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1. इंदिरा की मौत, किवदंति का जन्म in  |  Audio book and podcasts

1. इंदिरा की मौत, किवदंति का जन्म

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इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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आप सुन रहे हैं । फॅमिली किताब का नाम है इंदिरा । भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री जिससे लिखा है सागरिका घोष ने । आरजेडी आशीष जैन की आवाज में कुकू एफ एम सुने जो मन चाहे इंदिरा की माँ किवदंती का चंद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या अक्तूबर उन्नीस सौ चौरासी को उनके दो अंगरक्षकों के हाथों हुई । दोनों सिख थे । उनकी हत्या से सिखों के जनसंहार की ऐसी खूनी धारा वही जिसे इतिहास ने उन्नीस सौ चौरासी के सिख विरोधी दिल्ली दंगे के नाम से दर्ज किया । इसमें हजारों सिखों को सरेआम मौत के घाट उतार दिया गया । उनकी हत्या ने ऐसे गहमागहमी भरे साल का अंत किया । इसके दौरान श्रीमती गांधी ने अमृतसर स्तर सिख आस्था के सबसे पवित्र प्रति स्वर्ण मंदिर में भारत की सेना को सशस्त्र ऑपरेशन का आदेश दिया था । लॉटरी श्रीमती कम थी । आप की हत्या वाले दिन मैं दिल्ली विश्वविद्यालय स्थित अपने कॉलेज में थी । दोपहर से पहले ही लोगों को ये पता चल गया था कि इंदिरा गांधी किसी भयानक दुर्घटना की शिकार हो गई थी । आप की मृत्यु की औपचारिक घोषणा तब तक नहीं की गई थी लेकिन अफवाहों का बाजार गर्म था । हम आपस में अविश्वसनीय अंदाज में फुसफुसाकर बात कर रहे थे । विशेष गांधीको खोली मार दी गई । हम अपने मन को ये समझा ही नहीं पा रहे थे कि शायद आप की मृत्यु हो चुकी है । इंदिरा गांधी क्या कभी मर भी सकती थी? हमारी जिंदगियों पर अपनी शख्सियत की अमिट छाप छोडने वाली महिला यू अचानक नहीं रही थी । ये तो कोई सोच भी नहीं सकता था । ये बात ही अकल्पनीय और बेच चुकी थी के दशक के हमारे जैसे बच्चों के लिए तो आप जीते जी अमर हो चुकी थी आप भारत रुपये जहाज पर लगी स्थायी प्रतिमा थी गढने हमेशा बनी रहने वाली एक मौजूदगी आपको क्या अपनी मृत्यु का पूर्वाभास होने लगा था? अपनी मृत्यु से कई दिन पहले अपने किसी मित्र से आपने कहा था मैं सबसे एकदम आज आ गई हूँ । क्या आप डर गई थी? अपने दुश्मनों के षड्यंत्र का भय आपको सदा रहा था । शायद इसीलिए अपने जीवन के आखिरी दिनों में आपने निरीश्वरवादी नेहरू की बेटी ने कर्मकांडो मंदिरों, तंत्रमंत्र और अंधविश्वासों का दामन हम लिया था । अपनी मृत्यु से चार दिन पूर्व आप श्रीनगर लगभग तीर्थ यात्रा के अंदाज में गई थी । आप वहाँ मंदिर, दरगाह और संतोष सूफियों के सामने माथा टेकने गई थी । आपने श्रीनगर दौरे से पूर्व ये निर्देश दे दिया था कि आप की मृत्यु के बाद आपकी चिता की भस्म को हिमालय पर छितरा दिया जाए । आप की जीवन लीला का अंत हालांकि राजनीति में आपके शांत लगी ले प्रदार्पण के विपरीत बेहद नाटकीय सर रक्तरंजित रूप में हुआ । आपका जीवन तूफानों और परेशानियों से घिरा रहा । हालांकि आपके पिता रहे तो इसकी भविष्यवाणी अपने जीते जी ही कर दी थी । आपके महाकाव्यात्मक ऍम आपके आपके वदंति को ऐसी रंगते दी जैसी शायद पिछले लंबी निरर्थक बीतती और बुझती हुई जिंदगी को तभी हासिल नहीं होती । उस समय पे सधे हुए कदमों से उद्देश्यपूर्ण तरीके से घर से बाहर आई थी ये बात इकत्तीस अक्टूबर उन्नीस सौ चौरासी की तारीख थी । अगले दिन एक नवंबर की सुबह के अखबारों की सुर्खियां थे । इंदिरा गांधी की गोली मारकर हत्या । सिख सुरक्षाकर्मियों ने छाती पेट में गोलियां दागी । अपनी मृत्यु की पूर्व संध्या को उन्होंने भुवनेश्वर में सभा को संबोधित किया था और जबरदस्त भीड के सामने अर्थ नाथ किया था । आज मैं यहाँ हूँ । कल में शायद यहाँ आ रहा हूँ । मेरे मरने पर मेरे खून की एक एक बूंद भारत को ऊर्जा देगी और शक्तिशाली बनाएगी । भारतीय प्रशासनिक सेवा के पूर्व अधिकारी और तब इंदिरा गांधी के सचिवालय के निदेशक वजाहत हबीबुल्लाह भुवनेश्वर में उनके साथ ही थे । वजाहत उनके सचिवालय में उन्नीस सौ बयासी में ही शामिल हुए थे । उनके अनुसार वो भाषण तेरह तुझको अर्पण के अंदाज में था । मानव भारत को वापस जनता को समर्पित कर रही थी मानव वो कह रही थी कि मैं जो कुछ भी कर सकती थी, कर चुके हैं । अब इसे