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आचार्य शंकर और मंडन मिश्र के बीच शास्त्रार्थ शुरू हुआ तो जैसे हमने का नाम ही नहीं ले रहा था । पांच छह दिन बीत गए लेकिन उनके बीच शास्त्रार्थ जारी रहा । नियम के मुताबिक दोनों पक्ष केवल नित्यक्रिया और भोजन के लिए विराम लेते और फिर शास्त्रार्थ शुरू हो जाता है । इस दौरान मंडल मिश्र अपना पक्ष रखते हुए बोले, आचार्य आप कहते हैं जीव और ब्रह्म एक हैं, एक कैसे पता चलेगा आप कौन परमात्मा को एक कैसे मान लिया जाए? जी वही प्रॉब्लम है । ये सिद्धांत कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि इसका ना तो प्रत्यक्ष ज्ञान है और न ही इसका अनुमान होता है । इसके बाद वो मुस्कुराते हुए सभा की ओर देखते हुए बोले, और तो प्रत्येक व्यक्ति का अनुभव है कि मैं इस वक्त नहीं हूँ । मंडन मिश्र का ये तर्क सुनकर सभी दर्शक हंसने लगे । लेकिन आचार्य शंकर बिना विचलित हुए । एक कदम शांतभाव से बोले, पंडित शेयरों, बडी चीज और प्राम्भ एक है इसका अभियान ऍम लाख जीप, कान और इस वजह से नहीं होता । हो भी नहीं सकता । इंद्रियों से तो केवल उसी का ज्ञान होता है जो प्रत्यक्ष है । सामने है इंद्रियों की पहुंच तो ब्रह्मा तक है ही नहीं । पर बात हाँ प्राम्भ तो मन, बुद्धि और इंद्रियों से पढे हैं । उसका प्रत्यक्षत ज्ञान या अनुमान कैसे हो सकता है इसलिए आप का प्रश्न ही अलग है । सभा में मौजूद दशत सात हो साथ हो गए थे । इस तरह शास्त्रार्थ बढता गया । प्रश्न उत्तर की गंभीरता बढने लगी । दो दूर से आए उत्सव बहुत वालों की भीड भी बढने लगीं । आचार्य शंकर के अकाउंट से तर्कों से मंडल मिस्टर निरूत्तर और परेशान होने लगे । अंततः उन्होंने अपनी पराजय स्वीकार करते हुए शंकराचार्य से कहा आचार्य मैं और मेरे जैसे अन्य लोग समझते हैं । शरीर के अंत के बाद दूसरे लोग नहीं जाएंगे । वहाँ तरह तरह के भूख को भोगेंगे और यही बहुत है । ये बात अब मुझे हसने योग के लगती है । हाँ, चार अज्ञानतावश और अपने अहंकार में मैंने आपको अप्रिय और कटु बातें कही । आप मुझे सामान कर दीजिए । मैं संन्यास लेकर आपकी शरण में रहना चाहता हूँ । आप अपना शिष्य बनाकर मुझे प्रभ तक तो का वो देश देगी । मंडन मिश्र की ये बात सुनकर सभा सन्ना रह गई । बहान पान प्रकांड पंडित मंडन मिश्र निरूत्तर होकर शंकराचार्य के शिष्य बनने को तैयार थे । कुछ देर पहले तक कोई इसकी कल्पना भी नहीं कर सकता था । कभी मंडन मिश्र की धर्मपत्नी उभय भारतीय उठ खडी । उन्होंने ऊंची आवाज में शंकरा ज्यादे से कहा मेरे पति अभी संन्यास नहीं ले सकते हैं । अभी उनके पराजय नहीं हुई है । ये सुनते ही सभी आश्चर्य से भर भर्ती को देखने लगे । भारतीय अपनी बात जारी रखते हुए आगे वो शास्त्र में पत्नी को पति की अर्धांगिनी माना गया है । इसलिए मुझे पराजित करने के बाद ही आप मेरे पति को शिष्य बना सकते हैं । या तो आप मुझसे शास्त्रार्थ नहीं करना चाहते हैं तो आप