर डॉरोथी नॉर्मल से भी मिले और वह जल्द ही उनकी घनिष्ठ मित्र बन गई । उन्होंने इंदिरा को जाने माने लेख को चित्रकारों, विचारकों तथा संगीत नदियों से मिलवाया, थिएटरों में गई और फिर और आठ गैलरियों में गई और जीने के नहीं, तरीके से परिचित होने के एहसास के साथ भारत लौटे । बहुत बातें उस समय को याद करते हुए इंदिरा कहती थी, वहाँ तमाम क्षेत्रों के अगुवा व्यक्तित्वों से लगातार संपर्क हुआ । मैं अपने पिता के साथ कुछ उनके कुछ दौरों पर गई तो कारणों, सत्ता और कई अन्य नेता हमारे साथ रहे । चीन में मेरी भेंट माओत्से तुम बच्चा हूँ, एनलाइ से हुई । स्विट्जरलैंड में चार्ली चैप्लिन हमसे मिलने आएगा । लखनऊ की नीरज दुनिया से दूर वो करने लगी थी । उन्होंने बात बताने की कोशिश की । शुरू में वो उन्नत जिंदगी जीने के लिए अनिच्छुक । मैं मेहमाननवाज बनने की राह से कदम कदम पर बच रही थी । मैं उन तथाकथित सामाजिक जिम्मेदारियों से घबराई हुई थी । हमारे यहाँ मेहमान हमेशा रहते थे । शुरुआती घबराहट के बावजूद वो अपने स्वाभाविक माहौल में रह गई थी । छवि गतिविधियों की धुरी बनकर अपने नए दायित्व को सफल बनाने के लिए संकल्प वो रेंजरों की सूची बहुत होगा । फूलों की सजावट, पर्दे, चादर, नदियों के खोल और अन्य रोज मर्रा । घरेलू प्रबंध में गहरी रुचि होने लगे । संवेदनशील और कल्पनाशील मेजबान तो थी ही । तीन मूर्ति के बारे में अपनी शुरुआती आशंकाओं को वो कुछ यूज जात करती थी । ऐसी लंबे चौडे कमरे दूर तक जाते । गलियारे क्या मैंने कभी रहने लायक बनाया जा सकता था? क्या इनमें घर जैसा महसूस किया जा सकता था? उन्होंने मन ही मन ऊंचे मानदंड तय किए और उनकी कसौटी पर खरी भी उतरी घर की हर एक छोटी बडी व्यवस्था पर वे खुद ध्यान देने लगी । उनकी शानदार व्यवस्थापन कुशलता दिखाई देने लगी । मानस कहावत पर अमल कर रही हूँ । यदि किसी को कोई काम करना हो तो बेहतर है क्योंकि बढिया ढंग से करेंगे । इसलिए मैं उसी में रम गई । प्रधानमंत्री बन जाने के बाद भी घरेलू व्यवस्था पर उनकी पैनी और खास निभा रहती थी । आपने पश्चिम बंगाल यात्रा के दौरान किसी निरक्षण बंगले में उनके ठहरने के समय युवा जिला आयुक्त याद करते हैं की उन्होंने उनसे कहा जिला आयुक्त महोदय मुझे अच्छा लगा कि आपने गुसलखाने में मेरे इस्तेमाल के लिए नए तौलिये रखती है । ध्यान रखें कि अगली बार जब नए तौलिये खडी दें तो उन्हें मेहमानों के इस्तेमाल के लिए रखने से पहले हलवा जरूर लें । नए तौलिये जब तक एक बार धुल नहीं जायेंगे, इलेवन को सोच नहीं सकते हैं । प्रधानमंत्री रहते हुए भी किसी की विशिष्ट शैली को उनकी पार किया के पकडे ही लेती थी । पश्चिम बंगाल की उसी दौरे में पूरी जीत में सवार होकर हाथ हिलाते लोगों की भीड के बगल से निकलते हुए उनकी नजर किसी खूबसूरत स्त्री पर पडे वो कनिष्ठ वकील रूम आप कॉल और खोज थी, बाद में हाईकोर्ट के नामी न्यायमूर्ति बने । तब ये अपने भाई भास्कर घोष से मिलने आई हुई थी । जो जिला स्तरीय अधिकारी थे । उस दिन को वहाँ इंदिरा की सभा देखने आई थी । इंदिरा ने हाथ हिलाना और मुस्कुराना जारी रखते हैं और उन्हें देखते हुए इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक गोपालदत्त से मुश्किल सवाल पूछ लिया । पता ये मिस्टर दत्त आपको क्या लगता है कि वो युवती ने कौनसी शैली की साडी पहनी हुई है? आई पी के अवसर ने हकलाते हुए कहा सिल सिल की साडी लग रही है मैं इन्होंने प्रतिवाद किया ऍम नहीं है तो तब आऊं ये कोयंबटूर के हैंडलूम साडी है फॅार ध्यान देना ही आपके लिए बेहतर है । बाद में घोष ने जब बॉल से पूछा क्या सब कुछ वो साडी कोयंबटूर के हैंडलूम की थी तो बॉल ने बताया आप इंदिरा गांधी कि महर नजर और संदर्भ की सहज समझना जवाब थी उन्हें कपडे और बुनावट और उस पर उकेरे गए शिल्प सहित समझती रंग डिजाइन को वे दूसरों के नाकाम रहने पर भी आसानी से पहचान लेती थी और अपने परिवेश में प्राथमिकता के भाव रोक देती थी । प्रधानमंत्री आवास में उन्होंने प्रधानमंत्री के कामकाज और राजनीति के आरंभिक सबक सीखना शुरू कर दिया ऍम उन्होंने उत्तर प्रदेश की राजनीति की सडक और उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री जी बी पंत द्वारा नेशनल हेरॉल्ड की संपादकीय नीतियों में हस्तक्षेप करने के बारे में अपने पिता को पत्र लिखा । उन्होंने नेहरू को लिखा, यदि आप पाँच जी को अपनी हरकतों से बाज आने को नहीं कहेंगे तो भारत में भविष्य में लोकतन्त्र और प्रेस की आजादी की बात मत कीजियेगा । दो दशक पा रिजल्ट निरंकुश प्रधानमंत्री बने तो यही शब्द विडंबना में व्यंग्यपूर्ण प्रतीत हुए । नेहरू ने उनकी उपेक्षा की थी तो के चुनाव में जब उन्होंने अपने जीवन है, महत्वपूर्ण दोनों पुरुषों रायबरेली में रोज और फूलपुर में नेहरू के लिए प्रचार किया । नेहरू उनके ऊर्जावान तौर तरीके से प्रभावित हुए । उन्होंने एडविना माउंटबैटन हो विस्तार से लिखा है । वो इंदिरा के उत्कृष्ट कार्य से कितने अच्छे थे और विजय लक्ष्मी पंडित को ये कहते हुए लिखा, हिन्दू पिछले एक साल में और खासतौर पर चुनाव के दौरान अचानक बडी और परिपक्व होने लगी है । उसने पूरे भारत में प्रभावी ढंग से काम किया है । एकदम किसी सेनापति की तरह जंग की व्यू रचना कर रहा हूँ । वो इलाहाबाद में बिल्कुल नायिका जैसी हैं । लगभग ऐसा था जैसे वह प्रशंसा जात अचंभे से थे । जैसे कि उन्हें उम्मीद ही नहीं थी कि वो वास्तव में किसी भी क्षेत्र में बेहतरीन सिद्ध हो सकती है । रायबरेली के लोग याद करते हैं । इंदिरा ने फिर उसके लिए तांगे में बैठकर प्रचार किया था । ओ । पी यादव रायबरेली से पुराने कांग्रेसी और अनुभवी वकील है । उन्होंने याद करके बताया, उन दिनों कोई वातानुकूलित कार्य जीत नहीं थे । तांगे की सवारी करती या पैदल चलते थे तो किसी बहु की तरह प्रचार करती थी । चुनाव क्षेत्र में बडों के लिए बहुत सम्मान के साथ कभी किसी का नाम नहीं लेती थी । हमेशा ठाकुर साहब क्या पंडित जी के नाम से ही पुकारते थी । उनका सिर्फ छाडि के पल्लू से हमेशा ढका रहता था । रोज जो आजादी की जंग के दौरान अपनी निर्भीकता के लिए मशहूर थे । आपने कमजोर हृदय के बावजूद अनेको बार अंग्रेजों द्वारा पिटाई के दौरान डटे रहे सहित राजनेता थे । धारा प्रभाव हिंदी और इलाहाबाद की बहुत सी स्थानीय बोलियां आसानी से बोल लेते थे । रोज नए लोगों के साथ काम करने की अदम्य क्षमता दिखाई । गांधी जी ने एक बार फिर उसके बारे में कहा था, अगर मेरे पास मेरे लिए काम करने वाले फिर उस जैसे सात लडके हो तो मैं सात दिनों में स्वराज हासिल कर लो । रोज को रायबरेली से जो जबरदस्त जीत हासिल हुई, उस से इंदिरा में चुनावी हलचल के प्रति तब तक पाँच इन्हें आकर्षण ने अपनी आंखें खोली । राजनीति के प्रति उनका आकर्षण स्वाभाविक था । भले ही यह बात स्वीकार नहीं करती थी, मगर उनमें सार्वजनिक जीवन के