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प्रथम परिच्छेद in  |  Audio book and podcasts

प्रथम परिच्छेद

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प्रभात वेला Producer : Saransh Studios Author : गुरुदत्त Voiceover Artist : Ashish Jain
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प्रथम परिचय बिहड वन में एक विशाल वट रक्ष की छाया में एक पाँच कुट्टी बनी थी । लकडी के खंभों के साथ रक्षियों की सूखी डाले बांध कर उन पर किसी वक्ष के बडे बडे पत्तों को रखकर ये कुट्टी बनाई गई थी । कुटि के तीन और वृक्ष की शाखाओं से बनी तिवारी थी और एक और द्वारा चार मोटे मोटे वृक्षों के तने । हम बोल के रूप में चार फोन पर गडे थे । हरी लताओं से रक्षा की सूखी डालियां इनके साथ बंदी हुई थी । इसी प्रकार छत बनी थी । चारों खम्बे चार शाखाओं से बंधे थे और उन पर छोटी छोटी शाखाओं का जाल था । इस जान पर पत्ते रखे हुए थे । पत्तों पर भी लताओं से बंधी वृक्षों की शाखाएं रखी थी । कुटिया का द्वार शाखाओं की जाली कैसा बना था? दीवारों के समान ही ये द्वार भी बनाया गया था तो दीवारों और द्वार की और से हवा भीतर आती जाती थी । छत पर पत्तों के कारण और ऊपर घने वृक्ष की इच्छा होने के कारण धूम तथा वर्षा का जल भीतर नहीं जा पाता था । कुटि की पीठ रख के मोटे तो नहीं के साथ लगती थी और द्वार ब्रिक्स के नीचे एक साफ सपाट स्थान की और था । द्वार की जाली उठाकर एक और की जा सकती थी । खंबों के साथ टिका देने से द्वार बंद हो जाता था । कुटिया वन्य जंतुओं को भीतर आने से रोकने के लिए बनी थी । उस स्थान का जलवायु ऐसा प्रतीत होता था । वहाँ तो शीट और नहीं गर्मी असहाय होती थी तथा कुटिया में रहने वाले को कुटिया में खुली हवा के आने जाने से कष्ट नहीं होता था । रखिया जिसके नीचे ये कुटिया बनी थी, बहुत बडा था । उसके नीचे की भूमि समतल थी । इस समतल भूमि पर दस बारह अन्य ऐसी ही कुटिया बन सकती थी । प्रातःकाल का समय था । रक्षा पर बने घोसलों में रहने वाले सैकडों पक्षी पूछा, कालका प्रकाश देखकर फडफडाते तथा चीन चीन करने लगे थे । कुटी के भीतर भी सूखे पत्तों की सरसराहट एडवंचर चढा । हट का शब्द होने लगा था । हाँ, घटने ही वाली थी । कुटि के द्वार को भीतर से कोई धकेलकर एक और करने लगा । द्वार की जाली एक और हुई तो भीतर से एक सर्वथा नगर युवती निकल आई और कुटी के बाहर खुले स्थान पर खडी हो सुस्ती मिटाने के लिए अंगडाइयां लेने लगी । शरीर से सर्वथा लगने, सिर के बाद जटाओं से कंधों पर लटकते हुए वह भी वृक्ष के नीचे ही खडी थी । इसका ध्यान बहुत स्लो में चाहते, पक्षियों के कोलाहल की और चला गया । इधर ध्यान जाते ही उसकी आंखों में चमक दौड गई और उसने मुख गोल कर सीटी बजा नहीं आरंभ कर दी । बहुत स्लो में से पहले एक फिर कई पक्षी गर्दन निकाल कर सीटी बजाने वाली ही और देखने लगे । तदंतर एक एक कर कई पक्षी उसकी और लपके और कंधों और हाथों पर आप बैठे और लगे की जीकर अपने मन का अल्लाह प्रकट करने ऐसा प्रतीत होता था इस युवती का इन पक्षियों से चिरकाल का परिचय है पे आने जाने वाले पक्षियों को देख देख कर हसती थी और उसकी हसी की आवाज सुन पक्षी चीज चीज करते हुए उसके चारों और उडने लगे थे जो उसके सिर गंधों पर बैठे थे की प्रसन्नता से नाश्ते प्रतीत होते थे और अन्य उसके सिर पर तथा उसके चारों और मंडे रहते फिरते थे । वह जब भली भांति सचेत हो गई तो जंगल के बाहर की और चल पडी । वट रख के नीचे की खुली भूमि पार कर छोटे मोटे रक्षियों के बीच से निकलती हुई वह चली जा रही थी । भूमि ढलान पर आ गई थी । वो समाप्त हो गए थे और सामने एक स्वच्छ जल वाली नदी कल कल शब्द करती हुई बह रही थी । युवती नदी के तट पर खडी हुई हाथ हिला । उसने सिर पर मंडराते पक्षियों को उडा दिया । पक्षी कुछ देर तक उसके सिर पर हवा में मंडराते रहे और फिर एक एक दो दो कर उड गए । इस प्रकार अपने सखा साथियों से अवकाश पाकर वह युवती नदी तट पर बैठ गई । कुछ देर तक बहते जल पर उठने वाली तरंगों को देखती रही । अंतर उसके पांव पसार नदी के जल में डाल दिए । शीतल जल के पापा को लगने से उसके पूर्ण शरीर में कपकपी हुई और उनकी हसी निकली तो मुक्ता सामान श्वेत दम दिखाई देने लगे । इस समय नदी के पार प्रकाश बढने लगा था । पूर्व दिशा का आकाश रक्तवर्ण हो गया था । नदी के पार दूर तक एक रेतीला मैदान था और छितिज स्पष्ट दिखाई दे रहा था । छितिज पार आकाश में लालिमा फैलती दिखाई दी तो वह प्रसन्नता से हाथ उठाकर जोर से है का शब्द कर उठी । मैं खडी हो गई और पढ रही लाली की और देखने लगी । उसकी आंखों में उत्सुकता थी, मुख पर आश्चर्य के लक्षण थे और विश्व में खुले अधर कुछ बोलने को उद्यत प्रतीत होते थे । छितिज पार प्रकाशपुंज गोलाकार भास्कर उगता दिखाई देने लगा । प्रथम एक प्रकाश बिंदु प्रकट हुआ और छनछन में वह बढने लगा । भूमि के पीछे से एक हाली सामान प्रकाशपुंज आकाश में उठने लगा । जब भास्कर पूर्ण निकल आया तो नदी के तट पर खडी युवती ने एक हाथ से भरा हो क्या? वाह वो करती हुई नदी में कूद पडी, डुबकी ली और जल में से शर्ट निकालकर तैरने लगी । कुछ देर तक तैरने के उपराम बह जल में खडी हो गई और शरीर के प्रत्येक अंग को मल मल कर साफ करने लगी । दिनभर घूमने और रात पत्तों पर सोने से शरीर पर चढी मैल दूर होकर उतारने लगी । शरीर के अंग अंग को मलमल कर जल सिद्ध होती थी और उसको उजला एवं सुंदर देख प्रसन्नता अनुभव करती प्रतीत होती थी । उसे अपना शरीर रक्षा के साथ ही पक्षियों से अधिक भला लग रहा था । जल से शरीर खुल गया और वह नंबर की भर्ती निर्मल प्रभात की भांति उज्वल और कमाल की भर्ती प्रफुल्ल दिखाई देने लगी । शरीर को रुचिपूर्वक साफ कर रह मुक्त होने लगी । मुक्त होती हुई वह उसका प्रतिबिंब जल में देखती जाती थी और इसे आकाश में उठ रहे भगवान सूर्य का प्रतिबिम्ब जल में देखते प्रसन्नता अनुभव करती थी । क्या प्रसन्नता उसकी आंखों में बढ रही चमक और मुख पर बन रही रेखाओं से प्रकट हो रही थी । अब सिर के बालों की बारी आई । वो जल में डुबकी लगाते समय भी गए थे । फिर की लपटों से जल्द टपक रहा था । उसने हाथ से दबा दबाकर लटों में समय चल छोड दिया । तदनंतर जटाओं को मुक्त पर से हटा पीठ की और कर सीधी हो । एक घंटे तक सूर्य की और देखकर घूमें । इस सब समय में उसका मुख नदी के तट किया था, जिधर से सूर्य निकल रहा था और उसकी पीठ उस और थी जिधर जंगल था और जिधर से वह नदी पर आई थी । जो भी वह नदी से बाहर निकलने के लिए भूमि उसकी दृष्टि उसी तट पर खडे एक प्राणी पर चली गई । मैं उसे देख डर गई थी । उस करानी के सिर पर, मुख पर और होटों से ऊपर घने बाल उग रहे थे । डरकर उसने जल में डुबकी लगा दी और जलमग्न हो गई । जब उसने सिर्फ उन्हें जल्द से बाहर किया और तक की और देखा तो उसी प्राणी अभी भी खडा दिखाई दिया वह एक लंबी दाडी मुझे और जटाओ वाला पुरुष था । उसी कमर पर मृगचर्म लपेटा हुआ था और हाथ में बृक्ष की डाल का ठंड था । ऐसा जीव उसने अभी तक नहीं देखा था । वह वन पशु तो नहीं था । सब वन पशु हाथ पाओं के बाल खडे होते और चलते थे हूँ पर खडे नहीं हो सकते थे । साथ ही प्रायस सब जन तो उससे डर कर भाग जाया करते थे । यह तो मुग्ध होकर उसकी और देखकर मुस्कुरा रहा था । वह उन्हें डुबकी लगा । उसे अपनी आंखों से ओझल करने वाली थी कि तट पर खडा पुरुष खिलखिलाकर हंस पडा । वह डुबकी लगती लगती ठहर गई । तट पर खडे पुरुष तेरे हाथ खडाकर आश्वासन के भाव में कहा हैं निर्भय हो निर्भय हो । पुरुष को उसी की भर्ती कुछ बोलते तथा हस्ते सुन मैं समझी व्यक्ति उसी की भर्ती का है । पुरुष ने उन्हें हाथ से संकेत किया और कहा भाई मत करो, आओ बाहर निकल जाओ । युवती ने उसके और ध्यान से देखा तो आश्वस्त अनुभव करने लगी । अब एक एक पक्का जल से निकलने लगी । जल से निकलकर वह पुरुष के सामने आ खडी हुई पुरुष के बाहों, टांगों, पेट और पीठ पर बाल नहीं थे । शरीर के स्थानों पर उसका गौरवर्ण बहुत स्पष्ट दिखाई देता था । पुरुष ने पुलिस पूछा तुम कौन हो? युवती ने आप वो के शब्द उच्चारण किए और आज से अपनी कुटिया की और संकेत क्या? तदंतर उसने कुटिया की और चलने का हाथ से संकेत भी कर दिया । इस समय युवती समझ गई थी कि सामने खडा व्यक्ति उससे विलक्षण है । फिर भी ना मुख, कान, टांगों, बाहों और खडे होने के ढंग से मैं उस जैसा ही दिखाई देता है और उसने भी इस तरी को पहली बार ही देखा था । ये इस तरह से दुबली पतली थी, कोमल और सर्वथा लोम रही थी सिर पर बाल से परन्तु बारिश और जटाओ उसमें लटकते हुए उसके सिर दाडी और मुझे ऊके बाद मोटे मोटे और घने थे भी भी उलझे हुए नहीं थी । है । उसके सिर और मुख पर फैले हुए थे । वह देख रहा था कि सामने खडे अपने से कद में छोटे जीव कि कमर पतली है और नीतम बडे बडे हैं । एक अन्य विशेषता वक्ष स्थल पर दिखाई दी । उसकी छाती दो गोल पिंडो में उभरी हुई थी । पुरुष ने अपनी मांसल परन्तु तरी छाती की और देखा और फिर उसकी और वह विचार ही कर रहा था । यह क्या है? क्या कुछ भी रहती हैं? एकाएक उसके मुख से निकल गया तो उन को उन श्रेष्ठ अतिश्रेष्ठ युवती कुछ नहीं समझे । फिर भी उसके मुख पर हर्ष और उल्लास देख उसने अनुमान लगाया कि वह उसे पसंद कर रहा है । इस समय उसे एक बिहार की बात स्मरण आ गई । वाह यार, अपने सामने पडे त्रसित तथा चीज ही करते एक पक्षी को देख संतोष और प्रसन्नता प्रकट कर रही थी । युवती विचार करने लगी कि कहीं इस सामने खडे व्यक्ति की प्रसन्नता भी वैसी ही ना हो परन्तु उसके मुख पर भिन्न भाव था और वह शांति अनुभव करने लगी थी । सामने खडा व्यक्ति देख रहा था कि उसके कथन से अधिक उसके मुस्कराने और हाथ के थपथपाने से अधिक विश्वास दे रहा है । मैं समझ गया कि वह वन पशुओं की भर्ती उसकी वाणी को ही नहीं समझते हैं तथा उसने अब संकेतों से समझाने का यत्न किया कि वे है हिंसक जान तो नहीं है । उसने उन्हें मुक्त आंखों से उसकी और देखते हुए कहा तो उन अतिश युवती ने उसे कसन की नकल उतारते हुए कहा । वरिष्ठ पुरुष ने कहा था यह प्रथम बात दोनों में हुई । इससे दोनों में विश्वास बडा और दोनों खस पडे । अब युवती ने पूछा ये एक और उसमें समझा कि वह उसके निवास के विषय में पूछ रही है । पता हूँ अब उसने वानी के साथ साथ हाथ उठा संकेत से बताने का यत्न किया । जीवन से बार दूर से वह आया है युवती जिसमें में उसकी और देखती रह गई । मैं उसके संकेतों और शब्दों का अर्थ लगाने का यत्न करने लगी । पुरुष इस नवीन सुंदर प्राणी को अपने निवास स्थान पर ले जाने की कल्पना करने लगा था । उसके अनुप्रीत युवती एक लगभग अपने जैसे प्राणी को सामने खडा देख विचार करने लगी थी । कैसे इसे अपने पास रख ले युवती ने अपने मन की बात को कार्य में लाने का यत्न पहले क्या उसने पुरुष की, वहाँ पकड अपनी कुटिया की और ले चलने का यह क्या पुरुष के आशय को समझकर चल पडा । युवती को अपनी कुटी पर गर्व था । उसने कई दिन तक कई पक्षियों के हौसले को देख छुट्टी की योजना बनाई थी और फिर कई मांस के विचार और प्रयत्न के उपरांत से बनाया था । बन जाने के उपरांत उसे उसमें सुख अनुभव हुआ था । मैं उस नवीन साथी को लेकर अपनी कुटी के सामने जा खडी हुई एक्शन पर कुट्टी के सामने खडे हो प्रशन्नता और विजय के भाव में शासी पुरुष मुख पर देख वह उसे भी चली गई । वहाँ से पत्तों के बिच होने पर बैठा और उसे बैठे रहने का संकेत कर छुट्टी से निकलकर भर्ती हुई । एक वृक्ष की और गई वह रक्षित फलों से लगा था है । उनमें से विफल जो अभी किसी पक्षी ने चोंच मार गंदे नहीं किए थे । तोडने लगी । उसने इतने तोड दिए जितने की वह अपनी दोनों भुजाओं और छाती के बीच उठा सकती थी । पुरुष छुट्टी के बाहर निकल आया । वह उस स्थलों के वृक्ष के पास जा फल बीनते देखकर समझ गया कि वह है उसका आथित्य करना चाहती है । इससे उसकी समझ में आ गया कि वह बुद्धि और भावना रखती है । जब युवती फलों से लदी फदी लौटे तो वह उन्हें कुट्टी में आ गया । दोनों पत्तों पर बैठ गए । युवती ने फल बीच में रखकर उसे खाने का संकेत क्या? अब पुरुष ने संकेत से बताया कि वह नदी पर जाकर स्नान करेगा । जब यह समझाने में सफल हो गया तो उसे वहीं छोड बहन नदी तट पर चला गया । युवती तब आश्वस्त हो चुकी थी उसे वह पुरुष अब भयकारी प्रतीत नहीं हो रहा था । वो स्नान करके लौटा । मृत चर्म अभी भी सूखा था । युवती समझ गई है । उसके शरीर का अंग नहीं है । नुकसान करते समय अवश्य उसने उतार दिया होगा । अब दोनों आमने सामने बैठकर फल खाने लगे । पेट भर खा चुके तो छिलके और गुठलियाँ उठा युवती ने कुटिया के बाहर फेंक दिए । इकाई पुरुष को अपनी कल्पना स्मरण आई कि वह है उसे अपने आश्रम में ले चलें । अच्छा उसने संकेतों से उसे बताने का यत्न किया कि उसकी भी एक छुट्टी है । वह इससे जिसमें वे बैठे हैं, अधिक स्वच्छ और सुंदर है । युवती कुछ कुछ ही समझ पाई । अनायास ही उसके मुख से निकल गया क्या? और उसने उन्हें हाथों केसंकेत और शब्दों से प्रेमभरी दृष्टि से उसे समझाने का यत्न किया कि उसे उसके साथ चलना चाहिए । युवती समझी तो और उसने सिर्फ हिला इंकार कर दिया और उसने उसके कपोलों पर प्रेम से दोनों हाथ रखकर उसे समझाया । इस समय तक मैं समझ गया था जैसे पशुओं में नर और नारी होते हैं, वैसे ही वह मनुष्य नारी है है । उसे अपने स्थान पर ले जाकर संतानोत्पत्ति करेगा । परन्तु युवती को इंकार करते देख परेशानी अनुभव करने लगा । वह संतानोत्पत्ति के लिए कभी करें । नर पशुओं को बल प्रयोग करते भी देख चुका था । तभी एक नारी के लिए एक से अधिक नरों को परस्पर युद्ध करते भी देख चुका था हूँ । उसके मन में आया कि वह भी बल प्रयोग करें । तुरंत उसकी कोमलता, मृदुलता और दुर्बलता देख रहे । ऐसा करने के लिए मन को तैयार नहीं कर सका । फिर भी वह उसकी वहाँ पकडा । उसे हाथ के संकेत से अपने साथ चलने के लिए उत्साहित करने लगा । युवती समझी बलवान व्यक्ति उसे बलपूर्वक सांस ले चलने का यत्न करने वाला है । अच्छा उसने पीछे और क्रुद्ध स्वर में कहा ना ना और वह लीड गई । मैं समझती थी की लेते हुए उसे उठाकर ले जाने में उस पुरुष को कठिनाई होगी । इस पर पुरुष ने उसकी वहाँ को छोड दिया । स्वयं उठकर उसने यह संकेत क्या कि वह जा रहा है और फिर आएगा तदंतर एक ठंड तक उसके मुख पर दयनीय दृष्टि से देख वह कुटिया से निकल घने जंगल की और चल दिया । युवती ने उसे जाते हुए लालसा भरी दृष्टि से देखा और से पुकारा परन्तु पुरुष केवल एक दृष्टि पीछे को डाल हो रहा अपने मार्ग पर चलता गया । यूपी उसे कुछ देर तक जाते देखती रही अब है उठ कर बैठ कुटिया के द्वार पर आकर खडी हुई थी । एकाएक उसके मन में कुछ आया और वह उसकी और हाथ उठा ऊंची ऊंची आवाज देते हुए भाग खडी हुई । मेरे हाथ उठाकर कह रही ही बी ए ए ए ए यह घटना मानव जीवन की प्रभात भी इलाका है । आज से कई लाख वर्ष पूर्व की बात है । पृथ्वी पर वनस्पतियां प्रचुर मात्रा में हो चुकी थी । इधर जीव जंतु भी भारी संख्या में बन चुके थे । ऐसे अवसर पर सोम और रोहिणी दोनों ने मिलकर सूर्य की रश्मियों से टटोल करनी आरंभ कि और ऊपर कई स्थानों पर पंचमहाभूतों से मंथन आरंभ कर दिया । सोम तो अंतरिक्ष में भ्रमण करता रहता था । रोहिणी नक्षत्र अंतरिक्ष का भ्रमण करता हुआ पृथ्वी के समीप आया था । आदित्य नहीं रोहिणी से सहयोग किया । सोम ने सहयोग में सहायता की और पृथ्वी पर अंडों के रूप में गर्व स्थित हो गया । ऐसे ही एक अंडे में से युवती निकली थी । उस समय उस स्थान पर दिन का उषाकाल था । तब तक प्रकाश भी बहुत ही धीमा हुआ था और रक्षा के झुरमुट में जहाँ अंडा बना और बडा हो रहा था । प्रकाश और भी काम था । अंडा भीतर के प्राणी की हलचल से फूट पडा और वह अठारह उन्नीस वर्ष किसी युवती अंडे ने से बाहर लुढक पडी । कुछ देर तो वह भूमि पर पडी रही परंतु जब स्वच्छ वायु में श्वास लेने लगी उसके शरीर में