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आदि शंकराचार्य - 1 in  |  Audio book and podcasts

आदि शंकराचार्य - 1

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विद्वानों के बीचो-बीच भगवा वस्त्रों में एक दंडीधारी युवा संन्यासी आसन लगाए हुए थे. और उनके ठीक सामने महिला बैठी हुई थीं. इस महिला ने अभी-अभी अपने पति को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले इस युवा संन्यासी को शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी| writer: ABP News Author : ABP News Voiceover Artist : Shreekant Sinha
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आप सुन रहे हैं को एफ एम किताब का नाम है आदि शंकराचार्य जिससे प्रकाशित किया है एबीपी न्यूज नहीं और आवाज आती है । श्रीकांत सिन्हा ने कुकू ऍम सुनी जो मन चाहे आदेश शंकरा चाहते हैं । आज से तकरीबन बारह सौ साल पहले की उस घटना की बस कल्पना की जा सकती है । विद्वानों के बीचोंबीच भगवा वस्त्रों में एक डंडाधारी युवा सन्यासी आसन लगाए हुए थे और उनके ठीक सामने महिला बैठी हुई थी । इस महिला ने अभी अभी अपने पति को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले इस युवा संन्यासी को शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी । शास्त्रार्थ करते हुए महिला हूँ । युवा सन्यासी के सामने एक के बाद एक रिश्तों की झडी लगा रही हैं । युवा संन्यासी आपने दिव्यज्ञान और अकाट्य तर्कों से महिला के सभी प्रश्नों का संतोषजनक उत्तर देते जा रहे हैं । अपनी हार सुनिश्चित देखकर महिला अभी युवा संन्यासी से कहती है आचार्य अब मैं आपसे कामशास्त्र के प्रश्न पूछना चाहती हूँ । एक ब्रह्मचारी संन्यासी के सामने एक महिला के बहुत से ऐसी बात सुनकर सभी आश्चर्यचकित होकर अपना सब छुपा लेते हैं । लेकिन सभी के चेहरों पर शर्मिंदगी देखकर भी महिला नहीं रोकती तो सन्यासी से पूछती है आचार्य क्या आप बता सकते हैं स्त्रीपुरुष संभोग की कितनी कल आए हैं संभोग की अलग अलग मुद्राएं क्या है? पर उस को आकर्षित करने के लिए उसे रिझाने के गई स्त्री कौन कौन सी वृद्धियां अपनाती हैं शरीर के किन अंगों में काम वासना का निवास होता है? पूर्णिमा की ओर बढते हुए और अमावस्या बे घटते हुए चंद्र बाकी स्थिति के साथ पुरुष और स्त्री अंगों की क्या स्थिति होती है? महिला युवा सन्यासी से एक के बाद एक कामशास्त्र के प्रश्न पूछता हूँ जाती रखती है ऐसे प्रश्न जिसे सुनकर सन्यासी का सर लक्ष्या से चुका हुआ है । इन तो महिला के प्रश्नों में अब भी लक्ष्या का कोई स्थान नहीं है । वो आगे कहती है आचार्य संभोग के समय स्त्री कैसे पुरुष पर काम का विस्तार करती है । इन क्रियाओं से संभोग का प्रारंभ होता है । इसका चरम क्या है? रिश्तों सुनकर जोबा सन्यासी थोडे असहज हो जाते हैं । आखिरकार उन्हें महिला को टोक नहीं पडता है । वो कहते हैं माता एक सन्यासी से इस प्रकार के प्रश्न क्यों? इस आपत्ति का जवाब महिला एक प्रश्न के रूप में देती है । पूछती है तो क्या कामशास्त्र शास्त्र नहीं है और फिर आपको सर्वगते हैं जितेंद्रीय हैं । आप कामशास्त्र के