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अध्याय आठ ईश्वर का स्वरूप जब हमें घर का निर्माण करते हैं तो हम पहले घर का एक नक्शा बनाते हैं फिर उस नक्शे के अनुरूप ही घर का निर्माण करते हैं जिसमें घर के सभी सदस्य सुविधा अनुसार रह सके । घर में पानी की व्यवस्था, खाना बनाने के लिए रसोई घर तथा रोशनी के लिए इलेक्ट्रिसिटी तथा और भी अनेक व्यवस्थाओं को मकान में रखते हैं ताकि हमें वहाँ रहने में कोई परेशानी ना हो । ठीक उसी प्रकार अगर हम प्रकृति की ओर देखे तो प्रकृति में भी अनेक व्यवस्थाएं की गई है जिससे कि परमात्मा इस जड प्रकृति में जीवन के रूप में व्यक्त हो सके । पानी हमेशा तरह ही रहता है । अग्रि हमेशा गर्मी है, सूर्य की ऊर्जा का शहर नहीं है । इन सब का नियमन कैसे होता है? कभी शायद हमने ये सोचा ही नहीं । हमारी पृथ्वी तेईस डिग्री झुकी हुई है । ये अपनी धूरी पर भी होती है और सूर्य के चारों ओर भी होती है । हमारा एक सौरमंडल है । ये जो गुरुत्वाकर्षण जिसके कारण हम पृथ्वी में बचे हुए हैं तथा विभिन्न इरशत र, विभिन्न आकाशगंगाएं तथा ये ब्रह्माण जोकि अनंत है इसका नियमन कैसे होता? क्या बिना संचालय की ये संभव है? छोटी सी संस्था नहीं चल सकती है । एक घर अपने आप नहीं बन सकता है तो फिर ये अनंत ब्रह्मांड किस के निर्देशानुसार चल रहा है । ऋतुएँ बदल रही है । हम ऑक्सीजन लेते हैं तथा बहुत ही ऑक्सीजन छोडते हैं । ये परस्पर भाव क्या स्वता ही है । ऐसे हजारों प्रश्नों के बारे में हम कभी चिंता नहीं नहीं करते हैं । करते हैं तो बस चिंता जैसे अरे आज के लिए क्लाइमेट चेंज की वजह से गर्मी बढ गई है । पता नहीं दुनिया का क्या होने वाला है । लेकिन हम लोग ये नहीं जानते हैं कि दुनिया का कुछ नहीं होगा । जो होगा वो आपका होगा और हमारा होगा क्योंकि प्रकृति और परमात्मा तो आना आदि और अंत है । भगवान भगवत गीता में कहते हैं प्रकृति पुरुष अम् चाहे विदर्भ दिन आदि उभाव पी विक, रामशब्द गुड, ऍफ विद्धि प्रकृति, संभवानाएं प्रकृति और पुरुष दोनों बना दी है । जिस प्रकार अग्नि में दायिका शक्ति तभी से है जबसे अग्नि है इसलिए परमात्मा ना दी है तो प्रकृति भी बना दी है । सांख्य दर्शन में परमात्मा चेतना सत्ता को पुरुष शब्द से लगाया जाता है तथा विदाउट में उसी परमात्मा को ब्रह्मा कहा जाता है तथा प्रकृति को माया कहा जाता है । योग तथा सांख्य दर्शन जड चेतन विवेक करता है । परमात्मा तथा प्रकृति को अलग अलग बताने के लिए जब की वेदान्त, मिमांसा तथा वैशेषिक दर्शन में सत् असत्, विवेक किया जाता है, सब परमात्मा है तथा असद माया है । भगवत गीता में भगवान कहते हैं भूमि राफोल अलोम वायु हक हम मनो धीरे अहंकार ईटीएम भिन्ना प्रकृति रिश्ता था अप्रिय मी जस्ट दुनियाँ प्रकृति विद्धि में पर आराम जीव भूता महाबाहो ये दम धारयति जगह मेरी दो प्रकृतियाँ हैं । एक है पर आ प्रकृति और दूसरी है अपरा