आप खुद संभाली । साधु लक्ष्मण जूने, जिनसे वह श्रीनगर के अंतिम दौरे नहीं मिली थी, याद करते हुए बताया, बहुत उनके बहुत गरीब थी । उन्होंने जब उनसे किसी इमारत का उद्घाटन करने को कहा, उनका जवाब था यदि में जिंदा रही तो जरूर आउंगी । उनकी मृत्यु के बाद बेलूरमठ स्थित रामकृष्ण मिशन के एक साधु ने याद किया । इंदिरा गांधी ने उन्हें भी उसी अक्टूबर में असम में मृत्यु के बारे में कुछ ऐसा ही पत्र लिख दिया था । मृत्यु का शिकंजा करीब आता दिख रहा था । भले ही शरीर ऊर्जा से भरपूर था । उनकी इच्छा शक्ति डूब रही थी, शायद शून्य में विलीन होने को आतुर थी । तारीख की सुबह ठंडी और धूप से भरपूर थी । उनका पूरा दिन बेहद व्यस्त था । सुबह के समय उनके इंटरव्यू की वीडियोग्राफी के लिए अपनी टीवी टीम के साथ मेरे था स्तंभकार और प्रसारक पीटर उससे लोग इंतजार कर रहे थे । दोपहर को ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री जाॅन के साथ मुलाकात नहीं फिर उन्हें ऍम के साथ औपचारिक रात्रिभोज कर रहा था । मैं उस दिन सुबह उनसे उस समय मिला जब वो इंटरव्यू देने के लिए तैयार हो रही थी और उनकी ब्यूटिशियन उनका मेकअप करने में जुटी हुई थी । डॉक्टर कृष्णप्रसाद माथुर ने अपनी ज्यादा को टटोलते हुए बताया । वो में उनके प्रधानमंत्री बनने के समय से ही उनके डॉक्टर थे और बिला नागा हर सुबह उनकी जांच करने जाते थे । डॉक्टर ने बताया कि वो हमेशा एकदम चुस्त दुरुस्त रहती थी और उन्हें ऐसा याद नहीं पडता कि कभी वो बीमार पडी हो । उनका स्वस्थ है । इतना बेहद खूबसूरत था कि मेडिकल समस्याओं की चर्चा के बजाय हम लोग अन्य बातें कर लिया करते थे । उस दिन मैंने कहा कि टाइम पत्रिका में पडा था कि रोनाल्ड रीगन आपने टीवी इंटरव्यू के लिए मेकप कराने से मना कर दिया था । उन्होंने इस बात का जोरदार खंडन किया और बताया, रीगन मेकप तो करते ही थे साथ ही कान में एयर पीस भी लगाते थे । इसके जरिए उन्हें उन सवालों के जवाब मुहैया किये जाते थे । पत्रकार उनसे पूछते थे । माँ को लगता है कि उन्हें अपनी मृत्यु का पूर्वाभ्यास हो गया था तो मुझसे कहा करती थी मैं अचानक मरूंगी किसी दुर्घटना में सवेरे नौ बजे के बाद वो तैयार थी । अपने निवास सफदरगंज रूप से तेजी से भागते हुए अपने दफ्तर बगल के एक अकबर रोड स्थित बंगले की और घुमावदार रास्ते पर लंबे डग भर्ती हुई चल पडी जहाँ उस तरह की टेलीविजन टीम उनका इंतजार कर रही थी । उन्हें सूरज की तेज किरणों से बचाने के लिए पुलिस वाला उनके सर पर छाता ने साथ साथ चल रहा था । उनके पीछे निजी सहायक आरके धवन चल रहे थे और उनके भी पीछे उनके सेवक तथा उनकी सुरक्षा के लिए तैनात पुलिस सब इंस्पेक्टर थे । ये हमेशा की तरह सुसज्जित और ताजा तम लग रही थी । हमेशा िखारी जब तुमसे संभाली हुई सुपौल काठी के मालकिन इंदिरा गांधी उस दिन तो खासकर बेहतरीन स्वास्थ से दमकती, तरोताजा और सुन्दर लग रही थी । उन्होंने काली पट्टी वाली केसरिया रंग की साडी पहनी हुई थी और उससे मिलती जुलती नाजुक सी काले रंग की सैंडल उनके पैरों में थी । उनके कंधे पर था कशीदाकारी वाली लाल छोला कैमरे पर अपने व्यक्तित्व को आकर्षण देने के लिए उन्होंने उस दिन बुलेटफ्रूफ जैकेट नहीं पहन रखी थी । अपनी जान पर बार बार गंभीर खतरे के कारण वो उसे पहनने को मजबूर हो गई थी । तो दरवाजे से बाहर निकली और झाडियों की कतारों, लिली के फूलों से पत्ते, ताला और बगीचे को पार करते हुए अपने अकबर रोड्स्टर दफ्तर को ले जाने वाले छोटे से एक गेट की तरफ पडी । इस रास्ते से रोज गुजरती थी विजय छोटे गेट के पास पहुंची तो वहाँ सब इंस्पेक्टर बेअंत सिंह ने गा होने आया । प्रेमसिंह उनके अंगरक्षक दस्ते में पिछले नौ साल से शामिल था और उसके साथ विदेश भी गया था जिसमें उनकी हालिया लंदन यात्रा भी शामिल थी । ऑपरेशन ब्लूस्टार के बाद उसे सिख होने के कारण उनके सुरक्षा दस्ते से कुछ ही समय पहले हटाया गया था । लेकिन इंदिरा नहीं उसे वापस बुलवा कर ही दम लिया । उन्होंने हमेशा की तरह उसका अभिवादन नमस्ते से क्या । बहन सिंह ने जवाब में अपना रिवॉल्वर उठाया और उन पर निशाना साथ दिया । उन्होंने पूछा, क्या कर रहे हो? इंदिरा गांधी व्यवहारिक थी । सहज बहुत से सीट थी । कल्पनाओं की उडान भरना उन्हें नहीं आता था । उनके दिमाग में ये बात जरूर कौन ही होगी की बहन सिंह क्या करने पर उतारू है । वो भी ऐसे