Made with  in India

Buy PremiumDownload Kuku FM
Chapter 6 अज्ञान का स्वरुप in  | undefined undefined मे |  Audio book and podcasts

Chapter 6 अज्ञान का स्वरुप in Hindi

Share Kukufm
18 K Listens
Authorरमेश सिंह पाल
Apana Swaroop | अपना स्वरुप Producer : KUKU FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava Producer : Kuku FM Author : Dr Ramesh Singh Pal Voiceover Artist : Raj Shrivastava (KUKU)
Read More
Transcript
View transcript

अध्याय छह अज्ञान का स्वरूप अज्ञान का अर्थ ज्ञान का भाव नहीं बल्कि ज्ञान की अपूर्णता को कहा जाता है, क्योंकि ज्ञान का कभी अभाव नहीं हो सकता है । कुछ तो है पता नहीं क्या है ये स्थिति अज्ञान है या पूर्ण ज्ञान अज्ञान क्या है, इसको समझने का प्रयास करते हैं । मनीष यहाँ केवल विजिबल स्पेक्ट्रम को भी देख सकती है । कॅण्टकी प्रकाश द्वारा प्रकाशित वस्तुओं को देख सकती है । इसी प्रकार मनीष कान बीस से बीस हजार डाॅॅ तक की वो भी सुन सकते हैं । परंतु अगर कोई ये कहे कि जो मुझे दिखाई अथवा सुनाई देता है, मैं बस उसी को मानता हूँ । उससे आगे पीछे कुछ होता ही नहीं तो यह पूर्णज्ञान है । इसे अज्ञान कहते हैं । पेड से पता गिरता है तो उसकी आवाज हमें सुनाई नहीं दी थी । अगर कोई ये कहे कि पेड से पत्ता गिरने की आवाज नहीं होती तो इसको अज्ञान कहेंगे । देवी को ही सत्य मानना यही अज्ञान है । चार हुआ दी लोग कहते हैं भस्मीभूत अस्य देहस्य पुनरागमन को तरह परिणाम कृत्वा घृतम् पिटाई ऍम ऋण लेकर भी ही पीओ, क्योंकि ये देख ही सकते हैं । यही अपना स्वरूप है । सनद कुमार जी कहते हैं कि इस देह को अपना मानना ये तो सरासर चोरी है क्योंकि ना ये देख हमने पैदा किया ना यह देह हमारी बात मानता है । एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं । इस संसार में कोई भी मनुष्य होगी नहीं होना चाहता । वो चाहता है कि उसका शरीर हमेशा स्वस्थ रहे । वो कभी बूढा ना हो लेकिन क्या देखो हमारी बात मानता है । देखो फिर भी बूढा होता है और दे हमें रोग आते हैं । फिर ये देखा हम कैसे हो सकते हैं । अगर हम विचार करेंगे तो पाएंगे कि जब ये देर हम माता की गर्व में था तब भी मैं ही था । लेकिन देख कोई और था । जब ये देख बालक का था तब उसमें भी मैं ही था । जब जवानी का देखा था तब भी मैं तो वही था जो बालक में था । हम नहीं बदले लेकिन ये देख निरंतर रोज बदल रहा है । जब देखो बूढा हो जाएगा तो मैं जो का तो रहूँगा और जब देख नहीं रहेगा तो भी हम रहेंगे यहाँ पर । भगवत गीता कहती है देहिनो! स्मेल था दही तो मारम योग नाम जरा तथा देहांत प्रति रिद्धि रस तत्र जमूरियत थी वह सांसी जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्णाति नरो प्राणी तथा शरीराणि विहाय जीर्णा न्यन्यानि संयाति नवानि देही हमें एक अखंड सकता है केवल इस देख के माध्यम से जगत में हम केवल व्यक्त होते हैं और जब देख नहीं होता तो अव्यक्त अवस्था में रहते हैं । जैसे बीच में पूरा का पूरा पेड रहता है । जैसे जिले में लहरे रहती है वैसे ही हम भी रहते हैं हमेशा अपने स्वरूप शुद्ध चैतन्य में अव्यक्ता दिनी भूतानि व्यक्त मध्यानी भारत अव्यक्त निधान, नानेर तत्र का परी देवना इस संसार में हमारे स्वभाव इस बात पर अवलंबित होता है कि हमने अपने आपको समझा क्या है? क्या हमने अपने आपको दे हम