प्रश्नों का उत्तर क्यों नहीं देते? महिला के इन प्रश्नों के बाद तो मारो सभा में सन्नाटा पसर जाता है । इतिहास में शायद ऐसे शास्त्रार्थ बात के बाद या बहस का सेक्टर और कहीं नहीं मिलता जिसमें एक महिला आठ साल की उम्र में संन्यास ग्रहण कर लेने वाले एक व्यक्ति से खोज रही है कि संभोग का चरम किया है । जबकि वो जानती है की अगर सन्यासी ने ऐसे प्रश्नों के बारे में सोचा भी तो उनका संन्यास खंडित हो जाएगा । तो फिर शास्त्रार्थ का न भेजा क्या हुआ इस पूरी कहानी को जानने से पहले आप ये जान लिखे की प्रश्न पूछने वाली महिला का नाम उप है, भर्ती था और उसके सामने पशोपेस में बडे सन्यासी का नाम था शंकराचार्य हैं । ये भारत के दो महान सन्यासी थे जिनके लिखी किताबों को हम में से बहुत से कम लोगों ने पढा है । लेकिन जब सवाल जीवन और मृत्यु का हो व्यक्ति और उसके इश्वर के बीच के संबंध का हो तो सन्यासी के विचार एक सौ करोड से ज्यादा लोगों के विचार बन जाते हैं और वह सन्यासी कहलाते हैं । जगत करूँ आदि शंकराचार्य है वहीं जगत को रोशन करना चाहते हैं जिन्होंने आज के भारत हूँ धर्म के धागे से एकता के सूत्र में पिरोया, वो भी आज से बारह सौ साल पहले । क्या भारत राजनीतिक तौर पर ही नहीं बल्कि धार्मिक तौर पर भी बता हुआ था । तब धर्म के नाम पर आडम्बर था, कर्म कांड था, जिसे आज हम हिन्दू धर्म कहते हैं । वो चौरासी से भी ज्यादा अलग अलग संप्रदायों में पटा था । यहाँ तक के बौद्ध धर्म में भी तंत्र और मंत्र करने वालों का बोल पाला था । इन हालात से धर्म को निकालने के लिए जगद्गुरु आदेश शंकरा चाहते थे । पूरे भारत की पैदल यात्रा की थी । मकसद था भारत को धार्मिक एवं आध्यात्मिक तौर पर एक करना । भारत का शायद ही कोई ऐसा इलाका बच्चा होगा जहाँ यात्रा आदि शंकरा चाहते थे, नहीं की हो । उन्होंने भारत के हर कोने में अलग अलग धर्मों और संप्रदायों के विद्वानों से शास्त्रार्थ किया और धर्म विजय की नींव रखी थी । आज जस्ट एक आध्यात्मिक भारत की रूपरेखा दुनिया देखती है । उसके रचनाकार भी शंकराचार्य ही है इन्हीं शंकराचार्य की बदौलत । आज भारत भूमि के उत्तर में हिमालय कूद में ज्योति बट है तो पश्चिम में द्वारिका मट्ठा, दक्षिण में शिंदे दी बट धर्म का परचम लहरा रहा है । पूरब में गोवर्धन बट लेकिन जानकार शंकराचार्य को लेकिन जानकार शंकराचार्य की भूमिका केवल धर्मजागरण और आध्यात्मिक चेतना के विकास में ही नहीं मानते । जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में संस्कृत अध्ययन केंद्र के डॉक्टर रामनाथ झा कहते हैं कि चाहे रक्षा की दृष्टि से देखें या सामाजिक और सांस्कृतिक एकता की दृष्टि से अथवा आध्यात्मिक एकरूपता की दृष्टि से ये समझ में आता है कि शंकराचार्य जैसा दूसरा कोई व्यक्ति भारत के इतिहास में नहीं हुआ जो उनके जैसा चिंतन रखता हूँ या जिस नहीं उनकी तरह सफल प्रयोग किए हो हूँ । इसी तरह दिल्ली विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के प्रोफेसर रमेश सी भारद्वाज का कहना है कि आदि शंकराचार्य द्वारा किया गया धर्मजागरण अपने समय और काल की वजह से भी बेहद महत्वपूर्ण हो जाता है । असल में ये