दिन जब सूर्य की सुनहली किरणों ने मृत्यु संबंधी सभी विचारों को ठिकाने लगा दिया था और बेहद व्यस्त दिन अपने छोटे से छोटे कामों के बखूबी निपट जाने के इंतजार में था । हवा में पल भर की खामोशी रही । फिर उसने गोलियां चलाई, एकदम करीब से एक के बाद एक पांच गोलियां । अभी बेयंत के दूसरी तरफ कौन से एक और युवा सेक सिपाही सपूर्ण सिंह नमूदार हुआ । बाईस साल का सपोर्ट सिंह गुरदासपुर में लंबी छुट्टी बिताकर बस लौटा ही था और डांस पर कब से कुछ उग्रवाद की पौधशाला बना हुआ था । छप्पन सिंह के बाद घबराहट के मारे मानव जमीन से चिपक गए । अभी बेल चलाया हो रहा है । सुनते ही सपोर्ट नहीं लडते, हाथों से अपनी ऍन पच्चीस गोलियाँ दी । इंदिरा गांधी परमाणु गोलियों का छोटा सा चक्रवात टूट पडा, जिसने उनकी इकहरी काया के लगभग हर हिस्से को बींध दिया । मुझे एक के बाद एक तीन गोलियां चलने की आवाज सुनाई दी । पीटर उस्तीनोव ने बताया, दफ्तर में लोग कहने लगे ये पक्का पटाखे होंगे । उसके बाद स्वचालित हथियार से तब तक गोलियां चलने की आवाज आई । मानव हमलावर कोई कसर नहीं छोडना चाहते थे । मुझे नहीं उनके बचने की कोई भी गुंजाइश लगी भवन तक खडे रह गई । एक दम जरूरी है । वो याद करते हुए बताते हैं, मैं जब भी वो दिन याद करता हूँ तो पागल हो जाता है । उस वाकये का याद करने से बचता हूँ । बहुत जब गोलियां दागने लगा तब तक उस जमीन पर गिर चुकी थी । धवन आगे लगते हैं । अन्य सुरक्षाकर्मी भी दौड कर खून से लगभग इंदिरा गांधी को संभालने पहुंचे । लेकिन बेयंत सिंह और सतवंत सिंह के चेहरे पर शिकन तक नहीं और उन्होंने अपने हथियार किए । मोहन सिंह ने पंजाबी में कहा, मुझे जो करना था मैं कर चुका । अच्छा तुम्हें करना है वो करो । कुछ मिनट में भारत तिब्बत सीमा पुलिस के जवानों ने प्रेम सिंह और सपंत को काबू में कर लिया । वो लोग इंदिरा गांधी के घर की सुरक्षा के लिए तैनात थे । हम उसी दिन सिपाहियों से हुई । छीनाझपटी ने गोली खाकर मारा गया । सब हम और उसके षडयंत्रकारी साथी किधर सिंह को चार साल से अधिक समय बाद कौनसी दी गई । अपनी दादी की हत्या के तीन दशक बाद राहुल गांधी ने अपने दो दोस्तों प्रेम सिंह और सतवंत सिंह को याद किया । मेरे दोस्त थे जयंत मुझे बैडमिंटन खेलना सिखाया था उसने कभी मुझ से पूछा भी था कि मेरी दादी कहाँ होती थी और क्या उनकी सुरक्षा काफी थी । उसने मुझे बताया यदि कोई कभी हथगोला फेंककर मारे याद रखना तो फौरन जमीन पर लेट जाना होगा । मुझे बाद में समझ में आया कि दिवाली के दौरान स्वतंत्र और प्रेम उन पर हथगोला फेंकने के फेर में थे । इंदिरा गांधी के जीवन पर मंडरा रहे गंभीर खतरे के प्रति इंटेलिजेंस ब्यूरो आईबी पूरी तरह खबरदार था । रिसर्च ऍम रोके । मुखिया पद से सेवानिवृत्त ऍफ को बुलाकर उनकी सुरक्षा का जिम्मा सौंपा गया । उन्होंने उनके अंगरक्षक दस्ते में सिखों की मौजूदगी के प्रति बार बार चेतावनी दी थी । बावजूद इसके उनकी निजी सुरक्षा नहीं है । मुस्तैदी का हैरतनाक अभाव उस प्रशासनिक पतन की निशानी था । सरकार चलाने की उनकी सामंती व्यक्ति पर आप और केंद्रीकृत शैली से पैदा हुई थी । उन के आस पास समुचित सुरक्षा और खुफिया प्रक्रियाओं के पालन का सरासर अभाव था । प्रधानमंत्री की सुरक्षा को भी जिस अमर्यादित और लापरवाह तरीके से अंजाम क्या जा रहा था और चर्यजनक है, प्रशासनिक निर्णय प्रक्रिया के खोखलेपन का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है की बेहन सिंह उनके अंगरक्षक दस्ते से हटाए जाने के वर उत्तर सीधे इंदिरा के पास अपील करने पहुंच गया था और आईबी के मुखिया द्वारा किया गया तबादला रुकवाने में कामयाब रहा । आई । पी । के इस निर्देश के बावजूद की उन की चारदीवारी के भीतर एकमात्र दो हथियारबंद सिख सुरक्षाकर्मी कभी भी नहीं रहने दिए जाए । सतनामसिंह इसका उल्लंघन में कामयाब रहा हूँ । वो भी इतना आसान सब बहाना बनाकर इसका पीठ खाता था । इसलिए उसे आवास की चारदीवारी के भीतर ही रहने दिया जाए । अपनी सुरक्षा में प्रत्यक्ष खामियों के प्रति ऐसा लगता है कि वे खुद भी बेहद लापरवाह हो गई थी । वो जब मेरी हत्या करने आएंगे तो कोई भी नहीं बचा पाएगा । उन्होंने लगभग असहाय भाग्यवादी की तरह ऐसा कहा था । प्रधानमंत्री के घर पर टाॅक क्योंकि चाय पीने गया था । स्टाॅक्स काम नहीं आ सके । उन्हें उठाकर सफेद फॅार कार में डाला जा रहा था । तब ही भीतर से सोनिया गांधी ये चिल्लाती हुई दौडी आई हमी ऍम भी सोनिया गांधी याद करती हैं । मैंने जब शूट सुना गोलियों का मैंने सोचा कि शायद दिवाली के बच्चे कुछ पटाके छोडे जा रहे थे । मन में संदेह गहराया । मैं बाहर की और भागी तो गोलियों से वृद्धि उनकी देह देखी । मैं इसका अंदेशा था । मेरी सास को पूर्वाभास इस बात का उन्होंने इस बारे में उनसे जिक्र किया कि उन्होंने खास तौर पर राहुल से बात की थी । उन्होंने बकायदा हिदायत भी दी थी । है सोनिया भवन और अन्य सुरक्षा करनी दिनेश भट्ट सभी अंडर में चढ गए । सोनिया गांधी पिछले सीट पर अपनी संस्कृति सिर अपनी गोद में संभाले थे और एक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान एम्स की और रवाना हुए । उस समय सडक सवेरे कि भीड से खचाखच थी । उनकी गाडी रैंक भर पा रही थी । लोग जब अस्पताल पहुंचे तो जूनियर डॉक्टर जानकर हैरान रह गए । उनका मरीज कौन है? टूर्नामेंटों में ही वरिष्ठ सर्जन और फिजिशियन आदि तमाम डॉक्टर वहाँ घटना हो गए । लगातार खून चढाना शुरू किया गया । सर्जन उनकी छाती और पेट का ऑपरेशन में जुटे और खून जुटाने के लिए आम जनता से रक्तदान की अपील की गई । ऍम कर लोग इतनी भारी तादाद में आ गए । वहाँ भगदड का नंबर गया । उसी दोपहर को लगभग दो बज कर बीस मिनट पर इंदिरा गांधी की मौत की घोषणा कर दी गई और सामान के सडसठ जन्मदिन में महज तीन हफ्ते बाकी थे । हालांकि बीबीसी पर उनकी मृत्यु की घोषणा कई घंटे पहले ही कर दी गई । नहीं । संवैधानिक प्रक्रिया के अनुसार पद पर ही प्रधानमंत्री की मृत्यु हो जाने पर उनके उत्तराधिकारी को तब कल शपथ दिलाना आवश्यक होता है क्योंकि प्रधानमंत्री के नहीं रहने से सरकार का सब तो खत्म हो जाता है । इसलिए आकाशवाणी पर प्रधानमंत्री की मृत्यु की घोषणा हूँ । राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिलाने से चंद मिनट पूर्व ही की गई आकाशवाणी पर कांपते हुए औपचारिक सुर में बस पितृ भर घोषणा की गई । हम खेदपूर्वक प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की मृत्यु हुई है । घोषणा करते हैं । उत्तर और उत्तराधिकारी राजीव गांधी को दिल्ली पहुंचाने में कुछ घंटे का समय लगा । राजीव गांधी बंगाल में चुनाव प्रचार अभियान छोडकर उल्टी पहुँच वापस आए । राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह भी यमन में सना से गडबडी में दिल्ली आए ताकि राजीव को फौरन शपथ दिलाई जा सके । राजीव तो बीबीसी रेडियो पर शोक समाचार पहले ही सुन रहे थे । उन्होंने चिंता में डूबी आवाज में अपने साथियों से पूछा वो इतनी सारी कोरियों की अधिकारी थी आपने अंतिम वर्षों के दौरान इंदिरा गांधी ने इसे सुनिश्चित किया था सिर्फ राजीव जी उनके उत्तराधिकारी बन सकें । अब तक मंत्रिमंडलीय साथियों मुख्यमंत्री हो और पार्टी के पदाधिकारियों के पर्व इसकदर कतरे जा चुके थे कि प्रधानमंत्री, कांग्रेस अध्यक्ष और लोकसभा में संसदीय दल के नेता यानी सभी प्रमुख पदों से वो खुद काबिज थी और उन के बाद भी उनके पुत्र के अलावा और कोई भी उत्तराधिकारी नहीं था । इकत्तीस अक्टूबर को अपनी माँ की हत्या के नौ घंटे बाद शाम छह बजकर पैंतालीस पाॅलिस वर्षीय राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी गई । डॉक्टर माथुर कविता सुनाते हैं, इंदिरा नहीं है । उनके लिए लिखा था ऑन लोग डॉक्टर वाॅ और मल्टी कलर्ड फिर हमें डॉक्टर को जानते हैं जो दिन रात काम में लगा रहता है । कमर दर्द से लेकर जुकाम पर हम मालिश अथवा रंगबिरंगी गोलियों के सहारे सारी बीमारियों का इलाज करता है तो हम आपको बताते हैं उन पर वह वार्ना खाता था कि अंत तक जब उनकी मृत्यु हुई तो उनके स्वास्थ्य की बीस साल से देखभाल करने के बावजूद मेरे पास उनके लिए कोई इलाज ही नहीं था । तीन मूर्ति भवन में तिरंगे में लिपटे उनके शव का अंतिम दर्शन करने मानव जनसैलाब उमड पडा था । उन्होंने इसी भवन में अपने पिता जवाहरलाल नेहरू के प्रधानमंत्री काल में सत्रह साल बताए थे । दर्शनार्थियों के नारे इंदिरा गांधी अमर रहे हैं, वहाँ घूम रहे थे । शोक रेस्ट भीड के बीच से तभी खून जमा देने वाली चीज आपको जी उनका बदलाव खून चलेंगे । दिल्ली में कत्लेआम की लहरों की बदले की भावना ने नाक की तरफ फन फैला । सिखों पर हमले उसी तरह शुरू हो गए । बसों और रेलगाडियों से उतार बार कर सिख ऊपर मिट्टी का तेल डालकर