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अध्याय तीन सामान्य गलत अवधारणाएं एक बार एक महिला ने भगवान रमन्ना ऋषि से पूछा भगवान कई लोग जगत में बहुत ही मृदुभाषी, सरल स्वभाव और परिवार की देखभाल करने वाले होते हैं । परंतु जब उन से सतसंग की अथवा आध्यात्म की बात करें तो वे ये बात सुनना ही नहीं चाहते । ऐसा क्यों? भगवान कहते हैं सत्संगी आध्यात्मिक जगत में मनुष्य की जो मूलभूत गलत अवधारणाएं हैं, उन पर प्रहार होता है । उसने अपने पूरे जीवन में जिसको सत्यम आना है और उसी में क्या है? जब उसे ये बताया जाता है कि तुम देख नहीं हो तो उसे गलत लगता है । बाबा जी क्या बोल रहे हैं ये कैसे हो सकता है? इसलिए वो ये सब सुनना ही नहीं चाहता है । संचार में दो जगह आदमी स्वस्थ होने के लिए जाता है । पहला हस्पताल दूसरा जिम क्या जितनी भीड अस्पताल में होती है उतनी भीड जिम में भी होती है? नहीं क्योंकि अस्पताल में वे लोग जाते हैं जो बीमार है और ठीक होना चाहते हैं और जिम में वे लोग जाते हैं जो स्वस्थ है और उससे भी ज्यादा बनना चाहते है । उसी प्रकार जो मनुष्य घर को लेकर पति पत्नी को लेकर बच्चों को लेकर दुखी हो जाते हैं, वहीं मंदिरों में अपनी मनोकामना पूर्ण करने जाते हैं । परंतु जो स्वस्थ है जिससे कोई इच्छा नहीं है वही अपने को जानने के लिए सत्संग या महापुरुषों की शरण में आते हैं । उपनिषद कहते हैं आया महात्मा मलही ने न लग गया या अध्यात्म बलहीन लोगों के लिए नहीं है । बलहीन लोगों से तात्पर्य है जो अपनी गलत धारणाओं को बदलना नहीं चाहते । मुख्यतः हमारी गलत धारणाएं छह प्रश्नों को लेकर है । पहला जीत क्या है? दूसरा देख क्या है? तीसरा जगत क्या है? चौथा ईश्वर क्या है? पांचवां आध्यात्मिक साधना क्या है? छठा और इन सब का अधिष्ठान कौन है? इस पुस्तक में नहीं । गलत धारणाओं को समझाने तथा इन धारणाओं के नीचे जो अपना असली स्वरूप छिपा है, उसी को जानने का प्रयास किया जाएगा । महात्मा जान कहते हैं कि किसी भी शास्त्र का अध्ययन हमें स्वयं नहीं करना चाहिए, क्योंकि जब हम व्यवहारिक जगत में किसी अध्यापक से कोई प्रश्न पूछते हैं तो अध्यापक उस प्रश्न को संबोधित करते हुए उत्तर देते हैं, पर हिन्दू आध्यात्मिक जगत में महात्मा जान प्रश्नों को संबोधित नहीं करते हैं । अपितू प्रश्न पूछने वाले की स्थिति को ध्यान में रखते हुए प्रश्न का उत्तर देते हैं और वे सिर्फ उत्तर देते हैं परंतु समाधान हमें स्वयं खोजना पडता है । इसलिए उपनिषद में कहा गया है तद्वीर ज्ञानामृत था गुरु मेवा भी अच्छे समीत पानी श्रोत्रीय उम्र मान िस्टम । अगर हमें वास्तव में अपने स्वरूप को जानना है तो हमें गुरु की शरण में जाना होगा, थोडा गुरु शब्द को जान लेते हैं । ये गुरु किया है और गुरु कैसा होना चाहिए? गुरु हमारे हृदय में जिज्ञासा के रूप में प्रकट होते हैं । हमारे में अपने अनुभवों से सीखने की क्षमता को गुरु कहते हैं । जो आदमी अपनी अनुभूतियों से नहीं सीखता उसको साक्षात् भगवान भी नहीं सिखा सकता । हम बडे प्यार से कहते हैं कृष्ण बंदे जगद्गुरू अगर कृष्ण भगवान जगद्गुरु होते तो क्या वो दुर्योधन धृतराष्ट्र को नहीं सिखा सकते थे । इसलिए गुरु और शिष्य के रिश्ते में शिष्य का महत्व होता है, गुरु का नहीं । अगर दूसरा उदाहरण देखे तो एक लडकी को गुरु द्रोणाचार्य शिक्षा देने से मना कर दिया तो क्या वो उसकी सीखने की क्षमता को रोक पाएं । वो फिर भी अर्जुन से श्रेष्ठ धनुर्धर साबित हुए हैं । इसलिए जब तक कोई स्वयं सीखना नहीं चाहता उसको कोई नहीं सिखा सकता और जो जिज्ञासा युक्त होकर जानना चाहता है उसे जानने से कोई नहीं रोक सकता । अगर हम भगवद्गीता की प्रथम अध्याय का अवलोकन करे तो उसमें भगवान ने अर्जुन के मन में संसद का बीस डाला । जब वर्जन कहते हैं कृषि के क्षमता दावा उम्मीद माह वही पाते सेन्य गुरु भाई और