आना है या जीव मारा है या इन दोनों की पारी समझा है । अपने को देख मानना वैसे ही है जैसे हम बिजली को बल्ब मान ले तथा अपने को जीव मानना वैसे ही है जिससे हम बिजली को प्रकाश मान ले । ना बिजली बल्ब है न बिजली प्रकाश बिजली इन दोनों से परे हैं जो बाल भी में प्रकाश के रूप में व्यक्त हो रही है । ऐसे ही शुद्ध चैतन्य परमात्मा जीवन तेरह से पढे हैं । शुद्ध चैतन्य इस देख रूपी बल्ब में प्रकाश रुपये जीव के रूप में व्यक्त हो रहा है अर्थात सत्य चैतन्य है न कि देखो हर चीज बहुत से मनीषियों की समझ में पढकर या महात्माओं की बातें सुनकर ये तो समझ में आ जाता है कि हम ये देखा तो नहीं है परंतु में अपने आपको जीव समझ लेते हैं और फिर हम लोगों को जीत के नाम पर डराया जाता है । पाप पुण्य का चक्कर अच्छी ओनी बुरी उन्नीस वर्ग नर्क जन्म मरण इसमें आदमी फंस जाता है । इसमें ही जीवन बर्बाद हो जाता है । भगवान भगवत गीता में कहते हैं कि मैं सभी जीवों में जीवन हूँ जी नहीं मैं जीवन के रूप में सभी प्राणियों में समान रूप से व्यक्त हूँ । जीवन सर्वभूतेषु अगर किसी स्कूल की परीक्षा में एक प्रश्न आता है जो कि इस प्रकार है हमारे पास पांच तरह के दूध के सैंपल है जिनमें वसा की मात्रा दशमलव पांच, तेरह, चौदह, बारह, दस दशमलव नौ है । तो अगर इन सब पांचों दूध को मिला दिया जाता तो मिश्रण में वसा की मात्रा कितनी होगी । अब अगर इस प्रश्न के उत्तर में कोई छात्र लिखे मान लिया मिश्रण में वसा की मात्रा एक प्रतिशत है और इतना लिख कर छोड दें वाॅश ना करे तो क्या उसको अंक मिलेंगे? ठीक उसी प्रकार अगर हम कहते हैं कि मान लिया मैं यानी कि जीव जब तक इस जीत की वैल्यू स्टाइलिश ना करे तो क्या यह जान पाएंगे कि जीत क्या है और फिर आदमी पाप पुणे के बीच में फस जाता है । पापु अहम पापकर्म अहा! हम तो इस चीज को समझने के लिए चिंतन करते हैं । थोडा ध्यान देना ये थोडा सूक्ष्म विषय है । जब मैं अपने आप को मैं कहता हूँ तो ये मैं कौन हैं? जब मैं कहता हूँ मैं दुखी हूँ जब मैं कहता हूँ कि मैं जवान हूँ जब मैं कहता हूँ कि मैं सेल्फमेड मैन हूँ जब मैं कहता हूँ कि मैं खुश हूँ । जब मैं कहता हूँ मैं भूखा प्यासा हूँ तो क्या ये जो पांच मैं ये एक ही है या अलग अलग है? अगर ये एक ही है तो एक मैं पांच कैसे बन गया? और ये भी अलग अलग है तो इतने सारे मैं हमारे अंदर कैसे हैं? जबकि शरीर तो एक ही है । मन भी एक ही है थोडा ध्यान देना । ये प्रसंग पहले भी इस पुस्तक में आया है । जगत में रंग रूप अनेक है । उनको देखने वाली इंद्रिया दृष्टि सभी मनुष्यों में एक है । इंद्रिया पांच है मगर उन को प्रकाशित करने वाला मन एक है । परंतु यमन सभी मनुष्यों में एक होते हुए भी एक नहीं है । मान जिसका प्राप्त कव्य है वह चेतना सभी मनुष्यों में एक है चेतना । इसकी प्रकृति में अभिव्यक्ति एक है । वह शुद्ध चैतन्य पूरी सृष्टि में एक है और बस यही एक है । इसके परे कुछ भी नहीं । एक दो तरह के होते हैं । एक वो एक होता है जिसमें कुछ हो जाए तो उस एक की मात्रा कम हो जाती है या उस एक को अगर विभाजित या गुणा करके उसकी मात्रा बदल जाती है जबकि दूसरा एक वो एक है । चाहे उसको कुछ भी करो वो उतना का उतना ही रहता है । वह एक को हम आनन्द कहते हैं । मैं इसमें कमी की जा सकती है और ना इसको बढाया जा सकता है । इसी आनंद को योग में परमात्मा, विधान में ब्रह्माण