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 2. क्रांति की बेटी in  |  Audio book and podcasts

2. क्रांति की बेटी

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इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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ग्राम थी की बेटी इंदिरा गांधी का जन्म उन्नीस नवंबर उन्नीस सौ सत्रह को इलाहाबाद में हुआ था । जवाहरलाल नेहरू और कमला नेहरू की एकमात्र संतान और उस नाते मोतीलाल नेहरू की वो अकेली होती थी । उनकी शिक्षा इलाहाबाद गुजर रहे हैं । पूरा शांति निकेतन और ऑक्सफोर्ड हुई । साल उन्नीस सौ बीस और उन्नीस सौ तीस के दशकों के दौरान उनके जीवन में बहुत गहरा उतार चढाव आया और वो अस्थिर रही क्योंकि वे स्वतंत्रता संग्राम में अपने परिवार को गहराई से शामिल होते देख रही थी । अपनी माँ कमला से उनका बहुत गहन चुनाव था । रे उन्नीस सौ में ही चल रही है । उन्होंने उन्नीस सौ सैंतीस में ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में दाखिला हासिल किया लेकिन गंभीर रूप से बीमार पड जाने से पढाई छोडकर भारत लौट आए । प्री श्रीमती गांधी नेहरू खानदान में पैदा होने के लिए आप के क्या मायने थे? क्या आपके नाम के आगे लगे उपनाम और वंशावली ने आप की राजनीति को परवान चढाया? नेहरू खानदान से होने का फर्ज कश्मीरी होने का जबरदस्त सांस्कृतिक कर अन्य अनेक प्रवासी समुदायों की तरह आपका परिवार भी अपनी कश्मीरी पहचान को कसकर जगह रहा । शायद इसीलिए अपने को इलाहाबाद का मूल निवासी नहीं दे पा । जिस शहर में आप का जन्म हुआ, जहाँ आप के परिवार का घर था । आपका परिवार सिर्फ उच्च जाति के पंडितों का ही नहीं बल्कि समृद्ध और पुलिस भी था । उसके अनेक सदस्य पश्चिमी तौर तरीके अपनाकर प्रबुद्ध और अपने पारिवारिक विशेषता जबरदस्त ऊर्जा से भरपूर थे । आप के दादा मोतीलाल नेहरू अत्यंत सफल वकील थे । आपके जननायक पता जवाहरलाल क्रांतिकारी और विद्वान दोनों के गुणों से लबरेज थे । उनकी बहने विजय लक्ष्मी और कृष्णा तो संस्कृत स्त्रियाँ भी और आपके नजदीकी रिश्ते के भाई बीके नेहरू भावी नामी राजनयिक होने वाले थे । महात्मा गांधी, लाल बहादुर शास्त्री, ऍम यूरी, वैज्ञानिक मारी क्यूरी की बेटी । आपने घर आए और वहाँ ठहरे भी । आपका परिवार देशभक्त और सामाजिक रूप से अनुकरणीय था । नेहरू होने के कारण क्या मन में हमेशा ये भाव खेले रहा कि भारत में सर्वश्रेष्ठ तो होना ही चाहिए और साथ ही साथ विपत्तियों से जूझते हुए भी अविचल रहना चाहिए, मानो सैनिकों की टुकडी के कप्तान के रूप में चल गया हूँ । इसका क्या ये हुआ जैसे परिवार ने नेतृत्व बोर्ड बचपन से ही विकसित हो जाये । नेहरू खानदान, सामाजिक प्रतिष्ठा और आजादी की लडाई दोनों ही मामलों में अगुवा था । नेहरू होने के नाते क्या आपको हमेशा ऐसा एहसास रहा । क्या प्रस्थान प्राकृतिक रूप से सबसे आगे ही था । इंदिरा गांधी का जन्म इलाहाबाद स्तर आनंद भवन में उन्नीस नवंबर उन्नीस सौ सत्रह को हुआ था । आनंद भवन उनके दादा और बेहद सफल वकील मोतीलाल नेहरू का घर था । वो इलाहाबाद का पहला ऐसा घर था । इसमें ताजा पानी और बिजली, चौबीस घंटे उपलब्धि, घर के आनंद ॅ, इंडोर सुनीपुर और सवारी का घेरा और मकान के चारों और घने ऊंचे पेडों की कतारों वाला लंबा चौडा बाद इस बयालीस कमरों वाले विशाल रात से घर के मुखिया मोती लाल नेहरू थे । घर के परिचारक बकायदा वर्दी में होते थे । घर की साजसज्जा आॅन कि शिव प्रतियों और यूरोप के विभिन्न स्थानों से लाए गए चांदी के कांटे छुरी चम्मच हूँ । अब प्लेट तो खाना खाने की प्लेटों आदि से अनुपम लगती थी । आनंद भवन में पूरा नेहरू खानदान किसी ब्रांच परिवार की तरह रहता था । विजय लक्ष्मी पंडित नहीं कभी बीके नेहरू से पूछा था हम नेहरू अपने परिवार के रूप में कुछ अहंकारी तो नहीं है? बी के नेहरू का जवाब था, इन्कारी होने लायक हमारे पास बहुत कुछ है । मोतीलाल खूब काम आते थे और खूब खर्च करते हैं । अभी शौक में वो जब एडवर्ड सप्तम द्वारा खरीदे गए बोहेमियन धूप के चश्मे जैसा ही चश्मा खरीद लाए । उनकी पत्नी स्वरूपरानी शिकायती लहजे में बोली इलाहाबाद में कौन की कद्र करने वाला है और हमें सम्राट एडवर्ड जैसा आचरण क्यों होना चाहिए? मुगल दरबार की भाषाओं और भी और फारसी में भी पारंगत होने के कारण मोतीलाल अंग्रेज, पारसी और हिंदू संस्कृतियों का मिश्रण थे । उनका नेहरू गांधी वंशजों को अपने खानदान की यही बहुलतावादी धर्मनिरपेक्ष उच्च संस्कृति विरासत में मिली । वो अपनी मेहनत से अपने पैरों पर खडे हुए सफल पेशेवर थे जिनका मिजाज नवाबी चाहूँ अपनी प्रतिभा और लगन के बूते ही उन्होंने इलाहाबाद की स्कूल उडाती पुरानीबस्ती से निकल कर किसी फ्रांसीसी सामंत बडे सैन्य और जैसा भवन जीवन जीने का सामान जुटाया था । जीवन आकर्षक व्यक्तित्व के वाले मोतीलाल ने अपने आस पास बेहद योग किया और प्रतिभाशाली लोगों का जुटान किया हुआ था । होतीलाल अन्य सभी नेहरू हों से कहीं अधिक बेहतर और सफल प्रधानमंत्री शुद्ध होते हैं । जहाँ भी बैठते थे, कतार वहीं से शुरू हो जाती थी । मोतीलाल हालांकि सवेरे रोसू पहनते और शराब देते पश्चिमी खाना खा गई । बेहतरीन अंग्रेजी बोलते और बच्चों के लिए अंग्रेज गवर्नेंस और शिक्षकों को नौकरी पर रखे हुए थे । वहीं स्वरूपरानी अपनी देशी परंपरा पर अडिग रहती थी । अपने पति के ठीक बोला वे धर्म पारायण और पारंपरिक कश्मीर भ्रमण पिस्टल थी । उनका खाना भी उनकी निजी शाकाहारी रसोई में ही पकाया जाता था । इंदिरन की बुआ कृष्णा हठीसिंह लिखा भी है हम लोग हफ्ते में छह दिन आपने पश्चिमी रंजन के कपडे पहनकर विक्टोरियाई कुर्सियों पर बैठकर पश्चिमी शैली में भोजन करते थे । सातवें दिन अथवा हिंदू त्योहारों पर हम लोग हिन्दू तहजीब में खाना खाते थे । पूरब और पश्चिम । इस तरह आनंद भवन में अलग अलग मगर सहअस्तित्व के भाव से साथ साथ मौजूद थे । मतलब दोनों आपस में मिलते शायद ही कभी थे । मोदीलहर और स्वरूपरानी के तीन बच्चे हुए । जवाहर लाल सबसे बडे और सुदर्शन थे । अपने पिता का अरमान होने के साथ ही साल हैरो और कैम्ब्रिज जैसे उस समय के सबसे प्रतिष्ठित शिक्षण संस्थानों में पडेंगे और जिन्हें इंग्लैंड में वकालत का न्यौता मिला था । उन के बाद ही विजय लक्ष्मी और नाम नहीं जिनके घरेलू नाम को उनकी अंग्रेज गवर्नेंस नहीं अपनी सुविधा के लिए छाट कर नहीं कर दिया था । सुंदर और आकर्षक व्यक्तित्व वाली नैन बडी बेटी थी और तीसरी तथा सबसे छोटी संतान कृष्णा और बेटी थी । इंदिरा की तो मेरी बहन नयनतारा सहगल ने लिखा है, मोतीलाल ने अपनी बेटियों पर तनमन ढंग से प्यार न्यौछावर किया । मगर अपने बेटे पर वो जांच रखते थे । जवाहर पर तो दरअसल पूरे खानदान की आस उम्मीदे थी, वैसे ही लगी थी जैसे राजकुमारों और युवराजों से अक्सर की जाती है जवाहरलाल नेहरू का आपने छुटपन में किसी राजकुमार जैसा ही रुतबा था । बीके नेहरू ने याद करते हैं । जवाहरलाल ने उसी दौरान सबसे प्रिय परिचारक पर चलाते हुए एक बार जैन की बोतल फेंक दी थी । मैंने मॉम डैड मांगा था, चैन नहीं । जैन की बोतल फेंके जाते ही हरी अपनी जान बचाकर भागा और दीवार से टकराकर बोतल की खर्चे में खडे गई । जवाहरलाल उन्नीस सौ बारह में कैमरे से पढकर भारत लौटे । उनके निजी शब्दों में भारतीय के बजाय लगभग अंग्रेज बनकर किसी हद तक घमंडी और तारीख के लायक तो कतई नहीं । अगले दो दशक में उनका व्यक्तित्व नाट के रूप में बदलाव । ऐसा सफर इसे इतिहासकार सुनील खिलनानी तो निर्माण बताते हैं की प्रक्रिया अंततः डिस्कवरी ऑफ इंडिया लिखिए जाने के साथ पूरी हुई । उन्होंने स्वतंत्रता प्राप्ति से कुछ वर्ष पहले अंग्रेजों की कैद में लिखना शुरू किया था । अपने को भारतीय बनाने की प्रक्रिया में जवाहरलाल नेहरू ने अपना दिमाग में अपने लायक देश की कल्पना भी कर ली थी । इसे उन्होंने अपने सपनों के भारत को शब्दों में साकार करते हुए मूर्त रूप दे दिया था । ऐसी पुस्तक जवाहरलाल के मुकम्मल भारतीय स्वरूप का घोषणापत्र बनेंगे । उनके पता नहीं जब खुद उनकी शादी तय करने की कोशिश की । जवाहरलाल ने हालांकि कडा विरोध तो नहीं किया मगर इतना जरूर कहा आपसी समझ बने बिना शादी नहीं होनी चाहिए । मुझे ये बात अन्याय और क्रूरतापूर्ण लगती है की किसी की जिंदगी महज बच्चे पैदा करने में ही बर्बाद कर दी जाए । मोतीलाल दिखाने की हद तक पश्चिमी जीवन शैली अपना लेने के बावजूद भीतर से क्योंकि पारंपरिक ग्रामीण थे इसलिए उन्होंने अपने हिसाब से अपने चहेते बेटे के लायक लडकी छोटी सी सुंदरी कमला कॉल को ढूंढ निकाला । कमला धूप में चमचमाती बर्फ जैसी पूरी चिट्टी, घने, काले, चमकीले बालों और हैरानी जैसी बडी बडी भूरी आंखों वाली थी । पसंद पंचमी के महूरत में हुई उनकी शादी का भव्य और विशाल इंतजाम किया गया । लगभग शाही दरबार जैसा हूँ । उनके लिए पुरानी दिल्ली के बाहर तंबू में जैसे पूरा मोहल्ला बसाया गया था । इसका नाम रखा गया नेहरू ऍम । एक साल बाद जवाहरलाल नेहरू के बच्चे के जन्म की बडी गहरी आज लगी हुई थी । इंदिरा जिस कर्जदार रात में पैदा हुई उस समय आनंद भवन में पूरा खानदान और दोस्त बेसब्री से खुशखबरी का इंतजार कर रहे थे और मोतीलाल तथा उसके साथ ही संघीय अपनी लाइब्रेरी में पहुँच के पैर डाल रहे थे । रात के करीब ग्यारह बजे इंदिरा गांधी की दादी रूपरानी ने जच्चा के कमरे से बाहर आकर ये मुक्तसर घोषणा की । हुआ तो मोती लाल ने पूछा बच्चा हुआ मानो अपनी पत्नी की निस्तेज आवास है । फौरन अंदाजा लगाते हुए कि बच्चा शायद लडका नहीं था, उन्होंने निराशा को अपनी कुल लास्ट भरी आवाज से दबाने की कोशिश की होगी । प्रस्तुति करवाने वाली स्कॉटिश