प्रति बखूबी बहुत खूब जोश था । ऊपर से इनकार करने के बावजूद अंदर से बहुत कुछ करने को व्याकुल थी वो दोनों हालांकि दूर जा चुके थे, मगर उन्नीस सौ बावन में इंदिरा द्वारा फिर उसके लिए जबरदस्त प्रचार मैं शुद्ध कर दिया । उन के बीच राजनीतिक मैत्री तब भी जारी थी । राजनीतिक उथल पुथल के दौरान दोनों ने अंतरंग संबंध बनाए थे । वे विश्वविद्यालय के दिनों में वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं साझेदार थे । युवावस्था में दोनों ने तिरंगा साथ फहराया था और दोनों का जीवन आनंद भवन कि आंदोलनकारी भावना में पडा हुआ था । हालांकि फिर उसकी राजनीतिक तरक्की होने पर दोनों के बीच पेशेवर प्रदर्शन वर्धा के बीच पडने लगे थे । जैसे जैसे रूस की संसदीय गतिविधियां लोगों का ध्यान खींचने लगी, इंदिरा को गृहणी वार सहयोगी की भूमिका तो बधाई लगने लगी । इंदिरा को तो अपने जन्म के आधार पर शिष्टता हासिल थी तो प्रतिभावान फिर रोज रायबरेली से दो बार जीतकर अपने प्रयासों से प्रसिद्ध होते जा रहे थे । संसद में निर्णय वक्ता के रूप में भ्रष्टाचार के प्रश्नों का एक के बाद एक डटकर खुलासा कर रहे थे । आरंभ में मौत पीछे बैठने वाले नवनिर्वाचित फिर रोज संसद में शानदार प्रतिभा दिखाने लगे । कांग्रेस के अंदर वामपंथी थे, जैसे चालीस का दशकों में नेहरू थे । उन्होंने उन्नीस सौ पचपन में जीवन बीमा कारोबार में अगर सौदों का खुलासा कर भारत में जीवन बीमा के राष्ट्रीयकरण के लिए सरकार को मजबूर किया था । प्रेस की आजादी के मुखर रक्षक थे पता उन्होंने भारतीय प्रेस द्वारा संसदीय कार्यवाही की रिपोर्टिंग की स्वीकृति दिलवाने के मुहिम की सदारत की थी । हालांकि इस नियम को आपातकाल में इंदिरा ने रद्द करने वाली थी । रूस तीन सफलता हूँ के बावजूद शायद इन की वजह से ही उनके दिल्ली आ जाने पर भी पति पत्नी के संबंध सुधर रहे पाये । उन्हें नेहरू की मौजूदगी में होती थी । इसीलिए तीन मूर्ति भवन में रहना उन्हें असहनीय लगने लगा था । यद्यपि अपने ससुर के वो वास्तविक प्रशंसक थे, लेकिन उन्हें लगता था कि नेहरू के आस पास के माहौल में कुछ नकलीपन था और उन्हें प्रधानमंत्री का दामाद गहराना सख्त ना पसंद था । रूस के दोषियों और प्रेम संबंधों के विषय में होती रही रोज द्वारा आकर्षक सांसदों तारकेश्वरी सिन्हा, महमूद सुल्तान और सुमित्रा जोशी के साथ अपनी मित्रता का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जाने लगा । मानो अपने महान ससुराल वालों को चलाने और उन्हें अपमानित करने में उन्हें मजा आता था । यद्यपि तारकेश्वरी सिन्हा ने ऐसे संबंधों का यह कहते हुए खंडन किया, यदि कोई पुरुष व स्त्री साथ में दिन का खाना खा लें तो तुरंत उनके बीच अंतरंग संबंध की फट जाती है । मैंने एक बार इंदिरा गांधी से पूछा, क्या वो ऐसी अफवाहों पर विश्वास करती थी और मैं विवाहित महिला थी? मेरा परिवार था और संभालने के लिए रिजर्व थी । उन्होंने कहा था, ऐसी अफवाहों पर विश्वास नहीं करते हैं । फिर उसके प्रेम संबंध, बहस, आशिकी का जोश थे अथवा गहरे कामुक मेलजोल । इस बारे में लगातार बातें होती थी और ज्यादातर लोगों को यकीन था । रोज के ब्रेन संबंधों के कारण या फिर इंदिरा के समर्पित पत्नी न होने के कारण दोनों का तलाक हो जाएगा । नेहरू के सचिव रहे एम ओ मथाई छोटी कदकाठी के फुर्ती रहे । वह किसी काम से जी नहीं चुराने वाले व्यक्ति थे । उन्नीस सौ छियालीस से उम्मीद सौ तक पूरे तेरह साल नेहरू की परछाई बनकर रहे । वो मैं के नाम से मशहूर और सिंधु जल और दिलचस्प व्यक्तित्व के धनी थे । भाषा प्रवीण और हाजिरजवाबी उत्साही काम करने के लती, कार्यकुशल, स्पष्टवादी और निर्भीक व्यक्ति थे । इस पर नेहरू आंख मूंदकर भरोसा करते थे । इंदिरा को नेहरू से उनकी नजदीकी विजय लक्ष्मी और एडविना माउंटबैटन के साथ उनकी आत्मीयता की तरह ही ना पसंद थी । हालांकि मथाई से तमाम नाराजगी के बावजूद मथाई कि वह कथित प्रेमिका भी थी । मथाई की आत्मकथा ऍफ नेहरू एज में कथित रूप में उनके लिखे गए अध्याय का शीर्षक अच्छा ही था, जिसमें वो उत्तेजनापूर्ण इंदिरा का उल्लेख करते हैं जिनके साथ ऐसा बताते हैं कि उनका बारह वर्ष लंबा प्रेम सम्बन्ध था । इस कथित अध्याय के विभिन्न संस्करण दक्षिणपंथी वेबसाइटों पर व्यापक रूप में उपलब्ध है । इनके विवरण में ऐसी पंक्तियां लिखी गयी हैं जैसे उसकी क्लियोपेट्रा जैसी ना है । फॅमिली आंखें हैं और वीनस जैसे सन है । सब चाय के अनुसार उसकी रूकी और घृणास्पद छवि केवल स्त्रियोचित आत्मसुरक्षा व्यवस्था । वो बिस्तर में अतिरिक्त मजेदार थी । संभोग के दौरान उसमें फ्रांसीसी और तो और केरल की नायर महिलाओं जैसी कलात्मकता का समीक्षण महसूस होता था । उसे लंबे लंबे चुंबन पसंद थे और वो लेखक से गणपति हो गई तथा उसे कर पास कराना पडा है । अपुष्ट ऑनलाइन संस्करण के अनुसार इंदिरा कहती थी वो कभी भी किसी हिंदू के साथ विभाग करना बर्दाश्त नहीं कर सकती थी और एक पर उन्होंने कहा मुझे रानी मक्खी अच्छी लगती है । मैं ऊपर हवा में उडते हुए प्रेम करना पसंद करूंगी । अध्याय की अंतिम पडती है ना उससे बेहद प्रेम करने लगा था । शीन हम जिस अध्याय में अन्तरंग शारीरिक संबंधों का बहुत बेबाक और विस्तृत विवरण किया गया है वो कभी प्रकाशित नहीं हुआ । लेकिन फ्रैंक का मानना है कि मधाई नहीं ऐसे लिखा था और मेनका गांधी ने अपनी सास से विवाद हो जाने पर इस विशेष अध्याय को प्रसारित किया था । हालांकि बधाई की इस पुस्तक के प्रकाशन हर आनंद प्रकाशन के नरेन्द्र कुमार का कहना है कि वह यह नहीं कह सकते कि मथाई नहीं शी लिखा था या नहीं क्योंकि प्रकाशक को मूल पांडुलिपि के साथ वो अध्याय प्राप्त नहीं हुआ था । मथाई के साथ संबंध पर इंदिरा कभी कोई स्पष्टीकरण नहीं आया । नेहरू के जीवनी लेखक सर्वपल्ली गोपाल का कहना है कि इंदिरा और मधाई को एक दूसरे को लुभाने में मजा आता था और इस संबंध का वर्णन इस रूप में करते हैं । इंदिरा मथाई को सामान्य सीमा से अधिक बढावा देती थी प्रैंक लिखा है कि बीके नेहरू वर्सिस जिनके पास इंदिरा की बुराई करने का कोई कारण नहीं था । इसी साक्षात्कार में बताया कि इंदिरा और मंगाई के बीच कोई न तो संबंध था और श्री नामक अध्याय में कल्पना के मुकाबले सच्चाई अधिक थी । नेहरू गांधी खानदान के निकट सहयोगी कांग्रेस के पूर्व नेता और इंदिरा के सचिवालय नहीं उम्मीद सूट से उन्नीस सौ इकहत्तर तक नौकरशाह रहे नटवर सिंह कहते हैं, मथाई ने नेहरू को बहुत नुकसान पहुंचाया । वो आगे कहते हैं, उसी आई ए सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी के बहुत निकट थे । उन्नीस सौ छियालीस से उन्नीस सौ उनसठ के बीच नेहरू के मेरे से गुजरने वाला हर एक दस्तावेज सी । आई । को पहुंच जाता था । उन्होंने निजी स्वास्थ्य में प्रेम संबंधों संबंधी सारी कहानियां खुद फैलाई । रोज गांधी के मित्र निखिल