वो समय है जब बात धर्म भी संक्रमण सिंह हो जाता था । इस समय बहुत धर्म हीन विज्ञान या महायान नहीं था वो बच का यान हो चुका था । इसका मतलब ये है कि तांत्रिक बात धर्म बहुत ज्यादा प्रचालन में था, जिसकी वजह से समाज में धर्म के नाम पर अली विकृतियां आने लगीं । जैसे हम हिंदू या वैदिक धर्म कहते हैं, उसमें भी अनेक संप्रदाय थे, शंकराचार्य नहीं । इन हिंदू धर्मावलंबियों को आपसी संघर्ष की राह से हटाकर उन्हें एक क्या उनकी ये उपलब्धि धार्मिक एकता की दृष्टि से ऐतिहासिक है और साथ ही उनकी दूरदर्शिता का परिचायक भी । इस महान दूरदर्शी, दार्शनिक और धर्म की रक्षा करने वाले आदिशंकराचार्य की जीवन यात्रा शुरू होती है । केरल के एर्नाकुलम जिले के काल टी या कलाडी गांव से नम्बूदरीपाद ब्राह्मणों के उस गांव में शिव करो नाम के एक विद्वान रह करते थे । कहते हैं भगवान शंकर के आशीर्वाद से उन्हें एक पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने शंकर रखा । आम तौर पर इतिहासकारों की राय यही है । शंकराचार्य का जन्म करीब बारह सौ साल पहले सात सौ अट्ठासी किस में हुआ था । हालांकि कुछ लोग बताते हैं कि उनका जन्म पच्चीस सौ साल पहले हुआ था । जन्म से ही शंकर अपनी अद्भुत प्रतिभा से सबको चकित कर रहे थे । कहाँ चाहता है की भी इतनी प्रतिभाशाली थे कि तीन साल की आयु में ही मातृभाषा मलयालम सीखी । वेदों को पढा गाना, धर्म के कठिन प्रश्नों का उत्तर तेरे लगे हालत, कीट एक्शन बत्ती और धर्मध्यान कि ख्याति धर्मगुरुओं तक पहुंची तो वह बालक की परीक्षा लेने के लिए उनके घर पहुँच गई । ऐसे ही कुछ दिन कुछ धर्माचार्य बालक शंकर से मिलने उनके घर है । शंकर के पिता ने उन्हें घर में ऊंची आसन पर बैठाया और उनका यथोचित सम्मान किया । कुछ देर में उन्होंने बालक शंकर को बुलाया । तीन वर्ष का नाच भाषण कर उनके सामने था । उसकी उम्र जरूर कम थी, लेकिन आत्मविश्वास नहीं । उसे देखकर धर्मा चाहते नहीं । पहला प्रश्न किया, थोडी ही को बंधा हुआ कौन है? इस पर पालक शंकर ने तपाक से जवाब दिया विश्य अन्नुराज । वास्तव में जो अनुकरण होता है, वही बंधन क्रस्ट है । प्रश्न पूछने वाले आचार्य उसे देखते ही रह गए । दूसरे धर्मा चाहते थे । प्रश्न किया शंकर बताओ घोर नरक क्या है? अपना शरीर ही खोल नरक है । इस पर दूसरे आचार्य फिर से पूछते हैं, इसका कारण हूँ । इस करा आचार्य बालक शंकर से एक के बाद ए गंभीर प्रश्न पूछ रहे थे और सिर्फ तीन साल के बालक शंकर उनके हर प्रश्न का उत्तर ऐसे दे रहे थे । मालूम नहीं, हर शास्त्र का ध्यान हूँ । शंकर की ऐसी प्रतिभा देखकर पहले आजादी नहीं कहा । अहसास तेजस्वी भालत पहली आज तक नहीं देखा । पहले आचार्य की बात को पूरा करते हुए दूसरे आच्छा देने कहा ये तो साक्षात शिव है । आचार्यों की राय सुनकर शंकर के पिता शिवगुरु करता हूँ थे और बोले, मैं मैं ऐसे पुत्र को पाकर धन्य पर कुछ होते हैं । इस तरह शंकर कि ख्याति पूरे क्षेत्र में फैल रही थी लेकिन उसी साल उनके पिता का देहांत हो गया । इतनी छोटी आयु में पिता की मृत्यु के बाद अब वहाँ और बेटा ही एक दूसरे का सहारा था । माँ बेटे के लालन पालन और भविष्य को