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तृतीय परिच्छेद in  |  Audio book and podcasts

तृतीय परिच्छेद

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प्रभात वेला Producer : Saransh Studios Author : गुरुदत्त Voiceover Artist : Ashish Jain
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तीसरा परिचय महाराज अनंग ने राज्य को बहुत विस्तार दिया । उस राज्य के पालन पोषण में महर्षि अंगिरा, महर्षि अत्रि और महर्षि पुल है का बहुत सहयोग मिला । इन महर्षियों ने अपने अपने कार्य को विस्तार देने के लिए शिष्य परंपरा चला रखी थी । उन शिष्यों में भी अनेक ऋषि पद प्राप्त कर चुके थे । अस्त्रशस्त्र तथा कृषि कार्य के लिए जंतर अधिक सब अंगीरा के कार्यालय में आयोजित तथा निर्माण किये जाते थे । राज्य के विस्तार से कार्य इतना अधिक बढ गया था कि महर्षि को अपनी पत्नियों की सुध लेने का अवकाश की नहीं मिलता था । सावित्री दो पुत्रों और तीन कन्याओं की मां बन चुकी थी । अन्याय तो ऋषियों की पत्नियाँ बन सृष्टि रचना ने लग गई थी और पुत्र थे उतथ्य तथा सम्बद्ध । वे भी पिता के समान प्रकृति के जटिल रहस्यों को जानने में लीन थे । विदेशी पद प्राप्त कर चुके थे महर्षि अंगीरा की सुनीति से एक लडकी भी हो चुकी थी । इस कारण वो समय पंद्रह वर्ष की युवती थी और अति मृदुल स्वर से वेदज्ञान करती थी । उसका उसे ब्रह्मवादिनी की उपाधि प्राप्त थी । सुनीति पुत्र बृहस्पति की हत्या मार्ग का अवलंबन करने पर बहुत निराश की तथा महर्षि अंगीरा नहीं उसे सांत्वना देने के लिए एक और संतान धारण करने का सुझाव दिया । इस पर सुनी थी । महर्षि अत्रि से परामर्श करने जा पहुंची । खुशी ने कहा क्या चाहती हो उत्तर अथवा पुत्री जो मेरी आज्ञा का पालन करें, बनाया उसी सुनीति के मुख से निकल गया । महर्षि ने एक औषधि सेवन करने के लिए कहा । इसे गौदुग्ध से बात करो और पति की सेवा में चले जाओ । दस माह उपरांत एक अति सुन्दर मेधावी पुत्री का चल होगा तो तुम आ ही आज्ञाकारिणी होगी । भ्रम वादनी गर्व नहीं थी कि बृहस्पति और अनंग में विवाद उत्पन्न हो गया । राष्ट्रपति के शिविर को अनंग ने अपने राज्य में सम्मिलित कर बृहस्पति को कहा कि उसे त्रिवर्ग स्मृति का पालन करना होगा । राष्ट्रपति का कहना था उनकी अपनी एक स्मृति है और उसका ही पालन करेंगे । अंग्रेजी घोषणा कर दी । यदि बृहस्पति और उसकी प्रजा त्रिवर्ग स्मृति का पालन नहीं कर सकते तो ब्रह्मपुरी से दो सौ योजन की दूरी पर चले जाएं अन्यथा उन्हें बलपूर्वक यहाँ से हटाया जाएगा । राष्ट्रपति ने यह चुनौती स्वीकार कर ली और दोनों और से युद्ध की तैयारी होने लगी । ब्रह्मवादिनी एक वर्ष की भी नहीं हुई थी कि ब्रह्मपुरी के बाहर घोर युद्ध हुआ । बृहस्पति युद्ध में बंदी बना लिया गया । भारी नरहत्या के उपरांत वनवासी शिविर टूट गया और बच्चे कुछ वनवासियों में से अधिकांश भाग गए और कुछ अनंग की नगरी में श्रमिक जीवन व्यतीत करने के लिए उद्यत हो गए । ऍम होगी बहुत बडी संख्या थी । बहुत ऐसी थी जिनके पति युद्ध में मारे गए थे और कुछ अविवाहित युवतियां भी थी । इस विजय के उपरांत पिता मैंने अपने को राजनीति से तटस्थ रखने के लिए अपना आश्रम उत्तर की और लगभग दो सौ योजन दूर बना लिया । ट्राय सब महार्षि अनंग की नगरी ब्रहमपुरी में ही रह गए । ब्रह्मपुरी वैदिक संस्कृति हम समझता का केंद्र बन गया । बृहस्पति को मृत्युदंड दिया गया था परंतु सुनीति और अंगीरा की याचना पर पिता मैंने उसे शर्त पर जीवन दान देने का वचन दिया कि वह नगरी से दूर कहीं जाकर अपना आश्रम बना कर रहे हैं । अब बृहस्पति इन शर्तों के साथ मुक्त हुआ और अपना नवीन आश्रम बनाने के लिए भ्रम पुरी से उत्तर पूर्व की और जाने लगा तो कमला उनके साथ जाने के लिए तैयार हो गई । घटना को पंद्रह वर्ष व्यतीत हो चुके थे और हमला के भी एक पुत्र का जन्म हो चुका था । वो इस समय तीन वर्ष का कुमार था । उसका नाम था का जी दशक की अगर बहुत संतान हो चुकी थी । अतिथि के बारह पुत्र हो चुके थे और सब आदित्य कहना देते । बारह पुत्र अब दो वर्ष का था । उसका नाम विष्णु था । बाल्यकाल से ही यह बालक सब आदित्यों से अधिक बलवान, ओजस्वी और प्रतिभावान दिखाई दिया था । दक्षकन्या अदिति के भी दो पुत्र थे किरण कश्यप और निर्णय ये दोनों अभी उत्तर अविजीत थे । पहले तो दीदी ने संतान हरण करने से इंकार कर दिया तो फिर एक का एक वो एक साइकल अपने पति कश्यप के पास पहुंची और संतान की याचना करने लगी । उस समय कश्यप जगे पूजा उपासना में बैठने के लिए वस्त्र बदलते चयन घर में जा रहा था थी । उसके साथ वहाँ जा पहुंची और सहवास के लिए आग्रह करने लगी । प्रजापति ने कहा दही! अभी संध्या समय इस समय में पूजा पाठ इत्यादि के लिए जब बिशाला जा रहा हूँ आज रात को मना तुम्हारी इच्छा होगी । भगवान नहीं है । मैं तो अब इस कार्य में शिक्षण की देर भी सहन नहीं कर सकती । प्रश्न आपने गंभीर हूँ, देती के मुख पर देखा तो वासना से आच्छादित था । प्रजापति को चिंता लग गई की देर करने पर वो कहीं अन्यत्र सुल्तान लेने ना चलते है । मैं तैयार हो गए । दस माह उपरांत देती के दो पुत्र हुए ऋण कश्यप और फिर ना जब अतिथि के बारह पुत्र विष्णु का जन्म हुआ । विरण कश्यप हो दस वर्ष का था और सब भाइयों को मारने पीटने के लिए विख्यात था । उसके इस व्यवहार पर वे हिरण्यकश्यपु के पिता बालक से तथा उसकी माता से नाराज रहते थे । विश्व में एक वर्ष का था कि किसी कारण है रन कश्यप उत्कृष्ट हो विष्णु का गला खूब हत्या कर देने पर उद्यत हो गया । घटना वर्ष अतिथि वहाँ गई और उसने हिरणकश्यप को वहाँ से भगा दिया । जब प्रजापति कश्यप से कहा गया तो उसने हिरण्यकश्यपु और माँ को बुलवाया । जब आए तो कश्यप ने देती के सामने आरोप का वर्णन कर दिया । उसने कहा अतिथि कह रही हैं के हिरण ने विष्णु का गला घोंट रहा था हाँ पिताजी हिरण मैंने बताया मैं समझ रहा था की इतना सुन्दर बालक के होते हुए आप अपनी अन्य सब संथानों की अवहेलना कर अपना सब प्रेम और विद्यालय किसी को दे देंगे । इससे मेरे मन में कई दिन से ईर्ष्या हो रही थी । आज मेरे मन में आया कि मैं इस की हत्या कर दूँ । रंग जानते हो ये बात है । पिताजी इससे अच्छा आप उनमें क्या हो सकता था की एक क्षेत्र से बाहर कर बीसियों को प्रसन्न किया जाएगा । मैंने यही करने का ये किया था । कश्यप हिरण्यकश्यपु की मनोवृत्ति देख उसकी माँ से बोला देखो देवी ये असुर इस घर में नहीं रह सकता । या तो राज्य की और से मृत्युदंड हो जाएगा अन्यथा मुझसे शापित हो । यहाँ से निकाल दिया जाएगा भगवान और उनके तो बारह बारह संतान है उनकी एक चली भी गई तो हानि नहीं होगी परंतु मेरे तो दो ही हैं हमको रिश्ता नहीं कर सकती हूँ । कश्यप ने कह दिया ऐसा करो कि से लेकर कहीं अन्यत्र आश्रम बना लो । मेरे निर्वाह के लिए क्या देंगे? कश्यप ने पूछ लिया मांगों क्या चाहती हो? ब्रह्मपुरी वाला है उद्यान, अन्य क्षेत्र और सब भूमि ठीक है, अब तुम को मिल जाएगा । इस प्रकार कश्यप ने अपना पृथक आश्रम बनाया गया या श्रम हम पूरी से पूर्व की और एक सौ योजन के अंतर पर था । पहाडी क्षेत्र से नीचे था ब्रह्मपुरी पहाडी क्षेत्र में थी धर्म का आश्रम हिमाच्छादित पहाडों को पार कर उत्तर की और था । महाराज अनंग भी पहाडों में रहते हुए अपने राज्य का विस्तार नहीं कर सकते थे । पता उन्होंने धरमपुरी से निकलने वाली सरस्वती के तट पर अपनी राजधानी ऐसे स्थान पर बनाई जहाँ सरस्वती पहाडों को छोड समतल भूमि में प्रवेश करती थी । इसका परिणाम यह हुआ हिरणकश्यप भ्रम पुरी में निरंकुश हो वृद्धि पानी लगा । आदिकाल में पृथ्वी कमल रूपी जल से बाहर हिमालय के शिखर पर ही दिखाई थी थी । वहीं पिता मैंने तपस्या की और उसी स्थान से सृष्टि की रचना का आरंभ हुआ है । उस समय मानव सृष्टि हो रही थी । भूमी का एक विस्तृत खंड जल से बाहर निकल चुका था । जल का शोषण बढा रूपी बादलों ने किया था और सागर का जल घट रहा था । जल्द से बाहर नए नए भूखंड बनने योग्य हो चुके थे । मानव सृष्टि का व्यवस्था हिमालय के पठारों से चलकर उत्तर, पूर्व, पश्चिम और दक्षिण को हो रहा था । पता कश्यप ने अपना नवीन निवास था । हिमालय के एक और धरमपुरी के पूर्व की और बना था हम्म का नवीन निवास स्थान भी मुश्किल से उत्तर किया था । धर्म सर के समीर भीमपुरी में निरंकुश रहते हुए हिरण्यकश्यपु ने अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया । इस राज्य के स्थापित हो जाने पर जितनी को चिंता लगने लगी । राज्य तो बन गया परंतु आनंद से मित्रता में रखी गई तो उसके पुत्र का भी वही परिणाम होगा । सुनीति के पुत्र बृहस्पति का हुआ है था । उसने एक दिन पुत्र को बुलाकर कहा बेटा क्या तुम ने अपने को राजा घोषित कर दिया है? हूँ । यह स्थान तब से राजा रहीन पडा था । जब से अनंग ने अपनी राजधानी सरस्वती के तट के समक्ष एक समतल स्थान पर बनाई है मैंने ये विचार क्या है? जब कोई राजा नहीं तो मैं ही राजा क्यों ना बन जाऊँ । ये विचार कर मैंने अपने को वहां का राजा घोषित किया है । देखो बेटा किसी निवास ग्रह का रिक्त होना इस बात का सूचक नहीं होता । कोई चाहे उसमें आकर रहने लग जाए । उस पर अधिकार तभी हो सकता है जब उसके पहले स्वामी से इसकी स्वीकृति ले ली जाए । देखो तुम महाराज अनंग के साथ । ये सूचना तो हमने यहाँ अव्यवस्था देख यहाँ व्यवस्था स्थापित करनी आरंभ कर दी है । ऋण कश्यप का छोटा भाई है ना की सूचना भेजना नहीं चाहता था तो समझ रहा था की सूचना भेजने से तो कार्य में उसे सचेत करना होगा । तब वो उसे पसंद करेगा अथवा नहीं ये कहना कठिन है मैं चुप चाप राज्य का भोग करते हुए यहाँ शक्ति संचय कराना चाहता था । माता ने बृहस्पति के विद्रोह का परिणाम बताया तो वह विचार करने लगा । उसने इसका एक उपाय विचार कर लिया । अनंग से अनुमति लेने के स्थान पर वो पे काम है कि निवास स्थान को चल पडा । पिता में है दुर्लभ हिमालय पार कर रहे हैं । बिहड मरुस्थल को भी पार कर उत्तर में अति शीतल स्थान पर अपना आश्रम पसाई हुए थे । अरुणाक्ष उसी स्थान को जला बंदो को अपने लक्ष्य स्थान पर नहीं पहुंचेगा । दुर्गम मार्ग पर आकाश मेघों से मुझे गया और मूसलाधार बारिश होने लगी । नदी नाले जल से भर गए और आगे जाना उस पार हो गया । नाक शेक स्थान पर जल से खेल गया और वो ना आगे बढ सका और नहीं लौट सका । कई दिन तक उसने अपने मार खुलने की प्रतीक्षा की हुआ हूँ । नहीं खुला है एक राहत वो गुफा में हो रहा था कि वो गुफा भी जलमग्न हो गई और वह जल में बह गया । ऍम को भी हम पूरी से गए । दो माँ से अधिक हो चुके थे कि गंगा नदी में मछली पकडने वाले उसका गला सडा शव जल में बहता हुआ पकडना आएंगी । उसे पहने हुए भूषण से पहचाना गया तो उसे राज्य रहने पहुंचा दिया गया । उसके शव को देख हिरण का शव उसकी माता दी थी तथा सारा परिवार बहुत शोक रेस्ट हो गया । राज्य ग्रह में हाहाकार बच गया और मृत्यु का कारण जानने का यह होने लगा । स्थिति ने अपने पति को सूचना भेज दी । उसके दो पुत्रों में से एक मृत्यु को प्राप्त हो गया है । प्रजापति कश्यप समाचार पाते ही आए और मीनाक्षी के पिता में से राज्य प्राप्ति की बातचीत करने की बात सही बोल रहे हैं । ये पिता मेरे को भयभीत कर कुछ प्राप्त करने की लालसा से चाहता हुआ परमात्मा के कोप का भाजन बन प्रतीत होता है । उसको रजत नहीं था कि पिता है, इस प्रकार से पसंद नहीं होते । वो सेवा और उपासना से प्रसन्न होते हैं । राज्य तो एक साधारण सी बात है । वो तो उससे बहुत अधिक दे सकते हैं । क्या दे सकते हैं लेकिन कष्टपूर्ण पूछ लिया जिससे चाहो अभिदान पा सकते हो परन्तु वो प्रसन्न होते हैं । शुद्धभाव से सेवा करने से ही इस सुझाव पर हिरणकश्यप अतिप्रसन्न हुआ । वो मन में अपने विषय में विचार करता हुआ अपने पिता का मुख देखता रह गया । उसे इस प्रकार मुख देखते हुए पास कश्यप ने कहा देखो बेटा छलकपट को छोड शुद्ध अमन से परमात्मा में विश्वास रखते हुए तपस्या करोगे तो उनके अधीन अथवा उनके भक्त जितने भी हैं, सब तो हमारे मित्र और भक्त हो जाएंगे, तब तो निष्कण्टक राज्य करने का अवसर मिल जाएगा । हमारे भाई ने विचार किया था कि पिता मेरे को अपने आश्रम में अकेले घेरकर उनसे अपने लिए ब्रह्मपुरी का राज्य प्राप्त कर लेना । इस विचार की सूचना उनको मिल गई होगी । उन्होंने ईश्वर से अपनी रक्षा की याचना की और ईश्वर ने किंचित मत्र उपाय से अरुणाक्ष को पहले तो जाने से रोका होगा और जब वो नहीं रुका तो उस पर मुझे पास क्या प्रतीत होता है? परंतु भगवान को सूचना कैसे पा गए होंगे, ये तो केवल नहीं जानता था । एर्नाक का विचार किया था वाला यहाँ से दो तीन सौ योजन के अंतर पर बैठे पिता में कैसे उनके मन की बात जान पाए होंगे? अवश्य तुमने बताई होगी नहीं पिताजी, मैं इतना नीचे नहीं हूँ कि अपने भाई की हत्या का कारण बनाओ । कश्यप पडा कहने लगा मन का मन साक्षी होता है । देखो तो मैंने तो तुम्हारे मन की बात जान ली है तो हमारा बन बिना तुमको बताए मुझे बता रहा था कि है ना? पिता में वो भयभीत कर्स नगरी का राज्य लेने गया था । मुझे विश्वास नहीं आ रहा था कि तुम्हारा भाई इतना दुष्ट हो सकता है और अब तुमने अपने मुख से भी और सूचना का समर्थन कर दिया है । पिता में है । मुझसे भी अधिक योगस्थ व्यक्ति हैं । इस बात का मुझे संदेह हुआ था । वह निश्चय से जान गए होंगे । रन कश्यप के मन में एक बात अंकुरित हो रही थी परंतु वो से अपने पिता को बताना नहीं चाहता था । अच्छा उसमें बात बदल दी । उस ने कहा, पिताजी आधि दृष्टि के एक जीव कदम होनी है । उनका विवाह वैवस्वत मनु की कल्याणदेव होती से हुआ है । उन्होंने घोर तपस्या के उपरांत एक पुत्र को जन्म दिया था । उनका पुत्र उस दिन नाना जी के घर पर आया हुआ था और माँ को बहुत बातें बताया गया है । वो अपना नाम कपिल बताता था । सत्य वो तो योगेश्वर कहलाता है । क्या कहता था देवी विधि सामने बैठी पिता पुत्र के वार्तालाप को सुन रही थी । स्थिति ने कहा, कदम और प्रजापति रुचि की पत्नियाँ परस्पर बहने थी । दोनों ने अपने माता पिता की अनुमति के बिना विवाह किया था और उनके घर से भागकर पिताजी के आश्रम में आकर रहने लगे थे । दोनों के कई संतानें हुई । एक बार प्रजापति कर्दम अपनी पत्नी देवहूति के साथ पिताजी के आश्रम में वजह रूम और उसकी पत्नी दक्षिण को मिलने गए । उनके पुत्र कपिल भी उनके साथ थे । तब मुझे बहन सामान समझाते थे । हम सब सब व्यस्त थे । पिछले साल कपिल अपने भाई के पुत्र अनंग के राज्य में भ्रमण करते हुए इधर आए । फिर नाक से उसे घर पर लेगा । आया यहाँ मुझे वो पहचान गया । मेरे कहने पर वो हमारे घर पर कई दिन रहा और उससे बहुत बातें हुई थी । अब वो संख्य विद्या