प्रकृति, पंचमहाभूत, मान्य बुद्धि और अहंकार । ये मेरी अपरा प्रकृति है । इसको अश्रद्धा प्रकृति भी कहा गया है तथा जो चेतन सत्ताईस अश्रद्धा प्रकृति को धारण करती है वो मेरा पर आ प्रकृति है । दोनों ही प्रकृतियों को भगवान ने अपनी कहा है । फिर कहते हैं नया अध्यक्ष प्रकृति ही सोते सचार चरम ऍम कौन तेज जगह विपरी वर्त थी मेरी अध्यक्षता में प्रकृति सभी चर अचर प्राणी मात्र की रचना करती है और फिर मैं सृष्टी में प्रवेश करता हूँ । जिस प्रकार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाशीय, पंच, महाभूत प्राणियों के छोटी बडी, अच्छे बुरे सभी शरीरों में प्रविष्ट होते हुए भी वास्तव में प्रविष्ट नहीं है अर्थात वे ही है उसी तरह मैं वन प्राणियों में प्रविष्ट होते हुए भी वास्तव में उनमें प्रविष्ट नहीं अर्थात मैं ही मैं हूँ । थोडा इसको समझने का प्रयास करते हैं । ये भगवान का प्रवेश जगत में ऐसा ही है जैसा दर्पण में हमारा प्रवेश । ये प्रवेश बिना प्रवेश के प्रवेश है । जब हम दर्पण के आगे खडे होते हैं तो हम दर्पणों को नहीं देखते । हम अपने को देखते हैं, दर्पण को देखने का प्रयास करते हैं तो मानो हम गायब हो जाते हैं । देर में हमारा प्रवेश बिना प्रवेश के प्रवेश है । ठीक उसी प्रकार पर महात्मा का जगत में प्रवेश बिना प्रवेश के प्रवेश है । इसको थोडा और समझना है तो ऐसे समझ लेते हैं । मान लिया हमने किसी मनुष्य को भागते हुए ध्यान से देखा और फिर हम से वो टकरा गया और हमने उसको देखा फिर वह चला गया । फिर थोडी देर बाद पुलिस वहाँ और वो हम से पूछती है कि क्या तुमने एक आदमी को यहाँ से भागते हुए देखा है? वो आदमी खून करके भागा है । हम कहेंगे हाँ देखा है पुलिस कहेगी हमारे पास उस आदमी कोई क्षेत्र नहीं है । आप उसका चित्र बनाने में मदद करो । एक्सॅन के द्वारा उसका फोटो बनवाओ तो हम कहेंगे हाँ, बिल्कुल क्यों नहीं? वहाँ आदमी मुझसे टकराया था और आप उसका फोटो बनवा देते हैं । ये कैसे हुआ? क्या हुआ? आदमी आपके अंदर प्रवेश कर गया था । ये प्रवेश भी बिना प्रवेश का ही था । तभी तो उसका फोटो आपके अंदर से ही निकला । अब परमात्मा जगत कि परा और अपरा प्रकृति में प्रवेश करके करता क्या है? परमात्मा दोनों प्रकृतियों का नियमन करता है । ईश्वरः सर्वभूतानां नाम विदेश एयर जॉइंट स्थिति, ब्राम्हण सर्वभूतानि यंत्र रोड हानि मा या हे अर्जुन मैं परमात्मा ईश्वर की उपाधि को धारण करके संपूर्ण प्राणियों के हृदय में रहता है और अपनी माया प्रकृति से शरीररूपी यंत्र पर अरुण हुए संपूर्ण प्राणियों को उनके स्वभाव के अनुसार भ्रमण कराता रहता हूँ । परमात्मा ब्रह्मा प्लस माया यानि कि ईश्वर जो की है । नियामक ईश्वर को समझाने के लिए पहले हमें माया को समझना होगा । वेदान्त में कहा जाता है ये तो वाच ओम निवर्तन्ते अप्राप्य मांॅ परमात्मा और उसकी माया के बारे में हम चाहे कितना भी कहले समझ ले, दोनों ही पकड