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9.  Swami Vivekanand in  |  Audio book and podcasts

9. Swami Vivekanand

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स्वामी विवेकानंद की अमरगाथा.... Swami Vivekanand | स्वामी विवेकानन्द Producer : Kuku FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava
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चाहती हूँ । आध्यात्मिक अद्वैतवाद बनाम हो टिकट हुआ । मनुष्य प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए उत्पन्न हुआ है, उसका अनुसरण करने के लिए नहीं । हाँ, विवेकानन्द धर्म महासभा में हिन्दू धर्म पर बोलते हुए विवेकानंद कहते हैं, विज्ञानिक की खोज के सिवा और कुछ नहीं । जो भी कोई विज्ञान पुणे एकता तक पहुंच जाएगा, क्योंकि उसकी प्रगति रुक जाएगी, क्योंकि तब वो अपने लक्ष्य को प्राप्त करेगा । सुधारना रसायनशास्त्री यदि एक बार उस मूल तत्व का पता लगा लें, जिससे और सब द्रव्य बन सकते हैं, तो फिर वो और आगे नहीं बढ सकेगा । बहुत ही की जब उस एक मूल्य शक्ति का पता लगा लेगी । अन्य शक्तियां जिसकी अभिव्यक्ति है, तब वो वहीं रुक चाहिए । वैसे ही धर्मशास्त्र भी उस समय पूर्णता को प्राप्त कर लेगा, जब उसको खोज रहेगा, जो इस मृत्यु के लोग में एकमात्र परमात्मा अन्य सब आत्माएं, जिसकी प्रतीयमान अभिव्यक्तियां है । इस प्रकार अनेक कवर वैट में होते हुए इस पर मत वैध की प्राप्ति होती है । धर्म से आगे नहीं जा सकता । यही समस्त विज्ञानों का चरम लक्ष्य । अब देखना यह है कि धर्म का प्रारंभ कैसे हुआ और वह क्रमश विकास द्वारा आध्यात्मिक अद्वैतवाद की इस चरम सीमा तक कैसे पहुंच, क्या इसके बाद विचार के विकास पर विराम चलने लगा देना संभव है । मनुष्य मननशील प्राणी उसका मस्तिष्क कराने सभी प्राणियों की अपेक्षा अधिक उन्नत है और ये मस्तिष्क रही उसकी सबसे बडी शक्ति जबकि दूसरे प्राणियों ने आत्मरक्षा की सहज प्रवृत्ति से अपने आप को प्रकृति के अनुरूप डाला है । वहाँ मनुष्य प्रकृति से विद्रोह करके उसे अपने अनुरूप डाला है और निरंतर धारता चला जा रहा है । मनुष्य प्रकृति का दास नहीं जैसा उसने अपनी विचारशक्ति द्वारा आप पानी बिजली का प्रयोग कर के शस्त्र यंत्र का आविष्कार करके और प्रकृति के नियमों की खोज लगाकर अपनी इस विजय को संभव बनाया । प्रकृति को बदलने में वह स्वयं भी बताना अपनी संघर्षी मेवा पशु से मनुष्य हैवान से इंसान बना । मतलब ये कि उसके निर्माण में किसी देवी शक्ति का हाथ नहीं बल्कि अपनी संघर्ष के दौरान देव, दानव तथा ईश्वर, आदमी देवी शक्तियों का निर्माण स्वयं हो । सभी बी आर भौतिक परिस्थितियों से उत्पन्न हुए मनीष ने उन्हें व्यवहार की कसौटी पर परखा । उनके अनुसार तत्व को त्यागकर सारतत्व को भौतिक शक्ति में परिणत किया तथा सिद्धांतों का रूप दिया । यहाँ क्रमश जरा ज्ञान का साहित्य, कला, संस्कृति तथा धर्म का विकास हुआ । विवेकानंद आपने माया और ईश्वर धारणा क्रमविकास भाषण में कहते हैं, संसार के सभी धर्मों ने इस प्रश्न को उठाया है । संसार में यहाँ असामंजस्य क्यों है? संसार में ये अशुभ क्यों हैं? आदि । धर्म भाग के अवीर भाव के समय हम इस प्रश्न को छुट्टी नहीं देंगे । इसका कारण ये है कि आदि मनुष्य को जगत असामंजस्य पूरा नहीं लगा । उसके चारों ओर को या सामंजस्य नहीं किसी प्रकार का मतविरोध नहीं था । भले बुरे की कोई प्रतिद्वंदिता नी । उसके हृदय में केवल दो बातों का संग्राम हो रहा था । एक कहती थी ये करूँ और दूसरी उसी करेगा, निषेद करेगी । आदिमानव भावनाओं का दास था । उसके मन में जो आता था, वहीं शरीर से कर डालकर वहाँ इन भावनाओं के संबंध में विचार करने अथवा उनका संयम करने का बिल्कुल प्रयत्न नहीं करता था । देवताओं के संबंध में यही बात है । ये लोग भी अपनी भावनाओं के अधीन इंद्रा आया और उसने असर बाल को छिन्न भिन्न कर दिया होगा । किसी के प्रति संतुष्ट था तो किसी से रुष्ट क्या हूँ, ये कोई भी नहीं जाना है, जाना नहीं चाहिए । इसका कारण ये है कि उस समय लोगों में अनुसंधान की प्रवृत्ति ही नहीं । इसलिए मैं जो कुछ भी करते वहीं नहीं था । उस समय मेरे भले की कोई धारणा नहीं की । हम रेडू में देखते हैं कि इंद्र और अन्यान्य देवताओं ने अनेक बुरे कार्य किए हैं । नरेन्द्र के उपासकों की दृष्टि में बुरा काम कुछ भी नहीं । अच्छा वे संबंध में कोई प्रश्न नहीं करते । स्पष्ट है कि आदिम युग का मानव प्रकृति की भयंकर शक्तियों के विरुद्ध जूझ रहा था । वहाँ उन्हें समझने में असमर्थ था, लेकिन इसके बावजूद प्रकृति को बदलने और उसको अपने वर्ष में करने का संकल्प मन में लिए हुए उस समय उस की प्रमुख समस्या अपने अस्तित्व को बनाए रखना था । शिकार और पर जो भी मिल जाए, उसी पर रहता था । वहाँ प्रकृति को करना और कल्पना दोनों से बदलने का प्रयास कर रहा था । अतएव अपने इसी प्रयास में भयंकर शक्तियों में देवत आरोपित करके उनकी उपासना अर्चना की, ताकि वे उसके लिए अभिशाप के बजाय वरदान बन जाए और फिर कल्पना द्वारा ऐसी देवताओं की सृष्टि की, जो इन शक्तियों के विरुद्ध संघर्ष में उसकी सहायता करेंगे । उदाहरण के लिए हम वैदिक काल के मनुष्य को पास ना द्वारा वरुण धवन और अग्नि को रिझाने देखते हैं और ेंद्र अपने वज्र द्वारा उसके लिए पहाड तोड जा और असर बाल को छिन्न भिन्न करता है । वैदिक काल का मनुष्य निपट भौतिकवादी है, वहाँ भी इसी धरती पर है और इसके देवता भी धरती पर हैं । इस से परे इसी स्वर्ग नरक आत्मा परमात्मा का कोई भाग्य विचार उसके मन में नहीं, मृत्यु कब है और अमरत्व की इच्छा भी उसे नहीं सकता हूँ । जैसा वो खुद सीधा साधा है वैसे ही उसकी उपासन प्रार्थना भी सी बी सारे सुनी जीवेम श्रद्धा शतम् शुरू हो यहाँ से लग रहा था प्रवान शरद भ्रष्टतम दिन आसियान शाॅ हूॅं शरदा छता अर्थात में सौ वर्ष तक जीव सौ वर्ष तक सुनु सौ वर्ष तक बोलू और मैं सौ वर्षक दीनता रहे तो कर की फिर आकाश में घन घटाओ को देखकर वहाँ के है । उठता है काली वर्षकों पर जननियों पृथ्वी शस्य सलीमी देशों यम शुभ रहे तो मनवा निर्भय अर्थात मेरे समय पर बरसे धरती फसलों से भरपूर हो कि हर देश शोएब से रहित हो और सारे मानव निर्भय यजुर्वेद का जो राष्ट्रगान है उसका भावार्थ दिए हैं कि मनीष शास्त्र और शस्त्र मैंने पर हो ताकि वहाँ युद्ध में विजय प्राप्त करें और सभा में समाज रहे हो । उसके बाद हार्ड होने वाले स्वस्थ, मैं डूब देने वाली गांवाें और वायु के बीच से देश चलने वाले सुंदर खोडे जिस भाषा और कापियों में वेलू की रचना हुई, उसे विकसित होने में जाने कितनी सदिया लगेंगी और वेलू की रचना का समय भी हजारों साल लंबा है । इसी बीच में मनुष्य ने प्रकृति पर विजय प्राप्त की और विभिन्न दिशाओं में उनकी विचारशक्ति का जो विकास हुआ, उस बारे में विवेकानंद लिखते हैं । आरंभ में जाती में एक पूर्व जिज्ञासा थी, जिसका शीघ्र ही निर्भिक विश्लेषण में विकास हो गया । यद्यपि आरंभिक प्रयासों का परिणाम एक बार अंदर शिल्पी के अनाब व्यस्त हाथों के प्रयास जैसा भले ही हो, किंतु शीघ्र ही उसका स्थान विशिष्ट विज्ञान, निर्भिक प्रयत्नों, आश्चर्यजनक परिणामों ने ले लिया । निर्मिता ने आर्य ऋषियों को स्वनिर्मित यह कि कुंडू की हर एक ईद के परीक्षण के लिए प्रेरित किया । उन्हें अपने धर्मग्रंथ के शब्द, शब्द के विश्लेषण, ऑपरेशन और मंथन के लिए उकसाया । किसी कारण उन्होंने कर्मकांड को व्यवस्थित किया, उसमें परिवर्तन और पूरा परिवर्तन किया, उसके विषय में शंकाए उठाई, उसका खंडन किया और उसकी समुचित क्या क्या क्या देवी नेताओं के बारे में गहरी छानबीन और उन्होंने सर्वभौम सिर्फ व्यापक सिर्फ आंतर यानी सृष्टिकर्ता को अपने पैतृक स्वर्ग अस्त परम पिता को केवल कौन स्थान प्रदान किया । या उससे व्यर्थ कहकर पूर्ण रूप पे बहिष्कृत कर दिया गया और उसके बिना ही एक ऐसे विश्व धर्म का सूत्रपात किया गया जिसके अनुयायियों की संख्या आज भी अन्य धर्मावलंबियों की अपेक्षा