Made with in India
अध्याय चार जीवन क्या है? हिन्दू धर्म में जीवन में चार पुरुषार्थों का वर्णन मिलता है धर्म, अर्थ कम । मौत धर्म के लिए हमें धर्मशास्त्र का उपदेश किया जाता है । सत्यम बद् धर्म चार स्वाध्याय आना हाँ मदन आचार्या ये प्रियम धन मार क्या प्रजातंत्र घूमा विव अच्छे सी सत्यानी प्रमोदी तब हम धर्मानन्द सहमति तब हम कुशलानंद प्रमत्त तब भूत तीय ना प्रगति तब हम स्वाध्याय प्रवचन अभी आमना प्रमादी तब क्या धर्मशास्त्र में हमें संसार में रहते हुए किस प्रकार का आचरण करना है तथा धर्म पूर्ण आचरन करते हुए हमें किस प्रकार भरण पोषण के लिए धन का अर्जन करना है ये बताया जाता है । उसके बाद कामनापूर्ति का विषय आता है । कामनापूर्ति के लिए उपासना शास्त्रों का उपदेश किया जाता है । भगवत गीता में आता है सहायक यहाँ पर जहाँ रिश्ता पूर्वाचल प्रजापति ऍम हमें वो ऍम मधु देवानंद नवैतानि तेरे रेवा भगवंत हुआ परस्पर भगवंत श्री यहाँ पर हम हॅाट कामनापूर्ति के लिए हम विभिन्न देवी देवताओं का आवाहन करते हैं । विभिन्न यज्ञ कर्मकांड करते हैं और अपनी कामनाएं पूरी करने का प्रयास करते हैं । लेकिन मनीष की कामनाएं कभी पूरी नहीं हो सकती । इसलिए बताया जाता है की कामनाओं पर नियंत्रन करके हमें मौका के लिए अग्रसर होना चाहिए । इसके लिए चार आश्रमों का विधान है । पहला ब्रह्माचारी, दूसरा गृहस्त, तीसरा वन प्रस्थान, चौथा सन्य भगवान शंकराचार्य कहते हैं कर्माणि चित्र सिद्धर्थ अम्मी का आग्रह यार तुम उपासना मोक्षार्थी ब्रह्मा विज्ञानम् टीवी ॅ जीवन का एकमात्र लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति तथा ज्ञान का नाश है तभी हम अपने स्वरूप को जान सकते हैं । जिस दिन हमारे मन में ये सवाल आ जाता है कस्टम को हम कुछ आया था कामे जनि को में ताथा इतनी पर िभाग सर्व मसार हम विश्वम त्यक्त्वा स्वप्न विचार उस दिन जो भी हम कर्म करते हैं वो अपने चित्र की शुद्धि के लिए उपकरण मान जाता है । जो भी हम उपासना करते हैं वो मन को एकाग्र करने के लिए एक साधन बन जाता है और ज्ञान प्राप्ति के मार्ग खुल जाते हैं । किसी भी कर्म का फल आप या पुण्य होता है । कोई भी कर्म का फल शास्वत नहीं है । कर्म वो है जो क्रिया के द्वारा संपन्न होता है, जो एक दे शिवम काल विषय में होता है और संपन्न हो जाता है । भगवत गीता में भगवान कहते हैं जो कार्य में जितनी वृद्धि के लिए नहीं किया जाता है वह कर्म कर्मयोग कहलाता है । वो केवल शारीरिक परीक्षण मात्र है । उसका फल श्रीन होने के उपरांत हम पुनः अपनी पहली अवस्था में आ जाते हैं । धनवान कहते हैं ते दम भुक्त्वा स्वर्गलोक कम विशाल अनशन पुण्य मृत्यु लोग कमिशन थी ए वित्र ही धर्म मनु प्रपन्ना गटागट कम कम कम पाँच घंटे परंतु जो करमचट की शुद्धि के लिए किया जाता है वह कर्म कर्मयोग कहलाता है । भगवान कहते हैं का ये ऍम बुद्धिया ॅ पी योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्तवा आत्मशुद्धि आई महात्मा जान भी कर्म करते हैं लेकिन आत्मशुद्धि के लिए क्योंकि कर्म किए बिना तो मैंने शिक्षण भी नहीं रह सकता । तो फिर कर्म के द्वारा हम अपने स्वरूप को नहीं पहचान सकते हैं । केवल ज्ञान ही एकमात्र साधन है जो हमें अपने स्वरूप में स्थिति दिला सकता है । तुलसीदासजी कहते हैं धर्म थे