में नहीं आ सकते । माया के लिए कहा जाता है नियति अन्नया इ टीम आया मेरी से अन्य जो भी है वह माया है अर्थात परमात्मा से अन्य जो भी है वह माया है । माया परमात्मा की अखंड शक्ति है जो पांच तरह के भेदों का निर्माण करते हैं । पहला जीव जगत में भेज, दूसरा जीवेश्वर में भेज । तीसरा जगदीश्वर में भेद, चौथा जगह जीव में भेद और पांचवां जीव जीव में भेज । इन्ही भेदों के कारण चतुर्दश भवन जगत का निर्माण होता है । माया को त्रिगुणात्मक कहा जाता है अर्थात माया में तीन शक्तियां विद्यमान है । पहला आवरण शक्ति आवरण शक्ति जगत में परमात्मा को छुपा के रखती है या ये कहे आवरण शक्ति के कारण प्रकृति में परमात्मा छुपा रहता है तो ढाई को धारण से समझ लेते हैं । जो विज्ञान साइंस जानते हैं वे डिस्कवरी खोज का अर्थ भी जानते होंगे । जैसे हम कहते हैं कि हमने मलेरिया के खिलाफ एक दवाई की खोज की है, डिस्कवरी की है । जब कोई नई खोज डिस्कवरी होती है तो क्या वह वस्तु बनाई जाती है या नहीं? एक बात बहुत ही स्पष्टता से समझ लेनी चाहिए कि इस जगत में नही सद्वस्तु का अभाव होता है और न ही असत वस्तु का ना तो विद्यते भावो ना भावो विद्यते सप्ताह उभरी ओरापी रिकॅार्ड नहीं तत्वदर्शी भी ही जो वस्तु है ही नहीं उसका निर्माण नहीं होता और जो है उसका नाश नहीं होता । केवल अवस्था में परिवर्तन तथा व्यक्त अव्यक्त ही होता है । जैसे बर्फ का पानी बन जाता है तथा फिर वो पानी से भाग बनता है तथा फिर भाप से पानी बन जाता है । उसी प्रकार जब हम कहते हैं नए डिस्कवरी, जिसके लिए नोबल प्राइज दिए जाते हैं, क्या वे वस्तुएं प्रकृति में नहीं थी? वे सभी वस्तुएं प्रकृति में विद्यमान थी और भविष्य में जितनी भी नहीं डिस्कवरी होगी, वे सभी प्रकृति में विद्यमान है । बस उन पर अभी आवरण कवर पडा हुआ है और जब ज्ञान के द्वारा ये आवरण हट जाता है तो इसी को डिस्कवर कहा जाता है । उसी तरह प्रगति में परमात्मा ही है, परंतु अपनी आवरण शक्ति के द्वारा ढका हुआ है । इसी को परमात्मा की आवरण शक्ति कहते हैं । दूसरा विक्षेप शक्ति माया की आवरण शक्ति के कारण विक्षेप शक्ति जन्म लेती है । जब माया के द्वारा परमात्मा ढक जाता है तो स्वरूप के स्थान पर स्वाभाव पैदा हो जाता है । एक उदाहरण से समझ लेते हैं । हमारा स्वरूप आनंद में हैं । हम सच्चिदानन्द स्वरूप है । ये स्वरूप जब आवरण शक्ति अज्ञान के कारण ढक गया तो हम प्रकृति को सत्य मान लेते हैं और बाहर प्रकृति की वस्तुओं में आनंद खोजते रहते हैं और ये आनंद के लिए एक के बाद एक तथा अनंत इच्छाएं हमारे मन में जन्म लेती है । ये चाय और कुछ नहीं बल्कि मन में केवल विक्षेप मात्र है । मान लो किसी को सुबह चाय पीने की आदत है और एक दिनों से उसी समय चाय नहीं मिली तो मन में विक्षेप पैदा होने लगती है । इन्हीं विक्षेप ओ के कारण हम दुख का अनुभव करते हैं और कुछ समय बाद जब चाहे मिल गई तो मान के विक्षेप