लेकर चिंतित थी । परंपरा के बताते हैं माने पांच साल की उम्र में शंकर का आपको प्रयाम संस्कार करवाया । इसके बाद बालक को शिक्षा के लिए आचार्य के पास भेजा गया । यहाँ एक चमत्कार हुआ जिन शास्त्रों के अध्ययन में बाकी शिष्यों को बीस वर्ष लग जाते थे उन्हें शंकर ने दो वर्ष में ही समाप्त कर दिया और इस तरह वो अपनी माँ के पास अपने गांव कल आॅटाे । बालक शंकर के बारे में जो कहानियाँ कलाडी के साथ साथ पूरी दुनिया में चर्चित हैं उनमें से एक कहानी उनकी गांव के पास से पहने वाली एक नदी पूर्णा से भी जुडी हुई है जिसको अब पेरियार स्मृति कहते हैं । अभी ये नदी शंकराचार्य के गांव को छूकर निकलती है लेकिन बालक शंकर के समय ये गांव से काफी दूर वहाँ करती थी और उनकी माँ को पानी लाने और स्नान के लिए जाने में काफी दिक्कत होती थी । कहते हैं कि माँ को परेशान देखकर बालक शंकर ने प्रार्थना की और उसके प्रार्थना पर तो उडाने धारा ही पढ लेते हैं । पालक इतना तेजस्वी था लेकिन वहाँ की चिंता कुछ और ही थी । एक दिन अगस्त विदेशी शंकर के घर पहुंचे हूँ । शंकर के बाद आर्य लंबा नहीं अगस्त विदेशी को प्रणाम किया और उन्हें घर में ऊंचे स्थान पर आसूम दिया । घर में इतने पहुंचे हुए सन्यासी पधारे थे तो माँ लंबा के मान ने अपने पालक का भविष्य जानने की स्वाभाविक इच्छा हुई हूँ । अपनी मन की बात मुनिवर अगस्त जैसे कहते हुए आर्य ममता बोली, गुरु पर आप जैसे महान पुरुषों के दर्शन करना हमारे और गेहूँ का फल है । मेरे पलक ने समस्त वेदों और विविध शास्त्रों का अध्ययन कर लिया है । इसके प्रतिभा असाधारण होती है । इन बातों से मेरे मन में कई तरह के प्रश्न होते रहते हैं । अगर मेरे सुनने योग के कुछ हो तो आप मेरे बालक के भूत भविष्य के बारे में कुछ बताएं । आरएम बाकी बात सुनकर अगस्त ऋषि कुछ बाल के लिए ध्यान मत हुए हैं और फिर बोलिंग पति प्रति तो भारी पडने और भाग के से भगवान शंकर स्वाइन तो भारी कौन से अवतरित हुए हैं । ये सुनकर आर्यमान की खुशी का ठिकाना नहीं रहा । प्रसन्न होकर उन्होंने मुनिबर से फिर पूछा और अच्छा रहे हैं । इसकी आई हूँ । शंकर की बात द्वारा पालक की आई उसने पर अगस्त ऋषि है । कुछ देर सोचते हुए बोले देवी तो भारे । पुत्र की आयु आठ वर्ष और फिर आठ वर्ष और था सोलह वर्ष पर इसे विशेष कारण वर्ष सोलह वर्ष और के इस लोग में रहेगा और इतने में अगस्त कृषि के साथ बैठे एक्सिस्ट नहीं । ऋषि को आगे बोलने से धोखा दिया । ये देख कर मां लंबा और खपरा कही और उन्होंने मुनिवर से पूछा ही क्या कह रहे हैं? आचार्य सिर्फ बत्तीस वर्ष की आयु हूँ इसका आचार्य नहीं केवल हमें सिर्फ खिलाया । बत्तीस वर्ष की आई तो में पुत्र के देहांत की बात सुनकर माँ होगी अगस्त करते । उसी की बात सुनकर लंबा के चेहरे का जैसे रंग फट गया उन पर तो जैसे दुखों का पहाड टूट पडा । सच पाँच किसी बात के लिए इससे दुखदाई बाद क्या हो सकती है कि उसके पुत्र की अल्पायु में ही मृत्यु हो जाये । ऋषि अगस्त की भविष्यवाणी के बाहर माथा लंबा के लिए एक एक दिन बाहर हो गया । पुत्र के सिवा उनका कोई सहारा भी तो नहीं था । दूसरी तरफ माँ की इस चिंता से अलग बालक शंका जो