अधिक हैं । विविध प्रकार की यज्ञ वेदियों के निर्माण में ईटू के विन्यास के आधार पर उन्होंने ज्यामिति शास्त्र का विकास किया और अपनी ज्योतिष के उस ज्ञान से सारे विश्व को चकित कर दिया जिसकी उत्पत्ति, पूजन एवं अर्घ्यदान का समय निर्धारित करने के प्रयास में इसी कारण अन्य किसी और वाची नि अ प्राचीन जाती की तुलना में गणित को इस जाति का योगदान सर्वाधिक हैं । उनके रसायन शास्त्र, औषधियों में धातुओं के मिश्रण, संगीत के स्वरों के सरगम के ज्ञान तथा उनके धनुषी यंत्रों के अविष्कारों से आधुनिक यूरोपीय सभ्यता के निर्माण में विशेष सहायता नहीं । उज्वल दंत कथाओं द्वारा बाल मनोविकास के विज्ञान का अविष्कार इन लोगों ने क्या इनका भाव को प्रत्येक सभी देश की शिशु चलाओ या पाठशालाओं में सभी बच्चे चार सौ सीट पे और इनकी छाप जीवन भर बनी है । वैदिक युग के बाद जब मनुष्य को प्रकृति के विरुद्ध अपने संघर्ष में कुछ फुर्सत मिली, सांस लेने और सोचने की सुविधा प्राप्त हुई तभी उसने आत्मा और परमात्मा का निर्माण किया । देखना यह है कि मनुष्य की सोच का आत्मा और परमात्मा के निर्माण का आधार क्या? हाँ, विवेकानन्द मनुष्य का यथार्थ स्वरूप भाषण में कहते हैं कवित्व में कठोर परिषद के प्रारंभ में हम या प्रश्न करते हैं । कोई लोग कहते हैं कि मनुष्य के मरने पर उसका अस्तित्व समाप्त हो जाता है और कोई कहते हैं कि नहीं, उसका अस्तित्व फिर भी रहता है । उन दोनों बातों में कौन सी सकती हैं? संसार में इस संबंध में अनेक प्रकार के उत्तर मिलते हैं । जितने प्रकार के दर्शन या धर्म संसार में हैं, वे सब वास्तव में इस प्रश्न के विभिन्न उत्तरों से परिपूर्ण हैं । अनेक बार तो इन प्रश्नों के परे क्या हैं? सत्य? क्या प्राणों की इस महती अशांति का अब दमन करने की चीज था? की गई है? तो जब तक मृत्यु नामक वस्तु जगत में हैं, तब तक इस प्रश्न को दबा देने की सारी चीज टाइम विफल रहेगी । विवेकानंद ने आत्मा परमात्मा विशेष जितने भी उदाहरण दिए हैं, उपनिषदों तथा गीता से दिए और भी उपनिषदों को भी बेल कहते हैं । वेदांत दर्शन की सैद्धांतिक व्याख्या करते हुए उन्होंने धर्म को कर्मकांड और ज्ञान कांड में विभाजित कर लिया है । एक जून अठारह सौ को फिर अल्मोडा से आपने किसी के नाम पत्र में लिखते हैं वेदू के विरुद्ध तुमने जो तर्क क्या है, वहाँ अखंडनीय होता यदि बीन शब्द का अर्थ संहिता होगा । भारत में यह सर्वसम्मत है कि वे शब्द में तीन भाग सम्मिलित, संविदा, प्रामण और उपमिशन । इनमें से पहले दो भाग कर्मकांड संबंधी होने के कारण अब लगभग एक ओर रख दिए गए सब मतों के निर्माताओं तथा तत्वज्ञानियों ने केवल उपनिषदों को ही ग्रहण किया है । केवल समझता ही वेज है । यह स्वामी दयानंद का शुरू किया हुआ बिल्कुल नया विचार हैं और पुरातन मतावलंबी या सनातनी जनता में इसको मानने वाला कोई नहीं । इस नए मत की पीछे कारण ये था कि स्वामी दयानंद ये समझते थे की सभ्यता की एक नई व्याख्या के अनुसार पूरे वेट का एक सुसंगत सिद्धांत निर्माण कर सकेंगे । परंतु कठिनाइयाँ योगी क्यों बनी रही? केवल वेब ग्रामीण भाग के संबंध में उठ खडी हुई और अनेक व्याख्याओं तथा प्रच इत्ता की परिकल्पनाओं के बावजूद बहुत कुछ शेष रहेंगे । डन के नजदीक वे समझता और उपनिषद की बात ही प्रमाण है आपने मद्रास के भाषण में वे कहते हैं तुम जानती होगी, वे दो भागों में विभक्त है । कर्मकांड और ज्ञान का कर्मकांड में नाना प्रकार की याद किया । यह की और अनुष्ठान पद दिया है, जिनका अधिकांश आजकल प्रचलित नहीं । ज्ञान कांड में वीडियो के आध्यात्मिक उपदेश ली भी बंद हैं । वे उपनिषद अथवा आवेदान के नाम से परिचित है और द्वैतवादी विशिष्टाद्वैत वादी समझदार सनी को और आचार्यों ने उन्ही को उच्चत तक प्रमाण कहकर स्वीकार किया है । हम समझते हैं कि वेदों को समझता कहकर उन्हें उपनिषदों से अलग कर देने का मुख्य कारण ये हैं कि उनमें मनुष्य की सो आध्यात्मिक न होकर एकदम भौतिकवादी है । मनीषी खुले आकाश के नीचे प्रकृति के संबंध में रहता है, प्रकृति से बहुत जूझता भी है और उसकी उपासना भी करता है । बस इसी से उसका चिंतन निर्धारित होता है तो रिश्तों की युग में पहुंचकर ही मनुष्य को ये सोचने का आकाश प्राप्त हुआ की मृत्यु क्या है? मृत्यु के उपरांत शरीर का कुछ शेष भी रहता है या सब यही समाप्त हो जाता है और क्या इस प्रत्यक्ष संसार के परेड भी कुछ हैं? उपनिषदों में भी आत्मा संबंधी नचिकेता, सत्यकाम, जड, भरत तथा इंद्र और विरोचन आदि की जो कथाए हैं, एक तो बहुत अटपटी और अन् उत्कृष्ट है और दूसरे उसमें आदमा शब्द की चर्चा ही चर्चा है । कोई निश्चित धारणा नहीं । यह धारणा जीता में प्रतिपादित हुई है और बाद में शंकराचार्य रामानुज, रामकृष्ण, परमहंस, विवेकानंद इत्यादि वेदांती उन्हें उसे आगे विकसित किया है । हमें अब इस धारणा और उस की विकास प्रक्रिया का ऐतिहासिक बहुत एक बात दृष्टि से अध्ययन करना है । गीता ही का उदाहरण चीज इस ग्रैंड का केंद्र बिंदु वही है जब अर्जुन कुरुक्षेत्र में गुरु सेना को सामने खडे देखकर हथियार रख देता है और अपनी सारथि कृष्ण से कहता है मैं नहीं लडूंगा क्योंकि मेरे सामने बंधु बांधवों को मारना पाक इस पर श्रीकृष्ण उसे उस देश के अर्जुन तो भ्रम में पढे हो । आज मामर हैं, उसे कोई नहीं मार सकता और नामक अभी मर की जिन्हें दम मारने की बात कहते हो, वे तो पहले ही मरे हुए हैं । इसलिए कायरता छोडो छतरी का धर्म लडना है । लड्डू चीज जाओगे तो धरती पर राज कर होगी और यदि मर जाओगी तो स्वर्ग का सुख हो । बात दरअसल कायरता की नहीं वैदिक युग में जिसे प्रारंभिक सामने बाद कहते हैं, लोग कबीलों में हैं, व्यक्तिगत संपत्ति नहीं की जो कुछ था, सम्मिलित था । कभी लू कबीलों में लडाई होती रहती थी पर एक ही कभी ले के भीतर किसी की हत्या तो क्या गाली तक देना पाप समझा जाता । कॉर्नर पांडर एक ही कबीले के लोग थे । अर्जुन की मस्तिष्क में कभी लेके पुराने संस्कार किए इसलिए उसने लडने से इंकार कर दिया था । पर जब महाभारत का युद्ध हुआ तो व्यक्तिगत संपत्ति का प्रादुर्भाव हो चुका था । कृष्ण राजा ननद के पुत्र होने के नाते व्यक्तिगत संपत्ति की नई विचारधारा से जुडे हुए थे । उसकी श्रेष्ठ प्रवक्ता संपत्ति के लिए भाई भाई की हत्या करे तो मन में ग्लानि उत्पन्न न हो कि वहाँ भाई की हत्या कर रहा है । इसी से आत्मा जन्मरहित हैं, वहाँ ना मार दी है और ना ही कोई मार सकता है । नई विचारधारा का जन्म हुआ व्यक्तिगत संपत्ति का समाज निचे ही प्रारंभिक साम्यवाद के मुकाबले उन्नति का युग था और नई विचारधारा मनुष्य को आगे ले जाने वाले अधिक श्री कृष्ण ने अर्जुन को न सिर्फ कबीले कि पुराने संस्कारों के बजाय प्रगतिशील विचारधारा दी बल्कि उसके दोनों खातों में लड्डू समाज, बेटा लडो चीज जाओगे तो यहाँ राज करोगे और मर गए तो स्वर्ग प्राप्ति होगी । इस व्यक्तिगत संपत्ति के उदय से समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया । एक वर्ग वो था जो श्रम करता था जिनका संबंध श्रम से टूट गया था पर उन्हें जीवन की सारी सुख सुविधाएं प्राप्त थी और उन्हें अपनी विचारशक्ति द्वारा दूसरों पर शासन करना था । समाज वर्गों में विभाजित हुआ तो मनुष्य की सोच का आपकी करो और ना करो । श्रमजीवियों और संपत्ति सनियो की विचारधारा में विभाजित होना अनिवार्य ऍम विवेकानंद कहते हैं हमारे भीतर एक प्रकार की प्रवृत्तियां है जो इंद्रियों के द्वारा बाहर जाने की चेष्टा करती रहती हैं और उनके पीछे चाहे कितना ही शीर्ष क्यों ना हो, एक स्वर कहता रहता है बाहर मत जाना । इन दो बातों के संस्कृत नाम है प्रवृत्ति और निवृत्ति । ये ही हमारे समस्य कर्मों का मूल है । निवृत्ति से धर्म का आरंभ होता है । जहाँ यह मत करना नहीं वहाँ जानना की भर्म का आरंभ भी नहीं हुआ । इस मत करना से ही निवृत्ति का भाव आ गया और बरस पर युद्ध में रख देवतागण अराजत होने के बावजूद मनुष्य की धारणाएं विकसित होने लगी । सम्पत्ति स्वामियों