शांत हो जाते हैं कि अच्छा आये मिलने के बाद भी हमारे मन में विक्षेप आते हैं । नहीं चाय मिल गई विक्षेप शांत किसी को हम सब कहते हैं हम विषय रूपी दुख की शांति को सब कहते हैं परन्तु आनंद इन सबसे परे हैं । सुख दुख प्रकृति में है, परमात्मा में है । हमें संसार में आनंद नहीं खोजते बल्कि हम उन वस्तुओं को खोजते हैं जो हमारे विक्षेप पोसे थोडे समय के लिए हमें निजात दिला सके जैसे कि पेन किलर लेकिन पेन किलर किसी रोग का पाॅइंट इलाज नहीं है और फिर इन वस्तुओं की प्राप्ति के लिए कर्म करते हैं और जिंदगी भर यही चलता रहता है । भगवान रमन्ना ऋषि का कहा हुआ एक किस्सा याद आता है वो बता रहे थे कि ये गांव का सीधा साधा आदमी थोडा पढा लिखा आराम से अपनी खेती करता है । फिर एक दिन तो कोई बता देता है कि भाई तुम तो पढे लिखे हो, अच्छा बोलते भी हो तुम गांव में प्रधान के लिए चुनाव क्यों नहीं लडते । बस वहीं से उसके मन में विक्षेप शुरू हो जाते हैं । फिर वह प्रधान बन जाता है फिर सोचता है प्रधान क्या होता है? ब्लॉक लेवल पर लगना चाहिए फिर वो ब्लॉक प्रमुख बनता है । फिर वो विधायक को देखकर सोचता है की अगर मैं विधायक बन जाऊँ मजा तो तभी है फिर विधायक और फिर दिन रात हर पल यही कि मैं सांसद कैसे बनाऊँ? चलो फिर सांसद भी बन जाता है फिर मंत्री बनना और फिर एक दिन मंत्री भी बन जाता है और फिर उसकी नजर घडी पर जाती है और वो उसे देखते ही रहता है और सोचता है मैंने तो पीएम प्राइम मिनिस्टर सेट किया था । ये एम आई एग्री मिनिस्टर कैसे हो गया और फिर से दुखी हो जाता है और पूरी जिंदगी इसी में खत्म हो जाती है । और यही है मन की विक्षेप शक्ति । तीसरा ज्ञानशक्ति परमात्मा की माया में ऐसा नहीं कि केवल आवरण और विक्षेप शक्ति ही है । इसमें ज्ञानशक्ति भी है । ज्ञानशक्ति वह है जिसके द्वारा हम परमात्मा पर पडे आवरण को ज्ञान के द्वारा हटाकर सभी विक्षेप ओं को शांत कर लेते हैं । एक उदाहरण से समझाते हैं, एक बार में रात के समय कहीं जा रहा था । उस वक्त में छोटा ही था कोई दस बारह साल का केवल चंद्रमा की रोशनी ही थी और कोई प्रकाश नहीं था । तभी मेरा पाव किसी वस्तु पर पढा दिखने में वह साहब जैसा लग रहा था । मुझे आभास हुआ कि मेरे पास से कोई वस्तु टकराई है । अंधेरे में वह साहब जैसा लग रहा था । मैं एक दम घबरा गया । मैंने सोचा साहब ने मुझे काट लिया है । मैं भागकर घर गया और मैंने अपने पिताजी को सारी बात बताई । घर में सभी लोग घबरा गए । पिताजी जल्दी से टॉर्च लेकर आए की देखते हैं साफ है भी या नहीं । यदि है तो वह कैसे दिखता है । सभी लोग जल्दी से मुझे लेकर साहब के पास गए और जैसे ही टॉर्च की लाइट उस पर पडी तो देखा कि वह एक रस्सी है । अब सभी लोग शांत हो गए और मैं भी खुश हो गया कि ये साफ नहीं रस्सी है । शायद ये किस्सा हम सभी लोगों के साथ कभी न कभी जरूर हुआ होगा । अब इसका थोडा विश्लेशण करते हैं मुझे प्रकाश