डॉक्टर ने उल्लासित आवाज में जवाहरलाल से कहा सुंदर बेटी पैदा हुई है सर मगर शुरू प्राणी नहीं डपट दिया । बेटा होना चाहिए था । यहाँ जमा औरतों के चेहरे हालांकि भटक गए थे और वहाँ जमा लोगों ने जता दिया । उन्हें भी इतनी निरुत्साही घोषणा से कोई बहुत खुशी नहीं हुई लेकिन नवजात के दादा ने फौरन बात संभाली और अपनी पत्नी को छत पे देख रहा हूँ । हमने अपने बेटे और बेटियों की परवरिश में क्या कभी कोई भेदभाव किया है? उन्होंने मानो आशीर्वाद बडा ऐलान किया आप उन्हें क्या बराबरी से नहीं चाहती । ये लडकी हजारों फोटो से भी ज्यादा काबिल साबित होगी । बच्ची का नाम इंदिरा प्रियदर्शनी रखा गया । रूसी क्रांति के साल में पैदा हुई जिसमे हजार की सत्ता को उखाड फेंका था । चार इसीलिए उनके पिता कहते थे हंगामाखेज परेशान । दुनिया में क्रांति की बेटी पैदा हुई है । इंदिरा ने आगे चलकर लिखा मेरा परिवार हालांकि इतना भी रूढिवादी नहीं था कि बेटी पैदा होने को अपना दुर्भाग्य समझे तो भी बेटे को खास और आवश्यक माना जाता था । नेहरू बंधन की आंखों के तारे जवाहर लाल की पहली संतान होने के नाते बीसवीं सदी के आरंभिक दौर के भारतीय परिवार के लिए यही उपयुक्त माना जाता था कि वह बहुमूल्य बच्चा पुत्र ही हो । अपने जन्म से सबको निराश करने के भाव से शायद ये आजीवन पीडित रहेंगे । उनकी माँ बचपन में उन्हें बहुदा लडकों वाले कपडों में तैयार करती थी और उन्हें अक्सर लडका समझने की भूल भी लोग कर बैठते थे । और अपने बचपन में अपने पिता को लिखी चिट्ठियों के अंत में उन्होंने अपने को हिंदू बॉय भी लिखा । उनके दादा ने इस सब के बावजूद उन्हें कभी ये महसूस नहीं होने दिया कि वे निराशा की प्रतीक थी । मोतीलाल ने उनके लंदन से खास तौर पर प्राॅक्टर यानी बच्चा गाडी मंगवा कर दी और उनके लिए भव्य नामकरण समारोह आयोजित किया । अपनी तैयारी हिंदू के लिए मोतीलाल का खास प्यार उनके बचपन में लगातार बना रहा हूँ । नहीं । जब अपने दादा का जिक्र करती थी, उनकी आंखें खुशी और उसमें से जमा होते हैं । मुझे नहीं याद पडता कि अपने दादा को ये जितने भाव प्रवण रूप में याद करती थी, उतनी शिद्दत कभी अपने पिता को याद करते हुए उनसे छलकी हूँ । पूछा भगत लिखती हैं, जो तीन दशक तक इंदिरा की सामाजिक सचिव रहे हैं हैं । शायद संयोग ही है कि दुनिया में सभी आई जब उनका परिवार गांधी के स्वतंत्र उद्घोष की चपेट में आने वाला था । गांधी उन्नीस सौ पंद्रह में ही दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटकर इंदिरा के पैदा होने से पहले ही जवाहर लाल से मिलकर उन्हें प्रभावित कर चुके थे । नेहरू खानदान में तूफान की तरह घुसे और जवाहरलाल के लिए समानांतर पितातुल्य व्यक्ति तो बन गए । इससे मोतीलाल के उस सारे सपने शायद खंडित हो गए होंगे तो उन्होंने अपने बेटे के भारतीय प्रशासनिक सेवा अथवा कामयाब वकील बन जाने के लिए देखे होंगे । गांधीवादी संस्थान जिसे खादी सत्याग्रह विदेशी सामान का बहिष्कार आनंद भवन में बैठ कर गए थे । ऐसा घर इसमें बागीचों में दावते आयोजित होती थी और जाने माने लोग शामिल होते थे । गांधी से हमारा परिवार इस कदर प्रभावित था कि मेरी शादी के समय ये भी उन्होंने ही तय किया कि मैं कौन सी साडी पहनकर विवाह करूँ । विजय लक्ष्मी पंडित नहीं याद करते हुए बताया वो खादी के अलावा और किसी तरह की हो भी नहीं सकती थी । हालांकि मेरी मार्च से नाखुश थी मगर बाद यानि कस्तूरबा गांधी जी की पत्र अपने हाथों से महीने खादी की साडी के लिए सूट का था और बुनाई के बाद उसे गुलाबी रंग लाया गया । नेहरू खानदान के लोगों का जल्द ही कायापलट होने वाला था । रॉॅकीज उन्नीस सौ उन्नीस में हुए व्यापक भारतीय विरोध प्रदर्शनों को न शिष्टतापूर्वक कुछ चला गया । ऍम में भारतीयों के नागरिक अधिकार छीन लेने का प्रावधान था । प्रदर्शनकारी भारतीय नेता गिरफ्तार कर लिए गए थे ऐसा आदेश भी जारी किया गया । अमृतसर की जिस गली में किसी अंग्रेज और उससे हाथापाई की गई थी उस पर भारतीय पुरुष सीधे नहीं चल सकते हैं बल्कि उन्हें घुटनों के बल रेंगना होगा । तेरह अप्रैल उन्नीस सौ उम्मीद को अंग्रेज सैनिकों ने चिडिया वाला बाग में जमा शांतिपूर्ण और निहत्थे भारतीयों की सभा पर बिना चेतावनी दिए अंधाधुंध गोलियां चला दी जो अमृतसर में विरोध सभा और सालाना बैसाखी मेले के लिए आए हुए थे । चारों मकानों से घिरे जलियाँवाला बाग में घुस नहीं और निकलने का एक ही रास्ता था और से घेरकर खडे अंग्रेज सैनिकों ने जब गोलियां चलाई लोग जान बचाने को कहीं भाग भी नहीं पाए । आपसे निहत्थे लोगों पर गोलियों की बौछारों ने आदमियों और तो बच्चों सभी को अंग्रेजों के हाथों नृशंस मौत की नींद छोडा दिया । सरकारी आंकडों के मुताबिक उस जघन्य गोलीकांड में कुल तीन सौ उन्यासी मौते हुई और बारह सौ लोग घायल हुए थे । हत्याकांड के खलनायक अंग्रेज कमांडर जनरल डायर नहीं तब भी झल्लाते हुए कहा था, सैनिकों के गोलीबारी रोकने का एकमात्र कारण गोलीबारूद खत्म हो जाना था । उसने कहा कि वह नैतिक प्रभाव पैदा करना चाहता था । जनसंहार ने भारतीयों को हत्प्रभ तेज और सक्रिय कर दिया था । अंग्रेजों के प्रति तटस्थ रहने वाले लोग थी । गांधी के आंदोलन में बढ चढकर शामिल हुए । कभी रविन्द्रनाथ ठाकुर नहीं, अंग्रेज साम्राज्य द्वारा दी गई सर्वोच्च पदरी नई को वापस कर दिया । जवाहरलाल अपने साथ आनंद भवन में जलियाँवाला बाग से इकट्ठी की गई कुछ गोलियां और उनके खोखे लेकर आए थे । उपनिवेशवाद का निश्चिंत अन्याय बेनकाब हो गया था । राज का हल्का फुल्का विरोध उम्र के विद्रोह में तब्दील हो गया । जलियाँवाला बाग कांड ने हमारे इतिहास का रुख ही मोड दिया । केंद्र ने याद करते हुए कहा झिझक और संधि झड से खत्म हो गए थे । इंदिरा के अनुसार कुछ ऐसा घट गया था जिससे पूरा परिवार आंदोलित हो उठा । उस से हमारा जीवन एकदम बदल गया । गांधीवादी असहयोग आंदोलन में कुछ नही । मोतीलाल ने वकालत का पेशा छोड दिया । छत त्याग रहे और स्वदेशी उनके परिवार के लिए धर्म युद्ध बन गए । विदेशी सामान का बहिष्कार किया गया । विरोध का गांधीवादी तरीका पूर्णतः अंगीकार कर लिया गया । आनंद भवन के नीचे गाडियां और झाडफानूस गायब हो गए । विदेशी देश में कपडे और सवेरे रोसू विदेशी सामान की होली के हवाले कर दिए गए । घर आए किसी व्यक्ति ने जब इंदिरा को ताना मारा कि वह विदेशी गुडिया से क्यों खेल रही है, तो उस छोटी सी बच्ची ने फ्रांस की बनी अपने पसंदीदा गुडिया को आग के हवाले कर दिया और दुख डॉक्टर तथा देश भक्ति के कर्तव्य के मिले जुले भाव से उसे पिघल से देखती रही । कई पर असपास उन्होंने किसी के सामने कबूला । गुडिया दोस्त मेरी बच्ची थी । मुझे माचिस की तीली जलाने से आज तक नफरत है । वो बच्चे अपने शानदार महलनुमा घर को रातोरात क्रांति और सत्याग्रह गढने तब्दील होते सबसी देख रही थी । उसके माता पिता सहित घर के बहुत सारे लोगों के जेल जाने और वापस आने का सिलसिला भी शुरू हो चुका था । नेहरू होने का मतलब अब सिर्फ आमिर और विशेषाधिकार संपन्न होना नहीं रह गया था बल्कि इसका मतलब अब विद्रोही परिवार का सदस्य होना बन गया था । सम्राज्यवाद के खिलाफ लंबी लडाई की शारीरिक और मानसिक मशक्तत और कठिनाइयाँ बर्दाश्त करने की शुरुआत हो गई थी । इंदिरा याद करती हुई बताती थी, घर के लोग सुबह सुबह ही बाहर चले जाते थे । अलग अलग दिशाओं में समूचा घर ऐसे तनाव का शिकार हो गया था कि कोई सामान्य जीवन नहीं जी पा रहा था । बच्ची इंदिरा के मन में भी विद्रोही प्रवर्ति घर कर गई । उनके व्यक्तित्व में सत्ता और विपत्ति से लडने की स्वाभाविक प्रकृति समाप्ति जा रही थी । प्रियंका गांधी बताती हैं, मेरी जीजाजी क्रांतिकारी और वो आजीवन वैसी ही रहें । आनंद भवन के बाहर लगी पट्टिका पर अब लिखा है घर ईदगाह के ढांचे से कहीं अधिक महत्वपूर्ण है । हमारे स्वतंत्रता संग्राम सिस्का गहन जुडाव है और उसकी दीवारों के भीतर बडे बडे फैसले हुए और महान घटनाओं को अंजाम दिया गया । कमरों की सूरत शक्ल पुराने जमाने की सुरूचिपूर्ण सी है वहाँ खिलाफ चडे सोफा नक्काशीदार किताबों की कतारों से बडी लाइब्रेरी नाम लिखिए । कब लेता दी हैं इन पर सच्ची ले हर फोटो में जी एन लिखा है । इसका आगे का भार अलंकृत पायों पर टिका विस्तृत गुंबदाकार है । इसके खुले झरोखे हैं जिससे यह किसी राजस्थानी हवेली और मुगल महल का मिला जुला रूप सकता है । हालांकि मौजूद आनंदवन अपने असल स्वरूप में नहीं है । नेहरू परिवार इस अपेक्षाकृत छोटे मगर फिर भी भव्य इमारत में उन्नीस सौ उन्तीस में रहने आया था । उसी साल जब जवाहरलाल ने अपने पिता के हाथों से कांग्रेस अध्यक्ष की बागडोर संभालकर कांग्रेस का लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य निर्धारित किया था । असल आनंद भवन का नाम अब स्वराज भवन है और वो वर्तमान आनंद भवन से सटा हुआ है । इंदिरा उसी विशाल महलनुमा इमारत नहीं पैदा हुई थी । विलासिता के पर्याय महल से आंदोलन के केंद्र के रूप में बदल जाने संबंधी आनंद भवन का कायाकल्प कुछ ठीक ही परेशानियों का शिकार बने बिना नहीं हो पाया था । महात्मा का अनुशासन खासकर शराब के प्रयोग पर कडी रोक पर अमल करना कोई आसान नहीं था । बीके नेहरू नहीं कुछ हास्यात्मक अंदाज में लिखा है मोतीलाल हालांकि उन्नीस सौ इक्कीस बाईस असहयोग आंदोलन के दौरान शराब से तौबा कर ली थी ऍम उन्होंने फिर पीना शुरू कर दिया । इसके दिलचस्प बजाए ये थी होती लाल ने अपने मन में ये मान लिया था । बंगाल के प्रखर स्वतंत्रता सेनानी चितरंजनदास की मौत गांधी जी के आग्रह पर शराब पीना छोड देने से उनके शरीर को लगे झटके के कारण हुई थी । मोतीलाल ये कहने से भी नहीं गई गांधी ने ही उनके प्रिय