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CHAPTER 9 परमात्मा का स्वरुप in  |  Audio book and podcasts

CHAPTER 9 परमात्मा का स्वरुप

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Apana Swaroop | अपना स्वरुप Producer : KUKU FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava Producer : Kuku FM Author : Dr Ramesh Singh Pal Voiceover Artist : Raj Shrivastava (KUKU)
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अध्याय नो परमात्मा का स्वरूप उपनिषद में एक बहुत सुंदर कथा आती है जहाँ बताते हैं कि एक शिष्य गुरु महाराज के पास जाता है और कहता है कि हे गुरु महाराज! हमें परमात्मा के स्वरूप के बारे में कुछ बताऊँ । कृप्या करके हमें परमात्मा क्या है इसका ज्ञान दीजिए । गुरु महाराज कहते हैं कि तुम खुद परमात्मा को जा रहा क्योंकि या तो वह जो निवर्तते अप्राप्य मांॅ । परमात्मा वाणी का विषय नहीं है और ना ही मान के द्वारा इसको जाना जा सकता है । शिष्य कहते हैं कि गुरु महाराज कृप्या करके कुछ तो बताइए । तब गुरु महाराज कहते हैं परमात्मा क्या है ये तो मैं नहीं बता सकता परन्तु क्या नहीं है ये बता सकता हूँ । तब गुरु महाराज कहते हैं जो ज्ञात और अज्ञात के परे हैं वह परमात्मा है । अब इसको खोजो याद किया है जो तुम जानती हूँ हो गया है और जो तुम नहीं जानते हो वो अज्ञात है परमात्मा ये दोनों ही नहीं है । उदाहरण के लिए मैं हिंदी जानता हूँ और तमिल नहीं जानता हूँ । इसका मतलब परमात्मा ना हिंदी है न तमिल अपितु इन दोनों की पारी है ये परिषद के दो अर्थ है सूक्ष्म तथा सर्वव्यापी । एक उदाहरण से समझाते हैं आदमी क्या है? आदमी एक पति पिता पुत्र होते हुए भी इनके परे हैं । अगर पति पिता पुत्र नहीं है तब भी आदमी जो कत्यों हैं । इसी प्रकार परमात्मा ज्ञात मतलब कार्य तथा अज्ञात मतलब कारण के पर है । जिस प्रकार लहरे कार्य है तथा समुद्र कारण परन्तु अगर ये दोनों नहीं रहे तो भी पानी रहेगा अर्थात पानी, लहरें, कार्य और समुद्र कारण के परे हैं । अब ये सवाल उठता है कि फिर परमात्मा को जाने कैसे आध्यात्मकि क्षेत्र में सबसे बडी परेशानी तब आती है जब हम हर वस्तु को ऑब्जेक्टिविटी जानने का प्रयास करते हैं । ऑब्जेक्टिविटी हम उन्हीं वस्तुओं की जान सकते हैं जो मन, बुद्धि, चित्र के दायरे में है । लेकिन जो वस्तु इन सबसे परे हैं उसको कैसे जाने । फिर मनीष के एक कल्पना प्रोजेक्शन करना शुरू करता है । वो सोचता है अगर मेरे दो हाथ है तो परमात्मा के हजारों हाथ होंगे क्योंकि वो मनुष्यों से श्रेष्ठ और शक्तिशाली है । फिर वो सोचता है कि मनुष्य का एक सिर है तो परमात्मा के हजार से होंगे और फिर वो कल्पना करके एक चित्र इमेज का निर्माण करता है और उसे परमात्मा सोचने लगता है और सोचता है कि परमात्मा मुझसे अन्य हैं । फिर से दूर ढकेल देता है और अपने को तुच्छ समझने लगता है । इसलिए परमात्मा बन जाता है । इच्छाओ को पूरा करने का साधन और संसार बन जाता है । सात दिया थोडा चिंतन करते हैं । जब हम को एक नया उपकरण इंस्ट्रूमेंट खरीदते हैं तो उसके साथ एक ऑपरेटिंग