को सारी सुविधाएं प्राप्त उन्हें हाथ से कुछ काम तो करना नहीं था । दिमाग से सिर्फ सोचना ही था । सुख की भावना के अनुपात ही से उनके मन में दुख की भावना भी बडी । मृत्यु के भय ने सबसे पहले उन्ही को परेशान किया और अमरत्व की छाबडियों नहीं के मन में उत्पन्न हूँ । आती इस परिवर्तनशीलता जगत से परे अपरिवर्तित की कल्पना कि उन्होंने लिखा है । इसके बाद मृत्यु रूपी भयानक थी, आता है । सारा संसार मृत्यु के मुख में चला जा रहा है । सभी मरती जा रहे हैं । हमारी उन्नति, हमारे व्यर्थ के आडम्बरपूर्ण कार्यकलाप, समाज संस्कार, विलासिता, ईश्वरीय ज्ञान इन सबकी मृत्यु ही एकमात्र गति हैं । इससे अधिक निश्चित बाद और कुछ नहीं । नगर पर नगर बनती है और नष्ट हो जाते हैं । साम्राज्य पर साम्राज्य उठते हैं और काल के गर्ज में समाज आते हैं । वहाँ आदि चूर चूर हो कर विभिन्न रहो की वायु के झोंको से इधर उधर बिखरे जा रहे हैं । इसी प्रकार अनाधिकार से चलता आ रहा है । इस सबका आखिर लक्ष्य क्या है? मृत्यु मृत्यु ही सबका लक्ष्य वहाँ जीवन का लक्ष्य है । सौन्दर्य का लक्ष्य है, ऐश्वर्या का लक्ष्य हैं, शक्ति का लक्ष्य है । और तो और धर्म का भी लक्ष्य साधु और पापी दोनों मारते हैं । राज और भिक्षुक दोनों मारते हैं, सभी मृत्यु को प्राप्त होते हैं । फिर भी जीवन के प्रति हविष्य आ सकती विद्यमान हैं । हम क्यों जीवन से आ सकती है? क्यों हम इसका परित्याग नहीं करवाते । ये हम नहीं जानेंगे और यही माया है । ठगी से जगह मित्तियां और ब्रह्मा सत्य की दर्शन का उदय हुआ । मायावाद के सिद्धांत पर हम बाद में विचार करेंगे और लिखा है कि जिस समय सर्वप्रथम गीता को देश दिया गया उस समय दो सांप्रदायों में बढा वादविवाद चल रहा है । इनमें से एक सांप्रदायिक वैदिक युग क्यों पशुबली तथा इसी प्रकार का अन्याय कर्मों का धर्म का सार सर्वस्व समझता था । दूसरे का विश्वास था कि समस्त कर्मों का त्याग और आत्मज्ञान की उपलब्धि ही मुख्य का एकमात्र मार्ग दरअसल यहाँ बौद्धिक वादियों और आदर्शवादी हो । आइडल इस का वादविवाद वैदिक युग से चले आ रहे भौतिकवादी विचार को इस सूक्ष्म चिंतन की अवहेलना करके उन्हें सूली रूप से यज्ञ तथा पशुबलि इत्यादि कर्मकांड के प्रतिनिधि बताया गया है । जो लोग सुख सुविधा तथा विलासिता का जीवन जी रहे थे, आत्मज्ञान की उपलब्धि तथा मूड ही उनकी महत्वकांक्षा जो दिन दिन अंतर्मुखी होते जा रहे और जिनके लिए और अनेक बहेलियों की अपेक्षा स्वयं मनीष ही सबसे पेचीदा पहली बन गया । भौतिक वादियों ने उनसे डटकर लुवा लिया । लोहा लेने वालों में बहुत ही सशक्त परंपरा चारवाहों की है । उनका दर्शन इतना लोकप्रिय था । वहाँ लोकायत यानी जनसाधारण की विचारधारा के नाम से प्रसिद्ध है । मतलब ये हैं कि चार बार श्रमजीवी जनसाधारण के प्रतिनिधि सा राशि है कि आदर्शवाद निवृति अर्थात ना करो का और भौतिकवाद प्रवृत्ति अर्थात करों का संधान । विवेकानंद लिखते हैं चारवाहों ने बडे भयानक मतों का प्रचार किया । जैसा कि आज उन्नीस शताब्दी में भी लोग इस प्रकार खुल्लमखुल्ला मंदिरों और नगरों में प्रचार करने दिया गया की धर्म मिथ्या है । वहाँ केवल पुरोहितों की स्वार्थपूर्ति का एक उपाय है । वेद केवल पाखंडी फूट निशाचरों की रचना है । ना कोई ईश्वर है ना आत्मा । यदि आत्मा है तो वह स्त्रीपुरुष आदि के प्रेम के आकृष्ट होकर लौट क्यों नहीं आती है? इन लोगों की धारणा थी कि यदि आत्मा होती तो मृत्यु के बाद भी उसमें प्रेम आने की भावनाएँ रहती और अच्छा खाना और अच्छा पहनना चाहती हूँ । ऐसा होने पर भी चार वह आपको किसी ने सताया । इसके विपरीत महाभारत में यहाँ बताती है कि पांडव जब कुरुक्षेत्र से विजयी होकर लौटे तो हस्तिनापुर के दरवाजे पर चार्वाक में युद्ध स्टेट से कहा आप किसी विषय पर फूले नहीं समाते । आपने अपने ही सगे संबंधियों की हत्या करके खोर बात किया है । स्वागत को आए हुए पंडितों ने ये मिस्टर को दिलासा दिया महाराज आप इस पागल की बातें करना चाहिए । आपने धर्म युद्ध लडा है । आप धर्मपुत्र हैं और चार वाँ को वहीं पथराव करके मार डाला । चार्वाक साहित्य नष्ट कर दिया गया लिखा है चार वाँ के अनुयायियों का । भारत में एक अत्यंत प्राचीन सम्प्रदाय । उसके अनुयायी घोर जडवादी नहीं । इस समय वह संप्रदाय मुक्त हो गया है और उसके अधिकांश ग्रंट भी लोग हो गए । उसके मतानुसार आत्मा और देख भौतिक शक्ति से उत्पन्न होती । इसलिए देखा का नाश का अस्तित्व है । इसका भी कोई प्रमाण नहीं । वहाँ केवल इंद्रीय जन्य प्रत्यक्ष ज्ञान स्वीकार करता है । अनुमान द्वारा भी ज्ञान प्राप्त हो सकता है, इसे वहाँ स्वीकार नहीं करता । शंकराचार्य का भाषा चार्वाक दर्शन के खानदान के अतिरिक्त और कुछ नहीं । भौतिकवाद ियों को वामाचारी और अनाचारी कहकर बदनाम किया गया । ये चाहे चोरी करके अथवा कर्ज लेकर ही पीओ इत्यादि युक्तियां उनसे जोडी गई और उन्हें पांचवी प्रकृति वाले मनुष्य बताया गया, जिनका सुख भोग इंद्रियों में आबद्ध रहता है । हालांकि इंद्रियों का सुख भोग भी संपत्ति स्वामी होगी । कोई अमृतसर था, श्रमजीवी साधारण जनता तो उससे एकदम पाँच थे । अध्यात्मवाद ियों ने चार बात का तो खंडन किया, लेकिन कपिल के सांख्य दर्शन में प्रवेश करने का उन्हें चोर दरवाजा मिल गया इसलिए उसका मंडन किया और उससे अपने चिंतन का सूत्र जोडा और इस महान विचार की असाधारण छाती से लाभ उठाया । हाँ, विवेकानन्द साल के दर्शन का अध्ययन इस भाषण में कहते हैं कपिल का साथ के दर्शन कि विश्व का प्रथम ऐसा दर्शन है जिसमें युक्ति पद्धति से जगत के संबंध में विचार क्या है? विश्व के प्रत्येक तत्ववादी को उसके प्रति श्रद्धांजलि अर्पित करनी चाहिए । मैं तुम्हारे मन में यह भाव उत्पन्न करना चाहता हूँ कि दर्शनशास्त्र के प्रताप वहाँ के रूप में उनकी बातें सुनने के लिए हम बात ये है इस अद्भुत व्यक्ति इस अत्यंत प्राचीन दार्शनिक का श्रुति में भी उल्लेख है । ये भगवान आपने श्रृष्टि के प्रारंभ में कपिलमुनि को उत्पन्न किया । उनकी प्रत्यक्ष ज्ञान कितने आश्चर्यजनक थे और यदि योगियों की प्रत्यक्ष बूत संबंधी असाधारण शक्ति का कोई प्रमाण चाहिए तो ये सूत्र ही उसके प्रमाण है । उनके पास कोई अनुवीक्षण अथवा दूर एक्शन यंत्र नहीं था । तथा भी उनका प्रत्यक्ष बोध कितना कृष्ण था । उनका वस्तुओं का विश्लेषण कितना पूर्ण एवं अदभुत था । कपिल के अनुसार जगत का सृष्टिकर्ता कोई ईश्वर नहीं है । सब रज और तम प्रकृति के तीन ऐसे उपादान है जिनसे समग्र प्रमाण की सृष्टि होती है । बुद्धि बीच क्यूकि प्रकृति से उत्पन्न होती है, इसलिए प्रगति एक वस्तु है । अलबत्ता प्रकृति और बुद्धि से अलग तीसरी वस्तु पुरुष है, जो इन्हें गड्डी एवं चेतना प्रदान करती है । कपिल क्यूकि प्रकृति और पुरुष दोनों को अनादि तथा निरपेक्ष मानते हैं । इसलिए वेद वेद वानी है और प्रकृति को अनादि तथा निरपेक्ष मानने के कारण वे भौतिकवादी भी हैं । अध्यात्म वादियों ने कपिल के सिद्धांत में संशोधन करके पुरुष का नाम आत्मा रखा और उसे वेदांत दर्शन में रूपांतरित कर लिया । विवेकानंद कहते हैं संख्या वादियों के इस मत के विरुद्ध वेदान्त वादियों को प्रथम आपत्ति ये हैं कि सांची का यह विश्लेषण संपूर्ण नहीं । यदि प्रकृति एक निरपेक्ष वस्तु है, हम आत्मा भी यदि निरपेक्ष वस्तु हैं और जिन सब युवतियों से आत्मा का सर्वव्यापी होना प्रमाणित होगा, वे युक्तियां प्रकृति के पक्ष में भी प्रयुक्त हो सके, इसलिए वहाँ भी समग्र देश काल निमित्त कि अतीत होगी । प्रकृति यदि इस प्रकार की ही हो तो उसका किसी प्रकार का परिणाम अथवा विकास नहीं होगा । इससे निष्कर्ष निकला कि दो निरपेक्ष अथवा पूर्ण वस्तुए स्वीकार करनी होती है और यह असंभव है । विधान दर्शन के अनुसार प्रकृति देशकाल लिमिट के नियम क्या नहीं, इसलिए परिवर्तनशील और नश्वर है जबकि आत्मा देश काल निमित्त की अति अपरिवर्तनशील और अलग है और इस जगत के श्रृष्टि कर का निरपेक्ष और अनंत ईश्वर ही का एक अंश है । इसमें