उसे जिंदा चलाया जा रहा था । अन्य सिखों को उनके घरों से बाहर घसीटकर तलवारों से काटकर मार दिया गया । खुली कमीजों में लाना, आंखों नौजवान, हाथों में साइकिल की जंजीरें, लोहे के सरिये था । मैं चाकू लहराते बेखौफ गलियों में अपने शिकार ढूंढ रहे थे । ऐसे ही किसी गिरोह ने बस को रोककर पूछा बस में कोई सिखता नहीं है । इसी बस में लेखक अमिताभ घोष भी सवारियों में शामिल थे, जो तब दिल्ली विश्वविद्यालय नहीं पढाते थे । वो लिखते हैं, उनकी आवाज में कोई उत्तेजना नहीं थी और यही सब सेटल नाम की बात सवारियों ने मिलकर एक सिख मुसाफिर को सीट के नीचे छुपा रखा हूँ । जवाब में नगार के साथ सर हिलाते हुए एक साथ कई आवाज गूंजी नहीं, यहाँ कोई भी शक नहीं है । आखिरकार दंगाइयों की टोली लौटे और हाथ से बस को आगे बढने का इशारा किया । अम् रिंग रोड पर आगे बढे मगर कोई भी कुछ नहीं बोल रहा था । दिल्ली धडक रही थी, सिखों की दुकान है, सरेआम लूटी और बसे जलाई जा रही थी । मजदूरों की कॉलोनी तृणों पुरी के वक्त दिसंबर ब्लॉक में मौजूद लगभग सभी सिख मर्द जिंदा जला दिए गए थे । हाथ साहब दिल्ली के सिख विरोधी दंगों का प्रतीक बन चुका है । ये है स्वतंत्र भारत के इतिहास में किसी भी शहर के किसी एक मोहल्ले में हुआ सबसे बडा जनसंहार था । दो सिखों को तो गुरुद्वारा रकाबगंज के मुख्यद्वार पर ही जिंदा जला दिया गया था । तीन बेटों की पैंतालीस वर्षीय मांग गुरदीप कौर को निर्वस्त्र करके उसके किशोर बेटों के सामने ही बलात्कार किया गया । इतना ही नहीं फिर वैश्यों ने उस निर्वस्त्र मेरी माँ की आंखों के सामने उसके किशोर बेटों को जिंदा जला डाला । इस लोमहर्षक नृत्य के दौरान भी जुनूनी भीड ये हिमाकत भरा ऐलान कर रही थी । कोई भी सिक्का बच्चा नहीं बचेगा । भारत की पुलिस व्यवस्था के सबसे काले अध्यायों में शुमार इन घटनाओं को कानून के रखवाले जानबूझ कर अनदेखा कर रहे थे । कई जगह हिंसा में उन की मिलीभगत रही और उन्होंने शिकायत दर्ज करने से मना कर दिया । दंगों के शिकार कुछ लोगों ने हिम्मत जुटाकर अपनी सुरक्षा के लिए दंगाइयों का मुकाबला क्या बोलते उन्ही को पकड लिया गया । एक नवंबर की शाम से दो नवंबर की शाम तक हालांकि सेना तैनात कर दी गई थी मगर तीन दिन नरसंहार बहुत का और लूटपाट का सिलसिला तीन नवंबर की शाम तक विरोध तो जारी रहा । गवाहों ने कांग्रेस के नेताओं सज्जन कुमार, जगदीश टाइटलर, एचकेएल भगत और धरमदास शास्त्री के शराब की तो दंगाइयों का नेतृत्व कर रहे थे । जिंदा जलते लोगों, घरों, दुकानों और बसों से उठते धुएं के गोवा जगह जगह से लपलपाते हेमंत ऋतु के साफ आसमान की और बढते हुए मौत किसानों का ऐसा उस करा रहे थे । दंगे रुकने तक दिल्ली में तीन हजार से अपनी जान से हो चुके थे और पचास हजार पलायन कर गए थे । गुजरात के दंगे जहाँ मुख्यमंत्री के नाम से नीचे हुए थे, नई दिल्ली के दंगे प्रधानमंत्री के नाक के नीचे हुए । ये कहना है पत्रकार मनोज में टाका उन्होंने उन्नीस सौ चौरासी के दंगों पर किताब लिखी है । दंगों के पखवाडेभर बाद इंदिरा गांधी की जयंती पर आयोजित विशाल सभा में राजीव ये कहने वाले थे जब एक बडा पेड गिरता है तो स्वाभाविक है उसके आस पास की धरती कुछ मिल जाए । बीस साल पूर्व जब जवाहरलाल नेहरू की शवयात्रा दिल्ली की सडकों पर निकली थी दस लाख से अधिक लोग उन्हें नम आंखों से विदा करने जमा हुए थे तो वो उस रूट पर उस समय दुनिया की सबसे भीडभाड वाली जगह हो गया था । मेहरू के अंतर दर्शन के लिए लोग मानव टूट पडे थे । हर पेड और बिजली के खंभों पर रोक थे इंदिरा गांधी के पति फिरोजगांधी की शवयात्रा देखने के लिए भी उन्नीस सौ साठ में हजारों लोग तीन मूर्ति भवन से निगम बोध घाट पर सडक किनारे चलते इंदिरा के बेटे संजय गांधी की मौत के बाद ही सडक किनारे जमा भीड नहीं उसे मौन श्रद्धांजलि दी थी । लेकिन इंदिरा गांधी की अंतिम यात्रा के दौरान तीन नवंबर हो तीन मूर्ति भवन से यमुना किनारे स्थित शांतिवन के चित्र असफलता अब राजस्थान का नाम शक्ति स्थल है तो गाडी पर फूलों से ढके उनके शव के साथ चल रहे शोधार्थियों की संख्या बहुत कम थी । यह बात दीगर है तो गाडी के पीछे पैदल आ रहे नामचीन शोक आरतियों में मदर टेरेसा भी शामिल थी । शहर में तनाव जारी था । सब कुछ मानव ठहर गया था । प्रिया श्रीमती इंदिरा गांधी आपने हत्या के बाद पहले पागलपन से भरपूर तंग हो मानव