के पारंगत विद्वान हो गए प्रतीत होते थे । उसी के बाद हिरणकश्यप कह रहा है क्या कहता था वो? उन कश्यप ने बताया । वो कहता था ये चराचर जगत प्रकृति की देन है । एक अनादि पदार्थ है । इससे प्रकृति कहते हैं और जगत की असंख्य वस्तुएं उससे ही बनी है । प्रकृति का ज्ञान प्राप्त हो जाए तो फिर कुछ भी जानने को नहीं रहता हूँ और मनुष्य को परम सुख की प्राप्ति हो सकती है । हाँ, ये तो है ही है । कश्यप ने बता दिया पिताजी महीने परमात्मा के विषय में पूछा था वो कहने लगे उसकी चिंता नहीं करनी चाहिए । प्रकृति के नियमों का पालन करने जाएँ तो परमात्मा प्रसन्न रहते हैं । मैंने मुनिजी से प्रकृति के विषय में बहुत बातें पूछी थी और उन्हें बहुत ही अद्भुत बातें बताई थी । सूर्य, चंद्र नारायण और फिर से कुछ रक्षा वनस्पतियों की सृष्टि तथा पशु पक्षी और मनुष्य में अंतर की बातें बताई गई थी । मैं कपिलमुनि के कसम से एक बात समझी की प्रकृति के नियमों का पालन करने पर हमें किसी भय की आवश्यकता नहीं । मैं समझी हूँ कि भैया ने प्रकृति के नियमों का पालन नहीं किया, इसी कारण वो जल प्लावन में डूब गए । कश्यप को स्मरण हुआ या नीति ने प्रकृति की आवेग नहीं इन बालों को जन्म दिया था और उस आर एग्ने बहते हुए इसका बडा भाई यमलोक सुधर गया है और ये भी उसी प्रकृति की आवेग में इस योनि से उधार पाएगा । इस कारण वो चुप रहा । दशक मुनि के वार्तालाप थल ये हुआ गृहऋण कश्यप पे काम है से अभिदान प्राप्त करने की योजनाएं बनाने लगा । कश्यप तो देती को सांत्वना देकर चला गया और हिरण कश्यप पिता नहीं ऐसे अवैध धान प्राप्त करने का यत्न करने लगा । उस समय तक अनंग का देहांत हो गया था और उसका पुत्र अतिबल राजा बन गया था । अंग के देहांत पर जब अतिबल का राज्याभिषेक हुआ तो हिरण कश्यप भी उत्सव देखने अनंगपुर चला गया था । अनंगपुर सरस्वती के तट पर समतल भूमि ने बसान नगर था और उस नगर की शोभा देखकर हिरणकश्यप मोहित हो गया । उनके साथ ही उनकी पत्नी भी थी । इस उत्सव में आकर्षण का केंद्र ऋषि नाराज थे । वो सामदेव का अति मधुर स्वर में गान करते थे । उन्होंने एक यंत्र बनाया हुआ था जिसे वीना कहते थे और यंत्र पर ऐसी मधुर ध्वनि निकालते थे । सुनने वाले मोहित होकर नाचने लगते थे । नारद परमात्मा के भक्त थे और स्वयं भी जब परमात्मा की महिमा के गीत गाते तो मस्त हो नाचने लगते थे । हिरण्यकश्यपु तो अनंग के पुत्र अतिबल की मैत्री प्राप्त करने में लीन था और उसकी पत्नी जो सुने गर्भवती थी । नारद मुनि के कीर्तनों और प्रवचनों को सुनने में लगी हुई थी है । उसके संगीत, नृत्य और प्रेम भक्ति के गीतों में रस पा रही थी । तीन सप्ताह तक उत्सव चलता रहा । पिता मै भी इस अवसर पर उपस्थित थे । हिरणकश्यप अतिबल एवं पिता हैं को प्रसन्न करने में लगा रहा और उसकी पत्नी नाराज जी के शिविर में रहती रही । हम उत्सव समाप्त हुआ । हिरण्यकश्यपु ने अपनी पत्नी से कहा नहीं नहीं मैं हम लोग नहीं पिता के साथ जा रहा हूँ । सुना है कि वहाँ जाने का मार्ग अतिदुर्गम है । जा नहीं होगी । इस कारण तुम माताजी के पास ब्रहमपुरी को लौट जाओ । वहाँ से वरदान पाने के उपरांत ही आऊंगा । ऋण कश्यप ओके पत्नी नाराज जी के मनमोहक गीतों पर इतनी आसक्त हुई थी । वो अपने प्रसव काल में नारद जी के आश्रम में ही रहना चाहती थी । पता उसने कह दिया मैं अपने इस प्रसवकाल में नारद मुनि जी के आश्रम में रहना चाहती हूँ । वहाँ क्या है भारत जी का मधुर संगीत, उनका वीणावादन तथा उनका साम रेत । क्या नाराज जी का आश्रम कहाँ है इसी सरस्वती के तट पर परंतु पर्वतों में है । ठीक है आपने दास दासियों को साथ ले जाओ । इस प्रकार एक महान नास्तिक की पत्नी उधर चल पडी जहाँ भावी संघर्ष का बीजारोपण हो रहा था । प्रशस्त्र अपनी पत्नियों सहित ब्रह्मसर से निकलने वाली तीसरी महान हम नदी के तट पर एक विशाल नगरी अमरावती निर्माण करने रहता था । यहाँ केंद्र ने राज्य स्थापित कर लिया था और देवा लोग के जनपद को संगठित किया था । देव लोग नाम का जनपद अंग के पुत्र अतिबल के जनपद से अधिक सुंदर सुखप्रद और सास टिक वातावरण से परिपूर्ण था । यहाँ सब लोग सुखपूर्वक स्पष्टी के उत्पादक परमात्मा का चिंतन करते हुए पिता में है कि त्रिवन शास्त्र का पालन करते थे । स्थान फल कंदमूल एम से भरपूर था । इंद्रा अपने आदित्य भाइयों सहित एक सहस्र घरों के वाले प्रसाद में रहता हुआ आपने प्रजाक्ता हित चिंतन क्या करता था इस चिंतन में कश्यप मुनि अपने पुत्रों की सहायता करते थे । अनंग की मृत्यु के उपरांत अतिबल के राज्याभिषेक उत्सव ऊपर उपस् थित होने का निमंत्रण इंद्रादि आदित्यों को भी मिला था । इस पर भी वे उत्सव पर नहीं गए । उन्होंने अपने पिता के द्वारा अतिबल के प्रति सद्भावना और सहकारिता का सन्देश भेज दिया था । काम है कि पूछने पर केंद्र इंद्रादि इत्यादि नहीं आए । कश्यप ने कहा उन्होंने अपनी शुभकामना का संदेश भेजा है । उनको स्वयम आना चाहिए था । मैं भी ऐसा ही समझता था । परन्तु इंद्र का कहना है कि शीघ्र ही अतिबल को राज्य चुप होना पडेगा इस कारण उन्होंने अपने चित्र की अतिबल से प्रति प्रकट की है पिताराम है कि मुख से निकल गया ठीक है परंतु कर्म के पहले ही उसके फल की कल्पना तो ठीक नहीं है । कश्यप ने अभी विनीत भाव से कहा, भगवान बुद्धिमान लक्षण देखकर वस्तुस्थिति का ज्ञान प्राप्त करते हैं और उसका प्रतिकार भी विचार कर लेते हैं । अभिप्राय यह है कि कश्यप मुनि केंद्र को मुझसे अधिक बुद्धिमान मानते हैं । देखो मनोहर मेरा सिद्धांत यह है कि कर्म करने की स्वतंत्रता सबको देता हूँ । शुभ शिक्षा भी सबको देता हूँ परन्तु किसी को भी काम करने से पूर्व फल का भागी मैं नहीं मानता । मेरा अनंग का निर्वाचन ठीक था और उसने पच्चीस वर्ष से अधिक साल तक धर्मयुक्त राज्य बनाया है । अंग के पुत्र अतिबल को भी मैं ऐसा ही मानता हूँ । मैं कोच्चि उस श्रृंखला अवश्य है परन्तु छत्रिय स्वभाव वाले सब लोग ऐसे ही होते हैं । मेरा विचार है कि जब उसके कंधों पर उत्तरदायित्व बढेगा, सब है, अपना व्यवहार शस्त्रनुसार कर लेगा । केंद्र और उसके भाई उसके विपरीत मानते हैं । विश्व बीज को ही जलाकर भस्म कर देने में विश्वास रखते हैं । नवीश बीज होगा, न विश्व रक्ष बनेगा । फिर विश्व फल भी उत्पन्न नहीं होंगे । इससे आत्मा की स्वतंत्रता का हनन होता है । भगवान स्वतंत्रता सबको प्राप्त है परन्तु किसी अनाधिकारी को अधिकार तो नहीं दिए जा सकते । हैं । स्वतंत्रता मानवीय कार्यों में है परंतु राज्यकार्य एक विशाल शक्ति है । शक्ति देने वाले को पात्र कुपात्र का विचार करना ही पडता है । पर हम क्या कर सकते हैं और महात्मा की कृपा से वह अनंग का जीएसटी पत्र है और नियम से उसे पिता की परंपरा का पालन करना चाहिए । उसे अवसर तो मिलना ही चाहिए । कश्यप पिता मैं से सहमत नहीं था तो भी वह चुप रहा है परन्तु पिता नहीं की इस अनिच्छित व्यवहार की संभावना का संकेत मिला । उसने अपने विचार में इसका उपाय कर दिया । उसने अतिबल को ये सम्मति थी कि वह अपने राज्य कार्य में विषयों से सहायता ले । पिता मैंने अतिबल के साथ राज्य परिषद के नाम की एक समिति बना दी । इसमें सात ऋषि नियुक्त कर दिए । कश्यप उनमें से एक था । कश्यप का देव लोग के अनुभव का लाभ उठा रहा था । राज्य विषय के उपरांत कश्यप अमरावती लौट गया । इस पर भी वह अतिबल को वचन दे आया कि वो अपनी पत्नियों सहित आकर उसके राज्य में रहेगा । अमरावती में पहुंचकर जब उसने राज्य परिषद ने कार्य करने के लिए अनंतपुरी में आना चाहा तो दीदी ने पति के साथ जाने से इंकार कर दिया । उसका कहना था वो अपनी सृष्टि का सुख भोगने के लिए अमरावती में ही रहेगी । पता कश्यप मनो हत्यारे तीन अन्य पत्नियों को लेकर अनंगपुर में आकर रहने लगा । उसने राज्य में पहुंचते ही उसकी वृद्धि के उपाय करने आरंभ कर दिए । राज्यकार्य सब ऋषियों ने आपने मैं पांच लिया और राजा अतिबल को एक विशाल सेना का निर्माण करने तथा उससे जनपद की रक्षा के लिए लगा दिया । अतिबल का राज्य दस वर्ष तक चला । उसने एक सिद्धांत स्वीकार कर लिया था । राज्यकार्य में तो ऋषियों की सम्मति चलती थी और अधिक निजी कार्यों में वह स्वतंत्रता का जीवन व्यतीत करता था । यद्यपि अतिबल अति सुखी जी था फिर भी वह राज्यकार्य में विषयों को स्वतंत्रता से कार्य करने की स्वीकृति देने से उनके सुप्रबंधन का यश प्राप्त करता था परन्तु अतिव्यस्त नहीं और विषय वासना में सीमा से अधिक रत रहने के कारण वो रुकने रहने लगा और अल्पायु में ही रूम हो मृत्यु का ग्रास बन गया । राजा था और ऋषिगण ये समझ रहे थे कि वो किसी भी समय देख छोड देगा । अच्छा परिषद भवन में बैठे प्रतीक्षा कर रहे थे । मृत्यु का समाचार आते ही वे नवीन राजा के विषय में घोषणा करेंगे । अतिबल के कनिष्ठ पुत्र तथा तीन के छोटे भाई सुदेव को उपयुक्त राज्याधिकारी मानते थे । जब राज्य परिषद में यह विचार हो ही रहा था ये किस प्रकार पेन को सुबह के लिए राज्य छोडकर कहीं अन्यत्र जाने पर उद्यत करें । सब देख सेना के शिविर में आपने राजा बनने की घोषणा कर रहा था । उसने है प्रबंध कर रखा था कि अतिबल की मृत्यु का समाचार उसके द्वारा ही परिषद हो जाए । जो भी उसे विधित हुआ कि उसके पिता का देहांत हो गया है तो उसमें राज्य परिषद भवन, राज्यभवन और अपनी माताओं तथा भाइयों के भवनों पर सेना बैठा दी और राज्यभार अपने हाथ में ले लिया । बहन में अपने राज्य विषय के दिन का भी निश्चय करके उस की घोषणा कर दी । इतना करने के उपरांत वह अपने निष्ठावान सुबह बच्चों को लेकर राज्य परिषद में पहुंच गया । जो ही ऋषिगण को विद्युत हुआ राजा का देहांत हो गया है । तभी उनको विदित हो गया की सेना ने उनके भवन को घेर लिया है । इस पर कश्यप वयोवृद्ध होने के कारण भवन के द्वार पर आकर खडा हो सेनापति को समीप बुलाकर पूछने लगा हम लोग यहाँ खडे क्या कर रहे हो? हमें आ गया है कि राज्य परिषद से कोई भी सदस्य कहीं न जाए । राजकुमार स्वयं यहाँ आने वाले हैं परन्तु वरना तो सेनाध्यक्ष है और न ही राजा । उसके आज्ञा का पालन तुम्हारे करने योग्य नहीं है । हम महाराज बैन को राजा मानते हैं । वह राजा होने के नाते हमारा नेता शासन और सर्वेसर्वा है परन्तु उसका राज्यभिषेक नहीं हुआ है । वो अभी राजा नहीं है उसका राज्यभिषेक हो चुका है । सेनापतियों ने मिलकर उसका राज्यभिषेक किया है । बिना वेदमंत्र पडे पढ दिए गए थे तो वो हम से क्या चाहता है । महाराज अभी परिषद में पढा रहे हैं और स्वयं आपको बताएंगे कि वे क्या चाहते हैं । कश्यप सैनिकों से विवाद करने की क्षमता नहीं रखता था । वहा पे भीतर आकर सब ऋषियों को एकत्रित कर वस्तुस्थिति का वर्णन करने लगा । उसने बताया आप सब लोग बंदी बना लिए गए हैं । क्यों तथा कब तक के लिए वह महाराजा बैन आपको अभी आकर बताएंगे । ऋषिगण सब समझ गए । किसी को भी कुछ और अधिक कहने सुनने की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई । कश्यप ने ही बात आगे चलाई । उसमें कहा राज्य की शक्ति सेना है । वो इस समय किसी न किसी प्रकार बैंड ने अपने पक्ष में कर ली है । दूसरी शक्ति जनबल है परंतु जनरल एक जडवत पदार्थ है । उस को सक्रिय करने के लिए किसी शक्तिशाली चेतना की आवश्यकता है । साथ ही उस जनवरी को शक रिय करने के लिए उसके सभी पहुंचने की आवश्यकता है । पिछले दस वर्ष से हमने राज्यकार्य में लीन होने के कारण अपने को इस जडवत शक्ति से दूर रखा है । हम नहीं जानते कि वह शास्त्र भी हमारी सहायता करेगा अथवा नहीं था । मेरी सम्मति यह है कि जब बहन यहाँ आए तो उसको मनमानी करने की स्वीकृति दें । हम यहाँ से चल दें । महर्षि प्रमुख सब ऋषिगणों में युवा थे । पता उनको चुपचाप चल देने के बाद पसंद नहीं आई । उन्होंने कहा, हमें बेन को कह देना चाहिए कि उसका अभिषेक नहीं हुआ है । मैं अभी राजा नहीं है और राज्य अभिषेक बिना ब्राह्मण वर्ण तथा प्रजा वर्ग की अनुमति के संपन्न नहीं हो सकता । कश्यप ने कहा, तब तक हमें अपनी सैनिक शक्ति से कारागार में डाल देगा और हमारे विषय में प्रजा में मनमानी मित्तियां बातें फैलाकर हमें निंदित घोषित कर देगा । परिणाम ही होगा कि राज्य में दूसरी शक्ति भी हमारे संपर्क और प्रभाव में नहीं रहेगी तो हम शक्तिहीन कुछ नहीं कर सकेंगे । प्रसूति चुप रहे । कश्यप ने अपनी योजना बता दी । उस ने कहा हमें इस समय बिना बैन के कृत्य को स्वीकार अथवा अस्वीकार किए अपने को राज्य से पृथक कर लेना चाहिए । जहाँ से अवसर, बातें ही बिताना है, के पास पहुंचना चाहिए और उसकी सम्मति तथा आशीर्वाद से इस दिशा में कुछ करना चाहिए । वो निश्चित हो गया की पूर्ण परिषद के वक्ता कश्यप नहीं हूँ और अन्य सब मौन रहे । उन्हें कुछ अधिक काल तक प्रतीक्षा करनी पडी । पेन स्वयं उसको नहीं पेश करने के लिए उनसे बात करना चाहता था । वो आया तो परिषद की सभा आरंभ हो गई । सभा में बैठते ही बैन नहीं घोषणा कर दी कि मैं अभी अभी सैनिक शिविर में आया हूँ और उन्होंने सर्वसम्मति से मुझे यहाँ का राजा स्वीकार कर लिया है तथा राजा के अधिकार से मैं अपनी परामर्शदाता समिति का निर्माण करना चाहता हूँ । बताइए आप में से कौन कौन उस समिति ने समृद्ध होना चाहेंगे । कश्यप मनी ने कहा, ये हम तब बताएंगे जब आप हमें व्यक्तिगत रूप से अथवा सम दृष्टिगत रूप से उस समिति ने सम्मिलित होने का निमंत्रण देंगे । पहले आप बताइए क्या आप हम सब को अथवा हम में से किसी को उसका सदस्य बनने का निमंत्रण देते हैं? मैं समझता हूँ कि साथ ही परामर्शदाता समिति बहुत बडी है । पांच से अधिक सदस्य नहीं होने चाहिए । साथ ही समिति में एक सैनिक और एक वित्ताधिकारी होना चाहिए । इसके अतिरिक्त व्यापार भी उत्तरोत्तर उन्नति कर रहा है तथा एक सदस्य व्यापार के विषय का ज्ञाता भी होना चाहिए । चेंज दो सदस्य आप में से लेना चाहता हूँ इस कारण क्या पर राज्य संबंधी विषयों में अनुभव है? कश्यप ने कहा राजा देन वो हमारी परामर्शदाता समिति नहीं थी । वो तो राज्य परिषद थी । इसके अधीन सेना, व्यापार इत्यादि विषयों के सचिव थे । तुम सचिवों को राज्य परिषद में सम्मिलित करना चाहते हो, यह है विधान नहीं है । फिर भी हम इस विषय में त्रिवर्ग शास्त्र के अनुसार कार्य करना चाहते हैं । मेरी इच्छा हूँ तो इसी रूप में इस परिषद को रखा जाए अन्यथा इस परिषद को भंग कर दिया जाए और उसके स्थान पर राजा की परामर्शदाता समिति का निर्माण किया जाए । मैं नामों को महत्व नहीं देता । नाम कुछ हो सकता है । हाँ, इस सभा का कार्य राजा को राज्य के विषय में परामर्श देना है और रहेगा । परंतु महाराज हम नाम और गुड में संबंध बनाए रखना चाहते हैं । इस कारण हमारी सम्मति होगी । यदि वह राज्य परिषद होगी तो इसके अधिकार और इसका निर्माण रिवन