फिर कर में बाद और मायावाद के सिद्धांत जोडिए ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और इससे शोषण तथा व्यक्तिगत संपत्ति की रक्षा का दर्शन पूरा हो जाता है । व्यक्तिगत संपत्ति की रक्षा के पूछ ग्रंथ गीता में हम श्रीकृष्ण को कहते हुए सुनते हैं अर्जुन मेरे और तेरे पहले बहुत हो उन सबको मैं जानता हूँ तू नहीं जानता किसी प्रकार माया के बारे में । वे कहते हैं मेरी है दी त्रिगुणमयी माया बडी मुश्किल से पार की जा रही हैं । जो मेरी शरण में आते हैं वे इस माया सी अति हो जाते व्यक्तिगत संपत्ति के साथ यदि मानव का भी जन्म हुआ यू सांग के दर्शन के आध्यात्मिक रूप ही का नाम वेदांत दर्शन छह वैष्णो बुद्ध जय गोरखपंथी कबीरपंथी नानक पनपी दाद बनती इतिहास हिन्दू धर्म के अंतर्गत जितने भी सांप्रदायिक है, सभी वेदांता बाद ईश्वर के अस्तित्व तथा उसके सगुण और निर्गुण रूप के बारे में उन में चाहे कुछ भी मतभेद हो, पर वे मोटे तौर पर वेद वादियों, विशिष्टाद्वैत, वादियों और अद्वैतवाद ियों में बडे हुए विधानसा दर्शन के सिद्धांत को क्रमश शाह विकसित करने वालों में शंकराचार्य रामानुज, रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद विशेष रूप से उल्लेखनीय विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं । हम सिर्फ द्वैतवाद, विशिष्ट अद्वैतवाद और अद्वैतवाद की संक्षिप्त व्याख्या करेंगे । द्वैतवाद धर्म की पहली सीढी है । इसके अनुसार ईश्वर स्वयं ही विश्व और आत्मा बन गया है । हम सब उसी के अंश है । हम सब एक हैं फिर भी मनुष्य और मनुष्य में मनुष्य और ईश्वर में कठोर व्यक्त ता है, जो पृथक है और प्रथक नहीं । अद्वैतवाद तीसरी और अंतिम सीढी है । इसके अनुसार आनन्द कांड नहीं हो सकता । यदि उस कॅश किए जा सकते हैं तो प्रत्येक अंश आनंद ही होगा । यदि ऐसा मान भी ले तो एक दूसरे को समीप कर देंगे और दोनों कि समीर हो जाएंगे । अतिरिक्त अनंत एक हैं अनेक नहीं और वही एक अनंत आत्मा प्रतिक आत्माओं के रूप में प्रतीत होने वाले असम के दर्पणों में प्रतिबिंबित हो रही हैं । वहीँ आनंद आजमा मनुष्य के मन का आधार भी है जिसे हम जी बात माँगे थे । हम पीछे कुछ कह चुके हैं कि विवेकानंद ने अमेरिका और इंग्लैंड में वेदांत दर्शन की व्याख्या करते करते उसमें क्रमविकास का सिद्धांत जोडा और बडी गर्व के साथ अपने इस अविष्कार की घोषणा की की मैं विशिष्टता है और अवैध धर्म की क्रमश रहा सोपान हैं । वेट न्यूनतम और अगर उच्चतम सोपान ऍम उच्चतम सोपान है । यह घोषणा करने में वे अपने गुरु रामकृष्ण परमहंस से बहुत आगे जाते हैं । यहां बताते हुए की नहीं, उत्थान को भीतर ही से विकसित होना चाहिए । उन्होंने अपने शिष्य से कहा था इसलिए मैं केवल उपनिषदों की शिक्षा देता हूँ तो तुम देख सकते हो कि मैंने उपनिषदों के अतिरिक्त कहीं अन्यत्र से उद्वरण कभी नहीं दिए । उपनिषदों से भी केवल बाल का आदर्श वीवी वन मैदान का समस्त सारा तथा अन्य सबकुछ इस एक शब्द में नहीं है । बाल और अब है । मेरा आदर्श तो वहाँ संत है जो विद्रोह में मारा गया था और जब उसके हृदय में छोटूराम होगा गया तब उसने केवल यहाँ कहने के लिए अपना मौन क्या और तू भी वही है हिंदू पूछ सकते हो की इस योजना में रामकृष्ण का क्या स्थान? वे तो स्वयं प्रणाली है । आश्चर्यजनक अज्ञात प्रणाली उन्होंने अपने को नहीं समझा । उन्होंने इंग्लैंड या अंग्रेज के विषय में कुछ नहीं समझा । उन्होंने इंग्लैंड अंग्रेज के विषय में कुछ नहीं जाना, सिवा इसकी की अंग्रेजी समुद्र पार के विचित्र लोग हैं किंतु उन्होंने वो महान जीवन बताया और मैंने उसका अर्थ समझे । उन्होंने गुरु को समझा, अपने को समझा और फिर देश को समझा था । हम पहले कह चुके हैं कि वे धर्म के माध्यम से राजनीति की लडाई लड रहे थे । अरे जिस वर्ष शब्द पर उन्होंने बहुत जोर दिया है इससे पहले शिष्य के साथ एक वार्ता में उन्होंने इसकी व्याख्या क्योंकि तुम्हारे देश के लोगों का खून मानव हृदय में जम गया । पैसों में मानव रक्त का प्रवाह हीरो क्या सिर्फ वांग पक्षाघात के कारण ठील सा हो गया है इसलिए मैं रजोगुण की वृद्धि कर कर्म तत्पर्ता के द्वारा इस देश के लोगों का पहले इस लॉक एक जीवन संग्राम के लिए समर्थ बनाना चाहता हूँ । देख हमें शक्ति रही, हृदय में उत्साह नहीं, मस्तिष्क में प्रतिभा नहीं क्या होगा? रेंज एंड अपीलों से महिला डुलाकर स्पंदन लाना चाहता हूँ इसलिए मैंने प्राणांत ग्रहण किया है । वेदांत के अमोक मत्र के बाल से ही जगह होगा उत्तिष्ठत जाग्रत कुछ हूँ जागू इस अभय वाणी को सुनने के लिए मेरा जन्म हुआ है तो लोग इस काम में मेरे सहायक बनाऊँ जहाँ गांव गांव में देश देश में यहाँ है वाणी चांडाल से लेकर ग्रामीण तक को सुना । सभी को पकडो पकडकर जाकर कह दो तुम लोग अमित वीर्यवान हो, अमृत के अधिकारी हो । किसी प्रकार हपले रह रहा शक्ति का उद्दीपन कर जीवन संग्राम के लिए सबको कार्यक्षम बना । इसके पश्चात उन्हें वर्जन में मुक्ति प्राप्त करने की बात सुना । पहले भीतर की शक्ति को जागृत करके देश के लोगों को अपने पैरों पर खडा कर अच्छे भोजन, वस्तु तथा उत्तम भोग आदि करना भी पहले से है । इसके बाद उन्हें उपाय बता दे कि किस प्रकार से प्रकार की भूख बंधनों से मुक्त हो सके । निष्क्रियता, हीन बुद्धि और कपट देश पर छा गया है । क्या बुद्धिमान लोग या देकर स्थिर रह सकते हैं? रोना नहीं आता । मद्रास, बम्बई पंजाब, बंगाल कहीं भी तो जीवन शक्ति का चिन्ह दिखाई नहीं देगा । तुम लोग सोच रहे हो हम शिक्षित क्या खाक सीखी है दूसरों की बातों को दूसरी भाषा में रटकर मस्तिष्क में भरकर परीक्षण उत्तीर्ण होकर सोच रहे हो । हम शिक्षित हो गए कार है इसका नाम कहाँ? शिक्षा तो भारी शिक्षा का उद्देश्य क्या है? या तो क्लर्क बनना या एक दुष्ट वकील बनना और बहुत हुआ तो क्लर्क ही का दूसरा रूप एक डिप्टी मजिस्ट्रेट की नौकरी यही ना आराध्या । इससे तुम्हें या देश को क्या लाभ हुआ । एक बार आंखें खोलकर देखो, सोना पैदा करने वाली भारत भूमि में अन्य के लिए हाहाकार मचा है । तुम्हारी शिक्षा द्वारा उस न्यूनता की क्या पूर्ति हो सकेगी? कंपनी पार्टी आपके विज्ञान की सहायता से जमीन खोदने लग जा, अन्य की व्यवस्था कर नौकरी कर कि नहीं, अपनी चीज द्वारा पास जातीय विज्ञान की सहायता से नित्य नवीन उपाय का आविष्कार करेंगे । किसी अन्य वस्त्र की व्यवस्था करने के लिए मैं लोगों को रजोगुण की वृद्धि करने का उपदेश देता । अन्य वस्त्र की कमी और उसकी चिंता से देश बुरी अवस्था में चल रहा है । इस के लिए तुम लोग क्या कर रहे हो? फेंक दो अपने शस्त्र वास्तव गंगाजी में देश के लोगों को पहले अन्य की व्यवस्था करने का उपाय खाते हो । इसके बाद उन्हें भगवान का पांच सुनाना कर्मदत्त परता के द्वारा एक लोग का भाव दूर न होने तक कोई धर्म की कथा ध्यान से ना सुनेगा । इसलिए कहता हूँ पहले अपने में अंतनिर्हित शक्ति को जाग्रत कर फिर देश के समस्त व्यक्तियों में जितना संभव हो शक्ति के प्रति विश्वास जमा पहले अन्य की व्यवस्था कर बाद में उन्हें धर्म प्राप्त करने की शिक्षा अब अधिक बैठे रहने का समय नहीं । कब किसकी मृत्यु होगी, कौन कह सकता है? बात करते शो दुख और दया के सम्मिलित आवेश से । स्वामी जी के मुखमण्डल पर एक पूर्व तेज उद्भासित को उठा आंखों से मानो अपनी करने निकलने लगे । उनकी उस समय की दिव्य मूर्ति का दर्शन कर भाई और विस्मय के कारण शिष्य के मुख से बात नहीं निकल सकते । कुछ समय रुककर स्वामी जी फिर कहने लगे यथासमय देश में कर्म तत्पर्ता और आत्मनिर्भरता वर्षीय आ जाएगी । मैं स्पष्ट देखा डाॅट दूसरी गति ही नहीं जो बुद्धिमान है । विभाग तीन युगों का चित्र सामने प्रत्यक्ष देख सकते हैं । श्रीराम कृष्ण के जन्म ग्रहण समय से ही पूर्व आकाश में अरुण तय हुआ । समय आते ही दोपहर की सूर्य के प्रकरणों से देश अवश्य लोकेट हो जाएगा । वहाँ अठारह सौ ध्यान की बात है । उन्हीं दिनों कुछ विद्यार्थी उनके पास गए और उन्होंने स्वामी जी से कहा