ऊष्णता और स्फूर्ति प्रकट होने लगी । वह भूमि पर से उठी और लुढक की पडती इधर उधर टटोल टटोलकर चलने लगी । धीरे धीरे प्रकाश बढने लगा और वह उस वन को देख देख कर अपने पर हम अपने चारों और की वस्तुओं पर विचार करने लगी । एक सम्वत्सर से अधिक काल व्यतीत हो जाने पर युवती ने पेड पौधों, पक्षियों और वन पशुओं को देख देख कर बहुत कुछ सीख लिया था । दुःख की निवृत्ति, सोने के लिए स्थान, दूसरों से भय से बचाव और जल्द से शरीर को साफ करना, यह सब मैं करने लगी थी । समीर ही एक स्वच्छ जल वाली नदी थी । उसमें वन के पशु जल पीते एम जलविहार करते थे । वह भी उन्हें देखकर नाम था तैरने लगती थी । पक्षियों के हौसलों को देख देख उसने अपने लिए एक कुटी बना ली थी और उसमें पत्ते बिछाकर कोमल बिछोना बना लिया था । इस प्रकार जीवन की मूल आवश्यकताएँ भोजन, निवास और सर्दी गर्मी से बचने का उपाय आवश्यकता पडने पर विचार कर प्राप्त करने लगी थी । स्वच्छंद घूमती खेलती कूदती खाती पीती वह दिन व्यतीत करती चली जा रही थी । प्राय घोसलों में दो दो पक्षियों को रहते देखती थी और अपनी छुट्टी में भी मैं अपने किसी साथी की लालसाहब करती थी परंतु अपने सामान किसी को ना पाकर वह व्यवस्था थी । इस समय एक का एक उसे दो टांगों पर खडा होकर चलने वाला तथा अपने ही सामान, आंखे, नाक, कान तथा मुख वाला प्राणी दिखाई दिया और उसके मन में अपनी कुटिया में साथी के साथ रहने की आशा बन गई । परंतु जब प्राणी उसके महीनों के घोर परिश्रम से मनी कुटिया को छोडकर चल पडा वह अदृश्य आकर्षण से खींची हुई हैं । उसकी और कूकती हुई भाग खडी हुई और उसने आवाज सुनी तो खडा हो घूमकर पीछे की और देखने लगा । युवती आकर उसके सामने खडी हुई । पुरुष समझ रहा था कि वह पुनः उसे वहीं रह जाने का आग्रह करने आई हैं अतः रहे हैं । प्रश्न भरी दृष्टि में उसकी और देखने लगा युवती ने अपनी वहाँ उसकी बाहर में डालते हुए उसके साथ चलने का संकेत क्या तो पूरा नहीं प्रसन्नता से हसने लग था तो चल पडे कुछ पल ही हुए थे कि युवती उसे एक और घसीटकर ले जाने का यत्न करने लगी । इसका कारण जानने के लिए उस और चलता रहा । कुछ ही पता चलने पर एक वृहत अंडे के समीप जा पहुंचे । ये अंडे का छिलका मात्र था । छिलका एक और सिर्फ बैठा हुआ था और भीतर से खाली था । वह इतना बडा था ये युवा मनुष्य टांगे समेटकर उसमें बैठ सकता था । यूपी उसे समझाने के लिए कि वह उसने से निकली है, अंडे के छिलके में घुस गई और उसमें टॅबलेट बैठ गई । अब फिर मस्ती हुई । बाहर निकल गर्व भरी दृष्टि में उसकी और देखने लगी और सब समझ रहा था । उसके लिए यह कोई नई बात नहीं थी । अतः मुस्कराते हुए उन्हें उसकी वहाँ को अपनी वहाँ पे डाल अपने मार्ग पर चल पडा । मार्ग चलते हुए उसने अपने भी वैसे ही उत्पन्न होने के बाद संकेतों से बताने का यह क्या, जो जो भी पश्चिम की ओर चलते गए । वन अधिक और अधिक घना होता गया । लक्ष्य अति समीप समीर और कई स्थानों पर तो गिरे हुए भी थे । पुरुष कुछ पेडों पर चिंता देखता हुआ मार्ग पा रहा था । ऐसा प्रतीत होता था कि वे चिन्ह उसने किसी पत्थर इत्यादि कडे वस्तु से पेडों पर इस और आते हुए बनाए थे । कई स्थानों पर गिरे वृक्षों से मार्ग अवरुद्ध होता था, तब तक उस युवती को अपनी भुजाओं में उठाकर पेड के तने पर बैठा देता और स्वयं कूदकर पार कर उसे बुलाओ में पकडकर नीचे उतार नेता ऐसा करने में युवती गिरने के भय से भयभीत उसकी पुष्ट गर्दन में महान डाल उससे लिपट जाती थी । पुरुष को उसका कोमल स्पर्श कौन बना लगता था । इस प्रकार के स्पर्श को युवती भी ना पसंद नहीं करती थी और अब पूरा उसको अपनी छाती से लगाए रखने का यत्न करता तो वह इससे सुख अनुभव करती हुई जिसमें में उसकी आंखों में देखने लगती थी । इस प्रकार पश्चिम की और चले जा रहे थे । लगभग आधा दिन चलने पर घने वन से बाहर निकल आए । कुछ दूर उनको वृक्षों के एक लिमिट में से वहाँ उठता दिखाई दिया । युवती इसे देख ठिठककर खडी रह गई । पुरुष ने उसे बताने का यह क्या कि वह वहाँ रहता है तथा कुछ समझौता हम उत्साहित करता हुआ और वहाँ से खींचता हुआ प्रयुक्ति को बच्चों के झूठ की और लिए जा रहा था । झूठ के चार और सुरक्षों की सूखी डालियों को पेडों से बांध बांध कर बाढ बनाई हुई थी । भीतर जाने का केवल एक था । मैं झुरमुट के उत्तर किया था । इनको घूम कर उधर जाना पडा । द्वार पुष्पित लताओं से बना था इस द्वार से वे बाढ के घिरे स्थानों में जहाँ पहुंचे मेरे के बीचोंबीच एक ऊंचा मिट्टी का चबूतरा बना था । उस पर एक गहरे गड्ढे में से तू उठ रहा था । युवती ने देखा उस स्थान पर कितने ही अन्य व्यक्ति हैं । प्राय सबके साथ उस जैसे ही थे जैसे उस कर । साथ ही तो उसे अपने साथ वहाँ लाया था । उस स्थान पर कई खुटिया बनी थी । कोटिया उसकी कुट्टी से अधिक सुंदर, साफ और चारों ओर से किसी प्रकार के थोडे चौडे पत्तों से ढकी थी । प्रत्येक कुटिया का द्वार था । उस समय कुछ छुट्टियों का द्वार खुला था और कुछ का बंद था । जिनके द्वार बंद थे वो बंद होने पर एक छुट्टी की दीवार के से ही दिखाई देते थे । देखो टीमें द्वार के अतिरिक्त एक में एक लडकी भी थी । वह भूमि से एक पुरुष की ऊंचाई ये बराबर ऊंची थी । युवती ने देखा कि जितने लोग वहाँ दिखाई दिए हैं, सब कमर पर नज चर्म लपेटे हुए हैं । उनके शेष शरीर नग्न थे हूँ युवती को वह पुरुष अपने साथ लेकर एक कुटीर के सामने खडा हुआ । बुटीक का द्वार बंद था । पुरुष ने द्वार के समीप खडे हो धीरे से आवाज दी भवन मैं दक्षिण हीटर से उत्तर मिला आ जाओ । उसी पुरुष ने कहा साथ एक अच्छी है लेता हूँ दक्षिणी द्वार खोला और दोनों भीतर जा पहुंचे । दक्षिणे झुककर चरण स्पर्श क्या सामने बैठे एक बडी आयु के व्यक्ति ने आज के संकेत से बैठने को कहा । बैठने से पूर्व दक्षिण कहा किसान हैं यहाँ से दोपहर धवन के अंतर पर यह मिली है । मैं से प्रेरणा देकर यहाँ पे आया हूँ । उस बडी आयु के व्यक्ति ने इस तरीके और देख कर कहा यह मानव कन्या है । ये संतान उत्पन्न करने में समर्थ होगी । उच्च विचार कर उसने उन्हें कहा यह भगवान विश्वस्त मनो कि संतान प्रस्तुति हैं । उसकी माँ प्रकृति भगवती स्वयं है, है, शतरूपा है, पता है यहाँ रहेगी इसे मरीची के पास ले जाओ । वहाँ इसके गुरु होंगे दक्षिणी उन्हें पितान है कि चरणस्पर्श किए और युवती को उसको टी से बाहर चलने के लिए कहने लगा । पहले युवती वहाँ खडी उसको टी को भीतर से देख रही थी । छोटी पर्याप्त खुली और ऊंची थी । उसकी अपनी कुटी में तो उसका साथी पर सीधा खडा नहीं हो सकता था । वह स्वयं भी कुछ झुककर ही खडी हो सकती थी । स्कूटियां में छत इतनी ऊंची थी कि सीधा खडे होने पर भी हाथ उठाकर छत को छुआ नहीं जा सकता था । कुटि की दीवारों के साथ कई प्रकार के वन पशुओं के चरमर लगे हुए थे । पांच स्थान पर पक्षियों के सुंदर पंख लटके हुए थे । एक और एक पशु कर चर्म लटका हुआ था । इसने खिडकी का प्रकाश एवं हवा रोकी जा सकती थी । दक्षिणी समीप खडी प्रस्तुति को चलने का संकेत किया तो वह प्रश्न भरी दृष्टि में उसकी और देखने लगेंगे । बच्चों ने कहा गुरुओं के पास युवती समझी नहीं । तब दक्षिणी हाथ के संकेत से कहा तो उसके साथ चल पडी । दोनों एक अन्य कुट्टी के द्वार पर जा खडे हुए । द्वार खुला था और छुट्टी में द्वार सिंह एक और हटकर एक मिनट चरम पर एक पुरुष बैठा था । मरीची दक्ष का भी कुरूद अथॅरिटी में पहुंच दक्षिणी चरणस्पर्श किए और पे काम है का आदेश सुना दिया । उसने कहा, पिता महीने इसे आपके पास शिक्षा ग्रहण करने के निमित्त दिया है । ये कौन है? पिता मैंने इसका नाम प्रस्तुति बताया है । यह यहाँ से आधा दिवस यात्रा के अंतर पर अकेली रहती हुई मिली है तो तुम को मिली है, ये कन्या है । अब सृष्टि चलेगी तो क्या आप इससे संतान करेंगे? प्रदान है कि यह अच्छा नहीं है । इसी कारण उन्होंने मेरे साथ शिक्षा के रूप में भेजा है । यह मेरी पुत्री के समान होगी । साथ ही मेरी पत्नी का चयन तो हो चुका है । छत्तीस आपने बताया नहीं, कौन है? है कहाँ मिली नहीं आपको उसे अंजीरा लाए थे । यह भारत के जन्मस्थान के सनी थी मिली थी । आजकल अंगीरा ही उसे शिक्षा दे रहे हैं तो मैं हूँ दक्षिणी मन में आश्वस्त हो कर रहा हूँ । बहमन में प्रस्तुति को अपनी पत्नी बनाने की इच्छा करने लगा था । मर्जी ने कहा इसे नदी दिखा देंगे । ऍम करेगी तदंतर इसे भंडारी से तो चर्म ले दो, एक रक्षियों को ढाकने के लिए और दूसरा कमर पर लपेटने के लिए । तब ही मैं इसको शिक्षा दूंगा । भाषी रक्षको ढांपने की आवश्यकता है । ऐसा ही वेद का आदेश है । घुटनों से कटे तकता भाड और गर्दन से वक्ष तक का भार कामनाओं को उभारने वाला होता है । इनका स्पर्श तो काम ना । मैं ही साथ ही इनका दर्शन भी कामनाओं को उत्पन्न करने वाला होता है, जहाँ भंडारी से कह दो दक्ष युवती को लिए हुए चला गया । एक घडी में युवती लौटी परन्तु तब तक उसका कायाकल्प हो चुका था । नदी तक पर अंगीरा के शिष्या रोहिणी बैठी पांच स्मरण कर रही थी । ऊंचे एवं मीठे स्वर में मंत्रोच्चारण कर रही थी और ऊपर ऊपर मधवा बहुत बीती माया हा । प्रश्न ऍम और इस वह स्त्रियाॅ वहाँ पर मुहूरत माँगा था स्वा मंत्री रन तू पार दावा रोहिणी वो गाती गाती रुक गई और इसमें में इस नए प्राणी की और देखने लगी । दक्षिण रोहिणी को प्रथम बार ही देखा था तो यह देख यदि है मर्जी के लिए निर्वाचित पत्नी है तो उसकी निर्वाचित प्रस्तुति इससे अधिक श्रेष्ठ है । दक्षिणी हाथ जोड नमस्कार कर कहा तेरी मैं दक्षिण हूँ आपको मैंने पहले कभी नहीं देखा भगवान उस स्त्री ने कहा मुझे इस आश्रम में आए एक पखवाडा व्यतीत हो चुका है । मैं अभी वाणी सीख रही हूँ । आप महर्षि अंगीरस शिक्षा प्राप्त कर रही हैं । हाँ, वही मेरे गुरुवर हैं । उन की आज्ञा थी कि जब तक मेरा उपचारण शुद्ध नहीं हो जाता, तब तक मुझे वेदी पर नहीं बैठना चाहिए । आधा मैं आपके दर्शन नहीं कर सकें । दक्षिणी अपने आने का प्रयोजन बता दिया । उसने कहा देवी यह प्रस्तुति है । पिता मैंने इनको महर्षि मरीचि के पास शिक्षा के लिए भेजा है और महर्षि ने मुझे आज्ञा दी है कि मैं से स्नान करा । हम उत्तर यह पहनाकर उनके पास ले जाऊँ । आप चाहें मैं से स्नानादि कराकर महर्षि के पास ले जाउंगी परन्तु ये वहाँ से सर्वथा अनभिज्ञ है । तो मैं भी थी और मन की बात कहने लगे हैं । उसकी बात मैं समझ सकूंगी और इसे समझा सकूंगी । दक्ष प्रसूति को रोहिणी के पास छोड अपने काम पर चल दिया । उसके लिए आश्रम में गौसंरक्षण का कार्य । मैं आश्रम से जब भी कहीं भ्रमण के लिए एक से अधिक दिन के लिए जाता था, एक अन्य आश्रमवासी को अपना कार्य सौंप जाया करता था । अहा! उस साथ ही की छुट्टी की और वह चल दिया रोहिनी ने । प्रस्तुति को आपने समीर बैठा उससे पूछने का यत्न किया कि वह कहाँ से आई है । प्रस्तुति ने अपनी फॅमिली उच्चारणों हाथ के संकेतों से आपने दूर से यहाँ आने का प्रताप बताया । रोहिणी उसकी बात को कुछ कुछ ही समझ सकें । जो कुछ है समझी पहले ही था । वह भी उसकी भर्ती एक अंडे में से निकली है और नदी के तट पर कुटी बनाकर रहती थी, जहाँ से दक्षिण उसे यहाँ पे आया है । रोहिणी ने उसे जाल में नदी के तट के समीप ही स्नान करने के लिए कहा । कुछ बताया कि बीच में नदी बहुत गहरी है । वेग से बह रही है, प्रस्तुति नहीं । जब रोहिणी कि बात समझे तो हस पडी । फिर उसके कुछ कहे बिना नदी में छलांग तथा बहत्तर करने लगी । रोहिणी ने उसके उलझे हुए बालों और जटाओं को सुलझाने का यह क्या पर कुछ कुछ ही सुलझा सकें । इसके उपरांत रोहिणी उसे लेकर भंडारी के पास जा पहुंची और वहाँ से उसे कमर्ठ आपने तथा वक्षों उसको समेटने के लिए उत्तरीय ले दिया तो जनता उनको पहनने का ठंग सिखा दिया । प्रस्तुति को उत्तरी है । मैं बहुत गर्मी लगी परंतु रोहिणी ने बताया कि उत्तर यह तो यहाँ पहनना ही पडेगा । इस प्रकार प्रस्तुति को तैयार कर हम हरषि मर्जी के पास में आई । मर्सियों ने देख पूछने लगा उनसे कहाँ से ले आई हो और इसका संरक्षक दक्ष कहाँ गया? मैं समझी थी कि इसके संरक्षक आप हैं नहीं । मैं इसका गुरु हैं । दोनों में क्या अंतर है? गुरु का संबंध मन और बुद्धि से होता है और संरक्षक का संबंध शरीर से होता है । मन एवं बुद्धि का क्या अंतर है? शरीर से उस दिन पिता है, बता रहे थे शरीर, इंद्रियाँ, मन और बुद्धि सब जड प्रकृति का अंश है । आप दोनों में भेद बता रहे हैं । हाँ, रोहिणी दोनों प्रकृति का ही अंश होते हुए भी भिन्न भिन्न है । केंद्रीय सूक्ष्म एवं बलवान है । ये शरीर से पर रह कही जाती हैं । इंद्रियों से मन सूक्ष्म और बलवान है । मन से बुड्ढी प्रबल है और बुद्धि से भी प्रबल तथा विलक्षणता कि वह आत्मा है । मन बुद्धि का सीधा संपर्क करे । आत्म से होता है । उसके प्री इंद्रियों का आत्मा से सीधा संबंध नहीं है । संबंध मान के द्वारा ही होता है । इसका दोनों में अंतर है । गुरु मन और बुद्धि का पाँच प्रदर्शन करता है । संरक्षक केवल शरीर का संरक्षण ही करता है और संरक्षता को क्या कहते हैं? वो सिंह पत्नी कहते हैं । पति की पत्नी होती है और गुरु की शिष्या अथवा शिष्य तो दक्षिण इसका संरक्षक है । ऐसा पिता है का आदेश है । अभी ये वाप सीखेगी । जब ये अपने मन की बात शब्दों में व्यक्त करने योग्य हो जाएगी, तभी से किसी का संरक्षण प्राप्त होगा । पितान है का कहना है कि दक्षिण इसका संरक्षक होगा । मेरा संरक्षक कौन होगा यह पिता में से पता करना आप शिक्षा प्राप्त कर चुके हैं । आपकी संरक्षता कौन है? अभी ये निश्चय नहीं हुआ है । इसका मैं संरक्षक होंगा । वही मेरी संरक्षता होगी तो अभी आप संरक्षता रहित है था । जब मैं किसी का संरक्षक नहीं होंगा तब बहस होता है । मेरी संरक्षता नियुक्त हो जाएगी । यह परस्पर निर्भरता का प्रबंध है । मैं पिता मेरे से बात करूँ । मेरा संरक्षक कौन होगा? अभी इसकी इतनी शीघ्रता क्यों हैं? सब कुछ यथा समय हो जाएगा । मैं भी किसी की संरक्षता बनना चाहती हूँ । चलते हैं बडा किसकी जहाँ पे काम हैं कोई बताउंगी । मरीची ने उसी समय से प्रस्तुति को वाणी का दान देना आरंभ कर दिया । स्वयं नहीं बन गए । इनके बनाने वाला कोई है । वह कोई महान ज्ञानवान और अपारशक्ति का स्वामी होना चाहिए था । उसी हम परमात्मा कहते हैं । आत्मा चेतन का नाम है । वैसे तो एक आत्मा प्राणियों में भी है, परंतु मैं महान नहीं है । वे अल्पज्ञान और अल्प शक्ति वाली है । उसे जीवात्मा कहा जाता है । इन दो क्षेत्रों के अतिरिक्त एक अन्य है । मैं चेतन नहीं है, उसे प्रकृति कहते हैं । यह जगत जिसे हम देखते हैं । उसने ये तीनों मिले जुडे रहते हैं । इसी कारण जगत में तीनों के गुण माने जाते हैं । प्रसूति को यज्ञशाला के मन्त्र गान में और मध्याना पर पिता है । के प्रवचनों में सम्मिलित होते हुए बहुत कम दिन हुए थे । जब से वह पितान है कि प्रवचन सुनने और समझने लगी थी । कई प्रकार के संशय उसके मन में उठने लगे थे । परन्तु मैं संकोच वर्ष पूछती नहीं थी, आज उस से नहीं रहा गया । वह अन्य आश्रमवासियों द्वारा प्रश्न पूछे जाते सुनती थी । परन्तु उसके मन में प्रश्न उनसे भिन्न प्रकार के होते थे । आज उसने पूछ लिया भगवान ये कैसे विदित हो इस जगत के रचने वाला हुई है । मैं सादा से है और सादा रहेगा । हमारी गौशाला में इस वर्ष पांच बछडे बने हैं और दो बूढी कोई मृत्यु को प्राप्त हुई हैं । जब बनना और बिगडना होता है तो फिर बनाने और बिगाडने वाला भी हुई है । ये है मानना पडेगा गांव तो हमारी गौशाला में बनी है । हमने उन्हें किसी को बनाते नहीं देखा । पिता महीने प्रश्न पूछ लिया । यदि किसी वस्तु के बनाने वाला दिखाई न दें तो क्या नहीं बनी? मानना चाहिए यदि बनी है किसने बनाई है यह प्रस्तुति की बुद्धि की सीमा रोहिणी ने पूछ लिया । सृष्टि पति पत्नी मिलकर बनाते हैं, परमात्मा कहाँ से आ गया आदि पति पत्नी किसने बनाए थे? अभी तो इस आश्रम में