मित्र चितरंजनदास की हत्या और यदि उन्होंने यानी मोतीलाल ने फौरन विस्की पीना फिर से शुरू नहीं क्या होता है वो भी शायद तब तक मर चुके होते मोतीलाल दरअसल जवाहरलाल पर गांधी केस नहीं की वजह से हमेशा उनके प्रतिद्वंदी जैसे रहे । भारत के सबसे अमीर वकील आजादी की लडाई में शायद उतनी शिद्दत से गांधी के लिए नहीं बल्कि अपने बेटे की खातिर होते थे । उनके गरीब रहने के लिए, रूस में उनके कंधे से कंधा मिलाकर नारे लगाने के लिए और साथ साथ कैदखाने में जाने के लिए नेहरू की जीवनी कारॅपोरेट ने भी लिखा है उनके पुत्र नहीं क्योंकि उनकी कमाऊ वकालत की जिम्मेदारी उठाने से मना कर दिया था । इसलिए मोतीलाल नहीं अपने बेटे के पेशे राजनीति को अपना लिया । साल उन्नीस सौ पच्चीस नहीं अंग्रेजों ने जवाहर लाल को गिरफ्तार करके पहली बार जेल की जा दिया । बाद में होने को बार गए भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अवैध घोषित कर दिया गया था । मोतीलाल को भी कांग्रेस का सदस्य होने के कारण गिरफ्तार करके छह महीने के लिए जेल भेजा गया हूँ । उनका कसूर प्रिंस ऑफ वेल्स की इलाहाबाद यात्रा के दौरान हडताल और प्रदर्शन का आयोजन किया जाना ठहराया गया । महज चार बरस की इंदिरा नैनी सेंट्रल जेल में अपने दादा पर चलाए गए मुकदमे के दौरान उनकी गोद में अपलक और निर्भरता से बानी बैठी रहती थी । कटघरे में अपनी पोती को अपनी गोद में बिठाकर मोतीलाल ने अंग्रेजों की सत्ता को सीधी चुनौती दी । उन्ही के शब्द का प्रयोग करें तो उन्होंने ये जताया मुकदमे की कार्रवाई की अहमियत उनके लिए तमाशा से अधिक नहीं थी । इसके कुछ ही समय बाद पूरे परिवार ने उन्नीस सौ किससे । गांधी के असहयोग आंदोलन और खिलाफत आंदोलन में सक्रिय भागीदारी है । इसी आंदोलन से जवाहरलाल के राजनीतिक जीवन की शुरुआत हुई । उस वक्त मानव समूचा देश बहुआयामी और संगठन मगर जबरदस्त मित्रो में उठ खडा हुआ था । जवाहरलाल तब अधिक युवा क्रांतिकारी थे जो एक साल के भीतर स्वराज हासिल कर लेने के गांधी के वायदे को पूरा करने की लडाई के लिए उद्धव थे । उन्होंने ये कबूल किया कि आंदोलन के दौरान गोरखपुर के निकट चोरी चौरा पुलिसथाने को आंदोलनकारियों द्वारा चला डालने से हिंसा कोई मुहिम को जब गांधी ने अचानक और एकतरफा कार्यवाही के तहत खत्म कर दिया तो उन्हें नाराज की और हताशा का एहसास हुआ हूँ । उसके बाद तो राष्ट्रीय आंदोलन तितर बितर होकर स्वराजजी हो और यथा स्थिति वादियों के बीच बढ गया था । वे तो चुनाव में शामिल हुए और जिन्होंने गांव में गांधी के राजनीतिक और रचनात्मक कार्यक्रम पर काम करना शुरू किया । नेहरू के समर्थक कांग्रेस की दिशा तय करने संबंधी मोतीलाल किराये के विरुद्ध थे । अपने बेटे की तरह गांधीवादी सत्याग्रह के लिए सफाई उत्साहित नहीं थे । उन्होंने उन्नीस सौ चुनाव लडने के लिए स्वराज पार्टी बना ले जवाहरलाल बार बार कहते थे अंग्रेज राजसत्ता के अंतर्गत स्वराज निरर्थकता । हमारा महान देश एकदम स्वतंत्र देश होना चाहिए । उनके पिता हूँ । जब पूर्ण स्वतंत्रता के पक्ष में लगातार प्रचंड प्रचार के लिए उनका मजाक उडा रहे थे हैं । जवाहर लाल को ऐसा लगने लगा । उनके पिता ने उन्हें अपने मन से निकाल दिया और ये स्वराज पार्टी द्वारा अंग्रेजों की मर्जी से बनने वाली विधायी संस्थाओं में शामिल होने की उतावली से दूर ही रहे जिसका कांग्रेस द्वारा बहिष्कार चल ही रहा था । परिवार के दोनों मुख्य पुरुषों द्वारा अपने भिन्न राजनीतिक लक्ष्यों में डूब जाने के कारण आनंद भवन में बैठकों और अभियानों का तांता लग गया । जवाहरलाल अब अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के महासचिव बन गए थे जबकि मोतीलाल अपनी पार्टी में व्यस्त थे और आनंद भवन में खाना खाने के समय भी माहौल खासा तनावग्रस्त रहने लगा है । इन हालात के बावजूद उन्नीस सौ किसके असहयोग आंदोलन को अचानक समाप्त किए जाने से आजादी के आंदोलन में आया गतिरोध उम्मीद सौ सत्ताईस में सिर्फ अंग्रेज नुमाइंदो वाले साइमन कमीशन की भारत यात्रा के ग्रुप है । प्रदर्शनों की झडी लगने से दूर हो गया । इस महीने देशव्यापी स्तर पर नागरिक अवज्ञा या सिविल नाफरमानी आंदोलन का रूप ले लिया । इंदिरा इस गहरे एहसास के साथ बडी हुई है । वे स्वतंत्रता आन्दोलन के कर्जा परिवार की सदस्य थी । गांधी तो समझते हैं जिन्होंने लोगों को आजादी के पक्ष में खडा होने का आत्मविश्वास दिया है । मगर नेहरू खानदान में उस महान लक्ष्य को प्रतिष्ठा और महत्ता प्रदान की । उस भव्य अनुभवी घर में महात्मा के बार बार आने जाने और उन्हें परिवार के बुजुर्ग के समान ही दर्जा मिल जाने के बीच बडी हो रही इंदिरा के मन में मेहरु और गांधी के लिए बराबर इज्जत पंजाब गई थी । उनके परिवार ने उन्हें किसी भी रूप में अपनी राजनीतिक गतिविधियों से दूर रखने की कोशिश नहीं की । उन्हें भी बहुत कम उम्र में विद्रोह में दीक्षित कर दिया गया । वे जब बमुश्किल पांच साल की थी, अभी उनके दादा ने उन्हें चरखा दवा दिया । उन्हें मानव खानदानी तरह परिवार के बच्चों की तरह उनके नन्हें हाथों से पकडकर किस लिए पानी में उछाल दिया गया था । वो खुद ही खानदानी पेशे में पारंगत हो जाएंगे । मजबूत इच्छाशक्ति और विद्रोही मिजाज वाली इंदिरा के व्यक्तित्व को तराशने अन्य महत्वपूर्ण भारत की था । उनके नाम के आगे नेहरू लगा था । लेकिन वे उन नेहरू से लोहा लेती रही हैं जिन्होंने उनकी प्यारी मां कमला नेहरू उस बॉल को अपमानित किया था । वे अपनी कोमलांगी माँ कमला की मजबूत ढाल साबित हुई । अपनी माँ को जब भी ये अपमानित होते हुए देखती उनकी तरफ दारी में दर जाती है और अपने पिता के परिवार से लोहा लेती बडे हो जाने पर, अपने जीवन में देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए शक्तिशाली परस्पर विरोधी सत्ता के वैश्विक लोगों के सामने रखने वाली भारत के प्रधानमंत्री ने विरोध के फायदों और शक्ति का मतलब बचपन में ही समझ लिया था । कमला की परवरिश हालांकि पुरानी दिल्ली के परंपरिक कश्मीर परिवार में हुई थी । शादी के बाद तो अंग्रेजी बोलने लगे, आधुनिक पश्चिमी जीवन शैली में पडे परिवार में आ गई थी । वो हिंदी बोलती थी और अंग्रेजी में उनका हाथ तंग था तथा खानपान के सुरूचिपूर्ण अंग्रेजी तौर तरीको से अनजान होने के कारण थोडी घंटे से खाना भी नहीं खा पाती थी । परिष्कृत अथवा हाजिरजवाब और सामाजिक हावभावों से मेहरूम होने के कारण उन्हें अक्सर अपमानित और अनदेखा किया जाता था । जवाहर लाल विजय लक्ष्मी और स्वरूपरानी दोनों के ही चाहते थे और उन पर वह अपना पहला हक मानती थी । मगर कमला उनकी आपकी किरकिरी थी और वे उन्हें सबके सामने भी बात बात पर झडक में तथा अपमानित करने से बाज नहीं आती थी । परिवार है सामान्यतः कभी अंग्रेजी फिल्म देखने का तय किया, उनसे उसे देखने को चलने के लिए पूछना तो दूर फुट ऊंची आवाज में उन्हें ये जब लाया गया वो अंग्रेजी तो समझ नहीं पाएंगे नाजुक छुआ अंतर्मुखी मगर गर्व नहीं और टीवी कमला सबसे दुःख मैं घर गयी । अपने पति के गांधीवादी आंदोलन में व्यस्त रहने के कारण मैं रोज रोज होने वाले अपमान के आगे निपट अकेली पड गई । जवाहरलाल नेहरू आंदोलन में से अपने लिए जो सीमित समय निकाल पाते थे उसमें भी कमला उनका साथ पाने के लिए सांस और नानक से वोट लगानी पडती है । विजय लक्ष्मी उस ने बचपन से ही अपने भाई की सिर्फ खडी थी, उन पर पूरा हक जताती ऐसा सब घर सवारी करने जाते हैं । एक दूसरे को कविता पढकर सुनाते और ऍम के लिए कमला मानो अनाधिकृत आवांछित उच्चतम बाहरी शख्सियत थी जिन्होंने उनके भाई के मन में उनकी जगह पर कब्जा कर लिया था । इलाहाबाद में अपने बचपन से ही इंदिरा के मित्र पुपुल जयकर लिखती है, जनता की सम्मोहित दृष्टि के केंद्र अपने पिता और विजय लक्ष्मी की बुद्धिमता और खूबसूरती के आगे अलग थलग पड जाने की शिकार कमला और इंद्रा अपने को बेहद ही महसूस करते थे । इंदिरा आत्महीनता की भावना की शिकार होकर गुमसुम रहने लगी थी और आजीवन इसी भावना से पीडित रही है । अब तो ये सोच कर भी खडक लगता है की अपनी शादी के महज आठ महीने बाद भाई ये जब करें विजय लक्ष्मी आगे चलकर लिखने वाली थी । उनके अनुसार भावी द्वारा मुझे ना पसंद करना शायद जाए जी था पिछले नहीं कि मैंने कुछ किया था बल्कि भाई और मेरे बीच जो एकात्मकता थी उसके कारण उसी विजय लक्ष्मी इस तरह बचपन में ही उनका दिल टूटने की वजह बने अपने भाई के प्यार को बढने से रोकने की प्रवर्ति ही नहीं बल्कि अपने भाई की पत्नी के प्रति नफरत सबको जता देने के साथ ही साथ उन्होंने जो विध्वंसक और अपमानजनक शब्द बोले सब रहें । इंदिरा के मन पर अस्थाई असर डाला इंदिरा जब चौदह साल की थीम उन्होंने सुना क्योंकि बुआ उन्हें बदसूरत और मूड कह रहे थे । स्कूर आकलन से तो इस तरह और नटखट बच्ची मानव सदमे की शिकार होकर अंतर्मुखी और संकोची किशोरी में तब्दील हो गई और उसमें पूरी जवानी यही संताप झेला । इंदिरा ने बाद में कहा उस टिप्पणी से मैं मन ही मन टूट गए । अपनी मौत से पखवाडेभर पहले भी उन्होंने वो टिप्पणी बखूबी याद है ऍम शब्दों को कभी भुला पाई अपनी फुँसी को माफ कर पाई और हमेशा बदला लेने के लिए मौके का इंतजार करती रही । नेहरू ने बाद में लिखा थी, इंदिरा और विजय लक्ष्मी एक दूसरे को अपमानित करते रहेंगे । इंदिरा की हत्या के बाद विजय लक्ष्मी ने कुछ उत्तर पूर्व आॅर्ट से कहा, मैं ये नहीं समझ पाती उसे मुझ से इतनी नफरत क्यों थी? मैंने तो हमेशा उससे प्यार किया और उसे अपनी बेटी बाना इंदिरा के मन की नफरत कभी कम नहीं हुई है । प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जब उन्नीस सौ सत्तर में जवाहरलाल नेहरू ट्रस्ट वो आनंद भवन सौंपने