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Chapter 7 जगत का स्वरुप in Hindi

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16 K Listens
Authorरमेश सिंह पाल
Apana Swaroop | अपना स्वरुप Producer : KUKU FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava Producer : Kuku FM Author : Dr Ramesh Singh Pal Voiceover Artist : Raj Shrivastava (KUKU)
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अध्याय साथ जगत का स्वरूप किसी भी वस्तु के निर्माण के लिए कम से कम तीन चीजों की आवश्यकता होती है । पहला उपादान काॅस्ट दूसरा निमित्त कारण फॅस । तीसरा क्रिया काॅस्ट एक उदाहरण में समझा जा सकता है । एक घर को बनाने के लिए हमें मिट्टी की आवश्यकता होती है । मिट्टी यहाँ पर उपादान कारण है । मिट्टी अपने आप घर नहीं बन सकती उसके लिए कुम्हार निमित्त कारण है । उसी प्रकार जगत के निर्माण के लिए भी ये तीन चीजें होना जरूरी है परंतु उपनिषद वेदांत के अनुसार ब्रह्म ही जगत का अभिन्न निमित उपादान कारण है अर्थात वही घर की मिट्टी है, वही कुम्हार है और वही सहयोग । उपनिषद कहते हैं कि ब्रह्म के अलावा कुछ है ही नहीं । जिस प्रकार भगवत गीता में आता है वासुदेव सर्वर सबकुछ वासुदेव ही है । सत्रह जो भी है वही है अमृत चयन मृत्यु सदस्य हमर जिन तथा वे अनादिकाल से है तथा उन को ना सत कहा जा सकता है ना असद वेन दोनों से पर ये है क्योंकि उनके अलावा कुछ भी नहीं अलादीन तब रम रमाना सत्य ना सब अच्छे थे । मुंडकोपनिषद में तीन उदाहरणों के द्वारा ब्रह्मा का अभिन्न निमित्त उपादान कारण होना सिद्ध किया गया है । पहला जैसे मकडी अपना घर बनाने के लिए मटीरियल बाहर से नहीं लाती है । वो अपने अंदर से ज्यादा निकालती है और फिर उसे अपने ही अंदर ले लेती है । उसी प्रकार ब्रह्मा अपनी से ही जगत की उत्पत्ति करते हैं और फिर उसे अपने में ही संभाल लेते हैं क्योंकि उत्पत्ति उसकी होती है जो पहले न हो । ये जगत अनंतकाल से ब्रह्मा प्रकट होता है और फिर उसी में समा जाता है इसलिए उसे व्यक्त और अव्यक्त कहा जाता है । पृथ्वी अपने आप में जड है, बहन, दूसरे पेड पौधे तथा अन्य जीवित प्राणी उत्पन्न होते हैं तथा जीवित प्राणी मनुष्य के शरीर से निर्जीव बाल केशव पन्ना होते हैं । अतः इन दोनों उदाहरणों में स्पष्ट है कि जब जड वस्तु जीवन को व्यक्त कर सकती है और जीवित मनुष्य में से जड वस्तु का उदय हो सकता है तो उपादान कारण निमित्त कारण भी बन सकता है और यही हुआ है । एक बार में कहीं जगत की उत्पत्ति के बारे में बात कर रहा था तो कॉलेज में पढने वाले छात्र ने मुझसे पूछा फिर लेकिन हमने तो जगत की उत्पत्ति के बारे में ब्लैक होल, तेरी और बिगबैंग मेरी बडी है और आपकी उपादान और नाम ित्य कारण बता रहे हो क्या जो साइंस में बताया है वो गलत है? मैं थोडी देर शांत रहा । फिर मैंने उससे पूछा ये होल क्या होता है? फॅमिली फाइन होल । अब वो स्टूडेंट शांत हो गया । फिर मैंने उसे कहा देखो होल माने अभाव जैसे दीवार में छेद तो क्या बिना दीवार के होल संभव है? तो ये जो ब्लैक होल है ये होल किसमें है? होल बनने के लिए पहले कुछ तो चाहिए जिसमें ये होल है उसी को तुम रमाया