कि हमें गीता की शिक्षा दीजिए । स्वामी जी बोले, जाओ, मैदान में जाकर फुटबॉल खेलो । अभी तक खेलने की अपेक्षा फुटबॉल खेलने से स्वर्ग शीघ्र मिलेगा । देश को लोगों की पुट्ठे और कौन लाख के स्नायु वाले युवक चाहिए । ये शब्द कोई घर में प्रचारक सन्यासी नहीं, एक राष्ट्रनेता ही कह सकते हैं । धर्म के लिए गौर मस्त भी देश को राजनीतिक संघर्ष के लिए तैयार करना था । अरुणोदय की बेला है उस हो जहाँ को या संदेश घर घर पहुंचाना ही उनका प्राणांत । प्रणत अतीव उनका चिंतन दिन दिन वैज्ञानिक होता चला गया । उन्नीस सौ में वे दोबारा विदेश यात्रा पर गए । तब हम उन्हें बीस मार्च को सैन फ्रांसिस्को में कहते हुए सुनते हैं । क्रमश चला प्रकृति शब्द था । एक रुपया की धारणा का प्रयोग जीवन और मान के व्यापारों के संबंध में भी होने लगा । मनिस्टर पश्चिम और मैं निश्चित । तीनों का गुण, स्वभाव, प्रकृति का जीवन निश्चित नियमों के अनुसार चलता है और उसी प्रकार मान भी । विचार योगी उत्पन्न नहीं होते । उनके उदय, अस्तित्व और अंत का एक नियम है । दूसरे प्रकार में जिस तरह ड्रामा प्रकृति नियम से बताते हैं, उसी प्रकार आंतरिक प्रकृति अर्थात जीवन और मानव मन भी । यहाँ तो वो कहते हैं कि विचार योगी उत्पन्न नहीं होते । लेकिन अपनी पहली विदेश यात्रा के दौरान लंदन में दिए गए मनुष्य का यथार्थ रूप भाषण में उन्होंने कहा था, आजकल ये विवाद चल रहा है कि क्या पंचभूतों की समझती हर दी है की आत्मा, चिंतनशक्ति या विचार आदि नामों से परिचित शक्तियों के विकास का कारण है अथवा चिंतनशक्ति की बहुत पति का कारण हैं । निश्चय ही संसार के सभी घर में कहते हैं कि विचार नामक शक्ति ही शरीर की प्रकाश है और वे इसके विपरीत मत में आस्था नहीं रखते और जनवरी अठारह सौ चौरानवे को अपने मद्रासी शिष्यों के नाम होने शिकागो से पत्र में लिखा था जीवन में मेरी सर्वोच्च अभिलाषा यही है कि ऐसा चक्र प्रवर्तन कर दूँ जो उच्च एवं श्रेष्ठ विचारों को सब के द्वार द्वार पहुंचा दे और फिर स्त्रीपुरुष अपने भाग्य का निर्णय स्वयं घर में हमारे पूर्वजों तथा अन्य देशों ने भी जीवन के महत्वपूर्ण प्रश्नों पर क्या विचार क्या है यह सर्वसाधारण को जाने दो विषेशकर उन्हें ये देखने दो की और लोग इस समय क्या कर रहे हैं और तब उन्हें अपना निर्णय करने दो । रासायनिक द्रव्य इकट्ठे कर दो और प्रकृति के नियमानुसार भी कोई विशेष आकार धारण कर लेंगे । परीक्षम करो, अटल रहूँ और भगवान पर सदैव सकता हूँ । काम शुरू कर दो तीर सवेरे में आ ही रहा हूँ धर्म को बिना आनी पहुंचाये जनता की उन्नति, इसे अपना आदर्श वाक्य बनाना । धर्म की इस मान्यता के अनुसार विचारों का अपना अलग अस्तित्व है सारा ज्ञान आत्मा में नहीं ही है, जो निरपेक्ष सत्य ईश्वर का िकांश है । जिस किसी ने सिंद्री याचित सकती का साक्षात्कर कर लिया, वहाँ परमज्ञानी हैं, वह ज्ञान तथा हर प्रकार के बंधन से मुक्त है । यह सर्वोच्च मानव कोई काम नहीं करता । उसे कर्म करने की आवश्यकता ही नहीं जाता । वहाँ अपने विचार शक्ति ही से दुनिया पर शासन करता है । इस आदर्शवादी सिद्धांत के अनुसार बुद्ध और ईसा जैसे व्यक्ति इतिहास के निर्माता है । तेईस नवंबर को सर्वोपरि बाल विचारशक्ति से प्राप्त होता । जितना ही सूक्ष्मतर खत्म होता है, उतना ही अधिक वह शक्ति संपन्न होता है । विचार की मुख्य शक्ति दूरस्त व्यक्ति को भी प्रभावित करती हैं, क्योंकि मन एक भी है और अनेक भी । विश्व एक जाल है और मानव मन मकडियां । मतलब ये कि मनुष्य अपने को शीर्ष संजीत शेर बन जाएगा । अपने को गीजर समझ बैठे तो गीदड बना रहेगा और अपने वास्तविक रूप को पहचानकर अपने को प्रमाण समझ ले तो सर्वशक्तिमान प्रमा बन जाएगा । सत्याग्रह स्वराज तुम्हारे भीतर है, इसका प्रतिक्रियावादी सिद्धांत भी यही है । गांधी का कहना था कि अगर कोई व्यक्ति उपवास, त्याग तथा अहिंसक कर्म द्वारा अपने भीतर के चरम सत्य कुछ जग लेता है तो वहाँ पूर्ण सत्याग्रही बन जाता है, तब दुनिया की कोई शक्तियों से नहीं हरा सकता । यपूर्ण सत्याग्रही जब अपने शत्रु की आंखों में आखिर डालेगा, तो उसका मन शत्रु के मन को प्रभावित करेगा और तब वहाँ भी शत्रुता त्यागकर पूर्ण सत्याग्रही बन जाएगा । अश्वर अन्याय का प्रतिरोध गलत है, क्योंकि बुराई फैलती हैं । दुनिया को शुद्ध और पवित्र बनाने के लिए शुभ विचारों का प्रचार प्रसार ही उचित उपाय है, लेकिन हर देश के पूंजीवाद ने अपने राजनीतिक संघर्ष में धर्म के विरुद्ध विज्ञान को अपना शास्त्र बनाया है । पूंजीवादी क्रांति अठारह सौ इक्यानवे में सर्वप्रथम फ्रांस में संपन्न हुई । वहाँ के विश्व कोशियो ने जिनके नेता देनदारों थे, इसी के लिए भूमि तैयार की । फ्रांस कि ये विश्वकोष भौतिकवादी थी । इसके बाद सौ बरस तक भौतिकवाद पातशाह के बुद्धिजीवियों की मुख्य विचारधारा रही । लेकिन उन्नीसवी सदी के अंत में जब पूंजीवाद में अपनी प्रगतिशील भूमिका त्यागकर साम्राज्यवाद का प्रतिक्रिया आबादी रूप धारण किया, तब हम पहले कह चुके हैं, सिर्फ वही बुद्धिजीवी इस विचारधारा पार्टी के रह सके, जिनका संबंध मार्क्सवादी विचारधारा वाले वन वात नमक से जुड गया था । हाँ, विवेकानन्द हमारे उभरते हुए बुर्जुवा के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता थे । उन्होंने अपनी विदेश यात्रा के दौरान विज्ञान के उत्कृष्ट तत्व को आत्मसात । क्या उन्हें साम्राज्यवाद से घृणा थी और वे देश की उत्पीडित, शोषित जनता को उठाना जगाना चाहते थे । इसलिए उनका अध्यात्मिक अद्वैतवाद की चरम सीमा का अतिक्रमण करना, विराम चिन्ह को लांघना स्वाभाविक था । आते वक्त हम उन्हें सान फ्रांसिस्को के उक्त भाषण में कहते हुए होते हैं ड्रामा और आंतरिक प्रकृतियाँ दो भिन्न वस्तु नहीं है । वो एक है, वे एक है । प्रकृति समस्त घटनाओं की समझती है । प्रकृति से आशय है, वहाँ सब जो है, वहाँ सब जो गतिशील है, हम जड, वस्तु और मन में अत्यधिक भेद मानते हैं । हम सोचते हैं कि मान जड वस्तु से पूर्णतः भिन्न है । वस्तुतः में एक ही प्रकृति है, जिसका अद्धवार्षिक दूसरे द्वार श् पर सतत क्रिया क्या करता है? जड पद्धार्थ विभिन्न संवेदनों के रूप में मन पर प्रभाव डालता है । ये संवेदनशील व्यक्ति के सिवा और कुछ नहीं है । बाहर से आने वाली शक्ति भीतर की शक्ति को आंदोलित करती है । ड्रामा शक्ति के प्रति अनुक्रिया करनी यात्रा उससे दूर हट जाने की इच्छा से आंतरिक शक्ति जरूर धारण करती है । उसे हम विचार द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार मन अथवा मस्तिष्क पदार्थ का ही सुव्यवस्थित रूप है और हमारे समस्त विचार भौतिक परिस्थितियों से ही उत्पन्न होते हैं उनके उत्पन्न होने की जो प्रक्रिया है उसकी व्याख्या माओत्सेतुंग ने सही विचार कहाँ से आते हैं? लेख में इस प्रकार की वे सामाजिक व्यवहार से और केवल सामाजिक व्यवहार से ही पैदा होते हैं । तीन प्रकार के सामाजिक व्यवहार से पैदा होते हैं उत्पादन, संघर्ष, वर्ग संघर्ष और वैज्ञानिक अनुसंधान । मनीष टिका सामाजिक स्थित वही उसके विचारों का निर्णय करता है । जहाँ एक बार जनता ने आगे बढे हुए वर्ग के सही विचारों को आत्मसात कर लिया तो ये विचार एक ऐसी भौतिक शक्ति में बदल जाते हैं जो समाज को और दुनिया को बदलना है । अपने सामाजिक व्यवहार में मनुष्य विभिन्न प्रकार के संघर्षो में लगा रहता है और अपनी सफलताओं तथा सफलताओं में समृद्ध अनुभव प्राप्त करता है । मनुष्य की पांच ज्ञानेन्द्रियों आंख का ना जीम और त्वचा के जरिए वस्तुगत ब्रह्मा जगत की असंख्य घटनाओं का प्रतिबंध उसके मस्तिष्क पर पडता है । ज्ञान शुरू में इंद्रीय कराना होता है । धारणात्मक ज्ञान अर्थात विचारों की स्थिति में तब छलांग भी जा सकती है जब केंद्रीय ग्रामीण हाँ ज्ञान काफी मात्रा में प्राप्त कर लिया जाता है । ये ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया है । ये ज्ञान प्राप्ति की समूची प्रक्रिया की पहली मंजिल है । एक ऐसे मंजिल है जो हमें वस्तुगत पदार्थ से मनोगत चीत ना की तरफ ले जाती है । अस्तित्व से विचारों की तरफ नहीं जाती है । किसी व्यक्ति की चेतना या विचार जिनमें सिद्धां नीतियां, योजनाएं अथवा उपाय शामिल है, वस्तु का ड्रामा जगत के नियमों की प्रक्रिया की दूसरी मंजिल आती है । एक ऐसी मंजिल जो हमें जीतना की तरफ ले जाती है, विचारों से अस्तित्व की तरफ ले जाती है तथा जिसमें पहली मंजिल के दौरान प्राप्त किए गए ज्ञान को सामाजिक व्यवहार में उतारा जाता है ताकि इस बात का पता लगाया जा सके कि ये सिद्धांत नहीं दिया योजनाएं अथवा उपाय प्रत्याशित सफलता प्राप्त कर सकेंगे या नहीं । आम तौर पर इनमें से जो सफल हो जाते हैं, वे सही होते हैं और जो असफल हो जाते हैं वो गलत होते हैं तथा ये बात प्रकृति के खिलाफ मनुष्य के संघर्ष के बारे में सच साबित होती है । कभी कभी आगे बढे हुए वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्तियों को पराजय का मुंह देखना पडता है । इसलिए नहीं कि उनके विचार गलत बल्कि इसलिए कि संघर्ष करने वाली शक्तियों के तुलनात्मक बल्कि दृष्टि से फिलहाल वी शक्तियां उतनी बलशाली नहीं जितनी की प्रतिक्रियावादी सकती है । इसलिए उन्हें अस्थाई तौर पर पराजय का मुंह देखना पड रहा है, लेकिन देर सवेर विजय अवश्य उन्हीं को प्राप्त होती है । मनुष्य का ज्ञान व्यवहार की कसौटी के जरिए छलांग भरकर एक नहीं मंजिल पर पहुंच जाता है या छलांग पहले कि छलांग से और ज्यादा महत्वपूर्ण होती है, क्योंकि सिर्फ यही छलांग ज्ञान प्राप्ति की पहली छलांग अर्थात वस्तु ड्रामा जगत को प्रतिबिंबित करने के दौरान बनने वाले विचारों, सिद्धान्तो, नीतियों, योजनाओं अथवा उपमाओं के सही होने अच्छा कल होने को साबित करती है । सच्चाई को परखने का दूसरा कोई तरीका नहीं है । यही नहीं, दुनिया का ज्ञान प्राप्त करने का सर्वहारा वर्ग का एकमात्र उद्देश्य है । उसे बताया अक्सर सही ज्ञान की प्राप्ति, केवल पदार्थ चेतना की तरफ लौटने की प्रक्रिया को अर्थात व्यवहार से ज्ञान की तरफ अक्सर सही ज्ञान की प्राप्ति, केवल पदार्थ चेतना की तरफ लौटने की प्रक्रिया को अर्थतत्व व्यवहार से ज्ञान की तरफ जाने और फिर ज्ञान से व्यवहार की तरफ लौटाने की प्रक्रिया को बार बार दोहराने से यही मार्क्सवाद का ज्ञान सिद्धांत है । द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का ज्ञान सिद्धांत अब देखिए विवेकानंद अपने उप भाषणों में आगे कहते हैं, जड पदार्थ और मन दोनों ही वास्तव में शक्ति ही है और यदि तुम उन दोनों का विश्लेषण गहराई से करो तो होगी कि मूलतः है, दोनों ही है । ब्रह्मशक्ति किस प्रकार आंतरिक शक्ति को प्रेरित कर सकती है, इसी बात से स्पष्ट हो जाता है कि वे कहीं एक दूसरे से संयुक्त होती है । वे अवश्यमेव अखंड हैं और इसलिए वे मूलतः एक ही अच्छा मन और जड पदार्थ को भिन्न समझने का कोई कारण नहीं है । मान जड पदार्थ के रूप में परिवर्तित होता है और जड पदार्थ मान के रूप विचारशक्ति ही स्नायु शक्ति, पेशी शक्ति बन जाती है और स्नायु शक्ति एवं शक्ति विचार प्रकृति ही यह सब शक्ति है । चाहे वह जड वस्तु के रूप में अभिव्यक्त हूँ, चाहे मन की प्रदार्थ चेतना में और चेतना पदार्थ में निरंतर बदलती रहती है । इस बनवा तक सिद्धांत को लेकर विवेकानंद मैदान का भौतिकवाद से समन्वय करने का यह प्रयास करते हैं । सूक्ष्मतम मन एवं सूक्ष्मतम जड पदार्थ के बीच केवल मात्रा ही कान है । अरे समस्त विश्व को माननीय जड दोनों कहा जा सकता है । इन दोनों में थे, आ गए हैं । यहां महत्व नहीं रहेगा तो मन को सूक्ष्म जड पदार्थ कह सकते हो अथवा शरीर को मन का स्थूल लू तुम किसी किस नाम से पुकारते हो, उससे कोई अंतर नहीं है । गलत ढंग से सोचने के कारण ही भौतिकवाद, इमाम आध्यात्मवाद के बीच संघर्ष से कठिनाइयां उत्पन्न होती है । वास्तव में दोनों में कोई भी नहीं है । मुझे और ही न्यूनतम ओवर में केवल मात्रा का अंतर है । सूर काम अभी हुआ, मैं अधिक कभी मैं उससे बुरा हो जाता हूँ । कभी सूर मुझसे अच्छा रहता है । दरअसल स्वामी जी कहना ये चाहते हैं कि मैं भी ब्रह्मा, तू भी ब्रह्मा, मेज भी ब्रह्मा, रोटी भी ब्रह्मा, चेतन भी ब्रह्मा, अध्यात्मवादी ब्रह्मा और बहुत इक वादी भी ब्रह्मा । फिर फिर कहा रहा सब एक ही माया है । पर अंत में उन्होंने जो माला खडी होगी वहाँ उनकी परीक्षित काव्यमय शैली में दूध में मक्खी सिया पडी, जो कह लीजिए कि उससे सारा गुड गोबर हो गया । इस समन्वय को भौतिकवादी तो को बोलेंगे ही नहीं । डर है कि अध्यात्मवादी भी नहीं कबूली । वेदांती उन्हें कहाँ स्वीकारा? गुरु भाइयों ने उनके जीवन में ही विरोध शुरू कर दिया था । लिखा है एक दिन सायंकाल बलराम बाबू के मकान पर स्वामी जी गुरु भाइयों के साथ वार्तालाप कर रहे हैं । इसी समय उनके एक संन्यासी गुरुभाई ने सहसा प्रश्न किया कि वे श्रीराम कृष्ण का प्रचार क्यों नहीं कर रहे हैं तथा श्रीरामकृष्ण की शिक्षा के साथ उनके द्वारा प्रचारित आदर्शों का सामंजस्य कहाँ है? एकांत भक्ति के साथ अनन्य चित्त होकर साधन भजन की सहायता से केवल ईश्वर की उपलब्धि की चेष्टा करना ही रामकृष्ण देव का आदर्श स्वामी जी पहले का मुस्कुराते रहे । पर जब उस गुरुभाई ने ये कहा कि लोकहित के उद्देश्य से मटर मिशन, वेदांत समिति, सेवाश्रम आदि की स्थापना करने का जो संकल्प आप कर रही है, स्वदेश प्रेम के बीच में से मानव सेवा के व्रत का जो प्रचार कर रही है, वहाँ सब पांच याद आदर्श जैसा लगता है । तब देख कर्ज कर बोले क्या तुम समझते हो कि श्रीरामकृष्ण को तुमने मुझसे भी अधिक समझा है? क्या तुम समझते हो कि ज्ञान शिष्ट पंडित के मात्र हैं जो हृदय की को मृत्यु का विनाश कर एक शुष्क उपाय के अवलंबन से उर्पाजन किया जाता है । तुम जिस भक्ति का उल्लेख कर रहे हो, वहाँ मूर्खो भी भावुकता मात्र है जो मनुष्य हो का पुरुष और कर्म प्रमुख कर डाल दी है । छोडो इन बातों कौन तुम्हारे श्रीरामकृष्ण को चाहता है? शास्त्र क्या कह रहे है या नहीं कह रहे हैं कौन सुनता है यदि मैं होर तमोगुण में डूबे हुए अपने स्वदेश वासियों को कर्मयोग के द्वारा अनुप्राणित कर वास्तविक मनुष्य की तरह अपने पैरों पर खडा कर देने में समर्थ हूँ तो मैं आनंद के साथ लाख लाख बार नरक चाहूँ मैं तुम्हारे रामकृष्णा याने किसी का चेहरा नहीं हूँ । जो लोग अपनी भक्ति मुक्ति की कामना को छोड दरिद्रनारायण की सेवा में जीवन को चक्रित करेंगे, मैं उन्हीं का छेला भेज दिया । क्रिकेट ऍम रामकृष्ण परमहंस के संदेश यत्र जीव तत्र शिव जीव की सेवा करो का अर्थ विवेकानंद ही समझ पाए थे और ये बाद भी वही समझ पाए थे कि उनके गुरु ऊपर से भक्त और भीतर से क्या नहीं थी । इसलिए विवेकानन् महीने गुरु से विरासत में मिले खोल का विस्तार और ज्ञान का विकास किया । उनकी ये गुरु भाई रामकृष्ण के संदेश को समझने और खोल के भीतर झांकने में असमर्थ थे और उनके लिए भक्ति मुक्ति, मुर्खतापूर्ण भावुकता ही सब कुछ । इसलिए उन्हें विवेकानंद का देश सेवा और चंद सेवा का प्राणांत प्रण पास चार के आदर्श जैसा चान पडना स्वाभाविक था । जाने अनजाने शासक शोषण का हित पोषण करने वाले ऐसे ही लोगों ने रामकृष्ण ही नहीं, विवेकानंद के भी सिर्फ फूल ही की मान प्रतिष्ठा, पढाई और उस पर मूर्खतापूर्ण भावुकता की नई नई पढते चढाये लेकिन इन दोनों महापुरुषों के ज्ञान को मोटी मोटी पुस्तकों और स्मारकों में रखना चाहिए । दफ्ना इसलिए दिया कि विवेकानंद हमारे राष्ट्रीय चिंतन को उन्नीसवी सदी के अंत तक विकसित करके भौतिकवाद के कगार पर ले आए थे । उसे अब और आगे बढाना सोशण की इस व्यवस्था के लिए खतरे का सिगनल जिस पर भक्ति मुक्ति का दर्शन निकाला है । लेकिन अगर हमें देश को वर्तमान स्थिति से आगे ले जाना है तो राष्ट्रीय चिंतन को जहाँ पहुंचाकर छोड कर गए हैं, उससे आगे ले जाना आवश्यक है । तेरे ऐतिहासिक भौतिकवाद के सिद्धांत द्वारा को देखो खोल से अलग करके ये देखेंगे कि विवेकानंद हमारे राष्ट्रीय चिंतन को किस बिंदु तक ले आए और उसे अब