वृत्ति जो विज्ञान ग्यारह मोक्ष प्रदत इतनी वेनम बखाना । वेदों के ज्ञान भाग को परिषद कहा गया है । उपनिषद शब्द का अर्थ है उप माने कि समीप नी माने के निश्चय और सदमा ने कि हिंसा गति एवं अवसाद उप एवं नींद उपसर्ग है सर ये धातु है सबके तीन अर्थ है गति यानी की अंतिम लक्ष्य, दूसरा हिंसा, अज्ञान का नाश, तीसरा अवसाद जो की है ढीला करना यानी कि गलत धारणाओं को ढीला करना । उपनिषदें ब्रह्मा विद्या उच्यते । उपनिषद को ब्रह्मा विद्या कहा गया है । उपनिषद ब्रह्मा विद्या का ज्ञान नहीं है तो परिषद ब्रह्मा विद्या ही है । ये ज्ञान ही ब्रह्मा है । उपनिषद को वेदान्त भी कहते हैं । यानी वेदों का अंतिम भाग वेदों का सार । जब हमने धर्मपूर्वक अपने जीवन को दिया है और उपासना से अतः करन को शुद्ध किया है तो फिर उपनिषद के द्वारा हम अपने स्वरूप को जान सकते हैं । यही जीवन का एकमात्र प्रयोजन है । अपने स्वरूप को जाने के लिए प्रस्थान रही को श्रोत माना गया है । ये है उपनिषद ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता इस किताब में उपनिषद, ब्रह्मसूत्र तथा भगवद्गीता को समझ पाना कठिन है । अतः जहाँ पर भी कुछ मैदान की तकनीकी शब्द प्रयोग में लाए जाएंगे, वहीं पर उन्हें समझाया जाएगा । हमारे शरीर में दो भाग है, एक है संरचनात्मक तथा दूसरा है क्रियात्मक । संरचनात्मक शरीर वो है जो आंखों से दिखाई देता है । जैसे हमारी आंखें, कान, नाक तो अच्छा तथा शरीर के अन्य भाग । चिकित्सा के क्षेत्र में इन्ही संरचनात्मक भागों की पढाई कराई जाती है । यही संरचना एक प्रकार की प्रजाति के सभी प्राणियों में सामान होती है । चाहे वह काला आदमी हो या गोरा छोटा हो या बडा हो इसलिए जब कोई डॉक्टर किसी आदमी का ऑपरेशन करता है तो ये नहीं कहता है कि मुझे वो स्पेसीमेन चाहिए जिस पर मैंने पढाई करते वक्त प्रैक्टिस की थी । उदाहरण के लिए संरचनात्मक अंग आंख है जो की हमें दिखाई देती है और जिससे डॉक्टर देखते हैं परन्तु इसका क्रियात्मक भाग दृष्टि होती है । दृष्टि को हम नहीं देख सकते हैं । श्रवण शक्ति को हम सुन नहीं सकते हैं और ये दृष्टि श्रवण शक्ति सभी प्रकार की आंखों में सामान है । आंखें नीली है, दृष्टि नीली नहीं होती । आंखे लाल हो, दृष्टि लाल नहीं हो जाती है । भारतीय भाइयों की दृष्टि तथा चीनी भाइयों की दृष्टि एक ही है । चाहे उनकी आंख का आकार भारतीयों से अलग क्यों ना हो । एक गाय की दृष्टि और एक आदमी की दृष्टि सामान है । इनमें कोई अंतर नहीं है । एक उदाहरण से सरल भाषा में समझने का प्रयास करते हैं । बाहरी जगत में रंगरूप वस्तुएं अनेक है । दिन भर में हम सैकडों वस्तुओं को देखते हैं तो हम ये समझने का प्रयास करते हैं कि उन वस्तुओं को कौन देख रहा है । मैं चश्मा पहनता हूँ तो क्या चश्मा उन वस्तुओं को देख रहा है? नहीं चश्मों के पीछे आंखे हैं । आंखी संरचनात्मक है क्या? आंखों में जो डिजाइन बना है यह वस्तुओं को देख रही है? नहीं दृष्टि के पीछे मन ना होतो दृष्टि भी नहीं देख सकती । और जैसे कभी कभी कोई बच्चे या आदमी आँखे खोल कर सोते हैं तो क्या वे देखते हैं नहीं? अगर आंखों के पीछे मन ना हो तो हम नहीं देख सकते हैं । आप क्या वस्तुओं को मन देख रहा है? मन कैसे चीजों को देख सकता है क्योंकि मन की कोई स्वतंत्र सकता है ही नहीं । जब तक मन में चित्र का प्रकाश ना हो तो मन है ही नहीं । भगवान श्रीराम कहते हैं मानसम् तो के मार्ग आनी कृते ऍम मार्ग आर जवाब अगर आप मान के बारे में सोचने लगे की ये क्या है तो मन है ही नहीं । मैंने गायब हो जाता है चेतना सभी प्राणियों के लिए सामान्य सार्व भाव है । चाहे वो गधा हो, मनुष्य हो, वो कीडे मकोडे या पेड हो । चेतना को हम बाद में समझने का प्रयास करेंगे । पहले हम मान के बारे में समझने का प्रयास करते हैं क्योंकि चेतना ऍम ये सार्वभौम तथ्य है । उस पर हमारा नियंत्रण नहीं है । परन्तु जब क्षेत्रा मान के रूप में प्रकट होती है तो उस पर हमारा नियंत्रण आ जाता है । विधानसभा तीन शरीरों का विवरण आता है । पहला है स्कूल शरीर । इसका अन्य मैं कुछ भी कहते हैं । जो भी हमें संरचनात्मक शरीर दिखता है, वह स्थूल शरीर हैं । जैसे पांच इंद्रियों के उपकरण, आठ नाक का बच्चा तथा जेवा इनको कर्मेन्द्रियां भी कहते हैं । स्कूल शरीर की परिभाषा बताते हुए उपनिषद में आता है । स्कूल शरीर, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन पंचमहाभूतों से बना है । जितनी भी हमारे शरीर के अंग उत्तर कोशिका बनी है, पंचमहाभूतों के संघात से बनी है और ये सभी के लिए सामान्य है । चाहे वो कोई अपराधी है या धर्मात्मा । ये पंचमहाभूत सभी के लिए सामान्य हैं । अब थोडा सूक्ष्म शरीर को समझते हैं सूक्ष्म शरीर पाँच प्राण दस इंद्रिया मन और बुद्धि से मिलकर बना है पाँच प्राण और दस इंद्रिया इस प्रकार है पांच । प्राण, प्राण, अपान, समान, ब्यान और उदान पांच प्राण है । पांच । कर्मेन्द्रियां वहाँ हाथ, पैर, गुदा और उपस्थ पांच कर्मेन्द्रियां है । पांच । ज्ञानी प्रिया कान, त्वचा, नेत्र, जेवा और नासिका पांच यानि दरिया है । सूक्ष्म शरीर को बताते हुए कहते हैं कि अपंजीकृत पंचमहाभूत अर्थात जब ये पंचमहाभूत शरीर के रूप में नहीं होते । ये पंच महाभूत, पंचक, ज्ञानेन्द्रिय, पंचक, कर्मेन्द्रियां, मन और बुद्धि ये मिलकर सूक्ष्म शरीर का निर्माण करती है । इसमें अहंकार भी आता है । अहंकार भी तत्व है जिसके कारण हमारा शरीर बंधा रहता है । सभी दत्त वापस में बंधे रहते हैं । चाहे वह गहरी नींद हो या समाधि व्यवस्था । कारण शरीर स्थूल और सूक्ष्म शरीरों का कारण हैं इसलिए उसे कारण शरीर कहते हैं । जैसे कि पहले बताया गया की स्कूल देर केवल उपकरण मात्र है । इस जगत में व्यवहार करने के लिए तथा सुख दुख भोगने के लिए ये अपना स्वरूप नहीं हो सकता क्योंकि हमें शरीर को मेरा शरीर कहते हैं । जैसे मेरा फोन, मेरा बच्चा, मेरा चश्मा, मेरा पेट मेरी आँखे तो जो मेरा है वह मैं कैसे हो सकता हूँ । एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं । कुछ दिन पहले मैं भोपाल गया था । वहाँ पर हमारे साथ एक वैज्ञानिक महोदय रहते थे । एक दिन उनके साथ एक दुर्घटना हो गई और उनका एक पैर डॉक्टर को काटना पडा । जब वैज्ञानिक महोदय को पता चला तो बोले मेरा पैर कहाँ गया, मेरा पैर लेके आओ । फिर उन्हें उन का पैर दिखाया गया जो की काफी फट गया था । वो वैज्ञानिक महोदय उसे देख भी नहीं पाए और कहने लगी से फेंक दो, ये मेरा पैर नहीं है । फिर डॉक्टर ने उन्हें एक नकली बहर लगाने का सुझाव दिया तो वे राजी हो गए । अब वो नकली पाँच ही उनका पास है । इस उधारण से दो चीजें