शस्त्रनुसार होगा और उसके कार्य भी उस शास्त्र के अनुसार होंगे और यदि किसी अन्य गोल्ड और रूप वाली समिति बनानी है तो उसका नाम ही दूसरा होगा । हमारा यही मत है । हमारा से क्या अभिप्राय है? इस परिषद का सामूहिक मत यही है । हम तो क्या आप ने पहले ही इस विषय पर विचार कर लिया था? हाँ, इस विषय में हम सब एक मत हैं । ठीक है । आज से राज्य परिषद भंग की जाती है और उसके स्थान पर राजकीय परामर्शदाता समिति का निर्माण किया जाता है । कौन कर रहा है जहाँ का राजा ऍफआईआर राजा परिषद को भंग नहीं कर सकता हूँ । अरशद राजा को राजा छूट कर सकती है था । परिषद अपने को स्वतः हम कर सकती है । वह कब करती है? जब अपने को शासन चलाने के अयोग्य पाती है तो अपने को धन कर देती है और उसके स्थान पर नवीन परिषद का निर्माण प्रजा का विद्वान पर करता है । ठीक है आप सभा को भंग कर दीजिए । अभी मैं एक परामर्शदाता समिति का निर्माण करता हूँ । बाद में उचित समय पर विद्वानों की सभा बुलाकर नवीन परिषद का निर्वाचन करा लिया जाएगा । महर्षि प्रसूति ने कहा, राजा बैंड हमें से भंग करने का निर्णय आपसे प्रथक में बैठ कर करना चाहते हैं । ये नहीं हो सकता । राजा को अधिकार है कि वह परिषद की सभाओं में बैठकर सम्मति थे और सम्मति स्वीकार करें । दश अपने विवाद को शांत करने के लिए कह दिया । महाराष्ट्र कहते हैं आप बैठे मैं राज्य परिषद की सभा में ये प्रस्ताव करता हूँ । यह परिषद भंग कर दी जाए जिससे कि शास्त्रानुसार नई परिषद का गठन हो सकें । यह प्रस्ताव सबने स्वीकार कर लिया । इस पर राजा दैन ने कहा, मैं अपनी परामर्शदाता समिति में आप में से दो सदस्य लेना चाहता हूँ और इन दो स्थानों के लिए मैं महर्षि, प्रमुख जी और महर्षि नाम ऊंची को निमंत्रण देता हूँ । अब सब इन दोनों नामांकित ऋषियों के मुख पर देखने लगे । महर्षि नमुचि ने उत्तर दिया, मैं इस पद को स्वीकार करने से पूर्व पिता मैं से परामर्श करना चाहता हूँ । कैसे उनसे पूछेंगे इसमें कई मांस लग सकते हैं । नहीं मेरे पास दिव्यदृष्टि है और मैं रात्रि में उस दृष्टि से पिता में ऐसे सम्मति करके कल प्रातः अकार बता दूंगा और आप प्रमुख चीज जी, मैं भी आपको कल प्रातःकाल तक बता दूंगा । ठीक है दोनों महर्षि यहां रहेंगे और शेष यहाँ से एक घडी के भीतर चलते हैं । आप व्रत जीत हैं आपको इस प्रसाद में से कुछ भी अपने साथ नहीं ले जाना चाहिए । परिषद की सभा समाप्त हुई और ऋषिगण उस भवन से जाने के लिए तत्पर हो गए । ऋषिगण अपने परिवारों के साथ वहाँ रहते थे । मैं सब बिना एक दिन का भी अपने साथ लिए अपने परिवारों के साथ परिषद भवन से निकल गए । महर्षि प्रमुख चीज और नमुचि भी उनके साथ ही चलती है । किसी ने उनको जाने से नहीं रोका । जब बेन को ये पता चला इस सब के सब ऋषिगण अपने परिवार सहित परिषद भवन को छोड हम लोग की और चल दिए हैं तो उसने विस्मय में पूछ लिया । सब के सब चले गए हैं अथवा कोई नहीं भी गया । सूचना देने वाला परिषद भवन का मुख्य प्रबंधक था । उसने बताया, महाराज, सातों के सातों सदस्य और उनके साथ उनके परिवार के पचपन सदस्य ऍम सेवक भी गए हैं और वे नगर में किसी के घर पर नहीं ठहरे । नहीं महाराज सीधे सरस्वती के तट के साथ साथ बने पद पर जाते देखे गए हैं । नगर के लोगों ने उनको रोका नहीं । सब अपने अपने घरों से निकलकर राजपथ पर आप खडे हुए थे और चुपचाप उनको जाते हैं । देखते रहे नगर के द्वार तक सैनिक उनके साथ गए थे । जब वे नगर द्वार से निकलकर नदी तट वाले पद पर चले तो सैनिक वापस आ गए थे । ठीक ही हुआ है । प्रमोद जी और नमुचि भी तो पिता है कि भक्त हैं । वो भी उनसे ही सम्मति करने की बात कहते थे । अगले दिन से राज्यकार्य चलने लगा । सबसे प्रथम राज्याभिषेक उत्सव मनाया गया । यह उत्सव एक पखवाडा तक चलने की घोषणा की गई और प्रत्येक दिन का कार्यक्रम बनाया गया । इसमें नाच रंग, खाना पीना और भोगविलास सब प्रकार के केंद्रीय सुख सम्मिलित किए गए । पूर्ण पखवाडे में लोग गाने बजाने, नाश, रंग और खाने तथा भोगविलास में इतने लीन हुए कि किसी को भक्ष्य, अभक्ष्य कम गंभीर कर्तव्य, अकर्तव्य वाक्य, वाच्य तथा दोषा दोष का भी ज्ञान नहीं रहा । इस उत्सव में आने का निमंत्रण किसी अन्य राजा को नहीं भेजा गया । फिर भी ब्रहमपुरी में रहने वाले कश्यप पुत्र हिरण्यकश्यपु स्वयं ही आ गए थे । हिरणकश्यप के आने पर बेन को विस्मय तो हुआ परंतु प्रसन्नता नहीं । विश्व में का कारण यह था कि उसने किसी भी राजा को निमंत्रण नहीं भेजा था और यह विख्यात हो रहा था । हिरण कश्यप पिता होने की सेवा में कई वर्ष व्यतीत कर चुका है । वहाँ हैं हम विद्या का ज्ञान प्राप्त करता रहा था और हिरण कश्यप के कथानुसार उनके आशीर्वाद से ही ब्रहम्पुरी का शासक बन गया है । हम पुरी किसी काल में बेन के बाबा अनंग के अधीन थी, पर हम तो उसके पिता के काल में जलवायु तथा अधिक अन उत्पन्न करने में एक अच्छा क्षेत्र न समझ उसे छोड दिया गया था था । जब बहन के पिता कोई समाचार मिला था कि ब्रह्मपुरी कश्यप के पुत्र धारण का शिक्षकों को दे दी गई है तो उस स्थान को एक व्यर्थ राजस्थान समझ और ऋण कश्यप के पिता हो । राज्य परिषद का एक प्रतिष्ठित सदस्य मान कंपनी में किसी अन्य राज्य की चिंता नहीं की गई । अब पेन द्वारा हिरणकश्यप के पिता को मना कर अनंगपुर से निकाल देने पर ऋण कश्यप का देन के राज्यभिषेक में समृद्ध होने वाला जिसमें का विषय था, नगर के बाहर हिरणकश्यप को रोका गया और से पूछा गया उसके वहाँ आने का क्या प्रयोजन है? ऋण कश्यप का उत्तर था कि वह उत्सव में सम्मिलित होने आया है । बैंक ने अपने सभा भवन में उसका अति आदर और सम्मान से स्वागत कर उसे बिठाया और पूछा भगवान किस प्रयोजन से आपका यहाँ आना हुआ है? मैं आपके पूछे पिता के स्वर्गवास होने के बाद सुन यहाँ शोक प्रकट करने के लिए आ रहा था । क्या आप की राज्य परिषद के सदस्य हम लोग को जाते हुए मिले? उनमें मेरे पिता भी थे । उनसे विगत हुआ कि आपको अपने पिता के देहांत का शोक नहीं वरन प्रसन्नता है । समाचार से मेरी सब सुषुप्त प्रवृत्तियां जान पडी और मैं आपकी प्रसन्नता में समृद्ध होने चलाया हूँ । चोकसे हर्षोल्लास मुझे अधिक रुचिकर है । आप की कौन कौन सी सुषुप्त प्रवृतियां मेरी बात से जाग्रत होती हैं । मुझे भी सुख भोग की प्रवर्ति है । मैं भी मानता हूँ की भूख के लिए जीवन का एक अल्पकाल नियत है और उस अल्पकाल में संसार के अनेक अनेक भोगों का रसास्वादन नहीं हो सकता । इस कारण किसी के मरने का शोक मनाने में समय व्यर्थ गवाना ठीक नहीं पता है । जब मुझे अभी हुआ या अपने अपने पिता के देहांत पर चोक बनाने के स्थान पर उत्सव रचा दिया है तो मेरे हर्ष की सीमा नहीं रही, परंतु भगवान मैंने सुना था कि आप किताब है कि लोग में तपस्या करने और ज्ञान प्राप्ति के लिए गए थे । हाँ, तपस्या मैंने की है । परंतु मुख्य बात उस तपस्या का उद्देश्य था न कि तपस्या । क्या उद्देश्य आपकी उस घोर तपस्या का? मैं अपने अजी होने का वर प्राप्त करता चाहता था तो क्या पर प्राप्त हुआ है? पिता मैंने ये वार दिया है कि कोई भी उसकी सृष्टि का व्यक्ति मुझसे शत्रुता अथवा द्वेषभाव नहीं रखेगा । यदि रखेगा तो मैं अजय ही रहूंगा । पेन ने कहा भगवान आपस बहुमंडल में एक महान शक्ति बन गए । फिर भी मैंने पिता है कि वेद मत हो स्वीकार नहीं किया । मैं मानता हूँ कि वेद मत में धर्म के नाम पर जीवन में अनेक अनेक प्रतिबंध उपस्तिथ है । वे सब दुर्बलों की रक्षा के लिए अविष्कृत किए गए हैं, जबकि दुर्बलों के लिए प्रकृति रहे हैं । कोई स्थान नियत नहीं किया । संसार के सब भोग बलशालियों के लिए हैं । कितनी समानता है आपके और मेरे विचारों में ट्रेन का कथन था । इस कारण अपने पिता के यहाँ से निकाले जाने पर भी इस राज्यभिषेक की बधाई देने मैं यहाँ चला आया हूँ । बैन हिरण कश्यप की बातों से अति प्रभावित हुआ था । वो मन में विचार करता था कि ये नर व्यक्ति है । ऐसे के साथ मित्रता रखने से उसका और उसके राज्य का कल्याण होगा तथा अभिषेक उत्सव में हिरणकश्यप को भी सम्मिलित होने का निमंत्रण दे दिया गया । दोनों राजाओं की परस्पर मैत्री हो गई । दोनों ने अपने राज्य में पिता कम है कि त्रिवर्ग स्मृति से विलक्षण स्मृतियां स्वीकार कर ली । धर्म बलशालियों की आज्ञा का नाम हो गया तो बलवानों की आज्ञा पालन करता था । वो धर्म का पालन करने वाला माना जाता था जो बलशालियों की आज्ञा का उल्लंघन करता था । वह अधर्मी समझा जाता था । दोनों राज्यों में राजा और सेना बलवान थी तथा वहाँ सेना की आज्ञा धर्म था । बेन की अनंतपुरी और इस जनपद में निर्धन एवं दुबलों की भूमि, संपत्ति और स्त्रीवर्ग सुरक्षित नहीं रहे । उसका परिणाम ये हुआ राज्यभर में डाकुओं और चोरों के गुट बन गए । जो प्रत्येक वस्तु जिसे भी बातें थे, आत्मसात कर लेते थे । राजा और इन गुटों में भी परस्पर संघर्ष होने लगा था । जीवन के लिए आवश्यक उपलब्धियों को निर्माण करने वालों की संख्या अब कम होने लगी थी । लोग अपने काम धंधे छोड छोड कर भागने लगे । राज्य को धन मिलना कम हो गया और तब राज्य ने भ्रामरों, विद्वानों, ऋषियों और कृषकों पर डर लगना आरंभ कर दिया । प्रत्येक जग्य हवन में डाले जाने वाली भवि में से राजकीय भाग लिया जाने लगा तो दुर्बल और निर्धन तो इसलिए राज्य छोडने लगे कि उनका धन संपर्क ॅ बलशालियों से सुरक्षित नहीं था और ब्राह्मण विधवा हो त्रि रितिक और यजमान इसलिए राज्य छोडने लगे । उनको धर्म कर्म पर भी कर देने के लिए बाध्य किया जाने लगा था । राज्य को अथवा लुटेरे गुटों के लिए जब कर अथवा लूट्स मार के लिए भी मिलना कठिन होने लगा तो वे आपस में एक दूसरे को लूटने लगे । इससे हिरण कश्यप को अपने राज्य में भी एक समस्या उपस्तिथ हो गई । लुटेरा वर्ग जब अनंतपुर जनपद ने अपनी लूट के लिए पर्याप्त सामग्री नहीं जा सके, वे धन धान्य से पूर्ण ब्रहमपुरी जनपद में लूट मचाने के लिए आने लगे हैं । हिरणकश्यप अपने अपने राज्य में महामंत्री के पद पर महर्षि भृगु के पौत्र एवं कभी के पुत्र शुक्राचार्य को नहीं किया हुआ था । शुक्राचार्य नास्टिक विद्वान था इसी कारण ऍम उसे भारी प्रलोभन दे अपने राज्य में बुलाया था और उसे अपना मंत्री ऍम अन्य पुत्रों का गुरु नियुक्त कर दिया था । अब अनंगपुर के लोग ब्रहमपुरी में लूटमार करने लगे तो हिरण का शव होने आचार्य को बुलाकर पूछा । भगवान इन लोगों से किस प्रकार का व्यवहार किया जाए । प्राचार्य ने समस्या का सुझाव दिया । वास्तव में इस राज्य की आधारशिला में बल प्रयोग की प्रथा है परंतु जो दो राज्य इसी नीति के मानने वाले पडोस पडोस में आ जाए तो उन दोनों का परस्पर भेज रहा ठीक नहीं । इससे दोनों की हानि होती है और लाभ किसी को नहीं हो सकता था । इन लुटेरों के इस राज्य में घुस आने पर इन लुटेरों का दामन करना चाहिए । परंतु हमें ये नहीं मानना चाहिए कि इन लुटेरों का अनंतपुर राज्य से किसी प्रकार का संबंध है और नहीं अपने मन में ये बात आनी चाहिए । इनके दमन से हम पडोसी राज्य को हानि पहुंचाने की नियत से ऐसा कर रहे हैं । अनंतपुर राज्य में वहाँ की राजनीति का भी घोर विनाशकारी परिणाम उत्पन्न होने लगा । उस राज्य के लडाकू और योद्धा हम पूरी राज्य में आने से भय खाने लगे । बैंको परिश्रम करने वाली प्रजा पर और अधिक कर बढाने पडे । जो कुछ पडोसी राज्य से लूट खसूट कर आ रहा था वो बंद हो गया । इससे अनंतपुर राज्य के भले लोग भाग भाग कर हम लोग में पहुंचने लगे । इस व्यवस्था को देख पिता महीने ऋषियों की एक सभा बुलाई और उसमें निश्चित हुआ क्या? नागपुर में विप्लव खडाकर पैन को गड्डी से हटाया जाए । इसके लिए कश्यप उन्होंने नमुचि नियुक्त किए गए । ये ऋषिगण जब अनंदपुर में पहुंचे तो वहां की भाई भी प्रजा उनसे मिलने के लिए आने लगी । पूर्व इसके की इनके यहाँ पहुंचने का समाचार बैन को मिले । उन्होंने सेना के नायकों से मिलकर विचार विनिमय आरंभ कर दिया और सैनिकों में भले लोग इन दृश्यों की रक्षा के लिए एकत्रित हो गए । परिणाम ही हुआ कि जब बैन के सुबह इनको राज्य प्रसाद ने ले चलने के लिए आए, वहाँ सैनिकों का जमघट देख विश्वमय करने लगे । एक सेनानायक ने एक सौ से पूछा यहाँ कैसे आए हूँ? कश्यप मुनि को महाराज के पास ले चलने के लिए ऍम कश्यप मुनि के सम्मुख प्रस्तुत किया गया तो कश्यप ने उसके आने का कारण जान कह दिया । बहन से जाकर के है तो क्या वो इस जनपद का राजा नहीं है? इस कारण उस की आज्ञा के पालन की मैं आवश्यकता नहीं समझता हूँ । यदि उसे हम से कुछ काम है तो वह स्वयं आ सकता है । सुलटने पूछ लिया अभी बहन राजा नहीं तो क्या आप राजा हैं? मैं हम दंड हूँ । अभी कुछ समय में यहाँ न्यायपाल लगाएंगे और तब बेन के अपराधों की जांच पडताल पर दंड निर्धारित करेंगे । उदंड मैं दूंगा ऍफ गए और जब उन्होंने ऋषि आश्रम की अवस्था वर्णन की । वैन ने कह दिया ये सोलह पत्नियों का पति और सैकडों पुत्र पौत्रों का जन्म दाता मुझ बलिष्ठ राज्य अधिकारी का मान करके बच नहीं सकता हूँ । इतना कह बहन उसी समय शस्त्रास्त्र से सुसज्जित बीस सुबह लेकर ऋषियों के निवास स्थान पर जा पहुंचा । उस स्थान पर सहस्त्रों नागरिक और सैकडों सैनिक एकत्रित हो चुके थे । मैंने वहाँ से कुछ सुबह सैनिक शिविर में सैनिक सहायता लाने के लिए भेज दिए और स्वयं भीड को संबोधन कर कहने लगा आप लोग अपने अपने घरों को चले जाएँ, सेना आने ही वाली है । उसके आते ही यहाँ एकत्रित विद्रोहियों का संहार आरंभ हो जाएगा । इस समय कश्यप आश्रम से बाहर निकला और बहन के सम्मुख उपस्थित हो उससे बोला न्यायाधीश तो मैं भीतर बुला रहे हैं । चलो मैं उसे न्यायाधीश नहीं मानता । कश्यप यहाँ खडे लोगों से कहा पकड लो और भीतर ले चलो । इस बात के कहते ही सहस्त्रों हाथ बैन को पकडने के लिए उसकी और लग के मैंने अपना खडक निकाला और अपनी रक्षा करने के लिए उठाया । इसी समय कश्यप ने हाथ संकेत से उसे कहा यह खडक निष्काम है । उसके वह कहते ही खडा उसके हाथ से नीचे गिर पडा । सडक के गिरते ही लोग उत्साहित हो । उसको पकडने के लिए आगे बढे । मैंने वहाँ से भागना चाहा परंतु वहां एकत्रित विशाल जनसमूह ने उसे भेज लिया । इसके उपरांत लोग उसको मुक्कों और लातों से पीटने लगे । ऍम को भूमि पर गिरते देखा तो उसने लोगों को शाम करने का बल दिया और बेन को जीवित पकडने का आग्रह किया परन्तु बहन गिरा और उसके चिथडे उधर गए । जब लोगों को हटाया गया तो उसका शरीफ टू टू हो चुका था । प्रज्ञा नहीं जब बैंक के शरीर पर अपना रोज निकाल लिया तो अपने ही कृति के और चित्रा पर अनिश्चित मन एक दूसरे का मुख देखती रह गई । कश्यप आगे बडा तो उसके लिए मार्ग छोड लोग एक और हट गए परंतु बहन का तो कहीं पता ही नहीं था । नहीं एक बात और कहीं एकता तथा कुछ दूर पर कुछ ना