क्यों कर आगे बढना है । इसके लिए हमें उनके चिंतन के अंतर्विरोध को समझना होगा । जो वास्तव में उनका अपना नहीं, उस उभरते हुए बुर्जुवा वर्ग का अंतर्विरोध हैं, जिसके लिए प्रवक्ता थे । विश्लेषण के लिए हम उनकी उक्त सुबह वाली उपमा को लेंगे और देखेंगे कि मुझे और सुबह में केवल मात्र का अंतर है । सुगर कम अभिव्यक्त हुआ और मैं अधिक का खट रात । क्या वेदान्त दर्शन के अनुसार उच्चतम से लेकर निम्नतम और दृष्टिता मनुष्य तक में मनुष्यों में महानतम व्यक्तियों से लेकर हमारे पैरों के नीचे रेंगने वाले खेडे तक में शुद्ध और पूर्ण आनंद और सादा मंगलमय आत्मा विद्यमान चीजें में आत्मा अपनी शक्ति और शुद्धता का एक अनुकूल शुद्ध अंशी व्यक्त कर रही है और महानतम मनुष्य में उनका सर्वाधिक अंतर अभिव्यक्ति के परिमाण का मूल तत्व में नहीं । सभी आत्माओं में वही शुद्ध और पूर्ण आत्मा विद्यमान । मतलब ये कि चींटी, स्वर और मनुष्य में एक ही शुद्ध, पवित्र और पूर्ण आत्मा है क्योंकि वह शुद्ध, पवित्र और अनंत ब्रह्मा के अतिरिक्त कुछ और नहीं । अंतर सिर्फ ये है की छूटी में वहाँ सोवर से कम अभिव्यक्त और मनुष्य मैं सुबह से अधिक अभिव्यक्त है । कभी चींटी की आत्मा सोवर और सुबह की श्रेष्ठतम मनुष्य बन जाएगी । वो कैसे मनबहादुर पन है जिसमें आत्मा अपने को प्रतिबिंबित करती है । जैसे जैसे मान परिवर्तित होता है, उसका रूप विकसित एवं अधिकारिक निर्मल सा होता जाता है और वहाँ आत्मा का अधिक उत्तम प्रतिबिंब देने लगता है । यह क्रम इसी प्रकार चलता रहता है और अंततः वहाँ इतना शुरू हो जाता है कि वहां आत्मा के गुड का पूर्ण प्रतिबिंबन कर सकता है, समात्मा मुक्त हो जाती हैं । आत्मा का लक्ष्य मुक्ति है और मुक्ति प्राप्त करने के लिए उसे संसार में जितनी जी उतनी ही योनियों में से होकर गुजरना पडता है । एक जन्म से दूसरे जन्म में जाने का क्रम ये बताया गया है । आज माइक निम्नतर देहद धारण करके उसके माध्यम से अपने को व्यक्त करने का प्रयास जैसा करती है, वहाँ उस को अपर्याप्त पाती है, उसे त्यागकर एक उच्चतर देश धारण करती है । उसके द्वारा वो अपने को व्यक्त करने का प्रयत्न करती, वहाँ भी अपर्याप्त पाए जाने पर त्याग दी जाती है और वह उच्चतर दी आ जाती है । इसी प्रकार यक्रम एक ऐसा शरीर प्राप्त हो जाने तक निरंतर चलता रहता है जिसके द्वारा आत्म मुग्ध हो जाती है । विवेकानंद के अनुसार यक्रम निम्नतम जीव अमीबा से शुरू होता है । मनुष्य सृष्टि का श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कम प्राणिक अर्थात देख तक पहुंचने पहुंचती । आज मैं अपने को इतना अधिक अभिव्यक्त कर लेती है कि मनुष्य को अपने आत्मस्वरूप होने का आभास हो जाता है और वो सब किसे चरम सत्य आपने ब्रह्मस्वरूप तक पहुंचने के लिए प्रकृति के वृद्ध संघर्ष करता है जो पशु पक्षी तथा दूसरे जीत नहीं करते पाते । लिखा है हम प्रकृति के सहायक होकर नहीं जान में वरन हम प्रकृति के विरोधी होकर जान में हैं हम ना मंदिर वाले होकर भी व्यर्थ बंदे जा रहे हैं या मकान कहाँ से आया । प्रकृति ने तो नहीं दिया प्रकृति कहती है जाओ जंगल में जा कर रहा हूँ । मनुष्य कहता है नहीं मैं मकान बना होगा और प्रकृति के साथ युद्ध करूँ और वैसा कर भी रहा है । मानव जाति का इतिहास प्रकृति नियमों के साथ उसके युद्ध का इतिहास है और अंत में मनीष ही प्रकृति पर विजय प्राप्त करता है । अंदर जगत में जाकर देखो, यहाँ भी यही युद्ध चल रहा है । पशु, मानव और आध्यात्मिक मानव, प्रकाश और अंधकार का ये संग्राम निरंतर जारी है । मानव यहाँ भी जीत रहा है । मुक्ति की प्राप्ति के लिए प्रकृति के बंधन को छीलकर मनुष्य अपने गंतव्य मार्ग को प्राप्त कर लेता है । प्रकृति के विरुद्ध अपने संघर्ष में मनुष्य उच्चतर से उच्चतर स्थिति को प्राप्त करता श्रेष्ठ से श्रेष्ठ कर बनता चला जाता है । आपने देवता आपने उपास से संबंधी उसकी धारणा भी उत्कृष्ट से उत्कृष्ट पर होती चली जाती है । इस संघर्ष में उपासक और उपास्य दोनों निरंतर बदलते आए हैं । लिखा है तुम से पृथक ईश्वर नहीं अठारह था, जो हो उससे श्रेष्ठतर ईश्वर नहीं है । सब ईश्वर या तीव्रता ही तुम्हारी तुलना में शुद्ध डर है । ईश्वर और स्वर्ग स्थपित आदि की समस्या धारणा तुम्हारा ही प्रतिबिंब मात्र है । ईश्वर स्वयं भी तुम्हारा प्रतिबिम् या प्रतिमा स्वर्ग है । ईश्वर ने मानव की आपने प्रतिबिंब रूप में श्रृष्टि ये भूल है । मनीष ईश्वर की नीच के प्रतिबंध के अनुसार श्रृष्टि करता है । यही बात सकते हैं समस्त जगत कि में हम अपने प्रतिबिंब के अनुसार ईश्वर अथवा देवगन भी श्रृष्टि करते हैं । भौतिकवादी जर्मन दार्शनिक फितूर बात यही कहता है कि मनुष्य ने अपनी कल्पना के अनुरूप ही ईश्वर की सृष्टि की आदि मारने प्रकृति का जैसा भयंकर रूप देखा, वैसे ही देवताओं की सृष्टि जब निरकुंश राजा अपने को धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि या प्रतिछाया कहता था, देवेश्वर स्वयं आकाश पर अर्थात स्वर्ग में रहता । जब लोकतंत्र आया और हर एक को मताधिकार मिला तो ईश्वर बिना सिर्फ धरती पर उतर आया, बल्कि हर एक घट घट में बस कर विवेकानंद ने न्यूयॉर्क में राज्यों पर भाषण देते हुए कहा था संपूर्ण जगत को वशीभूत करना और सारे प्रकृति पर अधिकार हासिल करना, इस बृहत का यही को योगी अपना कर्तव्य समझते हैं । एक ऐसी अवस्था में जाना चाहते हैं, जहाँ हम जिन्हें प्रकृति के नियम कहते हैं, वे उन पर कोई प्रभाव नहीं डाल सकते हैं । जिस व्यवस्था में वे उन सब को पार कर जाते हैं, तब आप ध्यान, तरीक और रम्मा प्रकृति पर प्रभुत्व प्राप्त कर लेते हैं । मनीष जाती की उन्नति और सभ्यता इस प्रकृति को वशीभूत करने की शक्ति पर ही निर्भर है और फिर जैसा की भी हमेशा करते थे, धर्म का विज्ञान से सामंजस्य स्थापित करने के प्रयास में कहा बहीर वादी और अंतर वादी अर्था बहुत इक वादी और आदर्शवाद जब विज्ञान की चरम सीमा प्राप्त कर लेंगे, तब दोनों अवश्य ही स्थान पर पहुंच चाहेंगे । जैसे भौतिकविज्ञानी जब अपने ज्ञान को चरमसीमा पर ले जाएंगे तो उन्हें दार्शनिक होना होगा । उसी प्रकार दार्शनिक भी देखेंगे कि वे अपने मन और भूत के नाम से जो दो भेद कर रहे थे, वास्तव में कल्पना मात्र है तो मैं एक दिन बिल्कुल भी हो जाएगा । लेकिन भौतिकवादी पूछते हैं कि अगर मनुष्य प्रकृति के विरुद्ध ही संघर्ष में परिष्कृत से परिष्कृत होता चला जा रहा है और जैसा की हम देख चुकी हैं, जैसे जैसे भौतिक परिस्थितियां बदल रही है, प्रकृति का विकास उत्तरोत्तर उच्चतर से उच्चतर संघात तो की ओर अग्रसर हो रहा है, वैसे वैसी मनुष्य के विचार भी बदलती तथा उत्कृष्ट से उत्कृष्ट तार होते चले जा रहे हैं तो उसमें आत्मा परमात्मा की कल्पित पंख लगा देना क्यों आवश्यक है? जो देश का नियमित से परे हैं, उसके अस्तित्व का क्या प्रमाण है? जो इंद्रिया तित है, उसका साक्षात्कर कैसे संभव? अगर एंद्रिया तित सत्य का साक्षात ही आनंद ज्ञान और अनंत सुख की उपलब्धि है तो हमें इंग्लैंड अथवा पातशाह के देशों से इस लोग में सुखी रहने के उपाय सीखने और बदले में उन्हें अनंतकाल तक सुखी रहने के उपाय बताने का अर्थ क्या है? पेरिस इंद्रिया तित सत्य ईश्वर का साक्षात करने की धुन में जंगल जंगल घूमने वाले योगियों को जब भूख लगती है तो वे गृहस्थी के द्वार पर जाकर क्यों अलग जगह हैं? क्यूसी के नाम से पेट नहीं भर लेते की अलग निरंजन कहकर वे अपनी ये पराजय स्वीकार नहीं करते की हमने उसे बहुत खोजा, पर देखा नहीं, उसे देख पाना संभव नहीं । किसी भी आदर्शवादी के पास इन और ऐसे ही अनेक प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं । उपनिषदों की आजमा संबंधी का गांव में जो सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है, उसमें भी नचिकेता जब हम से पूछता है की मृत्यु के बाद आत्मा रहती है या नहीं तो यह बालक के इस प्रश्न से भयभीत हो जाता है जब बहुत समझाने और प्रलोभन देने के बाद भी नचिकेता का आग्रह बना रहता