आपकी याद ने आपके खून में सर कोई अनुष्ठान हो आपने निर्जीव काया के चारों और हो रहे उस जिन्होंने तांडव को आप क्या मानती है? ऐसा था मानवती की बुराइयों के राक्षसों को बुलाकर तबाही का लाइसेंस थमा दिया गया हो । एक ही धार्मिक समुदाय के बच्चों की हत्या और तो उसे बडा का मर्दों को जिन्दा जलाना वो सब आप के नाम पर नहीं अपने लिए ऐसा एक स्मारक आपको पसंद नहीं आता है । किसी विशेष धर्म के लोगों का जनसंहार इससे भारत की धर्मनिरपेक्ष छवि में गहरी दरार पडे । इस बार आपको बेहद ना आस्था, दंगे क्या धर्मनिरपेक्ष भारत के निर्माण में आपकी विफलता का जलन प्रतीक नहीं थे? सेना द्वारा स्वर्ण मंदिर में कार्रवाई के बाद जब इंटेलिजेंस ब्यूरो के निदेशक नहीं, आपकी सुरक्षा दस्ते में से सभी सिख कर्मियों को हटा देने की सिफारिश की थी । आपने फाइल पर लिखा था, क्या हम धर्मनिरपेक्ष नहीं है? लेकिन आप लोगों के बीच जीवंत धडकती हुई धर्मनिरपेक्षता को पैदा नहीं कर पाई । आपने? आपने अंतिम वर्षों में हिन्दू शब्दाडंबर का सहारा लेकर धर्मनिरपेक्षता की नदी को गंदा किया था । आपने अपनी धार्मिक प्रवर्तियों को सार्वजनिक रूप में ऐसे प्रदर्शित किया जैसे आप से पहले किसी भी प्रधानमंत्री ने प्रदर्शित नहीं किया था, चाहे वो शास्त्री हूँ या फिर आपके पिता । आपने धर्मनिरपेक्षता के संवैधानिक दायित्व के आगे तो शीर्ष नवाया, मगर धार्मिक प्रतीकात्मकता को सार्वजनिक जीवन और राजनीतिक बहस में शामिल हो जाने दिया । सैद्धांतिक धर्मनिरपेक्षता के साथ आप के द्वारा धार्मिकता को गडमड अंदाज में मिलाया जाना शायद आपके द्वारा लोकलुभावन ता का शिखर छू लेने के बावजूद जनता से आपके अभिजात पांच ले का नतीजा था । आपके द्वारा बुलेटप्रूफ जैकेट नहीं पहनने अथवा अपने सुरक्षाकर्मियों की अनदेखी करने से इस साफ होता है कि आप पुराने जमाने के भारत में जी रही थी । जब घरेलू कर्मचारियों के वफादारी पर आंख मूंदकर भरोसा किया जाता था । जब घर की सुरक्षा परिवार के मुखिया के विराट व्यक्तित्व में निहित होती थी, सब सुरक्षाकर्मी भी परिवार में खुल मिल जाया करते थे । आपको हकदारी के इस भाव में सुरक्षा का अहसास होता था । आपके बचपन के घर में प्रचलित सामंती तौर तरीको में सबको अपनी हैसियत का अहसास था, इसलिए बंदूक तानने की कोई सपने में भी नहीं सोच सकता था । आपने उस तरह के भारत में कुली धर्मनिरपेक्षता का फायदा सीखा था । पहुँचने विक्रम में संस्थाबद्ध धर्मनिरपेक्षता तो ऐसी धर्मनिरपेक्षता ऊपर से थोपे गए सुधारवादी सबका की तरह आगे बढने की कोशिश कर रही जनता को रूस दिखानी पडती हूँ ही आप खुद अंधविश्वासों और कर्मकांड में लगी हुई थी था । भारत में धर्मनिरपेक्षता की खुराक रोजाना देने की जरूरत का आपको भलीभांति अहसास था । आपने बंटवारे की विभीषिका, सांप्रदायिक दंगों के कारण गांधी जी की वेदना अतिवाद से घबराते नेहरू को देखा था । इसके बावजूद आप की मृत्यु पर फूट पडे घर, सांप्रदायिक दंगे । उस देश में धर्मनिरपेक्षता की भावना जगह पाने के आपके प्रयासों का जबरदस्त माहौल उडा रहे थे । इस पर आपने लगभग दो दशकों तक राज किया था । प्रधानमंत्री ने मंदिर का विध्वंस कर दिया और मंदिर के उपास कोने प्रधानमंत्री का अंत कर दिया । हत्या के बाद इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व पर शहादत का चोला चल गया । लोकगाथा बन गई, ऐसा चरित्र बन गई जिसकी जून का था । आज भी राष्ट्रीय पुराण कथा की तरह बात चीज आती है । पूछनी, आराम नहीं, प्यारी घनत् आदि तमाम रूपों में होने के बावजूद वे सर्वोच्च बलिदान का प्रतीक बन गई । उन्होंने युद्ध सम्राज्ञी की तरह शासन किया और फिर भारत की एकता रूपी अपने देश के लिए अपनी जान को बलिदान कर दिया । सफदरगंज रोड अब इंदिरा गांधी स्मारक संग्रहालय है । वहाँ इतनी तादाद में लोग श्रद्धांजलि देने आते हैं, जितने और किसी राजनेता के स्मारक पर नहीं जाते । गांधी के स्मारकों पर भी रहे इंदिरा गांधी के स्मारक पर लोग तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश से, बांग्लादेश से कश्मीर से बंगाल से । इसलिए स्कूली बच्चे, बुजुर्ग और युवा सभी आते हैं । वे भारत की रानी थी, भारत की शासक थी । इंदिरा गांधी जैसा कोई भी नहीं हो सकता । यह कहना है त्यागराजन का, जो तमिलनाडु के स्कूल में शिक्षक है । हर की रानी लेकिन वो तो प्रधानमंत्री थी ना