अब तक आठ बरस के हो गए थे, कुछ और ही सोच रहे थे । हुआ यूं कि एक दिन माँ बाप अपने पुत्र की चिंता में उदास अपने घर के आंगन में बैठी थी । कभी शंकर वहाँ पहुंचे । बातों बातों में शंकर ने माँ से एक गंभीर के शिक्षक क्या वो बोले हाँ मैं देखता हूँ कि लोग चंद लेते हैं और उनकी मृत्यु हो जाती है । इस संसार कोई सुख नहीं है वहाँ इसलिए मैं संन्यास लेकर सारे बंधन से मुक्त होना चाहता हूँ । बालक की ये बात सुनकर माँ को झटका सा लगता है । वो तुरंत शंकर ऍफ होता । बलों पेठा मुझसे ऐसे वचन हूँ सन्यास के विचार को छोड दो एक कहकर आॅफ हो गई माँ को ऐसे देखकर भी बालक चुप नहीं हुआ । उसने बात से कहा माँ भला इसमें अनुचित क्या है? बालक शंकर के इस प्रश्न से मैं कुछ समझते हुए बोली देखो शंकर पहले तुम गृहस् खबर हूँ । यज्ञ और आराध्या करूँ पूछा करो इसके बाद सन्यासी बनना हूँ और तुम तो विद्वान हूँ । तुमने तो कई शास्त्रों को पढा है तब भी तुम अपनी बाधा के बारे में क्यों नहीं सोचते हैं? क्या तुम्हें अपनी माता से कोई प्रेम नहीं? बात अब का प्रभास तक चला चुकी थी इसलिए पालक शंकर उस समय चुप हो गए । वे मन ही मन को सोचने लगें । उनके मन में चल रहा था कि उनका बन इस सांसारिक जीवन में रहना नहीं चाहता । किंतु माँ उन्हें छोडना नहीं चाहती हैं । वे सोच रहे थे की माँ उनके हृदय की बात क्यों नहीं समझती? माता की आज्ञा के बिना वे कैसे सन्यास ग्रहण करेंगे । चलता ही भगवान शंकर के रूप में बालक शंकर को माँ से अनुमति पाने की एक राहत की माने । जब सन्यास लेने की अनुमति नहीं थी तो संकट ने एक लीला करना चट्टानें एक दिन वो पूर्णा नदी पर नहाने गए । किनारे पर ही उनकी मांग खडे थे । माने देखा ना हाथ नहाते अचानक बालक शंकर डूबने लग गई और जोर से चिल्लाएं मुझे बचाओ मुझे बचाओ मुझे कोई खींच रहा है । तभी वहां पास में खडे एक व्यक्ति देखा था और एक उसे तो घडियाल खेल खेले जा रहा है । ये सुनते ही मां आर एम बाकी होशपूर्ण गए । उन्होंने आओ देखा जाता हूँ वो शंकर को बचाने के लिए नदी में उतर गई । माँ के पीछे पीछे दूसरे लोग भी भागने लगे । माँ अभी शंकर से दूर थी और उधर खडियाल शंकर को खींचता ही जा रहा था । शंकर ने चिल्लाते हुए माँ से कहा माँ या तो तुम मुझे सन्यास ले ले की आख्या दो तो ये घडियाल मुझे छोड देगा । वहाँ आश्चर्य से शंकर को देखते लगीं महाने बालक का ध्यान खींचते हुए फिर कहा माँ जल्दी बोलो बस कुछ क्षण बचे हैं माँ माँ बालक की लीला माने समझ लिया । आखिरकार उन्होंने उन्हें सन्यास देने की अनुमति दे दी । कहते हैं कि बालक शंकर नहीं माया की रचना की और माँ को उसी माया के भ्रम में फंसाकर उनसे सन्यास की अनुमति नहीं तो दूसरा पक्ष में ये कहता है की अनुमति देने में तेज करते हुए माँ असल में बालक शंकर के जीवट की परीक्षा ले रही थी । जब बालक उस परीक्षा में खरा उतरा तो फिर उन्होंने देख नहीं इस बारे में श्रीशंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय कलाडी की डॉक्टर भी वसंत कुमारी कहती हैं बालक की माया को समझने के बाद माँ लंबा नहीं शंकर से कहा कि वे सन्यास की अनुमति तो दे रही हैं किन्तु उन की एक