हुआ । सिर्फ और समीप में एक वहाँ का अग्रभाग लुडका पडा था । कश्यप ने लोगों को कहा इसके सबंग एकत्रित करो और उसको अग्निदेव की भेंट करना चाहिए । तदंतर प्रजा और सैनिकों को संबोधित कर उसने कहा, अनंगपुर निवासियों अनंगपुर के भूतपूर्व अधिपति बैन के विरुद्ध है । पिता में है कि समक्ष आरोप लगाए गए थे । उन आरोपों पर उसे मृत्युदंड मिलना चाहिए था । हम तो पिता मैंने यह उचित समझा था की बहन को सब आरोप पता कर उन पर उसका उत्तर सुना जाए और तदंतर उसे उचित दंड दिया जाए । परंतु जो उसके अत्याचार से पीडित थे, उन्होंने उसे दंड दे दिया है । यह दंड अन्यायपूर्ण तो नहीं है । फिर भी यदि जीवित बैंको उसके अपराधों का अनुभव कराया जाता है तो वह अनुभूति उसके लिए अगले जन्म में कल्याणकारी हो सकती थी । जो व्यक्ति प्रायश्चित करता हुआ अपने अपराधों का दंड भोक्ता है, वह शीघ्र ही दोष हो । उन्हें इस लोग में अपनी उन्नति के लिए आ सकता है । अब यह कार्य आगामी जन्म में वह स्वयं करेगा । हमें परमात्मा से प्रार्थना करनी चाहिए । जो लोग हम छुद्र जीव यहाँ नहीं कर सके वो उसे परलोक में करने का अवसर प्रदान करें । अब हम विद्वान ऋषि महर्षियों का एक सम्मेलन बुलाएंगे और इस जनपद के लिए नवीन राज्य अधिकारी का निर्वाचन करेंगे । तब तक के लिए भगवान नमुचि यहाँ प्रबंध करेंगे । प्रजा को चाहिए कि वह अपने अपने कार्य में संलग्न हो जाए । इस समय देश की धनसंपदा राय विनष्ट हो चुकी है, परन्तु धनसंपदा कास्ट्रो मानव परिश्रम आए हैं । यदि आप मन से परिश्रम करेंगे, शीघ्र ही वह राज्य उन्हें धन धान्य से भरपूर हो जाएगा । आइए अपने लिए और अपने जनपद के परिश्रम में लीन हो जाइए । प्रभु आपकी सहायता करेंगे । कश्यप मुनि किस प्रकार की रचनाओं से लोग शांत हो अपने घरों को लौट गए । मानव समाज की ये प्रथम जनक्रांति बहुमंडल के अन्य राज्यों के लिए विचार का विषय बन गई । ऍम कश्यप को भी जरिए समाचार मिला तो शुक्राचार्य के पास पहुंचकर पहुंचने लगा आचार्यवर अपने बहन के विषय में सुना है । हाँ राजन! वहाँ यही होना था तो मैंने वहाँ के लुटेरों के इस राज्य में घुस जाने और वहाँ लूटमार मचाने पर जब ये कहा था कि उनको पकडकर बिना उस राज्य को बीच में लाए उन्हें दंड देना चाहिए तो मैं कुछ ऐसी की आशा कर रहा था । आचार्यवर मुझे यह है कि जहाँ पर भी प्रजाति नहीं कुछ करना नहीं, यही तो मैं है तो इसका उपाय अभी से करूँ, क्या उपाय करूँ? देश में विद्वानों की मान प्रतिष्ठा में वृद्धि करूँ और उन को दान दक्षिणा आपसे प्रसन्न हो वो तो मैं कर रहा हूँ । आप विद्वत शिरोमणि यहाँ के सर्वेसर्वा हैं परन्तु तुम मध्य का सेवन बहुत करते हूँ और मध्य के मदद क्या में कभी कभी मेरी भी निंदा कर देते हो । महाराज भविष्य में ऐसा नहीं करना । प्रजा को डरा धमका कर रखना चाहिए । विशेष रूप से जो प्रजा का उच्च अंकल है, उसको बंदी बनाकर रखूँ परिप्लव उत्पन्न कर सकता है । परिणाम ये हुआ कि ब्रह्मपुरी के जनपद ने किंचित मात्र भी अच्छा चरण करने वालों को उच्चकमान मृत्यु अथवा कारावास का दंड दिया जाने लगा । इसी समय अनंगपुर में ऋषियों का सम्मेलन होने लगा । पिता है का आदेश था यथा सम्भव बैंक की संतान में से किसी को भी नरेश पद पर नियुक्त किया जाए । मैन के उत्तराधिकारियों को ऋषि मंडल के सम्मुख उपस्थित होने को कहा गया । ये देखा गया की बहन के वंश में सैकडों युवा कुमार और बालक उपस् थित हैं । वे सब एक दूसरे के उपरांत ऋषि मंडल के सम्मुख उपस् थित हुए । ऋषिगण किसी को अल्पायु के विचार से और किसी को अल्पबुद्धि के विचार से अस्वीकार करते गए । अंत में दो पुत्रों में तुलना हुई । दोनों युवा थे, बुद्धिमान थे और सबल थे । इन दोनों को ऋषि मंडल के सामने बारी बारी से उपस् थित होने के लिए कहा गया । पहले एक नील नाम का लडका उपस् थित हुआ और से ऋषियों के नेता नमुचि ने प्रश्न करने प्रारंभ कर दिए । कृषि ने पूछा क्या नाम है नहीं इसके पुत्र हो महाराज बेन के माता का क्या नाम है? सीमा उसके पिता का क्या नाम है और वह कहाँ रहती है? माँ को ज्ञात नहीं मैं वनवासी जाती की थी जिसमें विवाह की प्रथा नहीं थी तो मेरी मौत हुई । उसकी माँ कई पुरुषों की इस तरी थी और तुम्हारी महाकाव्य वहाँ मैन से विधिवत हुआ था । नहीं महाराज वन में मृगया के लिए गए हुए थे तब उन्हें माँ मिल गई और वे उसे पकडकर राजधानी में ले आए और आपने प्रसाद ने रख लिया कुछ बडे हो मलयुद्ध करना सीखा है और कुछ इतने से जीवन निर्वाह होता रहता है अच्छा हूँ । इसके उपरांत एक अन्य युवक व्यवस्थित किया गया । उसे भी प्रश्न पूछा गया क्या नाम है भगवान हो वहाँ का नाम वायु वायु के पिता का नाम महर्षि मस्त वायु का विवाह बैन से विधिवत हुआ था अथवा पानी में वहाँ विधिवत हुआ था तो महर्षि कश्यप ने कराया था कहाँ पडे हूँ वेद वेदांग और स्मृति शास्त्र पहुँच शास्त्र स्वयंभू का तेवर शास्त्र हम पालन कर हो गई और शमा राज धर्म क्या होता है जिससे सबका कल्याण हो सके । तोर का भी आप तो का कल्याण उसे कारावास में रखने से होता है । इसके लिए उसे कारावास में रखना धर्म है । इस पर सर्वसम्मति से पृथ्वी को राजा स्वीकार किया गया । राज्य अभिषेक के समय उससे वचन दिया गया । एक एक वह के रही बोलता था और पृथु उसको स्वीकार करता जाता था । जिस कार्य से धर्म की सिद्धि होती है वहीं करोगे प्रिय अप्रिय का विचार, छोडकर काम, क्रोध, लोग मोहो और मान को दूर हटाकर सब प्राणियों के प्रति संभाग देखोगी । लोग में जो कोई भी मनुष्य धर्म से विचलित हो उसे संतान धर्म पर दृष्टि रखते हुए अपने बाहुबल से परास्त करके दंडित हो गई । प्रतिज्ञा करूँ तो मन, वाणी और कर्म द्वारा हूँ । वेद वचन का नित्य पालन कर हो गई । वेद में दंडनीति से संबंध रखने वाला जो नित्य धर्म बताया गया है उसका निशंक होकर पालन कर हो गई । जब पृथ्वी में ऋषि आदेश के पालन का वचन दे दिया उसका राज्यभिषेक कर दिया गया । इस बार राज्यभिषेक के समय जब याद और दान दक्षिणा प्रचुर मात्रा में किये गए । वहाँ जनपद में शांति स्थापित हुई, पिता में है तथा ऋषियों के आदेशानुसार धर्माचरण और आचरन का स्तर ऊंचा होने लगा । भूमि समझ चलकर उस पर कृषि की जाने लगी । अनेक प्रकार के अन्य बंद किए जाने लगे और जनपद का कार्य सुख सुविधा और संपत्ति से युक्त हो गया । इस समृद्धि की गूंज बहरमपुर जनपद के शासक विरण कश्यप के कान में भी पहुंची । वैसे तो उसके अपने क्षेत्र में भी संपन्नता विराजमान थी । इसका मुख्य कारण वहाँ के मंत्री स्मृति का शुक्राचार्य का सुप्रबंधन था तो वहाँ एक अन्य भी विशेष बात थी । वहाँ का राजा साक्षा परमात्मा का अवतार माना जाता था । इसका परिणाम ये हो रहा था के राजा ऍम राज्य के मंत्री क्या आज्ञा ईश्वर के विधान की भांति मानी जाती है? इसमें एक दोष भी उत्पन्न हो रहा था । मुझे राजा को ईश्वर की भारतीय स्वतंत्रता भी प्राप्त थी । इसका परिणाम ये हो रहा था हिरण का सपोर्ट उच्च अंक हो रहा था । अन्य प्रजाजन उसके लिए उपभोग की वस्तु समझे जाते थे । उनको निर्जीव भूमि के भर्ती नियम का पालन करना पडता था । राजा इन सब नियमों के बंधनों से ऊपर था । ठीक था, उनको परस्पर धर्म और न्याय का व्यवहार रखने पर बाध्य किया जाता था परंतु हूँ जब बात राजा और प्रजा के भीतर होती थी तो न्याय और धर्म सब राजा के पक्ष में हो जाते थे । राजा की इच्छा और सुख हो जाता हूँ, सर्वोपरि थी । लोग व्यापार करते थे और सहस्त्रों तथा लाखों रूपये का लेनदेन होने लगा था परन्तु हूँ राजा को प्रत्येक वस्तु बिना मूल्य के प्राप्त थी । कोई भी उससे मूल्य मांगने का अहसास नहीं कर सकता था । वो सबका इश्वर था, स्वामी था । एक दिन मंत्री महोदय राजा से मिलने आए तो महाराज को शुरू के विषय में बात चल पडी । मंत्री ने बताया की पुष्टि तूने राज्यकोष धन व्यय कर बहुत भूमि समतल करा दी है । वहाँ अन्य इतनी मात्रा में उत्पन्न होने लगा है कि वहाँ के रहने वालों के खाने में बढिया बच जाता है और वहाँ से अगर हमारे राज्य में बहुत ही कम मूल्य पर बिकने लगा है । ऍम कहा तब तो ठीक है । ये भूमि पर्वतीय है और यहाँ कृषि का कार्य अधिक नहीं हो सकता है । लोगों को अन्य सस्ते मूल्य पर मिल जाएगा परन्तु महाराज वहाँ की कश्यक अन्य उत्पादन का काम बंद कर रहे हैं । वो इतने कम मूल्य पर अन्य नहीं दे सकते हैं । साथ ही आनंदपुर से आने वाले अन्य का मूल्य देने के लिए यहाँ के रहने वालों के पास धन नहीं है । ऐसा करिए किए वहाँ का अन्य यहाँ आना रोक दीजिए । इससे तो प्रिया में वित्र होती हो जाएगा । लोग ये जान यहाँ से वहाँ अन्य सस्ता है । इसमें राजा को दोष देने लगेंगे । मेरा मेरा इसमें क्या दोष है? यहाँ के राजा ने भूमि को समतल कराकर कृषकों की सहायता की है, वैसी सहायता आपको भी करनी चाहिए । हम कैसे सहायता कर सकते हैं? यहाँ की पर्वतीय भूमि समतल नहीं हो सकती, परन्तु यहाँ कि पर्वतीय भूमि पर कुछ ऐसी वस्तुएं उत्पन्न की जा सकती हैं, जो हम अनंगपुर में बेचकर वहाँ से धन वापस ले सकते हैं । आचार्यजी ऐसा कराइए, उसके लिए अंगीरा जैसे विद्वान बाहर से बुलाने पडेंगे । उन विद्वानों के साथ वेदज्ञान भी आएगा और तब इतना कहकर शुक्राचार्य चुप रहा । कुछ समय तक आचार्यजी के कहने की प्रतीक्षा कर ऋण कश्यप पूछ लिया । हाँ तो महाराज वेद ज्ञान के यहाँ आने से क्या होगा? होगा, ये की आपके अधिकार कम होने लगेंगे । जान जान ये जानने लगेगा कि आप ईश्वर नहीं है, आप ईश्वर हो ही नहीं सकते तो हम नहीं चाहते हैं । मेरा ये कहना है कि आपको अपने अधिकारों में कमी करनी पडेगी । बिना इस प्रकार की व्यवस्था उत्पन्न की ये कुछ करना चाहिए । महाराज अपनी करता हूँ इसके लिए मुझे भी अपने अधिकारों में कुछ वृद्धि करनी पडेगी । आम जो मन में आये करें । मैं अपने बल और बुद्धि से ईश्वर बना हूँ और इस पद को मैं छोड नहीं सकता । शुक्राचार्य मुस्कराकर बोला महाराज, ये अपना करूंगा । शुक्राचार्य ने पर्वतीय भूमि पर फलों की उपज करानी आरंभ कर दी । परंतु धन का ये स्रोत न तो पर्याप्त था और नहीं उस गति से चल सका । इससे अनंगपुर में अन्य की उपज पड रही थी । परिणाम शुरू राज्य में असंतोष पडने लगा । ब्रम्हपुर में एक वस्तु विशेष होती थी वो था स्वर्ण । अनंगपुर से व्यापार में ब्रह्मपुर का स्वर्ण कम होने लगा और प्रजा के पास स्वर्ण बहुत कम था । इसके पास ये कुछ अधिक होता था । राजा उनसे छीन लेता था । जब लोगों का असंतोष सीमा को छूने लगा तो हिरण कश्यप को चिंता बढ गई । अब शुक्राचार्य ने सम्मति राज मैं समझता हूँ कि आप अनंदपुर जाएँ और वहाँ की उन्नति का रहस्य जाने तब तक अपने राज्य में भी कुछ कर सकेंगे । अनंगपुर जाकर वहाँ की स्थिति का अपनी आंखों अध्ययन करने का बच्चा हिरण कश्यप को पसंद आया परन्तु कठिनाई उपस् थित हुई । चुप चाप उस राज्य नहीं जाया जाए अथवा वहाँ के राजा को सूचना देकर शुक्राचार्य चाहता था कि हिरणकश्यप महाराज पृथु को पत्र लिखें और उसके साथ मैत्री स्थापित करने के विचार से वहाँ जाने की इच्छा प्रकट करें है । समझता था कि पृथु इस प्रस्ताव का स्वागत करेगा और हिरण कश्यप को अपने राज्य में आने का निमंत्रण दे देगा । ऋण कश्यप ऐसा नहीं समझता था । उसका विचार था कि वहाँ एक का एक बिना सूचना के और यदि संभव हो तो बिना प्रकट हुए चाहे और सब बात देख आएँ की किस प्रकार वह अपने राज्य में इतनी उन्नति कर रहा है । अच्छा एक दिन वह अपने कुछ सेवकों को साथ लेकर अनंतपुरी में जा पहुंचा । हिरणकश्यप का विचार गुप्त रूप से अनंतपुर जनपद में पहुंच वहाँ का वृतांत जानने का था परन्तु ऐसा नहीं हो सका । अनंतपुर का राज्य पर्वतों उसे मैदान में उतरते ही आरंभ होता था और प्रत्येक ऐसे मार्ग पर जो पर्वत से मैदान में आता था, अनंतपुर राज्य के संरक्षक बैठे थे और आने जाने वालों से पूछताछ करते रहे थे । रन कश्यप के राज्य में ऐसा प्रबंध नहीं था । अच्छा जब से और उसके साथियों को रोककर पूछा गया तो इनको बताना पडा कौन है और अपने आने का प्रयोजन ये बताना पडा था कि वे महाराज पृथु से मिलने आए हैं । संरक्षकों ने ये उचित समझा । एक दूसरे राज्य के नरेश में आने की सूचना अपने राजा को भेजनी चाहिए । पता उन्होंने ऋण कश्यप को वहीं ठहरा लिया और नगर में महाराज पृथु के पास सूचना भेज दी । नगर के बहार से जबरन कश्यप ओं का बढ जाएगा राज्य प्रसाद ने पहुंचा प्रति स्वयं रात हाथ ले उसके स्वागत के लिए आ गया प्रतुल हम पुरी के लोगों का बहुत आदर सत्कार से नगर में ले गया और उनको सुंदर, सुसज्जित और सुदृढ भवनों में ठहरा दिया गया । ऋण कश्यप को अनंदपुर में पढ रखते ही पहले से आपने अंतर दिखाई पडने लगा । बेन के राज्यभिषेक के समय यहाँ आया था परन्तु उस समय प्रजा के मुखों पर मुर्दनी छाई प्रतीत होती थी है । लोग भयभीत और कुछ ऐसे भूमि की और देखते थे मानो कि वे सब किसी महान पाप कर्म में लीन हो । अब सब लोग प्रकाशित प्रफुल्ल बदन प्रसन्न और संतुष्ट प्रतीत होते थे । दो दिन तो हिरणकश्यप तथा उसके साथ आए हुए इस की सेवा देख बडे रहने से की गई । उसको खाने पीने, रहने और सेवा तहल तथा मनोरंजन से सन्तुष्ट कर दिया गया । तीसरे दिन पृथुः आपने ऋषिगणों को लेकर हिरणकश्यप उसे मिलने गया । ऋषिगणों के नेता कश्यप मनी थे । कश्यप हिरणकश्यप ओं का पिता था और उसने पिता का अगर सबका उठकर चरण स्पष्ट किया जब औपचारिक व्यवहार और वार्तालाप हो चुका हूँ । मैं कहा महाराज हिरणकश्यप आपके दर्शन देने का कष्ट किया । हमारा नगर और हम आपके आभारी हैं । अच्छा कोई विशेष सेवा हमारे योग्य हो तो बताने की कृपा करें ऋण कश्यप ने कहा, यहाँ से हमारे जनपद को जाने वाले लोग वहाँ की बहुत प्रशंसा करते हैं । इससे यहाँ इस राज्य की समृद्धि प्रयासों से देखना चाहता हूँ तो अभी तक कुछ देखा है, अपना नहीं । अभी तक तो एक वस्तु ही देखी है और दो रात से रहे हमारा मनोरंजन कर रही है । हमारा अभिप्राय है वी रूचि देवी प्रतिभा पडा उसका महाराज आपने कुछ नहीं देखा । उससे अधिक सुंदर, सभ्य, सुशील और सुशिक्षित तो मेरी महारानी सुनती है और उससे भी सब गुणों में अधिक एक ग्रामीण की पत्नी सुभद्रा है । कुमार आज उनके दर्शन करा दे तो मैं गलत हो जाऊंगा, उन के दर्शन हो सकते थे । परन्तु जब आप अपनी महारानी को साथ लेकर आते तो इससे मुझे क्या होता है? प्रदर्शन तो महारानी जी को होते हैं । जैसे नौका में बैठा यात्री नदीपार चला जाता है । आप भी वह सौभाग्य प्राप्त कर लेते तो महारानी को मिलता है । तो हमारे लिए कठिनाई यह है कि महारानियां अनेक हैं । एक नहीं इसको लाएँ और किसको नहीं लायें । निर्णय करना अति कठिन था । आप अपनी जेस्ट राजकुमार की माता को ले आते हैं तो ठीक रहता । वहाँ राजकुमार भी अनेक हैं तो इस अवस्था के हैं कि अपने को राज्य