तथा भक्ति में भगवान कहा जाता है । थोडा यहाँ सांख्या दर्शन का सिद्धांत लेते हैं । सांखी कहता है, अकेले प्रकृति जड है, इसमें संसार नहीं है, अकेले शुद्ध चैतन्य में भी संसार नहीं है । चेतना यानी की प्रकृति और शुद्ध चाहता नहीं । जब चैतन्य जीतना के रूप में प्रकट हो सकता है तो उसे सजीव कहते हैं और जब चैतन्य चेतना के रूप में प्रकट नहीं होता है तो उसे निर्जीव कहते हैं । चैतन्य सर्वत्र है । संसार में कोई भी ऐसी वस्तु नहीं है जिसमें चैतन्य ना हो परंतु जिसमें वह चेतना के रूप में प्रकट हो रहा है वो सजीव प्राणी है तथा जिनमें वह चेतना के रूप में प्रकट नहीं हो रहा है । वो निर्जीव प्राणी चेतना को प्राकृतिक के आधार पर चार स्तरों में बांटा जा सकता है । पहला है पेड पौधे । दूसरा है कीडे मकोडे । तीसरे है पशु तथा चौथा वह सर्वोच्च स्तर है । मनीष पेड पौधों में प्रकृति तत्व ज्यादा है इसलिए इनमें इंद्रिया इत्यादि नहीं है । कीडे मकोडों में इंडिया है पर विकसित नहीं हैं । पशुओं में इंद्रिया पूर्ण रूप से विकसित है परंतु मन नहीं है । लेकिन मनुष्य में चेतना का प्राकृतिक हम मान के रूप में पूर्ण रूप से हैं । मन को हम यहाँ अंतःकर्ण चतुष्टय कहेंगे । हालांकि ये दोनों एक ही है । एक लाख मान चार भागों में विभक्त सा भासता है माइंड नित्यबुद्धि अहंकार, मन कैसा कार्य करता है, थोडा विचार करते हैं । मन हमेशा वृत्ति रूप में ही कार्य करता है । मन में दो तरह की वृद्धि होती है, एक है हम वृत्ति यानी कि अपने बारे में तथा दूसरी है । इधर वृत्ति संसार के बारे में जब हम किसी वस्तु विषय के बारे में बोलते हैं तो पहले ये वृत्ति शब्द का रूप ग्रहण करती है । फिर ये मन में प्रवेश करती है और फिर मैंने उस व्यक्ति का आकार ग्रहण कर लेता है और हमें उस वस्तु विषय का मान के द्वारा आभास होता है जिस वस्तु का आकार मान ग्रहण नहीं कर सकता है, हमें उसका आभास नहीं होता है । जैसे जब हम आकाश कहते हैं तो ये वृत्ति मन में प्रवेश करती है । मगर क्योंकि आकाश का कोई आकार नहीं है, इसी कारण मान आकाश का कार्यग्रहण नहीं करता है और आकाश का अनुभव हमें नहीं आता । आकाश का दाद पर ये मात्र शब्द है । इसलिए आकाश में शब्द तो है पर आकाश का कोई आकार रंग रूप नहीं है । अच्छा इस चेतना के प्रतिबिंब युक्त व्यक्ति को कहते हैं मैं और हम तथा चेतना के बिना वाले प्रतिबिंब को कहते हैं मैं नहीं इदम हमारा शरीर पांच प्रमुख कोषों से मिलकर बना है । अन्य मई कोष प्राण, मई कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश आनंदमय कोश कोर्स का मतलब ये नहीं कि ये अलग अलग पार्ट है शरीर के बल्कि हमको अपने बारे में अमृति जो भी आज तक आई है, अथवा जो भी भविष्य में आएगी वो इन पांच कोशिश को लेकर ही आते हैं । अन्य मई कोश स्थूल शरीर जैसे हाथ पांच पांच जनतंत्र पेट इसमें आते हैं । प्राणमय कोश पाँच प्राण जिनके द्वारा हमारे देह में चेतना का प्रवाह होता है । प्राणों को लेकर हमें भूख प्यास की वृत्तियां आती है । मनोमय कोश मन में सुख दुःख, लाभ हानि जयपुर आ जाये अपमान इनको लेकर वृत्तियां आती है । विज्ञानमय कोश ये बुद्धि का क्षेत्र हैं । विज्ञानमय कोश में ही परमात्मा का प्रतिबिंब बचत आभास के रूप में पडता है । अमृति जब विज्ञान में कोष में पडे परमात्मा के प्रतिबिम् बचत आभास के साथ दे हद से ज्यादा काम में कर