अपनी पराजय स्वीकार की थी । सभा में हलचल बच गई । आचार्य शंकर ने उन्हें समझाने की कोशिश की लेकिन उभर भर्ती अपनी बात पर अटल थी । अंतर का आचार्य शंकर उनसे शास्त्रार्थ को तैयार हो गए । आचार्य शंकर ने उभर भर्ती को अपने सामने आसन ग्रहण करने का इशारा करते हुए कहा था, माते, यदि आपकी यही इच्छा है तो आई मेरे सामने आ संग्रहण कीजिए । इसके बाद शंकराचार्य और उभर भर्ती के बीच शास्त्रार्थ आरंभ हुआ । सुबह भर्ती को जब लगने लगा कि आचार्य शंकर को पराजित करना असंभव है तो अठारह वह तीन उन्होंने आचार्य शंकर के सामने एक बडी दुविधा खडी करती । प्रश्नों का रुख बोलते हुए आचार्य शंकर से उन्होंने कुछ ऐसा पूछ लिया जिसका जवाब शंकराचार्य के पास नहीं था, उप है । भारतीय ने शंकराचार्य से कहा था, अब मैं आपसे कम संभोग के संबंध में प्रश्न पूछना चाहते हैं । ये सुनते ही सभा को जैसे साफ सुन गया, सभी ने आश्चर्यचकित होकर अपना सिर्फ शुक्रिया लेकिन भर्ती नहीं होगी । उन्होंने एक के बाद एक कामशास्त्र से जुडे सवालों की झडी लगा दी । भारतीय ने पूछा आचार्य, क्या आप बता सकते हैं? केसरी पुरुष संभोग की कितनी कल आए हैं, इसकी अलग अलग बहुत ट्राई किया है और उस को आकर्षित करने के लिए उसे रिझाने के लिए स्त्री कौन कौन से विधि अपनाती हैं? शरीर के किन किन अंगों में काम वास्ता का निवास होता है, इन क्रियाओं से संभोग का प्रारंभ होता है और इसका चरम क्या है? इधर भारतीय प्रश्न करती जा रही थी । उधर सभा में हलचल बढती जा रही थी । स्वयं मंडन मिश्र भी हैरान थे । इन प्रश्नों से असहज हो गए आदि शंकराचार्य नहीं उभर भारतीय से पूछा माता एक सन्यासी से इस प्रकार का प्रश्न क्यों? भारतीय नेता बात से पूछा क्या कामशास्त्र शास्त्र नहीं है? और फिर आप तो सर बनते हैं, जितेंद्रीय हैं । आप कामशास्त्र के प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं देते । मंडन मिश्र को भी अपनी पत्नी की बात ठीक नहीं लगे । उन्होंने बीच में पत्नी को टोकते हुए कहा देवी सन्यासी से ऐसे प्रश्न करना अनुचित है । उन्होंने बाल्यकाल में ही संन्यास ग्रहण कर लिया था । एक विरक्त त्यागी संन्यासी कामशास्त्र के ज्ञान पर कैसे विचार कर सकता है और अगर ये विचार भी करें तो इस से इनका सन्यास धर्म खंडित होगा । मंडन मिश्र अपनी पत्नी के प्रश्नों को अनुचित बताते हुए उन पर आपत्ति जाता रहे थे और उधर शंकराचार्य सिर्फ चुकाएं । कुछ सोच रहे थे । अचानक उन्होंने मंडन मिश्र को बीच में टोका और सुबह भारतीय से बोलेंगे बात देगी । मैं आपके प्रश्नों के उत्तर देने को तैयार लेकिन इसके लिए मुझे एक माह का समय चाहिए । भारतीय शंकर आचार की स्वीकृति को सुनकर हैरान हुई । उन्हें उत्तर की अपेक्षा नहीं थी । फिर भी वो कुछ पल सोचकर बोले जैसी आपकी इच्छा आचार्य लेकिन ठीक एक मास बात आपको शास्त्रार्थ के लिए आना होगा और मेरे द्वारा पूछे गए कामशास्त्र के सभी प्रश्नों का उत्तर देना होगा । शंकराचार्य देहात छोङकर उन्हें भारतीय की शर्त मंजूर की और कहाँ आप निश्चिंत रहे, ऐसा ही होगा । ये कहते हुए शंकराचार्य अपने आसन से उठ गए । सभा भंग हो गई । वहां मौजूद लोग आश्चर्य से शंकराचार्य को देखते रहेंगे और शंकराचार्य देश कदमों से सभा से निकल गए । इसके बाद आचार्य जंगल की तो चले गए । कहा जाता है कि वहां उन्हें हम रूप नाम के एक राजा का शव दिखाई दिया । शिकार के दौरान राजा की मौत हो गई थी । उस एक्शन आचार्य शंकर ने प्रबल लोगों को शक्ति से अपने शरीर का त्याग कर दिया और चाचा के शरीर में प्रवेश कर गए । आदि शंकराचार्य महीने भर तक राजा अमरू के शरीर में रहे और इस रूप में उन्होंने कहानी का साथ पाया । इस दौरान उन्होंने कामशास्त्र का ध्यान क्या महीना पूरा होते ही अच्छा दे दें राजा के शरीर को छोडकर वापस अपने शरीर को धारण क्या टाइम सीमा पर एक बार फिर वे अब है भारतीय से शास्त्रार्थ के लिए लौटरी अब की बार उन्होंने कामशास्त्र से जुडे सारे प्रश्नों का उत्तर क्या असल में आचार्य शंकर का प्रदेश किसी को शास्त्रार्थ में पराजित करना नहीं था । वो तो वैदिक धर्मदर्शन को आम लोगों तक पहुँचाना चाहते थे । इसके लिए उन्होंने एक यात्रा शुरू की । ये टिक बजाये यात्रा यात्रा के इतिहास की सबसे अद्भुत यात्रा है । भारत के इतिहास की सबसे अद्भुत यात्रा थी । भारत के दक्षिणी भाग रामेश्वरम से शुरू होकर यह यात्रा उत्तर में अलग अलग जगहों से होती हुई कश्मीर तक पहुंचे जहां शंकराचार्य ने शारदा पीठ में शास्त्रार्थ क्या पूरब में वे बंगाल और असम गए और पश्चिम में तक्षशीला आज के रावलपिंडी तक पहुंचे । यहां उन्होंने बहुत हजार शब्द अंकों से शास्त्रार्थ क्या? वैदिक धर्म के उत्थान में शंकराचार्य की इस दिग्विजय यात्रा के महत्व को समझाते हुई डॉक्टर रामनाथ छाप कहते हैं कि इस यात्रा के दौरान शंकराचार्य ने लगभग चौरासी संप्रदायों के आचार्यों से शास्त्रार्थ किया तो इसका उद्देश्य दूसरों को अपमानित करना नहीं बल्कि यही समझाना था कि आप जिस विचार पर हैं उससे आगे भी एक विचार है । यानी आपका विचार ही संसार का अंतिम विचार नहीं है और अगर आप इस बात को समझते हैं तो आप अपने विचार और जकत दोनों का कल्याण करते हैं । इसके लिए उन्होंने छीन आचार्यों के साथ शास्त्रार्थ क्या वे उनसे प्रभावित होकर उनके शिष्य बन गए? सैकडों धर्माचार्यों ने आदिशंकराचार्य के विचार से प्रभावित होकर हिन्दू वैदिक धर्म में आस्था व्यक्तकी अपनी देख विचाई यात्रा के बाद आचार्य शंकर कुछ शिष्यों को लेकर एक बार फिर बद्रीनाथ खेल की चलती है । वो उत्तराखंड के जोशीमठ में कुछ दिनों तक हो गयी वो नहीं तीनों । एक दिन उन्होंने अपने शिष्यों को बुलाया और उनसे एक विशेष बात पर विचार मंथन करते हुए कहा, अद्वैत वेदांत मार्ग को लंबे समय तक चलाने के लिए सन्यासी संघति स्थापना आवश्यक है । इसके लिए भारत की चारों दिशाओं में मठों की स्थापना हूँ । परम पात, सुरेश्वर, हस्ता, गलत