सबके सामने सब मानव ऐसे हैं जो बिना माता पिता के बने हैं । इनके साथ ही माता पिता में भी तो निर्माण शक्ति ईश्वर की ही है, सादा और सर्वत्र निर्माण नहीं कर सकते हैं । परन्तु मेरे पति महर्षि मरीचि कहते थे कि वे चाहें तो संतान नहीं भी उत्पन्न कर सकते । इश्वर की शक्ति होती तो हम विवश हो जाते हैं । संतान उत्पन्न करने में यह व्यवस्था भी होती है । फिर भी मर्जी जी का कथन सब ही है । ईश्वर की शक्ति पति पत्नी ने रहती है और उसका प्रयोग कर भी सकते हैं, नहीं भी कर सकते हैं तथा प्रयोग करने का समय एवं स्थान भी हम निश्चय करते हैं । ये इस कारण कि हम ने भी एक चेतन आत्मा है । इसी कारण शक्ति के प्रयोग का फलाफल हमें मिलता है । परन्तु प्रस्तुति के प्रश्न समाप्त नहीं हुए । उसमें पूछ लिया आपको यह बात किसने बताई है? परमात्मा नहीं, मुझे क्यों नहीं बताई? इस कारण तुमने मेरे जैसी योग्यता प्राप्त नहीं की । वह अयोग्यता योगा अभ्यास से प्राप्त होती है । अभी हमारे आश्रम के छह व्यक्तियों को वह अयोग्यता मिली है । वे हैं मरीचि, अत्रि, अंगीरा पुल तस्य हो रहा और ऋतु ये सब परमात्मा की बात को सुन और समझ सकते हैं । इसी कारण इनको महर्षि की उपाधि प्राप्त है । ये कब और किस प्रकार की परमात्मा की बातें सुनते हैं । जमीन के मन में कोई संशय अथवा प्रश्न उपस् थित होता है तो ये समाधि अवस्था में चले जाते हैं और इनका वह संशय निवारण हो जाता है । इनको अपने प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है । बहुत विचित्र है नाम जो कुछ परमात्मा की वाणी में सुनते हैं वह स्मरण रखते हैं और मंत्रों में उच्चारण कर देते हैं और मंत्राी पूर्ण ज्ञान का स्रोत होते हैं । इन मंत्रों को हम वेद इसी कारण कहते हैं क्योंकि विज्ञान है । वेद शब्द ज्ञान का पर्याय वाचक है और महात्मा अपनी बात को बनाने का दुष्ट क्यू करता है । परमात्मा का ज्ञान तो सबके लिए छत पे प्रसारित हो रहा है और महात्मा देवों के द्वारा वेज उद्घोषित कर रहे हैं । ये महर्षि उस ज्ञान को सुनने और समझने की सामर्थ्य प्राप्त किये हुए हैं । अब तो लोग सुनते हैं और परमात्मा के आदेश से ही सबको सुनाते हैं । यदि इनके पास यह सामर्थ होती अथवा परमात्मा वेदज्ञान न देते तो फिर क्या होता हूँ मैं समझती हूँ तब भी हम सब कुछ जान पाते । मैंने अपने स्थानों पर रहते हुए भी कई बातें चीखली थी । बंद वही बातें जो वन पशु जान गए थे कदाचन । उनको इन बातों के जानने में उतना कष्ट भी नहीं करना पडा जितना कि तुम्हें करना पडा होगा । ये बातें प्रकृति के गुण है । इनके जानने और समझने में कुछ भी यत्न करना नहीं पडता । ये प्रकृति के धर्म है । स्वरों प्रस्तुति आहार अर्थात भूख लगने पर खाना, भय, किसी अनदेखी वस्तु अथवा घटना को देखने से डरना, निंद्रा ठग जाने पर सो जाना और संतानोत्पत्ति करना । चार कार्य प्रकृति की देन है । यह बिना परमात्मा के बताए भी सीखे जा सकते हैं । ये कार्य तो पशु भी जो परमात्मा की वाणी को न तो सुन सकते हैं और न ही समझ सकते हैं, जान जाते हैं । परन्तु इनके अतिरिक्त जो कुछ हमने सीखा है वह परमात्मा की कृपा से था, उसके बताने से ही सीखा है । उदाहरण के रूप में वाणी हमने वेदों से सीखी है । अग्नि प्रदीप्त करना हमने परमात्मा से शिखा है, अपनी कामनाओं पर संयम रखना परमात्मा ने बताया है । यदि हम किसी मनुष्य को ये बातें न बताएं तो वही इनको कभी सीख नहीं सकेगा । वह पशुवत ही बना रह जाएगा । वेद मनुष्य मात्र को मिला है । मैं कल्याण, मई, वाणी, सोच प्राणियों के लिए है । ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, क्षुद्र अपने और परायों के लिए हम उनकी वाणी को सुन और समझ सकते हैं । था । ये है हमारा कर्तव्य है कि हमें से यहाँ इस लोग में सबका प्रिया करने के लिए सबको सुनाएँ, जिससे सब लोग हमारे अनुकूल हो तथा अधीन हूँ । प्रस्तुति को अभी भी संतोष नहीं हुआ । उसने पूछ लिया अधीन से आपका क्या अभिप्राय है? वेद के जानने वालों आधारित ज्ञानवान ओं के अधीन सब होने चाहिए । जो ज्ञानी नहीं उनको ज्ञानवान ज्ञान देते हैं । पिता मेरे को भी पता चल गया । यह स्त्री अपनी बुद्धि का प्रयोग करने लगी है तथा वे उससे ज्ञानवान सृष्टि की आशा करने लगे थे । प्रस्तुति रोहिणी से विलक्षण स्वभाव की थी । वह रोहिणी के पति महर्षि मरीचि की शिक्षा थी इसलिए उनकी कुटी में नित्य शिक्षण और प्रशिक्षण के लिए जाती थी । ट्राय प्राप्त हैं कि जग्य क्यों मारा? वह पति पत्नी दोनों के साथ उनकी कुटी में चली जाती और प्रातः का अल्पहार फल उसी स्थान पर ग्रहण करती । आश्रम में कोई सेवक नहीं था । अच्छा अपनी सेवाएं सब स्वयं ही करते थे । आसाराम के घेरे के भीतर फल उद्यान था । सब आश्रम निवासी जंग वेदी से उतरकर फल उद्यान में चले जाते थे और वहाँ से रूचि और आवश्यकतानुसार फल उतारकर अपनी कुटिया में ले जाते थे और खाते थे । जब से मरीचिका विभाग हुआ था रोहिणी अपने पति के लिए भी फल तोड लेती हैं । प्रस्तुति रोहिणी के साथ जाती थी और वह भी आपने तथा गुरु जी के लिए फल ले आती थी । रोहिणी ने उद्यान को जाते हुए मार्ग में पिछली बार पिछली साईं पिता नहीं के प्रमोशन की चर्चा कर दी । उसने कहा ऍम कल हमने बहुत प्रश्न पूछे थे । मैं समझती हूँ पिता में है । तुम्हारे पशुओं से खुश हो रहे थे । सब उनको ये किसने बताया । मुझे स्वयं समझ में आ गया है जो यूनतम प्रश्न पर प्रश्न कर दी जाती थी । उत्तर देते हुए उत्तेजित हो रहे प्रतीत होते थे । मैं तो इसका अर्थ यह समझती हूँ कि वह मेरे प्रश्न पर प्रसन्नता अनुभव करते थे, समझता हूँ क्यों? इसलिए कि आश्रम में अन्य कोई भी इतना कुछ जानने की इच्छा नहीं करता हूँ । मेरे मन में ये सब बातें तब भी रहती थी । मैं अपने जन्म स्थान पर भवन क्या करती थी? मेरे मन में यह प्रश्न खडा उठता रहता है कि मैं क्या हूँ जो हूँ और इसलिए हो । मुझे स्मरण था एक श्वेत रन की छुट्टी थी । मैं उसमें से निकली थी । बहुत मेरे लिए किसने बनाई थी और फिर मैं उसके भीतर मैं जा नहीं किसने काल तक सोच रही थी । उस समय मुझे कौन खिलाता पिलाता रहा था उसको टीवी को? आप लोग अंडा कहते हैं । मैं उससे निकल जब जाऊँगी तो मैं उठ कर खडी होने लगी परंतु फिर पडी मैं उन्हें उठी । समीर एक वर्ष का आश्रय लेकर उठ खडी हुई और बच्चों को पकड पकडकर अपनी चारों और वन पशु पक्षी इत्यादि देखने लगी । मैंने एक जंतु को देखा तो डर गई कि वह क्या है । इस सब समय भी मैं यह मन में विचार कर दी थी कि वह क्या है परंतु इस से पूछती हूँ मैं तो मैं अपने मन की बात किसी को बता सकती थी और न ही वहाँ कोई था । मेरी बात को समझ सकता हूँ । तब तक वे बच्चों से फल तोडने लगी थी । अन्य आश्रमवासी भी वहाँ अपनी अपनी रुचि अनुसार खाने योग्य फल कंद मूल चुन रहे थे । प्रस्तुति और रोहिणी अपने तीनों के खाने के लिए भोजन एकत्रित कर चुकी थी । उस समय दक्ष उनके पास आ गया और रोहित ऍसे लगा मरीची जी नहीं आई । मैं जो आई हूँ तो तुम उनका काम कर देती हो । उनकी अर्धांगिनी जो शरीर का एक अंग दूसरे अंग का काम करता ही है और प्रसूति किसलिए साथ है? उत्तर प्रस्तुति नहीं दिया । मैं अपने लिए भोजन एकत्रित करने आई हूँ । मैं समझा था तो किसी के लिए ले जा रही हूँ । मेरा विचार है कि तुम्हारे पास भी एक व्यक्ति की आवश्यकता से अधिक है । हाँ वो मैं अपने सांयकाल के प्रयोग के लिए ले जा रही हूँ । उन्हें सांयकाल आना नहीं पडेगा तो साढे कान उद्यान में आने से कुछ पानी होती है । एक काम के लिए दोगुना समय क्या करना बुद्धिमता नहीं है परन्तु कुटिया में बेलनार भी तो झपट कर ले जा सकती है । प्रशस्ति मुस्कराई और कहने लगी मेरे साथ एक दिन ऐसा हो चुका है । मैं अपनी कुटिया के होने में फल रखता हूँ । गुरूजी से कुछ जानने चली गई थी । वहाँ से लौटी तो फल वहाँ नहीं थे । विचार कर रही थी कि कहाँ गए होंगे । मेरी दृष्टि सरीखी पडे छिलकों पर चली गई । कदली के छिलके पडे थे मैं समझ गई कोई खा गया है अवश्य कोई वन पशु होगा । अब मैंने विचार कर एक लटकन निर्माण किया है । उसे कुट्टी की छत से कुटी के बीजू बीच लडका रखा है । अब बच्चे फल उस पर रखते थी हूँ । वहाँ से वन पशु नहीं उतार सकते हैं । दक्ष प्रसूति का मुख्य देखता रह गया । इस समय तक वे उद्यान से निकल गुरूजी की कुटियां की और चल पडे थे । दक्षिणी अपनी मन की बात कह दी थी । उसने कहा रोहिणीदेवी आप प्रसूति को कहें कि मत से विवाह कर नहीं की आवश्यकता है तो क्या आप अभी नहीं समझती हूँ । आपका तो विभाग हो चुका है । आपको ज्ञात होना चाहिए कि विवाह करने से एक प्रकार का आनंद प्राप्त होता है । रोहिणी का मुख् आनंद की बात सुन रक्तवर्ण हो गया परन्तु तुरंत ही अपने को नियंत्रण में कर उसने कहा मैं समझी थी पी है आनंद केवल स्त्रियों को ही अनुभव होता है । आप कैसे जानते हैं कि यह पुरुषों को भी प्राप्त होता है । दक्षिण हस पडा और बोला आपको अपने महार्षि इसे पता करना चाहिए पता करूँगी । उन्होंने कभी ऐसी बात नहीं बताई उनका किसी प्रकार का आग्रह भी नहीं रहता । इसी से अनुभव होता है कि वह संतानोत्पत्ति को मात्र एक कर्तव्य समझ इसमें संलग्न है । इस कारण मैं यही समझ रही हूँ कि वह मुझ पर अत्यंत कृपा कर रहे हैं । दक्षिण फॅसा इस समय तीनों महर्षि की कुटिया के द्वार पर ना पहुंचे । दक्षिणी रोहिणी और प्रस्तुति के साथ महर्षि की कुटिया में चला आया हूँ । महर्षि के चरण स्पर्श कर बोला, गुरुजी, मैं रोहिणीदेवी से कह रहा था यह प्रस्तुति को मेरी अर्धांगिनी बनने के लिए प्रेरित करें परन्तु है बात तो तो मैं पिता ने से करनी चाहिए । बिना उनकी स्वीकृति के विभाग नहीं होगा । देखो मैं उनके जीवन की एक प्राचीन कथा बनाता हूँ । कई वर्ष व्यतीत हो चुके हैं । यहाँ एक प्रकार की पुष्टि हुई थी । आर्मी में हमारे सामान ही है । मैं तो नहीं थी परन्तु रूप से विक्रम और शरीर ओज वहीं तथा बुद्धि से मंदिर थी । पिता मैंने उनको देखा तो सबको विनिष्ट कर दिया । पिता मैं का विचार था कि उस सृष्टि के रहते यहाँ रहने से पृथ्वी पर भार ही बढेगा तथा यदि तुमने उनकी स्वीकृति के बिना कहीं संतान उत्पन्न की वाह तुम्हारी संतान सहित उन को भी नष्ट कर रहेंगे । सुबह हमारे अधिपति बन रहे हैं आप हम उन्हें उनके ज्ञान के कारण अपना अधिपति स्वीकार करते हैं । विद्वानों का आधिपत्य शुक्कर होता है । दक्षिण भी महर्षि मर्जी से ही वानी और अन्य ज्ञान की बातें सीखा था तो उन को अपना गुरु है । अपने से अधिक ज्ञानवान मानता था । इस कारण चुप रहा हूँ और पुनः चरणस्पर्श कर वहाँ से चला गया । जब तक चला गया तो मरीची ने दोनों स्त्रियों को बैठने को कहा । जब बैठ गई तो उसने प्रस्तुति से पूछा क्या तुम इस महापुरुष थे? विवाह करना चाहोगी । जब अपने जन्मस्थान से मैं इसके साथ यहाँ आई थी तो मैं इसके साथ एक ही नीड में रहने की इच्छा करने लगी थी । परंतु जब मैंने आपको देखा और आपकी विद्वता का पता चला हूँ, आपसे विभाग की इच्छा करने लगी । पर अब तो आपने कह दिया विशेष या पुत्री के समान होती है और पिता का पत्री से दे रहा नहीं होता । इस कारण मैंने अब अपना ध्यान उन्हें दक्ष की और केंद्र कर रखा है । मैं पे काम है से बात करूँ और मैं आपसे बात जानना चाहती हूँ । रोहिणीदेवी कह रही हैं कि कल मेरे प्रश्न पूछे जाने पर पिता मैं मुझसे रुष्ट हो गए प्रतीत होते हैं । रोहिणी का ये है हम है साठ साल में पिता में है के पास बैठा था महर्षि वहाँ और ऋतु भी वहाँ पे हम सबके समक्ष पता मैंने कहा था कि वह प्रस्तुति के प्रश्नों से बहुत प्रभावित हुए हैं । मैं बहुत ही बुद्ध शी जीत है । प्रस्तुति ने मुस्कराते हुए रोहिणी के मुख पर देखा तो वह आपकी बाद स्पष्ट करने नहीं । उसने कहा, मेरा अनुमान था कि वह इस प्रकार पूछे जाने पर अब प्रसन्न है । प्रसूति के प्रश्नों से यह होता था । इससे पिता में है कि प्रखंड पर विश्वास नहीं है । नहीं रोहिणी । मैं बुद्ध युक्त प्रश्न किए जाने पर प्रश्न ही रहे थे । उन्होंने मुझे कहा था प्रस्तुति को शीघ्रातिशीघ्र वेदों के ज्ञान जागत करा देना चाहिए । वह शीघ्र ही विभाग का आश्रम से चली जाएगी, चली जाएगी । रोहिणी ने विश्व में प्रकट करते हुए पूछा, आप दो कन्याओं का पहले भी विभाग हो चुका है तो तीसरी हो । पहली दोनों आश्रम छोड अपने अपने पति को साथ लेकर चली गई हैं । उन्होंने अपनी नए आश्रम बनाए हैं । पिता महंगा विचार है की प्रस्तुति भी अपना नया आश्रम बनाकर अपना कोई चलाएगी । मैं तो आश्रम छोड कर नहीं जा रही है । तीनों पत्तों पर भर रखा खाने लगे थे । रोहिणी के इस कथन पर महर्षि मरीचि ने कहा, पिता मैं का विचार है । तुम आश्रम को नहीं छोड हो गई और मुझे तुम यहाँ से किसी अन्य स्थान पर नहीं ले जा सकते होगी । हाँ, मैं को ले जाना चाहूंगी ही नहीं । मुझे यहाँ बहुत बडा प्रतीत हो रहा है । यह बडे बुरे का प्रश्न नहीं है । यह महत्वाकांक्षी का प्रश्न है तो अपनी वर्तमान व्यवस्था पर संतुष्ट हो । प्रस्तुति इतने में ही संपुष्ट नहीं है । यह क्या चाहती है? पिता मैं कह रहे थे कि वह इतने बडे परिवार की माता होने की इच्छा रखती हैं जो पूर्ण नहीं तो आधे बहुमंडल परछा जाए । इसकी संतान इस पृथ्वी पर मान सम्मान का पद ग्रहण करेगी । उससे इसको क्या मिलेगा? रोहिणी ने पूछ लिया, यह उसके स्वभाव में है और जब किसी की स्वाभाविक बात सिद्ध होती है तो उसके मन में एक प्रकार के नैसर्गिक आनंद की अनुभूति होती है । पैदावार का कहना है कि तुम्हारा सुधाव मैं सामने जैसा है और प्रसूति का छतरी आता है । क्या होता है कि शब्द रोहिणी और प्रस्तुति दोनों के लिए नवीन थे? इसका चारण कभी पिता मैंने भी अपने प्रवचनों में नहीं किया था । महर्षि मरीचि ने बताया कुछ दिन से मेरे मन में एक बार बार बार प्रस्फुटित हो रही थी उसे कल सांयकाल ही मैंने पितान है । सब कुछ एक मंत्र है रामा उससे मुख्य मासी बाहुल् राजन प्रथा और दस से ये ऍम बंदे आश जो आ जाया तो ये कोमलांगी प्रसूति वहाँ भी समाजों में बाहों का काम करेंगे । नहीं अभिप्राय यह नहीं है ऐसी संतान की स्पष्टी करेगी जो मानव समाज की रक्षा का भार अपनी पर लेगी । रोहिणी ने विस्मय प्रशस्ति किया और देखा मैं इन व्यक्तियों से गौरान्वित अनुभव करने लगी थी । मैं प्रसन्न और संतुष्ट प्रतीत होती थी । मरीची ने भी प्रस्तुति की और देखा और कहा मैं समझता हूँ शीघ्र ही प्रस्तुति का व्यवहार अच्छा जाएगा । इसके कुछ दिन उपराम एक साइकल पिता में है । अपने प्रोफेशन में बता रहे थे परमात्मा की इच्छा से इस पृथ्वी पर सस्ती अच्छी है । पिता में है नहीं बताया आज से चार सम्वत्सर पूर्व की बात है कि अपने आश्रम निवासी दक्षिणी मुख्य पोछा मैं कहाँ से आया हूँ इस पर इनके पर मैंने कहा तुम क्या हो पहले यह जान हूँ । दक्ष कहने लगा मैं नहीं जानता हूँ । मैंने उसे कहा कल मध्यान के समय मेरे साथ चलना हूँ । यहाँ से कुछ दूर चल रहा होगा । वहाँ तो मैं कोई ऍम । अगले दिन मैं उसे यहाँ से एक प्रहर की यात्रा के अंतर पर ले गया । वहाँ एक अश्वस्त के वृक्ष के नीचे एक घंटे में बहुत तीव्र किरणें । विपक्ष के भक्तों और सेक्शन कारण भूमि बार पड रही है । उन किरणों से गड्ढे में उथल पुथल मच रही थी । मानव किसी बर्तन में मट्ठा मथनी से मथा जा रहा हूँ । वहाँ की भूमि उस मथन से बुलबुले छोड रही थी । दक्षिण जिसमें से देखता रह गया । मैंने उससे पूछा तीव्र किरणें कहाँ से आ रही हैं? उसने वृक्ष की और देखा । दक्षिण अति मनोहर दिखाई दे रहा था । उन के पत्ते सुनहरी आभा लिए हुए थे । पूर्ण रख विशेष मुँह से प्रज्वलित था । दक्षिण पूछा गिरने इस वृक्ष के पत्तों में सेक्शन करा रहे हैं परन्तु है वृक्षों को क्या हो रहा है तो रक्षित फस रहा प्रतीत होता है । मैंने कहा रक्ष पर सोम छाया हुआ है । सोम से इसकी शोभा कई सौ गुना बढ रही थी, परंतु है चिरकाल तक नहीं रहेगी । इस वक्त