लेती है तो इसी को अहंकार कहते हैं और वह देख को अपना मानने लग जाता है । जी को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं । पति क्या है अगर हमें पति शब्द को परिभाषित करना पडे तो हम कहेंगे पति माने की आदमी प्लस पत्नी प्लस पत्नी में आदमी का प्रतिबिंब पति नाम की कोई वस्तु नहीं होती बल्कि पति को पास ही है । जब आदमी पत्नी की आबादी को ग्रहण करता है तो उसे पति कहते हैं जीव यानी कि परमात्मा प्लस अंत करण चतुष्टय यानी कि मंचित बुद्धि, अहंकार, प्लस बुद्धि में परमात्मा का प्रतिबिंब, चिराग, आभास ऐसे ही जीत नाम की कोई वस्तु नहीं है । जब हम परमात्मा पर अंत करने की उपाधि चढा देते हैं तो वही जीव कहलाता है । मन स्वयं में जड है । जब तक इसमें परमात्मा का प्रतिबिंबन ना हो इस को थोडा और समझने का प्रयास करते हैं । जब हम दर्पण के आगे खडे होते हैं तो क्या देखते हैं यहाँ पर महात्मा की जगह हम अपने आप को रख देते हैं । अंतकर्लह मन की जगह दर्पण हो गया और जो आभास है उधर पन में हमारा प्रतिबिंब हो गया । इन तीनों में से सत्य क्या है? क्या प्रतिबिंबन सकती है? नहीं क्या हमारे बिना दर्पण में प्रतिबिंबित संभव है और अगर दर्पण और प्रतिबिंबन ना रहे तो क्या हमारा कोई नुकसान होगा? इन तीनों में केवल परमात्मस्वरूप हम सकते हैं, उसी प्रकार न पति सकते है । ना पत्नी सकते हैं बल्कि केवल आदमी और स्त्री सत्य है । जीव जब अनेक प्रकार के उपाधियों को ग्रहण करता है तो जी भी एक नहीं रह जाता । ये भी बदलता रहता है । शास्त्रों में तीन प्रकार के जीवों का वर्णन मिलता है व्यवहार इन चीफ जाग्रत अवस्था में हम व्यावहारिक जीव होते हैं । सुबह हम जैसे ही नहीं से जाते हैं तो कभी हम लोगों ने विश्लेषण किया है कि हम जो एक्शन पहले कही और थे स्वप्ने में या कहीं भी नहीं थे तो छुट्टी में वो अचानक से जाग्रत अवस्था में आते ही सब कुछ बदल सा जाता है । हमारी वृद्धि, चित्र, स्टोरी, फॅमिली इसके साथ जुड जाती है और हमारी देह के साथ ताराम तक कनेक्शन हो जाता है । ये दोनों चीजें होने में उतना ही समय लगता है जितना स्विच ऑन करती ही बल्ब के चलने से फिर हम उठते हैं जागृत को सत्य मानने लगते हैं । ये व्यवहारिक सकते हैं । फिर हम माँ बाप, पति पुत्र अवसर सुख दुखी बन जाते हैं । ऍम रिश्तों की उपाधि युक्त जीव को सत्य मानने लगते हैं । स्वप्न अकल्पित जी इसे प्रतिभासिंह सकते भी कहते हैं तथा मिथ्या आत्मा भी कहा गया है । स्वप्न व्यवस्था में हमारा माने के नए जगत का निर्माण करता है । इस अवस्था में सभी चीजें सत्य ना होते हुए भी सत्य सी लगती है और ये जीव रोज नया होता है । जो स्वप्न अकल्पित जीव कल के स्वप्न में था वह आज के सपने से अलग था । यहाँ पर थोडा ध्यान देना अब आपको थोडा कन्फ्यूज करने का काम किया जा रहा है । ये बताने के लिए कितना व्यवहारिक जी सकते है और न स्वप्न अकल्पित जीव ही सकते हैं । एक उदाहरण के तौर पर इसको समझने का प्रयास करते हैं । अष्टावक्र गीता में एक प्रसंग आता है । एक बार राजा विधेयक जनक ने देखा कि उनके राज्य में सूखा अकाल पड गया । सभी लोग भूखे प्यासे तडप रहे हैं । सारे राजकोष खाली हो गए हैं और राजा जनक भी भूखे प्यासे इधर उधर घूम रहे हैं । उन्हें बहुत तेज प्यास लगी है । वे पाने के लिए तडप रहे हैं और वे प्यास से व्याकुल एक आदिवासी परिवार के पास पहुंच गए । तब