सीखने को मिलती है । वो पाव जो काटा गया वो वैज्ञानिक महोदय का था परन्तु वैज्ञानिक महोद है । वह पाव नहीं वो उससे अन्य हैं । जब वहाँ उनके शरीर से जुडा हुआ था तो वह मैं के अंतर्गत आता था । परन्तु जैसे ही वो उनके शरीर से अलग हो गया वो पवन का नहीं रहा । वो मैं से बाहर चला गया । जिस वस्तु को हम मैं के अंतर्गत नहीं रखते वह अन्य में आता है और उसी को हम जगत कहते हैं लेकिन ये मिथ्या में है । ये मैं देख के साथ जुडा हुआ । मैं इसको अहंता कहते हैं । ये जाग्रत अवस्था का मैं जब हम जगह हुए जगत में व्यवहार करते हैं तो ये हमारा व्यवहार बुद्धि प्रदान होता है जो मैं के साथ जुडकर अहंता कहलाता है । स्थूल शरीर की स्कूल बुड्ढी है । अब हम स्वप्नावस्था का थोडा विश्लेशण करते हैं । स्वप्न में हमारा शरीर इंद्रिया कुछ काम नहीं करती । केवल मन नहीं होता है जो काम करता है स्वप्न में हम कुछ भी सपना देखते हैं उस समय वो हमें हकीकत जान पडता है और सपने में हमें ये नहीं लगता कि हम सपना देख रहे हैं । फिर हम जो सपने में चीजें देखते हैं वह कहाँ से दिखती है जबकि उस वक्त हमारी आंखे बंद होती है जैसे कि पहले बताया जा चुका है । चित्र को वृत्तियों या संस्कारों का स्टोरीज हाउस कहा गया है । मंचित से वृत्तियों को उठाकर वृत्तियों से एक स्वप्न संसार का निर्माण कर देता है । उस सपने में जो दिखता है वो भी मन का ही प्रक्षेपण हैं । जो देखता है वह भी मन है और स्वप्ने में जो हमारी इंद्रियों पर नियंत्रण करता है वह भी मन है । इसलिए स्वप्ने अवस्था मान प्रधान है । स्वप्न हमें याद रहते हैं कुछ पूरे कुछ अधूरे परन्तु स्वप्ने के संस्कार चित्र में जमा नहीं होते क्योंकि वहाँ कर्तापन पैदा नहीं होता । इस बारे में थोडा बाद में हम विस्तार से चर्चा करेंगे । अभी हम यह जान लेते हैं कि स्वप्न के केवल मन कार्य करता है । अब आते ही तीसरी व्यवस्था पर अर्थात सुषुप्ति अवस्था डीपली हम आठ घंटे की नींद में दो घंटे सुषुप्ति अवस्था में रहते हैं । जब हम पूर्ण रूप से अंधकार में होते हैं । ना कोई सपना होता है और ना ही मन । इंद्रियों का कोई व्यापार होता है फिर भी हम होते हैं अर्थात वहाँ पर सूक्ष्म शरीर भी नहीं होता और स्कूल शरीर तो होता ही नहीं । फिर हम कहाँ होते हैं हमारे लिए? उस समय न जगत होता है, न स्थूल शरीर और न सूक्ष्म शरीर होता है । उस समय केवल हमें आनंद का अनुभव होता है । हमें निंद्रा के द्वारा जो आनंद प्राप्त होता है वो इसी अवस्था था । सुषुप्ति अवस्था का ही आनंद होता है । इस व्यवस्था में कुछ नहीं रहते हुए भी हम होते हैं । मैं होता है तभी तो हम निद्रा से जाते हैं तो कहते हैं कि मुझे बहुत अच्छी नींद आई पर बीच में कुछ सपने भी आए । जब डीप स्लीप में कोई नहीं था तो जागने के बाद ये बाकी कौन कह सकता है । ये बात की वही कह सकता है जो जागृत में भी था, स्वप्न में भी था और सुन सकती में भी था । परन्तु तीनों अवस्थाओं का आधार होते हुए भी तीनों अवस्थाओं से प्रभावित नहीं था । जो शरीर को बांधे हुए था था । उस समय डीपली कुछ नहीं होते हुए भी शरीर की सभी क्रियाएं चल रही थी । खाना बच रहा था, बाल बढ रहे थे, साल से चल रही थी और पंचमहाभूत आपस में बंधे हुए थे था । मैं वहाँ भी था परन्तु मैं के साथ अज्ञान कारण दही भी था । इसलिए हमें अपने शरीर का तथा बहारी जगत का कुछ भाग नहीं था । किसी को अहंकार कहते हैं अर्थात सुषुप्ति अवस्था अहंकार प्रधान है । अगर सुषुप्ति अवस्था में अज्ञान ना हो तो सिर्फ मैं बच्चा रहता है । यही अपना स्वरूप है और ये समाधि अवस्था में होता है । समाधि अवस्था चित्र फॅस प्रधान होती है । हमें सब चीजों का भान रहता है बिना इंद्रियो तथा मन की ये अपना असली स्वरूप है । यहाँ पर ये बात सिद्ध हो जाती है कि हम ना दोस्त स्कूल दे रहे हैं, न सूक्ष्मः और ना ही कारण येह । हमारा असली स्वरूप इन सबसे परे हैं । स्थूल शरीर में छह विकास आने स्वाभाविक है और ये सभी सोल शरीर के लिए सामान्य । पहले ये गर्भ में होता है फिर यह जन्म लेता है फिर ऊपर की ओर बढता है फिर चौडाई में बढता है । फिर इसमें शायद शुरू होता है और अंत में मर जाता है । इनको शर्ट विकार कहते हैं । ये स्थूल शरीर एक उपकरण मात्र है जैसे कोई गाडी हो । गाडी का जो ढांचा हमें दिखता है उसमें विभिन्न प्रकार के इंस्ट्रूमेंट एक साथ जोड दिए जाते हैं । लेकिन अगर उस गाडी में हॉर्स पावर नाम नहीं तो वह चल नहीं पाएगी और अगर इसमें हॉर्स पावर बन भी रही है जब तक उस गाडी को चलाने वाला चालक ना हो तो गाडी नहीं चलेगी । उसी प्रकार स्थूल शरीर में ये सूक्ष्म शरीररूपी चालक ना हो तो ये देख किसी काम का नहीं की चल ही नहीं सकता । स्कूल शरीर को आज भी बहुत शरीर भी कहते हैं जैसे हमारी आंख कान ये जो दिखाई देते हैं यारी बहुत ठीक है । इन रंगों में कार्यशक्ति जैसे आंख में दृष्टि, कान में श्रवण शक्ति ये आदि देविक है । देव शब्द का अर्थ है दो तीन ना इत्ती दाॅये जब प्रकाशक है परंतु प्रभावित नहीं है वो देव है । हमारी आँख में दृष्टि सभी वस्तुओं को देखती है चाहे वह बुरी हो या अच्छी । अच्छी वस्तुओं को देखकर दृष्टि बढ नहीं जाती और बुरी वस्तुओं को देखकर काम नहीं हो जाती है । चाहे यहाँ के एक आदमी को देखे या एक हजार आदमियों को देखे दृष्टि पर कोई फर्क नहीं पडता । हमारी आदिभौतिक आंखे भले ही कुछ गलत काम देकर बंद हो जाए परंतु दृष्टि बंद नहीं होती । इसलिए एक बार सिद्धांत के रूप में हमेशा याद रखनी चाहिए । जो प्रकाशक होता है वो प्रभावित नहीं होता है परंतु आंख में दृष्टि और कान में श्रवण शक्ति भी स्व प्रकाशित नहीं है । जब तक चेतना के धागे से शरीर बंदा नहीं हो तब तक आंख में दृष्टि और कान में श्रवण शक्ति नहीं हो सकती या आध्यात्मिक क्षेत्र है । इसे आदि आध्यात्मिक नहीं कहते हैं क्योंकि इसकी परे कुछ नहीं है । चाहे शास्त्र हो या जगत का कोई भी ज्ञान हो वो हमेशा आदिभौतिक, आदिदैविक तथा अध्यात्मिक स्तर पर होता है । जब मनुष्य आदिभौतिक और आदिदैविक जगत से निकल कर आध्यात्मिक स्तर पर आ जाता है तो इसी को ही अंतर्मुखी होना कहा जाता है । इसी को ही अंतर्मुखी मनुष्य कहते हैं । आधी बहुत एक संसार है, एक तरह से धर्म संबंधित है । आज दैहिक देवी देवताओं से संबंधित है । ये उपासना का क्षेत्र हैं । आध्यात्मिक सोच ही चैतन्य । परमात्मा जो हमारा स्वरूप है उससे संबंधित है । संसार को समझ ही कहा जाता है तथा देह को व्यक्ति कहा जाता है और जो समझ ही में है वहीं व्यष्टि में है । जब हम अपने जीवन के सभी अनुभवों को अपने से जोड लेते हैं तो हम आध्यात्मिक जगत में प्रवेश कर जाते हैं ।