की शोभा दें । रोहिणी ने अपनी किरण यहाँ डालकर भूमि पर विक्षोभ उत्पन्न कर रखा है । इससे क्या होगा? दक्षिण कश्मीर था मेरा था बीस पे जाओ । आगे घडी भर वह दो शो चलता रहा हूँ । उसके उपरांत भूमिका उबाल बंद हो गया और उस गड्डे में कुछ बन गया । मैंने दक्ष को बताया ये कलम है, उससे क्या होगा? मैंने कहा ये है कल आकर देखेंगे । अगले दिन हम दोनों पुणे उसी स्थान पर गए । मैं कलम सिकुडकर एक हो गया था । उसके ऊपर एक श्वेत रंग की त्वपूर्ण की भर्ती की वस्तु जम रही थी । इसके उपरांत उसे हम नित्य देखने जाते रहे हैं । लगभग दस माह के उभरा । हम वहाँ गए तो वह अंडा जो तब तक एक सुदृढ श्वेत छिलके का बन चुका था और जिसका एक मटके के बराबर हो चुका था तो गया था और देखते देखते हुए हैं । फूट गया और उसमें से मानव बाहर निकाला है । हमने उसे आश्रय दे उठाया और धीरे धीरे चला है । कुछ ही देर उपरांत फॅस चलने लडा । तब हम उसे नदी के किनारे ले गए । वहाँ हम ने उसे स्नान कराया और फिर उसे साथ लेकर इस आश्रम में आ गए । वह नाराज था । इसी प्रकार हम सब बने हैं ना भारत के उपरांत ऍम हमारे आश्रम के समीप नहीं हुई । महर्षि अत्रि ने बताया है कि रोहिणी नक्षत्र अब पृथ्वी से तो पिछले अन्य लोग में चला गया है था । अब इस प्रकार से सृष्टि होनी संभव नहीं रही । इस पृथ्वी पर अब भगवान वैवस्वत मनु कन्याओं की सस्ती कर रहे हैं । उन्होंने मेरे ज्ञान में अभी चार कन्यायें रखी हैं । उन चारों का पालन और शिक्षा दी । क्या हमारे आश्रम में हुई है? भगवान व्यवस्थता ये हैं । आदेश है इन कन्याओं में मैथुनी सृष्टि करें । उसी प्रकार जैसे वन पशु करते हैं । मैंने सनक सनन्दन से कहा कि वही सृष्टि करें । उन्होंने यह कहकर इंकार कर दिया यह पशु करम है । मैंने अपने आश्रम के छह ऋषियों से कहा कि वे दिन कन्याओं से स्पष्ट करें । उन में से केवल महर्षि मरीचि नहीं है । कार्य स्वीकार किया है, परन्तु उसके अभी तक कोई संतान नहीं हुई तो कन्यायें हमने पहले विभाग है । एक प्रजापति रुचि से और दूसरी प्रजापति कदम से । वे दोनों कन्यायें कुछ अधिक संतान उत्पन्न करने में असमर्थ रही हैं । प्रजापति रूचि और देवा होती नहीं । एक ही प्रसव क्या है? उसने पुत्र और एक कन्या का जन्म हुआ है । प्रजापति गर्दन के अभी तक कोई संतान नहीं हुई । रुचि के विभाग को चौबीस बच्ची संबंध सर व्यतीत हो चुके हैं जब आश्रम में प्रस्तुति आई है । ये सब प्रकार से इस योग्य है कि सृष्टि उत्पन्न करें । मैं इसके लिए कोई योग्य वर भी घूम रहा हूँ । काम है । अंगीरा ने कहा इस बार आप स्वयं अपना करेंगे बस्ती आपके सर्वथा योग्य है । बहन मेरी पुत्री सामान है । साथ ही मैं इस समय तो मन्वंतर कि वयस्क का हो चुका हूँ । मैं वृद्ध हो रहा हूँ । कोई अन्य योग्य वर मिलते ही इसका विभाग कर दूंगा पिता में ऐसे यह सब सुनकर प्रस्तुति ने आज उन्हें प्रश्न पूछ नहीं आरंभ कर दिए । उसने पूछा भगवान वृद्ध क्या होता है? प्रत्येक मनुष्य जो इस स्थान पर हुआ है एक न एक दिन मृत्यु को प्राप्त होगा । आप सबने देखा कि एक दिन बहल गौशाला में लेट गया था और विश्वास लेना बंद कर दिया था सब हमने उसकी खाल उतरवा ली थी और उसे नदी में बहा दिया था । ये है मृत्यु है, पर ऐसा क्यों होता है? शरीर कार्यकर्ता करता छीन हो जाता है और फिर काम करने योग्य नहीं रहता है । तब इसमें उपस् थित चेतनपुरा ही इसे छोडकर कहीं अन्यत्र चला जाता है और शरीर प्राण रहित हो जाता है । उसको शीघ्रातिशीघ्र विनष्ट करने के लिए हमने उसे नदी में बहा दिया था और शरीर को जल जंतु खा गए थे और वह दुर्गंध फैलाने से बच गया । देखो होती हैं जब प्राणी उत्पन्न होता है और जब उसकी मृत्यु होती है । इन दोनों के बीच के काल को आयु कहते हैं । इस आयु के चार भाग किए गए प्रश्नकाल के निर्माण का होता है । दूसरा साल यौवन का होता है, तीसरा मनन का और चौथा लोक कल्याण करने का । आयु के दूसरे साल में संतान उत्पन्न करनी चाहिए । मैं इस काल को व्यतीत कर चुका हूँ । आपको भूतल पर आए कितने संबद्ध हुए हैं? इस मन्वंतर का नाम व्यवस् वक्त मन्वंतर है । इससे पहला मनमोहन डर चाहता था । मैं उस के आरंभ में इस पृथ्वी पर उत्पन्न हुआ था । उस समय यह पृथ्वी जलमग्न थी । बढाने जल का हरण किया तो भूमि जल से बाहर नहीं । भूमि कमल सामान चल से निकली थी, ऐसा प्रतीत होता है । उस समय भी रोहिणी नक्षत्र ततवीर के समीप था और इस पर अपनी गिरने भेज रहा था । उस पृथ्वी रूपी कमाल की नाभि में विक्षोभ उत्पन्न हुआ और एक अंडा बन गया जिससे जिससे समय पागल हो मैं उत्पन्न हुआ । मेरा जन्म भी आप सब की बातें ही हुआ है । उस समय कमल पर सोम की छाया भी और रोहिणी ने कमलनाथ को मत डाला और मेरा है शरीर बन गया । मेरा शरीर बना और मैं अपने इधर उधर देखने लगा । मुझे ऐसा प्रतीत हुआ हूँ । उस कमाल के चार और भूमि पर वनस्पतियां बन रही थी । मैं कमाल से निकल भूमि पर पिक्चर नहीं लगा और वनस्पतियों एवं फलों को खाता हुआ जीवन चलाने लगा । मैंने तपस्या की और समस्या से मैं समाज हो गया । उस समाधि की अवस्था में एक मन्वंतर निकल गया और वर्तमान व्यवस्था मन्वंतर आ गया । अब मैं समाधि से उठा तो पृथ्वी पर घर नहीं बन बन चुके थे । इन वनों में जीव जंतु करने लगे थे । मैंने अपनी जैसी मानव सृष्टि इच्छा की, तब उन हर रोहिणी नक्षत्र गेहूँ लोग में भ्रमण करता हुआ इस पृथ्वी के समीप आया और फिर यहाँ मानव सृष्टि होने लगी । ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे आकार विस्तार के परन्तु भिन्न स्वभाव वाले लोग भी उत्पन्न हुए । वे वन पशुओं को मार मार कर खाते थे । जब इस आश्रम में भी कुछ श्रेष्ठ मानव बन गए तो वे तुम्हें खाने के लिए आए । मैंने उनसे इस आश्रम की रक्षा ऐसा विजिट हुआ कि वे लोग परस्पर लड लड कर मर चुके हैं । विरुद्ध थे इस प्रवचन की अगले दक्षिण गौशाला का प्रबंध देखने के उपरांत अपनी कुटिया हो जा रहा था की प्रस्तुति नदी तट की ओर से आती हुई मिल गई । प्रस्तुति प्रायर रोहिणी के साथ रहती थी । आज रोहिणी साथ नहीं थी । वहाँ अकेली थी । दक्षिण साथ साथ चलते हुए पूछ लिया तुम्हारी सखी कहाँ है? मान सके रोहिणी महार्षि मर्जी के भारतीय मैं रूम है । आसनार्थे नदी तक पर नहीं आई । क्या कष्ट है बोलो टेस्ट का मुझे ज्ञान नहीं । महर्षि गुरूवर रोहिणीदेवी को लेकर पिता नहीं के पास गए हैं । उनको जाते । मैंने देखा और पूछा था ये किस कारण वहाँ जा रही हैं? गुरूजी ने बताया है कि वह रोबिन हैं और पिता नहीं से इसका उपचार पूछती जा रहे हैं । कल पिता महीने तक है । विषय में कुछ कहा है । हाँ, मैंने भी सुना और समझा है तो संतानोत्पत्ति करोगी करूंगी तो सही परंतु करूंगी । मैं जानती नहीं मैं जानता हूँ कल्पिता मैंने कहा था की सडक शानदान ने इसे पशु क्रम बताया था और इसी कारण उन्होंने यह नहीं किया । इस पर मुझे पशुओं के एक धर्म का स्मरण हुआ है । ऐसा प्रतीत होता है कि उस धर्म से संतानोत्पत्ति होती है । बछडे बछडियां उत्त्पन्न होती हैं परंतु एक गाय को तो चाहते मैंने भी देखा है । बहुत कष्ट हमें प्रतीत हुई थी की आवश्यक नहीं । कुछ बिना कष्ट भी जाती हैं । ऐसा किस प्रकार हो सकता है, पिता में ही बता सकेंगे । मुझे इसमें होता है कि वे इस विषय में कैसे जानते हैं । बहुत कुछ चलते हैं । उनकी तपस्या, साधना और सामाजिक द्वारा बहुत बातों का पता चल जाता है तो मैं उनसे पूछेंगे । हाँ, उस दिन प्राथमिक यज्ञ के उपरांत प्रसूति ने रोहिणी से पूछा, यहाँ भ्रष्ट था, बहन हूँ, कुछ नहीं था, नाम है । मैं अपने भीतर किसी प्रकार की सादा से भिन्न अवस्था अनुभव कर रही थी । ऍम महार्षि चीज क्या? तो बोले कि पिता मैं से बात करनी चाहिए । अगर हम दोनों वहाँ पहुंच गए । मैं अपनी समाधि से उठे ही थे । मैंने नमस्कार किया तो उन्होंने बिना मेरे किसी प्रकार की बात किए स्वयं प्रसन्नता प्रकट करते हुए कह दिया, मेरे संतान होगी । तब मैं आश्चर्य में पढकर पूछा । बोले दस मास उपराम तो अभी बहुत दूर है । पिता महीने मुझे महर्षि अत्रि से सम्मति करने के लिए कहा है । क्या वह बताएंगे? प्रस्तुति ने पूछा यह मैं क्या जानूँ आज किसी समय उन से बात करूंगी । प्रसूति के मन में स्पष्ट इसी उत्सुकता, आशा और भय उत्पन्न हो रहा था । वह सब को समझ नहीं रही थी । आज वह फल उद्यान से फल लेकर अपनी कुटिया में चली गई । उसने अपने पूर्व स्थान पर रक्ष पर घोसलों में दो दो पक्षियों को इकट्ठे रहते देखा था और संस्मरण कर मैं अपनी कुटिया में भी किसी साथी की इच्छा करने लगी थी । उसे गुरु मरीची और रोहिणी को एक ही छुट्टी में इकट्ठे देख ये अनुभव होता था कि वे बहुत पसंद नहीं और अब रोहिणी कह रही थी कि उसके संतान होगी । वह अपने विषय में भी विचार करती थी । क्या उसकी भी कुटिया में कोई साथ ही आकर रहेगा? इस पर उसे दक्ष की बात हो गई थी । पहले ही दिन उसने जब देखा तो वह उसे रूचिकर प्रतीत हुआ था । इस आश्रम को आते हुए कई बार उसे दक्षिण के शरीर का स्पर्श हुआ था और उस पर से उसको कुछ अत्यंत रोचक अनुभव हुआ था । इससे रहे विचार कर दी थी । इस किसी साथी के एक ही कुटी में रहने से मैं रस प्राप्त होगा क्या और उससे कुछ लाभ होगा अथवा हनी होगी? आज मैं साईं की उपासना और रोशन सुनने गई तो वह मन में चिंतन कर रही थी कि वह क्यों और क्या है? मैं इस विषय में पिता में से जानना चाहती थी । उस दिन यज्ञशाला पर एक विलक्षण हलचल थी, जो ही प्रस्तुति नहीं । यज्ञशाला में प्रवेश क्या सामने दक्षिण खडा दिखाई दिया? प्रस्तुति ने पूछा यहाँ क्या है? सब लोग किस लिए खडे हैं? बैच क्यों नहीं रहे तो तुम कहाँ थी? यहाँ तो अभी अभी एक बहन का घटना घटी हैं । क्या हुआ? कुछ मंश बाहर कहीं से आकर आश्रम में घुस गए । हमारी फुलवारी और पशु मना को नष्ट भ्रष्ट करने लगे । महर्षि अच्छे भागे । भागे पिता नहीं के पास आए और उन्होंने सब बात बताई तो फिर काम है अपनी कुटिया से बाहर आ गई और देहात के संकेत से उन्हें विनाशकारी कार्य करने से मना करने लगे । नहीं मैंने तो पिता मैंने केवल संकेत मात्र से उनको तक एल धकेलकर आश्रम से बाहर निकाल दिया । केवल संकेत से हाँ वैसे पीछे हटते गए आश्रम से बाहर हो गए, जैसे कि धकेले जा रही हूँ । तब अब ये आश्रम के बाहर एकत्र वो अपनी स्थिति पर विचार कर रहे हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि वे इस आश्रम में पश्चिमी और स्थलों की दुनिया को देखने आए हैं । चाहती हमारी कोरियाओं को देख चुके हैं । वे हम सबको मार कर ऐसे ही खा जाने का विचार कर रहे हैं । जैसे भी वन पशुओं को खा जाते हैं मैं स्त्री पुरुष बता बालक भी हैं । ये सब आश्रम से बाहर द खेले जाने पर बिसनेस है और उन्हें आक्रमण की योजना बना रहे प्रतीत होते हैं । कोई सब कितने हैं? कई सौ है । इस समय पिता मैं कोटिया से निकल कार्यशाला में आ गयी । पितान है की आज्ञा से सब बैठ गए और हवन आरंभ हुआ । अग्नि में अभी डाली जाने लगी दोगुनी प्रदीप स्पोर्ट ही और ऊंची ऊंची लपटें उठने लगी । साथ ही रह आश्रमवासियों के मन्त्र चारण के ध्वनि उसने लगी । इस समय आश्रम के बाहर खडे व्यक्तियों में से एक व्यक्ति आश्रम का द्वारा लांघकर भीतर आ गया । मैं अकेला था और हष्ट पुष्ट ऍम बलशाली प्रतीत होता था । उसे अकेला देख जगदीश शाला में बैठे लोग कुछ कुछ बेचैनी अनुभव करने लगे थे परन्तु पिता मेरे को मंत्र चरण करते देख सब स्वर रहे विज्ञान कर दे रहे हैं और उन करनी वो जरा नाम ऍम तरह सामान प्रशंसित हूँ हूँ और सब डोमेंद्र गिर रहा प्रति तो हम उस हार सकता ऍम वाॅटर यज्ञवेदी कि समीप आकर खडा हो गया । उसने दोनों हाथ उठाए हुए थे । आश्रमवासी इसका अर्थ नहीं समझ पा रहे थे । पिता महीने भी उसे देखा और अपने हाथ के संकेत से उसे भीतर चले आने का संकेत क्या में आया तो पता नहीं उसे बैठे बैठे ही आपने समीर पानी का संकेत क्या मैं भी प्रतीत होता था । पग पग पर्व है, आगे बढने लगा बैठी हूँ के पीछे से होता होगा । पिता नहीं कि सुमित और खडा हुआ मन्त्रोच्चारण अब भी चल रहा था और भी एम अन्य द्रव्यों की आहुतियां दी जा रही थी । सब लोग एक स्वर से मंत्र गान कर रहे थे और सुनीत हूँ घास है मार तू मर तू धर्म सभा मित्रा स्पॅाट द्रोह । इस प्रकार मंत्र पर मंत्र बोले जा रहे थे । आक्रमणकारियों का दूत सर्वथा अ वस्त्र पितान है के पीछे खडा हुआ था । भवन समाप्त हुआ और पिता मैंने अंगुली के संकेत से उस दूध को अपने समक्ष आने को पढा । मैं व्यक्ति सामने आकर हवन कुंड के समीप खडा हो गया । पिता महीने उसे बैठने का संकेत कर कहा निशि! मैं बैठ गया पता मैंने अग्नि की और संकेत कर और स्वयं हाथ जोडकर कहा प्रणाम करो । दूध ने प्रणाम कर दिया । अब पता मैंने संकेत से पूछा क्या चाहते हो? इस पर उस दूध ने कुछ शब्दों का उच्चारण किया जिससे कोई नहीं समझ सका । परंतु पिता मैं समझ गए बे मुस्कराकर यज्ञवेदी पर बैठे आसाराम निवासियों से बोले ये कह रहा है इसके लोग हमसे शुद्ध करने आए हैं तथा एक से एक का युद्ध हो जायेंगे और जो विजयी हो उसके पक्ष के लोग दूसरे के ही हो जायेगा । वो ये भी कहता है कि आपने हरिहि व्यक्तियों को ये मार कर खा जाते हैं । आश्रमवासी समझ नहीं सके कि पिता में है उस व्यक्ति के कुछ ही शब्दों से इतनी बडी बात कैसे समझ सके हैं । सब इसमें से किताब है का मुख देखते रह गए तो कोई नहीं बोला तो दक्षिण उठकर पिता से पूछने लगा भगवान आप कैसे कहते हैं कि यह युद्ध का आह्वान कर रहा है? ये है एक अति सरल सी बात है । इसके साथ ही वन वन में घूमते हुए पशु पक्षियों को मार मार कर उनका मांस खाकर जीवन चलाते हैं । कुछ वन पशु बहुत बलशाली होते हैं । इनमें से एक उसको परास्कर उसकी हत्या नहीं कर सकता था । ये सब एक ही परिवार के लोग हैं और वे इकट्ठे होकर पशु को मार खाते हैं । अपने भोजन की खोज में वे यहाँ आए हैं और हमको भी वन पश्चिम समझ हम पर आक्रमण कर बैठे हैं । यहाँ जब तक इनके फल खाने तक बात थी, मैंने सहन की । पर जो भी वे आश्रम के पशुओं पर लपके, मैंने इनको धकेलकर आश्रम से बाहर कर दिया । उन्होंने आश्रम के बाहर विचार क्या है और उन्होंने एक का एक युद्ध का आह्वान किया है । यही कह रहा है । अध्यक्ष ने हाथ खडाकर कहा मैं इनमें से किसी के साथ भी लडने के लिए उद्यत से ठीक है । हम इस योग्य भी होगा । इस पर भी देख लो हुई तुम्हारी हत्या भी कर सकते हैं । वाह क्या होती है कभी तुमने दो वन पशुओं को लडते देखा है या नहीं? फॅस कहाँ एक दिन में भ्रमण करता हूँ । आश्रम से दूर चला गया था और वहाँ दो लोगों को एक लगी का भोक करने के प्रयास में लडते देखा गया है । क्या हुआ था एक महकने लडते हुए दूसरे के पेट में आपने सिंह चुभोकर उसे भार डाला था घायल भूमि पर बडबडा रहा था विजयी मृग लगी का भोक करने लगा था । हाँ, वैसा ही ये करना चाहते हैं । एक बार और चाहता है कि तुम में से एक के पराजित होने, अपना विजयी होने से हमारा पूर्ण आश्रम अपने को पराजय कछवाह, विजयी समझे । पराजित होने पर पूर्ण आश्रम इनके अधीन हो जाएगा । हम सब इनके दास बन जाएंगे ही प्रकार । यदि ये पराजित हुए तो ये हमारे दास बन जाएंगे । मैं अपने लिए लडने को उद्यत है । पूर्ण आश्रम के बाद आप क्या नहीं? पिता मेहनत दूध को समझाने का यह क्या एक से एक लड सकता है । मैं एक ही पराजित अपना विजयी होगा उन परिवार अथवा आश्रम नहीं । इस पर उसने तो संकेत क्या जिसका अर्थ है समझा गया कि वह अपने साथियों से सम्मति करके ही बताएगा । पिता महीने उसे जाने दिया । वन चरों के दूध के चले जाने पर पिता नहीं ने आश्रमवासियों को अपना सांयकाल का प्रमोशन देना आरंभ कर दिया । पिता नहीं ने कहा वर्तमान जैसे संकट की तो मैं सुना आशंका करता रहा हूँ । जीवन पशुओं के युद्ध का आक्रमण मुझ पर अथवा आश्रम पर्सन हो रहा है । ये लोग वन पशुओं से कुछ सीमा तक ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार का प्रस्ताव जो लेकर आए हैं । वन पश्चिम से नहीं हो सकता । वह बुद्धिमता से विचारित बात है । फिर भी यह ठीक बात नहीं, यह सर्वथा पशुधन तो नहीं । पश्चिम किसी बात तो है ही । यह युद्ध से बात निश्चय करने आया था परन्तु में हैं अभी तक या नहीं समझा जिसमें इस सबको धकेलकर बाहर क्या है? मैं अब भी और कभी भी इसको विनष्ट भी कर सकता है । अच्छा ये लोग अति सीमित बुद्धि रखते हैं । यदि कक्ष इनमें से किसी से भी युद्ध करेगा, निश्चय ही विजयी होगा । कक्ष में बाल भी है और बुड्ढी भी है । बाल तथा बुद्धि दोनों के सहयोग से तो उस तरह से दुस्तर कठिनाई को पार किया जा सकता है । ये भी मैं एक बात कहता हूँ । यदि ये प्रभात होने तक यहाँ से चले नहीं गए तो प्रातः था । ये सब आश्रम में बंदी बना लिए जाएंगे और फिर बंदी जीवन में इनको सभ्य और सुसंस्कृत करने का यह न करूंगा । परम तो इनको कुछ अधिक देर तक प्रतीक्षा नहीं करनी पडी । वहीं वरिष्ठ वन चरों का दूध आया और यज्ञशाला के समीप खडे होगा । हाथ उठा उठाकर युद्धघोष करता दिखाई देने लगा पे काम है । उठकर यज्ञशाला के नीचे खुले क्षेत्र में आ गए । उनके साथ पक्ष और अन्य आश्रमवासी खडे थे । रोहिणी और प्रस्तुति भी खडी थी पिता मैंने आगे आकर उस व्यक्ति को शांत कर संकेत से कहा कि वह अपने साथियों को भी बडा ले तो वे भी युद्ध देख लें । बाल चरों के दूत ने इसे श्रृष्टि योजना समझी और रहे आश्रम के बाहर आकर अपने को साथियों को जिनमें कुछ स्तरीय और बालक भी थे साफ ले भीतर आ गया । अन्य लोग बाहर ही खडे थे । पंचर आश्रमवासियों के सामने युद्ध क्षेत्र के एक और खडा हो गया और आश्रमवासी जगदीश शाला की और पीठ किए खडे थे । वन चरों का योद्धा दोनों दलों के बीच में खडा था, दक्षिण मैदान में निकाला और उसने ऊंचे स्वर में कहा आओ वन चरों का योगदान सिर आगे का मानो वह अपने सिर से प्रहार करेगा दक्षिण की और लगता है उसके सिर का निशाना दक्षिण आप एक बच्चे उसके टक्कर मारने से आदर्श में पहले दो पार्टी एक और हट गया आक्रमण करने वाला अपने ही वेग में निशाना मार्ग से हट जाने पर लुढकता हुआ चार पांच पद आगे आकर भूमि पर गिर पडा । दक्षिण एक बार एक जंगली बढा के आक्रमण से इसी प्रकार बच्चा था । इसके आक्रमण से भी वह बच गया । इस बार उसका एक बात और जो भी वह वन युद्धभूमि पर लडका के दक्षिणी पीछे बहुत उसके उठने से पूर्व उसके सूत्रों पर एक लाख जमाई । मैं उसका उत्तर फिर गिरा । बच्चों ने एक लाख और लगाई फिर गिर पडा इस बार में पराजय तो भूमि पर पीठ के बल लेट गया । बट टांगे और हाथ प्रसार कर आंखें मूंदे लेता रहा । यह देख पिता मैंने आगे बढकर हाथ उठा युद्ध बंद करने की घोषणा कर दी । वन चरों ने मिलकर आश्रमवासियों पर आक्रमण करना चाहा परंतु उन्हें पता मैंने अपने योग बल से उनको ऐसे रोक दिया जैसे कि सामने दीवार खडी कर दी गई हो । पता मैंने भूमि परचित लेते एक व्यक्ति के समीप उसे उठने के लिए कहा । भूमि पर लेटे व्यक्ति ने आके फोल्ड हाथों के संकेत से कहा कि वह मर गया है । मुख से भी उसमें कुछ कहा दक्षिण कुछ अंतर पर खडा था और भयभीत वनचर सामने पंक्ति में खडे थे । आगे बढना चाहते थे परंतु बढ नहीं सकते थे । पिता मैंने हाथ के संकेत से भूमि परचित से बडे व्यक्ति को कहा उठाओ । वनचर पहले उठ कर भूमि पर बैठ गया । तब उन पर भूमि पर लेटकर सास टन प्रणाम करने लगा । प्रणाम कर रहे उठा और हाथ छोड सामने खडा हो गया । इस समय वन चारों में से किस तरी अपने साथ दो बच्चे लिए हुए उस योद्धा के समीप खडी हुई युद्ध संकेत से कहा कि वह पराजित हो गया है । अतः है इनका हो गया है । उसके साथ ही खडी स्तरीय और बच्चों के ऊपर हाथ कर कहा ये उसके अपने हैं और वे भी दास हो गए हैं । पता मैंने कहा तो मेरी है जाना चाहूँ जा सकते हैं और हमारे साथ ही भी जा सकते हैं । योद्धा ने अपने साथ खडी स्तरीय की और पलभर दृष्टि में देखा । स्त्री ने कुछ अपनी ही बोली मैं कहा और योद्धा ने हाथ से संकेत से पता नहीं किस चरणों में रहने के बाद पिता महीने एक्शन पर विचार किया और कहा तथा तो इस पर वन चरों का अधिकांश स्त्रीवर्ग वन चरों को छोड पिता मैं के सामने खडा हो गया । तब वे सब भूमि पर लेट सास टन प्रणाम करने लगी । पिता मैंने उनको उठने का संकेत क्या? और ये सब खडी हो गए और वैसा ही संकेत करने लगी जैसे दास बनने का वनचर जो कर रहा था पता मैंने उनके पुरुषों की और संकेत कर कहा, वे उनके पास चली है । एक युवती जो संभव कहा, अभी अविवाहित थी अपने लोगों की और देखकर ठोकने लगी पैसा महीने समीर खडे वनचर योद्धा को समझाने का यह क्या वह उन स्त्रियों को आपने पुरूषों के पास जाने के लिए कहते हैं? पुरुष नहीं उसी युवती की और देख कर कहा । उस युवती ने भी कुछ बात कही । अब योगदान सिर हिलाते हुए पिता नाम है को समझाने का जब क्या वेस्ट रियां नहीं जाएंगे ये सब आप लोगों के पास रहना चाहेंगे । पिता महीने कुछ दिए मौन रहकर विचार किया । और तो अंतर प्रभास को कह दिया आक्रमण करने वाले वन चरों की संख्या दो सौ से अधिक । उनमें से कुछ ही लोग आश्रम के भीतर आए थे । भीतर आई स्त्रियों की संख्या बीस के लगभग थी । उनके साथ दस के लगभग बच्चे थे तो माताओं की गोदी में थे अथवा अल्पायु के थे और माताओं के साथ खडे हुए थे । सब बीस बीस स्त्रियाँ भिन्न भिन्न बहस की थी इन सब में से वे तो पिता में है कि आश्रम में रहने के लिए पितामह हैं के सामने भूमि पर ले और बैठ गए थे । ग्यारह स्त्रियाँ और उनकी गोद में पांच बच्चे थे । कुछ कुमारी लडकियाँ थी । उनकी गोद में कोई बच्चा नहीं था । केवल एक कुमार था । शेष पुरुष और बच्चे था आठ नौ फॅस परियां दूसरी और खडी थी । जब पितामह हैं दूसरी और खडे वन चरों को कहा आश्रम से निकल जाता है तो लालसा भरी दृष्टि से अपनी स्क्रीन की और देखते रहे । उनमें से एक पुरुष ने कुछ रहा और सब पुरुष तथा कुमार लगभग कर अपनी स्त्रियों की और बडे और उनको बाहों से पकडकर आश्रम के द्वार की और घसीटने लगे । वे स्त्रियां ठीक ही मारने लगी । शोर आर्तनाद मच गया । पहले तो आश्रमवासी और पे काम है । चुप चाहती है कि जापानी देखते रहे एक का एक पैदा मैंने ऊंचे स्वर में कहा ठहर हो । साथ ही उसने अपना दाहिना हाथ ऊंचाकर उनको खींचा, खांची करने से रोकने का संकेत दिया । पहुंॅची पुकार में और क्रोधावेश में वन चरों नहीं न तो पे काम है कि स्वर्ग को सुना समझा और उन्होंने स्त्रियों को घसीटना जारी रखा । दक्षिण उन स्त्रियों को बचाने के लिए आगे को बडा परन्तु पिता नहीं नहीं उसे रोका तो बक्ष बीच में ही ठहर गया । इस पर पिता मैंने हाथ को हिलाते हुए वन चरों को निकल जाने का संकेत करना आरंभ किया । प्रत्येक हाथ के संकेत से एक पुरुष उस पर पकडी स्त्री से कथक हो जाता था और फिर आसाराम के बाहर ऐसे फैंक दिया जाता था जैसे कि हवा के झोंके में कोई सूखा पत्ता उड जाए । इस प्रकार सब के सब वंचन स्त्रियों पर बल प्रयोग कर उन को घसीटते हुए लिए जा रहे थे । आश्रम से बाहर फेंक दिए गए पे काम है उनके पीछे पीछे आश्रम के द्वार पर पहुंचे । पिता को देख सब वंचन और उनके साथ स्त्रियां तथा कुमार सिर पर हाँ रख, भिन्न भिन्न दिशाओं को भाग गए । रोहिणी और प्रसिद्धि को पिता मैंने कहा इंडस्ट्रियों को डाली तटपर ले जाओ । सान कराऊँ और भंडार से लेकर उनको उत्तरीय पहना तो गोद के बच्चों को साथ लेकर स्त्रियां नदी को जल्दी उनमें कुछ कुमार थे । उनको महर्षि यात्री के साथ स्नानादि के लिए भेज दिया गया । पक्ष को कहा गया । इनको पेट भरने के लिए दूध, नवनीत, फल और कंदमूल इत्यादि तैयार कर दिए जाएं । आश्रमवासियों में सबसे अधिक चिंतित महर्षि मरीचि थे । जब सब आश्रमवासी आपने अपनी कार्य में लग गए तो वहाँ पिता नहीं की कुटिया में आए और अपने मन का संचय वर्णन करने लगे । उन्होंने कहा, भगवन या आपने क्या क्या है? कल की गति देख रही यही उचित प्रतीत हुआ है । हम आश्रमवासी हैं क्या? उन आश्रमवासियों में केवल दो स्त्रियां हैं । मैं देख रहा था तीन वन चरों में कम से कम पांच छह स्त्रियाँ ऐसी हैं जो पत्नी बनने के योग्य हैं । उनसे आप लोग संतान करेंगे परन्तु पितान हैं । हमारे लोग यह कार्य पसंद नहीं करते हैं । वैसे पशु कर्म ही समझते हैं । पिता महीने मुस्कराते हुए पूछ लिया और तुम तुम क्या समझते हो? मैं तो ऐसे स्वर्गीय आनंद मानता हूँ । रोहिणी भी यही कहती है । परंतु मरिचि ये आनंद भारी उत्तरदायित्व का सूचक भी है । तो नए जीव इस लोग में आएंगे तो तुम सब की भर्ती एक दो दिन में ही अपनी शारीरिक आवश्यकताओं को पूर्ण करना नहीं सीख सकेंगे । उनको इस योग्य होने में कई संभव सर लगेंगे । तब तक संतान के माता पिता को उनकी देख रेख करनी होगी । हमारी चीज मुख देखता रह गया । फिर कुछ विचार कर बोला तो मेरा प्रश्न तो बना ही है । कौन पुरुष स्त्रियों के संतान उत्पन्न करेंगे? तो ये सब इस काम में अरुचि रखते हैं । उनमें ये रुचि स्थिति उत्पन्न कर देंगी । जलती अग्नि ईट पतंग की भारतीय लोग इस अग्नि में फस होते चले जाएंगे । मरीची चकित रह गया उसे मोहन देख पता मैंने कहा एक ऋचा है अश्विन ना पुनरसंसाधन मेरा शरीर छे हम ने आवन कम दे रहा पता हूँ इस वेदवाणी को कैसे असत्य सिद्ध कर होगी । देखो मरीची यही होना ही है अन्यथा श्रेष्ठ लोग संसार ने दास बना लिए जाएंगे अथवा मार डाले जाएंगे । देखा है ना वो जो आए थे हम से अधिक संख्या में थे । हम ने अपनी बुद्धि तथा ज्ञान बाल से उन को पराजित कर लौटा दिया पहनती है । बुद्धि और ज्ञान भी बहुत संख्या के सम्मुख ठहर नहीं सकेगा । इस कारण संख्या में वृद्धि भी एक धर्म है । अन्यथा तुष्ट संध्या ने बढ जाएंगे । पिसान सारे ज्ञान भी प्राप्त कर लेंगे तब विद्वानों को और देवताओं को वन पशुओं की भर्ती मार मार कर खा जाएंगे अथवा गौशाला के पशुओं की भांति अपनी शालाओं में बांध उनका तू दो दो होकर पान करेंगे । मवेशी निरुत्तर हो गया । फिर भी उस ने आशंका प्रस्तुत कर नहीं उसने कहा इससे वर्णसंकर और भेज वाणी की स्पष्टी होगी हूँ । परमप्रिय तभी होगा जब हमारे शिक्षा प्रसाद ऍम आलस्य के कारण अपना कर्तव्य पालन करना छोड देंगे । यह तो हुई विद्या की बात परन्तु वर्ड संकर की बात मैं नहीं समझा । हम सर्वथा शेजवान के हैं । ये लोग कुछ महीने हुआ लगे हैं । इनसे हमारी संतान भी इन्ही के वर्ल्ड की होगी । हाँ, शरीर से परंतु जीवात्मा तो वन रहित है । उसका कोई वर्ड नहीं । बुद्धि और मन मानस पिताओं की करनी से बिगडेंगे अथवा बनेंगे । उसमें इनकी चमडी का रंग हस्तक्षेप नहीं करेगा । मरीचिका समाधान हो गया और वह नमस्कार कर कोटिया से बाहर निकल आया । जब अपनी कुटिया में पहुंचा रोहिणी और प्रस्तुति वहाँ पहुंच चुकी थी । रोहिणी छूटते ही कहा स्त्रियाँ हमसे विलक्षण हैं । क्या विलक्षण का देखी है तुमने? इनमें? वाशी का प्रश्न था । ये स्त्रियां आसान करती हुई भी परस्पर ऐसे कलोल करने लगी थी जैसे कि वे परस्पर स्त्रीपुरुष हैं । वहाँ शेमस कराया और चुप रहा । प्रस्तुति के समूह किस विषय पर बात करना नहीं चाहता था? इस समय प्रस्तुति ने कहा, गुरुवार मैं कई दिन से दस से विवाह की इच्छा कर रही हूँ । अभी नई आई स्त्रियों को देखना समझती हूँ । मुझे अभी पिता नहीं, ऐसे जाकर अपने मन की बात करनी चाहिए । पाँच तुम्हारी बात से इन स्त्रियों का क्या संबंध हैं? मेरा मन कहता है कि ये दक्ष को झपट ले जाएंगी और मैं मुख् देखती रह जाउंगी । तुम क्यों मुझे देखती रह जाओगी मैं बता नहीं सकती । मेरे मन में कुछ है जिसको मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता थी । मेरा मन कहता है कि मैं दक्ष से व्यवहार करूँ और उनको कहीं दूर ले जाऊं जहाँ मिस्त्रियों के दर्शन भी ना हो सकें । इसे अपनी भाषा में ईद शाह कहते हैं । किसी दूसरे को वह प्राप्त करते देख जो हम प्राप्त नहीं कर सकते हैं उस दूसरे के प्रति घृणाभाव एशिया कहना आती है परंतु दक्षिण के विषय में तुम्हारी धारणा मिथ्या है । फिर भी मैं शीघ्र विभाग करना चाहती हूँ । अभी तुम जाओ और अपने एशिया की भावना को चित्र से निकाल उसे शुद्ध करने का यह करो । मैं अभी दक्ष को बुलाकर बात करता हूँ हमारी जो स्वयं उठा और दक्ष को ढूंढने चल पडा वाह गौशाला में आश्रम में आए प्राणियों को फल कंदमूल और दुग्ध वितरण कर रहा था मैं ऋषि वहाँ गया तो दक्षिण अपना कार्य लगभग समाप्त कर चुका था । एक दो बालक और थे उनको फल इत्यादि दिए जा रहे थे । सब खाने की सामग्री ले लेकर गौशाला से बढा जा रहे थे पे स्त्रियाँ बालक तथा युवतियां आश्रम के प्रांगण में एक बड के वृक्ष के नीचे बैठे खा रहे थे और वहीं सोने का विचार कर रहे थे । परंतु एक स्त्री दक्ष के पास ही बैठी थी, वही थी जिसने वनचर योद्धा के कहने पर वे आपने पुरुषों के साथ जाएँ अपने पुरुषों की और देख कर उन का था । जब पक्ष अपने काम से अवकाश पर आ गया तो मवेशी उस समय वहाँ आने का कारण जानने के लिए उसके मुख पर देखने लगा । मरीची नहीं, उस स्त्री की और संकेत कर जो दक्षिण के सम्मुख बैठी थी, पूछ लिया या किस लिए बैठी है, मैं नहीं जानता हूँ । जाती ही नहीं । कुछ कहती है जो उसमें नहीं सकता हूँ हूँ मशीने प्रश्न भरी दृष्टि में उच्चस्तरीय और देखा तो स्त्री महर्षि का आशय समझ सोने का संकेत कर तक्ष की और देखने लगी । पांच ही समझ गए स्त्री दक्ष के साथ होना चाहती है अथवा है उसकी कुटिया में जाकर रहना चाहती है । इस पर उसे प्रस्तुति के कथन में सत्ता दिखाई दी । साथ ही उसे प्रस्तुति में जिस तरी के प्रति एशिया पर विश्व में भी हुआ महर्षि विपक्ष को कहा तुम मेरे साथ आऊं, पिता नहीं के पास चलेंगे, क्या कार्य हैं चलो वही चल कर बात करेंगे । पहले मैं से अपनी कुटिया में छोडा हूँ । मेरे को क्या नहीं होना चाहती है । ये तो मैं प्रदान है की सम्मति के बिना नहीं करना चाहिए । क्या नहीं करना चाहिए अपनी कुटिया नहीं किसी को स्थान देना मुझे स्त्री बहुत पहली प्रतीत हो रही है । इसमें विशेष आकर्षण है । प्रसूति से भी अधिक प्रस्तुति का नाम सुनकर दक्ष गंभीर विचार में निमग्न हो गया । एक साइड में उठा मरिचि से बोला आशीष चलिए मैं आज ही प्रस्तुति से व्यवहार करूंगा हूँ और इस स्त्री से नहीं नहीं इससे विवाह नहीं करूंगा । इस समय दोनों पितान है की कुटिया की और चल पडेंगे । मैं यूपी भी इनके साथ साथ चल पडी । जब दक्षिणी उसके साथ साथ आती लेखा हाथ से संकेत से एक रक्षा के समीप ठहरने के लिए कहा । स्वयं लौटकर वहाँ आने की बात समझानी । फॅमिली वही ठहर गई । दोनों पिता नहीं की कुटिया में जा पहुंचे । पितान है अभी भी अपने आसन पर बैठे चिंतन कर रहे थे । कुटिया में अंधेरा हो रहा था । भीमा सा प्रकाश रह गया था । उस प्रकाश में ही पिता मैंने इन को पहचाना पूछ लिया और श्री आप किस कारण ऍम बता रहे हैं? दक्ष कहता है कि वह प्रस्तुति से इसी समय व्यवहार करना चाहता है और वो क्या चाहती है वो बीस से व्यवहार करना चाहती है ही समय वह तो दक्षिण चाहता है । हो सकता है प्रस्तुति को बुला लाओ । दक्षिण को वहीं छोड मरीची प्रसूति को ढूंढने चला गया । दक्षिण पिता में ऐसे पूछा क्या बिना विभाग की कोई पुरुष किसी स्त्री से संतान पर नहीं कर सकता? कर सकता है परंतु मैं कार्य पशु जीवन की और दूसरा होगा । प्रथम पढ है पुरुष स्त्री में संतान उत्पन्न ये उससे अधिकतर सोपन होगा । यह क्षमताओं तकती में मिलने वाले रस के कारण ही हैं । यह घोरदंश ओपन है । बहुत निपट ओपन किया है । दक्षिणी मुस्कुराते हुए पूछ लिया वो है इस्त्री । संघर्ष तो करना परंतु संतान उत्पन्न करना । पशु तो ऐसा नहीं करते, पैसा अभी तुम भी नहीं कर सकेंगे । करन है कितना पशु और न तुम संतान उत्पन्न करने के उपाय जानते हो । पशु भी है संसर्ग संतान का चिंतन करते हुए नहीं करते । वे िसकर्म के रस से प्रेरित होकर ही है, कार्य करते हैं । यही बात तुम कह रहे हो पर मैं तो जानता नहीं कि इसमें कोई रस है अथवा