के अभाव के कारण रसीद आप लगी प्रकाश के अभाव को हम ज्ञान की अपूर्णता मान लेते हैं जिसके कारण आवरण शक्ति का निर्माण हुआ और उस रस्सी पर साहब अध्यारोपित हो गया । यहाँ पर रस्सी स्थान है जिसपर साहब अध्यारोपित हुआ । जिस प्रकार पृथ्वी की गति सूर्य पर अध्यारोपित होने के बाद हमें सूर्य का उदय और अस्त दिखाई देता है । जबकि हम ये जानते हैं कि सूर्य का कभी उदय और अस्त नहीं होता । उसी प्रकार आवरण शक्ति के कारण रस्सी पर साफ अध्यारोपित हो गया और उसी के कारण विक्षेप शक्ति का निर्माण हुआ जिसके कारण सभी परेशान हो गए । फिर जब प्रकाश रुपये ज्ञान का प्रकाश साम पर पडा तो वह रस्सी निकला, ये ज्ञानरूपी प्रकाश ही ज्ञानशक्ति है । लेकिन अब सवाल यह उठता है कि वह साहब कहाँ से आया था? और फिर वह साहब कहाँ चला गया? साफ होगा तब आएगा जाएगा ना? साफ था ही नहीं वो तो एक प्रतीत मात्र थी और ये प्रतीत किसकी कारण थी । माया के गुणों के कारण माया हट गई प्रतिनिधि भी हट गई । भगवान चंद्राचार्य माया पाँच अकरम में बताते हैं कि माया इन तीन गुणों के कारण ही संभव चीजों को संभव कर देती है । माया की ये तीन गुण ही चार प्रभाव पैदा करती है । पहला माया की तीन गुण ही जीत को देख जैसे बांधते हैं । ये तीन गुण मानव दे हमें तमस, रजस और सत्वगुण के रूप में विद्यमान होते हैं तथा इन्हें गुणों के कारण ही जी पहले देर से बांधता है और फिर देह को संसार के संबंध संगम तथा कर्म में लगा देते हैं । इसका हम थोडा बाद में चिंतन करेंगे कि कैसे ये सब घटित होता है । दूसरा माया जगदीश जीव और जगत में भेद उत्पन्न करती है जिसके कारण ये तीन प्रतीत होते हैं जबकि ये तीनों एक ही है । जब मनुष्य देह के साथ तादात्म्य कर लेता है तो वह छोटे दायरे में फस जाता है । वो उस दिन तक सीमित रहता है और अज्ञान, कामना और कर्म में फस कर अपने स्वरूप को भूल जाता है । यही उसके दुःख का कारण बन जाता है । इश्वर को जगत का अंतर्यामी इंटरनल कंट्रोल ऑफ द वर्ल्ड भी कहा जाता है जो माया की उपाधि धारण करके जीवर जगत का नियमन करता है । तीसरा माया के कारण ही सच्चिदानंद परमात्मा जो की निर्गुण तथा निराकार है वो देख के साथ तादात्म्य करके सगुण साकार बन जाता है । फिर वो लगन साकार दे है । अपने स्वरूप को भूलकर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र आदि बनता है तथा वहीं देखा । फिर सांसारिक विषयों वस्तुओं में मोह को जन्म देता है । चौथा माया के कारण ही एक मेवा द्वितीय परमात्मा ब्रह्मा, रेव विष्णु तथा शिव बनकर सृष्टि की उत्पत्ति, पालन तथा विनाश का कार्य करते हैं । माया और परमात्मा को एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं । मान लेते हैं परमात्मा अग्नि तो माया इसकी शक्ति दादी का शक्ति है । अग्निस्वरूप परमात्मा तो दादी का शक्ति के बिना रह सकता है परंतु दाही का शक्ति बिना अग्नि के नहीं रह सकती है । अब