आदिवासी लोग नहीं, उन्हें पीने के लिए गिलास पानी दिया । जैसे ही राजा जनक पानी पीने लगे तभी एक बाज वहाँ गया और उसने राजा के हाथ से पानी का ग्लास अपने पंजों में भरकर जमीन पर गिरा दिया । तभी अचानक छटपटाकर राजा जनक कियां खुली तो वह देखते हैं कि वे अपने महल में हैं और वहाँ पर सेवक लोग खडे हैं । पानी उनके बिस्तर के पास ही रखा है । राजा जनक ने पानी पिया परंतु उनका गला अब भी तक सूख रहा था । हाथ पा शिथिल हो गए थे । उस समय राजा के मन में बस एक ही सवाल घर कर गया था । वे सभी से ये ही पूछते थे जो भी उनसे मिलता था बताओ ये सच या वो सच । अगले दिन दरबार में उन्होंने सभी ज्ञानी लोगों को बुलाया और पूरा किस्सा बयान कर के पूछने लगे । बताओ ये सच या वो सच? तभी उनकी सभा में अष्टावक्र महाराज पधारे । उनका देह बडा ही विचित्र था । वे आठ जगह से टेडे थे और दिखने में भी काफी गुरु थे । सभा में उन्हें देख कर सभी ज्ञानीजन महात्मा हसने लगे तो इस पर महाराज अष्टावक्र भी हसने लगे । तब राजा जनक ने उन्हें प्रणाम करते हुए पूछा भगवान ये लोग तो आपको देखकर हस रहे हैं, आप क्या देखकर हस रहे हैं? महाराज अष्टावक्र बोले राजन मैंने तो सुना था कि आपकी सभा में ज्ञानी लोग विराजते हैं मगर यहाँ तो सभी चमार लोग बैठे हैं जिनकी नजर केवल चमडी पर हैं इसलिए मैं हस रहा हूँ । तब राजा ने उनका सत्कार किया था । आपने स्वप्न का पूरा वृतान्त सुनाकर पूछा भगवान मैं ये जानना चाहता हूँ कि ये इस समय में जो अनुभव कर रहा हूँ व्यवहारिक सत्य जिसमें इंद्रियों का व्यापार है । ये सच है या जो मैंने स्वप्ने में अनुभव किया । प्रतिभासिंह सत्य जहाँ मनी का व्यापार है वो सकते हैं । तब महाराज अष्टावक्र बोले हे राजन! ना तो ये इंद्रियों का व्यापार सकते है ना वो मन का व्यापार सकते है बल्कि जो इन दोनों का आधार देते हुए भी इन दोनों से प्रभावित नहीं परमार्थिक सत्य वही सच है और बोले ना ये सच, ना वो सच, बस तुम ही तुम सच । फिर राजा जनक ने महाराज अष्टावक्र से ज्ञान दीक्षा देने के लिए कहा तो महाराज स्टाॅक मैंने उन्हें जो ज्ञान दिया वर श्रावक रंगीता के नाम से प्रसिद्ध हुआ । परमार्थिक जी वह है मुद्दे हैं इंद्रियो तथा मन से परे हैं जो जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, समाधि सबका आधार है, परंतु जाग्रत आने पर जाता नहीं । स्वस्थ होने पर सोता नहीं हो सकती, में अंधकार में नहीं होता और समाधि टूटने पर टूटता नहीं । वो सबका आधार है परन्तु किसी से प्रभावित नहीं, यही अपना स्वरूप है । परमार्थिक जीव को जीव कहना गलत है । ये जीव नहीं, जीवन परमात्मा मात्र है । भगवत गीता में भगवान कहते हैं सर्वस्य चाहं हृदि । सन्नि विष्ठ तो मत्तः स्मृति फिर क्या नाम मत लो हम छा विदेश सर्वेयर हमें वेद्यो वेदान्त कृतवीर्य विधेयक चाह हम सभी के हृदय में मैं ही हूँ और मेरे ही कारण जागरण, स्वप्न सुक्ति, समाधि है और सभी वेद विद्याओं का उद्देश्य मेरे को जानने में ही हैं और जो मेरे को जान लेता है वो मेरा ही स्वरूप है । वही ज्ञान है और इसको जानने वाला ही ज्ञानी

Details

Voice Artist

Apana Swaroop | अपना स्वरुप Producer : KUKU FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava Producer : Kuku FM Author : Dr Ramesh Singh Pal Voiceover Artist : Raj Shrivastava (KUKU)
share-icon

00:00
00:00