मानवर भी दिया जाता है ताकि उस मानवर को पढकर हम इंस्ट्रूमेंट के बारे में थोडा जान सके । उसी प्रकार हमारी वेद, उपनिषद तथा अन्य शास्त्र भी मानवेल है परमात्मा के बारे में हमें बताने के लिए । लेकिन अगर हमारे पास सिर्फ फॅमिली ही है और इंस्ट्रूमेंट नहीं तो क्या इंस्ट्रूमेंट चलाने का अनुभव हमें आ सकता है? एक और उदाहरण ले लेते हैं । हमारे एक मित्र ने हमसे पूछा कि अल्मोडा में खाने का सबसे अच्छा होटल कौनसा है? हमने उसको बताया तो वह होटल में गया शाम को फिर वो हम से मिला और कहता है यार वो होटल तो बहुत बढिया था । हजारों तरह के व्यंजन थे । मैंने वहाँ का मेन्यू एकदम कंटेस्ट पढ लिया । मगर मेरा पेट तो भर ही नहीं तो मैंने उससे पूछा तो उन्हें खाना खाया की नहीं तो वो बोले खाना तो नहीं खाया बस उसके बारे में पढा । फिर हमने उससे कहा भाई पेट भरने के लिए भोजन खाना पडता है, उसी प्रकार हमने परमात्मा के बारे में बहुत कुछ पडा, बहुत सुना लेकिन क्या हमने उसका अनुभव किया । लेकिन फिर वही सवाल आता है कि अनुभव तो इंद्रियो मान्य बुद्धि के द्वारा ही किया जा सकता है । और जो अनुभव इंद्रिया, मन, बुद्धि के द्वारा होता है, उस सकते नहीं होता । वो एक मानसिक प्रगति है । लेकिन क्या कभी आपने ऐसा अनुभव किया है जो इंडिया मंदबुद्धि के द्वारा नहीं होता लेकिन अनुभव लगते होता है । वह अनुभव है हमारा होना । जी हाँ, हमारा होना हमें है । इस बात को हम आंख से देखकर जानते हैं या मन से सोच कर जानते हैं या बुद्धि से निश्चय कर की जानते हैं? नहीं हमारा होना हम मन बुद्धि इंद्रिया से नहीं जानते लेकिन हम होते हैं । एक बार मेरे एक मित्र स्कूल के मुझे पंद्रह साल बाद मिला । पहले तो मुझे देखता रहा फिर वो मेरे पास अगर मुझसे पूछा सर क्या वो स्कूल में पढती थी? मैंने कहा तो क्या रमेशपाल को जानते हो? वो आपकी जैसा ही दिखता था तो मैंने उस की ओर देख और बोला था हाना मतलब मैंने कहा देखो हाँ क्योंकि मैं रमेशपाल को जानता हूँ और ना इसलिए क्योंकि मैं डॉक्टर रमेशपाल को ऐसे नहीं जानता जैसे आप जानते हो अपने से अन्य के जैसे वो हमारे मित्र थोडा कंफ्यूज हो गए । फिर हमने टॉपिक चेंज कर दिया । अध्यात्म में जानना और होना एक होता है इसको ऐसे समझ लेते हैं । मान लिया मेरे हाथ में पुस्तक है इसको अस्ती प्रत्या कहते हैं और जब मैंने पुस्तक को उम्मीद पर रख दिया तो मेरे हाथ में पुस्तक नहीं है इसको नास्ति प्रत्येक रहते हैं और जहाँ पर अस्तीन आसी प्रत्ये संभव है उसे अनात्मा प्रगति कहा जाता है । लेकिन जहाँ पर अस्तीन आर्थिक प्रगति की संभावना नहीं है उसको आत्मपरक कहा जाता है । इसको थोडा ध्यान से समझने का प्रयास करेंगे क्योंकि ये थोडा सूक्ष्मा विषय है । यह पुस्तक है इसको मैं जानता हूँ । ये पुस्तक मैं नहीं हूँ इसको मैं जानता हूँ । ये पुस्तक है इस प्रकार और ये पुस्तक में नहीं हो ये भी और ये मैं जानता हूँ इसको भी मैं जानता हूँ । लेकिन क्या ये प्रति हम अपने पर लगा सकते हैं? क्या हम ये कह सकते हैं कि मैं हूँ और ये मैं नहीं ये मैं जानता हूँ तथा इस को भी मैं जानता हूँ नहीं क्योंकि यहाँ पर