परमात्मा कह सकते हो । ये ब्लैक होल का बनना क्रिया हो सकती है । परंतु इसमें करता और कारण परमात्मा के सिवा कुछ नहीं । उसी प्रकार बिगबैंग खेल में विस्फोट हुए जिसके कारण ये पिंडी टकराये । लेकिन किससे टकराए लेकिन इन सब में परमात्मा ही हैं उपादान कारण और नृत्य कारण जो जगह हम देख रही है, ये उस कारण का कार्य है । एक और उदाहरण समझ लेते हैं । परमात्मा कार्य और कारण को आधार होते हुए भी इन दोनों से परे हैं । जैसे समुद्र में लहरें उठती है । इसे समुद्र कारण हो गया है, उपदान भी और नियमित भी, क्योंकि अगर समुद्र नहीं है तो लहरें आ ही नहीं सकती और लहरें उस कारण का कार्य हो गई लेकिन अगर पानी की दृष्टि से देखा जाए तो ना कारण है और न कार्य । अगर पानी से कोई बोले कि आप जब समुद्र या महासागर के रूप में होते हो तो बहुत डरावनी लगते हो परंतु जब लहरों के रूप में होते हो तो बहुत सुन्दर लगते हो तो पानी कहेगा ये समुद्र क्या होता है और ये लहरे क्या होती है? क्योंकि पानी की दृष्टि में चाहे समुद्र हो, लहरें हो या बर्फ के तूफान, सब पानी है उसी प्रकार परमात्मा की दृष्टि में कारण कार्य है ही नहीं क्योंकि वो अकेला मात्र है । एक मेवा द्वितीय नाॅक उसी परमात्मा में अनेक श्रृष्टि बनती और बिगडती है परंतु वो जियो का त्यौहार है । थोडा हमारी बुद्धि होती है । ये स्कूल बुद्धि कहलाती है । जब चार और चिंतन के बहुत पडी है जो हमेशा हमें कैसे पैसे कमाना है, कैसे बढिया ऐशो आराम से जीना है, इन्हीं सब में लगी रहती है । अगर हमें अपने और परमात्मा के बारे में जानना है तो हमें सूक्ष्म बुद्धि साॅफ्ट को जाग्रत करना होगा । शुद्ध बुद्धि वो है जो हमें अपना ज्ञान करा सकती है । इसी के माध्यम से हम अगर विचार चिंतन करें तो हम पाएंगे कि जब हम कहते हैं समुद्र में पानी बहुत गहरा है या इस आभूषण में सोना है तो हम गलत कहते हैं । जरा सोचेंगे तो पता चलेगा कि समुद्र में पानी नहीं है, पानी में समुद्र है, आभूषण में सोना नहीं है, सोने में आभूषण है, ठीक उसी प्रकार हम जगत में नहीं है । हम में ही ये जगत है । एक बार किसी ने मुझसे पूछा था कि सृष्टि का निर्माण कब हुआ है? तो मैंने उससे प्रश्न के बदले में प्रश्न पूछा डर पन में प्रतिबिंब कब से दिखाई दे रहा है तो वो चुप हो गया और थोडा सोचकर बोला हमेशा से फिर मैंने कहा उसी प्रकार ये जगत हमेशा से है परंतु तुम्हारे लिए ये तब से है जब सितम पैदा हुए अर्थात इस देने के रूप में व्यक्त हुए और इस दे हमें भी ये जगह तुमको तभी भाजपा है जब तुम्हारी इंद्रियों के साथ संसार के विषय रंग रूप का व्यापार होता है अन्यथा गहरी नींद डीप स्लीप में बताओ तुम्हारे लिए संसार कहाँ चला जाता है? ये जगह माँ चीजों के कारण ही सत्य सा प्रतीत होता है । भगवान शंकराचार्य कहते हैं अस्सी भर्ती प्रियम रूपए नाम चेंज शपथ चकम आदित्य ऍम ब्रहमा । रुपम जगह रुपए तक तो हम ये पांच चीजें हैं अस्ती, सत्य, भारतीय, ॅ, नाम, विषय और रूप । विषयों का आकार । पहला अस्सी का अर्थ है सत्ता सब जिन भी वस्तुओं में हम हैं, लगाते हैं अर्थ होना जैसे किताब है, बैन हैं, पेड है, कुत्ता है, गिलास है, घर है, मनीष है, पंखा है । जो भी वस्तु हमें है के रूप में दिखती