है । यम खिन्न मन से उत्तर देता है । जिस आत्मा के संबंध में जिस पर लोकतत्र के संबंध में तुमने प्रश्न किया है, वहाँ वित्त मोह से मूड बालकों के हफ्ते में उदित नहीं हो सकता । मन को वृद्धा तरफ से चंचल करना उचित नहीं । कारण परमार्थ तत्व तक का विषय नहीं । वहाँ तो प्रत्यक्ष अनुभूति का विषय और यम के इस उत्तर की व्याख्या करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर छोडकर विवेकानंद कहते हैं । हम लोग बराबर सुनते आ रहे हैं कि प्रत्येक घर में विश्वास करने पर बल देता हैं । हमने आंखे बंद करके विश्वास करने की शिक्षा पाई है । ये अंधविश्वास सचमुच की बुरी, बस इसमें कोई संदेह नहीं । पर यदि संघ विश्वास का हम विश्लेषण करके देखें तो क्या होगा की इसके पीछे एक महान सत्य ये महान सकते क्या है ये विवेकानंद भी नहीं बातें आपने एक दूसरे भाषण, तर्क और धर्म में वे धर्म का विज्ञान से सामंजस्य स्थापित करने के प्रयास में कहते हैं, हम पूर्ण गया एक हैं । हम भौतिक रूप से एक है, मानसिक दृष्टि से एक है और स्पष्ट हाँ, आत्मिक दृष्टि से तो एक ही है बशर्ते की हमारी आस्था हूँ तो आस्था अंधविश्वास के आगे तर्क का आपने टेक देना ही महान सके । हुआ इसका मतलब ये हुआ की और धर्म के अंधविश्वास और रहस्यवाद को मानो या ना मानो पर उपनिषदों के अंधविश्वास और रहस्यवाद को अवश्य और समझकर मानव की एक महान सकते हैं । क्या यह भक्ति मुक्ति की मूर्खता को प्रश्रय या देना नहीं है? दरअसल मूर्खतापूर्ण भावुकता धर्म का पहनना है, पर तर्क चूकी विवेकानंद के जीवन का संभाल रहा है, क्योंकि उनका चिंतन उस हद तक वैज्ञानिक था, जिस हद तक उभरते हुए वो युवा के उत्कृष्ट प्रवक्ता का होना संभव था और चूकी उन्होंने विद्यांत दर्शन, परक्रम विकास का सिद्धांत लागू किया है । इसलिए मैं उसे अपने ग्रुप भाइयों की तरह सहेज में बच्चा नहीं बातें व्यवहारिक जीवन में वे दान भाषण में भी कहते हैं । धर्म जो भी दावा करता है, तर्क की कसौटी पर उन सब की परीक्षा करना आवश्यक है । धर्म ये दावा करता है कि वह डर के द्वारा परीक्षित होना नहीं चाहता हूँ । ये कोई नहीं बदला सकता । तर्क के मानदंड के बिना किसी भी प्रकार का यथार्थ निर्णय धर्म के संबंध में भी नहीं दिया जा सकता । धर्म कुछ विभाग से करने की आज्ञा दे सकता है । धर्म के विपक्ष के रूप का इतिहास साक्षी है । विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं । हमारे धर्म का अनर्थ यह है कि उसने हमें आत्मकेंद्रित बना दिया । हाँ, विवेकानन्द खुद मानती हैं । अब तक हमारे भारतीय धर्म का बडा दोष दो शब्दों के ज्ञान में नहीं आ रहा । संन्यास और मुक्ति केवल मुक्ति की बात गृहस्थी के लिए कुछ नहीं । दूसरे भौतिकवाद भी अब द्वंद्वात्मक तथा ऐतिहासिक भौतिकवाद तक विकसित हो गया है । उसने भी इसी तथ्य को समझ लिया है कि संसार में जो कुछ हम देख रहे हैं, वह एक पदार्थ ही के अनेक रूप हैं । पदार्थाे वर्ष, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, अजय, अमर सत्ता है । अध्यात्म वादियों ने जिसका नाम ईश्वर रखा । अध्यात्मवाद ियों ने अपने कल्पित भगवान में जितने गुण आरोपित किए हैं, ये सब पदार्थ में मौजूद हैं । गति के बिना बदार का कोई स्थित नहीं । पदार्थ की अगति देश और काल में होती है । पदार्थ के बिना देश और कालका देश और काल के बिना पदार्थ का कोई असर बनेंगे, यही आइन्स्टाइन का सापेक्षतावाद है । वर्णात्मक भौतिकवाद का सिद्धांत बीस नियम का अपवाद नहीं हेगल ने अपने चिंतिन की चरम सीमा निर्धारित कर के क्रम विकास के सिद्धांत को झुक लाया था और विवेकानंद ने भी झुक लाया है । लेकिन भौतिकवादी मानव चिंतन की कोई सीमा निर्धारित नहीं करते, उस पर विराम चिन्ह नहीं लगाते हैं । वन धरात्मज भौतिकवाद का सिद्धांत, मार्क्स और फॅसने प्रतिपादित किया । लेनिन और माओत्से तुमने उसे विकसित किया और समृद्ध बनाया । उनके अलावा और अनेक मार्क्सवादी विचारक उसे कमोबेश विकसित कर रहे हैं और समृद्ध बना रहे हैं । ये विकास तब तक जारी रहेगा जब तक जीवन है । फिर द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के किसी भी स्तर पर मनुष्य प्रकृति के नियमों का उल्लंघन नहीं करता और ना वहाँ उनसे ऊपर उठता है, बल्कि वहाँ उन्हें समझकर उन्हें उपयोग मिलाता और उनसे लाभ उठाता है । वर्णनात्मक भौतिकवाद ने यह सिद्ध कर के गति और चेतना पदार्थाे के गुण हैं । अध्यात्मिक अद्वैतवाद को भौतिकवाद बना दिया है । यो दर्शन विज्ञान बन गया है और विज्ञान, दर्शन, ईश्वर कल्पना अर्थात अमृत्व की भावना ने जिस चोर दरवाजे से साल के दर्शन में प्रवेश किया था, वहाँ चूर दरवाजा बंद करवा दिया है । विज्ञान का धर्म से कदाचित कोई समझौता नहीं । मार्क्स कहता है किसी राष्ट्र का सिद्धांत उसी हद तक यथार्थ हैं, जिस हद तक वहाँ उस राष्ट्र की आवश्यकताओं का यथार्थ ठीक रन कर पाता है । इसी बात को मौत से तुमने योग कहाँ है? दर्शन का भविष्य सामाजिक वर्गों की आवश्यकताएं पूरी करने पर ही निर्भर है । वेदान्त दर्शन के सिद्धांत ने हमारे देश के शोषक वर्गों की सामाजिक आवश्यकताओं को कैसे पूरा किया? उसके इस व्यावहारिक पक्ष पर हम अगले परिच्छेद में विचार करेंगे । पर सैद्धांतिक पक्ष पर विचार करके हम ये देख चुके हैं कि मूख्य अथवा निर्माण की इच्छा पहले पहल शोषक वर्गों के मन में ही उत्पन्न हुई । शरीर और मन से परे आत्मा नाम की स्वतंत्र तत्व की कल्पना करने तथा उसे चोर दरवाजे से सांख्य दर्शन में प्रविष्ट करने वाले भी वही है । इस संदर्भ में विवेकानंद की ऐतिहासिक भूमिका यह है कि उन्होंने वेदांत दर्शन में क्रमविकास का सिद्धांत जोड कर इसे साम्राज्यवादी और तथाकथित सुधारकों के विरुद्ध लडने का शास्त्र बनाया और यहाँ से हमारे देश के उभरते हुए पूंजीपति वर्ग की सामाजिक आवश्यकता के अनुकूल बनाने का प्रयास और हम ये भी देख चुके हैं कि अपने इस प्रयास में में धर्म की चरम सीमा का अतिक्रमण कर जाते हैं । अतिक्रमण करना अनिवार्य था क्योंकि धर्म का विज्ञान से सामंजस्य मुंबई नहीं । अरे समझ विपक्ष अर्थात विज्ञान जब ये घोषणा करता है की आत्मा की स्वतंत्रता मात्र है । तब विवेकानंद अपने धर्म के मूल तक लेख में इसी सामंजस्य के चक्र में पढकर लिखते हैं । अभी और तो स्वतंत्रता को भ्रम घोषित कर उसकी सत्ता की स्वीकृति कोई समाधान नहीं । दूसरी ओर हम ये क्यों ना कहे की आवश्यकता अथवा बंधन अथवा करन का विचार अज्ञानियों का एक भ्रम मात्र है । कोई भी सिद्धांत जो विवेच्य कथ्यों में से उन सबको पहले काटकर अलग फेंक देता है जो उनके अनुकूल नहीं पढते और तब अपने अनुकूल व्यक्तियों को लेकर समग्र की व्याख्या का दावा करता है । स्पष्ट यहाँ एक भ्रामक सिद्धांत है, अशुद्ध सिद्धांत है । अतः हमारे लिए एकमात्र शेष मार्ग यही है कि हम स्वीकार करे की प्रतिबद्धता ना शरीर स्वतंत्र है और ना अच्छा ही बल्कि मन और शरीर दोनों से परे निश्चय कि कोई ऐसा तथ्य होगा जो स्वतंत्र हैं और सोचिए इसको होगा क्या यार ये विवेकानंद का अपना तर्क वितर्क आखिर में इस कदर दुविधा में पड जाते हैं कि और से आगे कुछ कहते ही नहीं बन पडता कहने कुछ था ही नहीं जब इस प्रकार दुनिया में पडे हुए थे हमारा तत्कालीन राष्ट्रीय का वीक्षक मस्त समझती पक्ष की घोषणा निसंकोच समर्थन करता है । जिंदगी क्या है उन असर में जरूरी तरती मौत क्या है इंडिया जजा का परेशान अर्थात जीवन क्या है? पंचतत्वों के संगठन की अभिव्यक्ति और ही तत्वों के विकेट । इनका नाम मृत्यु लेनिन का मत है । मनुष्य को एक ही जीवन रहने को मिलता है । वहाँ इस प्रकार चाहिए कि मरते समय मन में यहाँ खेल उत्पन्न हो कि मैंने इससे व्यर्थ खो दिया ।

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स्वामी विवेकानंद की अमरगाथा.... Swami Vivekanand | स्वामी विवेकानन्द Producer : Kuku FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava
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