इच्छा है कि जब उन का देहांत हो तो शंकर उनके पास आए और वहीं उनका अंतिम संस्कार करें । तब बालक शंकर नहीं माँ से वादा किया कि जब भी उनको शंकर की उपस् थिति चाहिए होगी वे उनके पास जरूर आएंगे । आज भी कलाडी के मंदिर परिसर शंकराचार्य की माँ आर एम बाकी अंतिम संस्कार से जुडी जगह चिन्हित है । बहरहाल शंकर एक ऐसी उम्र में घर परिवार, सखा संबंधी और माँ को छोडकर सन्यास के बार का पर चल लिख लें जिसमें बच्चे ममता के आंचल में पलते बढते हैं और उनकी दुनिया घर आंगन और गांव तक ही सीमित रहती है । टन पर श्वेतवस्त्र नंगे पाओ कंधे पर भिक्षा की झोली बालक को इस रूप में देखने वालों की आंखें नम हो जाते हैं । बारह सौ साल पहले आंखों में आंसू ली गई एक महान द्वारा अपने कलेजे के टुकडे को इस तरह विदा करने के दृश्य की कल्पना आज भी और मनसा कर सकती है लेकिन कांटो भरे जीवन की को आगे बढते हैं । उस बालक के होठों पर एक मुस्कान थी और चेहरे पर बीस था । बालक शंकर नहीं उसी मुस्कान के साथ सभी को प्रणाम किया । वहाँ से आशीर्वाद लिया और गांव छोडकर अकेले निकल गए । घर छोडने के बाद शंकर कई दिनों तक घूमते रहे । उन्होंने मार्क में कई गांव नगर, नदी, पर्वत और जंगलों को । पांच क्या शंकर संसार के विचित्रता को देखते हुए बढते जा रहे थे । राष्ट्रीय में उन्होंने एक दंड यानी लाठी को हाथ में लेने का । बाद में इस को वैदिक धर्म की रक्षा का प्रतीक माना जाता है । मठ परंपरा के मुताबिक आज भी शंकराचार्य दंडा लेकर चलते हैं । शंकर कुरोकी खोज में घर से निकले थे । ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि वो अपने जन्मस्थान यानी केरल के कलाडी से निकलकर तुम का भट्टा की ओर बुरे और फिर इसके बाद शिंदे दी से वो करणों होते हुए उनका र्इश्वर पहुंचेगी । ओंकारेश्वर में नर्मदा नदी के तट पर गुरु गोविंद बात का आश्रम था । श्री कोविंद बाद अपनी विद्वता, योग बाल और प्राम्भ बयान के लिए प्रसिद्ध थे । गुरु गोविन्द बाद आश्रम के पास एक गुफा में समाधि में थे । यहीं पर पालक शंकर की श्रीगोविंद अब आज से पहली मुलाकात हुई । ध्यानमुद्रा से बाहर आने पर श्री कोविंद आबाद नहीं बालक शंकर को अपनी करें । बैठा देखा तो पूछा कौन हो तो बालक शंकर ने इसका जवाब कुछ रोटियाँ हे प्रभु हूँ, मैं ही नहीं हूँ, हूँ ला तेज हूँ । न वायु हूँ, ना आकाश, ना उनके बोलूँ ना इन्द्रियाँ हूँ आपने हूँ इन सबसे बडे जो केवल परम तत्व श्रीवत् तो है वही मैं हूँ । एक बालक के उसी के उत्तर सुनकर श्री कोविंद बात प्रसन्न हो गए । उन्होंने शंकर से कहा हारे उत्तर से मैं पटेल प्रसन्न हूँ तो भरे उत्तर से अत्यत का साक्षात्कार होता है ।

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विद्वानों के बीचो-बीच भगवा वस्त्रों में एक दंडीधारी युवा संन्यासी आसन लगाए हुए थे. और उनके ठीक सामने महिला बैठी हुई थीं. इस महिला ने अभी-अभी अपने पति को शास्त्रार्थ में पराजित करने वाले इस युवा संन्यासी को शास्त्रार्थ करने की चुनौती दी थी| writer: ABP News Author : ABP News Voiceover Artist : Shreekant Sinha
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