नहीं । फिर बीस रस की और तुम्हारा शरीर तुम्हें प्रयोग कर रहा हूँ । मैं नहीं मानता हूँ फिर भी प्रेरणा था । आकर्षण तो है । मैं विवाह अभी करना चाहूँगा हूँ । यदि प्रस्तुति चाहेगी तो हो जाएगा । प्रस्तुति आई तो उसी समय आश्रम के छह ऋषियों को बुलाकर उनके सम्मुख विभाग की दी थी । तीन कर दी गई । विवाह के उपरांत अच्छे प्रस्तुति को अपनी कुटिया मिले गया । प्रातः अकार, दक्ष और प्रस्तुति साथ साथ जारी और प्राथमिकी शीट समीर का आनंद लेने नदी की और चल पडेंगे । मार्ग में वह रक्ष पडता था जिसके नीचे दक्षिण उस वंचित स्त्री को बैठने के लिए कह गया था । मैं अभी भी उसी वृक्ष के नीचे सो रही थी । दक्षिण उसे सोई देख वहाँ खडा हो गया । स्थिति ने पूछा क्या देख रहे हैं जैसी अति सुंदर प्रतीत हो रही है । कल रात यहां मुझसे सहवास की इच्छा कर रही थी । मैं इसकी इच्छापूर्ण करने के लिए से अपनी कुटिया में ले जाने वाला था कि महर्षि गुरुवार आ गए और फिर काम है के पास ले गए । जाते समय मैंने इसे इस वृक्ष के नीचे प्रतीक्षा करने को कहा था । ऐसा प्रतीत होता है यह मेरी प्रतीक्षा करती करती हो गई हैं । प्रस्तुति को उस पर दया अनुभव हुई । उसने उसे हाथ से हिलाकर जगाया वैसी जांच पडी दोनों को इस तरह खडे देखकर कुछ बोली जो ये नहीं समझे ऍम मस्तक पर क्योरी चढा पक्ष की और देखती रह गई होती है उसके बहाने वहाँ डाल अपने साथ चलने का संकेत क्या वही इसका नहीं समझ पाई फॅस की और अति प्रेमभरी दृष्टि से देखा और कहा आप भारी इच्छापूर्ण होगी । तेरी दक्षिण विस्मय में प्रस्तुति की और देखकर पूछ लिया क्या कह रही हूँ मैं आपसे प्राप्त हुआ सुख बांटने लगी हूँ परन्तु बिना मुझसे पूछे आप तो इसको वह देने का वजन पहले ही दे चुके हैं । पिता नहीं से अनिश्चित मारेंगे तो उन की व्यवस्था के विपरीत होना, उनकी व्यवस्था मेरी और आप तक है और यह बात इसके और मेरे भीतर है । उसमें प्रदान है की व्यवस्था प्रभावी नहीं । यह मैं अपने भाग की वस्तु बांट रही हूँ । इस पर तीनों नदी तक पर जा पहुंचे । तदंतर शौच स्नानादि से तीन व्रत हुए । तत्पश्चात जग्य में समय होने यज्ञशाला में जा पहुंचे । वनचर स्त्रियों और बच्चों की देखभाल और उनको आश्रम की गतिविधियां सिखाने के लिए विश्वपति नियुक्त हुआ था । प्रार्थना के हवन के समय विश्वपति उन्हें भी यज्ञशाला में ले आया । इस प्रकार हवन में सम्मिलित होने के लिए । अब इक्यावन व्यक्तियों के हाँ सत्तर से उन पर व्यक्ति हो गए थे । नित्य की भांति हवन हुआ । तदंतर पिता बहने प्रार्थना की पिता मैंने तीन ऋषियों और रोहिणी को आश्रम में नए आए प्राणियों के लिए शिक्षक नियुक्त किया और व्यवस्था दी । इन्हें वाणी प्रदान की जाए जिससे यह आश्रम का अंग बन सकें । साथ ही उनको आश्रम में कुछ कार्य सौंपा जाए । कार्य के लिए विश्वपति ही नियुक्त रहा । विश्वपति ने उन स्त्रियों को सबसे पहले अपने लिए कुटिया निर्माण करने के काम पर लगा दिया । उसी दिन वन से लकडियां एवं हरी कोमल लगाएँ लहराकर कुटियों करता हूँ आरंभ हो गया । ऍम प्रार्थना के उपरांत मरीची हत्यादि महर्षिगण नए नए मंत्रियों को पिताजी को सुनाते थे और उनके अर्थों के विषय में विचार करते थे । यमंत्रित्व है । प्रातःकाल के चिंतन के समय उनके मन में प्रस्फुटित हुआ करते थे । आज तू महर्षि वहाँ पहुंचे । दक्षिण प्रस्तुति और उनके साथ वनचर युक्ति वहाँ पहुंच गए । पिता महीने पूछ लिया, अच्छा किसको ले आए हो? उत्तर प्रस्ताव नहीं दिया । हम एक पृथक आश्रम बनाना चाहते हैं । कहाँ? यहाँ से कहीं दूर तो यहाँ के तेज और आपकी प्रतिष्ठा के कारण हम बंधन में अनुभव करते हैं । हम अपना जीवन स्वतंत्रतापूर्वक चलाना चाहते हैं, तब भी प्रजापति रूचि और कदम की भांति एकाकी जीवन व्यतीत करना चाहते हो । हाँ पता मैं हम इसमें अपना कल्याण समझते हैं । जैसे बरगद के वृक्ष के नीचे घास नहीं जमता, वैसे ही आपकी छत्रछाया में हम पाँच नहीं सकेंगे । पिता मैंने एक क्षण के लिए आंखें मूंदकर विचार क्या कह दिया? ठीक है फिर भी अपने आश्रम की रक्षा के लिए सतर्क और सजग रहना और आश्रम से संपर्क है । हम वेदवाणी को स्थायी और चल रूप दे रहे हैं । समय समय पर इस आश्रम में होगी तो यहाँ महर्षियों से प्राप्त की शरवानी का लाभ हो गई । सरस्वती ने आगे कहा, युवती को अपने साथ ले जाना चाहते हैं इसलिए मैं से अपनी सहचरी के रूप में रखना चाहती हूँ हूँ । हम क्या चाहते हो भगवान, मैं तो एक ही रात में जान गया हूँ की प्रस्तुति मत से अधिक सूझबूझ रखती है । इसने भावी आश्रम का ऐसा चित्र खींचा है कि मैं उसके मुँह में फस गया हूँ । देवी मेरी रंगेश्वरी बन गई है हूँ । कब जा रहे हो ऍम अभी सूर्यास्त होने से पूर्व हम अपने स्थान पर रात के बसेरे के लिए स्थान बना लेंगे । हमने स्थान का निर्वाचन कर लिया है । ऍम ये वही स्थान है जहां प्रस्तुति का जन्म हुआ था । गृहस्थान यहाँ से अधिक सुरक्षित प्रतीत हुआ है । साथ ही वहाँ प्रस्तुति की कुट्टी है । एक संवत्सर से उसकी देखभाल न होने के कारण उसको ठीक भी करना होगा । अच्छी बात है हम भी यहाँ से किसी को भेज हमारी तो लेते रहेंगे । भवन इस वनचर युवती का नामकरण कर दीजिए । मंगला पिता महीने बिना विचार किए कह दिया । उसके उपरांत तीनों ने पिता हैं कि चरणस्पर्श किए और कुटिया से निकला है । दक्ष चला गया तो मरीची ने कहा काम है दक्षिण इस वन चली को अपनी दूसरी पत्नी बनाने का विचार रखता है । ऐसे कहते हो कल स्वयं बस मैं ऐसे आपके पास लाने के लिए गौशाला नहीं गया तो मैं इस वनचारी को अपनी कुटिया में ले जा रहा था । उसने कहा था कि वह वन चली उसके साथ रहने की इच्छा कर रही है । अब इसमें प्रस्तुति को इसे अपनी सहचरी बनाने के लिए उद्यत कर लिया है । यह स्वाभाविक है । यहाँ स्त्रियों की संख्या पुरुषों से अधिक हो रही है । इनके बच्चों में भी कुछ करने आए हैं । समय पाकर वे भी किसी की भारतीय बनना चाहिए । यदि इनका विवाह नहीं किया जाएगा । वो पशुओं की भर्ती अनियमित संतान उत्पन्न करती थी, रहेंगे और ये हमारे आश्रम में रहने वालों के लिए भी प्रलोभन बन जाएगी । पता नहीं व्यवस्था है कि पुरुष एक से अधिक पत्नियां रख सकता है । परन्तु बताने यह भी व्यवस्था हो सकती है कि महिला एक से अधिक पति रखने हाँ, यदि पुरुषों की संख्या इस तरह से अधिक हो जाएगी तो वह व्यवस्था भी दी जा सकती है । तो मैं समझता हूँ कि है स्थिति उत्पन्न नहीं होगी । क्या काम है इस से तो बहुत झगडे और हत्याएं हो जाएगी । ऐसी स्थिति होगी तो पुरुष अधिक और इस तरह काम पुरुष अपने को इस प्रथा के अनुकूल कर लेंगे । फिर भी मैं समझता हूँ कि अब सुष्टि का विस्तार होने लगा है । कितने पुरुषों में भूमि संपत्ति ऍम वर्ग के लिए युद्ध होंगे जिनमें पुरुष स्वर्गारोहण करते रहेंगे । परिणाम ये होगा कि स्त्रियां सादा संख्या में पुरुषों से अधिक रहेंगी । इस कारण मेरी व्यवस्था ठीक ही है । मरीज चीज का उत्तर नहीं दे सका । वो देख रहा था की बीस स्त्रियाँ आकाश तब पडी हैं और आश्रम में पीस पुरुष इनसे विवाह करने वाले नहीं है इस कारण ये ठीक ही है । एक पुरुष एक से अधिक स्त्रियों से विभाग करें । पिता मैंने वेद विषय पर विचार आरंभ कर दिया । वह कहने लगे, ऋचाओं की संख्या बढती जाती है । अच्छा इन को स्थायी रूप देने के लिए इन कुछ चिंतित करने का उपाय ढूंढना होगा । मैंने इसके लिए एक ढंग विचार क्या है? हम जो कुछ बोलते हैं वह यदि यहाँ चित्रित कर दें तो कोई दूसरा कभी भी उसको देखकर वैसा ही बोल सकेगा । यह मैंने विचार क्या है? देखो महर्षिगण हमारी वाणी में वाक के होते हैं । वाक्यों में शब्द होते हैं और शब्दों में अक्सर होते हैं । अक्षर के उच्चारण था, उस वर्ग होती है तो मैं उदाहरण देता हूँ । एक बंद है दोनों ही विश्व तो मुखा रिश्ता भू रस्सी इस पद में शब्द है ही । विश्व तो क्या दी? इनमें अक्सर हैं तो वो तथा मैंने कई दिन के विचार के उपरांत नक्षत्रों और स्वरों की गणना की है । अनंत शब्दों में कुछ थोडे से ही स्वर्ग तथा अक्सर हैं जिनके सहयोग से हम उन शब्दों का उच्चारण करते हैं । मैंने उच्चारणों की संख्या गिनी है, ये हैं । इनमें से सुगम उच्चारण बयालीस हैं । मैंने इन उच्चारणों के दो भेद किए हैं । एक को स्वर कहता हूँ जैसे और ई ऍम लू ये दस हैं । फिर दूसरी प्रकार के उच्चारण भी हैं जिसमे इन स्वरों को रूप मिला है । जैसे ॅ ना चर्च छह मुझे इत्यादि ये कुल छब्बीस हैं । अब हमारे पास उपचारण हो गए हैं । इन की हम चिंता नहीं करते हैं और उन चिन्हों में हम अपनी वाणी को स्थिर, चिरायु और सर्वग्राही बना सकेंगे । महर्षि उन्होंने लेखन सामग्री का आविष्कार किया है । उन्होंने एक प्रकार की मासी और होली का निर्माण की है और भुज वृक्ष की छाल पर चित्र बनाने का आयोजन किया है । मैंने उन सब का लाभ उठाया है और उच्चारण लिखने का विचार क्या है? इस लिखने की पद्धति को मैंने लिपि का नाम दिया है । आज मैं आपको उस लिट्टी का ज्ञान देता हूँ । आप सीखें और फिर अपने चिंतन द्वारा प्राप्त वेदवाणी को लिपिबद्ध कर सकेंगे । इतना कह पिता मैंने एक भोज पत्र लिखा और ऋतु अपनी कुटिया से बनाई मासी और तू निकले आया । पिता नहीं ने भोजपत्र पर स्वर और व्यंजन लिखती है । छह वो ऋषियों ने उस लिपि की प्रतिलिपि बनाई और फिर काम हैं को दिखा स्वीकार करवा अपनी अपनी कुटी को जाने के लिए तैयार हुए । वे अपने अपने स्थान पर एकांत में बैठ लिपिका अभ्यास करना और तदंतर उस लिपि में वेदज्ञान को लिखना चाहते थे । महर्षि ऋतु ने बहुत सी तो लिखा बना रखी थी और सभी पात्रों में डाल एक एक तो लिखा सबको देकर लिखने का ढंग बता दिया । ये ऋषि ऋण पितान है कि इस अविष्कार पर अभ्यास करने के लिए उत्सुक थे । परंतु हुए जाने के लिए उठे ही थे कि विश्वपति कुटी के द्वार पर खडा हुआ और कहने लगा पता है प्रजापति रुचि के पत्र यज्ञ रूप दर्शनाथ आए हैं, आने दो एक अति तेजस्वी और सुंदर संतुलित शरीर वाला युवक भी तरह और भी काम है कि चरणस्पर्श कर हाथ जोड खडा हो गया । पिता मैंने देखा कि यह युवक अति तेजस्वी और बुद्ध शील है । उसे पिता है के सामने आसन पर बैठने को कहा और उसके पिता का समाचार पूछा । शिवक ने पूछा इन पिताओं का समाचार पूछ रहे हैं । मेरे जन्म दाता तो प्रजापति रूचि हैं परन्तु मेरे पालन करता भगवान व्यवस् वक्त हैं । मैं व्यवस्था जी के विषय में ही पूछता हूँ । जब मैं बालक था । एक दिन वे आए और पिताजी से कुछ निश्चय कर मुझे प्रयास हम ले आया । यहाँ उन्होंने मुझे वेदवाणी दी, उसका फल भी बहुत कराया । मेरा अभिप्राय है कि उन्होंने वेदवाणी का वास्तविक और आशा बताया । इस प्रकार में उनके पास बीस संभव सर्तक रहा । इस समय मेरी रूचि अपने जन्मदाता पिता के दर्शन करने की हुई । मैं भगवान व्यवस्थागत से स्वीकृति से प्रजापति जी के आश्रम पर पहुँच गया । वो वहाँ नहीं वहाँ अति सुन्दर युवती ने मेरा आथित्य किया और बताया प्रजापति वन पशुओं को मानवता का पांच पढाने जाया करते हैं । वह कहते हैं कि उनकी प्रजा वही है और वह अपनी प्रजा को मानवों का शाह बना देंगे । पहले वह उनको वेदवाणी सिखाते रहे । कई सम्वत्सर के उपग्रहण भी जब पशु वेदवाणी नहीं सीख सकें, वे अपनी ही चीज ही करते रहे । तो पिता ने उन पशुओं को भी वाणी सीखने का यह क्या? इस समय उनको विजिट हुआ कि भिन्न भिन्न जाति के जंतुओं की भिन्न भिन्न वाणी है । अच्छा उन्होंने लंगूरों की वाणी सीखने का यत्न किया । मैं कुछ कुछ सीख गए हैं और सब लंगूरों की एक कक्षा को वेदवाणी उनकी अपनी वाणी द्वारा सिखाने लगे हैं । भवन मैं उनकी इस योजना को सुनकर मुस्कराता रहा । अब इसमें हसी की क्या बात थी? पिता मैंने मुस्कुराते हुए पूछ लिया । मैंने व्यवस्थागत जी से सीखा था कि पशुओं की बुद्धि और उनका स्मृति क्षेत्र बहुत दुर्बल होता है और उनके इन दोनों यंत्रों में विकास नहीं हो सकता । युवती और मैं प्रजापति के लौटने की प्रतीक्षा करते रहे । बहुत मधुर भरी और ट्रकर बुद्धि की थी । उसने अग्नि पर अन्य धुनकर मुझे खिलाया, एक रक्षा के फल का रस पिलाया और स्वयं भी दिया । जब तक प्रजापति लौटे मैं और वह पति पत्नी बनकर इकट्ठे रहने योजना बना चुके थे । प्रस्ताव यूपी की ओर से ही था । उसने मुझसे पूछा आप कहाँ से आए हैं? मैंने बताया व्यवस्था लोग सिंह वहाँ कितने प्राणी रहते हैं । उसने पूछा हूँ । मैंने कहा मैं था और मेरे माता पिता थे परन्तु यहाँ का वन तो प्राणियों से भरा पडा है । महज पडते हैं । बस कर मैंने बताया ये सजती है नहीं है । वन पशु तो वहाँ भी बहुत थे । हमारी संख्या बढ नहीं रही हैं और वे वन पशु तीव्र गति से बढ रहे हैं । मैंने उसे समझाया कि पशुओं में नर और नारी के सहयोग से वृद्धि होती है । यह हमारी जाति में भी उत्पन्न हो सकती है । मैं किसी नारी की खोज में होगा । मिल जाने पर मैं भी संस्थान पकती कर सकूंगा ते आपको कहाँ मिल सकेगी? तुम मिल गई हो परंतु तुम्हारे माता पिता से पूछना होगा तो क्या मैं संतान उत्पन्न कर सकूँ? सत्य तो मैं आपसे संतान उत्पन्न करूँ । पिताजी आले उनसे पूछ लूँ, विश्व कार कर लेंगे । प्रजापति आए । माता जी भी उनके साथ थी । मैंने उनको बताया कि मैं वैवस्वत लोग से आया हूँ । भगवान व्यवस्था आपने मुझे बताया है कि मेरे जन्म दाता यहाँ रहते हैं । अगर हम हैं आपके दर्शन करने चला आया हम जग्य रूप हो आप तो कुछ दिन यहां को ये तुम्हारी माता होती हैं । मैंने समीर बैठी लडकी की और संकेत कर पूछा यह कौन है तो तुमने से पहचाना नहीं । जी नहीं पैसे है, अति सुंदर है । हम प्रिय प्रतीत होती है । यह तुम्हारी बहन है । महम । मैं तो इसके साथ रहने और सुष्टि निर्माण का विचार कर रहा था । इसपर प्रजापति बोलेंगे ये कैसे हो सकता है? भाई और बहन संतान पर नहीं रह सकते हैं । क्यों ऐसा विधान है? इसने बनाया है विधान मैं बता नहीं सकती । कुछ विचार कर बोले यह बात मैं और इसकी माता पसंद नहीं करेंगी । इस पर लडकी ने आग्रहपूर्वक कहा मैं इनके साथ जाऊंगी । दक्षिण मेरा अभिप्राय है उस युवती से उसकी माता ने कह दिया । इस विषय में पिता में से व्यवस्था ले सकते हैं । हमारे कोई संतान नहीं । इनके द्वारा ही हमारा परिवार चलेगा । मैं उनके पास एक पक्ष भर रहा हूँ । दक्षिण अपनी माँ से आग्रह करती रही है । विमर्श पिताजी तथा माताजी ने मुझे आपके पास भेजा है । आपने इस विषय में व्यवस्था लूँ । पिताजी कहते थे कि पांच संभव सर पूर्व माता जी के साथ यहाँ आए थे और आप स्वस्थ है तथा सबल थे और भी समझते हैं कि आप अभी भी वैसे ही स्वस्थ तथा सफल होंगे । पिता में है कि समूह की एक नई समस्या थी । उसने यज्ञ रूप को कहा तो अभी यहाँ हो । मैं तुम्हारी समस्या पर विचार करके ही निर्णय ले सकता हूँ । इसमें कुछ दिन लग सकते हैं । जंग रूप का उत्तरी है । पिता में है कि आसाराम वालों के उत्तरी से भिन्न प्रकार का था । मैं किसी जंतु का चरम नहीं था । फौरन किसी वृक्ष की छाल से बना था । मैं उत्तर यह है दोनों और से खुले एक पहले की भांति था और सिर की ओर से पहना जाता था और जब बाहों के नीचे बंगलो तक आ जाता तो बांध दिया जाता था । एक उसी पदार्थ की दूरी थी जिसका वह उत्तरीय बना हुआ था । मैं उत्तरीय के ऊपर के भाग से किसी वस्तु से जुडी हुई थी । नीचे रहे जैसा घुटनों तक आ जाता था । जब पता नहीं ऐसे बात समाप्त हो गई तो पिता रहने विश्वपति को कहा । जज रूप को दक्ष जी की कुटी में ठहरा दो विश्वपति जग्य रूप को अपने साथ लेकर बाहर निकल गया । उसके जाने के उपरांत ऋषिगण प्रताम है का मुख देखने लगे । वो भी समस्या को समझ रहे थे । सबसे पहले अंगीरा ने कहा बहन भाई के संबंध से संतान की बुद्धि विकृत होगी । शरीर दुर्बल होगा और मानव जाति इतिहास को प्राप्त होगी । वो तो होगा ही । तुम बताओ हमारी चीज हम संयुक्त फॅमिली हूँ । मैं विवाह को और उसके व्यवहार को मुख्य धर्मों में नहीं मानता हूँ । क्या