प्रशासन थी शासन । मुखिया सिर्फ राजनेता नहीं, उनके लिए इंदिरा खुद प्रतीक थी । बिना ताज की एक सम्राज्ञी राष्ट्रीयता का साकार रूप कोलकाता से आई अनुराधा ने कहा, इंदिरा गांधी जैसा कोई भी नहीं हो सकता । स्मारक के प्रसारण केंद्र में उनके जीवन पर आधारित छोटी सी फिल्म देखने के बाद सुबह ते हुए वो गोली उनके जैसा कोई भी नहीं है और नहीं कभी दूसरी इंदिरा गांधी पैदा हो सकती हैं । उन्होंने अपनी मृत्यु के विरासत के रूप में चुनाव में कांग्रेस को चार सौ सीटें दिला देंगे । कांग्रेस उन्नीस सौ चौरासी के आम चुनाव में आजाद भारत के इतिहास में सबसे अधिक सीटों पर जीत हासिल हुई । मैं ही मुद्दा हूँ । उन्होंने उन्नीस के चुनाव के बारे में कहा था, साल उन्नीस सौ चौरासी के चुनाव में मुद्दा उन की हत्या थी । मृत्योपरांत समाधान के प्रति के रूप में भारतीय मतदाताओं ने उस चुनाव को उनके स्मारक में बदल दिया । साल उन्नीस सौ चौरासी का चुनाव तो शवयात्रा थी । इसमें लोगों ने उनकी याद को वोट दिया । एक लोकतंत्र शो उनका स्मृति पर्व बन गया । राजीव गांधी को अपूर्व बहुमत मिला क्योंकि वे इंदिरा के शोक संतप्त बेटे थे और नागरिक उनके साथ आ जुटे क्योंकि उनका दुख उन्हें निजी दुख प्रति हुआ । उन्हें चाहूँ हो रहा हूँ, कभी किसी निजी शत्रु, सभी अबूझ साम्रागी । उनकी मौत के बाद लगभग सभी भारतीयों को सिर्फ पढते, साया उठ जाने का एहसास हुआ । उसके बाद भारत पर बहुमत वाली सरकार का शासन भले ही रहा मगर उस भारत में बेचैनी और गुस्से की लहर चल रही थी । असम से कश्मीर और पंजाब का सांप्रदायिक और धार्मिक तनाव पडने लगा । वर्ष उन्नीस सौ अस्सी के पूरे दशक के दौरान सांप्रदायिक तनाव खत बताता रहा और जगह जगह दंगे हुये, पुलिस में अत्याचार किये और मौतों का आंकडा बढता गया । उनकी हत्या के बाद हत्याओं की मानो बाढ ही आ गई । मुरादाबाद, असम, पंजाब और मुंबई भिवंडी में हुई हत्याओं के रूप में उन के बाद मेरठ और भागलपुर में भी तंग ए और हत्याएं हुई । अस्सी का दशक रक्तरंजित दशक रहा । लेकिन देश के भाग्य में तो और भी बडे पैमाने पर हिंसा बंदी जब उन्नीस सौ बानबे में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद देश में बंटवारे के बाद सबसे बडे पैमाने पर और बुरे नतीजों वाले दंगे हुये । लश्कर, उत्तरी भारत और मुंबई में धर्मनिरपेक्षता और जातीय सौहार्द पर उससे पहले कभी इतना खतरा नहीं मंडराया । बाहर में खून माद की जो लहर वही उससे नेहरु की धर्मनिरपेक्षता को कमजोर और निर्जीव बना दिया । जगह जगह धार्मिक संघर्षों की तैयारी चल रही थी तो शाहबानो फैसले से उबल पडी । इसमें राजीव गांधी की सरकार पर मुसलमानों के धार्मिक अतिवाद को पुष्ट करने का आरोप लगा । चाहवानों फैसले को खारिज करने के बाद ही एलकेआडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या रथयात्रा की रहा बनी जिसने आक्रामक हिंदुत्व हो बताया और उसी की पीठ पर चढकर भारतीय जनता पार्टी ने लोकप्रियता के कुलांचे भरना शुरू कर दिया । इंदिरा ने इस मायने में अपने पीछे ऐसा लोकतंत्र छोडा जो अनेक रंगों वाले हिंसक कट्टरपंथ से गिरा हुआ था । अपने आखिरी दिनों में क्या वो बेहद स्वार्थी हो गई थी । क्या उन्होंने किसी भी कीमत पर राजनीतिक वर्चस्व बनाए रखने की छोंक में अपने पिता के आदर्शों को ताक पर रख दिया था? क्या ऊंचे आदर्शों पर अमल की राह में राजनीतिक समीकरण आडे आ रहे थे? चारों और भडकती आपके बीच शायद अग्निशमन के तौर तरीके भूल गई थी । हिंसक भारत में तबदील होते गांधी के भारत के इस तौर में उनके प्रशासनिक तौर तरीके शास्त्र की संस्थाओं को और नुकसान ही पहुंचा रहे थे । सत्ता के चंद हाथों में केंद्रित हो जाने के कारण उनकी सरकार असहाय और क्रूर प्रतीत होने लगी थी । इसके बावजूद जिम ऑडिशन के गीत की तरह मृत्यु हम सबको देवदूत बना देती है और वहाँ हमारे पंख होगा देती है । जहाँ कभी कंधे थे कार्य कौवे के पंजों की तरह । चिकने आपने स्मारक पर जमा दर्शनार्थियों की भीड के लिए इंदिरा गांधी महारानी के समान है । उस की तस्वीर के सामने से उनके अबूझ रात सी पन से चमत्कृत होते हुए सर झुकाए गुजरते हैं । वो उनके जीवन की उन सादा तस्वीरों को श्रद्धाभाव से देखते निहान होते हैं । इन को ऐसी स्टोरीज लगती है जिसने छोकरे बन यानी टॉमबॉय और देवरानी दोनों के किरदार निभाए । इससे साडी पहनने के बावजूद