का फैसला किया । अपनी फूफी को अपने पैतृक घर में आखिरी बार ठहरने की इजाजत भी इंदिरा ने नहीं दी । उन्होंने उन्नीस सौ चौहत्तर में अपने छोटे बेटे संजय की शादी में भी अपनी फूफी को निमंत्रित नहीं किया । को फिजी लेलो जवाब, प्रतिशोध और बेदर्दी जैसी प्रवृत्तियां इंदिरा बहुदा जताती थी तो कई मायनों में लगातार उत्पीडित होने की मानसिकता से पैदा हुई थी । अपने पिता की तरह क्षमादान और उदारता के ऊंचे पायदानों पर चढने के बजाय बहुदा बदले की भावना से कार्रवाई कर देती थी । उनका विस्फोटक प्रो मन के भीतर ही भीतर खत बनाता रहता था । वो मन में शिकायतों की गांठ बांध लेती थी । और कभी उन्हें भूल नहीं तथा क्षमादान में कामयाब नहीं हो पाएगा । आनंद भवन में नाराजगी और निवेश से लबालब महिलाओं की दुनिया में कमला बिसूरती हुई बीमार पड गई और इंद्रा नहीं उसी में जीना तथा लडना सीख लिया । कमला की भावनात्मक वेदना से उनका स्वास्थ बिगडने लगा । इंदिरा ने पारिवारिक एशिया के घूंसों को अपने चेहरे पर झेलकर घर के भीतर मौजूद सभी दुश्मनों से निपटना सीख लिया । वो अपनी माँ की समीक्षा के लिए अपने पिता से भी अक्सर नाराज हो जाती थी । जवाहर लाल को गुस्से में लिखा करती थी आपको बता दी हैं आपके पीछे से घर में हो क्या रहा है । आपको पता है कि जब मम्मी की हालत बहुत खराब थी तो घर में तमाम लोग मौजूद थे । मगर उन में से कोई भी उनका हाल पूछने या उनके पास कुछ देर बैठने को नहीं फटका और उनको जब तकलीफ हो रही थी तो किसी ने उनकी मदद नहीं की । मम्मी को अकेले छोडना खतरे से खाली नहीं है । कमला के प्रति जवाहरलाल के व्यवहार के लिए उन्होंने कभी उन्हें माफ नहीं किया । उनके मन में जो शिकायत थी उनके द्वारा अपनी शादी करने के फैसले के मौके पर अपने पिता के प्रति विद्रोह के रूप में फूट पडी थी । अपनी माँ जैसी दुर्गति से वह बचना चाहती थी । बाद में कहा मैंने उनके दिल पर चोट लगते देखी थी और मैं अपने साथ पैसा नहीं होने देने के लिए उद्धव थी । मैं उन्हें बहुत शिद्दत से प्यार करती थी और मुझे जब लगा कि उनसे अन्याय किया जा रहा था । बहन की तरफ से खडी हुई और लोगों से डटकर लोहा लिया । उन्होंने कहा, मेरे जीवन में माँ की विशेष भूमिका नहीं बहुत चरित्र और उनका गहरा असर पडा । उनके बाद के वर्षों में इंदिरा गांधी के बिस्तर के सर खाने की दीवार जहाँ लाल की नहीं बल्कि कमला नेहरू की तस्वीर टंगी रहती थी । एक तरफ उनकी माँ ही कमजोर और बीमा और उनके पिता की और के परिवार का जीवन ऊर्जा और मकसद से लबरेज रहता था । दोनों पक्षों के बीच का अंतर उनके दिमाग में बैठ गया । सच तो यह है कि इंदिरा और उनके पिता के बीच संबंधों के बारे में तो खूब लिखा गया है मगर उनकी माँ से उनके संबंधों के बारे में बहुत कम ही खोजबीन की गई है । इसके बावजूद अपने जीवन में अनेक मौकों पर विषेशकर कमजोर लोगों में इंदिरा ने अपनी माँ में जो शैतान विपक्षियों की शुद्ध लेकिन अनुव्रत शिकार नहीं देखी । कमजोरी और असुरक्षा का जिक्र किया । मजबूती के पलों में वे नेहरू की अटलता की याद दिलाती थी, लेकिन विपक्षी काल में वे हमला बन जाती थी । आध्यात्मिक गुरुओं पर निर्भर अपनी माँ की तरह अकेले घुटती हुई पीडित बेसहारा औरत हो जाती थी तो अकेले तरह तरह के दुश्मनों से लोहा लेने की कोशिश कर रही हूँ । इंद्रजीत बडी हो रही थी । उनके व्यक्तित्व को दर्शाने के लिए विनम्र और अच्छी जैसे विशेषण प्रयोग किए जाते थे, लेकिन उनकी ज्वलंत आत्मा पर किसी का शायद ही ध्यान गया । उनकी बुआ कृष्णा हठीसिंह के अनुसार इंदिरा ने कभी एक हादसे खम्बा पकडता है और दूसरे हाथ को तानते हुए अपनी जलती काली आंखों से घूरते हुए उनसे कहा था, मैं जून ऑफ और बनने का खास कर रही हूँ । मैं किसी दिन अपने लोगों को आजाद करवाकर रहेंगे । ऍर इसको आगे चलकर बताने वाली थी । मैं हमेशा शांत रही और जब मैं छोटी थी तो लोगों को लगता था मेरे भीतर जोशी नहीं था, लेकिन याद हमेशा रही है । फर्क सिर्फ इतना है कि कोई इसे देख नहीं पाया । अलावा उस वक्त जब इसकी लपट उठने नहीं, भले ही बिल्ली दुबली पतली और उदासीन दिखती नहीं है मगर वो अपना समय आने पर नेहरू वंश की विरासत के अनुरूप अपनी शेष बताता ठहराने का मंसूबा पाले हुए हैं । अपनी सामर्थ्य बाहर अधिक से अधिक नौकरों को इकट्ठा करके उनके सामने मेज पर खडे होकर भाषण देना मेरा पसंदीदा खेल था । बडो की बातचीत में इस्तेमाल किए गए मुहावरों को बिना अर्थ जाने ही भाषण में दोहराती थी कांग्रेस की लडकों की पोशाक । खादी का कुर्ता पायजामा पहने और गांधी टोपी लगाए वो अपने मकसद के लिए लडने वाली युवा कार्यकर्ता की तेरह बरस की उम्र में अपने पिता को चिट्ठी में लिखा करती थी मेरे ऍम बनवाए गए हैं दौड में और कसरत के लिए । आपके प्यारे हिंदू बॉडी की ओर से ऐसा बॉय यानी लडका जो लडकी से कम नहीं था । जो अपने पिता को उसके लिए अपने मन में तय भूमिका निभाने के लिए अपनी शारीरिक चुस्ती दुरुस्ती के प्रति आश्वस्त करने के लिए तेजी से दौडता, बेड पर चलता हूँ और जिम्नास्टिक करता था । उसकी आरंभिक पहचान लडकी से अधिक लडके के रूप में थी । वो जवाहर लाल की पहली सम्मान थी जिसके लिए ये मायने नहीं रखता था कि वो लडकी थी या लडका जिसकी एक मामूली सी झलक थी उसके जन्म और खानदान की विशिष्टता ने । उनके व्यक्तित्व में इस तरी के बजाय पुरुष के गुण अधिक मात्रा में विरोधी थे । लैंगिक भेदभाव के पडे ऐसी विशिष्ट पहचान जो आजीवन उनके व्यक्तित्व में शामिल रही । लडकी इंदिरा नहीं थी वो अगर वो यानी लडकी लडका हिंदू बाॅक्सर कहती भी थी है कि उन्होंने कभी खुद को लडकी अथवा स्त्री के रूप में नहीं आता हूँ और उनकी पहचान लिंग के बजाय खान ना और बाद में उनकी सत्ता के द्वारा परिभाषित हुई है । जब तेरह साल की थी तब नेहरू ने उन्हें चिट्ठी में लिखा था भारत ने आज हम इतिहास पर आ रहे हैं तो तुम्हारा और मेरा सौभाग्य है । हम स्वयं इस महान नाटक में भागीदार है । वो इस बात को कभी नहीं भूले कि वो इतिहास को जी रही थी और उसका निर्माण भी कर रही थी । उन्होंने आजीवन अपने विचारों और भावनाओं को पुर्जों और चिट्ठियों में लिखा । मानव भावी पीढियों के लिए स्पष्टीकरण की सामग्री छोड कर जा रही हूँ । नेहरू ने भी उन्हें कभी ये भूल ने नहीं दिया । वैसे पिता थे चाहते थे कि वह भविष्य में महानता के चक्र को कूदकर छू सके । मेरे पिता शारीरिक व्यायाम और चुस्त दुरुस्त रहने के प्रबल हामी थे । इसलिए मुझे रोज दौड लगानी पडती थी और दौडना ही नहीं बल्कि सही अदा के साथ दौडना होता था । वो कहते थे, दौडते हुए मुझे सब भी देखना चाहिए । मुझे तैराकी सिखाने की उन्हें बडी इच्छा थी और सिखाने का उनका तरीका ये था बस मुझे पानी में छोड देते थे और मुझे खुद अपनी क्षमता भर अच्छे से हाथ पांव मारने होते थे । इंडिया को एॅफ की रचनाएं पडनी लगी और गैरीबाल्डी के बारे में भी पढ कर जाना पडा । इतिहास के प्रति अपने पिता के लगाव में शामिल होना पडा हूँ । लगातार चुस्त दुरुस्त रहना पडा हूँ और बिगडी हुई सिर्फ बडी लडकी की तरह व्यवहार करने से बचना बडा बडे होने के उनके समूचे जीवनकाल के दौरान नेहरू का बार बार जेल जाना और बाहर आना लगा रहा हूँ और उन्हें लगातार प्यार भरे खत लिखते रहे जिनमें उनके मानसिक और शारीरिक विकास के लिए बौद्धिक और भावनात्मक बातें होती थी । बच्चों को कांग्रेस से जोडने के लिए बनाई गई वानर सेना की गतिविधियों में जब उन्होंने शामिल होना शुरू किया तो नेहरू ने जेल से लिखा है छोटे से सिपाही लडके, अपना ख्याल हो अपने सिर के बाल खडे होने की भी कोशिश करो । उन का असर विलक्षण होता है । कमला की बीमारी ने उन्हें नेहरू परिवार की गतिमान जिंदगी से अलग थलग कर दिया था । उनकी शादी में अडचन बन गई थी और उनके लिए महाराष्ट्र के दौरों का कारण भी बन गई थी । जवाहरलाल नहीं चाहते थे कि उनकी बेटी भी कल को इस सब की शिकार हो जाए । वो खुद भी ॅ और सक्रिय व्यक्ति थे और बीमारी को ना पसंद करते थे । उनकी राय में बीमारी, चरित्र कमजोरी की निशानी थी । उन्होंने अपने आरंभिक पत्रों में ये सलाह भी दी एकदम चुस्त दुरुस्त रहने की कोशिश करो । मुझे लगता है कि व्यक्ति के लिए तंदुरुस्त नहीं रह पाने से बडी गलती कोई नहीं है । उन्होंने आगे लिखा, कुछ उम्मीद है कि तुम खुद को ढीलीढाली और थुलथुल कब गए? नहीं होने होगी । जब अपनी किशोरावस्था के शुरुआती दौर में थी तो नेहरू ने विजय लक्ष्मी पंडित से कुबूल किया, यदि मुझे कोई बात ना पसंद है तो वो कहे लोग जो जीवन में मटरगश्ती करते रहते हैं, बाकी सब से ये उम्मीद करते हुए थे, उनकी सुख सुविधाओं की चाकरी में लगे रहेंगे । हिन्दू में ऐसी ही अनेक प्रवृत्तियां पैदा हो गई हैं । आप केंद्र और दूसरों के लिए बिल्कुल नहीं सोचती । विजय शांति निकेतन में पड रही थी तब उनसे ये पूछा करते थे व्यायाम कर रही हो ना तो उसका जिक्र ही नहीं करती । बंगाली लडकियों जैसी और ताना हो जाने की कोशिश मत करना तो एकदम नाजुक और फूल सी कोमल होती हैं तथा कडी कसरत नहीं करवाती । सवेरे उठकर दौड लगा हूँ । अन्य पत्रों में उन्होंने यह हिदायत थी कि उन्हें समाज के लडाके वहाँ असंतुष्ट स्वभाव का नमूना नहीं बन जाना चाहिए । उन्हें साडी नहीं बल्कि फ्रॉक पहनने की हिदायत देते हुए लिखा, मैं खुश हूँ कि तुमने अपने अधिकतर बालों से छुटकारा पा लिया और तुम्हें फ्रॉक ही पहननी चाहिए थी । साडी तो कमरों की वर्दी नहीं है ये तो आरामतलब लोगों का प्रधान है । लगातार सिखाते समझाते पिता के रूप में नेहरू वरदान और अभिशाप दोनों ही शुद्ध होते रहे होंगे । उनके पापु लगातार उन्हें अपने आप को सुधारने की राह पर चलाया रखते हैं और उनकी कमजोरियों के प्रति बेहद