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अध्याय दो पुस्तक का प्रयोजन एक बार मैंने स्वामी अनुभव आनंद जी के एक सत्संग में वेदांत के बारे में सुना जिसमें उन्होंने बोला कि हम सभी परमात्मस्वरूप है, चाहे हम जाने या ना जाने चाहे हम मानिया नामानि । स्वामी जी ने ये भी बताया कि सभी वेदों का सार उपनिषद हैं । सभी उपनिषदों का सार भगवत गीता है । उस दिन मेरे मन में अचानक एक संकल्प आया कि मैं भगवत गीता का अध्ययन करूंगा । मैं सबसे पहले श्री रामसुखदास जी रचित गीताप्रेस के द्वारा प्रकाशित श्रीमद्भगवद्गीता लेकर आया । सात में वेदांत बोध किताब भी लाया । तब तक ही दोनों मेरे लिए किताब मात्र थी । जैसी और किताबे होती है । मैंने एक घंटा रोज भगवदगीता का अध्ययन शुरू किया लेकिन मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था । बस में किताब की तरह भगवत गीता का अध्ययन कर रहा था । फिर एक दिन चिंतन शुरू किया और विधान की किताब महात्माओं के जीवन चरित्र जैसे बाबा नीम करोली का जीवन चरित्र भगवद् रमन्ना ऋषि के बारे में तथा स्वामी योगानंद जी महाराज के बारे में पढा लेकिन सभी एक ही बात कह रहे थे क्या परमात्मस्वरूप हो बस अज्ञान के द्वारा ये ज्ञान ढका हुआ है और अज्ञान है अपना देहात में भाग अगर हमें परमात्मा का अनुभव करना है तो देख को जानना होगा ये देख क्या है और जब हम यह जान लेंगे तो हमें देखने से अलग होकर चिंतन करना होगा । मैं बचपन से ही ज्यादा धार्मिक प्रवृत्ति, पूजा पाठ करने वाला नहीं था । मुझे मंदिर में भीड देखकर लोगों को भगवान का दर्शन करने के लिए कतार तोड दे देखकर या फिर भगवान से केवल इच्छाओं की पूर्ति के लिए आग्रह करता देखकर अच्छा नहीं लगता था । मैं सोचता था कि यदि भगवान इच्छापूर्ति का साधन मात्र है तो फिर सबकी इच्छा पूरी क्यों नहीं होती? बहुत सारे सवाल हमेशा मन में थे पर इन पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया और जब मैंने वेदांत पढना और समझना शुरू किया तो उसमें पाया कि परमात्मा केवल इच्छापूर्ति का साधन नहीं है । मैंने स्वामी विवेकानंद का जीवन चरित्र पडा । मैंने भगवान रामकृष्ण परमहंस के बारे में पढना शुरू किया । सभी ने इसी बात का समर्थन किया कि हम परमात्मस्वरूप है और ये जान लेना ही ज्ञान है और मोक्ष केवल ज्ञान के द्वारा ही हो सकता है । जब तक मैंने भगवद्गीता पडना शुरू नहीं किया था मेरे मन में इस जगत को लेकर अपने आप को लेकर कोई संसय नहीं था । लेकिन अब मेरे पास सैकडों सवाल थे और मेरी जाने की इच्छा तीव्र थी क्योंकि जब तक मनुष्य के मन में सवाल नहीं होते वो जो देखता है, अनुभव करता है उसी को सत्य मानता है । परन्तु कुछ सवालों के जवाब हमें इस जगत और जगत की वस्तुओं से परे ले जाते हैं और जीवन का उद्देश्य बन जाते हैं । आखिर हम कौन हैं? विभिन्न प्रकार की जीव जंतु कौन है? ये जगत क्या है? यहाँ पर होने वाले अनुभव किया है, ईश्वर क्या है? वो कैसे सब का नियमन करता है? धर्म क्या है, धर्म क्या है? उपासना क्या है की भक्ति और उपासना में क्या भीड है? और इन सब का स्थान देश हमारा स्वरूप परमात्मा कौन है? ऐसे ही बहुत से सवाल थी जो मुझे परेशान कर रहे थे । फिर मैंने निश्चय किया कि मैं उन सवालों के जवाब जानकर ही रहूंगा । मैंने भगवान शंकराचार्य, भगवान रामकृष्ण परमहंस और भगवान रमन्ना ऋषि को अपना गुरु बनाया और चिंतन शुरू किया । मैंने पाया कि क्या हम विचार करते हैं या हमारे मन में विचार आते हैं । दरअसल हम विकारों को विचार का नाम दे देते हैं । मन में कैसे भी विचार आए और हम सोचते हैं कि हम विचारवान बन गए । ये तो वही बात हुई कि एक बगीचे में जंगल की तरह कैसे भी पेड पौधे उगाए और फिर भी हम से बडी चाहिए काहे नहीं । जब तक उस बगीचे में जाकर हमें आनंद का अनुभव होता है तभी तक को एक बगीचा है अन्यथा वह एक डरावना जंगल है । ठीक उसी प्रकार अगर जान विचारों के द्वारा हमें आनंद का अनुभव नहीं होता वो विकास है । पहले हमें विचार और विकास तथा चिंतन और चिंता में अंतर समझना होगा । विचारों के द्वारा हम विकारों से मुक्त हो सकते हैं । चिंतन के द्वारा हम चिंता से मुक्त हो सकते हैं । इस संसार में हमें हर चीज सीखनी पडती है । चाहे वह रोटी बनाना हो, गाडी चलाना हो या कोई भी काम । जब हमें जगत में आते हैं तो हमें कुछ भी नहीं आता । धीरे धीरे हम सब सीखते हैं । उसी प्रकार विचार कैसे करना है ये भी सीखना पडता है । जिन विचारों के द्वारा हम चिंता से मुक्त हो जाते हैं, हमारे मन के प्रश्न शांत हो जाते हैं, उसे चिंतन कहते हैं तथा जान विचारों के कारण हम अपने आप में ही उलझ जाते हैं, उन्हें विकार या चिंता कहते हैं । इस पुस्तक में आपको विचार कैसे करें यही बताया जाएगा और जितने भी आपके आध्यात्म को लेकर प्रश्न है, सभी का समाधान करने का प्रयत्न किया जाएगा । जिस प्रकार मेरे मन के विकार जो बहुत से प्रश्नों के रूप में मेरे सामने थे, शांत हो गए । इस पुस्तक का यही प्रयोजन है कि जो भी आध्यात्म में प्रवेश कर रहे हैं, जिन्हें अपने स्वरूप को जानने की तीव्र इच्छा है, उनके भी प्रश्न को शांत किया जा सके तथा जिनके मन में कोई प्रश्न नहीं है उनके सामने बहुत से प्रश्न पैदा किया जा सके क्योंकि सत्य कुछ और ही है । सब के इतना संदर है कि शायद हम लोग इसकी कल्पना भी नहीं कर सकते ।