और तोटक मेरे ये चार प्रमुख शिष्य उन मठों के प्रथम महादेश होंगे । शेष अन्य शिष्य उनके सहायक हूँ । इस तरह आदि शंकराचार्य दे । दक्षिण में श्रृंगेरी बट, पश्चिम में द्वारिका मठ, पूर्व में गोवर्धन मठ और उत्तर भी ज्योतिर्मठ स्थापित किया । हर्बर्ट के एक शंकराचार्य बनाये गए । शंकराचार्य द्वारा शुरू की गई ये परंपरा आज भी है । डॉक्टर रामनाथ अच्छा इसे शंकराचार्य द्वारा स्थापित सबसे महत्वपूर्ण व्यवस्था मानते हैं । उनका कहना है कि शंकराचार्य ने चार शंकराचार्य नियुक्त किए तो इसका आशय था की उन्होंने भारत को आध्यात्मिक दृष्टि से चार भागों में पांच दिया और ये आदेश दिया कि ये चार शंकराचार्य अपने क्षेत्र के लोगों के आध्यात्मिक उत्थान के लिए काम करेंगे । शंकराचार्य द्वारा स्थापित ये परंपरा आज भी उन्हीं के विचारों का अनुसरण कर रही है । शंकराचार्य का योगदान यहीं तक सीमित नहीं है । उन्होंने हिन्दू वैदिक धर्म को कई और स्थापनाएं थी । शंकराचार्य ने इन चार मठों से दस संप्रदायों को जोडा ये दशनामी संन्यासी संप्रदाय कराते हैं । दशनामी संप्रदाय के अखाडे होते हैं । हर अखाडे के प्रधान महामंडलेश्वर कहना आते हैं । इस तरह से शंकराचार्य नहीं हिन्दू धर्म के प्रचार प्रसार के लिए एक व्यवस्था तय करती हूँ । अब तक आचार्य शंकर की आयु बत्तीस वर्ष हो नहीं होने वाली थी और वो केदारनाथ में रहकर अधिकतर समय समाधि में पढना रहने लगे थे । उन्होंने अपने शरीर पर ध्यान देना भी कम कर दिया था । आपने भोजन को लेकर भी वो उदासीन रहने लगे थे । उनकी स्थिति देखकर शिशु को चिंता होने लगी थी । वो समाधि भूमि से नीचे तक नहीं चाहते । अक्सर उनकी कहीं बातें भी संसार से विरक्ति के भाव व्यक्त कर दी थी । एक शाम जब सूरज ढलने वाला था, प्रकृति को निहारें, देखो आचार एक्शन करते अपने पास बैठे दो चार शिष्यों से कहा, गरम सत्यम शाॅ जी, वो कम है वहाँ पर यहाँ नहीं प्रमुख ही सकते हैं । जगत मिथ्या है जी, वही ब्राॅड और प्रबंधन में कोई भेद नहीं है । ये कहते हुए आज सारे शंकर की दस हजार बगल में रखे एक मिट्टी के घडे पर पडेगा । उसको देखते हुए वो आंखें बोली क्या खडा व्यक्ति को छोडकर एक क्षण भी टिक सकता है । ये जगह भी मिट्टी के घडे की धारा है । कोई ब्रह्मा से अलग नहीं है । हर चीज में प्रमुख हैं । शिष्य बडे ध्यान से आचार्य की बाते सुन रहे थे शंकराचार्य आंखे बोले अब मुझे अस्पष्ट अनुभव हो रहा है । आपके शरीर के समस्त तक कार्य समाप्त हो गए । अब स्वरूप में लीन होने का समय है । कहते कहते हैं अच्छा है एक दम माहौल हो गए और ध्यान में चले गए । कहा जाता है किसी अवस्था में तो कुछ दिन रहे और अंत में वे समाज ही योग ग्रहणकर । आत्मस्वरूप में लेन हो गए । शंकर रफ्तार परमज्ञानी यथिराज शंकर के जीवन का बत्तीस वहाँ पर समाप्त हो चुका था । जगद्गुरु शंकराचार्य केदारनाथ में ही अंतर्ध्यान हो गए ।
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