मध्य प्रथम स्थापय या में छूट कि है अच्छी यूथ मेरा रथ दोनों सेनाओं के मध्य में ले चलो । मैं विरोधी सेना में देख तो लूँ की मुझे युद्ध किससे करना है । तब भगवान को तो विकल्प था कि वह अर्जुन का रथ दुर्योधन दुशासन के सामने खडा करेंगे या भीष्म द्रोणाचार्य के सामने । अगर भगवान अर्जुन कारक सीधे दुर्योधन दुशासन के सामने ले जाते तो अर्जुन के मन में कोई मोह का प्रसंग निर्माण ही नहीं होता और युद्ध शुरू हो जाता है । परंतु भगवान ने ऐसा नहीं किया । भगवान ने अर्जुन के मन में मौका प्रशन पैदा करने के लिए रथ भीष्म आचार्य और द्रोणाचार्य के सामने ले जाकर खडा कर दिया और बोले भीष्म अदरूनी प्रमुखता सर्वे शाम छह महीने क्षेत्र काम ओ आज पार्थ पर शैतान समय वेता गुरु नीति तब अर्जन कहते हैं कथन भीष्म हम संघ केंद्रो नाम ऊँचा, मधुसुधन भी ही प्रतियो त्सुनामी पूजा फरवरी सुधन हे भगवान! मैं अपने दादा को और गुरु को कैसे मारो । वैसे उसको लडाई करने में कोई समस्या नहीं थी परंतु मैं आप लोगों को कैसे मारो? ये समस्या थी और उसने अपने इस मूवी को सही ठहराने के लिए प्रथम अध्याय में भगवान को ज्ञान पढाने करने की भी कोशिश की । परंतु अर्जुन ये भूल गया कि मैं रणभूमि में कौन हूँ, शिष्य हूँ, होता हूँ, भाई हूँ या यौद्धा । इसी प्रकार हमें जगत में आकर ये भूल जाते हैं कि हम वास्तव में कौन है और जब जब भगवान हमारे जीवन में कुछ समस्या ले आते हैं तो ये उनका हम पर उनका अनुग्रह होता है । वो समस्या हमें परेशानी में डालने के लिए नहीं होती । वो एक संकेत होता है कि हम जाने की वास्तव में हम कौन हैं और सभी समस्याओं से निकल जाए । जब हम अपने अनुभव से सीखना शुरू कर देते हैं तो हमारे मन में अपने बारे में जानने की इच्छा होना स्वाभाविक है । परंतु ये इच्छा तीव्र जिज्ञासा पूर्ण होनी चाहिए । एक बार स्वामी विवेकानंद जी ने भगवान रामकृष्ण परमहंस से कहा कि माँ काली आपसे बात करती हैं पर मुझे नहीं ऐसा क्यों? भगवान ने कहा तुम चाहते ही नहीं की माँ काली नाम से बात करें । जब तुम चाहोगी तो उसे अवश्य बात करेंगी । इस पर स्वामी विवेकानंद ने कहा, मैं चाहता हूँ भगवान राम कृष्ण बोले नहीं तुम पूर्ण रूप से नहीं चाहते हो तो स्वामी विवेकानंद बोले पूर्ण रूप से शाहना मतलब भगवान राम कृष्ण बोले, चलो इस बारे में बाद में बात करेंगे । पहले गंगा जी में स्नान करके आते हैं और जब स्वामी विवेकानंद स्नान के लिए गंगा जी में उतरे तब भगवान राम कृष्णा ने स्वामी विवेकानंद का सिर्फ अकडकर पानी में नीचे दबा दिया और काफी देर तक दवा कर ही रखा । फिर स्वामी विवेकानंद ने जोर से झटका मारकर अपना सिर ऊपर निकाल लिया । तब भगवान राम कृष्ण बोले, नरेंद्र जब तुम्हारा सिर्फ पानी के अंदर था तो तुम जैसे सांस लेने के लिए तडप रहे थे । उस समय तो मैं सास के अतिरिक्त कुछ भी नहीं चाहिए था । इसी प्रकार जब तुम्हारी माता की प्रति ऐसी ही तीव्र इच्छा होगी, महत्व से अवश्य बात करेंगे । जब हमारे मन में तीव्र इच्छा होगी अपने आप को जानने की, तब हमारे जीवन में भगवान के अनुग्रह से गुरु महाराज का पर्दापण होता है । हमें कभी भी जीवन में गुरु की खोज के लिए भटकना नहीं चाहिए । गुरु अपने आप आपके जीवन में आ जाते हैं । गुरु कैसा होना चाहिए? इस पर उपनिषद कहते हैं, शोध नियम और ब्लाॅस्ट जिन्होंने शास्त्रों का अध्ययन किया है और उसको अपने जीवन में जया है । जिसकी निष्ठा ब्रह्मा में अकाउंट है और जिसे जगत में कुछ और सिद्ध नहीं करना है वही गुरु आपको आपके हित की बात बताएगा । अगर हम अपने मन से गुरु की खोज करेंगे तो मन हमेशा नामरूप के पीछे दौडता है और वो अयोग्य मनुष्य को गुरु मान लेता है । इसलिए आप निरंतर अपना अंतःकर्ण शुद्व कीजिए । गुरु भगवान आपके जीवन में अवश्य आएंगे । जब आपका अंतर कारण शुद्व हो जाएगा तब तक आप निरंतर प्रयत्न में लगे रहे ।