ये ऐसे समझते हैं एक लडकी की मैं इसका उदाहरण लेते हैं । लडकी की मेज में अग्नि बिना अपनी दादी का शक्ति के विद्यमान है । क्या कोई ये कह सकता है कि लडकी की मेज में आग नहीं है, उसमें अग्नि केवल अग्नि के रूप में है । इसमें दायिका शक्ति प्रकट नहीं है । इसलिए अग्नि सभी रंग रूपों का आधार है । लेकिन जब ये अग्नि की दादी का शक्ति मेज में प्रकट हो जाती है तो मेज को जलाकर भस्म कर देती है । जब अग्निदाह ई का शक्ति के साथ है तो इसका रंग रूप नहीं है । अग्नि के साथ दायिका शक्ति के प्रकटीकरण को आप ईश्वर कह सकते हैं । परमाणु और प्रकृति माया को समझने के लिए एक उदाहरण और लेते हैं । आप सभी ने वह चित्र अवश्य देखा होगा जिसमें माँ काली भगवान शिव के ऊपर पांच रखे हुए हैं । उनके गले में बावन मुण्डों की माला है तथा माता की जीत निकली हुई है । अगर आपसे कोई पूछे कि ये किसका चित्र है तो आप कहेंगे माता कालीका चित्र हैं । ये तो नहीं कहते कि भगवान शिव का चित्र हैं । अब इसका थोडा चिंतन करते हैं । इस चित्र में दर्शाया गया है कि जब प्रकृति माया का प्रकटीकरण होता है या जब परमात्मा अपनी माया को प्रकट करते हैं तो परमात्मा माया के पीछे छिप जाते हैं । जिस प्रकार भगवान शिव के ऊपर माता है इसमें भगवान शांत है तथा माया के पीछे छिप गए हैं तथा माया ने परमात्मा को ढक दिया है । ये माया की आवरण शक्ति है । जब परमात्मा ढक जाते हैं तो प्रकृति माया में विक्षेप उत्पन्न होते हैं । यहाँ पर माता विक्षेप है जिसके कारण उनकी जवाब बाहर आ गई है । ये विक्षेप शक्ति है और माँ के गले में बावन मुण्डों की माला हिंदी के बावन अक्सर है जो ज्ञान को दर्शाते हैं । अगर आप लोगों ने हिंदी पडी होगी तो आप जानते होंगे कि हिंदी के बावन वर्णों को आठ श्रेणियों में बांटा गया है जिन्हें ऍम मूर्धन्य, डॅाक, काॅस्ट तथा संतोष कहा जाता है । यह विभाजन इन वर्णों के उच्चारण में प्रयोग होने वाले अंगों के आधार पर किया गया है । जैसे ऍफ बाभनगामा में पांच वर्णों को ओष्ठ कहा जाता है । इसमें उच्चारण के लिए केवल दोनों ही प्रयोग में लाए जाते हैं । हमारे सभी शास्त्र ही वर्णों के द्वारा ही प्रतिपादित है । इन्हीं बावन वर्णों के इस प्रकार के विभाजन को देवीपुराण में जीवीके आठ अलग अलग रूपों को दर्शाया गया है जिनकी हम नवरात्रों में आराधना करते हैं । तो ये है माया की ज्ञानशक्ति । अगर हम ज्ञानशक्ति के द्वारा परमात्मा की शरण में चले गए तो हम देखेंगे कि माया के द्वारा उत्पन्न आवरण और विक्षेप सभी शांत हो जाएंगे और हमें माया के पीछे जो परमात्मा माया की उपाधि के रूप द्वारा ईश्वर बना था उस सर्व चित्त आनंद स्वरूप परमात्मा ही दिखाई देगा । भगवान भगवत गीता में कहते हैं मनुष्य दे हमें प्रकृति द्वारा उत्पन्न गुणों को सत्यम ज्ञान, रजस विक्षेप तथा तमस आवरण कहा जाता है । इन्हें तीन गुणों के कारण दही परमात्मस्वरूप । हम इस देश