संवेदनशील थे । अभी जब पंद्रह वर्ष की थी तो उन्होंने लिखा मुझे पता है कि हिंदू मुझे और कमला को बेहद चाहती है । उसके बावजूद वो हमें और अन्य लोगों को सरासर नजर अंदाज कर देती है । वो सपनों और अनिश्चय की दुनिया में डूबी रहती है । मुझे लगता है उसे आसमान से जमीन पर उतार लाने के लिए किसी खेल क्या कारखाने में काम करना चाहिए? परिवार के इस नहीं मुखिया होने के बावजूद अपनी बेटी की परवरिश करके उसे अपने सिद्धांतों के आधार पर विकसित होने की तरह करना चाहते थे । खानदान और कुलीन सामाजिक वर्ग की बारिश के साथ ही साथ आंदोलन और विचारधारा की बेटी के रूप में भी । इस मामले में गांधी के मुकाबले अपनी संतान को अपनी विचारात्मक रूपरेखा के अनुसार पाल सकने में नेहरू शायद अधिक कामयाब रहे । अपने बच्चों की परवरिश में गांधी के अपने निजी प्रयोग, कम से कम उनके बडे बेटे के संदर्भ में तो आजीवन संतानों चित विद्रोहों के रूप में प्रस्फुटित हुए इंदिरा की शिक्षा हमेशा टुकडों में बंटी रही और कभी औपचारिक डिग्री कहीं से भी हासिल नहीं कर पाई । इसके बावजूद शांति निकेतन से ऑक्सफोर्ड तक हुई उनकी शिक्षा दीक्षा ने उन्हें भले ही अपने पिता की इच्छा के अनुसार बौद्धिक अथवा विद्वान न बनने दिया हो मगर उससे बौद्धिक रूप से जिज्ञासु और विचारों को ग्रहण करने के लिए उत्साहित जरूर हो पाई । प्रखर हाजिरजवाब पैनी नजर वाली और पडने की शौकीन थी मगर अपने पिता की तरह विचारों पर अमल करने वाली अथवा अवधारणाओं की तह तक जाने की चौकी नहीं थी । वे कलात्मक और साहित्यिक रुचि वाली तो थी मगर इतिहास और इतिहास के विश्लेषण में उनकी खास दिलचस्पी नहीं थी । जवाहरलाल को लगता था कि इंदिरा की शिक्षा दीक्षा राष्ट्र निर्माण की आवश्यकता के अनुरूप होनी चाहिए ताकि वो हमारे सपनों का भारत बनाने के लिए ईदर ईट चुनने में साहसिक भूमिका निभा सकें । मैं चाहता हूँ की इस सर्वस्व समर्पित करने वाले कार्य के लिए तो अपने दिमाग और शरीर को प्रशिक्षित और तैयार कर लो । कोई जब सात साल की थी तो नेहरू ने इलाहाबाद में फॅमिली स्कूल से उनका नाम कटाने पर जोर दिया, जहां मोतीलाल ने उनका दाखिला करवाया हुआ था । उनका तर्क था कि उस प्रकार के स्कूल में बच्चे की उपस्थिति से कांग्रेस के विदेशी के बहिष्कार के सिद्धांत का उल्लंघन हो रहा था । अंततः इंदिरा का नाम पिता के आदेश से स्कूल से कटवाकर उन्हें घर पर ही शिक्षकों के सुपर कर दिया गया । इस प्रकार सात साल की बच्ची के स्वतंत्रता सेनानी बनने की प्रक्रिया शुरू हो गई । अपने माता पिता के जीवन में उन्होंने विभिन्न भूमिका निभाई । अपने पिता के शागिर और अपने माँ की रक्षा उनसे अपने पिता की अव्वल शिक्षा बनने की उम्मीद की गई उनकी उम्मीदों की महान ऊंचाइयों को छूने लायक बनने की भी । जब अपनी माँ की देखभाल करते हुए ये उनकी भावनात्मक अकेलेपन की दुनिया में शामिल होती थी तो अपने साझे दुश्मनों पर हमले को सन्नद्ध देखती थी । कमला का स्वास्थ्य उन्नीस सौ जो इसमें तब शारीरिक और मानसिक रूप दोनों से ही टूट गया जब गर्भावस्था का समय पूरा होने से पहले ही पैदा हुए बच्चे की दो दिन बाद मृत्यु हो गई । बेटा पैदा करने के बाद जाहिर है उनके ससुरालियों की निगाहों में उनके लिए कुछ मुँह जरूर पैदा होती और उन्हें भी अपने अस्तित्व के प्रति खोया हुआ आत्मविश्वास वापस मिल जाता हूँ । लेकिन बच्चे की मृत्यु ने उन्हें इस राहत से वंचित कर दिया । नवजात की मृत्यु के बाद वो बुरी तरह बीमार पड गई । उन्हें फेफडों कि तपेदिक क्या नहीं टीवी कि बीमारी होने का पता चला । इसे उन्नीस सौ बीस में मौत की सजा माना जाता था । इलाज के लिए उन्हें लखनऊ के अस्पताल में भर्ती कराया गया, लेकिन हालत और बिगडते चले गए । कमला ने बीमारी से आजिज आकर नेहरू के कैमरे से ही गहरे तो सैयद महबूत को लिखा मैं सब पर बोझ बन गई हूँ । महमूद प्रबल देश भक्त थे । वो आगे जाकर मुस्लिम लीग का विरोधी करने वाले थे और हमेशा नेहरूके वफादार दोस्त हुए । महमूद कमला कोर्स भी पढाते थे और उन्हें कमला बहुत भरोसेमंद दोस्त मानती थी । मेरी इच्छा है मुझे बहुत चल दिया जाए । उन्होंने महमूद को दूसरे पत्र में लिखा जब मैं अपनी बर्बादी के बारे में सोचती हूँ तो लगता है कि कम उम्र की लडकियों को अपना जीवन मेरी तरह बेकार करने से बचाया जाना चाहिए । तपेदिक विशेषज्ञों द्वारा कमला के इलाज के लिए परिवार उन्नीस सौ छब्बीस नहीं स्विट्जरलैंड की यात्रा पर गया जहां पकडने के लिए इलाहाबाद सही मुम्बई के बीच रेलगाडी के सफर में अधिकतर समय इन्दिरा आपकी माँ की गोद में बैठे नहीं । उन्हें अपने साथ ले जा रहे मोतीलाल ने जवाहर लाल को लिखा मैं देखा हिंदू ने कमला को बार बार चुनाव झडकर को रोकना चाहिए । संभव हो तो उन्हें एक दूसरे के गले लगने से भी रोकना चाहिए पसीने तक मैं बीमारी के विषाणु होते हैं । रीजन नादान किशोरी थी तब भी अपनी बीमार दुखियारी माँ को अपनी पत्नी बाहों के घेरे में दस कर पीछे रहती थी और अपने जीवन में आगे जाकर उन्हें बेसहारा लोगों की रक्षक की भूमिका और छवि दोनों ही बखूबी मिलेंगे । स्विट्जरलैंड में जवाहर लाल ने इंदिरा को अलग अलग स्कूलों में भर्ती किया । सबसे पहले जेनेवा केले कॉल इंटरनेशनल में जहाँ पे महज आठ बरस की उम्र में अपने आवासीय फ्लैट से स्कूल तक अकेली ही जाती थी । मुझे फ्रेंच भाषा का एक शब्द भी समझ में नहीं आता था । जब मैं यहाँ जनेवा पहुंचेगी तो मुझे अंग्रेजी बोलने का भी मामूली ज्ञान ही था । मेरे पिता तो चले जाते लेखकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के साथ बैठक के लिए और मुझे मेरी बीमार माँ के साथ छोड गए । मुझे हमारी काम वाली बाई को समझाना पडता था । मुझे बाजार जाना पडता था । इसी सब के कारण फ्रेंच बोलना सीट गई । इससे मुझे आत्मनिर्भर होने में मदद मिली । मोदी लाल ने भी अपने बेटे को लिखा । हिन्दू छोटी से होने पर भी बेहद कर्मठ लडकी है । स्विस कस्बे में रहना सीख रही है । बहुत बहादुरी का काम है । बिहारी छोटी सिंधु चमत्कार है, लेकिन जल्द ही वह भी बीमार पड गई और सिस्टर के मारे की कहीं उसे भी अपनी माँ का रोकना लग जाए । नेहरू ने उन्हें जानवर से दूर बॉक्स में ले कॉल नवले भेज दिया । भू जगह उनके माँ बाप के स्थान से दो घंटे की यात्रा के फैसले पर थी । जवाहरलाल ने राजनीति से एक साल की छुट्टी ले ली थी और पिता बेटी सात सौ स्कीम करने तथा बर्फ के गोले एक दूसरे पर उछालने जाते थे । जवाहरलाल अपने पिता को इंदिरा केस किंग सीखने के बारे में भी लिखते रहते थे । साल में पेरिस यात्रा के दौरान उन्होंने भीड में आपने पापु के कंधे पर चढकर पहली बार अकेले हवाई जहाज को अटलांटिक को पार करके पेरिस के पास ले बोर्गे में उतार रहे विमानचालक जॉॅब को देखा और खुशी के मारे तालियाँ बजाये पिता और बेटी के बीच उनके बचपन के दौरान खासी गहरी आत्मीयता थी । नेहरू उनके साथ खेलते थे, उन्हें स्कीइंग और तैराकी सिखाने के लिए प्रयास करते थे और बेहद नहीं । सिख संरक्षक होने के नाते दुनिया से उनकी पहचान कराते थे । लेकिन ऐसा उनकी ऊंची उम्मीदों के सामने इंदिरा के डटने और उनके संरक्षणवाद को नियंत्रित करने की कोशिश शुरू हो जाने तक ही चल पाया । हम लोग का स्वास्थ्य सुधारने पर वो सौ सत्ताईस में पूरा भारत लौट आए । अब इंदिरा काफी समझदार और स्वतंत्र, सोचने लायक और फ्रेंच भाषा तथा स्कीम में भी परवीन हो गई थी । देश में पूर्ण स्वराज की उद्घोषणा के लिए माहौल बन रहा था । सन में साइमन कमीशन के खिलाफ अनेक भारतीय शहरों में आन्दोलन हो रहा था । विरोध प्रदर्शनों के दौरान अंग्रेजों की लाठियों ने जवाहर लाल को भी नहीं बख्शा । कांग्रेस के लोकप्रिय नेता लाला लाजपत राय जब लाहौर में मौन विरोध के रूस का नेतृत्व कर रहे थे तो अंग्रेजों की लाठी ने उनके सर पर करारी चोट मारी की वजह से उन के बाद में मौत हो गई । दोनों नेहरू भारत के भविष्य के बारे में ऐसे आमने सामने थे । जवाहर लाल और मोतीलाल के बीच मतभेद से आनंद भवन का माहौल विस्फोटक हो गया । मोतीलाल जहाँ अंग्रेजों की राजसत्ता के अंतर्गत ही भारत को डोमिनियन तथा स्वतंत्र उपनिवेश का दर्जा दिलाने के हामी थे, वहीं जवाहर लाल ने पूर्ण स्वतंत्रता के लक्ष्य की घोषणा कर दी । मोतीलाल अपने बेटे की हरकतों से अधीर हो गए । उन्होंने धन दौलत के हिसाब किताब में जवाहरलाल नेहरू के अनाडीपन पर कई बार निराशा जताई और जवाहर में पैसे गांधी द्वारा प्रवर्तित उग्र सुधारवाद के प्रति भी वे हमेशा आशंकित रहते थे । बीके नेहरू ने लिखा है कि मोतीलाल कहते थे कि वह अपना धन दौलत उस मूवी के भरोसे नहीं छोड कर जाएंगे क्योंकि वो उसे योगी गवाह देगा और उन के बजाय वे कमला अथवा हिंदू में से किसी के नाम अपनी सारी दौलत कर देंगे । अंतर्निहित, भावनात्मक और विचारधारात्मक मतभेद निर्णायक मोर पड आ गए थे । नेहरू लिखते हैं, पिता और बेटे के बीच संबंध इस कदर बिगड चुके थे कि राजनीतिक विषयों पर घर के भीतर बहस से बचा जाने लगा । साल उन्नीस सौ ढाई इसमें कमजोर कमला ने, दूसरे बच्चे की चाहत में दर्दनाक घर बात चेला और दो तथा अकेलेपन की खाई ने और गहरे उतर गई इंदिरा के लिए । हालांकि ये समय बेहद रोमांचक था । आपने चारों तरफ निरंतर जारी घटनाक्रम के बीच जीने के कारण उन्हें समझ में आने लगा था कि वे बडी महत्वपूर्ण घटनाओं की साक्षी बन रही थी और उनके भीतर भी कुछ साहसिक करतब दिखाने की उमंग जगने रही थी । मात्र ग्यारह वर्ष की उम्र में परिवार के साथ में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति के कलकत्ता अधिवेशन के लिए गई । इस जब सहित होकर उन्होंने नाश्ते में पूरे आधा दर्जन के लिए चट करके अपने परिवार को आश्चर्य में डाल