चक्रवर्ती ने जब मथाई द्वारा संपत्तियों के सन्देहास्पद लेनदेन और विदेशों में धन छुपाने के षड्यंत्रों का खुलासा किया तो उन्हें शर्म के मारे उन्नीस सौ चौंसठ में नेहरू की सेवा के आगे नहीं पडी था । इन्दिरा के बारे में उसके लेख कडवाहट भरे व्यक्ति के प्रतिशोधी उदगार हो सकते हैं । फिर उसकी मृत्यु से दो साल पहले उन्नीस सौ अट्ठावन में जब जय करने इंदिरा कोई अफवाह के बारे में बताया जिसके मुताबिक तो फिर उससे बदला लेने के लिए अन्य पुरुषों के साथ प्रेम संबंध बना रही थी । इंदिरा कुछ से नहीं बोली इससे पहले की तुम दिल्ली की कक्षा मंडली से इस बारे में जानो मैं बता दूँ मैं फिर उसको तलाक दे रही हूँ । फिर खुद अपने दोस्त केंद्र मल्होत्रा पर कर्जे देखो । इससे पहले की तुम इस बारे में तोडे । मरोडे गए विवरण शुरू मैं तुम्हें बता दूँ मैंने प्रधानमंत्री निवास जाना एकदम बंद कर दिया है । उन्होंने अब इंदिरा को हिंदू मेरी पत्नी कहना बंद कर दिया था जैसा वो अभी तक कहते आए थे और इसकी जगह श्रीमती इंदिरा गांधी कहना शुरू कर दिया था । बाद में हालांकि स्पष्ट हो गया की औपचारिक अलगाव के लिए उन में से कोई भी उत्सुक नहीं था । रोज की मृत्यु से कई महा पूर्व दोनों ने सुलह का भी कोई प्रयास नहीं किया । संसद भी जैसे जैसे रूस का प्रभाव बढ रहा था, इंदिरा ने भी उन्नीस सौ पचपन में कांग्रेस कार्य समिति की सदस्य बनकर अपनी राजनीतिक जमीन तलाशनी शुरू कर दी । नेहरू की जीवनी लेखक मेरी सेटल लिखती है । किसी के साथ जब वो अपने पति की परिचारिका और रानी बेटी से आगे निकल गई और रातोंरात उनके बारे में नजरिया बदल गया । उसी समय से वो राजनेता की श्रेणी में डाल दी गई । उन्नीस सौ पचपन में तो कांग्रेस की केंद्रीय चुनाव समिति के लिए भी चुने गए । अखिल भारतीय युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बनी और उन्नीस सौ छप्पन में इलाहाबाद कांग्रेस समिति की भी अध्यक्ष बने । साल उन्नीस सौ के चुनाव में प्रचंड प्रचार करने के बाद उन्नीस सौ अट्ठावन में कांग्रेस के शक्तिशाली केंद्रीय संसदीय बोर्ड की सदस्य बन गई । वो अभी भी बाहरी तौर पर सार्वजनिक जीवन में दिखावटी उदासीनता जला दी थी । भाई कार्यसमिती में रहने की अभी तक नहीं हुई । आप मुझे बुजुर्ग राजनेता के रूप में सोच सकते हैं । उन्होंने इसे दोहराते रहना एक रणनीति बना ली थी । मानव राजनीति में आकर वो न जाने कितनी मुसीबत में थी । जब गांधी जीवित थे, तब गोविंद बल्लभ पंत ने मुझसे उत्तर प्रदेश विधानसभा में आने के लिए कहा था । मैंने साफ मना कर दिया था इसकी । पंत जी ने गांधी जी से शिकायत की । इस नादान लडकी को गलती देखिए, ये खुद को मुझसे ज्यादा चतुर समझती है । मुझे नहीं लगता था की मैं हर काम कर पाउंगी । इसके अलावा मेरे बच्चे भी बहुत छोटे थे । वो अपने कर्तव्य को मुस्तैदी से करने वाला को उत्साही व्यक्ति थी । शुरू में झिझक जाहिर करता है नाना करने वाली एक जब व्यक्ति वो राजनीति में प्रवेश लेने से जितनी शिद्दत से इनकार करती थी उसका उतना ही उल्टा मतलब होता था । अमेरिकी पत्रकार ऍम लिखा कोई भी सार्वजनिक हस्ती इतनी शिद्दत से अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा को छुपाती नहीं है और उससे ज्यादा अविश्वसनीय कुछ नहीं था । जीवन भर उनका निजी व राजनीतिक रवैया यही रहा । वो ज्यादा से ज्यादा ताकत हासिल करती गई । साथ ही ऊपरी तौर पर वो सबसे वितृष्णा होने का दावा भी कर दी रही । वो तो सब से छुटकारा पाना चाहती थी । रोज उन्नीस सौ सत्तावन के चुनाव में रायबरेली से दोबारा निर्वाचित हुए इंदिरा ने फिर उतनी ही मेहनत से प्रचार किया जितना उन्नीस सौ बावन में किया था । लेकिन इस बार फिर उसके बजाय नेहरू के लिए इंडिया का जोश ज्यादा रहा । संसद में रोज का फिर से दबदबा हो गया । सुर्ख गोल मटोल और चतुर कारोबारी की तरह । वो अपनी हास्य प्रतिभा से सेंट्रल हॉल में चल डाल देते थे । वो जहाँ बैठते थे उस सीट को फिर उस कॉर्नर के नाम से जाना जाने लगा । चर्चा में तब आए जब गहरी छानबीन के बाद उन्होंने सदन ने खुलासा किया भारतीय जीवन बीमा कंपनी ने किसी निजी व्यापारी को कर्ज के संकट से किस प्रकार हुआ था । मूंदरा कांड के नाम से चर्चित इस घोटाले से संसद हिल गयी और नेहरू के नजदीकी सहयोगी वित्तमंत्री टी टी कृष्णमाचारी को क्या पत्र देना पडा इस खुलासे की वजह से फिर उसकी पहचान जॉइंट किलर के रूप में होने लगे । साथ ही वो संसदीय लोकप्रियता के शिखर पर पहुंच गए थे । बावजूद इसके वो अपनी नाकाम शादी के कारण कुंठित और गुस्से में थे और में तीन मूर्ति भवन से निकलकर आपने संसद निवास में आ गए । कभी जोश से लबरेज और शाही जीवन का शो कि ये हसमुख इंसान अपने तन अकेला और उदास हो गया था । अत्यधिक शराब और सिगरेट के नशे में स्कूल खुलने लगा । संसद में उन्होंने जो अपनी पहचान लडाई उसमें नेहरू और इंदिरा के प्रति बल्कि समझती थी । फिर वो जब तीन मूर्ति भवन में इंडिया से मिलने जाते हैं तो वे हमेशा उदास रहते हैं और उनका रिश्ता संवाद ही हो गया था । खाने की मेज पर भी रस्मी बातचीत ही हो पाती । त्रिमूर्ति भवन में जिसका उपयोग हमेशा स्वागत होता था, उसने खुद ही अपने को बाहरी व्यक्ति मान लिया था और भोजन करते हुए या अपने बेटों के साथ समय बिताते हुए भी बहुत कम सौजन्य जाहिर करते । इसके जवाब में तब भारत की प्रथम महिला का किरदार निभा रही श्रीमती इंदिरा का रवैया उपेक्षापूर्ण और तिरस्कारपूर्ण रहता था । फिर उसका मजाज तब जाकर कुछ ठीक होता हूँ जब अपने बेटों के कमरे में जाते हैं । दोनों बेटे अपने पिता के साथ यांत्रिकी उपकरणों के खिलोनों में रम जाते हैं और घंटों उनसे तरह तरह की वस्तुएं बनाने में डूबे रहे । रोज से जब किसी दूसरे ही पूछा कि वे अपने बेटों को इतने सारे यांत्रिकी ये काम क्यों से खाते रहते हैं, तो उन्होंने व्यंग्यपूर्वक खुद हो जाते हुए कहा मेरे बेटों की मां अमीर है, लेकिन पापा बहुत गरीब है, मैं ये सुनिश्चित कर रहा हूँ ये कभी भूखे ना रहे । अपने पति के चिडचिडेपन और कुम था की तुलना नहीं । इंदिरा शानदार मिजाज में और सेहतमंद थी । पढाई लिखाई के दिनों में उनको घेरे रहने वाली बीमारियाँ अश्चर्यजनक रूप से गायब हो चुकी थी । ज्यादा खूबसूरत और मांसल धीरेंद्र ब्रह्मचारी जैसी हस्ती के संरक्षण में प्रतिदिन योग अभ्यास करती है । इसका नेहरू से परिचय कराया गया था । अपने बच्चों को बोर्डिंग स्कूल भेजने के बाद आगे की राह और किसी ऐसी भूमिका को तलाशने लगी तो निर्भय अविवादित लोक कल्याण से जुडी हो । उन्होंने चुनावों के दौरान प्रचार किया । प्रत्याशियों के चुनाव में भाग लिया । कांग्रेस पार्टी ने अलग अलग भूमिकाओं में काम किया लेकिन अभी तक लगाते हुए कहती थी केवल शातिर लोग ही उनके चुनाव लडने की बातें कर रहे थे । हालांकि उन्नीस सौ सत्तावन में चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने ये कबूला । ये अनुभव मजेदार था और उन्होंने पद्मजा नायडू को लिखा, रोहतक में सिर्फ मेरे कारण एक लाख लोग थे । कल्पना हो इससे साफ है उनके मन में किया था और उस बच्चे की तरह थी तो बडी एहतियात से किसी मिठाई कोचक रहा था और डर रहा था कि उसे ज्यादा स्वादिष्ट न लगने लगे । उस सावधानी से अपने पैर राजनीति के तलाब उतार रही थी । मान उन्हें ये पूर्वाभास हो । किसका नशीला रोमांच उन्हें झटके से पहले जाएगा में इंदिरा नहीं मुख्य रूप से तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष यू एंडेवर, गृहमंत्री जीबीपंत के जोर देने पर पैंतालीस वर्ष की आयु में कांग्रेस अध्यक्ष बनने के लिए खुद को तैयार कर दिया । कांग्रेस के वरिष्ठ लोगों ने इंदिरा पर ये दायित्व लेने के लिए जो डाला नेहरू ने सिर्फ इतना कहा आप लोगों का फैसला भले हो, मैं इसमें शामिल नहीं होने वाला । निश्चय ही देश के लिए उत्सुक नहीं थे और उन्होंने इसका पता लगने पर चुप्पी साधे रखी । उनका कहना था, सामान्यतः था ये ठीक नहीं है । मेरे प्रधानमंत्री रहते हैं । मेरी पुत्री कांग्रेसअध्यक्ष बन जाए । हिसाब नहीं है कि नेहरू ने जब उनसे दिल्ली आने और अपने साथ रहने के लिए कहा था तो ऐसा उनकी लडखडाती हुई शादी के प्रति एक पिता की संवेदनशीलता की वजह से किया था या फिर वो सचमुच चाहते थे कि वो उनकी परिचारिका के तौर पर उनके साथ रहे । इसीलिए निश्चित है नेहरू के भीतर का लोकतांत्रिक ये नहीं चाहता था कि उनके नाम पर राजनीतिक वंश स्थापित हो और इंदिरा के राजनीतिक जगत में प्रवेश करने की आतुरता से क्रुद्ध और और सहज थे । रामचंद्र गुहा कहते हैं, नेहरू के दिमाग में ये कभी नहीं आया था कि वो कभी भी प्रधानमंत्री के रूप में उन का स्थान लेंगे । वो कहते हैं कि मानते थे इंदिरा किसी न किसी राजनीतिक होने का में आएंगे लेकिन वो कोई छोटी भूमिका होगी हम तथा जो हुआ वो सरासर दुर्घटना थी । नेहरू अपने परिवार को भागीदार बनाते थे तो निश्चित सीमा टीटीके के त्यागपत्र के बाद कुछ लोगों ने सुझाव दिया कि विजय लक्ष्मी पंडित को उनकी कैबिनेट में शामिल होना चाहिए । नेहरू ने साफ कह दिया, उनके प्रधानमंत्री रहते हुए कभी भी उनकी बहन या पुत्र मंत्रिपरिषद में शामिल नहीं होंगी । इंदिरा के लिए अपनी पहचान स्थापित करने की इच्छा नहीं । उन्हें और बडी राजनीतिक भूमिका पानी को प्रेरित किया और अपने खानदानी पेशे की और वो चुंबक की तरह खिंच रही थी । पूरे होते जा रहे प्रधानमंत्री को अपनी बेटी का साथ चाहिए था । इंदिरा ने इस परिस्थिति का फायदा उठाया । बार बार इस्तीफे की कोशिश के बावजूद नहीं होगा । अपना सिंघासन से पाक की तरह मजबूती से चिपके रहे । उनका लगातार और लम्बा कार्यकाल इंदिरा के लिए बहुत फायदेमंद रहा जिसने आपने पापु के प्रधानमंत्री काल के आखिरी सालों को राजनीति के शिखर पर खुद को स्थापित करने के लिए इस्तेमाल किया और क्यों नहीं होती आजादी की जंग ने महिलाओं के सशक्तिकरण को तेज किया था । सरोजनी नायडू और विजय लक्ष्मी पंडित जैसी महिलाओं ने अपनी प्रभावशाली पहचान बनाई थी और सुभद्रा जोशी तथा शिव राजवती नेहरू जैसी सांसदों ने हिन्दू संहिता विधेयक पर बहस के दौरान महिलाओं के अधिकारों के पक्ष की ठोस पैरोकारी की थी । इंदिरा शायद एक नारीवादी की तरह न जानी जाती है, लेकिन अपनी शादी या पिता के आग्रहों के आगे अपनी महत्वाकांक्षाओं को त्यागना उन्होंने स्वीकार नहीं किया । मोतीलाल नेहरू की आत्मा उन्होंने अपना जीवन कठिन परिश्रम और महत्वाकांक्षा से बनाया था । उनकी पौत्री दें समझा थी अपने वैवाहिक जीवन को सामान्य बनाने का प्रयास । अपनी इच्छित महत्ती भूमिका की तुलना में अनुपयुक्त ये बात ऍम खराब सेहत के बावजूद नेहरू के साथ अमेरिका यात्रा पर जाने पर उतारू होने, स्वेच्छा से विभिन्न पदों को स्वीकार कर कांग्रेस पार्टी ने खुश नहीं । चुनाव के दौरान थकाऊ प्रचार अभियान और नहरों के लिए पहले उनके आंख और कान बनकर और बाद में उन का प्रतिरूप बनकर दृढतापूर्वक राजनीतिक संघर्ष करने से साफ जाहिर थी वे लखनऊ के बगीचे में गुलाब लगाने भर से कभी भी संतुष्ट नहीं थी । चाहे वो छवि बनाने के लिए उन्हें कितना भी कठिन प्रयास तो ना करना पडा हूँ । मैं ऐसी कहानी सुनाती हूँ । मेरा वैवाहिक जीवन विफल हो गया । मैंने अपने पति को छोड दिया । हम दोनों ही बहुत अडियल थे । उन्होंने मना किया होता तो मैं सार्वजनिक जीवन में कतई नहीं जाती । लेकिन मैं जब सार्वजनिक जीवन में कई तो उन्होंने इसे पसंद करके भी पसंद नहीं । क्या अन्य लोग तो पत्थर थे । लोग कहते थे कैसा लगता है प्रमुख और उसका पति हो ना शादी में पुरुष के अहंकार पर चोट कर रहा हूँ । सबसे बडी बुराई है इंदिरा का राजनीतिक था । उसके लिए उनसे दूर जाने का प्रतीक था । पत्नी के दायित्वों से दूर और लगभग उग्र सोच के अनुसार उन्हें ये संबंध पूरी तरह खत्म होने का सूचक लगा । लेकिन परिवार के पुरुषों की असहमती को अनदेखा करते हुए वो स्मार्ट गहराई से उतरती गई । कांग्रेस अध्यक्ष बनने के अपने निर्णय के बारे में बाद में कहने वाली थी । उस समय के कांग्रेस अध्यक्ष यू एंडेवर ने मुझसे कहा, बाहर से चीजों की आलोचना करने के बजाय तो मैं भीतर आकर काम करना चाहिए । कांग्रेस पर हमला हो रहा है । कांग्रेस में अन्य लोगों के द्वारा तो में बचाव करने के लिए आगे आना चाहिए । क्या ये लोग रहता से बोलते हैं? कोई कुछ नहीं करता हूँ । मुझे दुख है । मैंने बहुत पहले सकती भूमिका नहीं निभाई क्योंकि तब मैं शायद अपने पिता के लिए ज्यादा खुशी बटोर पार्टी । उन्होंने अपनी जीवनी लेखक टॉम ऑफिस से जोर देकर कहा कि वो कभी भी कांग्रेस अध्यक्ष नहीं बनना चाहती थी और ना ही कभी उनके पिता वैसा चाहते थे । लेकिन पार्टी के वरिष्ठजनों द्वारा दोनों को जबरदस्ती इसके लिए मनाया गया । कांग्रेस अध्यक्ष के रूप में उन के शुभारंभ के दिन दो फरवरी उन्नीस सौ उनसठ को पुराने घाघ नेताओं के बीच वो सफेद साडी और उन्हें हुए सफेद ब्लाउज में अपने तीखे नए नक्ष और झुकी नजर के साथ किसी नाजुक मेम ने जैसी दिख रही थी । ऍम पार्टी जी पार्टी के मुखिया बनने वाली सबसे युवा महिला नेता ऍम ने लिखा, यद्यपि अपने आरंभिक भाषण में उन्होंने दुर्बलता की हर सोच को झुठला दिया । उन्होंने उन्नीस सौ सपा उनके फिल्म रानी रूपमती के इस गाने का संदर्भ दिया हम भारत की नारी हैं कोमल कोमल भूल नहीं हम जो आना की चिंगारी हैं । जब इंदिरा ने अध्यक्ष के रूप में शक्ति प्रदर्शन किया, जल्द ही उनके पति राजनीतिक विरोधी बन गए । अध्यक्ष के रूप में उनका कार्यकाल असरदार रहा । बॉम्बे स्टेट भाषाई आंदोलन के कारण दो हिस्सों में बढ गया और मई उन्नीस सौ साठ दें । महाराष्ट्र और गुजरात अस्तित्व में आए । नेहरू भाषाई आधार पर राज्य बनाने के कट्टर विरोधी थे तो महत्वपूर्ण शासकीय मामलों में