को अपना स्वरूप मानकर एक स्वभाव का निर्माण करता है, जिससे यह अहम पत्नी की उपाधि को सत्य मानकर पति बन जाता है और इसी प्रकार जड मन अंतकरण के द्वारा इन गुणों से उत्पन्न स्वभाव से बंधता है । कोई कोई विवेकशील पुरुष देह को उत्पन्न करने वाले इन तीनों गुणों का अतिक्रमण करके जन्म मृत्यु और वृद्धावस्था रूपी दुखों से रहित हुआ अमरता का अनुभव करता है । ऐसे मनुष्यों को जीवन्मुक्त कहा जाता है । अब सवाल यह भी उठ सकता है कि इस जगत का निर्माण क्या मनुष्यों तथा अन्य प्राणियों को दुःख देने के लिए किया गया है? नहीं ऐसा बिल्कुल नहीं है । शास्त्रों में दो सृष्टि का जिक्र आता है । एक है ईश्वर । श्रृष्टि दूसरी है जिस श्रृष्टि अब इन दोनों का चिंतन करते हैं । चेतना की अभिव्यक्ति के आधार पर संपूर्ण जीव जगत को हम पांच स्तरों में बांट सकते हैं । पहला पेड पौधे इनमें केवल जीवन है तथा सभी क्रियाए प्रकृति के द्वारा संपन्न की जाती है । दूसरा कीडे मकौडे इनमें जीवन के साथ साथ भूख के लिए इंद्रिया भी दी गई है परंतु इन पर भी प्रकृति का ही नियंत्रण है । तीसरा जानवर पशु पश्चिमी । इतनी पशु इनमें जीवन है, भोग के लिए इंद्रिया है तथा ज्ञान भी है परंतु इनमें परमात्मा मान के रूप में अभिव्यक्ति नहीं है । इनमें काम, क्रोध, हिंसा, प्रेम भी है परन्तु फ्री मिल नहीं है । ये किसी वस्तु परिस्थिति का परसों हिंदू कर सकते हैं पर प्रोजेक्शन नहीं कर सकते । आनंद का अनुभव नहीं कर सकते, केवल भोक कर सकते हैं । चौथा मनुष्य मनुष्य का अर्थ है मन तथा सतरूपा की संतान मनु मान के सूचक है । इनमें मन तथा फ्री विल है तथा आनंद मनुष्य का इंट्रिन्सिक गढ है । जैसे अग्नि का दायिका शक्ति तथा पानी की तरलता । इनका इंट्रिन्सिक गढ है । मनीष ही केवल कर्म का निर्माण कर सकता है । पेड पौधे, कीडे, मकौडे तथा जानवर कर्म का निर्माण नहीं कर सकते हैं । कर्म विषय को थोडा बाद में चिंतन करेंगे । पांचवां देवता दो अपना आई थी । देवता जो प्रकाशक है वह देवता है । देवता भी पाप पुण्य कर्म का निर्माण नहीं कर सकती है । जिस प्रकार आंखे चाहिए, अच्छा देखे या बुरा दृष्टि को पाप पुण्य नहीं लगता उसी प्रकार देवता भी कर्म नहीं कर सकते हैं । इनमें भी फ्री बिल नहीं है । देवतागण केवल अर्जित किए हुए पुष्प का तो करते हैं और जब वह पुष्पक आ फल खत्म हो जाता है । फिर से देवगन पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में जन्म लेता है और अगर फिर पाप किए तो कीडे मकोडे जानवर और पुण्य किए तो फिर से देवता भगवद्गीता कहती है नाम माम कर्माणि लिम्पन्ति ना मैं कर्मफल एस प्रवाह, इत इमाम योगी जानाति कर्म भरना सब बध्यते । ये चक्कर यूपी चलता रहता है क्योंकि परमात्मा को माया प्रभावित नहीं करती है । माया की उपाधि को धारण करके परमात्मा ईश्वर के रूप में इन सब का नियमन करता है । ईश्वर सृष्टि में कहीं भी दुख नहीं है । कोई भी