दिया क्योंकि उन्हें तो यही पता था कि खाने पीने के मामले में वो नकली थी । कलकत्ता दौरे में मौजूद एक लडका सिद्धार्थ शंकर रही । वर्षों बाद कलकत्ता में उनकी याद में उनके इस करतब की याद नहीं । उसी खिडकी के बाहर केले का एक पेड लगाने वाला था । सुधर । शंकर ने मोतीलाल के पुराने मित्र चितरंजनदास के पोते थे । इंदिरा ने बाद में सिद्धार्थ से बातचीत में ये भी कबूल किया वैसा करके वे उन लोगों को प्रभावित करना चाहती थी जो उन्हें देख कर नेहरू खानदान की अहमियत के लिहाज से बहुत कमजोर और नगर नी समझ लेते थे । कांग्रेस के दिसंबर उन्नीस सौ बहत्तर में हुए लाहौर अधिवेशन में राष्ट्रवाद के आंदोलन को उसका सतारा गांधी के ऋषि को सेनापति मिल गया । इसके बारे में प्रसिद्ध है । तब उसने बैलों की बग्गी में बैठने से मना करते हुए सफेद घोडे की पीठ पर लाहौर की सडकें ना पर सबको विस मत कर दिया । नेहरू के जीतने का स्टाॅक लिखते हैं, जवाहर के लिए लाहौर अधिवेशन का महत्व उनकी राजनीतिक जीत से कहीं ज्यादा अहम था । ये तो उनका राष्ट्र था । वो खडी आई और वो पुरुष भी आया । चालीस वर्षीय जवाहर ने चली आ रही वंशवादी परंपरा में अपने पिता से कांग्रेस अध्यक्ष का पद हासिल किया पूर्ण स्वराज का ऐलान कर दिया । बेहद उत्साहपूर्वक कब तक दिसंबर उन्नीस सौ ऍम भारत का झंडा तिरंगा फहराया गया । पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव को तैयार करते समय नेहरू ने इंदिरा से उसकी टाइप की हुई पहली प्रति को ऊंची आवाज में पढवा इंदिरा ने जब उसे पढ कर सुना दिया । उन्होंने कहा क्योंकि हमने से जोर से पडा है इसलिए अब हम इसके लिए प्रतिबद्ध हो । बाद में उन्होंने कहा दी, पूरी तरह स्वतंत्र होने के बाद मुझे भी जैसी थी । लाहौर अधिवेशन के बाद नेहरू राष्ट्रीय आंदोलन के मनभावन युवराज हो गए । उनकी बेपनाह लोकप्रियता चारों और फैल गई और शायद इसी से घबराकर उन्होंने आत्मालोचना और मिमांसा के अंदाज में मॉर्डन रिव्यू में उन्नीस सौ सैंतीस में चालक के नाम से ही लेखी लिख डाला । दक्षिण एशिया के किसी राजनेता के लिए ये अभूतपूर्व कदम था । अपनी ही कलम से अपने कटु आलोचना करने वाले इस लेख का शीर्षक था राष्ट्रपति, कांग्रेस अध्यक्ष तब राष्ट्रपति कहलाते थे और उसमें तथा कथित राष्ट्रपति कि जनमानस में बनी पवित्र छवि को तोडकर उसे सामान्य नेता सिद्ध करने की कोशिश की गई थी । अपनी ही निंदा करते हुए उन्होंने लिखा, उनकी जिस मुस्कराहट पर जनमानस न्यौछावर हो जाने को आतुर है वो मात्र उन्हें आकर्षित करने की युक्ति भर है ताकि उस भीड का सद्भाव हासिल किया जा सके । इसके मन में वो पहले ही अपनी जगह बना चुके थे । किसी जननेता की सूची समझी युक्ति ये खुद ही बखिया उधेडने आत्मालोचना करने वाला ऐसा अद्भुत लेख था जो उन्हीं के समान लोकप्रिय इंदिरा गांधी कभी अज्ञात लेखक के रूप में लिखने की भी हिम्मत नहीं जुटा सकती थी । छह अप्रैल की सुबह साढे छह बजे महत्वा ने तटीय गांव गाडी में समुद्र में खडे होकर किसी बर्तन में खारे समुद्री पानी को भरा और सवाल कर नमक बना । ऐसा करके उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत का नमक कानून ही नहीं तोडा बल्कि उस की रात सत्ता को सीधी चुनौती दे दी । उनके सामान्य से कौतुक ने देशभर में जबरदस्त नागरिक अवज्ञा आंदोलन छेड दिया । दांडी नमक सत्याग्रह यात्रा के समर्थन में देश भर में यात्राएं निकाली गई और प्रदर्शन हुए । मोतीलाल को अचंभित करते हुए कमला भी अपनी बीमारी का बिस्तर त्यागकर जुलूसों के नेतृत्व में जुट गई । बे इलाहाबाद में अंग्रेजों द्वारा संचालित इविंग क्रिश्चियन कॉलेज पर ऐसे ही धरने का नेतृत्व कर रही थी । तभी बौखलाई पुलिस नहीं उसे तितर बितर करने को लाठीचार्ज कर दिया और भीड से घिरी कमला चिलचिलाती धूप में बेहोश हो गई । बडी औरतों के उस करने को असमंजस से देख रहा था । कॉलेज का एक विद्यार्थी कमला की मदद के लिए लगता अठारह बरस के शिवक का नाम करो । उस गांधी था ऊंचे मंसूबों वाला युवा जो बचपन से लोगों को मजाक में बुद्धू बनाने में माहिर था । बेहद नाजुक खूबसूरत कमला से पलक झपकते प्रभावित हो गया था जो एक प्रखर आंदोलनकारी बन चुकी थी । कॉलेज छोडकर वह कांग्रेस के कार्यकर्ता बन गए और नेहरू के अन्य सहायको की तरह दोनों नेहरू हों का अपना आदर्श मानते हुए नियमत आनंद भवन आने जाने लगे । उनके जीवनीकार बर्टिल फॉक लिखते हैं, कमला नेहरू ने फिर उसके लिए मानव नई दुनिया के दरवाजे खोल दिए थे । रोज बम्बई स्थित मरीन इंजीनियर के पुत्र है लेकिन उन्हें उनकी अविवाहित बुआ डॉक्टर शीरी कमी सारी उतने गोद लेकर इलाहाबाद में ही उनकी परवरिश की थी । डॉक्टर कमी सरिया जानी मानी सर्जन थी लेकिन फिर उसके परिवार की सामाजिक हैसियत नेहरू खानदान से कम थी । उनका परिवार न तो उतना लोकप्रिय था और न ही उतनी विशेष उपलब्धियों से युक्त था । इसी वजह से नेहरू परिवार और इंद्रा से परवान चढ रहे अपने रिश्तों में रोज को आजीवन हीन भावना से ग्रस्त रहना पडा । इंदिरा तब तक कांग्रेस के बाद संगठन वानर सेना कि कर्मठ सदस्य हो चुकी थी । वो अपने वानर दल की सेनापति थी, जो बहुत अज्ञातवास करने वाले कांग्रेसियों के लिए चिट्ठी, पत्री, भोजन और सूचनाओं का आदान प्रदान करते थे । हमारे घर के पास के किसी गांव में जब गोलीबारी हुई तो हमें खुद घायल युवाओं प्रदर्शनकारियों के पास जाना पडा । मैं सेवा से इस प्रकार परिचित हुई उस समय तेरह अथवा चौदह साल की रही होंगी । चौदह साल की थी जब नमक सत्याग्रह के दौरान झंडा फहराने वाले आंदोलनकारी पर लाठी बरसाकर उसे गिरफ्तार कर लिया गया । उसे जब राशिद कर ले जाया जा रहा था तो झंडा उन्हें सौंपते हुए उसने चिल्लाकर कहा, इसे किरने मत देना । झंडे को गिरने मत देना । नहीं ताजिन्दगी इंदिरा गांधी भारत के झंडे को करने नहीं देगी । राजसत्ता ने नमक सत्याग्रहियों की धरपकड चालू कर दी । जवाहरलाल पर उन्हें में राजद्रोह का आरोप लगाकर फिर से जेल में डाल दिया गया । नैनी सेंट्रल जेल में उन्हें तेरह साल की इंदिरा को पत्र लिखने का सिलसिला शुरू किया । बाद में भावपूर्ण रूप से लिखित ऍम यानी विश्व इतिहास की झलक नामक किताब का रूप लेने वाले थे । ऍम इतिहास को समझने वाले सबका है जिसमें सभ्यताओं के उत्थान और पतन का विवेचन है और अशोक तथा सिकंदर महान जैसे चरित्रों की जीवन गाथा समाहित है । इससे पता चलता है नेहरू कितने मनोयोग से अपनी बेटी को उन महान चरित्रों से परिचित कराना चाहते थे, जिनके जीवन को उन्हें अपना आदर्श बनाना चाहिए था । इस प्रक्रिया में वे उनके और अपने लिए भी नए गडे जा रहे देश के वास्ते विचारों और मूल्यों का मीजान बैठा रहे थे । नेहरू जब जेल में थे तभी कमला भी गिरफ्तार कर ली गई । कमला अब तक नहीं जिंदगी जीने लगी थी । तिरस्कृत पुत्रवधू और उपेक्षित पत्नी ने खुद की और अपने शोषित देशवासियों की स्वतंत्रता के लिए आंदोलनकारी बन गई थी । स्वतंत्र होने की चाहत की कीमत में बखूबी समझती थी । उन्होंने आजादी के संघर्ष में खुद को स्वतंत्रता सेनानी और संगठन करता के समान छोड दिया था और उन्नीस सौ इकत्तीस में वो जब बंदी बनाई गई तो ये इंदिरा की जीत थी । इससे इनके पिता की कांग्रेस के रूप में कमला की धार चल गई । आजादी की लडाई तेज होने के साथ साथ वो भी आंदोलनकारी के रूप में तेज तरार होती गई । उनके ससुराल वालों ने भी कमला की इज्जत करनी शुरू की । कृष्णा हठीसिंग लिखती है, अब हम ने साहस के साथ कमला हर एक परिस्थिति का मुस्कुराकर सामना करते हैं । जवाहर ने जब अपना जीवन देशभर के लिए न्यौछावर कर दिया । हमला भी उनके नक्शे कदम पर चलने से नहीं चुकी । भारत में यदि कभी कोई उत्कृष्ट सेनानी था वो कमला थी । नए सिरे से अपने पैरों पर खडी हुई माँ अपनी गर्व बेटी को चिट्ठी में आपसी अंतरंगता और रक्षात्मक मुद्रा में लिखती है, मैं बैरक के बाहर चब्बी टहलने के लिए निकलती हूँ तो मुझे तुम्हारा ख्याल आता है । मैं जब यहाँ हो जाऊंगी तो हम टहलने के लिए साथ साथ बाहर जाया करेंगे । हालांकि वो मौका छह महीने बाद आएगा लेकिन छह महीने बीतने का तो तुम्हें या तुझे पता भी नहीं चलेगा । पत्र में कमला का संबोधन होता था हिन्दू जी को क्या जिसमें सम्मानसूचक शब्द जी सामान्यतय अपनों से बडों के लिए प्रयोग होता है । इंदिरा ने कहा लोग मेरे दादा जी और पिता को तो जानते हैं । अगर और भी अधिक महत्वपूर्ण भाग मेरी माने अदा किया था । मेरे पिता ने जब गांधी जी का साथ देने का मन बनाया तो उन्हें समूचे परिवार का विरोध झेलना पडा था । सिर्फ मेरी माँ के साहसिक और लगातार समर्थन के बूते ही वो इतना बडा फैसला कर पाए जिसने भारत के इतिहास पर अमिट छाप छोडी । वो अपनी माँ को अपने बूते स्वतंत्रता सेनानी बनने की छवि करना चाहते थे, अपने पिता की पिछलग्गू के रूप में नहीं । मैं यहाँ सुलझी हुई स्त्रीवादी थी । ये ऐसी स्थिति थी जिससे मैं तब नहीं समझ पाई क्योंकि मुझे तो अपने मनमोहन सिंह जीवन जीने की छूट थी । इस बात से कोई फर्क ही नहीं पडता था कि मैं लडका था या फिर लडकी । मेरे पिता मेरे पिता को पतियों के तहत भरे पत्र मिलते थे । आपकी पत्नी हमारी पत्नी को भी भडका रही है । वो अपने माँ पिता को बराबरी से तो बोलती थी । मानव कमला को इतिहास में उनके अधिकृत स्थान तक उठाना उनका कर्तव्य हो । कहती थी मैं असाधारण पता और विलक्षण माँ की बेटी हूँ । छह फरवरी उन्नीस ऍन मोतीलाल नेहरू का देहांत हो गया । उनकी मृत्यु इंदिरा के जीवन में घटित पहली मौत थी । ऐसी इससे व्यसन रह गई । उन्होंने अपने सबसे बडे समर्थक को खो दिया था । मोतीलाल ऐसे चढ उधर मना कुशल पुरुष थे जिनके प्रति इंदिरा का लगा आपने परिष्कृत पिता के मुकाबले स्वाभाविक