अधिकारी माने । परंतु मैंने सुना है क्या आप का सबसे बडा पुत्र प्रहलाद हैं । वही ईश्वर भक्ति और सद्बुद्धि रखने वाला है । पर हम तो उससे बडा एक और है । उसकी माँ ने उसका नाम विक्रम रखा है । ये हमारे लिए एक ऐसा समाचार है जो हमने पहले कभी नहीं सुना था । स्वाभाविक है हमारे यहाँ के समाचार जानने में न तो आपको रुचि होनी चाहिए और न ही जानना संभव है । प्रत्योप उन्हें हसा हसते समय महाराज पृथु के मुख की शोभा इतनी बढ जाती थी ये हिरण कश्यप उसे मंत्रमुक्त देखता रह जाता था । प्रभु ने कहा, आपके आचार या तो आपको बताते नहीं अथवा स्वयं जानते नहीं । वस्तुस्थिति यह है कि इस राज्य में मेरे मंत्रिगणों को आपके राज्य की प्रत्येक जानने योग्य बात का ध्यान रहता है । हम सब जानते हैं ये विक्रम के विषय में हमें ज्ञात नहीं था । कदाचित को जानने योग्य कोई नहीं है परन्तु हम तो उसको अपना युवराज घोषित करने वाले हैं । इस पर प्रतियों ने कश्यप मुनि जी की और देखकर पूछ दिया विश्व आपका समझते हैं । मैं समझता हूँ कि ब्रहमपुरी जनपद का राजा एक चक्रवर्ती महाराज पहला होंगे, पर ये विक्रम कौन है? प्रश्न पूछ लिया । कश्यप ने कहा तब हिरण्यकश्यपु अविवाहित था तो ये वन में विचरता हुआ एक वन जान स्त्री से संबंध बना रहा था । वो इस्त्री पिछले वर्ष हम पुरी में आई है और अपने पुत्र को हिरणकश्यप ओं का सबसे बडा पुत्र घोषित कर रही है । महामात्य शुक्राचार्य भी उस पुत्र को राज्य कर दी पाने में सहायक हो रहे हैं । शुक्राचार्य जी की इसमें क्या रुचि है? वो उसे राज्य के लिए उपयुक्त व्यक्ति मानते हैं । वो क्यों शुक्राचार्य जी राजा के दो गुण मानते हैं । एक तो ये किधर सुंदर, बलवान और शाम स्वभाव का हो तो राज्य की रक्षा के लिए सदा तत्पर हो । दूसरे व्यक्ति शोभनीय हो, इसको देख उसकी प्रजा मंत्रमुग्ध, उसका सुख देखा करें और इन गुणों के प्रतिकार में राज्य में राजा को सुरक्षा ईश्वर माना जाएगा, उधर और न्याय से ऊपर हूँ और ईश्वर की वहाँ थी । वह स्वतंत्र हूँ और परमात्मा शुक्राचार्य का ये कहना है यदि कोई इस विश्व में ईश्वर है, उसका अवतार ही किसी देश का राजा होता है । परंतु महाराज पृथु नहीं । पुनर्भरण का शकों से बात की । इससे तो आती भयंकर स्थिति उत्पन्न हो जाएगी । आपके राज्य में तो ईश्वर हो जाएंगे और दोनों के भक्त आपस में ही लड मारेंगे । अब हिरणकश्यप ऑस्कर बोला महाराष्ट्र हूँ हमारे राज्य में एक ही ईश्वर है और वो मैं दूसरे ईश्वर को जिसकी आप कल्पना कर रहे हैं । हमने धक्के देकर वहाँ से निष्कासित कर दिया । उस प्रांत हो चुका है और अंतेष्टि संस्कार हो चुका है । उसी शहर की चिंता का धुआ तभी कभी दिखाई देता है परंतु एक ना एक दिन तो मैं चिता जल कर राख होगी, तब धुआ भी समाप्त हो जाएगा । हम समझते हैं । कश्यप ने उत्तर दिया हुआ उठ रहा है और वह दिन प्रतिदिन अधिकाधिक हो रहा है । इससे यही प्रकट होता है कि आग प्रतिदिन तीव्र हो रही है और संभव है कि वो एक दिन पूर्ण नगर को ही घेर लें । ये नहीं हो सकता हूँ । ब्रहम्पुरी जनपद का ईश्वरशरण कश्यप है और वहाँ सजग सतर्क और सुना सक्रिय है । उसके यहाँ रहने पर अग्नि जलती नहीं रह सकती । मैं आपका संकेत समझ रहा हूँ । आपका अभिप्राय है की प्रहलाद का प्रभाव दिन प्रतिदिन पड रहा है और वह पिछले दिन पूर्ण नगर में अच्छा जाएगा । परंतु पिताजी हमारे जनपद में गंगा का शीतल जल है । वो उस अगली को एक ठंड में बुझा देगा । बेटा ऐसा करके देखता हूँ । इस प्रकार बाद समाप्त हो गई और ऋण कश्यप को अनंतपुर जनपद में दर्शनीय वस्तुएं ऍम स्थान दिखाए जाने लगे । एक सप्ताह तक हिरण्यकश्यपु का प्रवास अनंगपुर मैं रहा हूँ । इन दिनों में एक दिन महाराज हिरणकश्यप पोको महाराज पशु कें प्रसादों में बोझ दिया गया । उस समय राज्य के प्रमुख लोगों को भी एक पडोसी राज्य के नरेश का अभिनंदन करने के लिए आमंत्रित किया गया । बहुत के पूर्व महाराज पृथु नहीं स्वयं अपने राज्य के प्रमुख व्यक्तियों का हिरणकश्यप से परिचय करवाया । सबसे प्रथम हिरणकश्यप के महारानी से अपनी पत्नी की भेंट कराई । ॅ अपने हाथ जोड प्रणाम करते हुए कहा मेरा सौभाग्य है क्या आप के दर्शन हो गए । महाराष्ट्र प्रथम है तो कहा था कि जब तक मैं अपने देश की महारानी को लेकर नहीं आता हूँ, दर्शन नहीं होंगे था । ये था आपका महारानी जी को साथ मिलने का भी यही अर्थ समझा गया । यहाँ मुझे अपने से परिचय के जो कि नहीं मानते हैं ये तो मैंने ही आग्रहपूर्वक आपके दर्शनों का हट क्या है? मेरे मन में उत्कट इच्छा थी कि विश्व के स्वामी भगवान परमात्मा के भक्त है । पहला की माता तो नहीं पिता के ही दर्शन कर लूँ । ऍफ का मुख से अनायास ही निकल गया । वो कुछ विचार कर पूछने लगा । महारानीजी पहला तो माता से युक्त है उसका मुझे कुछ अधिक संबंध नहीं । प्रत्येक व्यक्ति में अग्नि पिता से ही आती है । माता तो उन्हें मात्र है, शरीर निर्माण कर सकती है वो भी बालक के पिता द्वारा दी गई अगली के बल पर । महारानी के साथ ही अन्य युवती अति सोम्य स्वरुप परंतु शंका युक्त खडी थी । महारानी ने कहा महाराज ये है हमारे पूर्वज सादा शुभ की पत्नी सुभद्रा इस नगर से हिरण का शपूर जिसमें में समीर खडी रोहित जी की पत्नी को देखने लगा अबराम महाराज पृथु से पूछने लगा यही वह चमत्कार है । इसका वर्णन आपने एक दिन किया था । यही वह सुभद्रा है जिसको मैं अपने राज्य की जिबूती मानता हूँ । क्या विशेषता है, इनकी निगरानी तक हैं और लाखों करोडों उनको हमारी राशियों के गुण तथा बाहर एक क्षण नहीं कर देती हैं और ये इन का सौंदर्य हैं था । इसका पार आज तक कोई स्तर यात्रा पुरुष नहीं पा सका । हिरणकश्यप हंस पडा और बोला इसके अलावा क्या है ये निश्चित भविष्य की जाता है तो कुछ लाभ उठाया जा सकता है । इस सब समय तो मुद्रा महारानी के समीप मुस्कुराती हुई खडी थी । हाँ महाराष्ट्र तो कह दिया हम ये समय भविष्यवाणी सुनने का नहीं । इस समय नगर के प्रमुख स्त्रीपुरुष आपके दर्शन है । हम परीक्षा के लिए प्रतीक्षा कर रहे हैं । विमर्श हिरण का शव हूँ । आगे बढा होने कहा आई मैं आपकी अपने राज्य की अन्य विभूतियों से भेंट कराना चाहता हूँ । प्रथम उसे एक अन्य प्रौढावस्था कि व्यक्ति के सामने ले गया । उसने बताया, ये हमारे नगर सीट हैं, अपने देश का अन्य विदेशों में भेजते हैं । इस प्रकार अपने देश के लिए धनार्जन करते हैं । देश के लिए प्रदेश के लिए कैसे जो भी धन बाहर से आता है । वह देश के कारण ही आता है और धन के मुख्य रूप से तीन भाग हो जाते हैं । एक भारत उन कृषकों अथवा उन श्रमिकों के पास जाता है जो अन् उत्पन्न करने, अन्य ढोने और ले जाने का काम करते हैं । दूसरा भाग ये धर्म कार्यों पर व्यय कर देते हैं कि सैकडों आचार्यों को अन्न, वस्त्र इत्यादि देते हैं और वही इन का प्रयोग करते हुए सहस्त्रों शिक्षार्थियों को निशुल्क शिक्षा देते हैं । इस धनराशि में से सभा भवन और पूजागृह बनाए जा रहे हैं । इनकी आय का तीसरा भाग स्वयं अपने और अपने परिवार के पालन पोषण पर व्यय करते हैं । हमारे यहाँ तथा इनसे भिन्न है । कश्यप ने कह दिया सब लाभ राजकोष में आ जाता है और उसका वितरण राज्य करता है । इस प्रकार हमारे राज्य के राजकोष में आने वाली धनराशि लगभग दस लक्ष्य स्वर्ण है और उनमें से आठ लक्ष्य स्वर्ण मैं आचार्यों में बांटता हूं, भेज दो । लक्ष्य राज्य प्रसाद पर होता है । ये व्यर्थ का झंझट आप क्यों करते हैं? व्यर्थ का झंझट नहीं । ये जान मन को अपने राज्य के अनुकूल बनाने का वृहत आयोजन है । सब विद्यालयों और गुरुकुलों में हिरणकश्यप भी ईश्वर है की गूंज उठती है । नगर से धानों प्रसाद कहने लगा महाराष्ट्रीय कह रहे हैं इतनी बुद्धिमता की बात वहाँ किसी को भी याद नहीं । पृथु उसे आगे अन्य आमंत्रित नागरिकों के पास ले गया । अनंगपुर से विदा होने के पूर्व हिरणकश्यप अपने पिता कश्यप मुनि से उनके आवास पर मिलने गया । मोदी जी ने पूछ लिया पता हूँ ऐसे आये हो जब नगर में आता हूँ । यहाँ पे एक मुख्यमंत्री हैं, आपसे मेरे बिना लौट नहीं सका । वही पूछ रहा हूँ कि इस नगर में आने का क्या प्रयोजन है जो राज्यकार्य को छोड यहाँ घूम रहे हो? राज्य कारित शुक्राचार्य करते हैं हम हम क्या करते हो? आपके पिता पुत्र का अध्यक्ष है । उसके श्रेयश एम कल्याण का आयोजन दिन रह चलता रहता है और मेरे प्रिय पुत्र को श्री और कल्याण किस बात में प्रतीत होता है? स्वादिष्ट मध्य वास, मिष्ठान का भोजन, पति को मार वस्त्र, अतिश्रेष्ठ, सुंदरियों से भ्रमण, अलौकिक संगीत का श्रवण और मनोहर नृत्य के दर्शन और ये सब क्यों? इसलिए कि मुझे इनमें रस मिलता है और इन सबके भोग की मुझे सामर्थ है रस्ते मिलता होगा । वो अपनी अपनी रुचि की बात है । जिस बात में किसी की रुचि नहीं, उस की प्राप्ति में रस प्राप्त नहीं होता । रुचि स्वभाव और संस्कारों से बनती है कि दोनों पूर्वजन्म के कर्मों का फल है । मैं वही पूछ रहा था कि कौन से पुण्यकर्म तुमने किए थे जिसके कारण उन्हें ये सब अनायास ही प्राप्त हो रहा है । परन्तु भगवन इसके जानने की आवश्यकता क्या है? यदि ये कहीं उन कर्मों का फल है तो होने दे दूँ । ठीक है उन पुण्यकर्मों को जानने की आवश्यकता नहीं है । फिर भी इतना तो जान लेना चाहिए कि जो जो फल का भोग किया जाता है उसके स्रोत पुण्यफल छीन होने लगते हैं । जो वस्तु संचय होती है वो समाप्त भी होती है । बुद्धिमान लोग कोष को रिक्त होने नहीं देते, उसमें व्यय के साथ साथ आए भी करते रहते हैं । वहीं आश्रय हमें पूछने का उस पुण्यकर्मों के कोष को कैसे भर रहे हो? स्वादिष्ट भोजन, सुंदर सुखद वस्त्र, सुंदर रमणिया, मनोहर संघीय अंडरटेक तो उसको कर्मों के कोष को व्यय करने के साधन है, उनमें वृद्धि के नहीं । मैं पूछ रहा हूँ कि संचय भी कुछ करते हो या नहीं । वो आचार्यजी कर रहे हैं । वहाँ दोपहर कार्य में संलग्न में रहते हैं और राज्य का हित चिंतन करते रहते हैं । इसका फल उनको मिलेगा । उनको क्यों और कहाँ से मिलेगा? मैं उनको इसका प्रतिकार देता हूँ । उस प्रतिकार के उपलक्ष्य में ही वो कार्य कर सकते हैं । वो प्रतिकार एका धन भी वहीं से आता है और जहाँ से नर्तकियों और वेश्याओं को देने के लिए आता है । बात नहीं रही कि तुम्हारा पुण्यकर्मों का पोर्ट शीन हो रहा है । पिताजी एक दिन देव लोग से एक व्यक्ति आया था और कह रहा था की मौसी अदिति का सबसे छोटा लडका हूँ । परमात्मा का अवतार है वो हम तुम सब है । उसी की शक्ति हमें अवतरित हो रही है । अभी तो हम प्रत्येक प्रकार की कामनापूर्ति के लिए प्रयत्न करते हैं और मैं तो अपने को विष्णु से बडा अवतार मानता हूँ । मैं उससे आयोग ज्ञान और विद्या में बडा हूँ । मैंने पिता में है कि हम लोग में रहते हुए तपस्या भी की है । उसने कदाचित हमलोग के दर्शन भी नहीं किए । हाँ परंतु मैंने देखा है देव लोग हम लोग से अधिक सुंदर, सुखद और स्वास्थ्यप्रद है । आप वहाँ किस कार्य से गए थे? राज्यकार्य से गया था । इस राज्य को देवलोक से क्या कार्य हो सकता है वो यहाँ से दूर है और मार्ग अतिदुर्गम तथा पैसे भरा है । इसी कारण तो मुझे भेजा गया था । महाराष्ट्र तो का कहना था कि यदि मैं चाहूंगा तो वहाँ सुगमता से पहुंच सकूंगा था । मैं गया था और विष्णु से भी मिला हूँ । बहुत ही होनहार युवक प्रतीत होता है पिताजी आपको क्या प्रतीत होता है? यदि मैं देवलोक पर आक्रमण कर दूँ तो विजय किसकी होगी । आक्रमण अकेले करो गया था सेना के साथ सेना के साथ तो एक घडी भर में पूर्ण सेना जलकर राख कर दी जाएगी । ऐसे उसके पास एक दिव्य अस्त्र है तो नगर के नगर एक्शन में अग्नि का मुख में डाल देते हैं । आपने देखा है सर किया जाता हुआ मेरे देखते देखते पर्वत परिस्थित, पूर्ण वन और उसके साथ ही पर्वत का सत्रह ही विलुप्त हो गया वो सस्त्र के चलने पर इतना प्रकाश हुआ कि आखिर बंद हो गई और जवान खुली तो वहाँ पर सपाट जिला की भांति एक विशाल मैदान था । पर्वत रहा नवान और यदि अकेला युद्ध करूंगा तो हमको दिवेश शास्त्र नहीं चलाएगा । विष्णु तुमसे तुम्हें युद्ध करेगा और विजय उसकी होगी क्योंकि इसलिए वो अभी तक कर्मचारी है । उसने अभी तक किसी स्त्री के साथ रमण नहीं किया । वीर और तेज का पुंज हम जैसे व्यसनी व्यक्ति हो । पलभर में परास्त कर देगा । पर मुझे पिता महीने वर्ड दे रखा है कि उसको कोई मनुष्य अथवा देवता नहीं मार सकता हूँ । तो पिता मैंने ये बढ दे रखा है कि तुम दुराचार और व्यभिचार करूँ । ये मैं पिता नहीं की कहने से नहीं करता हूँ । ये तो मैं अपने ईश्वर के होने से करता हूँ । ये तो मैं हम हो रहा है कि तुम ईश्वर हो तो प्रचार जी भी यही कहते हैं । वो तो मैं मूर्ति बना रहे हैं । नहीं पिताजी ऍम करते हैं कि संभव है परन्तु मैं समझता हूँ कि वह कदाचित सही समझ रहे हैं । हमारी हत्या हो जाए तो तुम होगा । इसी कारण तुम को शीघ्र मृत्यु के पद पर ले जा रहे हैं । ऋण कश्यप को अपने पिता से भेंट का सुख अनुभव नहीं हुआ हूँ । वैसे तो पिता उससे कभी भी इस नहीं नहीं करता था परंतु जिस दिन की बात तो बहुत ही रुक्ष और कटु प्रतीत हुई थी । ऋण का शपूर राज्य अतिथिगृह से जाने की तैयारी ही कर रहा था की नगर रक्षक एक व्यक्ति के हाथ पांव बांधे हुए राज्य न्यायालय ने ले जा रहा था । न्यायकर्ता ऋषि नमुचि थे । नमुचि नगर रक्षकों से पूछा किसलिए पकडा है और इस प्रकार बांध रखा है भगवान श्री नगर की किस तरी को पकडकर अपने रस्ते पर बांधे हुए नगर से बाहर लिये जा रहा था । जब इसे रोकने का यह क्या तो ये सैनिकों को रज के नीचे कुचलकर भाग जाना चाहता था परन्तु से पकडा दिया गया है और इस कारण नहीं भागना जाए । उसके हाथ पांव रस्सी से बांध दिए गए हैं । उस तरी कौन है? ये राजपुरोहित जी की पत्नी सुभद्रा है । उन्हें महारानी जी के प्रसाद में भेज दिया गया है तो और कैसे पकडा है उसे? इस नहीं वो कहती है कि वह पूजा ग्रह से लौट रही थी । ये मंदिर के बाहर रख लिए खडा था उसे बलपूर्वक पड रस्सी बांध नगर के बाहर को भाग खडा हुआ हूँ तो वो नहीं जानती क्या नाम है तुम्हारा । न्यायाधीश ने गलती से पूछ लिया भगदत्त कहाँ के रहने वाले हो? पुरी के यहाँ क्यों आए थे? महाराज हिरणकश्यप के साथ आया हूँ उस स्त्री को किस लिए जा रहे थे आपने? महाराज हिरणकश्यप हों की आज्ञा थी इस इस तरी को अपने नगर में ले चलें । वहाँ उनका ही राज्य है और रुका छुपाओ की आवश्यकता ना होगी परंतु यहाँ राज्य उनका नहीं है । इस कारण मुझे आज्ञा हुई थी कि मैं जिस तरी को चुपचाप और बहुत प्रातःकाल पूजा ग्रह से निकलते ही पड कर ले जाऊँ । किसी नगर के बाहर संरक्षक ना होते । मैं अपने महाराजके आज्ञापालन कर पुरस्कार पाता हूँ । मार शिवम जीने एक्शन पर विचार किया । नवआरक्षकों कह दिया तुरंत महाराज के पास