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आदि शंकराचार्य - 2 in  |  Audio book and podcasts

आदि शंकराचार्य - 2

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विद्वानों के बीचो-बीच भगवा वस्त्रों में एक दंडीधारी युवा संन्यासी आसन लगाए हुए थे. और उनके ठीक सामने महिला बैठी हुई थीं. इस महिला ने अभी-अभी अपने पति को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले इस युवा संन्यासी को शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी| writer: ABP News Author : ABP News Voiceover Artist : Shreekant Sinha
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बालक शंकर का गुरु गोविन्द बाद से ये पहला साक्षात्का ये बताने के लिए काफी था की संकर अब अत्यत अध्यात्मक की वहाँ पर थे । इस साक्षात्कार की व्याख्या करते हुए श्री लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय संस्कृत डालय राष्ट्रीय संस्कृत विद्यापीठ के अद्वैत वेदांत विभाग के डॉक्टर सतीश के एस कहते हैं कि बालक शंकर ने श्री कोविंद बात को अपना जो परिचय दिया वो कोई साधारण परिचय नहीं था । परिचय देते हुए उन्होंने एक तरीका अपनाया । उन्होंने कहा कि आम तौर पर लोग मेरे बारे में जो कुछ भी समझते हैं वो मैं नहीं जैसे मैं पूरा हूँ तो ऐसा नहीं की ये स्वरूप मेरा परिचय है । ये को हरा रंग तो मेरा शरीर है वो मैं नहीं हूं । लोग मेरे नाम को मेरा परिचय समझते हैं लेकिन हूँ नाम तो मेरे शरीर का रखा गया है इसलिए वो भी मैं नहीं हूँ तो फिर मैं नाम से अपना परिचय कैसे करूं । मैं तो शरीर से भिन्न हूँ । मैं इंटरव्यू से भिन्न हूँ, अंतर कारण से हूँ । जो कुछ भी मेरे बारे में आपको दिख रहा है या मेरा व्यवहार जिस रूप में हो रहा है मैं उन सबसे भिन्न हूँ । संस्कृत अध्ययन केंद्र जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के डॉक्टर रामनाथ अच्छा का कहना है श्री गोविन्द पास्को बालक शंकर का दिया ये परिचय ही बालक के अद्विती होने का प्रमाण बन गया था । वो कहते हैं बालक ने कहा सादा ऍम मैं चाहती हूँ नवे धर्म हूँ ना मैं महाभूत हूँ, ना मैं चल हूँ न मैं वायु, लम्बाई, आकाश मैं श्रद्धा, चैतन्य, मूलतत्व सारे संसार का जो मूल स्वरूप है जो सृष्टि के कण कण का मूल स्वरूप है । वहीं एक सत्ता है जो बहुत बालक शंकर द्वारा दिए अद्वैतवाद कई गूढ अर्थ से भरे इस उत्तर को समझने के बाद श्री गोविंदा बाद नहीं उनको कल से लगा लेगा । ये कोरू की ओर से शंकर को अपना शिष्य बनाने की स्वीट करे थे थी । उन्होंने गुरु के चरण हुए और दोनों साथ साथ आश्रम की तरफ पढे । शंकर नौ साल के थे जब वो श्री कोविंद अपात से मिले । श्रीगोविंद पादने शंकर को संन्यास की दीक्षा आती है और अपना शिष्य बनाया । तरह तरह की परीक्षा के बाद श्री कोविंद आबाद में ही शंकर को शंकर आज चाहते या शंकराचार्य का नाम दिया जिसे हम हिन्दू धर्म कहते हैं उसके सबसे बडे महत्वपूर्ण धर्मगुरु हूँ । शंकराचार्य की परंपरा के शुरुआत यहीं से हुई । कहते हैं कि गोविंदा बाद के कहने पर संज्ञान से शंकर ने महाभारत में लिखें विष्णुसहस्त्रनाम