रूप से अधिक था । जवाहर लाल की हर समय नुक्ताचीनी करती, सुधर करने को आतुर आंखों के विपरीत उन्हें मोतीलाल से भरपूर बिना शर्त स्वाभाविक लाड प्यार मिला था । महात्मा के सुझाव पर मई उन्नीस सौ इकत्तीस इंदिरा को इलाहाबाद से दूर पुणे में ब्लॅक स्कूल में दाखिल करा दिया गया । सुधारवाद स्कूल को स्पोर्ट में पडे समाजवादी जाऊंगी वकील और उनकी पत्नी पूरी भाई चलाते थे । उन्होंने वहाँ से अपनी स्कूली शिक्षा मध्यम दर्जे में पूरी की । पुणे में नाखुश थी अपनी फूफी की शूल भी चुभने वाली टिप्पणी और आनंद भवन में पारिवारिक अशांति के बीच अकेली पडी अपनी माँ की स्थिति उन्हें सालती रहती थी । कमला से मानो छीनकर अलग कर दी गयी । वो प्रकृति की शरण में चली गई । स्कूल के मैदान में खडे प्राचीन रक्षियों के सारे में शांति महसूस करने लगी । जीवन भर अपने दुखों से राहत पाने के लिए पेडों और वनों की शरण में जाती रही । हरियाली का मंडप अपनी हवाओं की सरसराहट के गीतों और ढूंढते लिपटे दुलार से उन्हें सराबोर करता और अपनी खुशबूदार धन इच्छाओं में उन्हें सुरक्षित करता । उन्होंने कहा है मैं बचपन से ही वृक्षों को जीवन रक्षक आश्रय मानती रही हूँ । जवाहर लाल उन्हें लिखने वाले थे । हम में से किसी को ही और कम से कम तो मैं तो हताश होना क्या उससे भयभीत होना ही नहीं चाहिए । सब कुछ अनुकूल होने पर तो मुस्कुराना सबसे आसान है, लेकिन जब सब कुछ अनुकूल न हो तो तो मेरी प्रिया दसवीं पास करने के बाद में उन्होंने रमणीय ग्रामीण परिवेश में रविंद्रनाथ टैगोर द्वारा स्थापित विश्वविद्यालय शांति निकेतन में दाखिला लिया । इंदिरा के हाथों शान्तिनिकेतन के अधिकारियों को भेजे गए नेहरू के पत्र से पता चलता है उनकी शिक्षा की वो कितनी बारीकी से पढा करते थे । उसके माता पिता की इच्छा है ये किसी विषय में विशेष योग्यता हासिल करें जिसकी बदौलत की आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो सके । अपने गुजारे के लिए पति पर घर भर न रहे । उसके मन में सामाजिक अथवा सार्वजनिक कार्य करने की धुंधली से अच्छा है । लेकिन किसी खास विषय में विशिष्ट ज्ञान जरूरी है । शारीरिक व्यायाम के बिना ये अमूमन सुस्त और अस्वस्थ हो जाती हैं । इंदिरा ने शांति निकेतन में अपनी शिक्षा तो पूरी नहीं की मगर टैगोर का उनके जीवन पर बुनियादी असर बडा अपने पिता और बाद में अपने पति के अलावा यदि वे किसी से बौद्धिक रूप में सबसे अधिक प्रभावित हुई, वो टैगोर थे । टैगोर की कविता, जिसमें बहुत मुक्ति और दिव्यता के लिए आत्म की छटपटाहट परिलक्षित होती थी, उनके कलात्मकता दिमाग को प्रभावित कर गई । गुरुदेव को भारतीय मूल्यों और संस्कृति की सबसे प्रखर अभिव्यक्ति मानने लगी । भारतीय होने पर गर्व, मगर सार्वभौमिक व्यक्तित्व इसका सरोकार संस्कृति के संकुचित स्वरूप से नहीं, बल्कि स्वतंत्रता और समूची मानवता के लिए समर्थक था । मेरे पिता ने भी वैसे ही विचार जताए बिना गहराई तक राष्ट्रीय हो, कोई भी अंतरराष्ट्रीय नहीं हो सकता । टैगोर के विचार और प्रयास मानव मात्र को और ऊंचाई तक ले जाने के लिए थे । शांति निकेतन में उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ । मेरे मन में जमा कटुता और डॉक्टर धुलकर साफ हो गई और वे कलात्मक और काव्यात्मक उत्कंठा की नई दुनिया से परिषद हुई हैं, जिससे उनके भीतर तब तक अपरिचित रहा साहित्य और संगीत के प्रति अनुराग पैदा हुआ । इंदिरा जब शांति निकेतन में थी तो कमला फिर से बीमार पड गई और उन्नीस सौ चौंतीस में वे कमला के रिश्ते के भाई और निजी चिकित्सा डॉक्टर मदन लाल और नेहरू के वफादार सेवा हरी के संग अपनी माँ को लेकर पहले भो वाली में टीबी अस्पताल और फिर उन्नीस सौ पैंतीस में जर्मनी स्थित बॉडी वाली वर्ग के सेनिटोरियम में तथा हम तथा स्विट्जरलैंड के लॉसान स्थित क्लाॅक सिलवाना गई । यहाँ अट्ठाईस फरवरी उन्नीस सौ छत्तीस को कमला ने दम तोड दिया । अठारह वर्ष केंद्र के मन को इससे गहरा सदमा लगा जिससे वह जिंदगी भर उबर नहीं पाए । कमला अपने जीवन के अंतिम दौर में इतनी धार्मिक हो गई थी । उन्होंने ब्रह्मचर्य की शपथ ही ले ली थी और इंदिरा के लिए वे पवित्रता की मूरत बनी रही । मेरी माँ युवा और पवित्रा थी । यौवन और पवित्रता की खूबसूरत तस्वीरें कमला के उत्तर साध्वी जैसी पवित्रता इंदिरा के लिए हमेशा नैतिकता का मानदंड और बात के जीवन में अपनाई गई धार्मिकता की प्रेरणा रही । अपने पिता को हालांकि उन्होंने कभी संत कहा था मगर उनके लिए संतत्व की पराकाष्ठा दरअसल कमला थी । इसकी बराबरी उनके पिता कभी नहीं कर पाए । मन से पस्त और सुन हो चुकी इंदिरा ने अगले पांच साल तक जवाहर लाल के सपने को पूरा करने के लिए अपनी इच्छा और दिमाग को मार लिया । कमला की मृत्यु के पहले से ही वो ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में दाखिले की परीक्षा देने की तैयारी कर रही थी । अपनी माँ की मृत्यु के चार महीने बाद उन्होंने समरविले कॉलेज में दाखिले की कठिन सात घंटे लंबी प्रवेश परीक्षा नहीं । पहले और दूसरे प्रयास में वो फेल हो गई । मगर तीसरी कोशिश कामयाब रही हैं, लाते नहीं । भाषा के ज्ञान की कमी बार बार उनके आडे आ रही थी । इस विषय से वह बेहद घबराती थी । उन्होंने ऑक्सफोर्ड में प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए ब्रिस्टल के निकट बैडमिंटन स्कूल में दाखिला लिया । शिक्षा की दृष्टि से कडी मेहनत करवाने वाला लडकियों का पब्लिक स्कूल था । मशहूर उपन्यास का आॅॅफ बैडमिंटन की छात्रा थी तो वो इंदिरा को नाखुश, अकेली तथा अपने भविष्य के प्रति आशंकित छात्रा के रूप में याद करती हैं । उनका जीवन हालांकि खुशियों से एकदम खाली नहीं था । काम ना जब बॅाल क्लिनिक में भरती थी तब भी पूरी वफादारी से नेहरू परिवार को देखने जर्मनी गए । फिरोजगांधी उस समय लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में पढ रहे थे और इंदिरा फिर ओस तथा उनकी मित्र शांत । गांधी बहुदा लंदन में संगीत के कॉन्सर्ट और नाटक देखने तथा पान की तलाश में भी साथ साथ जाया करते थे । इंदिरा ने समरविले कॉलेज में उन्नीस सौ सैंतीस की क्लास में दाखिला लिया था । उन्होंने बाद में हालांकि ये दावा किया ऑक्सफोर्ड जाने का फैसला उनके पिता का नहीं बल्कि खुद उन का था । ऑक्स पोर्ट जाने का निर्णय अंततः हम मेरा ही था । मुझे नहीं लगता कि उससे मेरे पिता का कोई खास ताल्लुक था । ऑक्सफोर्ड को चुनने का कारण फिर उसका इंग्लैंड में मौजूद होना भी था । मैं उन्हें ज्यादातर मित्र ही मानती थी । परिवार और भारत की कडी के रूप में भी । ऑक्सफोर्ड तबसे थी तो सारे समय पढाई के अलावा तमाम अन्य गतिविधियों से गहराई से जुडी रही । वेज ऑक्सफोर्ड में दाखिल हुई । तब तक फिर उसके साथ रोमांटिक रूप से जुड गई थी । वर्षों बाद जब राजीव की प्रेमिका के रूप में सोनिया गांधी उनसे पहली बार मिली थी । उन्होंने सोनिया को बताया, मैं खुद करें युवा और प्यार में डूबी हुई थी । फिर उसने हालांकि उनसे अनेक बार शादी की पेशकश की । मगर उन्होंने पेरिस में जाकर हमे वाली सोमरविले में भर्ती होते समय मेरे पेरिस में रूप से मिली और उन्होंने मां मात्रे में सेक्टर कोई पैसे लेकर की सीढियों पर उनसे शादी करने का अनुरोध किया । उनके अपने शब्दों में गुनगुनी धूप में नहाया दिल जवान और उन्मुक्त था । हम खुद जवान और प्रेममग्न थे । रूस में जब पहली बार इंदिरा से शादी का अनुरोध किया, मैं सोलह साल की थी । कमला ने इंकार कर दिया । शादी के लिहाज से उनकी बेटी की उम्र बहुत कम थे । रोज के लिए इंदिरा उनके प्रिय पुरुष नेहरू की बेटी थी और वो उनके आदर्शों से भी उतने ही प्रभावित थे जितने उनकी बेटी से । विडंबना यह रही कि उनके परिवार और उसके भीतर उनका जीवन ही बाद में फिर उसकी भावनात्मक समस्याओं का कारण बनने वाले थे । फिर उसकी बुआ डॉक्टर कमी सारी । आपने ये सोचकर लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में उनकी पढाई का खर्चा उठाने की हामी भरी थी । उससे कम से कम नेहरू खानदान के प्रति उनके लगाव से छुटकारा मिल जाएगा । लेकिन ॅ इसी समय एक दूसरे के सबसे अधिक करीब थे और उनका व्यक्तित्व बढ गया था । वो एक और स्पोर्ट की ग्रेजुएट बनकर अपने पिता की उम्मीदों पर खरी उतरने की कोशिश में थी और और दूसरी और लंदन में जारी गतिविधियों में । फिर उसके साथ आंदोलनकारी की भूमिका उन्हें अधिक आकर्षित कर रही थी । फिर उसके साथ वो इंडिया लीग की सक्रिय थी । ये ब्रिटेन में भारत की आजादी के लिए आंदोलनरत परिवर्तनकारी संगठन था । इसके अगुआ प्रखंड चिंता अच्छी वीके कृष्णमेनन थे । जो वकील, प्रकाशक और लोग विद्वान थे । कृष्णा मेनन ने नेहरू को पहले ही प्रभावित किया था । जवाहर लाल के काले मरियल भद्दे मगर अत्यंत बुद्धिमान मानस मित्र है । मैंने अचानक एक बार उनसे कुछ लोगों की बैठक को संबोधित करने को कहा और उन्होंने जिस प्रकार अपनी बात कही है उस पर श्रोताओं में से कोई चिल्लाया ये तो बोलती नहीं तो अच्छी आती है । प्रधानमंत्री रहते वो इस किस्से को मुझे लेकर सुना देंगे । ये बात दीगर है । कितना वो श्रोताओं की भीड को संबोधित करने और उन्हें बांधे रखने में दक्ष हो चुकी थी । इस अवधि की उनकी ज्यादे बहुत सुविधा ही नहीं है । इस अवधि की उनकी तस्वीरों में बेहद दुबली और जब दिखाई देती हैं, उनके साथ भी उन्हें अस्वस्थ, शारीरिक और बुद्धिमत्ता के स्तर पर कतई सामान्य और फिर उसको अपने जीवन का संबल मान उन्हीं की परिक्रमा करती लडकी के रूप में याद करते हैं । उनके पिता के मित्र भी कतई उनसे कतई प्रभावित नहीं थे । उन्हें भीरु, शर्मीले, नादान लडकी बताया गया तो राजनीतिक रूप से विचारशून्य और विशुद्ध