ले जाओ । उसका स्वामी हिरण कष्टपूर्ण नगर को छोडकर जाने ही वाला है । नगर रक्षा को उस बंदी को लेकर राज्य प्रसाद में जा पहुंचा हूँ । वहाँ महर्षि नमुचि का संदेश देकर महाराज पृथु के सामने बंदी सहित व्यवस्थित हो गया । उनको स्थिति का ज्ञान कराया गया तो उन्होंने उस बंदी को कश्यप होने के पास भेज दिया । वो समझ गए थे कि दोषी हिरणकश्यप है और वह कश्यप मुनि का पुत्र है । कश्यप ने पूर्ण का था सुनी तो आज्ञा दे दी इस व्यक्ति को नगर द्वार के बाहर एक ऐसे स्थान पर फांसी पर लटका दिया जाए । यहाँ पर महाराज हिरण्यकश्यपु जाते हुए आपने आज्ञाकारी सेवक केशव को लटका दें उसके जहाँ कर्म के लिए उसे अपने साथ हम पूरी की और ले जा सकें । ऐसा ही किया गया मध्यान् का भोजन का । रहन कश्यप अपने सेवकों के साथ राज्य प्रसाद से विदा हुआ । सेवकों में से एक में पूछ लिया महाराज भगवत अच्छा नहीं है । वो अपनी पुरी में हमारे पहुंचने की सूचना लेकर हमारे आगे आगे गया है । अंक ये बात चिरकाल तक छुपी नहीं रह सकती । अनंतपुरी के प्राचीर द्वार के बाहर ही पद के तक पर एक रक्ष से भगदत्त का शरीर लटकता देखा गया । ॅ सेवक में लटक रहे भगदत्त के शरीर हो पहचान लिया महाराष्ट्र कह दिया महाराज शव भगदत्त का है । हिरण्यकश्यपु और सेवक दोनों ने आपने रस खडे कर लिए । उस पक्ष के नीचे एक पटपर ये लिखा था ये चोर इस नगर से एक स्त्री को उठा कर ले जाता पकडा गया है । उसके अपराध स्वीकार करने पर उसे मृत्युदंड दिया गया है । पत्ते पर लिखे गए इस वाक्य को पर सब मुख देखते रह गए । एक सेवक ने कहा ये एक विदेशी को यहाँ के धर्म के अनुसार दंड दिया गया है । महाराज सहन नहीं किया जाना चाहिए । हिरण्यकश्यपु एक्शन तक रक्ष के नीचे बडा विचार बनता रहा और फिर सेवकों को कहने लगा इसके शाम को उतार और एक रस्में डाल करते चलो इसका संस्कार आपने नगर में चलकर करेंगे महाराज एक सेवक ने कहा इस अपराध का दंड नहीं दिया जाएगा । यहाँ नहीं इस समय दंड दिया जाना संभव ही नहीं पर अब तो हम इस अपमान को छमा भी नहीं कर सकते । हम इसका प्रतिकार लिए बिना नहीं रहेंगे । शव रख से उतारा गया और एक रथ पर डाल कर ले जाया गया । हिरणकश्यप को अपने एक सेवक का फांसी चढाकर एक फॅमिली अटकाया जाना एक घोर अपमान की बात ही समझ में आएगा । और अपनी राजधानी में पहुंचते ही उसने राज्य के मुख्यमंत्री शुक्राचार्य को बुला रहे जा चुका चाहे अपने साथ महाराज के जेष्ठ पुत्र प्रहलाद को लेकर वहां पहुंच गया । ऍम कश्यप पुणे आचार्य जी को आदर्श बैठाया और आपने अनंगपुर का वृतांत सुना दिया । शुक्राचार्य ने पूछा तो ये आज्ञा भगदड जी को महाराज जी ही इस मुद्रा देवी को पकडकर यहाँ ले आए? हाँ, परन्तु ये आज्ञा आपने क्यों दी? हम चाहते थे कि वो इस तरी हमारे राज्य की शोभा को बढाती परन्तु महाराज आप किसी दूसरे के राज्य की विभूति को कैसे अपना अधिकार में ले सकते हैं । इस कारण की हम शक्तिशाली हैं । हम ईश्वर हैं । संसार की सब श्रेष्ठ वस्तुओं पर हमारा अधिकार होना चाहिए । महाराज आपके राज्य के ईश्वर है, अनंतपुर के नहीं था । मैं विश्व का इश्वर नहीं हूँ । ये अधिकार अभी आपने प्राप्त नहीं किया तो वो पैसे प्राप्त कर सकता हूँ । पहले आप हम पूरी केश्वर बने रहने की चिंता करिये । आपके वहाँ से जाने के उपरांत आपके स्पुत्र ने नगर में आपके विपरीत विद्रोह खडा कर दिया है । पहला क्या कहते हो राजी? आप जनपद के राजा हैं परन्तु ईश्वर नहीं है हूँ । ईश्वर पूर्ण भगवान में व्यापक एक व्यक्त शक्ति का नाम है सूर्य, चंद्र और तारामंडल इत्यादि को बराती चलाती और उसका प्रणय करती है आपने वो सामर्थ्य नहीं है हम से कम इस राज्य में हमारी ये सामर्थ्य हैं नहीं, इस राज्य में भी नहीं है । आपको यहाँ रहने वाले मानकों पर शासन मात्र करते हैं । आप उनके निर्माण, पालन और विनाश करने में समर्थ नहीं है । हम समझते हैं कि हम समर्थक हैं । आप किसी भविष्य का निर्माण करके दिखाइए । तभी माना जा सकता है कि आप मानव निर्माता हैं । ईश्वर बनने के लिए उससे भी कहीं अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है । किरण कश्यप हस पडा और बोला प्रहलाद अपनी माँ से जाकर पता करो कि तुम्हारा निर्माण इसमें क्या है? मैंने ही किया है । मेरी ही अनुमति से इस जनपद ने सब काम उत्पन्न होते हैं । यदि मैं क्या करूँ तो मनुष्य सृष्टि ही रुक सकती है । पिताजी अब भूल कर रहे हैं । बिना सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान परमात्मा की स्वीकृति के एक दिन का भी नहीं मिल सकता । हिरणकश्यप पूने आचार्जी को संबोधित कर कहा आप से समझाइए कि मनुष्य कैसे उत्पन्न होते हैं और कैसे मेरी आज्ञा के मारे जा सकते हैं । अभी आप पिछले आइए । मैं इस बहुमंडल का ईश्वर बनने का उपाय करना चाहता हूँ । शुक्राचार्य उठ खडा हुआ । आचार्य जी के जाने से पूर्व हिरण्यकश्यपु ने उनको कह दिया आचार्यवर मैं सबसे पहले इस पृथ्वी को सन्मार्ग दिखाना चाहता हूँ । उसने मेरे सेवक की हत्या कर मेरा घोर अपमान किया है । शुक्राचार्य ने दाहिना हाथ उठा आशीर्वाद दे दिया । तदंतर मैं रात को साथ लिए हुए प्रसाद से बाहर निकल गया । शुक्राचार्य ने दाहिना हाथ उठा आशीर्वाद दे दिया । अंतर पहला को साथ लिए हुए तो प्रसाद से बाहर निकल गए । जब शुक्राचार्य प्रहलाद को साथ लेकर राज्य प्रसाद में गया था तो देखने वालों को ये भय लग रहा था कि पहला उसको फांसी चला देने का दल हो जाएगा । कई माँ से पहला अपनी पाठशाला में अपने ही पिता के विरुद्ध की प्रचार कर रहा था । राजा के लिए ईश्वर शब्द का प्रयोग अनुचित है । धर्म का शको राजा है ईश्वर नहीं । आरंभ में सुनने वाली बात सुनकर सभास् पडते हैं । परंतु धीरे धीरे बात को बार बार और स्पष्टता है । बताने पर लोग समझने लगे थे । विद्यालय के विद्यार्थियों से बात नगर में फैल रही थी । नगर में बहुत लोग ऐसे थे जो हिरण कश्यप के ईश्वर माने जाने के कारण भारी हानि उठा चुके थे । सबसे बडा आधार स्त्रीवर्ग पर हो रहा था । जनपद कोई सुंदर स्तरीय अथवा कुमारी होती तो जनपद का इश्वर उसे बुलाकर अपने प्रयोग में लाता था । यदि किसी के पास को सुंदर वस्तु होती तो उससे जनपद का वो इश्वर वस्तु छीन लेता था । ईश्वर की छह सौ वो पडी थी और नगर की सेना तथा सुबह द्वारा सादा ईश्वर इच्छापूर्ण करने में लीन रहते थे । सैनिक और सुबह सादा भारी वेतन पाते थे और सुंदर स्वादिष्ट हम दुर्लभ वस्तुओं की जूठन उनको भी प्राप्त होती रहती थी । इससे राजा के ईश्वर माने जाने में अपना लाभ मानते थे । अतएव सेवक सब राजा के पक्ष में थे । सैनिक संगठन बाल के सम्मुख सामान्य नागरिक अपने को असहाय पाता था और अत्याचार सहन करने के अतिरिक्त कुछ भी उपाय नहीं कर सकता था । अब जनपद की ईश्वर का जेष्ठ पुत्र ही कह रहा था राजा ईश्वर नहीं है । इस कारण उसकी अनियमित बातों का विरोध होना चाहिए । राजा के पुत्र और राज्य के युवराज को उनके मन की बात कहते देख प्रजा में साहस उत्पन्न हो रहा था । पूर्ण जनपद में आशा और उत्साह की तरंग उठने लगी थी और सामान्य लोग भी अब कानू कान बात कर रहे थे । ऐसे वातावरण में नगर के लोगों ने देखा कि आचार्य प्रहलाद को साथ लिए हुए ऋण कश्यप के प्रसाद ने गया है । इससे पूर्व प्रहलाद को राज्य प्रसाद ने जाते कभी नहीं देखा गया था । आठ वर्ष की आयु का था तो नारद मुनि के आश्रम से अपनी माँ के साथ लौटा था । हालात का जन्म उसी आश्रम में हुआ था । उस समय हिरण का सपोर्ट हम लोग में तपस्या कर रहा था । वहाँ वो युद्ध करने के ढंग ऍम शस्त्रास्त्रों के प्रयोग की प्रक्रिया सीख रहा था । आठ वर्ष तक वहाँ रहा और जब पूर्ण दक्ष होकर लौटने लगा तो पिता मैंने उसे ये है प्रमाणपत्र दिया था । वो अजीब है । ऍम कश्यप के लौटने पर प्रहलाद की माँ अपने पुत्र को लेकर आश्रम से लौट आई थी परंतु फिल्म कश्यप की अब उसमें रूचि नहीं थी था । उसके लिए राज्य प्रसाद से प्रथा के एक आवास बनाकर उसे वहाँ रख दिया गया था । हेलन कश्यप को अपनी शक्ति ऍम पिता में से प्राप्त वान पत्र से उन्मुक्त नृत्य अपनी पत्नी की खोज करने लगा था । नगर के लोग जानते थे कि पहला की माँ और पहला कभी राज्य प्रसाद ने नहीं बुलाया जाते हैं । प्रहलाद को शुक्रचार्य पढाता था परन्तु नारद मुनि के आश्रम की शिक्षा उसके मन पर इतनी दृढ छाप छोड चुकी थी कि आचार्य जी की शिक्षा व्यस्त हो रही थी । पहलाद उस समय अठारह वर्ष का युवक हो चुका था । वो अब वीर्यवान परन्तु सात्विक विचारों का युवक था और मन में दृढ संकल्प कर चुका था कि पिता के अनाधिकार पूर्ण ग्रहण किये गए अधिकारों को निशेष कर देगा । जब प्रहलाद ने खुलकर प्रजा ने ये कहना आरंभ क्या राजा के लिए भी धर्म के नियम होते हैं और सनातन धर्म सबके लिए एक समान है । तब शुक्राचार्य को चिंता लगने लगी जिन दिनों हिरण्यकश्यपु अनंदपुर गया हुआ था । विद्रोह की भावना प्रबल होने लगी थी । इस यात्रा में दो सप्ताह के लगभग लगे और ऋण कश्यप की अनुपस् थिति ने सैनिकों और सुबह को भी प्रहलाद की जीवन मिमांसा भली प्रकार समझ में आने लगी थी । इस कारण महामंत्री शुक्राचार्य हिरण कश्यप के लौटने की प्रतीक्षा करने लगा । जब उसे सूचना मिली कि महाराज यात्रा से लौट आए हैं तो वहाँ पर हालत को लेकर राज्य प्रसाद ने जा पहुंचा हूँ । हिरणकश्यप तो आपने आनंदपुर में हुए अपमान की बात बताने के लिए महामंत्री से भेंट करना चाहता था परन्तु जब सवेरे हुआ उसके अपने राज्य में और उसका अपना पुत्र ही उसकी प्रतिष्ठा को छीन करने में लगा है तो उसे चिंता लग गई । शुक्राचार्य ने प्रहलाद को समझाना आरंभ कर दिया । उस राज्य पाने पर स्वेच्छा से विचार में और मानवाने भोगेश्वर की उपलब्धि का आश्वासन देकर कहा हम स्वयं ही अपने पांव पर उल्हाना चला रहे हो, राज्य में राजा की महिमा को काम कर रहे हो, परन्तु आचार्यवर प्रहलाद ने दृढता से अपने पक्ष को पस्थित करने के लिए कह दिया । ये मानव जीवन तो एक बंदी जीवन है । इसमें किसी को भी स्वेच्छा से अंबाराम तक जाने की शुक्र भी नहीं है । ठीक है परंतु राजा तो मानवों से ऊपर होता है । उस सर्वे ऐश्वर्या संपन्न हैं । इसी कारण उसे ईश्वर कहा है । उसको विशेषता प्राप्त है और उस सब बंधनों से मुक्त होता है । आचार्य जी, मैं इसे एक आयुक्त कथन समझता हूँ । राजा भी बंधनों से झगडा हुआ है । वही शरीर के रहते हुए पृथ्वी से बना हुआ है और चंद रोक अथवा सूर्यलोक में नहीं जा सकता । वह वायु के बिना जीवित नहीं रह सकता । उसे भी अन्य जल की आवश्यकता रहती है । ये सब बंधन उसके लिए वैसे ही है जैसे किसी भी मनुष्य के लिए हैं । अच्छा मनुष्य होने के नाते वह जनसाधारण से श्रेष्ठ नहीं है । फिर भी आचार्य ने उसे समझाया वो राजा है । जब वो नगर में घुस जाता है तो सहस्त्रों लोग उसके दर्शन के लिए पद के तट पर आकर खडे हो जाते हैं । यहां मुझ जैसे पढे लिखे विद्वान को अपनी जीविका के लिए राजा के सामने हाथ पसारने पडते हैं । वहाँ उनके लिए लोग अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए तैयार रहते हैं । देखो पहला यदि राजा कहे तो सैनिक पूरन नगर को आर लगा भूख सकते हैं और किसी में साहस नहीं की आज्ञा का उल्लंघन कर सकें । इस कारण तुम को यह स्वीकार करना ही पडेगा । राजाओं ने सर्वसाधारण से कुछ विशेषता होती है । भगवान मैं मानता हूँ परन्तु ये विशेषता इसी कारण है । राजा कुछ विशेष कर्तव्यों का पालन करता है । यदि बहन कर्तव्यों का पालन न करें । यह विशेषता उनमें नहीं रहती और उस विशेषता का यार कैसे हो गया? राजा प्राकृत धर्मों का भी उल्लंघन कर सकता है । यदि वो उसका उल्लंघन करेगा, उस मनुष्य की भांति तो प्रसाद की छत पर चढकर चंद को पकडने के लिए छलांग लगा देता है । अपनी स्वयं हत्या कर लेगा । परंतु क्या तुम्हारा पिता किसी प्रकार के प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं? पहला गंभीर भाव बनाए हुए कहा तो क्या वो आप नहीं जानते हैं? मैं क्या नहीं जानता हूँ । यही की पिताजी प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं । किसी अन्य के परिश्रम से उत्पन्न संपदा को स्वयं आत्मसात कर लेते हैं । मेरा एक्सपार्टी को था, आप भी जानते हैं उसकी माँ का सैनिकों ने अपहरण कर लिया था और महाराज ने उसे कुछ मार्च तक आपने प्रसाद के रखा तदंतर निकाल दिया । बहुत की माँ ने आत्मग्लानि से पीडित हो अपने को जल्दी अग्नि में छोड दिया था । बताइए, ये महाराज की अनाधिकार चेष्टा थी अथवा नहीं परंतु वहां का राजा है पूर्ण जनपद की रक्षा का भार अपने हाथ में लिए हुए हैं । इस कारण उसके विशेषाधिकार भी हैं । विशेष कर्तव्यों पर विशेषाधिकार तो होते ही हैं परन्तु प्रत्येक कर्तव्य की सीमा होती है और प्रत्येक अधिकार की भी कोई एक किसी दूसरे के धर्मयुक्त अधिकारों का अपहरण नहीं कर सकता । आचार्यजी नगर में जिस किसी के पास कुछ अधिक धन एकत्रित होने लगता है, राजा उससे छीन लेता है । जब किसी की संपत्ति धर्मयुक्त उपायों में से एकत्रित की गई हो तो फिर उससे छीन लेने में क्या युक्ति है? युक्त यही है कि तुम्हारा पिता राज्य वहन करने लगा है । उसे धन चाहिए और जिसके पास हो उससे नहीं लिया जाए तो अभावग्रस्त से छीनने में तो ध्यान ही नहीं होता । राज्य जैसे दुस्तर कार्य के लिए सब धन संपदा रखने वालों को स्वतः राज्य को दे देना चाहिए और जी ऐसे नहीं प्रत्येक बात के लिए कोई नियम होना चाहिए । अनियमित छीनाझपटी से तो छठा असंतोष और रोज होगा । साथ ही उच्च से उच्च राज्याधिकारी के लिए भी उसके भोग की सीमा होनी चाहिए । गुरुजीत जब मैं ये कहता हूँ कि राजा ईश्वर नहीं, राजा मात्र है तो मेरा अभिप्राय यही है कि वह धर्म से बना हुआ है । ईश्वर असीम है, उसकी सामर्थ्य और अधिकार भी असीम हैं । मैं बुद्धिहीन और अशिक्षित प्रजा के लिए कहा जाता है कि राजा ईश्वर है । इसका अर्थ है कि वह ऐश्वर्यवान है । इस प्रकार राजा के व्यक्तित्व और नाम की सजधज से अलंकृत करने के लिए उसे ईश्वर कहा जाता है । गुरुवार आती इसलिए करते हैं । यह विवादास्पद नहीं विवाद की बात ये है कि ये सब नाम और सजधज किस प्रयोग में लाई जा रही है । चली ईश्वर होने का अर्थ यह है कि कुमुद की माँ का अपहरण करने वाला दंड से मुक्त हो सकता है भी है, अत्यंत दूषित कार्य है । यदि किसी मनुष्य को ईश्वर मान लेने से वो किसी की भी संपत्ति लूट सकता है तो उससे ईश्वर का प्रत्यय छीन लेना चाहिए । परन्तु राजा को ईश्वर मान लेने से लाभ तो तुम को भी होगा । कैसे महाराज जब अपने पिता के उपरांत तुम राज्य कर दी पर बैठोगे और तुम को भी ये सुविधाएं प्राप्त होंगी तो इस समय तुम्हारे पिता जनपद के इश्वर को प्राप्त है । मुझे इन सुविधाओं की आवश्यकता नहीं । अगर हम तो कभी मेरे लिए कल्याण का