पर श्लोंकों की रचना की जिससे लोग परमात्मा के एक हजार रुपये को समझ सके । शंकराचार्य द्वारा रक्षित विष्णुसहस्त्रनाम की कुछ आज भी सुनाई देती है । श्रीगोविंद बात नहीं । शंकराचार्य कहूँ चार महाकाव्यों से ड्रम तत्व का उपदेश दिया था । चार । वेदों के उपनिषदों से लिए गए चार महाकाव्यों में ब्रह्म का ध्यान था की चार महाकाव्य थे तत्व मसीह वह पूर्ण प्राम्भ तुम्हें प्रज्ञानं प्राम्भ प्रत्यारोप उपाय ही वाला आत्मा प्राम्भ है हम हम हासमी मैं ब्रह्म हूँ आया महात्मा प्रमुख था की सरकार लूँ ये सर वानू आवश्यक था आप परोक्ष आत्मा प्राम्भ है । अब प्रश्न उठता है कि ये ब्रह्म और ब्रह्म माथुर क्या है? गोविंदपाली इन चार महाकाव्यों से क्या समझाना चाहते थे ब्रह्मा तथा ब्रम्बी तत्व की व्याख्या करते हुए इंडियन काउंसिल फॉर फिलॉसिफी कल रिसर्च के एस आर घट कहते हैं कि प्राम्भ एक चरम सत्ता का नाम है । यही अंतिम सत्ता है । इसी से हम और सारा जी एवं चैतन्य जगत उत्पन्न होता है । ब्रह्म कोई देवी देवता या भगवान नहीं है । इस तरह ब्रह्मण शिक्षा पाने वाले शंकर चार वर्षों तक गुरु गोविंद बात की सेवा में रहे । इस दौरान रोशन कर से आचार्य शंकर बन गए । उन्हें आश्रम के शिष्यों को बढाने की जिम्मेदारी दी गई । उन्होंने शास्त्रार्थ में बडे बडे विद्वानों को पराजित किया । उनकी प्रतिभा की चर्चा धूम धूम तक होने लगी थी वे उस वक्त वे केबल बारह साल के थे । यहाँ से आचार्य शंकर की एक नई यात्रा शुरू होने वाली थी । वो गंगा नदी के तट पर बसे ही भारत के सबसे प्राचीन तीस था । अस्थान वाराणसी यानी काशी के लिए चलती है और कई दिनों की यात्रा के बाद काशी पहुंचे । काशी में कई लोगों ने आचार्य शंकर की प्रेरणा सही विधि, पद सन्यास ग्रहण किया और उनकी सेवा करने लगे । एक किशोर आचार्य के चरणों में वृद्ध और ज्ञानी लोगों को बैठे देख लोग चकित हो जाते हैं । काशी में आचार्य शंकर ने कई शास्त्रार्थ हो में हिस्सा लिया और अपने ज्ञान से कई विद्वानों को निरुत्तर कर दिया । लेकिन स्वयं उनके ज्ञान की परीक्षा होनी अभी बाकी थी । एक दिन आचार्य शंकर शिष्यों के साथ अस्तान के लिए जा रहे थे । राष्ट्रीय में एक स्टोरी कोर्ट में पति का शव ये विलाप कर रही थी । आचार्य शंकर कुछ थे उसके रास्ते से हटने की प्रतीक्षा की । फिर कहा माता शवको एक और हटा लें ताकि हम निकल जाए । शोक में डूबे स्त्री आचार्य शंकर की बात को अनसुना कर दिया । आचार्य शंकर ने दोबारा अनुरोध किया स्ट्रीट दे गुस्से से आचार्य शंकर से कहा बहात मांग आप शवको ही हटने के लिए क्यों नहीं कहते थे आधार? शंकर ने कहा था, आप शोक में ये कैसे भूल चुकी हैं कि शव में शक्ति नहीं होती । शब्द स्वयं कहीं नहीं भर सकता । स्वयं शव स्वाइन कहीं हट सकता है । क्या यह प्राणविहीन है? इसमें हटने की शक्ति कहा है । फिर उस हिस्ट्री दी । जो सवाल किया उसमें आचार्य शंकर को सोचने पर मजबूर कर दिया । स्त्री ने पूछा क्यों आप तो कहते हैं की शक्ति निरपेक्ष ही इस जगत का करता है । फिर शक्ति के बिना ये शव क्यों नहीं हट सकता? ही? उत्तर सुनकर आचार्य शंकर सोच में डूब गए और जब उनका ध्यान