पाप पुण्य नहीं है । कर्मों के पाप पुण्य केवल मनुष्य तक ही है इसलिए ईश्वर सृष्टि में दुख नहीं है । आनंद ही आनंद है तो फिर दुखी कौन है? और ये दुख कहाँ से आता है? एक उदाहरण लेते हैं । एक अविवाहित लडका रोज भगवान का नाम लेता है, आनंद में रहता है और रोज शाम को मंदिर जाता है । फिर एक दिन व मंदिर में एक लडकी को देखता है । यहाँ ईश्वर श्रृष्टि है । अगर वह लडकी को देखकर वहीं रुक जाए और मान तक आंखों ने जो देखा वह ना पहुंचे तो वह ईश्वर सृष्टि की घटना है । ना इसमें सुख है न दुख । परन्तु अगर ये बात मंतर पहुंच गई तो फिर मन का काम शुरू हो जाता है और यहाँ से जीव सृष्टि शुरू हो जाती है । मन प्रोजेक्शन स्टार्ट करता है काश वो लडकी मेरी बीवी बन जाए । अभी वह मंदिर जाएगा लेकिन जहाँ पहले वह मंदिर आनंद को प्रकट करने के लिए ज्यादा था अब वह कामना पूर्ति के लिए मंदिर जाएगा और यहीं से जीव सृष्टि में दुख निर्माण होता है । हर एक मनुष्य की जीव सृष्टि अलग होती है लेकिन ईश्वर सृष्टि सभी के लिए सामान्य है । मेरी जीव सृष्टि में वे लोग वस्तुए, इच्छाएं तथा रिश्ते हैं जो किसी भी अन्य मनुष्य की सृष्टि में नहीं है । दो जीव सृष्टि एक समान नहीं हो सकती है । ईश्वर सृष्टि में स्त्री है । जीव सृष्टि में बेटी, बहन, माँ, पत्नी, सास है । ईश्वर सृष्टि में अग्नि, वायु जल है । जीव सृष्टि में इनको उपयोग करके बनाई गई उपयोगिता वाली वस्तुएं हैं जैसे रेलगाडी, हवाई जहाज आदि । ईश्वर सृष्टि में इच्छा घृणा, मध्य मार्च से अहंकार रात द्वेष है ही नहीं । ये सभी जीव कि सृष्टि में है और ये सब मन के विकार है । जिस प्रकार देख का विकार, बुखार होना बीमार पडना है उसी प्रकार जब मन बीमार होता है तो ये सब मान के विकास होते हैं । अगर मान स्वस्थ है तो हमे श्वर सृष्टी में है और वहाँ आनंद ही आनंद भगवत गीता में भगवान कहते हैं देवी एशिया गुड नही मम्मा याद रख दिया या मामेव ये प्रपद्यंते माया मेन काम तरन्ति ते अर्जुन ये जो मेरी माया है इस को पार करना बहुत कठिन है लेकिन असंभव नहीं है । अगर जो मेरी शरण में आ जाता है तो तुम उस माया से डर कर सकता है । भगवान की शरण में जा रहा मतलब सब जगह परमात्मा का ही दर्शन होगा । परमात्मा के अलावा कोई दूसरी सत्ता है ही नहीं । जब भी हमारा विश्वास अकादमी हो जाएगा तो हम अपने में जगत में तथा ईश्वर में भी परमात्मा का ही दर्शन करेंगे । ड्वाइट दूसरों का होना केवल मानसिक कल्पना है । द्वैध है ही नहीं । जब तक अवैध है तब तक ही संसार है । तब तक ही माया है । तब तक ही जिव है जब द्वैध की दुर्गंध मेड जाती है तो सब जगह अपनी ही स्वरूप का विस्तार नजर आता है । भगवान कहते हैं यू माम पश्चिम थी सर्व तार सर्वम् चलाई पश्यति तस्यां हम ना प्रणेश श्यामी सच में प्रणश्यति जो मुझे सब जगह और सभी में मुझे ही देखता है वो मेरे लिए नहीं उपलब्ध है तथा मैं उसके लिए नित्य उपलब्ध हूँ ।