राजनीतिक समीकरण को सबसे अधिक तर जी देना इंदिरा की विषेशता थी जिसे उन्होंने आरंभिक चरण में भी दिखा दिया । मैं कहती थी, मुझे यकीन था कि हम गुजरात और महाराष्ट्र में चुनाव हारेंगे और कल गांव के समर्थक दल जीतकर विभाजन के पक्ष में वोट दे देंगे । हमें क्या हासिल होता अपने प्रधानमंत्री काल का एक दशक पूरा होने पर उन्नीस सौ सत्तावन में नेहरू को पहली चुनौती झेलनी पडी जब केरल में कम्युनिस्ट चुनाव जीत कर सत्तारूढ हो गए जीतने देश को हर में डाल दिया । भारत में पहली बार कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया सीपीआई चुनाव के जरिए सत्तारूढ हुई थी । क्रांतिकारी जनो बाहर की सीमाओं से निकलकर लोकतांत्रिक मुख्यधारा में शामिल हुई थी । केरल के विद्यालयों की कक्षाओं में गांधी के स्थान पर ऍम की तस्वीरें लगने से कांग्रेस न पत्ते में जा रही थी और कांग्रेस के वोट बैंक को बढती चुनौती के कारण संकट उसमें असुरक्षा पैदा हो रही है । कांग्रेस मुस्लिम लीग जैसे धर्म आधारित दलों से गठबंधन नहीं करने की कसम खा रखी थी परन्तु राजनीतिक समीकरण विचारधारा के ऊपर हावी हुए । अब इंदिरा ने बतौर कांग्रेस अध्यक्ष ये दिखा दिया कि राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को हराने के लिए वो गैर धर्मनिरपेक्ष संगठनों से साझेदारी में भी नहीं हिचकेंगे । कांग्रेस ने केरल में ईएमएस नंबूदिरीपाद के शिक्षा विधेयक का विरोध करने के लिए ईसाई चर्च, फॅमिली और नायर सेवा समिति के समर्थन का निर्णय किया । विरोध प्रदर्शन फैले और कांग्रेस अध्यक्षा के रूप में इंदिरा ने अपना पूरा जोर स्तर पर लगा दिया । नेहरू नम्बूदरी पांच सरकार को शिक्षा विधेयक द्वारा मुस्लिम और ईसाई समुदाय के हितों को नुकसान होने के बिना पर बकवास करें । बॅास उन्होंने नई दिल्ली से राज्य में आपने वफादार कांग्रेस कार्यकर्ताओं के बाद फिर सांप्रदायिक हिंदू मुस्लिम लीग के साथ अशांति को हवा दी । उन्होंने ये दिखा दिया कि वे सब और निरंकुश नेता बन सकती थी और उसका फायदा मिला । साल उन्नीस सौ उनसठ में कुछ फिरोजगांधी द्वारा मुखालफत सहित जबरदस्त विरोध के बावजूद केरल की सरकार को बर्खास्त कर दिया गया । केरल सरकार की बर्खास्तगी को इंदिरा के निर्णायक तौर तरीके, निरंकुश कार्यवाही, संस्थागत भ्रष्टाचार की उपेक्षा और नेहरू के पढते हुए और संवैधानिक दृष्टि से सही तरीके के प्रतिकूल शैली की झलक माना गया । उनका घर सुव्यवस्थित रखने वाली, उत्कृष्ट गृहस्वामिनी वाला जनून प्रजातांत्रिक मानकों संबंधी सभी बौद्धिक चिंताओं पर भारी पडा । केरल में जब कम्युनिस्टों को हराकर कांग्रेस अगला चुनाव जीत गई तो इंदिरा बहुत फुल थी । पहले ही वो उपलब्धि लोकतांत्रिक प्रणाली से निर्वाचन राज्य सरकार को गिराकर हासिल हुई हो । प्रश्न ही है कि संस्थागत निष्ठा के प्रबल समर्थक नेहरू ने केरल के विषय में इंदिरा के सामने हथियार तो डाले, चाहे नेहरू भी कांग्रेस के भविष्य के प्रति चिंतित थे और उन्हें लगा कि कम्युनिस्ट चुनौती को सिर उठाते ही कुचल देना चाहिए । सैद्धांतिक रूप में नेहरू स्वयं सामने वाले से असहमत और युगोस्लाविया वह हंगरी में फॅस पद्धतियों के आलोचक होते जा रहे थे । नेहरू भी सब कुछ ऐसा विश्वास करते रह रहे थे । पीएम इसका विरोध ऐसी सरकार के वक्त जन आक्रोश की लहर की अभी रखती थी, तो नियमित गिरफ्तारियां तो हजारों प्रदर्शनकारियों पर लाठीचार्ज करवा रही थी । उसने गोलियां चलवाकर बीस लोगों को मौत के घाट उतार दिया था । केरल के अपने दौरे में नेहरू को सडकों पर उन मान और सामूहिक घना की मूड की दीवार दिखाई थी और मैं विश्वास हो गया । इस सामने वाले हिंसा और अराजकता फैला रहा था । नेहरू ने नंबूदरीपाद को नए सिरे से चुनाव कराने के लिए कहा भी तो ये मैं साफ मना कर दिया । परिणामस्वरूप उनकी सरकार पर खास हो गई, लेकिन बेटी को इस निर्णय पर अपने पिता की गहरी बेचने का अंदाजा था । इंदिरा ने बाद नहीं केरल सरकार की बर्खास्तगी में अपनी प्रमुख भूमिका से इनकार किया । मार्क्सवादी हमेशा मुझ पर अपनी सरकार गिराने का दोष बढते रहे हैं लेकिन केन्द्र के राजी हुए बिना कभी नहीं हो पाता हूँ । अकेली मेरी राय से हालत नहीं बदलने वाले थे । मेरे पिता और सरोज इससे खुश नहीं थे । लेकिन पंतजी तत्कालीन गृहमंत्री निश्चिंत थे, ये तो होना ही चाहिए । मेरी भूमिका इतनी महत्वपूर्ण नहीं थी जितनी बतलाई गई । इतिहासकार मानते हैं । इसके लिए वो अकेली जिम्मेदार नहीं थी । पता और कांग्रेस अध्यक्ष भी अपनी बात कह सकती थी । लेकिन हम तो था नेहरू नहीं । अपने एक निर्णय से ये नस की सरकार बर्खास्त सर्वपल्ली गोपाल कहते हैं, ये कैसा फैसला था जिसने इसमें नेहरू की प्रतिष्ठा को कलंकित किया और उनकी स्थिति बेहद कमजोर है । बहरहाल, चाहे वो सीधे जिम्मेदार थी या नहीं मगर केरल के कारण इंदिरा और फिर उसके बीच गंभीर व्यवहारिक कल पैदा हो गयी । केरल को लेकर रोज बहुत तेज थे । केरल की सरकार की बर्खास्तगी की मूर्खता के विरुद्ध लगातार मंत्रियों को समझा रहे थे । वो अपनी पत्नी की अलोकतांत्रिक हरकत के सामने अपनी पराजय से बेहद कटु हो गए थे । वो यहाँ पत्रकार जनार्दन ठाकुर द्वारा बताया गया हिस्सा बताते हैं । केरल के मामले पर नेहरू गांधी परिवार में नाश्ते की मेज पर भी चर्चा हुई और रोज नहीं इंदिरा से कहा, कतई उचित नहीं है । हम लोगों को धमका रही हो । हम फासीवादी हो । इंदिरा गुस्से में तमतमाकर कमरे से ये कहते हुए बाहर निकल गई मुझे फासीवादी कह रहे हो । मैं इसे बर्दाश्त नहीं कर सकती है । केरल नहीं पति पत्नी के मतभेदों को सार्वजनिक कर दिया । इंदिरा के मित्रों में शुमार एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी मेरी शेजवलकर समयवधि सरकार की बर्खास्तगी पर साफ साफ नाराज उनका मानना था यद्यपि फिरो और इंद्रा दोनों ही समाजवादी और राष्ट्रवादी थे । मगर रोज संघवादी, ब्लाॅस्ट और इंदिरा तानाशाह वो सारी शक्तियां अपने मुठ्ठी में बंद करना चाहती थी । वो एक संघ के रूप में भारत के खिलाफ थी । उनके विचार में संघवादी राष्ट्र बनने लायक भारत का पर्याप्त विकास ही नहीं हुआ था । वो अभिमानी नेहरू थी । साम्राज्ञी जैसी संकल्पशील जो अपनी प्रजा के बेलगाम होने पर उन्हें अपनी सत्ता से काबू करती थी । रोज सुधारवादी कार्यकर्ता जो सिद्धांत के लिए संघर्ष करने दें, प्रसन्न रहते थे । इंदिरा ने उन्नीस सौ उनसठ डोरोथी नार्मन को लिखने वाली थी मुसीबतों का विशाल सागर मुझे निकलता जा रहा है । रोज मेरे अस्तित्व से हमेशा रोहित रहे हैं लेकिन अब चुकी अध्यक्ष बन गई है । वो ऐसी दुश्मनी दिखाते हैं कि माहौल विषैला होता लग रहा है सिर्फ मेरे लिए मुश्किलें बढाने को । उस सामने वादियों की तरफ ज्यादा से ज्यादा झुकते चले जा रहे हैं । कांग्रेस को मजबूत करने के लिए मेरी सारी मेहनत नहीं बलीचा लगा रहे हैं । इसके बाद इंदिरा ने कांग्रेस के अध्यक्ष पद से बमुश्किल एक वर्ष पूरा होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया । उन्होंने अपने पिता से कहा कि उन्हें लगता है की उन्होंने अपना कर्ज चुका दिया । बीस अक्तूबर उन्नीस सौ उनसठ की सर्द रात नहीं बिस्तर में घंटों करवटे बदलने के बाद सुबह पौने चार बजे ही उठ बैठी और अपने पापा को लिखा । पिछले आठ वर्षों में मैंने ज्यादा से ज्यादा परिश्रम के साथ काम किया है । ये महसूस करते हुए कि शायद मैं तभी भी पर्याप्त नहीं कर पाते हैं । पिछले वर्ष वो छोड आया तो मैंने हल्का महसूस किया मानो आखिरी कर्ज चुक गया । मैंने ये महसूस किया जैसे मैं छोटे से पिंजरे में बंद पंची है । उनका लहजा कुछ हद तक अविश्वसनीय था । वो जानती थी की अपनी नियति से दामन छुडाकर भाग रही थी और बाद नहीं । उन्हें अपने निर्णय से निराशा भी हुई । पता और पार्टी अध्यक्ष उन्होंने जो हासिल किया था उस पर उन्हें गर्व था और सबको छोड देने का दुख दी तो कि वास्तव में अपनी इच्छा के बजाय उन्होंने अपने पिता और पति की अनकही इच्छाओं का मान रखते हुए वैसा किया था । वो अपने अध्यक्षीय कार्यकाल कि यादव को बडे भावभीने रूप में याद करती थी । मैं सही समय पर कार्यालय जाती थी । सुबह ठीक नौ बजे हमने नया परिवर्तन किया की पहली बार कांग्रेस दफ्तर सभी के लिए खोल दिया । मैंने व्यापक यात्राएं की, गोष्ठियां आयोजित करवाई, पदयात्राएं की, उसको ठीक किया और एकदम युवा ढांचे की व्यवस्था की और भाग्य वाली कांग्रेस पार्टी ने मेरे साथ चढाई पर चढ ने से इंकार कर दिया । उनके मीडिया सलाहकार एचवाई शारदाप्रसाद लिखते हैं, कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर रहते हुए अपने पिता के साथ उनके सहज संबंध नहीं थे । उन में केरल के मामले में मतभेद था । ये और फिर रोज गांधी का स्वास्थ्य उनके अचानक पद छोडने का कारण है । एक दशक के बाद उन्होंने अपनी सोच के अनुरूप कांग्रेस पार्टी बनाई । उनके पिता जब पति की परछाई से मुक्त थी । क्या अपनी शादी पर ध्यान देने के लिए अध्यक्ष पद छोडना? उनका अंतिम प्रयास था? रोज एक तरह से उनकी राजनीतिक गुरू थे । पढाई के दौरान इंग्लैंड में वही थे जिन्होंने उन्हें लेबर पार्टी की राजनीति फासीवाद विरोधी आंदोलन में रूचि लेने के लिए प्रोत्साहित किया था । रोज नहीं पश्चिमी शास्त्रीय संगीत से भी उनका परिचय कराया था । कहती थी सभी नेहरू बहुत बेसुरे लोग थे तो फिर रोज था जिसने पश्चिमी शास्त्रीय संगीत के आनंद से हमें परिषद कराया । इस सब के ऊपर फिर उसने ही पूरी लगन से उनकी माँ की सेवा की थी । ऐसा जोडीदार केवल पति ही नहीं बल्कि हाथ में हाथ लिए संगीत भी था । कठिन सफर में हम रही था सरपरस् और मार्ग दर्शक था जून उन्नीस सौ साठ में । फिर उस इंदिरा और बच्चे कश्मीर में छुट्टियाँ बिताने गए और वहाँ डल झील में शिकारे पर रहे । ये वो अवसर था इसके बारे में । बाद में वो बताने वाली थी । उन्होंने तय कर लिया था अपने पिता की मृत्यु के बाद वो पूरी तरह से फिर उसके प्रति समर्पित हो जाएंगे । उनका ये निश्चय तभी कसौटी पर नहीं कसा जा सका । उन्नीस सौ साठ में आठ सितंबर को फिर उसकी दिल के दौरे से मौत हो गई । वो इंद्रा को एक ऐसी हालत में छोडकर गए जहाँ मेरा पूरा मानसिक और शारीरिक जीवन अचानक बदल गया । मैं शारीरिक रूप से बीमार थी । दो हिस्सों में बंटी हुई थी भगत याद करती हैं कि पंडित जी फ्रूट्स और संजय तीनों की मृत्यु में से सबसे अधिक रूस की मृत्यु से टूटी थी क्योंकि शायद बहुत कुछ ऐसा था जो अनसुलझा और अधूरा छूट गया था । शायद नेहरू की बेटी से विवाह करने के कारण उनके अपमान और मायूसी को वो समझती थी और कहीं ना कहीं उन्होंने फिर उसको उनके रसिक स्वभाव और विद्रोही तेवरों के लिए सचमुच माफ कर दिया था । उन का संबंध पेचीदा और बहू पडती था और जैसा बाहर से प्रतीत होता था, उससे कहीं ज्यादा फिरोज इंदिरा की जिंदगी और व्यक्तित्व का हिस्सा थे । पति होने के बजाय लगभग एक पारिवारिक सदस्य थे, था, बहुत झगडते थे । हम दोनों एक जैसे अडियल थे । एक जैसे जिद । हम दोनों में से कोई भी हार नहीं मानना चाहता था और मुझे याद करके अच्छा लगता है । ये झगडे हमारी जिंदगी ने जान डाल देते थे, क्योंकि इनके बिना हमारा साधारण और उबाऊ सामान्य जीवन होता । दोनों भिन्न होने के बजाय एक जैसे थे । मजबूत तूफानी व्यक्ति और एक दूसरे पढाई होने के लिए प्रवर्तन नटवर सिंह याद करते हैं, उनकी मृत्यु से टूट गई थी मैंने बस पति उन्हें रोते हुए देखा था । उनकी देह को त्रिमूर्ति भवन लाया गया था । पंडित जी ने देखा श्रद्धांजलि देने के लिए गरीबों की भीड लगी है । उन्होंने कहा, मुझे नहीं मालूम था कि फिर वो जितना लोकप्रिय था । इंदिरा गांधी पूरे समय आसनों में डूबी थी । आनंद मोहन लिखते हैं, रूस को इंद्रा पसंद नहीं करती थी लेकिन उन्हें बिहार जरूर करती थी । डॉक्टर माथुर याद करते हैं कि इंदिरा जब भी रूस के बारे में कोई मजेदार किस्सा सुना दी, विशुद्ध प्रेम के साथ हसती थी । उनका पसंदीदा किस्सा इसके बारे में था । वो कैसे घोडे से गिर गए थे । एक और किस्सा ये था कि कैसे शंकर ने उनका सोते हुए का कार्टून बनाया था क्योंकि मुलाकात का समय भूल गए थे और उस समय सोते रह गए थे और प्रमाण भर याद करते हैं । वो ये सारे किस्से लगातार हंसते हुए सुनाया करती थी । रूस की मृत्यु के बाद उन्होंने अपने आप को राजनीतिक कार्यों में छोड दिया । कांग्रेस कार्य समिति के लिए वे उन्नीस सौ इकसठ में चुनी गई । केंद्रीय चुनाव समिति की सदस्य बनी और फिर उसके लिए अपने काम को खोलकर उन्नीस सौ बासठ के आम चुनाव में पूरी शिद्दत से प्रचार में जुट गई । रूस के गुजरने के तीन साल के भीतर नेहरू भी चल बसे । अपने जीवन के दो सबसे महत्वपूर्ण पुरुषों की अनुपस्थिति में अलग है । इंदिरा भरने वाली थी । चीन की सेना ने उन्नीस सौ बासठ के अक्टूबर में मार्च करते हुए भारत व चीन के बीच वास्तविक सीमा रेखा मैकमोहन रेखा को पार करके भारतीय इलाके पर कब्जा कर लिया । चीन के साथ तनाव बढता जा रहा था । तीन सडक का निर्माण कर रखा था जिसमें भारत के अक्साई चिन इलाके के कुछ हिस्से का भी अतिक्रमण किया गया था । चीन के साथ तनाव पहले से बढ रहा था क्योंकि तिब्बत के नेता दलाईलामा के भाग कराने पर भारत ने उन्हें राजनीतिक शरण दे दी थी । चीन का हमला भीषण और अप्रत्याशित था और भारतीय सेनाएं मैदान छोडकर भाग गई । तैयारी से महरूम और नाकाफी हथियारों वाली सेना का आक्रमणकारियों से कोई मुकाबला नहीं था । कुछ वीरतापूर्ण मिसालों में जैसे रेजाउल लॉक के युद्ध में सैनिकों ने भारतीय चौकियों की रक्षा करते हुए जीवन बलिदान कर दिया । नेहरू ने दिलेरी के साथ चीन से दोस्ती का हाथ बडा था । भारत और चीन ने उन्नीस सौ में पंचशील के पांच सिद्धांतों पर आधारित शांतिपूर्ण सह अस्तित्व के समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और एशिया की हवायें हिन्दी चीनी भाई भाई के नारों से मजबूर हो गई थी । अब नहीं हो तो चीन की घुसपैठ को मामूली बता रहे थे और गश्त के दौरान हल्की फुल्की मुठभेड कह रहे थे । एक दम आराम थे चीन के भाई भाई वाली भावना में तो कैसे घबराए हुए युद्ध के कुछ दिनों के अंदर आकाशवाणी रेडियो पर प्रसारण के दौरान उनकी आवाज बार बार लरज रही थी । चीन की सरकार ने भलाई के बदले दुष्टता लौट आई है । वो लगभग फुसफुसा रहे थे लेकिन इंदिरा ने अपने आप को हम मस्त संभाला और युद्ध के मोर्चे की और तुरंत चढ पडी । बाकी राहत सामग्री का वितरण ठीक प्रकार से हो सके । शायद ये जानते हुए भी कि उनके पिता चीन के आक्रमण के इस आघात को सहन नहीं कर पाएंगे, उनके लिए बचाव की मुद्रा के रूप में उन्होंने स्वयं को निजी योगदान के लिए तैयार किया और असम में तेजपुर की यात्रा पर निकल पडेंगे । फिर एक बार निडर सच्चा हो और संकट से लडने के लिए सन्नद्ध होकर ये बताने के लिए कम से कम नेहरू परिवार के सदस्य की बुद्धि उसके साथ एक और चुनौती के हमने सामने मुकाबले के लिए तैयार हैं । संकट की चेतावनी की अनदेखी करके, तेज बारिश के बीच और भयातुर लोगों से मिलती हुई सेना के हवाई जहाज से तेजपुर के लिए निकल पडे । चीन की सेना तेजपुर से केवल दीनशाह तीस मील दूर थे और उनके सुबह तक वहाँ पहुंच जाने की आशंका थी कि आरक्षित इलाका था सेना की टुकडियां और पुलिस मैदान छोडकर भाग चुकी थी । उनके वहाँ जाने से जवानों का हौसला बडा बहादुर थी । वो स्वभाव है तो साहसी थी । आगे जब बडी लडाई लडी जानी थी उनकी व्यक्तिगत सुरक्षा के कोई मायने नहीं थे । इस शुभ रात्रि में सब जानता मत देखा हूँ । लगता था वो नेहरू को संकेत दे रही थी । रोशनी खत्म होने से पहले तेजी से कदम बढा हो । संकटकाल मंत्री साहस और दृढता हूँ । अविश्वसनीय थे उन्नीस सौ बासठ के युद्ध के दौरान और उसके बाद इंदिरा ने जुझारू राष्ट्रवाद और अद्भुत साहस का प्रदर्शन किया अपने पिता से ये कहने में उन्होंने चिरपरिचत निष्ठुरता भी दिखाई । यदि लोग काम नहीं करते तो उन्हें हटना चाहिए । रक्षामंत्री कृष्णामेनन के इस्तीफे की उठ रही मांग के संदर्भ में कहा गया था, यद्यपि नेहरू अपने पुराने दोस्त और सहयोगी के प्रति कार्यवाही से हिचक रहे थे । मेनन चीन के खतरे की गंभीरता आंकडे में विफल रहे थे । ये मानते हुए कि असली खतरा चीन से नहीं बल्कि पाकिस्तान से था, उन्होंने भारत द्वारा आधुनिक हथियार प्रणालियां खरीदने में अडंगा लगा दिया था और सेना की भर्तियों में हस्तक्षेप किया था । किससे नाराज तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल केएस थिमैया ने इस्तीफे की चेतावनी दे डाली । मैनन की अनिर्णय के कारण भारतीय सेना दुखद रूप से तैयार ही नहीं थी । भारत के पहले प्रधानमंत्री हो उन्नीस सौ बासठ के युद्ध ने स्पष्ट कर दिया वो फिर कभी अपनी शारीरिक ताकत, बौद्धिक कौशल और नैतिक बल वापस नहीं पा सके । निर्मल और हमें उनके कंधे ढलक गए थे और उनकी आंखें खानी खाली और उम्मीद ही हो गई थी । नेहरू तीन बार पहले ही इस्तीफा देने की कोशिश कर चुके थे । इंदिरा ने कभी उन्हें ये लिखते हुए इसके लिए प्रोत्साहित भी किया था । हमारी राजनीति में बहुत कुछ सड चुका है । लोग शराफत और महानता को समझने में असमर्थ है । तीन से युद्ध के बाद उन्होंने दुखी होकर स्वीकार किया है कि भारत अब तक आपने भ्रम में जीता रहा । राष्ट्रपति राधाकृष्णन तक मेहरू की आलोचना से बाज नहीं आए और उन पर भुलावे में जीने और लापरवाही का आरोप लगा दिया । उन्नीस सौ बासठ के चुनाव में कांग्रेस की निश्चयात्मक जीत हुई तो पार्टी को वोट कुछ काम मिले । भारतीय जनसंघ और स्वतंत्रता पार्टी को लोकसभा में काम शाह चौदह वो अठारह सीटें मिली । नेहरू अवैद्ध नहीं थे । संसद में में जे बी कृपलानी, मीनू मसानी और राम मनोहर लोहिया ने मेज पीट कर इस्तीफा दो नेहरू इस्तीफा दो का शोर मचाते हुए नेहरू को लगातार खडी खडी सुनाई । संसद भवन के बाहर भी विपक्ष के हजारों समर्थक इन्ही नारों से आसमान खुल जा रहे थे । इंदिरा रक्षात्मक मुद्रा में आगे आए । उन्होंने जैसा कहा था मैं तो तीन चार वर्ष की उम्र से ही अपनी देखभाल खुद कर रही थी । मैं हमेशा अपने माता पिता की भी देखभाल करती रही हूँ । उन्होंने कभी जैसे कमला का बचाव किया था वैसे ही अब नेहरू की सुरक्षा के लिए आता है । जबकि कमजोर हो रहे दिग्गज के नजदीकी साथी भी उनके लिए घातक सिद्ध हो रहे थे । कृष्णा मेनन को पद से हटा दिया गया । नेहरू के बाद शक्ति पन्ने यानी छत्रपों की टोली पार्टी में उभरने लगे । इंदिरा ने में डोरोथी नार्मन को लिखा था कि वह भारत को छोडकर इंग्लैंड में छोटे से घर में बचना चाहती थी । लंदन में एक घर का जिक्र करते हुए इसे खरीदने में उनकी दिलचस्पी थी और जो बाद में पता चला किसी और में खरीद लिया । उन्होंने लिखा, पिछले वर्षों में मेरी निजता और गुमनामी की जरूरत धीरे धीरे बढती गई है । अपने पर आसक्त हुए अमेरिका के राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन को अप्रैल में नेहरू का एक पत्र पहुंचाने वो अमेरिका गई । वो बाद में और अधिक मंत्र मुग्ध हो गया था । प्रेस से मिलिए कार्यक्रम के दौरान जब पूछा गया क्या वो नेहरू के उत्तराधिकारी बनकर कार्य करना स्वीकार करेंगे तो उन्होंने कहा, नब्बे प्रतिशत में अस्वीकार करेंगे । दरअसल नाममात्र के बाकी दस प्रतिशत अघोषित क्षेत्र में ही इंदिरा के सपने मौजूद थे । भले ही उन्होंने नॉर्मल को लिखकर ये धारणा जताई थी कि वो अपना पिंड छुडाना चाहती थी । भुवनेश्वर में में कांग्रेस के अधिवेशन को संबोधित करते हुए नेहरू अचानक गिर पडे । ये मस्तिष्काघात था डाॅन के शरीर के हिस्से को लकवाग्रस्त कर दिया था । नेहरू को असुरक्षित देखकर उनके विरोधियों ने घेरेबंदी मजबूत कर दी । पापु के खिलाफ सोची समझी और सुनियोजित मुहिम चल रही है । इंदिरा ने मई में बी के नेहरू को लिखा उन को कमजोर कर नहीं और अगर मुमकिन हो तो बुखार देने की हर कोशिश की जा रही है । पहले जैसे कतई नहीं रहे । एक के बाद दूसरे पुराने साथ ही पल्ला झाड रहे हैं । अब शुद्ध लोगों से घिरे हुए हैं । इस समय दिल्ली दरबार में जोशो खरोश से अंदाजा लगाया जा रहा था उनकी ताकत कहाँ तक फैली हुई थी और वो कथित गद्दी के पीछे की ताकत समझे जाने से बिल्कुल भी नाखुश नहीं थी । हालांकि वो अभी भी बहकाने की कूटनीति कर रही थी तो नॉर्मल को फिर से लिखने वाली थी । भारत और दुर्भावना एशिया और शत्रुता से निकल जाने की इच्छा है । जवाहरलाल नेहरू की सत्ताईस मई उन्नीस सौ चौंसठ हो हो गई । किसी के साथ इंदिरा गांधी की आपके सोनी और दे रंग हो गई क्योंकि वो एक झटके में अपने उस रक्षात्मक घेरे से महरूम हो गई थी जिसने उन्हें बढा दी हुई थी । इसीलिए अपने पिता की विरासत