सूचक नहीं हो सकता है । मैं तो राजा से लेकर जनपद में एक निर्धन और दुर्बल व्यक्ति के लिए एक समान धर्म के नियमों का प्रचलन चाहता हूँ । यदि राजा को कुछ अधिक सुख सुविधा प्राप्त होती है तो इस कारण नहीं कि वह ईश्वर है । पर इस कारण वो राजा है और राज्य प्रबंध चलता है । तुम तो अपना हित भी विचार नहीं कर रहे हैं । मेरा ही धर्म की स्थापना में है न कि ईश्वर बनने में भरी बात तुम्हारा पिता नहीं मानेगा । वो क्या नहीं मानेंगे । अपने को ईश्वर मानना छोडेंगे नहीं । मैं उनको छोडने को नहीं कह रहा । मैं तो प्रजा को कह रहा हूँ उनको ईश्वर मत मानो पेशवर नहीं है, केवल राजा मात्र हैं और राजा ऋषियों से पक्ष किया जा सकता है । लोगों के ऐसा मानने से क्या होगा? संसार में सब प्राणी और वस्तु धर्म से बंधे हुए कार्य करते हैं । धर्मपथ के छोडने का अर्थ है भयंकर वन में भटक जाना । और ऐसे व्यक्ति को उसके परिणामों को सहन करने के लिए तैयार रहना चाहिए तो तुम अपने पिता को धमकी दे रहे हो । मैं उनको शुभ सम्मति दे रहा हूँ । ठीक है अभी तक मैं तुमको गुरु के नाते समझा रहा था । बडा यहाँ के मंत्री के नाते आज्ञा देता हूँ कि तुम अपने ही घर में स्वयं को बंदी मान कर रहा हूँ । तुम घर से बाहर निकलते देखे गए तो प्राणदंड के भागी बन जा हो गई । मैंने क्या अपराध किया है । हमने राज्य के विपरीत विद्रोह की ध्वजा उठाई है । राज्य के विपरीत विद्रोह का दंड मृत्यु है और मैं मंत्री होते हुए इस दंड के देने का अधिकार रखता हूँ । अधिकार तो आपको मृत्युदंड देने का है । हम तो मंत्री वर्ष मुझे मृत्युदंड देना अन्य आयुक्त है आपका मुझे निरापराध को बंदी बनाना भी अन्य आयुक्त है और उस न्यायायुक्त आज्ञा का पालन न करने पर मुझे मृत्युदंड देना तो बहुत अन्याय होगा तो तुम नहीं मानोगे जी नहीं मैं भी नगर के चौराहे पर खडे होकर कहने जा रहा हूँ । राजा ईश्वर नहीं होता । राजा राज्य करने के कारण कुछ विशेष सुविधाओं का भागीदार है परन्तु उसके अधिकार धर्म की सीमा में सीमित हैं और धर्म का एक लक्षण है कि जो भी कुछ व्यक्ति अपने साथ किया जाए, पसंद नहीं करता हूँ । व्यवहार उसे किसी दूसरे के साथ भी नहीं करना चाहिए । इतना कहकर प्रहलाद ने गुरुवार के चरण स्पर्श किए, उनके आवास से बाहर निकल आया । छोटा आचार्य प्रहलाद की नियुक्ति और साहस से प्रभावित हुआ था । परंतु वो समझता था कि राज्यकार्य बच्चों का खेल नहीं है । ये सब राजकुमार को समझ लेना चाहिए । वो मन में ये संकल्प कर बैठा इस राज कुमार को सलमान दिखाना चाहिए । अब ये नहीं किया गया तो जनपद में घोर उपग्रह होने लगेंगे और फिर सहस्त्रों प्रदर्शित लाखों की क्या होगी? संभावना पर आचार्य अत्यंत विक्षुब्ध होते थे । हिरणकश्यप को अनंगपुर से लौटे हुए दो सप्ताह बीत चुके थे, जब शुक्रचार्य प्रहलाद के विषय में दंड का निश्चय करने महाराज से मिलने गए । उनको राज्य प्रसाद के मार नहीं, बडी संख्या में सैनिक अस्त्रशस्त्र दिए हुए राज्य प्रसाद की और चाहते दिखाई दिए । अचारण ने एक सैनिक से पूछ लिया क्या बात है तो आप लोग इतनी संख्या में राज्य प्रसाद की और जा रहे हैं । महाराज ने पूर्ण सेना को वहां एकत्रित होने के लिए कहा है । क्यों नहीं तो पूछ रहा हूँ । चुना है कि महाराष्ट्र सेना के सम्मुख एक वक्तव्य देने वाले हैं । छत्तीस आचार्य को इसमें हुआ । अभी तक प्रजा कह रही थी कि महाराज के सब कार्य महामंत्री की सहमति से होते थे । परंतु इस समय उस से पूछे मिला सैनिकों को आह्वान किया गया है । आचार्य जी रख पर जा रहे थे और सैनिक पैदल थे । नगर चौराहे पर एक विशाल जनसमूह एकत्र था और मार्ग अवरुद्ध हो रहा था । आचार्य जी को रख रोकना पडा । राज प्रसाद को जाते हुए सैनिक भी उस भीड में समृद्ध होते जा रहे थे । मार्ग लिखना होने के कारण रख रुका तो महामंत्री ने समीप खडे एक नागरिक से पूछा यहाँ क्या हो रहा है? एक सभा हो रही है । आचार्य जी को विश्व में हुआ और बोले क्या ही सभा है । सभा तो वह होती है जहां विद्वान सभ्य जान विचार विनिमय कर रहे हो । विचार दिन में तो हो चुका है और विचार का परिणाम बताने के लिए ही लोगों को एकत्र किया जा रहा है । कौन एकत्रित कर रहा है ये? मैं नहीं जानता । सभा कहाँ हुई थी । उनमें कौन कौन थे, क्या विचार हुआ है ये जानने के लिए ही तो हम यहाँ खडे हैं । भीड में लोग कानोकान रथ की चर्चा करने लगे थे । एक निरस्त पहचाना और कह लिया महामंत्री कारत प्रतीत होता है था । दूसरे ने कह दिया मालूम तो यही होता है । यहाँ किसके आए हैं सभा भंग कराने क्यों देखते नहीं की इस भीड में कितने सैनिक खडे हैं । इससे क्या होता है? दैनिक बिता नागरिक हैं । उनकी रूचि भी इस कार्य में होनी स्वाभाविक है । किस कार्य में नागरिकों की सभा ने तो महामंत्री भी उसी सभा में आए प्रतीत होते हैं । क्या नहीं सकते हैं । एकत्रित भीड में इस प्रकार की चर्चा होने लगी थी । आचार्यजी विचार कर रहे थे कि वो अभी लौट जाएं अथवा किसी दूसरे मार्ग से राज्य प्रसाद को चल रहे हैं । वो अभी विचार ही कर रहे थे कि राजकुमार पहला एक प्रसाद से एक अति सुन्दर और ओजस्वी योग के साथ बाहर निकला । पहला देख क्षण पर गुरूजी को रात में वहाँ खडा देख जिसका परंतु शीघ्र ही संभाल और परिणाम कर बोला गुरुदेव आज हमारी सार्वजनिक सभा के अध्यक्ष पद को सुशोभित कर लिए । अब सभा का प्रयोजन जानने का अवसर जान शुक्राचार्य ने पहला से पूछ लिया ये इसकी सवा है और क्योंकि जा रही है सभा नागरिकों की है और जनपद के संबंध में एक अत्यावश्यक विषय पर विचार के लिए बुलाई गई है । परन्तु तुम कोई निश्चित होना चाहिए की सभा में सभासद केवल सभ्य प्रशिक्षक और सदाचारी ही हो सकते हैं । आप भगवान आप की कृपा से ये जानता हूँ । सभा तो हो चुकी है और उसमें सब पस्थित गण सभ्य, सुशिक्षित और सदाचारी ही थे परन्तु मैं उसमें आमंत्रित नहीं था तो इसलिए कि अब राजा के वेतनधारी सेवक है । सेवक स्वयं कुछ नहीं होता उसका कोई भी कर्म उसका अपना नहीं होता । वो अपने स्वामी का एक अंग मात्र होता है । हाँ वो तो है और गुरु जी आपके स्वामी महाराज हिरण्यकश्यपु जी नहीं सकते हैं और ना सुशिक्षित वो सदाचारी तो है ही नहीं । इस कारण आपको सभा में आमंत्रित नहीं किया गया । आप अपने स्वामी का एक अंग मात्र हैं । पहला हम विद्रोह कर रहे हो? नहीं भगवान ये विद्रोह नहीं कहना था । धर्मानुसार आचरण करने वाला व्यक्ति विद्रोही नहीं हो सकता । विद्रोह अधर्माचरण का सूचक है । धर्म क्या है? छोडना चाहते अपनी बात समाप्त नहीं कर सका कि समीप खडे ओजस्वी योग में कह दिया राजकुमार चलो सभा आरंभ करने का समय हो गया है तो वही गुणवत् मैं अपने स्वामी को मिलने जा रहा था और तुम्हारे लोगों ने मार ग्रो करता है । अब तो पीछे लौटने को भी मार्क नहीं रहा हूँ । ये तो ठीक है अब आपके लिए ना राज्य प्रसाद को जाने के लिए मार्केट है और न घर लौटने का । और तुम गुरुवर एक मार्ग अभी भी खुला है । आइए उस पर चलने का ही निमंत्रण दे रहा हूँ और वहाँ कौन सा मार्ग है धर्म का? शुक्राचार्य हस पडा और बोला हूँ विचार कर रहा हूँ । क्या सबसे ही धर्म का मार्ग है । हाँ, विचार करिए और परीक्षा करिए तो तुम सभा करो । मैं यहाँ बैठा हुआ देख सुन और विचार करुंगा । सभा में वही ओजस्वी युवा तो मैं रात के साथ प्रसाद से बाहर निकला था और उस को साथ लेकर सभा के मंच पर आया था । वक्तव्य देने लगा । उसने मानव समाज का विश्लेषण करके बताया ये इतर प्राणियों से सर्वथा विलक्षण समाज है । इसमें प्रत्येक को परमात्मा ने विकासयुक्त बुद्धि दी है । इसमें प्रत्येक को अपने अपने भाई बंधु, आपने स्टीवार्ड, पडोसी और नगर के साथियों के कल्याण की कामना करनी चाहिए और उस कल्याण के निमित्त तक प्रत्येक को यही करना चाहिए । सबके कल्याण की बात होती है । वो करने वाले का भी कल्याण करती है । श्रद्धान का विचार करके ही हमने यह निर्णय किया है । इस जनपद में हो रहे कल्याण को मिटा दिया जाए । इसके मिटाने में व्यक्तिगत हानि को वहन करके भी सबको सदुपयोग देना चाहिए । समस्या यह है कि ब्रह्मपुरी के महाराज मात्र एक मानव है । उसके अधिकार राजा होने से राज्य के संबंध में कुछ अधिक हैं, परन्तु मानव धर्म से वो भी ऐसा ही बना है जैसे कि हम सब बंधे हुए हैं । यदि वह कुछ अमानवीय व्यवहार कर रहा है तो इस कारण से हम उसे सहन कर रहे हैं । हम जनपद के विद्वान और बुद्धिमान जनों ने एकत्रित होकर ये निश्चय किया है । याद से महाराज की किसी भी अमानवीय आज्ञा का पालन नहीं किया जाएगा । मैं पूछता हूँ आप में से कितने ऐसे हैं जो किसी भी मनुष्य को अमानवीय अधिकार देना चाहते हैं । एक मंच पर से ही उच्च स्वर में कहा कोई नहीं सभा में से सहस्त्रों घंटों ने शब्द निकल गया । कोई नहीं कोई नहीं, कोई नहीं कोई नहीं । घोष का तुमुल नाथ शांत हुआ तो उसी ओजस्वी मुनि ने कहा और कुछ नहीं चाहते । एक अमानवीय कृत्य हाँ हो रहा है और महाराज के पुत्र को राज्य प्रसाद में घुसने नहीं दिया जाता । उसकी माता को अपना उचित पटरानी पद प्राप्त नहीं है कि सब अकारण हैं । ये अन्याय मिट जाना चाहिए । उसके साथ ही राज्य के कार्यभार में युवराज को उचित कार्य मिलना चाहिए । ये हमने विद्वत सभा की ओर से मांग की है । इसके पूर्ण होने पर शेष बात पर विचार किया जाएगा । इस प्रवक्ता ने कदम समाप्त किया और सभा विसर्जित कर दी । इस पर प्रजा भगवान नरसिंह की जय हो । भगवान नरसिंह की जय हूँ कि घोष करती हुई उठ खडी हुई और सब इधर उधर अपने अपने मार्ग पर चल पडेंगे । आचार्य जी के रज के लिए मार्ग अभी अवरुद्ध था । आचार्य इस भाषणकर्ता से मिलना चाहते थे परंतु मार्क साफ होने से पूर्व ही प्रहलाद आचार्य जी के पास आया और नमस्कार करके पूछने लगा पुरवासी सुना नहीं हाँ रन तू कौन था? तो वैसे नरसिंह कहते हैं क्या अभिप्राय है इसका नरों में? सिंह हम तो सिंह होगा, खेती किया जाता है हूँ परन्तु आचार्यजी नरसिंह का ठीक नहीं होता । नरसिंह राज्य करते हैं वो तुम्हारा पिता हैं । मैं विद्वत सभा के आदेश से आज राज्य प्रसाद ने उचित कार्यभार संभालने के लिए जा रहा हूँ तो तुम्हारा नर्सिंग कहाँ है? कुछ चला गया है । कहाँ कहाँ से आया? कहाँ से आया था अब आएगा तो पूछ कर बताऊंगा । क्या वो अपने राज्य में रहता है? अवश्य रहता होगा तो अब आप चली मैं भी वहीं आ रहा हूँ । अकेले ही अथवा विद्वत सभा के सदस्यों सहित अभी तो अकेला ही जा रहा हूँ । तो मेरठ पर बैठ जाओ । मैं तुमको लिए चलता हूँ । पहला गुरु जी के पीछे बैठ गया । मार्ग साफ होते ही रख चल पडा प्रजा नहीं । युवराज को मंत्री के साथ राज्य प्रसाद की ओर जाते देखा । उनमें से कुछ ये समझे कि आचार्य विद्वत सभा के निर्णय का पालन कराने के लिए युवराज को अपने साथ राज्य प्रसाद ने ले जा रहे हैं । कुछ को ये इस नहीं भी हुआ था । गृहमंत्री तो युवराज को बंदी बनाने के लिए राज्यभवन में लिए जा रहे थे । इस प्रकार भिन्न भिन्न प्रकार की बातों में लोग उत्सुकता से प्रतीक्षा करने लगी । इस सभा और युवराज के राज्य प्रसाद को प्रस्थान का क्या परिणाम होता है । राज्यभवन में रानी सुषुम्ना महाराज को नगर में हो रही इस सभा के विषय में कह रही थी रानी की दासियों ने ये समाचार दिया था । नगर के मैदान में नागरिकों की एक भरी सभा हो रही है । इस पर दानी ने महाराज को अपने आधार में बुला लिया । हिरण्यकश्यपु जब रानी के सामने आया उसने अपनी दासियों से प्राप्त सूचना महाराज के समक्ष रखती और पूछा आप क्या कर रहे हैं? मुझे इस प्रकार की सभा की कोई सूचना नहीं हैं तो मुझे इसकी सूचना होनी ही चाहिए । ऍम की आवश्यकता है तो इसको होनी चाहिए । राज्य के मंत्री को मुझे भार है क्या? मुख्यमंत्री आपसे छलना देख रहे हैं परन्तु इसका प्रमाण क्या है? ये महारानी का केवल मात्र ही तो हो सकता है परन्तु आज सभा को होने देना और उसके सहस्त्रों लोगों का एकत्रित हो जाना है । उसका प्रमाण नहीं है कि आपके हाथ से राज्य छीन कर आचार्यजी अपने शिष्य को देना चाहते हैं । मुझे दोनों में कुछ संबंध प्रतीत नहीं होता फिर भी मैं मंत्री जी को बुलाता हूँ और इस विषय में ज्ञान प्राप्त करता हूँ । ये सभा इस प्रयोजन से बनाई गई थी । यहाँ पता करिए और देरी संबंधी मानी पचास सशस्त्र सैनिकों को उन पर छोड दीजिए । कोई सभा को कुछ डालेंगे । हिरण का शव महाने के आधार से बाहर मुख्य भवन में पहुंचा । वहाँ शुक्राचार्य प्रहलाद के साथ खडे उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे । महाराज ने आचार्य को प्रणाम कर रहा हूँ । आपका कल्याण हो इस समय में आपको ही बुलाने के लिए दूध भेजने वाला था । महाराज आगे करिए सुना है कि आप नगर में किसी प्रकार की सवा हो रही है । ये क्या है? फाॅर हूँ सभा आपके राज्य की व्यवस्था के विपरी मनोज गार प्रकट करने के लिए की गई है या व्यवस्था क्या क्या है इसे सभा दूर करना चाहती है । उस के विषय में विस्तार से बताने के लिए मैं राजकुमार यहाँ आया है तो यह सभा किसी ने बुलाई थी । शुक्राचार्य ने राज कुमार की और देखकर कह दिया वहाँ अब बताओ ऍम कश्यप ने कहा हम उसके बाद नहीं सुनना चाहते हैं । ये वही ईश्वर का झगडा आरंभ कर देगा । महाराज आपको बताएगा कि सभा में क्या हुआ है । बात ये है कि सार्वजनिक सभा तो केवल वास्तविक सभा में हुए निश्चय को बताने के लिए हुई थी । वास्तविक सभा एक भवन में गुप्त रूप से हुई है और सभा ने क्या हुआ? वहाँ राजकुमार ही बता सकेगा । पर मैं तो यह विद्रोह है । जो कुछ भी है उसको जानना तो चाहिए । इन कश्यप होने पर रात के और देखकर पूछ लिया अच्छा बताओ वाला वो सभा कहाँ गई हुई थी । यह नगर मंदिर में हुई थी । उसमें कौन कौन था? मैं सभा में आमंत्रित नहीं था । इस कारण न वहाँ द्वार पर ही खडा रहा था । जब सवा हो रही थी तो मैं आचार्य जी के प्रसाद में था । वहाँ से नगर में से होता हुआ मैं अपने घर को जा रहा था । मैदान में बहुत से लोगों को एकत्र देखा हूँ । पता चला कि पिता है का एक दूत आया है और सभा कर रहा है । मैं सभास्थल पर जाने लगता । मुझे भीतर नहीं जाने दिया गया । सभा स्थान से केवल एक व्यक्ति निकला था । वो पिता मैं का दूध ही था । पहचानने लोग भी थे परंतु सुना है कि मेरे वहाँ पहुंचने से पहले ही चल दिए थे । पिता है के दूत ने मुझे पहचाना तो पूछ लिया । मैं कहा गया था उसने मेरे घर पर मुझे बुलाने के लिए संदेश भेजा था । तो मैंने बताया तो मैं आचार्य जीव के निवास स्थान पर था । इसके उपरांत उस दूध ने मुझे कहा की मैं आप से मिलकर उनकी सभा का निश्चय बता दूँ । मैंने उस महापुरुष से कहा था कि वह स्वयं आपसे मिलने परन्तु उसने कहा कि वह आपसे एक अन्य दिन मिलेगा । मिलने से पूर्व वो आपको समय देना चाहता है कि आप उसके द्वारा कही बातों