टूटा तो सामने उन्हें ना तो स्त्री देखी और ना ही शब्द । लेकिन आचार्य शंकर को बडा अनुभव मिल चुका था । आचार्य शंकर ने अनुभव किया, जीव और प्राम्भ एक ही हैं । ठीक उसी तरह जैसे कौनसी उसकी मिठास अलग नहीं है । इसी तरह एक दिन आचार्य शंकर अपने कुछ शिष्यों के साथ गंगा की ओर जा रहे थे कि बीच रास्ते में ही उन के सामने एक चांडाल आ गया । शव चलाने वाले उस जान डाल के साथ चार कुत्ते भी थी । अचानक रास्ता रोके जाने पर आज चाहते हैं । अपने शिष्यों समेत रुक गए । उनके एक शिष्य नहीं । चांडाल को रास्ते से हटने के लिए कहा । हटो दूर हटो आचार्य को जाने दो, लेकिन चांडाल दस से बस नहीं हुआ । उलटे जोर जोर से हस्तक बोला हूँ मैं रास्ते से नहीं हटूंगा । पहले आचार्य शंकर मेरे प्रश्न का उत्तर दें । प्रश्न ऐसा प्रश्न आचार्य शंकर ने कहा । ये सुनकर चांडाल जोर से हस्कर बोला हूँ महात्मन आपने कहा दूर हटो आप किस से दूर हटाना चाहते हैं मेरे शरीर से या मेरे शरीर में विद्यमान आत्मा से? और जब हर शरीर में एक ही आत्मा विराजमान है तो आप और मुझ में कैसा भेज? बता और गंगा जल पर पडने वाली सूर्य की किरणों में कोई अंतर हो सकता है क्या? आप तो अब टाॅक यानी है जो ये मानते हैं कि हर जल और चेतक बे एक ही नंबर है । तो फिर आप ये कैसे कह सकते हैं कि मैं ड्राम बनूँ? हाँ तुम चार डाल हो । आपने मुझसे क्यों कहा कि दूर हटो एक अछूत समझे जाने वाले व्यक्ति ने ये सवाल आदिशंकराचार्य से किए । उसके सवालों का साथ यही था की जाती धर्म छोटे बडे में भेज कैसे हो सकता है जबकि सब में एक ही ईश्वर का अंश मौजूद है । दरअसल ये आदि शंकराचार्य की परीक्षा थी । कहाँ जाता है कि चांडाल के रूप में स्वयं भगवान शिव ये प्रश्न पूछ रहे थे । आचार्य शंकर ने बडे ध्यान से चांडाल के इन प्रश्नों को सुना । उन्हें महसूस हुआ मानु उन्होंने चांडाल की बातों का अर्थ समझ लिया है और वे भावुक होकर चांडाल से कहने जा के प्राणियों में श्रेष्ठ । अभी आपने जो कहा वो बिल्कुल सत्य है । आप आत्मज्ञानी है, मैं आपका दास हूँ । शरीर और बुद्धि से मैं आप का ही अंश हूँ । मैं आपसे बिल्कुल भी अलग नहीं हूँ । यही मेरा ज्ञान है । चांडाल रुपये शिव से हुए इस प्रश्नोत्तर से आचार्य शंकर नहीं जैसे कि अनुभव किया कि जीव और परम सत्ता एक रही है । ठीक उसी तरह जैसे वो सही उसकी मिठास अलग नहीं है । आदि शंकराचार्य को हुए इस परम ज्ञान के बारे डॉक्टर रामनाथ झा का कहना है कि शंकराचार्य ने जो महसूस किया वहीं शांति का साथ है क्योंकि सारा संसार हर पशुपक्षी प्राणी, जीव जंतु, याची से हम चालक कहते हैं । वेदांत में उसे भी चाय तन्ने माना गया है । इसीलिए शंकराचार्य ने कहा है कि सब आकार में अलग अलग हैं लेकिन उनके मूल एक ही सकता है । यदि इस मूल सत्ता को ध्यान में रखें तो हमारे अंदर कोई ताकत वेश नहीं होता है । लेकिन अगर हम यही समझाते रहे कि कोई काला है, कोरा है या सांचला है, कोई किस धर्म का है, किस जाति का है तो फिर हमारे मन में इन्हीं आधारों पर कई तरह की समस्याएं शुरू हो जाती हैं । कहाँ जाता है कि काशी में चांडाल के रूप में मिले भगवान शिव की फिर से