जानी गई वस्तु जे को जाने वाला गया था, पैदा नहीं हुआ इसलिए केवल ज्ञान मात्र है अर्थात जिस ज्ञान में जे अनात्म तथा ज्ञाता जानने वाला पैदा नहीं होता वो ज्ञान परमात्मस्वरूप है । मन और बुद्धि के द्वारा किसी भी अनात्मनस्तु के ज्ञान के लिए, भूख के लिए तथा कर्म के लिए इस त्रिपाणी की आवश्यकता होती है जैसे भोग, भोग्य और भोक्ता तथा कर्म क्रिया तथा करता । इन त्रिपुरी में से जब भोग्य भोक्ता अब वो कर्म करता नहीं रहता तथा भोग्या क्रिया परमात्मस्वरूप होती है । अगर हमें परमात्मा को पकडना है तो हमें हर एक जगह उस तत्व को ढूंढना खोजना होगा जो प्रकाशक तो है पर प्रभावित नहीं जो सबका आधार तो है पर जिसका होना किसी पर अवलंबित नहीं है थोडा और समझने का प्रयास करते हैं । जब भगवान भगवत गीता में कहते हैं नए रिनछिन दंदी शस्त्राणि नैनं दहति पावक कहा न चैनं क्लेदयन्त्यापो ना शोषयति मारुत रहा तो यहाँ पर वो आत्मा की बात कर रहे हैं और एक बार आत्मा और परमात्मा अलग अलग नहीं है । जैसे मीठा और बहुत मीठा अलग अलग नहीं है । जैसे समुद्र का पानी और नाले का पानी अलग अलग नहीं है, उसी प्रकार आत्मा चैतन्या परमात्मा परम चैतन्या अलग अलग नहीं तो यहाँ पर आत्मा के बारे में भगवान बता रहे हैं कि हे अर्जुन! आत्मा को न शस्त्र काट सकते हैं और ना वायु सुखा सकती है । ना पानी पिला कर सकती है और न अग्नि जला सकती है । तो आत्मा को तो हम लोग कैसे पकडे? ये तो मुसीबत है तो होने की कोशिश करते हैं कि क्या ये बात किसी और पर भी लागू होती है । विचार करने से पता चलेगा कि आकाश अनंत है, आकाश का कोई आकार नहीं, कोई प्रकार नहीं आकाश तत्व है और आकाश में चाहे कितनी भी शास्त्र चले, आकाश कटता नहीं । आकाश में चाहे पूरी पृथ्वी, ग्रह नक्षत्रों में आग लग जाए, आकाश चलता नहीं और कितने ही तूफान आ जाये । आकाश सूखता नहीं तो हम आकाश को परमात्मा का पडोसी मान सकते हैं क्योंकि उपनिषद कहती है ऍम सर्व ओमकार रामनिरंजन हम आकाश सभी आकारों का आधार है परन्तु किसी भी आकार से प्रभावित नहीं है लेकिन ये दृष्टि एक दिन में नहीं आ सकती । दृष्टि परिवर्तन करने के लिए पहले हमें ये ध्यान देना होगा की जगत में व्यवहार करते हुए हमारा ध्यान कहाँ पर है । अगर हमारा ध्यान जी एम मस्त ऊपर होगा तो हम विषयों में फस जायेंगे और जगत को सुधारने का प्रयत्न करेंगे । मगर जिस जगत को भगवान नहीं सुधार पाए उसे हम कैसे सुधार सकते हैं और अगर हमारा ध्यान यात्रा पर होगा तो हम अपने को ये सिद्ध करने में लग जाएंगे की हम कैसे अच्छे हैं और अन्य कैसे खराब है । हमारा ध्यान केवल ज्ञान पर होगा तो हम ज्ञान से सीखेंगे और जब उस ज्ञान को हम अपने ऊपर लगाएंगे तो अपनी अनुभूतियों में हमें परमात्मा का दर्शन होगा । जिस दिन हमें अनेकता में एकता को देखने की दृष्टि मिल गई उसी दिन हमें एक में अनेक को भी देखने की दृष्टि मिल जाएगी । अनेकता में एक को देखना ये ज्ञान का मार्ग है और एक में सभी का दर्शन करना ये भक्ति का मार्ग है । एक बार हमारे मित्र जो डॉक्टर है मुझसे मिलने आए रात के आठ बज गए थे । मैं कुछ पढ रहा था तो वो आए और कमरे में किताबें