अभिप्राय है सैनिक विस्तार से हो? धर्म करणीय कर्म को कहते हैं । मुख्य धर्म हुए हैं तो प्रत्येक अवस्था नहीं तथा सबसे पालन करने के योग्य होगा । कुछ करनी करवा ऐसे भी हैं जिनका पालन करना अनिवार्य नहीं । यदि परिस्थितियां प्रतिकूल हूँ तो उनका पालन छोडा भी जा सकता है । वहाँ रुचि के आश्रम में अन्य कोई युवक न होने की अवस्था नहीं, बहन भाई का विवाह वर्जित नहीं होना चाहिए । मार्शिया से बोले इस युक्ति में दोष है । पिता में यह व्यवस्था दे चुके हैं । एक पुरुष एक से अधिक पत्नियां रख सकता है अच्छा हमारे आश्रम में कई पुरुष अविवाहित है । उनमें से किसी के साथ दक्षिण का हो सकता है अथवा दक्षप्रजापति के साथ उसका विभाग किया जा सकता है । मैं समझता हूँ कि वह मान जाएगा । इसी प्रकार यज्ञ रूप के लिए अब इन मनचलों में से कोई पत्नी दी जा सकती है । महर्षि मरीचि की धर्म के विषय में युक्ति मान भी ली जाए । अभी विभाग धर्म के उल्लंघन की आवश्यकता नहीं है । यहाँ तक समाज निर्माण का संबंध है । केवल जलवृष्टि आवश्यक नहीं, वन स्वस्थ, सबल युक्त और दीर्घायु जान उत्पन्न करना अधिक आवश्यक है । पिता महीने व्यवस्था देते हुए कहा बहन भाई का व्यवहार उचित नहीं । मैं समाज के लिए हितकर भी नहीं । केवल एक ही अवस्था में ये है शाम में है जबकि जीवन साथ ही बहन भाई की अतिरिक्त मिलता हो । परिवार की परंपरा चलाने के लिए इसकी अनिवार्यता हो सकती है परन्तु अन्य किसी कारण से नहीं । महर्षि पुराने इस व्यवस्था के विषय में ही प्रश्न कर दिया । पूछा अन्य किसी कारण से क्या अगर पढाया है उसकी व्याख्या होनी चाहिए? भाषे पिता मैंने कह दिया अन्य किसी में कोई एक आद बात हो तो उसका वर्णन हो सकता है । मेरा अभिप्राय है कि संसार में वर्तमान तथा भविष्य में कोई भी कारण हो सकता है । केवल मात्र परिवार की परंपरा चलाने के लिए ही इस नियम को भंग किया जा सकता है । अन्य कारणों में एक अति प्रबल कारण जो इस नई परिस्थितियों में बन रहा प्रतीत होता है नहीं वहाँ से और शारीरिक आकर्षण । ये वही बात है जो दक्षिण और मंगला के संबंध में हुई है । मंगला वासना, विभूत अथवा चार एक संदर्भ के आकर्षण से प्रभावित अपने संगी साथियों को छोडकर पक्ष के साथ चलती है । मैं कल ही बात समझ गया था जब दक्षिणी चतुराई से वनचर योद्धा को पराजित किया था और मंगला ने अपने साथियों की और देखता था । समझ गया था कि दक्ष की चतुराई ने इस लडकी के मस्तिष्क में दक्षिण के लिए आकर्षण उत्पन्न कर दिया है । यह भी बहन भाई के परस्पर विवाह का कारण नहीं हो सकता । मैं समझता हूँ कि वर्तमान परिस्थिति में इस समय कई अविवाहित कन्यायें वहाँ हैं जो यज्ञ रूप के लिए उपयुक्त पत्नी हो सकती हैं । इसी प्रकार दक्षिण यदि इस आश्रम में आ जाये तो उसका भी विवाह किया जा सकता है । प्रजापति रूचि का परिवार दोनों पक्षों में चल सकेगा । विश्वपति ने अगले दिन यज्ञ रूप को वन चरों की कई लडकियाँ दिखाई परन्तु से कोई पसंद नहीं आई । सबसे बडी बात थी वन चरों कि वाणिज्य, अनभिज्ञता और स्मृति ऍम बुद्धि में निम्नस्तर का होना । उसे कोई भी वनचर कन्या दक्षिण की तुलना में ऊंची नहीं । न तो रंग रूप ने और न ही मानसिक विकास में । कई दिन के आश्रम में आथित्य के उपरांत पिता मैंने यज्ञ रूप को बैठाकर अपनी व्यवस्था बता दी । जब ग्रुप ऐसी आशा नहीं करता था उसने इतिहास संबंधित मुक्ति दे दी थी । उसने कहा पे काम है सब अमैथुनी य प्राणी क्या बहन भाई नहीं है आपने? आदित्य के तेज द्वारा शत्रुपा प्रकृति के गर्भ से उत्पन्न युवक युवतियों का विभाग क्या है? एक ही माता पिता से उत्पन्न मेरे माता पिता भी हैं । अभी अभी आपके आश्रम में दक्ष और प्रस्तुति का विवाह हुआ है । मेरे विषय में ही ये बाधा क्यों है? मैंने कहा अमैथुनी सृष्टि में माता प्रकृति शतरूपा है । मैं एक होते हुए भी अनेक रूपों में कार्य करती है परंतु मैथुनी सृष्टि में तो पत्नी की तुलना प्रकृति से नहीं की जा सकती है । स्त्री एक प्रयोजन के लिए निर्माण की गई है और ये है उस कार्य को केवल एक की पत्नी बनकर ही पूर्ण कर सकती है । रही बात दक्षिण की उसका मंगला के साथ सहयोग से पहले प्रस्तुति का जहाँ हो चुका था । मंगला विपरीत यौन आकर्षण में दक्षिण के साथ चली गई है और हमने उसको मना नहीं किया । कारण ये कि वह बहन भाई नहीं चाहती । वर्तमान परिस्थिति ने अधिक ज्ञानवान, बुद्धिमान और बलवान संतान उत्पन्न करने के लिए बहुपत्नी विवाहों की स्वीकृति देनी पडी है अन्यथा संसार निर्मितियों और हीन प्राणियों से भर जाएगा । यहीन प्राणी केवल संख्या के बल पर श्रेष्ठ विद्वान और उन्नत मनुष्यों को अपना दास बना लेंगे । पिता में है मेरा भावी संतान और उसमें होने वाले संघर्ष से कोई संबंध नहीं । मैं अपने को संसार के कल्याण के लिए नियुक्त या प्राणी नहीं मानता । मेरा तो केवल मात्र है । आग्रह हैं कि मैं दक्षिण से मैं वहाँ करना चाहता हूँ । मैं उसे व्यवहार करने का वचन दिया है । इसको मैं पर्याप्त कारण मानता हूँ । तुम उसे अपनी भार्या बना सकते हो परन्तु मैं इसकी अनुमति देकर समाज में अव्यवस्था का बीजारोपण नहीं कर सकता हूँ । नहीं कोई गंगेरू । मैं आने वाले मनुष्य समाज में कठिनाई का स्पष्ट दर्शन कर रहा हूँ । दो प्रकार की सुस्ती का बीजारोपण हो रहा है । एक देवी सुभाव युक्त और दूसरी मसूरी सुधार युक्त । देवी स्वभाव के लोग समाज के हित को अपनी शारीरिक सुख सुविधा से ऊपर समझेंगे, यज्ञमय होंगे, दूसरी सृष्टि होगी जिसको आपने शारीरिक सुख और लोगों से परे कुछ दिखाई ही नहीं देता । वे आंसू सुभाव वाले माने जाएंगे । वे लोग अपनी अपार सुष्टि करेंगे और अपनी जनसंख्या के बल पर परिश्रमी मृत्यु हुई और शांतिप्रिय मानवों को रास्ता में बांध कर अपना सर्वार्थ सिद्ध करेंगे । मैं ऐसी व्यवस्था देना चाहता हूँ जिससे मनुष्य समाज में देवी स्वभाव वालों का सिर ऊंचा रह सके । अजय जहाँ यह आवश्यक है कि भले लोगों की संतान संख्या में काम ना हो, वहाँ भी आवश्यक है उसमें दीन हीन बालक उत्पन्न ना हो । इन सब बातों का विचार कर मैं किसी परिणाम पर पहुंचा हूँ की बहन भाई से संबंध वर्जित कर दूँ । यद्यपि शारीरिक सुखों की प्रेरणा प्रबल होगी और यज्ञ में होने में किसी प्रकार का रस दिखाई नहीं देगा परन्तु अंतिम ऍम स्थाई कल्याण यज्ञमय जीवन व्यतीत करने से ही होगा । पिता में मैंने वन पशु उत्पन्न होते देखे हैं । शरीर से ही शरीर बनता है । उम्र से लग उत्पन्न होते हैं दस से शश ब्लूमर से लू मार और बिहार से बिला कैसे सिद्ध नहीं होता कि शरीर ही मुख्य और इसी की चिंता करनी युक्तियुक्त है । शरीर अपना अपना है । अतः स्वार्थ इस संसार का केंद्र बिंदु है । स्वार्थ की सिद्धि के अर्थी यदि किसी दूसरे का कल्याण हो जाए तो ठीक है यह फिर भी मनुष्य के लिए लक्ष्य स्वहित ही होगा और होना भी चाहिए । संपूर्ण जगत को सिर के बल खडे होकर देख रहे हो । यही कारण है कि जिसको मैं एक ढंग से देखता हूँ तो मुझे सर्वथा विपरीत दिशा में देखते हो । मैं वो देखता हूँ कि मनुष्य का लक्ष्य परहित होना चाहिए और इस पर हित में यदि कुछ अपना भी कल्याण हो जाए तो ठीक है, परंतु किसी दूसरे के अधिकार को छीनने से तुम अपने को इधर जीव जंतुओं के समान बना लोगे तब उनकी ही बढाती तुम बंधनों में बंद कर दुख और कलेश के भागी बन जा हो गई । परन्तु पितान हैं ये वन पशु क्या दुख और कलेश का जीवन व्यतीत कर रहे हैं? मैं समझता हूँ कि वे हमसे अधिक सुखी है । यह गिरोह क्या तुम ये पसंद करोगे कि श्वान की भांति जब शर्दी लगे तो अपने को सर्दी से बचाने का उपाय भी ढूंढ सको । अपनी रक्षा का उपाय भी ना कर सको । क्या तुम उसका मूत्र की भांति बनना चाहोगे, जो भाय समूह का आने पर आंखें मूंद ये समझ लेता है कि बेला है ही नहीं, यह इधर जीव जंतुओं की असमर्थता है । मनुष्य की सृष्टि हुए इस पृथ्वी पर चालीस पचास वर्ष से अधिक नहीं हुए और इन पशुओं को यहाँ प्रकट हुए आधे मन्वंतर से अधिक काल व्यतीत हो चुका है । इस लम्बे काल में भी ये वन पशु है, सीख नहीं सके । सर्दी, गर्मी तथा धूपछांव से बचने के लिए आवास कैसे बनाएं? प्रलय काल तक भी पशु पशु ही रहेंगे और मनुष्य मनुष्य यज्ञ रूप हस पडा बोला दक्षिण के प्रताप प्रजापति रूचि पिछले दस वर्ष से वन पशुओं को मनुष्य बनाने का ये अपना कर रहे हैं । मैं तो एक बार समझा हूँ कि पशु तो मनुष्य बनेंगे नहीं, हम तो पिताजी एक सीमा तक पशु बन गए हैं । इसी कारण मैं कहता हूँ आपके परमात्मा ने हमें मनुष्य बनाया है और हमें अपना मनुष्यत्व स्थिर रखने के लिए अपनी बुद्धि को उन्नत रखना चाहिए । यह ही विशेष वस्तु है जो मनुष्य को पशुओं से अधिक मिली है परन्तु पे काम है । मैं बुड्ढी से ही विचार करके यह कर रहा हूँ कि मैं दक्षिण से विवाह करूंगा । दक्षिण की माताजी ने कहा है कि वह वेद को इतना जान नहीं सकी जितना कि आप जानते हैं । इस कारण उन्होंने मुझे आपसे व्यवस्था लेने के लिए भेजा है । यदि संसार में अन्य लडकियाँ उपस् थित न होती तो मैं इस विभाग के पक्ष में व्यवस्था न देता । इसी प्रकार यदि दक्षिण से विवाह करने के लिए कोई अन्य पुरुष ना होता तो मैं उन दोनों को सृष्टि रखने की भी स्वीकृति दे देता हूँ । आहुती और प्रजापति रुचि में भी विवाद चल रहा था । जब से आहुति ने यज्ञ रूप को पिता मै के पास भेजा था, सब से ही मतभेद प्रकट हुआ था कि उसके दोनों बच्चे परस्पर विभाग करें अथवा न करें । प्रजापति इस विभाग के पक्ष में था । रहे जीवन से उचाट हो चुका था । उसने अपनी पूर्ण सूझबूझ और योग्यता वन में रहने वाले पशुओं को मानवीय आचार विचार सिखाने में लगा दी थी । पिछले ग्यारह वर्ष से वैसी कार्य में लगा हुआ था और इतने लम्बे प्रयास के उपरांत भी वह सर्वथा असफल हुआ था । इससे हुए हैं । जीवन से ही निराश हो गया था । इस कारण दक्षिण का व्यवहार कर और उसकी माता आहुति को उसके पास छोड भगवत भजन में लग जाना चाहता था । मैं समझने लगा था कि संसार को ज्ञान देना निरर्थक कार्य है । जो जितनी बुद्धि लेकर संसार में आता है, मरन पर्यंत उतरी बुद्धि का स्वामी रहता है । उसकी बुद्धि में वृद्धि नहीं हो सकती । ये अनुमान प्रजापति का पशुओं को मनुष्य बनाने के प्रयत्न से बना था । आहुती बहन भाई के विवाह को पसंद नहीं करती थी । इसी कारण उसने जग्य रूप को सम्मति के निमित्त पिता नहीं के पास भेज दिया था । मैं समझती थी कि पिता में है समस्या पर किसी प्रकार का सुझाव उपस् थित कर सकेंगे । जहाँ तक दक्षिण के रिहा का संबंध था, उस विषय में भी वह पिता में से सहायता लेना चाहती थी । उसको स्मरण था की वह मानव सृष्टि में वृद्धि के लिए बहुत उत्सुक थे । उसके विवाह के समय भी पिता महीने प्रजापति रूचि को धूम निकाला था । यज्ञ रूप के पिता नहीं के आश्रम को प्रस्थान करने के उपरांत प्रजापति अपने कार्य से वन को जाने लगा तो नित्य की भांति आहुति भी उसके साथ चल पडी । पिछले एक वर्ष से वह अपने पति के साथ जा रही थी । वन में एक स्थान पर पहुंच प्रजापति ने अपने वहाँ पहुंचने का घोष क्या वह उच्च स्वर में वो हाँ ऐसा घोष तीन बार क्या करता था? एक प्रकार की विद्यालय खुलने की घंटी थी । इस घोष को सुन वन के चालीस पचास लंगूर पेडों से लड सकते हैं । उन पर छलांगे लगाते हुए आए और उनके चारों और एक चित्त हो गए । प्रजापति उनके एकत्रित हो जाने पर रक्षा कि नीचे की ओर झुकी डाल पर बैठ गया । उसके उपरांत लंगूर एक एक कर प्रजापति के पास आते हैं और उनके चरणस्पर्श करते तो प्रजापति अपने झोले में से एक एक फल जो अमरूद की प्रकार का था, निकाल उनको खाने को देता था । इस प्रकार सब के चरण स्पर्श कर प्रसाद पर जाने के उपरांत सब भूमि पर बैठ जाते हैं और प्रजापति गान करने लगे । गान केवल तीन स्वर्ण और एक व्यंजन का होता था । उस दिन भी प्रजापति ने उच्चारण आरंभ किया । आप सब लंगूर उसके उपरांत बोले, आप अब उसने दूसरा स्वरूप चारण क्या? यह भी सबने एक स्वर से गाया । तत्पश्चात इन दोनों स्वरों का सहयोग कराया । वो क्या उच्चारण भी लंगूरों ने गाया । प्रजापति का स्वर्ण अति मधुर और प्रभावित उसके विपरीत पचास लंगूरों का स्वर्ण उसके अकेले से धीमा और असरहीन था । परंतु जो ही प्रजापति ने व्यंजन माँ माँ का उच्चारण किया तो सब मुख देखते रह गए और चारण नहीं कर सके । माँ का उच्चारण पिछले एक वर्ष से उनको सिखा रहा था परंतु वे बेचारे इसका उच्चारण कर ही नहीं सकते थे । अब कई बार कहलाने का यत्न कर एक एक को बुलाकर अपने पास खडा कर उसने पुनः माँ का उच्चारण सिखाने का यत्न किया पचास में से दो ही यह उच्चारण कर सके । उनको प्रजापति ने पुनः फल खाने को दिया और उनकी पीठ पर बिहार दिया । तत्पश्चात है उनको खेलकूद कराने लडा एक घंटा भर खेलकूद कराकर उन्हें वाणी का पाठ पढाया और फिर एक बार फल बांटकर वह अपने आश्रम को लौट पडे होती ने कहा अब आप इस खेल को बंद करेंगे । एक वर्ष के लगभग मुझे आपके साथ आते हो चुका है । एक रीजन तू कुछ भी नई बात नहीं सीख सका था । अपनी बगिया के स्वादिष्ट फल पाने के लोग में ये आते हैं और कुछ खेल कूद कर चले जाते हैं या खेलना को ना उनके स्वभाव में है । बृहस्पति चुप रहा होती ने उनक आ रहे हैं । एक बात और है । इन सीखने वालों की संतान में भी कई एक वर्ष के हो गए हैं और वे अपने सुशिक्षित माँ के पेट से कुछ भी अधिक सीखकर नहीं आएँ । प्रजापति बोला यह तो मैं भी देख रहा हूँ । जब तो भारी संतान पैदा हुई थी तब है । इनके बच्चों से भी कम जानती थी जब ग्रुप और दक्षिण को चलने फिरने के लिए भी परिश्रम से सीखना पडा था । पर एक वर्ष के हो जाने के उपरांत दोनों बच्चे द्रुत गति से उन्नति करने लगे थे । जब ग्रुप अपने नाना के घर जाने से पूर्व वेदमंत्र कंठस्थ कर स्वर्ण रहित उच्चारण करता था और दक्षिण अब मुझसे और तुम से भी विचार युक्त बातें करती है । मैं वही तो कह रही हूँ कि वे वनचर कुछ नहीं सीखेंगे । मेरा पिछले दस साल का प्रयास विफल रहा है परन्तु देवी मैं दिन भर क्या क्या करूँ यही समझ में नहीं आ रहा हूँ । मैंने समझाया कि जैसे मेरी संतान वन पशुओं से हीन होने पर भी बहुत कुछ सीख गई है । इसी प्रकार वे भी कुछ सीख जाएंगे, परंतु नहीं है ना? परन्तु तुमने कोई अन्य संतान भी तो नहीं की मैं कई बार कह चुकी हूँ पिता नहीं कि आश्रम को लौट चलें । पांच । संभव सर पूर्व हम गए थे परन्तु वहाँ के एकरस जीवन को देख मैं ऊब गया था और यहां चला आया था और यहाँ क्या रस आ रहा है जीवन में उस समय तो मैं आशा से भरा हुआ था और इस कार्य में रस भी अनुभव कर रहा था । मैं आशा विफल गई है और रसयुक्त होने की अपेक्षा अब व्यर्थ का बोझा प्रतीत होने लगा है । मैं से पहले से ही जानती थी और तो आप मानते नहीं थे । यदि तुमने कुछ समताना और पंद्रह की होती है, मेरा तो लगा रहता रहे तो हुई नहीं । जब तो आपने बहुत क्या है, मैं भी सब विफल गया है । इसी कारण मैं कहता हूँ कि दक्षिण और यज्ञ रूप का विवाह कर दें तो हमारे लिए भी काम बन जाएगा । बंद तो पिता है की व्यवस्था है की बहन भाई का व्यवहार नहीं हो सकता हूँ । मैं समझता हूँ कि वह यह ग्रुप का विवाह दक्षिण से स्वीकार कर लेगा तो हारे विभाग के पूर्व उसने मुझसे पूछा था कि क्या मैं तुमसे संतान उत्पन्न करूंगा? मेरे पूछने पर उन्होंने मुझे गौशाला में पशुओं को संतान उत्पन्न करते देखने के लिए कहा था । मेरी इसमें इच्छा हो गई तो मेरा तुमसे यहाँ कर दिया गया । पिता मैंने मुझे सृष्टि रचने की महिमा का ज्ञान करा दिया और कहा कि मानव सृष्टि रचना उन्नीस करम है । फिर भी वह स्वयं तुमसे संतान उत्पन्न नहीं कर सका । उन का मेरे प्रति पुत्री का स्वभाव था । जैसे आपका दक्षिण में है व्ययभाव सब व्यस्त है । होती मौन हो गई । मैं समझ रही थी कि उसके पति का स्वभाव अपने जीवन कार्य में असफलता के कारण चिडचिडा हो गया है । चुप देख प्रजापति ने कहा तुमने व्यर्थ नहीं यज्ञ रूप