आचार्य शंकर ने व्यास, सुरक्षित ब्रह्मसूत्र, श्रीमद् भागवत, गीता और उपनिषद को समझने के लिए भाष्य या किताब लिखने का निर्णय लिया ताकि उनके गहरे अर्थों को सरल बनाया जाए और आम चल भी उन्हें आसानी से समझ सके । ये तीनों तुरंत प्रस्थानत्रयी पहनाते हैं । शंकराचार्य धर्म के लिए धरोहर के रूप में कई ग्रंथों की रचना करना चाहते थे किन्तु काशी में रहते हुए ये संभव नहीं था जहाँ पे शिष्यों से खेलते रहते थे । इसके लिए उन्हें एकांत की जरूरत महसूस होने लगी और तब उन्होंने काशी छोडकर बद्रीदास जाने का फैसला किया । वो अपने कुछ शिष्यों के साथ कई तीनों तक यात्रा करते हुए तो कम पहाड नदी नालों को पार करते हुए अलग नंदा के किनारे पत्रित आ पहुंचे । कहाँ चाहता है की पत्री दात में आचार्य शंकर ने अलग नंदा नदी से ही भगवान बदरी दार कीबोर्ड से निकाल कर उसे मंदिर में स्थापित किया था । इसके बाद वो पत्र आपकी ही व्यास को भावें रहने लगे । आचार्य शंकर ने व्यास गुफा में रहकर चार वर्षों तक ब्रह्मभट् सत्र, श्रीमद्भागवत गीता और उपनिषद पर ग्रंथों की रचना की । उन्होंने भगवान कनेश, गंगा, शिव देवी भगवती जैसे टीवी देवताओं की भावपूर्ण प्रार्थनाओं की रचना की । उन्होंने वेदांत संबंधी कई छोटे छोटे आसान ग्रंथ लिखे । जो प्रकरण ग्रंथ कहे जाते हैं । इन्हीं में भर जाग गोविंदम भी है । बच्चों को विंडो को आज भी पूरी श्रद्धा और आस्था के साथ गाया जाता है । इसकी शुरूआती बंदिया हैं बच्चों को विन दम बच्चों गोविंदम गोविंदम भाज पूर्णमति संप्राप्ति सन्नी हिते काले नही नही रक्षति दुख कर नहीं । संस्कृति के साथ को समझाते हुए प्रोफेसर वहाँ की रात ननद कहते हैं कि जिस तरह किसी मधुमक्खी के छत्ते को तोडने पर उस पर केवल क्लास ही रस मिलता है ठीक उसी प्रकार जिसमें दस ही दस यानी आनंद ही आनंद है । उसी कोविंद का भजन करो । वही संसार से पार कराने के लिए समर्थन है और कोई नहीं । आज हमें आभास होता है कि संसार को शायद के ही सार समझाने के आचार्य शंकर आठ साल की उम्र में संन्यास लेकर घर से निकले थे । स्वाथोर्ं, दक्षिण केरल से काशी और फिर काशी से पत्री दान तक की यात्रा में उन्होंने करो से शिक्षा ली । कई विद्वानों को अपने ज्ञान से चकित क्या ढांचे सहित कई ग्रंथों की रचना की । उन्हें जगह जगह प्रशंसा और प्रतिशत ही मिली है । आचार्य शंकर अनेक शास्त्रार्थ में शामिल हुए । शास्त्रार्थ के दौरान शास्त्रों के ज्ञान पर दो विद्वानों के बीच बहस हुआ करती थी । इस बहस के अपने नियम कायदे हुआ करते थे और ये किसी एक की थी या हाथ से ही खत्म होती थी । जाहिर है के इसमें शामिल होने वाले विद्वानों के लिए ये प्रतिष्ठा की बात होती थी । कई शास्त्रार्थ हो में विषय प्राप्त करने के बाद आचार्य शंकर अब एक ऐसे अद्भुत शास्त्रार्थ में शामिल होने वाले थे जो शास्त्रों के ज्ञान से भी आगे था । ऐसा शास्त्रार्थ ना पहले कभी हुआ था और ना उसकी कोई दूसरी मिसाल मिलती है । यह ऐतिहासिक शास्त्रार्थ आचार्य शंकर और मंडन मिश्र के बीच हुआ था । शास्त्रार्थ के लिए आचार्य शंकर मंडल मिश्र के निवास महिष्मती नगरी पहुंचे । ये चका आज बिहार के साथ साथ जिले का महेशी कस्बा है । छात्र साठ में शंकराचार्य का सामना करने वाली मंडन मिश्र कितने बडे विद्वान थे इसका अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि उनके घर का पालतू तोता भी लोग पास्ता था । मंडन मिश्र की पत्नी उप है । भर्ती भी पूरे क्षेत्र में अपनी मित्रता के लिए प्रसिद्ध थी । आचार्य शंकर जब मंडन मिश्र के घर पहुंचे तो वह श्राद्धकर्म में व्यस्त थी । आचार्य शंकर को देखकर मंडल मिश्र क्रोधित हो गए क्योंकि श्राप के समय सन्यासी का आगमन वर्ष था । उस समय आचार्य और मंडन मिश्र के बीच लंबी बहस हुई । बात में मंडल मिश्र शास्त्रार्थ के लिए तैयार हुई । डॉक्टर रामनाथ झा बताते हैं कि मंडल मिश्र ने जब पहली बार शंकराचार्य को देखा तो वही बोले कुदुदंड यानी ये दंडी साधुओ कौन है और ये कहाँ से आ गए । बंडल मिस्टर गृहस् करते और कर्मकांड की बात करते थे जबकि शंकराचार्य सन्यासी थे और ज्ञान कांड की बात करते थे । इसलिए दोनों के बीच हुए शास्त्रार्थ का मुख्य बिंदु भी यही रहा । समय निर्धारित होने के बाद मंडन मिश्र के घर ही विशाल सभा मंडप पे शास्त्रार्थ का आयोजन किया गया । शास्त्रार्थ के लिए आचार्य शंकर और मंडन मिश्र आसन पर आमने सामने बैठे । उनके चारों तरफ कई ऋषि विद्वान लोग बैठे थे । ये तय हुआ कि शास्त्रार्थ के मध्यस्थता मंडन मिश्र की पत्नी उभय भर्ती करेंगे शास्त्रार्थ आरंभ करने की आप क्या देते हुए उभर भारती ने कहा सर्वप्रथम आप दोनों अपना अपना पक्ष प्रस्तुत करें । इस पर मंडन मिश्र उभय भारतीय की ओर देखकर बोली देवी आचार्य विचार प्रार्थी होकर हमारे यहाँ आए हैं । इस कारण वे ही पहले अपना मत प्रस्तुत करें । मंडन मिश्र का ये पक्ष सुनकर आचार्य शन करते हामी भरी अवश्य । इसके बाद अपना पक्ष रखते हुए वो बोले जब उपनिषदों के महाकाव्यों से जीव और ब्रह्म की एकता का भूत होता है तब ज्ञान और संसार के सारे प्रपंच समाप्त हो जाते हैं । उस समय जीव सब आनंद में स्थित हो जाता है । वो जीवन मरण के चक्र से बुक हो जाता है । अपने शब्द इसके प्रमाण हैं और यही मेरा सिद्धांत है । यही मेरा विषय है । शंकराचार्य का पक्ष सुनकर कुछ दर्शक करन बोल उठे साठ हो साथ हूँ एक अल्पविराम के बाद शंकराचार्य आगे बोले, इस शास्त्रार्थ में अगर मैं पराजित हुआ तो मैं इस का शायद वस्त्र और सन्यास का त्याग कर दूंगा । सभा में मौजूद हर व्यक्ति शंकराचार्य की इस चुनौती से आश्चर्यचकित हो गया । अब मंडल विश्व की बारी थी तो शंकराचार्य को प्रणाम करते हुए बोले मैं वेद के बाद आए उपनिषदों को प्रमाण नहीं मानता । वेद के कर्मकांडों को ही प्रमाण मानता हूँ । दुखों से मुक्ति कर्महे काम से होती है, शब्द से नहीं । शब्द की शक्ति तो कर्म को प्रकट करने तक ही सीमित है । इसलिए मनुष्य को पूरी आयु कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए । यही मेरी प्रतिज्ञा है । सभा मंडप में सभी लोग बोल उठे साहब हूँ सात हूँ थोडा रुककर । मंडन मिश्र ने आगे कहा अगर मैं एस शास्त्रार्थ में पराजित हुआ तो गृहस्थ धर्म छोडकर संन्यासी बन जाऊंगा ।

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