है या अनुभव में आती है उसको अस्ती कहते हैं । भर्ती चिट जो भी वस्तु हमें सजीव नजर आती है अर्थात जिनमें चेतनता प्रकट हो रही हैं जैसे कीडे, मकोडे, जानवर तथा मनुष्य ये सभी भर्ती में आते हैं । प्रिया आनंद सत्र का विस्तार चित है और चित का विस्तार आनंद हमें से ऐसे समझ लेते हैं । सत्य परमात्मा है । चित्र परमात्मा की शक्ति और आनंद उस परमात्मा की शक्ति की अभिव्यक्ति है । तीनों सत चित आनंद को मिलकर सच्चितानंद कहा जाता है तथा इन तीन शब्दों के द्वारा परमात्मा को लिखाया जाता है । सब परमात्मा की चित्शक्ति आनंद के रूप में केवल मनुष्यमात्र में अभिव्यक्ति होती है । जैसे बिजली केवल बल्ब में ही अभिव्यक्ति होती है, पत्थरिया दीवार में नहीं । इसको ऐसे भी समझा जा सकता है । ईट पत्थर में परमात्मा केवल सत्ता सत मात्र के रूप में प्रकट होता है । पीडित पौधों में परमात्मा सत्ता के साथ जीवन के रूप में प्रकट हो रहा है । कीडे मकोडों से लेकर बडे जानवर तक परमात्मा सत्ता, जीवन तथा ज्ञान के रूप में प्रकट हो रहा है । उदाहरण के तौर पर जब कोई मनुष्य एक बगीचे में बहुत से सुंदर फूलों को देखता है तो वो आनंद को प्रकट करता है और उन्हें फूलों को यदि एक भेज देखती है तो उसे आनन्द प्रकट नहीं होता । वो उससे पेट भरने की सोचती है और उन फूलों को खा लेती है । जानवरों को आनंद के लिए भोग पर अवलंबित रहना पडता है । भोग के द्वारा उनको तृप्ति मिलती है परंतु मनुष्यों को आनंद के लिए भोग पर अवलंबित रहने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि समझदार मनुष्य जानता है कि आनंद तो उसका अपना स्वरूप है । वह भोग के बिना भी आनंद को प्रकट कर सकता है क्योंकि आनंद बाहर की वस्तुओं में नहीं है । आनंद हमारे अंदर ही है । इस विषय पर बाद में विस्तार से चिंतन किया जाएगा । चौथा नाम रूप जगत का चौथा घटक है । इस जगत में जो भी हमें वस्तु दिखती है सबसे पहले उसका नाम याद किया जाता है । जब हम पैदा होते हैं तो सबसे पहले एक नाम दे दिया जाता है । संबोधन के लिए इसी प्रकार हर वस्तु का जो भी नहीं दिखाई देती है उसका नाम दिया जाता है । संचार के सारे पदार्थ अगर देखा जाए तो पंचमहाभूत से ही बने हैं परन्तु हमें असम के अलग अलग वस्तुएं दिखाई देती है । पंचमहाभूत संगठन, आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इनके द्वारा इतने विविधता निर्माण हो गई और हम इस नाम और रूप को सत्य मान लेते हैं । उन्हीं पंचमहाभूतों से मनुष्य देखा बना है और उन्हीं से सब चराचर जगत जो वायु मनीष दे हमें है, वही वायु बाहरी जगत में है । जो पंचमहाभूत व्यक्ति में है वहीं सृष्टी में है । फिर नामरूप की ये विविधता कहाँ से आई और हमें नामरूप को सत्य मान बैठे यहीं से जगत का निर्माण हो गया । एक उदाहरण से समझ लेते हैं हम जो माला भगवान के विग्रह को पहनाती है या किसी नेता को क्या माला नाम की कोई वस्तु होती है, मान लो में एक माला लेता हूँ और उसका वजन कर लेता हूँ । उसका वजन मना एक किलोग्राम है । फिर उस माला का जो धागा है उसे कार्ड देता हूँ और फिर सभी फूलों का और धागों का वजन करता हूँ क्योंकि वजन कम हो जाएगा मज्जन उतना ही मिलेगा । लेकिन सवाल यह है कि जब कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, फिर ये माला नाम की वस्तु कहाँ गई? कहीं नहीं गयी क्योंकि माला नाम की कोई वस्तु थी ही नहीं । बस कुछ फूलों को हमने धागे में पिरोकर एक नया रूप तैयार किया और इसको माला का नाम दे दिया । अब यही उदाहरण को लगाए सब जगह जो भी वस्तु आपको दिखाई देती है, चाहे वो कार हो, घर हो, चाहे कुछ भी हो, उसी प्रकार अगर हमें सुधार इनको अपने पर लगाए तो हमारे देख पंचमहाभूतों से मिलकर बना है । इन पंचमहाभूतों को पांच फूल मान लेते हैं और इन पांच फूलों को चैतन्य रूपी धागे में पिरोकर देख रूपी माला बन गई और हम अपने को रमेश, महेश, सुरेश, गणेश, दिनेश नामक नाम से पुकारने लगे और जबकि हमें इन देह उपाधियों के नाम का भी अर्थ पता नहीं । यही जगत का कारण है । यही से जगत का निर्माण हो गया । भगवान भगवत गीता में कहते हैं मत यहाँ पर तरम नान नियत खींच अगस्ती । धनंजय मई सर्वमिदं प्रोथम सूत्रे मणि गन्ना ऍम मुझ से परे कुछ भी नहीं है । मैं जगत से चैतन्य रूपी धागे में बंधा हुआ हूँ । जैसे कोई मणियों की माला, उसमें धागे कारण ही होती है । एक बार की बात है, हम किसी सुनार की दुकान में गए । सुनार हमारा अच्छा दोस्त था । वो हमें जानता था तो मजाक में हम से पूछने लगा, अगर मैं आपको दोस्त होने की मूर्ति दिखाओ जिनमें से एक राम की हो और एक रावण की तो अब घर कौन सी मूर्ति ले जाना पसंद करेंगे? वो कहते हैं, मैं आपको जानता हूँ आप थोडे धार्मिक स्वभाव के हैं । आप तो राम की मूर्ति लेंगे । तब मैंने उसे कहा ये बताओ स्वर्ण ज्यादा किसमें है? राम की मूर्ति में रावण की मूर्ति में वो बोले रावण की मूर्ति में तो फिर हमने कहा हम रावण की मूर्ति ले जाना पसंद करेंगे तो महाशय हंसने लगे और बोले आप भी दब । हमने उनसे कहा देखो सब कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आपका ध्यान कहाँ पर है । अगर हमारा ध्यान नाम ऊपर है तो हम राम की मूर्ति लेंगे और अगर हमारा ध्यान तत्वों पर है तो हम रावण की मूर्ति लेंगे क्योंकि जिस सोने से रावण की मूर्ति बनी है उसी से राम अब क्या अब ये कहेंगे कि रावण की मूर्ति वाला स्वर्ण अपवित्र है और राम वाला पवित्रा नहीं दोनों स्वर्ण नहीं है चाहे वो राम हो या रावण । हमने एक बार और कहीं की रह अक्सर जो राम में है क्या वह रह अक्सर जो रावण में है उस से अलग हैं । जब तक हम रंग रूप नाम में फंसे है हमें संसार दिखाई देता है परंतु जब हम नामरूप बता देते हैं तो हमें जगत में परमात्मा के दर्शन होते हैं । जब संन्यास की दीक्षा दी जाती है तो गिरजा होम किया जाता है जिसमें जिसको सन्यास दिया जाता है वो अपना दाह संस्कार स्वयं करता है और वहाँ पर सन्यासी स्पष्ट इकरम का उच्चारण किया जाता है । नाकर मनाना पराया धन इंटिया आगे ने के अमृतत्व मान शुरू पर एंड ना काम नहीं खतम हो हाय आम िवराज थे यद्यपि यूम विशन्ति जिसमें कहते हैं न कर्म सेना धन से और नानी आयु से ही अमृतत्व की प्राप्ति होती है । केवल नामरूप के त्याग से ही अमृत तत्व की प्राप्ति होती है इसलिए उस मनुष्य को जो संन्यास लेता है उसे अपने नाम का त्याग करना पडता है तथा नाम बदलकर किसी प्रिफिक्स के साथ आनंद लगा दिया जाता है और बताया जाता है कि