को समझने की कोशिश शुरू की और उनके नाम को उन्होंने अपना सुरक्षा कवच बना लिया । अपने निजी दुख को हावी न होने देते हुए उन्होंने पिता की अंत्येष्ठि की व्यवस्था बेहद सावधानी से अपने हाथ में ले ली । यह भी सुनिश्चित किया घर के कर्मचारी चाकचौबंद दिखाई दें और उन्हें कडाई से निर्देश दिए कि नेहरू की साफ सफाई पर जोर देने की आदत को निभाते हुए गन्दगी न होने देंगे । उन्होंने दृढतापूर्वक अपने पिता के अंतिम संस्कार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ले उतनी ही कुशलता से जितनी से वे उनकी विरासत को अपने कंधों पर लेने वाली थी । ध्यान रखते हुए पार्थिव देह बर्फ में पूरी तरह ढकी रहे ताकि बीच कर्मियों की गर्मी में उसमें शर्म हो । नरगिस के फूल वहाँ पर्याप्त मात्रा में हो । तेरे को सुसज्जित करने के लिए गेंदा और गुलाब के फूल मंगाए गए । की भजन वैसे ही कराई जायें जैसे नेहरू को पसंद थे । वो भेजा सूती, सफेद साडी और लंबी आस्तीन के ब्लाउज में झडी की तरह सीधी बैठी थी और हजारों शोकाकुल लोग पंक्तियों में नवजात भारत राष्ट्र को दुनिया के महानतम लोकतंत्रों की श्रेणी में बराबरी पर खडा करने का सपना देखने की हिमाकत करने वाले बीसवीं सदी के महानतम राजनेताओं में शुमार तत्व केशव पर फूल चढाकर श्रद्धांजलि दे रहे थे । उस रास्ते के दोनों और पंक्तियों में मनुष्यों का सागर लहरा रहा था । जिसके रास्ते विशेष ट्रेन से उनके अवशेषों को इलाहाबाद ले जाया जा रहा था । पेट्रोल पर हर जगह लोग थे फूलों की पंखुडियों बरसाते हुए, जमीन पर खंबों पर छत की शहतीर ऊपर दुकान की छतों पर, घरों की छतों पर पेडों पर भीड का कोई ओर छोर नहीं था । ऐसी जबरदस्त लोकप्रियता थी फुल्ल मोहन तेजस्वी, जवाहर लाल की इसे राजा नहीं बनना था । विनम्र और सादगी पसंद लालबहादुर शास्त्री अप्रत्यक्ष उत्तराधिकारी थे, स्वतंत्रता संग्राम युग के सहयोगी थे, जिन्होंने नेहरू के नजदीकी सहायक के रूप में काम किया था और इंदिरा की कुछ भ्रष्ट टिप्पणियों का लक्ष्य भी थे । उन्नीस सौ छप्पन में जब शास्त्री जी ने रेल दुर्घटना के बाद इस्तीफा दिया और पद छोडने के बाद नेहरू और दूसरों की प्रशंसा के पात्र बनाए । इंदिरा ने व्यंग्यात्मक लहजे में उनके कूटनीतिक प्रयोजनों को इंगित किया था । हर कोई समझता था उन्होंने दुर्घटना की वजह से मंत्री पद से इस्तीफा दिया था तो इसका चुनावों से भी कुछ ना कुछ लेना देना रहा होगा । ऐसा उन्होंने आगानी सौ सत्तावन के आम चुनाव की तरफ इशारा करते हुए कहा था । अब उनके पिता की मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी बेटी के पास आएगा । मैं बिलकुल भी मंत्री नहीं बनना चाहती थी । आगे चलकर वो बताने वाली थी । शास्त्री जी मेरे पास आए और बोले उन्हें स्थिरता बनाए रखने के लिए मंत्रिमंडल में नेहरू खानदान का सदस्य जरूर होना चाहिए । मैंने सहमती नहीं नहीं, मैं बहुत अनिच्छुक लेकिन आकाशवाणी पर घोषणा कर दी गई कि दूसरों के साथ मुझे भी शपथ दिलाई जाएगी । इस प्रकार मैं मंत्री बने हैं । जबकि मैं कहती हूँ कि मैं राजनीतिक नेतृत्व नहीं करना चाहती थी । मेरे लिए समस्याओं से दूर रहना संभव नहीं था । उनकी राजनीतिक सहजबुद्धि तेजी से जाग्रत हो गई थी । उन्होंने पहले ही पुपुल जयकर को बताया था पापु के ना होने पर ये लोग मुझे रहने नहीं देंगे । शायद उस लडाई को उचित संध्या करने के लिए जो उन्होंने पहले ही शुरू की हुई थी । इंदिरा अपने पिता की शहादत को स्वीकार करने के लिए तैयार थी तो सामान्यतः इज्जत करती थी । उन्हें सत्ता नहीं चाहिए । लेकिन उन्होंने हमेशा ये स्पष्ट कहा था कि अगर उनके पिता की विरासत को पलटने का खतरा हुआ तो बाहर नहीं रह पाएंगे । तो स्वाभाविक रूप में उन्हें वो हरसंभव काम करना था जिससे भारत नेहरूवादी ढांचे में सुरक्षित रहे । ये नेहरू की पत्री होने के कारण उनका कर्तव्य था । प्रिया श्रीमती गांधी अब आरंभ से ही राजनीतिक पुरानी थी । आपने चाहे जितना भी लोगों को इसके विपरीत समझाने की कोशिश की हो, आप की राजनीतिक महत्वाकांक्षा वास्तव में कब तेज हुई थी? क्या तब तो फिर उस रायबरेली से जीते थे और संसद में चमक रहे थे? क्या अब जब आपने उम्मीद सौ बावन और के चुनावों में प्रचार किया था और जनसभाओं में आपने उल्लास की भावनाओं को स्वीकार किया था, आपका स्पष्ट राजनीतिक चुका हूँ? तब निश्चय ही उत्कर्ष पढ था जब आप कांग्रेस अध्यक्षा बनी और आपने फोरी तौर पर फैसले किए । आपके पिता की मृत्यु के बाद आपको लगता था की वापसी नहीं होगी और आप नेहरूवादी विरासत की रक्षा करना चाहती थी । वास्तव में आप की राजनीतिक महत्वाकांक्षा को हवा देने की आवश्यकता नहीं थी क्योंकि वो तो आपने मौजूद ही थी अपने लिए । वहाँ के अवसर पर आप अपने पिता को बताना चाहते थे । आपको गुम नानी चाहिए, एक ऐसा जीवन जिसमें बखेडा ना हो । क्या आप अपने पति और बच्चों का खयाल रखना चाहती थी और ऐसा घर चाहती थी तो पुस्तको संगीत और मित्रों से भरा हो तो गुमनामी शायद वो चीज थी ही नहीं । इस की आपको चाहत रही हो । आप ने कहा था । ये कहना बिल्कुल सच नहीं है कि आपके पिता ने आपको सरकार का मुखिया बनने के लिए तैयार किया क्योंकि यदि उन्होंने ऐसा किया होता तो उन्होंने मुझे अपने निर्णय के बारे में बताया होता । उन्होंने ऐसा नहीं किया था । भोजन के समय आप नेहरू को अपने सवालों से तंग किया करती थी लेकिन वो हमेशा चुप्पी साधे रहते थे । आपको अफसोस था, आपके पिता ने आपको तैयार नहीं किया । यही कारण था कि जीवन में बाद में आपको अपने पुत्र को मेहनत से तैयार करना था । क्योंकि आपके मन में शिकायत थी क्या आपके पिता ने आपको तैयार करके नहीं होता रहा था? क्या अपने अपने पिता केस नहीं? मैं पित्र सत्तात्मक दृष्टिकोण के खिलाफ विद्रोह किया था जिसके तहत आपको महज घर के संरक्षक और मेजबानी के योग्य ही समझा गया था । उदार फुल पता नेहरू ने आपको इतना समझदार अथवा दूरदृष्टा कभी समझा ही नहीं था । क्या आप महान सिद्ध हो सकें? गांधी से लेकर पटेल तक भारत के स्वतंत्रता सेनानियों ने अपने बच्चों को पर्दे के पीछे ही रखा और नेहरू इसका बाद नहीं थे । क्या नेहरू की मृत्यु नहीं, आपको बंधनों से मुक्त होने और शर्मीली लडकी के बजाय अव्वल नारी के अपना अस्तित्व को अभिव्यक्त करने का अवसर दिया था । आपके पिता जैसे ही परिदृश्य से बोझ हुए, आपको खुद को प्रकट करने का मौका मिल गया । न केवल नेहरू की पुत्री के रूप में बल्कि राजसी परिवार, राजसी मिजाज, निर्विरोध सत्ता के हमें और स्वाभाविक नेता । मोतीलाल की पौत्री के रूप में भी आप रन के लिए तैयार हूँ ऐसे जीवन के लिए जिसकी आपके बापू ने आपके लिए कभी कल्पना भी नहीं की थी ।

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इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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