कांटेदार बाड के नीचे से छत पर झुककर निकल जाने में पूरे नहीं था । इसका सर भले ही साडी के पल्लू से ढका रहता था मगर दृष्टि में विद्रोही तेवर लगते थे । ऐसी और सबके सामने रहकर भी रहस्यमय थी । कहा जाता है कि उन्होंने गलतियां जरूर की मगर उनकी अपनी जान कुर्बान कर के उसकी भरपाई भी तो की । उन्होंने पाप जरूर किया मगर उनकी निगाह में फरिश्ते का दर्जा पा चुकी थी । उन्होंने चुकी की और स्थापित परंपराओं से खिलवाड किया । मगर बावजूद इसके संदेश यही गया वो जनता की परवाह कर दी थी । उनके उतार चढाव बडी जिंदगी को लोगों ने विजय और विनाशा की गाथा के रूप में ही परिभाषित किया । वो जब तक जीवित रही, राजनीति की धुरी बनी रहे हैं और उन के तौर तरीको को भला माना जाए या फिर बुरा । भारत के सार्वजनिक जीवन का आईना भी वही रही । उनके स्मारक के दर्शनार्थियों की नजरों में इंदिरा गांधी की खामियां उन्हें और भी अधिक महान बनाती हैं । चर्म सत्ता अपने पास होने के बावजूद जनता में उनकी नरमदिल शासक की छवि जीवित रही । इतना शाह नेता थी तो किसी ना किसी तरह अपने विरोधियों से असुरक्षित थी । लडती, आवाज और दुबली पतली काया के बावजूद युद्ध थी । अपने सर को साडी के पल्लू से ढाकने के बावजूद डटकर लोहा लेती थी । विरोधाभासों का पुलिंदा मगर जनता की भीड को एक झटके में मुझको लेने वाली अपने निजी दुखों को ताक पर रखकर भारत की तरक्की में जुट जाने की उनकी प्रवर्ति उन्हें याद करने वालों के दिलों में उनकी छाप को अमित बनाती हैं । नेहरू की बेटी बेहद नफीस कुलीन खानदान से थी । गरीबों में घुलने मिलने वाली एक राजकुमारी । किसी कुलीन के जनता का मसीहा बन जाने किए छवि ही उनके रहस्यमय व्यक्तित्व का मर्म ये नहीं इन साथ थी । इनकी खून से लथपथ सैनिक की तरह रण क्षेत्र में मृत्यु हुई । उनका शरीर गोलियों से छलनी और सुरुचिपूर्ण साडी रक्तरंजित थी । इंदिरा गांधी ने भारतीय नागरिक के मन में भारतीय राज्य के प्रति प्यार को समाप्त कर दिया । साल उन्नीस सौ पचास के दशक हैं, नए राष्ट्र, राज्य और उसके नागरिकों के बीच पंडित क्या और अपनेपन के रिश्ते को तो नेहरू काल कि फिल्मों में भरपूर दिखा । नए बने बांध, बिजलीघर और सडके उनके पात्रों के प्यार । मोहम्मद के हजार और सुबह अंत भी पष्ठभूमि में दिखाई जाती थी । इंदिरा नहीं गांठकर एक झटके में खत्म कर दिया । भारत राष्ट्र राज्य नेहरू काल में लोगों के भीतर अपना पन जग आता था, मगर इंदिरा काल में उसके प्रति घना पैदा हो गयी । सब से भी महत्वपूर्ण और उनके जीवन का घोषित लक्ष्य उनके लिए धर्मनिरपेक्ष भारत था और धर्मनिरपेक्ष भारत ही उनके जीवन की सबसे बडी नाकामी रही । उनकी नाकामियां जो भी हो मगर उनकी मौत नहीं, एक किवदंती को जन्म दिया । बलिदान की बदौलत नेता के सारे पाप धुल गए और उन का अंत ही उन्हें अमर कर गया । जनता की निगाहों में इंदिरा गांधी ने ऐसा अंदर तो प्राप्त कर लिया । ऐसा सामान्य रूप से ढलते राजनीतिक अस्तित्व और उम्र के बोझ से अपने हाथों से छूटते सत्ता के तार संभालने के प्रयास में होती विफलता उन्हें कभी हासिल न करने देता । ग्रीको आतुर देश के स्वतंत्रता आन्दोलन की आज के बीच में पैदा हो कर ये अपने ही लडते हुए देश पर आपकी लपटो किस तरह छा गई?

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इंदिरा गांधी को बड़े प्यार से लोग दुर्गा के रूप में याद करते हैं, जिन्होंने भारत को सदियों में पहली बार निर्णायक जीत हासिल कराई और धौंस दिखाने वाली अमेरिकी सत्ता के आगे साहस के साथ अड़ी रहीं। वहीं, उन्हें एक खौफनाक तानाशाह के रूप में भी याद किया जाता है, जिन्होंने आपातकाल थोपा और अपनी पार्टी से लेकर अदालतों तक, संस्थानों को कमजोर किया। कई उन्हें आज के लोकतंत्र में मौजूद समस्याओं का स्रोत भी मानते हैं। उन्हें किसी भी विचार से देखें, नेताओं के लिए वे एक मजबूत राजनेता की परिभाषा के रूप में सामने आती हैं। अपनी इस संवेदनशील जीवनी में पत्रकार सागरिका घोष ने न सिर्फ एक लौह महिला और एक राजनेता की जिंदगी को सामने रखा है, बल्कि वे उन्हें एक जीती-जागती इंसान के रूप में भी पेश करती हैं। इंदिरा गांधी के बारे में पढ़ने के लिए यह अकेली किताब काफी है। writer: सागरिका घोष Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Sagarika Ghose
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