को इतनी दूर वनों में भटकने के लिए भेज दिया है । मैं आशा कर रही हूँ कि यज्ञ रूप यहाँ से किसी सुंदर प्रशिक्षक लडकी से विवाह करके लौटेगा । इस प्रकार पति पत्नी में विवाद चलता रहता था । दक्षिण अभी माँ से खुश थी । मैं समझती थी कि उसको एक साथ ही मिला था परन्तु माने उसे व्यस्त में दूर भेज दिया है । भला जब ये यज्ञ रूप के साथ रहना चाहती है तो उसे क्यों पसंद नहीं । वे दोनों यही स्कूटी में रह सकते थे । एक दिन आहुति और प्रजापति वन भ्रमण सिलवटे दक्षिण कोटे में नहीं थी । दोनों चिंतित हो गए । आहुति दक्षिण को ढूंढने चल पडी । उसने देखा कि वह नदी तट के समीप एक्सपार्ट पत्थर पर बैठे हो रही थी । बस यहाँ उसके समीप जा खडी हुई और दक्षिण ने मुख् दूसरी और मोड नदी से जल लेकर धोना आरंभ कर दिया । क्या कर रही हो माने पूछता हूँ पीडा हो रही है वहाँ दक्षिण ने बिना बोले सिर को हाथ लगा दिया । चलो जन्मकुंडली में मैं तुम्हारा सिर दबा होंगी । ऍसे नहीं मिलेगी तो कैसे मिलेगी? यह के रूप से विवाह करके बहुत ही मुख् देखती रह गई । फिर कुछ विचार कर बोली पिता में उसका विभाग तुमसे पसंद नहीं करेंगे तो ना करें । मैं उनसे पूछे बिना चढा कर लूंगी । मैं तो तुमसे भी पूछने की आवश्यकता नहीं समझती है परन्तु यज्ञ रूप माने नहीं और बोले हमें अपने बडों का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए । उससे अच्छी शिक्षा मिली है । मैं उससे प्रसन्न हूँ । बात हमें विभाग करने पर आशीर्वाद देंगी । माँ ने लडकी को रोते देखा और उसके मन में उसके प्रति दया उमर पडी । दोनों उठा अपनी खुटी की और चल पडीं । माँ ने लडकी के कंधे पर हाथ रखा तो लडकी ने दयनीय दृष्टि से हम माह की और देखा । माने खडे हो उस की अभी भी हडबडाई आंखों में देखते हुए और उसके गालों को तब तब आते हुए हैं दक्षिण भारी पीडा मिट जायेगी । लौटने दो लडकी हर्षोल्लास इत हो माँ के गले में दोनों बहेडा उनसे लिपट गई । माने उसे पीठ पर बिहार देते हुए कहा अब मतलब वो अब उसके लौटने की प्रतीक्षा करनी चाहिए । फिर भी माँ मन ही मन या अच्छा कर रही थी कि यज्ञ रूप किसी लडकी को विभाग कर साथ ही लौटे । इस प्रकार प्रतीक्षा होने लगी । अगले दिन प्रजापति लंगूरों को शिक्षा देने नहीं गया । उसे अधिक इसमें हुआ कि कोई भी उसे ढूंढता हुआ उसकी खुटी पर नहीं आया । दिन पर दिन व्यतीत होने लगे और उसके वन शिष्य उसे ऐसे भूल गए मानो उनका उन से कोई संबंध ही नहीं । लगभग एक मार्च व्यतीत हो चुका था और यह ग्रुप लौटा नहीं था । तीनो प्राणियों को चिंता होने लगी थी । कहीं कोई दुर्घटना हो गई हो, यही तीनों के मन में था । एक दिन प्रजापति ने अपनी पत्नी से कहा मैं देखना चाहता हूँ मेरे शिष्य कैसे हैं और उनको मेरा पढाया पार्ट्स करन है अथवा नहीं? क्या लाभ होगा? दैनिक देखना चाहता हूँ, बहुत ही समझी की उसके पति को उन जंतु से कुछ हो गया है । मैं बोली चलिए मैं भी साथ चलती हूँ । उन्होंने अपनी बढिया में से फल तोडे और आपने छोले में डाले और उसी स्थान को चल पडे जहाँ उसकी लंगूरों की पाठशाला लगा करती थी । आज वहाँ पहुंच प्रजापति ने अपने वहाँ पहुंचने का घोष पूर्व वक्त किया । उसने ओ हाँ का खोश कई बार क्या तुरंत उसके विस्मय का ठिकाना नहीं रहा, जब वहाँ कोई नहीं आया । वहाँ लंगूर थे, सुरक्षों पर कुछ भी कर रहे थे, परंतु वे उसके शब्द को सर्वथा विस्मरण कर चुके प्रतीत होते थे । एक लंगूर प्रजापति को बार बार घोष करते सुन एक वृक्ष की डाल से लटकता हुआ उनकी और विश्व में से देखने लगा । ऐसा प्रतीत होता था कि वह किसी बहुत दूर अथवा देर की घटी बात को स्वर्ण कर रहा है । वह डाली से खुद कूद भूमि पर आ गया और धीरे धीरे भयभीत साहब प्रजापति की और जाने लगा । प्रजापति ने पुनः ओ हाँ का घोष क्या तो वह प्रजापति के सामने आकर बैठ गया और विस्मय में इन दोनों की और देखने लगा । इसपर प्रजापति ने अपने झोले में से एक फल निकाल कर उसको दिखाया । मैं कुछ और आगे बढा और जब मैं दो पक्के अंतर पर रह गया तो एक है एक लाख का और फल को प्रजापति के हाथ से छीन कर भाग गया और उन्हें लपक कर रक्ष पर जा बैठा । वो फल को खाता रहा और इन पति पत्नी की और देखता रहा । प्रजापति विचार करने लगा । फल खाने से उसे कुछ स्मरण हो जाएगा । एक बार उसकी आंखों में एक चमक सी दिखाई दी । प्रजापति ने समझा कि उसे स्मरण आ रहा है परन्तु अगले ही क्षण में है । लगभग कर दूसरी और फिर तीसरी डाल से होता हुआ दूर चला गया । प्रजापति अपने पूर्ण प्रयास को विफल होता देख शोक ग्रस्त अपनी कुटिया की और लौट बढा होती उसके साथ थी । अब क्या करियेगा? बहुत ही ने पूछ लिया कुछ समझ में नहीं आ रहा है मेरा का हवानी अमाजी पिता है कि आसाराम कुचल देते हैं परंतु जब केरूप तो वहाँ से लौटा नहीं पर वहाँ किसी लडकी से विवाह का रह गया है । हम उसे वहाँ मिलेंगे । अच्छा सुंदर, ओजस्वी युवक है । नहीं बात मानी । कल प्रातःकाल यहाँ से चल देते हैं और दो दिन में हम वहाँ पहुंच जाएंगे और यदि जगगुरु वहाँ से इधर की और चल पडा तो वो तो मार्ग में मिल जाएगा । हम उसी मार्ग से चलेंगे । कुमार हमने उसको बताया था परन्तु यहाँ कुटीर में हमने कई सुख सुविधा के साधन बना लिए हैं । यहाँ उससे बनाने का भी तो प्रबंध किया है । हाँ, परन्तु क्या जाने पितान है कि आश्रम में इससे कहीं अधिक वस्तुओं का अविष्कार हो चुका हूँ । नहीं हुआ हो तो हम उनको इन सब वस्तुओं के बनाने का ठंड बताएंगे । मैं समझती हूँ कि वहाँ के वासी इन वन जंतुओं से अधिक सरलता से सीख सकेंगे । निराश और उदासीन प्रजापति पत्नी की बात को मान गया । उसने कहा अच्छा चल चल देंगे । इस प्रकार की योजनाओं को बनाते हुए वे अपनी कुटिया में पहुंचे । कुटिया का द्वार खुला था । वह सैदेव के विपरीत था । आहुती ने कोटिया में झांककर देखा तो वहाँ का सामान अस्त व्यस्त हो रहा था । एक श्वान भीतर खडा खाने के पदार्थों को चाह रहा था । बहुत ही निस्वान को हराया और विचार करने लगी । दक्षिण ऐसे खुला क्यों छोड गई है? गुडिया के दो बात थे दोनों भागों के बीच पर दावा था, बहुत ही ने उस भाग में झांक कर देखा तो भी खाली था । एक बात उसे और पता चली है । दक्षिण ने अपने पहनने के लिए एक नवीन उत्तरीय बनाया था । वह कुटिया की दीवार पर खून पी से लटका रहता था । वहाँ नहीं था चिन्ताग्रस्त आहुति भागी हुई नदी तट पर गई । दक्षिण अपना बहुत सारे समय वहाँ व्यतीत किया करती थी । आज मैं वहाँ भी नहीं मिली । ताऊ जी ने लौटकर पति को बताया नहीं मिली । मैं समझता हूँ कि जब ग्रुप आया है और उसको अपने साथ अपने पालक के आश्रम में ले गया है, ऐसे कहते हैं ये देखो उसने भूमि के और संकेत क्या? आहुती ने ध्यान से भूमि की और देखा । उसे किसी स्त्री के पदचिन्हों के साथ साथ बडे बडे पुरुष के पश्चिम न दिखाई दिए । पुरूष यहाँ आया प्रतीत होता है नहीं, आपके पश्चिम तो नहीं । पति ने पुनः उन चिन्हों की और देखा । उसने अपने भावों को भी देखा तो अंतर कहा मेरी पगचिह्नों से ये बडे प्रतीत होते हैं । मैं उठा और उन पदचिन्हों के समीप भूमि पर अपने पांव का चिन्ह बना । पत्नी को बताने लगा ये पश्चिम ना मेरे पच्चीस से बडे हैं । यह तो स्पष्ट है कि कोई पुरूष यहाँ आया है, नंबर है, यज्ञ रूप ही हूँ परन्तु चले किधर गए हैं । मैंने तो उसका उस से विभाग कर देने की बात स्वीकार कर ली थी । ऐसा प्रतीत होता है कि उसे तुम्हारे कथन का विश्वास नहीं हुआ और वह यह ग्रुप के साथ भाग गई है । संभावना को सुनकर भी आहुति की चिंता नहीं मिलते । प्राप्ति के संभव भूमि पर ही बैठ गई । प्रजापति ने कुछ विचार करता था । इसमें भी वही कुछ किया है जो मेरे शिष्य वन जंतुओं ने किया है । दोनों में क्या समानता देखी है आपने यही की अवसर मिलते ही इतने वर्ष के सहयोग को विस्मरण कर नई बात के पीछे चलती है । बहुत ही को ये तुलना ठीक प्रतीत नहीं हुई । उसने कहा, वहाँ हम को विस्मृत कर गई है अथवा उसे अभी भी हम स्मरण है । हम कह नहीं सकते वन जंतुओं का । आपको आपके शब्द को और आपके फलों के स्वाद को भी विस्मरण कर देना तो सिद्ध हो ही चुका है । उसे हमें बताकर तो जाना चाहिए था । आहुती समझ रही थी कि उसका पति युक्तियुक्त बात नहीं कर रहा । इस कारण उसने बात बदलकर कहा, क्या करेगा, समझ में नहीं आ रहा । हमें पता है कि आश्रम को लौट चलना चाहिए । निराश चित्र कहाँ जाने को नहीं करता । वहाँ का जीवन सर्वथा नीरस है । अभी तो वहीं चलना चाहिए । वहाँ की नी रस्ता अखरने लगेगी तो वहाँ से चल देंगे । आखिर वहाँ किसी को बंदी बनाकर नहीं रखा जाता तो दल चलेंगे उस दिन जब दक्षिण के माता पिता को नहीं वन जंतुओं से मिलने गए । दक्षिण के मन में विचार पिता के मन में तुम हर शिक्षक होने का मोजाक पडा है । इससे वह अपने को उन्हें अकेला अकेला अनुभव करने लगी थी । वह भी उठ अपने मनोरंजन के स्थान नदी तक जा पहुंची । वहाँ है । वन जंतुओं को जलपान करते देख चित्र को बहलाया करती थी । उसे वहाँ बैठे अभी एक घडी भी नहीं हुई थी । किसी ने पीछे से आकर अपने हाथों से उसकी आंखें बंद कर दी । कौन होता हूं दक्षिण में उसका हाथ पकड आंखों से हटाने का? यत्न किया । परंतु एक वरिष्ठ पुरुष के हाथों को वह हटाना गई । एक का एक उसको विचार आया । इस वन में उसके माता पिता की अतिरिक्त अन्य कोई मानव नहीं रहता और उसके पिता उससे इस प्रकार का कलोल नहीं करेंगे तभी है । अवश्य जग्य रूप होगा । इतना विचार कर उसने कहा आप यज्ञ हैं, आंखों पर से हाथ हट गया और ये ग्रुप में उसके समीप बैठ कर रहा । मैं लौट आया हूँ । क्या कहा है पिता मैंने उन्होंने मुझे वहाँ कई कुमारियां दिखाई हैं और उनसे विवाह करने को कहा है और मुझे तुम्हारे लिए वह व्यवस्था है कि तुम वहाँ चली जाओ और तुम्हारे लिए वार वहाँ नहीं जाएगा तो तो हराम उससे विवाह नहीं हो सकता । हो सकता है कैसे वहाँ से अपने माता पिता को बताए बिना रिश्ता चल दो । शमी थी एक अन्य आश्रम है । वहाँ का प्रजापति दो पत्नियों के साथ रहता है । एक घटना वर्ष । वह मुझे मार्क में मिल गया । में नदी के किनारे किनारे इस आश्रम को लौट रहा था । मुझे नदी में एक पुरुष दो स्त्रियों के साथ जलविहार करता दिखाई दिया । वे भारती भारती के परस्पर कलोल कर रहे थे । मुझे उनका विहार बहुत ही मनोरंजक और लो भाई मान प्रतीत हुआ । मैं तक पर खडा उनको खेलते हस्ते देखता रह गया जब उन्होंने मुझे देखा । दोनों स्त्रियाँ कमर तक चल में बैठ गई और पुरुष नदी से निकलकर मेरी और आने लगा । मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वहाँ से लडने के लिए आ रहा है । स्त्रियाँ भी सर्वथा नग्न थी और पुरुष थी । मैं अपना उत्तरीय पहले था । मैं जल्द से निकल मेरे सम्मुख खडा हुआ । मैं सतर्क और लडने को तैयार खडा हो गया । फिर दोनों हाथों की मुठ्ठी बन गई । उसने पूछा यहाँ क्यों खडे हो? मैंने कहा आपको खेलते देखने निश्चित नहीं भी खेलने की इच्छा उत्पन्न हो । ठीक है हूँ । अभी अपनी पत्नी को यहाँ गया हूँ । अब काम भी हमारी भारतीय मनोरंजन कर सकते हो परन्तु मेरी पत्नी नहीं है । उसने हाथ के संकेत से पिता नहीं के आश्रम का मार्ग बता कर कहा उधर एक आश्रम है वहाँ कई अविवाहित स्त्रियां हैं । एक से अथवा दो तीन से व्यवहार कर के आ जाओ और हम भी हमारे खेल में सम्मिलित हो सकते हो । मैं बस पडा फसकर मैंने कहा मैं वहीं से आ रहा हूँ । पिता मैंने कहा है कि मैं इन युवतियों में से एक से विवाह का लोग तुरंत मुझे उनमें से कोई पसंद नहीं आई । कुछ तो उनमें बहुत सुंदर है परंतु मैं उन सबसे अधिक एक सुंदरी को जानता हूँ । मैं उससे विवाह करना चाहता हूँ । पिता मैंने व्यवस्था दे दी है कि मैं उस लडकी से व्यवहार नहीं कर सकता तो इसलिए उसकी माँ कहती है कि वह मेरी बहन है ये तो हम सब हैं । इन दोनों में से मेरी एक बहन है छत्तीस कौन उसने गौरवर्ण हिस्ट्री के और संकेत कर रहा हूँ । हम दोनों के पिता व्यवस् वक्त है और हम एक माता पिता की संतान है परन्तु मैं पहली पारी में उत्पन्न नहीं हूँ । तब क्या हुआ? सब हाँ प्रकृति की संतान है । सब बहन भाई है । कभी कभी पिता होते हैं नहीं के पिता मन्वंतर के मनो भगवान है परंतु माँ सब की पाँच बहुत एक प्रकृति है परन्तु लडकी की मां पसंद नहीं करेंगे । वह पिता में है कि आश्रम में पडे हुए हैं तुम किसके पत्र हो? माता आहुति के मेरे पिता प्रजापति रूचि कहे जाते हैं परन्तु मैं बाल्यकाल से पिता व्यवस्थागत के आश्रम में रहा हूँ । कुछ दिन हुए मैं अपने जन्मदाता माता पिता से मिलने आया तो वह लडकी जिसका नाम दक्षिण है मिल गई । नौ से प्रेम करने लगा हूँ । पहुंचने की बारी उस पुरुष की थी । उसने कहा मैं दक्षिण और तुम्हारी खता जानता हूँ । तुम लडकी को माता पिता के घर से बडा लाओ और यहाँ आ जाओ । मैं एक ही बात वर्जित मानता हूँ । है किसी दूसरे की विवाहिता को अपनी पत्नी बनाना । किसी भी अविवाहित से विवाह करने में पानी नहीं है । मैं यहाँ अपनी पत्नी को लेता हूँ । हाँ और हमारे सामान कुटी बनाकर रहो । दक्षिण मैं यहाँ आ गया हूँ, चलो चलते हैं । दक्षिण ने कहा अब मेरी माता जी भी कहती थी मेरा विवाह आपसे कर देंगे । परन्तु जब भी सुनेंगी कि पिता नहीं की व्यवस्था हमारे विभाग के विपरीत है और वह बदल भी सकती है तो बिना बताए कोटियां को बहुत चलें नहीं नहीं है । वह पिताजी के साथ वन जंतुओं को पढाने गई है । जब ग्रुप फस पडा हसते हुए उसने कहा एन जडबुद्धि जंतुओं को पढाते पढाते ना उनकी बुद्धि भी हो गई है । इस कारण मैं समझता हूँ कि उनसे हमें विवाह करने की स्वीकृति नहीं मिलेगी हूँ । अच्छा ने उत्सुकता से पूछा । उनके लौटने से पूर्व चल दो, शीघ्रता करूँ । लौट आए तो कठिन हो जाएगा । दक्षिण उठी और बोली मैं छोटी से अपनी एक दो वस्तुएं लेना चाहती हूँ । उन लोग दोनों को टीम में पहुंचे । वहाँ दक्षिण ने अपना नवीन उत्तरीय ले लिया और एक लंबी सी बनी वस्तु उठा ली और बोली चलिए ये क्या है? बच्चा मुस्कराई और गर्वपूर्वक उसे मुख्य लगा । उसमें फूंक मारने लगी । इस पर उसमें जिसपर निकला तीन विश्व में लग के रूप में कहा ये तो बोलता है । हाँ, दक्षिण ने अब उसके चंद्र पर उंगली लगा दिया और बदल गया । उसने दूसरे चंद्र पर आपने उंगली रखी तो दूसरा स्वर हो गया । अब दक्षिण ने तीसरे चंद्र पर तीसरी उंगली रखी तो स्वर्ण और अच्छा हो गया । दक्षिण अंगुलियां बदल बदलकर भिन्न भिन्न स्वरों के सहयोग पैदा करने लगी । जब ग्रुप को बहुत भला प्रतीत हुआ, पूछ लिया कि कैसे बनाया है । अब चलो अब नए आश्रम में चलकर बताउंगी । वो दोनों चलती है । जाते समय वेत्री जल्दी में थे । द्वार बंद करना भूल गए हो क्या को तो द्वार खुला होने के कारण एक कुत्ते ने अस्त व्यस्त कर दिया था । कुटिया में कुछ कंदमूल अग्नि पर पटाने का प्रबंध था । उन पके हुए कंधे की सुगंध से आकर्षित वैश्वानर वहाँ आया और मन भर कर खाकर और वस्तुओं को उथलपुथल करता रहा था । अब प्रजापति रूचि और आहुति अपनी कुटिया में आए । उन्होंने कुछ ठीक व्यवस्था देख अनुमान लगाया । यज्ञ रूप दक्षिण को लेकर अपने पालन करने वाले पिता के पास चला गया है । इससे भी बहुत ही खेलते थे । उस रात कुट्टी में रहे और कराता हूँ अपनी एक दो प्रिय वस्तुओं को लेकर पितान है । क्या आश्रम को चल रही है? वहाँ जाने के दो मार्ग थे । एक वन में होता हुआ वो हमारे दुस्तर परन्तु समीर का था । दूसरा मार नदी के तट के साथ साथ होते हुए नदी का बहाव के आ नहीं रहा था । इस कारण यह मार्ग लम्बा था । यद्यपि सुगम था । वे शीघ्रातिशीघ्र पिता में है कि आश्रम में पहुंचना चाहते थे । इस कारण वे वन के मार्ग से ही गए हो हूँ हूँ आपने सुना साहित्यकार गुरुदत् प्रतिनिधि रचना प्रभात बेला का प्रथम पर हूँ ।

Details
प्रभात वेला Producer : Saransh Studios Author : गुरुदत्त Voiceover Artist : Ashish Jain
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