आनंद बाहर जगत में नहीं है आप ही आनंद स्वरूप हो, नाम के साथ साथ रूप भी बदल दिया जाता है । कुछ अलग तरह के वस्त्र दिए जाते हैं तथा बताया जाता है कि आज से आप संसार की विषय वस्तुओं पर आलम बित नहीं रहोगे क्योंकि महाभारत का लिखते हैं सर्व परिवार से दुख, सर्व आत्मसंतोष, सुख जगत की वस्तुओं पर परावलंबन ही हमारे दुख का मुख्य कारण है और इन सब संस्कारों के हो जाने के बाद जो मनुष्य एक साधारण मनीष था उसको अब महात्मा या स्वामी कहा जाता है लेकिन अगर आजकल देखी थी कुछ लोग सन्यास लेते हैं ताकि वह धर्म के नाम पर उपासना के नाम तथा भक्ति के नाम पर लोगों के मन में भय तथा गिलानी का निर्माण करके अपना काम बना सके । ये लोग संसार की आबादी को छोडकर सो कॉल्ड आध्यात्मिक उपाधि हो । मंडलेश्वर महामंडलेश्वर को छुडा लेते हैं । ये आध्यात्म नहीं है, ये पाखंड है और यही से संसार में भेद निर्माण होता है । मैं हिंदू में, मुसलमान में ये भक्त, मैं, वो भक्त, मैं कम वक्त यही चलता रहता है और हम लोग पूरा जीवन इसी में बर्बाद कर देते हैं । ना अवधूत उपनिषद में पहला ही मंत्रा आता है फिश वादन, ग्रुप देवापुर नाह अद्वेत वासना जिसके जीवन में भगवान की अनुग्रह से सब में एक तत्व को देखने की दृष्टि आ जाती है । उसके लिए जगत, परमात्मा और अपने में कोई अंतर नहीं रह जाता है । लेकिन परमात्मा की अनुग्रह के लिए हमको लायक बनना पडेगा । इसी को शास्त्र की भाषा में कहते हैं तत्व के लिए अधिकारी बनना । अनुग्रह को अंग्रेजी में ग्रेस कहते हैं । इसे घटना याद आती है । एक बार एक बीएससी कक्षा में दो विद्यार्थी फाइनल एग्जाम में एक विषय में फेल हो गए । एक विद्यार्थी को विश्वविद्यालय ने ग्रीस मांस देकर पास कर दिया जबकि दूसरा फेल ही रहा । वो पास नहीं हुआ । अब जो विद्यार्थी फेल हुआ वह कोर्ट में चला गया कि दूसरे लडके को तो पास कर दिया और मुझे पास नहीं किया । कोर्ट में शिक्षक तथा विश्वविद्यालयों के प्रतिनिधि को बुलाया गया । जब दोनों विद्यार्थियों के अंग देखे गए तो पता चला कि विश्वविद्यालय ने जिस विद्यार्थी को पास किया था उसके पैंतालीस अंक थे । जबकि जो विद्यार्थी फेल हो गया था उसकी सात अंक थे । विश्वविद्यालय ने तीन अंक का ग्रेस देकर उसको पास कर दिया । लेकिन जो विद्यार्थी फेल हुआ उसका तर्क था कि विश्वविद्यालय चाहे तीन अंकों का ग्रेज देवयात्रा चालीस अंकों का क्रेज थे, विश्वविद्यालय की जेब से किया जाता है । उसका कोई नुकसान है क्या? आप बताइए कि उसका तर्क तो ठीक ही था कि विश्वविद्यालय की जेब से किया जाता है, लेकिन ऐसा होता नहीं है थी । उसी प्रकार हम आप लोग सोचते हैं । हम चाहे लायक हो या न लायक भगवान का अनुग्रह हम पर होना चाहिए । इसमें भगवान की जेब से किया जाता है, लेकिन ऐसा होता नहीं । जगह हमें शाम आपेक्षिकता के कारण प्रतीत होता है, जबकि परमात्मा सम्पूर्णता है । अगर सापेक्षिता न हो तो जगत है ही नहीं । सापेक्षता के खत्म होने पर जो संपूर्ण बच्चा रहता है वो है परमात्मा । इसको ऐसे समझते हैं । परिवर्तन सापेक्षिता के कारण होता है और हम देखते हैं कि जगत लगातार परिवर्तनीय है । अगर जगत में परिवर्तन हो रहे हैं तो एक अपरिवर्तनीय तत्व का होना आवश्यक है । जो इन सभी दिखाई देने वाले परिवर्तनों का अधिष्ठान आधार है, वहीं परमात्मा है । उसी प्रकार हमारे देर में भी वह नित्य उपलब्ध तत्व होते हैं के सभी परिवर्तनों का आधार है । वही अपना स्वरूप है । भगवान शंकराचार्य दक्षिणामूर्ति स्त्रोतम में बताते हैं विश्वम दर्पण दृश्यमान नगरी तुल्य मिजान डर खतम पश्चिम नाथ मनी माया बही री । वह भूत नाम याद आ गया यह साक्षात कुरुते प्रभूत समय स्वात मान में वाद श्याम दस में श्रीगुरु मूर्तये नमः इदम श्री दक्षिणामूर्त्तये ये जगह दर्पण में एक नगरी के पडे हुए प्रतिबिंब के जैसा है । प्रतिबिंब होता हुआ सब भासता तो है परंतु होता नहीं । जब ये जगत का प्रतिबिंब जब हमारे अंत करण में दिखता है तभी ये जगत हमें भाषा है । देखा जाए तो जगत ने हमारे अंतकरण में प्रतिबंध की तरह प्रवेश किया है और ये प्रतिबिंब हमारे ही कारण है इसकी स्वतंत्र सत्ता रही हैं । ये भारी जगह हमारा ही विस्तार है । थोडा ध्यान से चिंतन करते हैं । जब हम एक पांच सौ लोगों से भरे कॉन्फ्रेंस हॉल में लोगों को देखते हैं तो क्या हम उन्हें अपने अंदर देखते हैं कि बाहर जो लोग साइंस जानते हैं तो जानते होंगे कि बाहर की वस्तुओं का प्रतिबिंब मात्र हमारे रेटिना पर पडता है । वह भी उल्टा तो हम उस उल्टे प्रतिबंध को देखते हैं । अगर वह प्रतिबिंबन ना बने जैसे अंधकार में आंखे बंद होने पर तो वस्तुओं के बाहर होने के बावजूद हम उनको नहीं देख पाएंगे तो बाहर ही वस्तुओं को देखने के लिए उन का प्रतिबिंब हमारे अंदर बनना जरूरी है । आंखों के माध्यम से चीजों का हमारे अंतकरण में प्रवेश होता है और अंतकरण में बने प्रतिबिंब को ही हम देखते हैं । इसलिए अंत करने के बिना बाहर ही जगत के वस्तुओं की सत्ता ही नहीं है । इसलिए ये बहारी जगत के बिना तो हमारा होना सत्य है परंतु हमारे बिना बहारी जगत का अस्तित्व ही नहीं है क्योंकि जो तत्व सच्चितानंद जगत में व्याप्त हैं वही अपना स्वरूप है । क्या समुद्र की लहरों का जल और जिस जाल में समुद्र व्याप्त है अलग अलग हैं? नहीं, दोनों एक ही है । बस हमें रंग रूप, देशकाल, परिस्थिति उपयोगिता के कारण अलग सा प्रतीत होता है । वही परमात्मा जब रंगरूप की उपाधि को धारण करता है, अंतर्जगत कहलाता है, ठीक उसी प्रकार जैसे अब आदमी पुत्र की उपाधि धारण करता है तो वहीं पता कहलाता है और जब वही परमात्मा पाँच कोशों की उपाधि के साथ मान के रूप में व्यक्त होता है तो वह जीव कहलाता है । जैसे एक आदमी जब देश के प्रति एक नागरिक की उपाधि को धारण कर के एक प्रतिनिधि के रूप में व्यक्त होता है, वहीं राष्ट्रपति कहलाता है । दोनों ही स्थिति में चाहे आदमी पिता बना हो या राष्ट्रपति, सत्य आदमी ही है । अगर पुत्र नहीं भी रहा आदमी फिर भी रहता है । उसी प्रकार चाहे देख रहे ना रहे, जगत रहे ना रहे । परमात्मा जियो का तियोंग है और वही अपना स्वरूप है । भगवान शंकराचार्य कहती है वैसी गति कहा काम विकास रहा शुष् के नी रे कहा का सारा श्रेय वित्तीय कहा परिवार हो गया आते तत्व के संसार उस एकमात्र तत्व को जान लेने पर ना मैं बचता है ना यह संसार उसके लिए परमात्मा मात्र के अलावा दूसरी सत्ता है यही

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