देखकर बोले की मुझे थोडा ये विधान के बारे में कुछ बताओ । मैं परमात्मा का दर्शन हर जगह कैसे कर सकता हूँ । बोले में पूजा पाठ करता हूँ लेकिन बस ऐसे ही तुम कुछ बताओ । मैंने उनसे कहा अच्छा एक बात बताओ तुम्हें इस कमरे में क्या क्या दिख रहा है । उन्होंने कहा, मैं इस कुर्सी, बेड, सोफा, किताबें और भी काफी वस्तुए । छोटी से छोटी उन्होंने नहीं । फिर मैंने उनसे कहा कुछ छूट तो नहीं रहा । एक बार सोच लोग । उन्होंने कहा कुछ नहीं बस यही दिख रहा है । फिर मैंने लाइट ऑफ कर दी और उनसे पूछा अब क्या दिख रहा है? बोले कुछ भी नहीं । फिर मैंने लाइट ऑन कर दी और कहा अब क्या दिख रहा है? फिर वही उन्होंने जवाब दिया, मतलब आपको सब दिख रहा है, लेकिन जिसके कारण सब दिख रहा है वह प्रकाश नहीं दिख रहा । वो बोले ये तो मैं भूल ही गया । मैंने कहा यही ज्ञान है वेदांत का । हर जगह उस तत्व को पकडने की कोशिश करो तो मैं परमात्मा के दर्शन होने शुरू हो जाएंगे । भगवान भगवत गीता में कहते हैं, सर्वभूतेषु ये नहीं काम भाव मॅाम ईक्षते अविभक्त अम् विभक्ति श्योताज ज्ञानम् वृद्धि साथ ही काम । जिस ज्ञान के द्वारा मनुष्य संपूर्ण विभक्त प्राणियों में विभाग रहित एक अविनाशी भाव सत्ता को देखता है उस ज्ञान को हे अर्जुन! तुम सात्विक जा रहा हूँ । इसके अलावा जो भी ज्ञान है उसे पश्चिम बुद्धि ज्ञान कहा गया है । भागवत महापुराण में श्री शुक्रदेव जी राजा परीक्षित से कहते हैं टू राजन मारी शेट्टी पश्चिम बुद्धि में मामजा ही नजात प्राग भूतो देवस्वम ना नाम शशि सिराजिन अब तुम ये पश्चिम बुद्धि वाला ज्ञान छोड दो की मैं मर जाऊंगा । जैसे शरीर पहले नहीं था, पीछे पैदा हुआ और फिर मर जाऊंगा । ऐसे तुम पहले नहीं थे । पीछे पैदा हुए फिर मर जाएगा । ऐसा कदापि सत्य नहीं है । जब तक हमें पश्चिम बुद्धि रहेगी, हम कभी भी परमात्मा का अनुभव नहीं कर सकते । उसके स्वरूप को जानने की बात तो बहुत दूर है । अब थोडा विधान उपनिषद के अनुरूप परमात्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करते हैं । विधान में किसी भी वस्तु को लिखा ने इंडिया गेट करने के लिए दो सिद्धांतों का प्रयोग किया जाता है । पहला स्वरूप लक्षण दूसरा तठस्थ । लक्षण स्वरूप लक्षण द्वारा जिस वस्तु को लिखने का प्रयास करते हैं, उसके गुणों के बारे में सीधे वर्णन किया जाता है । जैसे अगर हमें लक्षण के द्वारा किसी मनुष्य के बारे में बताना है तो हम कहेंगे । रमेश पांच फुट दस इंच लंबाई के वैज्ञानिक हैं जो विवेकानंद पर्वतीय कृषि अनुसंधान संस्थान अल्मोडा में कार्यरत है । ये हो गया स्वाॅट दूसरा होता है टाॅक षण । इसमें मान लीजिए किसी तीसरे मनुष्य के बारे में बताना है जिसको वो नहीं जानता है तो हम क्या कहेंगे? आप अल्मोडा में उस आदमी को जानते हो? नहीं? ऐसे हम उससे पूछते रहेंगे जब तक वो अल्मोडा में किसी को जानते नहीं । फिर वो कहेगा हम उस आदमी को जानता हूँ तो हम कहेंगे हाँ आप सुनाओ रमेश उसके भाई के साले का पडोसी है जाओ रमेश को ढूंढ लोग इसे हम नीति नीति प्रक्रिया भी कहते हैं ।

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