अपने पिता की बेटी थी । उन्होंने लंदन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स में फॅमिली अथवा ऑक्सफोर्ड की मजलिस में होने वाली बहस को भी शंकर गहरी कोशिश की, मगर बौद्धिक रूप में निखर कर उतनी विलक्षण नहीं हो पाई जितनी उनके पिता की चाहत थी । नेहरू के यूरोपीय मित्रों में शामिल थे । नोबेल पुरस्कार पाने वाले फ्रेंच लिखा था आंद्रे जी लेखक और तरह सिद्धांतकार ऍम अल रो जीवविज्ञानी और वैश्विक वादी जूलियन हक्सले और समाज सुधारक समाज शास्त्री बिट्रीज ऍम नेहरू जब उनसे मिलते और विभिन्न विषयों पर चर्चा करते थे, कुछ इंदिरा के सामने भी तो दुर्भाग्य से उन्हें खुद नहीं कुशाग्रता की कमी सालती होगी । ऑक्सफोर्ड में आपने पहले ही साल में वे दो बार कोशिश करके भी परीक्षा में पांच ना हो पाए । ये मॉडरेशन परीक्षा थी, जिसे पास करके ही ऑनर्स की पढाई शुरू की जा सकती थी । सभी अन्य विषयों में पास हो गई मगर हर बार अपने लिए डरावनी बन चुकी लाते नहीं । भाषा के पर्चे में अटक जाती थी । ईशा स्वाभाविक ही था क्योंकि उन्हें अन्य अंग्रेज विद्यार्थियों की तरह भाषा के अभ्यास का मौका ही नहीं मिला था, जो वर्षों से इसकी पढाई कर रहे थे । उनके पास आखिरी मौका बचा था । यदि वह फिर से फेल हो जाती तो उन्हें निचली फ्रांस में भेजे जाने अथवा ऑक्सफोर्ड छोड कर चले जाने के आदेश का अपमान झेलना पडता । खांसी, जुकाम और तनाव के बारे बीमार पड गई । ऑक्सफोर्ड उनके समकालीन रहे निखिल चक्रवर्ती को लगता है कि उन देना हो । उनकी बीमारी की डर पास दरअसल आसान बहाना भर होती थी ताकि वे ऑक्सफोर्ड से नीचे भेजी जाने से बच सकें । उन्होंने उन्होंने तक तय कर लिया और प्रयास नहीं करेंगे और स्पोर्ट को छोड देंगे । इसकी जानकारी हालांकि उन्होंने तब तक अपने पिता को इस्टर से नहीं दी कि कहीं भी उसके प्रति आकाश ना हो जाए । इस बीच नेहरू खुद यूरोप पहुंच गए और उनकी बैठकों और भाषणों का अटूट सिलसिला शुरू हो गया और वो भी उनके साथ उस दौरे में शामिल हुए । उनके जाने से पहले ऍम से कहा, यदि तुम अपने पिता के साथ गयी तो उनकी पिछलग्गू बनकर रहे होगी । अच्छा ये है कि तुम उनके साथ मच चाहूँ तो मैं खुद अपनी राह बनानी चाहिए । लेकिन वे तो यूरोप की राजनीतिक गहमागहमी और नेहरू के चारों और होने वाली हलचल में शामिल होने को आतुर थी । नेहरू का बहुत व्यस्त कार्यक्रम था । उसमें राजनेताओं और विद्वानों से मुलाकात, पता, सार्वजनिक सभाओं में जाना, भाषण करना शामिल था । ये कार्यक्रम कृष्णा मैंने आयोजित किए थे । पिता और बेटी साथ साथ विश्व शांति सम्मेलन में शरीक होने पेरिस जाएगा । यहाँ स्पेन के कुछ समूह आंदोलन कर रहे थे जब सम्मेलन में स्पेन के गृहयुद्ध की कम्युनिस्ट नायिका लाॅ सोनारिया की बोलने से रोका गया तो इंदिरा उत्तेजित होकर उनके समर्थन में उतर आए । अपने युवा आंदोलनकारी दिनों को याद करते हुए उन्होंने बताया, मुझे स्पेन के गृहयुद्ध नहीं गहराई तक प्रभावित किया । ब्लॅक होते हुए भेजा । बुडापेस् पहुंचे तो इंदिरा को लूट इसी नामक गंभीर बीमारी हो गई । नेहरू ने उनसे अपने साथ भारत लौट चलने का आग्रह किया जिसे उन्होंने मान लिया । नवंबर में भारत लौटाने पर वो किस साल की हुई और उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर लिया जिसके लिए वो कुछ समय से आतुर थीं । शायद वॉक चोट को भूल चुकी थी और मन ही मन उन्होंने अपनी राह चुन ली थी । वो एकांत में मन लगाकर घंटों पढाई करने के लिए नहीं बनी थी । रेडिकल अभियान में शामिल होना उन्हें अधिक खाता था । लातीनी भाषा सीखने की लडाई के बजाय विभिन्न जनमुद्दों के लिए लडना चाहती थी । उन्होंने मन ही मन ठान लिया था ऑक्सफोर्ड से कुट्टी और राजनीतिक आंदोलनों से दोस्ती लंदन में जो राजनीति से पगे दिनों और फिर उसका ही तसव्वुर करती थी । युवा परिवर्तनकारी थी जो मोहब्बत में गले तक डूबी होने के बावजूद इंग्लैंड में मौजूद भारतीय विद्यार्थियों के मन में मची हुई युवा उचित खलबली मैं सक्रियता से शामिल होना चाहते थे । जब तक पढाई लिखाई के माहौल में रही उनकी तबियत ऍम ही रहे हैं । लेकिन बाद में जब राजनीति में शामिल होने के बाद पिच चुस्तदुरूस्त और मजबूत हो गई, अपना मन माफिक माहौल मिलते ही मुरझाते फूल मेहमानो जाना आ गई हो । फिर उस तब तक लंदन ही थे और फिर लौटकर उनके साथ हो जाने को छठ बता रही थी । उन्होंने अपने पिता से बात की है कि वे वापस स्पोर्ट जाना चाहती हैं । हालांकि समय जिले में फिर से पडने की उनकी कतई मंशा नहीं थी । उन्होंने नेहरू को मना लिया कि उन्हें इंग्लैंड लौटने दिया जाए जबकि उनके स्वास्थ्य और यूरोप में छोडने जा रहे युद्ध के बारे में चिंतित थे । वे उन्नीस सौ सैंतालीस की गर्मियों में लंडन वापस पहुंच गई और फिर उसके निवास के पास ही अपने लिए भी किराये पर कमरा ले लिया । रोज भी तब तक लंदन स्कूल ऑफ इकनॉमिक्स की पढाई को तिलांजलि देकर विभिन्न आंदोलनकारी समूहों में शामिल हो गए थे । लंदन । मेरे इंडिया लीग की गतिविधियों में और भी मनोयोग से जुड गई और कृष्णामेनन कि गरीबी हो गई । अब तक उनकी फिर उसके वामपंथी मित्रों मोहन कुमारमंगलम, पीएन हक्सर, निखिल चक्रवर्ती और मुल्कराज आराम से भी दोस्ती और जुडा स्थापित हो गया था । ये सभी मेनन के शिक्षक है । कुमारमंगलम आगे जाकर उनके मंत्रिमंडल में मंत्री बने और हक्सर उनके आडे वक्त के साथ ही सिद्ध हुए । साल उन्नीस सौ सैंतालीस में सितंबर महीना आते । यूरोप में युद्ध छिड गया और साथ ही इंदिरा की तरह बिगड गई । परिवार और मित्रों ने तय किया कि उन्हें लंदन से बाहर ले जाना चाहिए और उन्नीस सौ सैंतालीस के आखिरी दौर में उन्हें महात्मा की सलाह पर स्विट्जरलैंड में लाॅट ओरियन में भर्ती करा दिया गया । ऍम में लंबे समय तक रहने के बाद वे उन्नीस सौ सैंतालीस में युद्ध से पस्त यूरोप में फिर उसके सारे थे की चाहत में लंदन लौट गईं । उन्होंने नेहरू को केबल क्या कल रात पहुंच गए मगर कार्यक्रम अनिश्चित ही है । असल में उन्होंने अपना कार्यक्रम मन ही मन तय कर रखा था । अब तक रोज और उनके बीच गुप्त सगाई हुए चार साल बीत चुके थे और उन्होंने अब भारत लौटकर विवाह रचाने का फैसला किया । मार्च प्री और फिर रोज पानी के जहाज से भारत चले आए । ऑक्सफोर्ड से डिग्री पाने में नाकाम रही इंदिरा उलझन शर्मा और अपर्याप्तता के बहुत से भी हुई थी ऑक्सफोर्ड के अपने दिनों की व्याख्या उन्होंने कुछ इस प्रकार की सब लोगों की जेल में बंद होने और ऐसे ही हालात होने के कारण मेरा मन पढाई में बिलकुल भी नहीं लगता था । प्रिया श्रीमती गांधी ऑक्सफोर्ड की डिग्री हासिल करने में अपनी नाकामी पर आप लज्जित और संकोच की शिकार हो रही थी । आपने अपने पिता के पसंदीदा विषय आधुनिक इतिहास के अध्ययन को चुनाव अगर आपकी दिलचस्पी किसी भी विषय में जगह में नहीं पाई और आपकी शिक्षित दिशा भी नहीं तय कर पाएं । शांति निकेतन ही अकेला शिक्षा संस्थान था, जहाँ आप खिल गई थी, जहाँ आपका दिमाग और आत्मा भी सांस लेने लगे थे । जहाँ आप अधिक कलात्मक इच्छाओं को अपना सकती थी, जहाँ आपके चुने गए विषय स्पोर्ट की चुनौती पर पाठ्यक्रम से कुछ काम कठिन थे । ऑक्सफोर्ड में आपकी नाकामी का, आपके पिता से आपके संबंधों पर क्या असर पडा है कि आपको यह पीडादायक सच पता था । उनके सपनों पर खरी उतरने में आप नाकाम सब हुई । समरविले से नेहरू को संबोधित आपके अपेक्षाकृत प्यार भरे पत्र से साफ प्रतीत होता है । उनकी पुष्टि पाने के लिए आप कितनी बेताव रहती नहीं? प्यारे बापू मुझे डर लग रहा है कि मैं भी आप की कुछ गंदी आते अपना रही हूँ । मुझे सुबह बाहर जाना पडा । फिर दो बजे लेवर स्टडी ग्रुप की बैठक थी । सात बजे में डाल के साथ रात का खाना खा रही थी । साढे आठ बजे मुझे मस्जिद की बैठक में जाना था तो क्योंकि कृष्णा मेनन बोलने वाले थे । ऍफ पार्लियामेंट यानी संसद की उत्पत्ति पर मेरे निबंध हो । क्लास में सवेरे दस बजे पडा जाना था । मैंने उसे पौने एक बजे तक पडा और सवा तीन बजे तक लिखती रहे हैं । मुझे मेरे निबंध पर वैरी गुड यानी बहुत बढिया टिप्पणी मिलेगी । आप जब बीमार पडी हैं तो आपके पिता कुछ अनुदान हो गए । उन्होंने आपको लिखा स्वास्थ्य का सीधा ता लोग मन से है । चिंता और कुलबुलाहट को ताक पर रख दो । आप जब ऍम में थी तो उन्होंने आपको भारत लौटने के लिए पागल होने से बचने की सलाह लिखा । मुझे भारत चाहिए । तुम्हारा कर्तव्य अथवा जिम्मेदारी की भावना नहीं । तुम्हारे और मेरे लिए बोझ बन जाए । नेहरू की साफ तौर पर यह अंशाति व्याप अपने पैरों पर परवाज भरा सीखे और उस की दुनिया में अथवा उनके पंखों के नीचे शरण पाने को दौडी नहीं चली आए । आपको ऐसा महसूस हुआ कि ऑक्सफोर्ड के बाद आपके प्रति आपके पिता के मन में कुछ खटास आई हो और वो छोडने के तत्काल बाद फिर उससे शादी का आपका फैसला आपके पिता के उम्मीदों से परे आपके लिए जीवन की तलाश का प्रयास था । बाद में विद्वानों और विचारकों से विचार विमर्श करना क्या शैक्षिक उपलब्धियां हासिल करने में अपनी नाकामी की भरपाई करने की कोशिश था? आप हाजिरजवाब, संवेदनशील, अश्चर्यजनक रूप से फटाफट और हमेशा पडने वाली शख्सियत तो थी मगर ऑक्सफोर्ड के अनुभव ने आप में आजीवन आत्मविश्वास की कमी भर दें और शैक्षिक रूप में आप से अधिक योग्य लोगों के प्रति असुरक्षा का भाव जगा दिया । ऑक्सफोर्ड की पढाई बीच में ही छोड देने के कारण आपके भीतर खुद को अपने पिता की दृष्टि में योग्य सिद्ध करने की हो तो घर नहीं कर गई थी है ।

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इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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