पर विचार कर रहे हैं । मैं आपसे हाँ भगवान ना का उत्तर लेने आएगा तो वह मुझे पिता मैं का दास समझता है और मेरा उत्तर सुनकर मुझे ऐसा करने से मुक्त करें अथवा न करें । ये निश्चय करने आएगा जो उसने नहीं कहा हूँ । यह नगर पिता है का वैसा है और वह पिता मैं कहा दूध है इसका जो भी अर्थ आप समझे हिरणकश्यप पूछ सभा के विषय में और अधिक जानने को उत्सुक था । इस कारण उसने पूछा था उसने मुझे क्या कहना दिया है? उस ने कहा है कि आप तुरंत राज्य का उत्तराधिकारी नियुक्त कर रहे हैं । अच्छा आप अपने उत्तराधिकारी को ऋषियों से स्वीकार करवाएँ । स्वीकृति उत्तराधिकारी को आप राज्य का कार्यभार सौंप नहीं हूँ और मैं क्या करूँ? आप अपनी प्रेमिकाओं से बहुत गिलास करिए अथवा वन में आखेट और इच्छा हो वन में जाकर तपस्या करिए और मैं यदि ऐसा न करो तो तब मेरे कहने के लिए कुछ नहीं है और उसको बताओगे रही मैं उसका नाम तो पिता मैं का दूध मानता हूँ और नहीं उसके आदेश को प्रदान है । करता था नहीं । मैं समझता हूँ कि उसके पास आपके मन की बात जानने का मुझ से अतिरिक्त भी कुछ अन्य साधन है । तो एक बात नाम भी सुन लो, हम तुमको युवराज नहीं मानेंगे । युवराज वो होगा ये मानेगा की मैं ईश्वर का अवतार हूँ । विक्रम इस बात को मानता है परंतु पहला राज्य प्रसाद नहीं एक अन्य आसानी हो गर्भ धारण किए हुए हैं और उसके बाद होने तक हम युवराज की घोषणा नहीं कर सकते । हम उसको भी देखने तभी युवराज की घोषणा करेंगे । दूसरी बात है युवराज को ऋषियों से स्वीकार कराने की । हम उनका ये अधिकार नहीं मानते हैं कि वे मेरे निर्णय को रद्द करें अथवा उस पर विचार भी करेंगे । श्री बात भी सुन लो अभी मैं वृद्ध नहीं हुआ हूँ । इस कारण में अभी राज्यकार्य नहीं छोडूंगा । परन्तु पिताजी प्रहलाद ने कहा जनपद की प्रजा ने इस निर्णय को स्वीकार किया है । सब इस प्रस्ताव पर प्रसन्न और संतुष्ट प्रतीत होते थे । प्रजा मिट्टी के दे ले के समान होती है । इस पर जैसे संस्कार डाल नहीं वैसा ही इसका रूप बन जाता है । इस अवस्था नहीं मुझे कुछ नहीं तो मैं अभी चलूँगा । देखो वाला हम तुम्हारी सब चतुराई को भाग गए । ये आयोजन हमने प्रजा को मेरे विरुद्ध करने के लिए क्या है? तो उन्होंने जो अपनी अनभिज्ञता बताई है उस पर हमें विश्वास नहीं । क्या आपका अधिकार है कि आप इस बात पर विश्वास करें अथवा न करें परंतु पिताजी पिता है कि दूध की बात को स्वीकार न करने से बहुत कठनाई हो जाएगी । तुम मूर्ख हो मैंने जब हम लोग ने अपनी सामर्थ्य का प्रदर्शन किया तो कम है, मुझ पर प्रसन्न हो गए । मेरे कौशल और पराक्रम को देखकर प्रसन्न हुए थे । अब उनका विश्वास नहीं रहा । उनको चाहिए कि वे अपनी प्रसन्नता वापस ले लें । भला मुझे इससे क्या फर्क पडता है? हाँ, हम तुम से पूछते हैं तो उन्होंने ईश्वर मानते हुआ हुआ नहीं । पिता जी, मैं आपको अपना पिता मानता हूँ और तुम ईश्वर के पुत्र हो, ये भी ठीक है परंतु मेरे एक अन्य पता है । अच्छा कौन है? वो ये आचार्यजी हैं । इनसे पूर्व नारद मुनि थे और कदाचित कोई अन्य भी हो सकते हैं । वे मेरे मानस पता है और हम क्या है? आप इस मानवीय शरीर के निर्माता मानवीय पिता है । ऐसा प्रतीत होता है कि तुम को कोई अन्य गुरु मिला है जिसने तुम्हें या धूर्तता भर दी है कि तुम हमें धोखा देने लगे हो । देखो पहला तो तुम्हें आज मेरे सामने और फिर हमारी राज्यसभा तथा पूर्ण प्रजा के सामने स्वीकार करना पडेगा तो मैं साक्षात ईश्वर हूँ । पिताजी मैं असत्य भाषण नहीं करता । इस कारण जिस बात को मैं नहीं मानता उसको कहूंगा नहीं । नहीं यहाँ जा रही है क्या को गुरु मानता है । फिर भी ये कहता है कि मैं ईश्वर नहीं हूँ । महाराष्ट्र ये विवाद पिता पुत्र के मध्य है, इसमें मैं कुछ भी नहीं करूंगा । देखिए आचार्यश्री मैंने आपको विश्वास दिलवा दिया था कि हम महान शक्ति केसवानी है । हमारा आप प्रमाण दिया था कि ब्रह्मपुर में आप ही सबसे बाली है परन्तु दूसरे जनपदों में आपकी सामर्थ्य का प्रमाण नहीं दे सके प्रतियूनिट आपके प्रिय सेवा भगदत्त की हत्या करवा दी और आप वहाँ कुछ नहीं कर सके । तब तो हम समझते हैं कि महारानी सुषुम्ना का गठन सकते हैं । क्या कथन है महारानी जी का? उनका कहना है कि आप हमसे झलना खेल रहे हैं । आप हमारे मुख पर कुछ कहते हैं और पीछे बालक को दूसरी बात की शिक्षा देते हैं । शुक्राचार्य का मुख्य छह साल हो गया फिर भी वो कुछ बोला नहीं । उसे मोहन देख हिरणकश्यप ने कहा है कि आचार्यजी लक्षणों से वस्तु का ज्ञान होता है और आपके शिष्य के विचारों से आपके विचारों का ज्ञान होता है । अगर हम आज ही आपको यहाँ से चले जाने क्या क्या देते हैं और हम इस बालक को इसी प्रसादी में बंदी बना लेने की आज्ञा देते हैं । इसे हम एक माह की अवधि विचार करने के लिए देंगे । तदंतर हमसे कहीं या तो ये हमें ईश्वर माने अन्यथा ये अपने ईश्वर को बुला लेंगे और हम इसको जीवित भस्म कर देंगे । शुक्रचार्य का मुख पीला पड गया वो मौन बैठा रहा हूँ आप हिरणकश्यप ताली बजाई तो दो सुबह आ गए । उसने कहा इनको भवन के भूमि अंतर्गत आगर में बंद कर दो । वहाँ इनके भोजनादि का प्रबंध रहे । सुबह उन्होंने प्रहलाद को वहाँ से पकडना चाहा । परंपरात ने खुलकर उनकी और देखते हुए कहा इस की आवश्यकता नहीं ड्रॉप मैं स्वेच्छा से चलता हूँ । पहला तो बच्चों के साथ महाराज के आगार से बाहर निकला हूँ । शुक्राचार्य ने कहा महाराज मैं हूँ हमने आपको अपनी आज्ञा सुना दी है । शुक्राचार्य उठ खडा हुआ और महाराज आपका कल्याण हो । आशीर्वाद दे बाहर निकल गया । शुक्राचार्य राज्यभवन से बाहर निकला तो उसने देखा राज्यभवन के बाहर लोगों की भीड एकत्रित हो रही थी । लोग आचार्य जी को बाहर निकलता देख उनके रज के चारों और खडे होने लगे । शुक्राचार्य ने उनकी और प्रश्न भरी दृष्टि से देखा । भीड में से एक व्यक्ति ने पूछ लिया आचार्य वर्ष युवराज कहाँ है? वो राजभवन में है । वहाँ के साथ क्यों नहीं आया? वो बंदी बना लिया गया है तो वो अपने पिता को ईश्वर नहीं मानता हूँ । आपसी ईश्वर समझते हैं । वो इस जनपद के ईश्वर है । भगवन जनपद में बडे व्यक्ति को राजा कहते हैं था । ये बात तो महाराज मानते हैं तो वो अपने को जनपद के राजा से बडा मानते हैं । वैसे नहीं है । एक अन्य ने कह दिया उनके सेवक भगदत्त को उनकी आंखों के सामने फांसी पर लटका दिया गया और वो वो जगदीश्वर अनंदपुर में कुछ नहीं कर सके । ये बात मैंने महाराज को कही थी परन्तु वो कह रहे थे कि इसका प्रबंध हो कर रहे हैं और शीघ्र ही ब्रहमपुरी और अनंगपुर एक राज्य हो जाएंगे । लोग मुख देखते रह गए । अब आचार्यजी ने कहा राजकुमार को एक मास्क अवसर दिया गया है यदि उसने पिता कटा है ना मना जलाकर भस्म कर दिया जाएगा । आचार्जी यही अनर्थ होगा । महारानी जी को बहुत दुःख होगा तो महारानीजी को का होगी । कोई उपाय करें मैं इस विषय में कुछ नहीं कर सकता हूँ । इतना कह शुक्राचार्य ने हाथ के संकेत से लोगों को एक और हटाया और चला दिया । नगर में धूम मच गई की प्रहलाद बंदी बना लिया गया है और उसको जीवित जला देने की आज्ञा हो गई है । रहना आपकी माता को भी समाचार मिला । उसी समय पे निवास ग्रह से चलकर शुक्राचार्य के आवास पर जा पहुंची परंतु उसके यहां पहुंचने समय आचार्यजी अपने परिवार सहित यहाँ से विदा होने का विचार कर रहे थे । उनका पूर्ण परिवार रच पर बैठ चुका था और आचार्यजी गरज के अशोक समीर खडे थे । जब महारानी वहां पहुंची तो आचार्य ने आगे बढकर नमस्कार क्या पूछा हूँ क्या हो महारानीजी मैं आप के पास न्याय की मांग करने आई थी । माता जी मैं न्यायकर्ता नहीं रहा हूँ । फिर भी एक बात आपको स्मरण रखनी चाहिए इस जनपद में बलवान कि बात ही धर्म है और उस की आज्ञा का चलन ही न्याय होता है । इस कारण मैं कुछ नहीं कर सकता हूँ । अब छमा प्रार्थी मारी नहीं कर सकता हूँ । करन की मैं मंत्री पद से हटा दिया गया हूँ । साथी मैं जनपद छोड कर जा रहा हूँ । शुक्राचार्य की पत्नी और लडकी रस्में बैठी थी । आचार्य जी की एक ही लडकी थी वो भी पांच छह वर्ष की थी । हाँ और लडकी देख रही थी की महारानी जी की आंखों में आंसू बह रहे थे । उसे इस प्रकार आंसू बहाते देख माँ बेटी क्या की तरह हो गयी । आचार्यजी तृणा मुद्राएं बनाए हुए थे । महारानी को मोहन देखकर आचार्यजी ने कहा माता जी परमात्मा से प्रार्थना करिए वहीं सहायक हो सकता है । एक बार मुझे दिखाई देती है कि कहीं भगवान ने सहायता करने में देर कर दी तो आप विधवा तो होंगे ही साथ ही पुत्रहीन भी हो जाएंगे था । उस आंखों के अंधे और कानों से बहरे भगवन को कहना चाहिए शीघ्र ही सहायता भेजेंगे इतना के हैं । शुक्राचार्य सारथी के स्थान पर बैठ गया और रात को दौडाता हुआ चल दिया । महारानी ने अपने को ने सहाय पास विधवा और पुत्रहीन होने की दोनों स्थितियों से बचने के लिए आत्महत्या करने का निश्चय कर लिया । वो अपने निवास स्थान पर जा आशन लगा । बैठ कहीं और भोजन करना छोड दिया । उस समय समय पर थोडा थोडा जल लेने लगी । पहला आपके बंदी बना लिए जाने और उसके माता के अनशन का समाचार पूर्ण जनपद में और तदंतर जनपद के बाहर अन्य जनपदों में भी फैलने लगा । एक सप्ताह व्यतीत होते होते हैं ये बात हिरण्यकश्यपु के प्रासाद ने भी चर्चा का विषय बन गई । हिरणकश्यप का विचार था शुक्राचार्य उसके कह देने पर भी उसे मंत्रीपद छोड देना चाहिए छोडकर नहीं जाएगा । कम से कम जाने से पहले वो उसे एक बार उन्होंने अपने आदेश पर विचार करने के लिए रहेगा तो ऐसा नहीं हुआ । मोहम्मपुर के शासक को इस पर विश्व में था । दुश्मनों को जभी विजिट हुआ कि आचार्य नगर छोड चला गया है तो वह बहुत प्रसन्न हुई । उसने इस समाचार के विख्यात होते ही महाराज से प्रस्ताव करना आरंभ कर दिया कि मंत्री पद पर उसका भाई चंद्र नियुक्त किया जाए । चंद्र एक सेनानायक था और शूरवीर था और राजा का भक्त था । इस कारण उस पर भरोसा किया जा सकता था परन्तु प्रहलाद के बंदी बनाए जाने और उसकी माता के अन्य छोड प्राण त्यागने के प्रयास ने नगर भर में भारी असंतोष रुक मना कर दिया था । ऐसे समान्य सुषुम्ना नहीं भाई को मंत्री बनाने के प्रस्ताव पर बल देना प्रांत कर दिया ऍम था हूँ मैं अभी भी आगया कर रहा हूँ कि आचार्यजी वापस आ जाएंगे । उनको मेरे जैसा उदार नरेश तो नहीं मिलेगा परन्तु वो नहीं लौटेगा । मुझे विश्वस्त सूत्रों से ज्ञात हुआ है कि वह कामभोज क्षेत्र में असर राज्य का मंत्री बनने चला गया है । वह इतना योग्य व्यक्ति था की संसार में वैसा दूसरा मिलना कठिन है । सुषमा ने कह दिया, मैं समझती हूँ कि आप चंद्र को इस पद पर नियुक्त कर लेंगे । उसमें सब प्रकार के कई ऐसे गुण हैं जिससे वह इस पद की सर्व था क्योंकि है मशहूर है और निर्णयात्मक बुद्धि रखता है । मुझे यह है कि यदि प्रहलाद की महत्व कुछ हो गया तो मेरा जीवित रहना कठिन हो जाएगा क्योंकि उसके जीवन और आपके जीवन में परस्पर क्या संबंध है? मैं जीवन की बात नहीं कह रहा हूँ । मेरा अभिप्राय प्रजा के रोष से है । इसी कारण मैं चंद्र की नियुक्ति की बात कह रही हूँ । वो जिस प्रकार लाठी से भेडे हाँ की जाती है, प्रजा को सीधा मार्ग दिखाता होगा । आखिरकार हिरणकश्यप मान गया और उसने अगले दिन राज्यसभा में घोषणा कर दी है । आचार्य शुक्र मंत्री का कार्य छोडकर कहीं वनों में चले गए हैं था । यह आवश्यक हो गया है कि उनके स्थान पर किसी क्योंकि व्यक्ति को मंत्री पद पर नियुक्त किया जाए । हम सेना चंद्र को इस पद पर नियुक्त करते हैं । हम चाहते हैं कि वे प्रजाति के साथ वैसा ही न्याय का व्यवहार करें, जैसा आचार्य जी क्या करते थे और प्रचार गण भी इसको वैसा ही मान करें जैसा कि आचार्यजी का करते थे । चंद्र एक अभिज्ञात व्यक्ति था । केवल उसके अधीन सैनिक ही उसे जानते थे और उनकी दृष्टि में भी वह अति क्रूर और मूर्ख व्यक्ति था । परिणाम ये हुआ कि जो सैनिक प्रहलाद की माता के कारण असंतुष्ट थे । वह विचार करने लगे कि इस मूर्ख व्यक्ति के अन्याय और अत्याचार से कैसे मुक्ति पाई जा सकती है । प्रहलाद की माता के अनशन की गूंज जनपद से बाहर भी पहुंची थी और ब्रह्मपुरी के लोगों को कुछ ऐसा अनुभव होने लगा था । जनपद के देहातों के अथवा बाहर के जनपदों के लोग ब्रह्मपुरी में घूमते फिरते दिखाई देने लगे हैं । चंद्र को भी इस बात की सूचना मिली तो उसने नगर में चलते फिरते लोगों से पूछताछ आरंभ कर दी । नगर मार्गों पर सैनिक खडे कर दिए गए और वे किसी भी मार्ग पर चलते व्यक्ति को रोककर पूछ लेते हैं उसका नाम क्या है, उसका धाम कहा है । इसका पत्र है और किस काम से घूम रहा है । इससे असंतोष और भी अधिक बढने लगा । कभी कभी किसी स्त्री पर भी सम देकर उसे रोक दिया जाता हूँ तो वहीं सैनिकों से लड पडती है नगर में नित्य झगडे होने लगे । सैनिक किस प्रकार के कार्य से ऊबकर कार्य छोड विद्रोह की बातें विचार करने लगे थे । चंद्र को भी सूचना मिल रही थी उसकी वह पूछताछ की नीति असफल हो रही है । एक दिन एक अपरचित व्यक्ति ने एक सैनिक से पूछ लिया भत्र कहाँ के रहने वाले हो अनंगपुर के यहाँ किस लिए आए हो? नहीं बताऊंगा ये तो बताना पडेगा । जनपद के लोग अनंतपुर जनपद में आते हैं तो उनसे इस प्रकार की बातें पूछी नहीं जाती है परंतु यहाँ विशेष परिस्थिति उत्पन्न हो चुकी है या परिस्थिति उत्पन्न हो गई है । ये की एक महारानी ने अनशन किया हुआ है तो राजा ने उसके पुत्र को बंदी बनाया हुआ है । उसमें क्या प्राप्त किया है वो मैं जानता नहीं तो मैं तुमको नहीं बताऊंगा कि मैं यहाँ किस अर्थ आया हूँ । मैं तुम्हें पकडकर मंत्री के पास ले चलूँगा । पकडने की आवश्यकता नहीं मैं स्वयं चलने को तैयार हूँ । जब वह विवाद हो रहा था तो मार्ग पर चलते फिरते लोग एकत्र होने लगे । इस एकत्रित होने वालों में अधिकांश भ्रमों पर के नागरिक थे तो कुछ प्रदेशी भी थी । इन परदेशियों में से एक ने कहा महाराज ने नवीन मंत्री की नियुक्ति के समय ये कहा था पूर्व मंत्री की शुक्राचार्य जैसा ही व्यवहार होगा । उनके काल में पूछताछ नहीं होती थी, हाँ नहीं होती थी । सब लोग एकत्र बोल पडे । इस पर सैनिक बिगड गया और बोला ये बात आपको मंत्री अथवा महाराज से करनी चाहिए । मैं अपने स्वामी की आज्ञा का पालन ही कर रहा हूँ । इस पर एक बोल उठा तो चलो अपने मंत्री अथवा राजा के पास । इस प्रकार सैनिक उस व्यक्ति को वहाँ से पकडा राज्य प्रसाद की और चल पडा । सैनिक भी प्रजा द्वारा दी गई इस अवज्ञा से असंतुष्ट थे था । एक बार निर्णय हो जाए की पूछताछ होगी अथवा नहीं होगी इस कारण उसने इस व्यक्ति को राज्य प्रसाद में ही ले जाना उचित समझा । इन दिनों चंद्र भी अपना कार्य राज्य प्रसाद नहीं किया करता था । घटना वश चंद्र और हिरणकश्यप हो उस समय विचार विमर्श कर रहे थे जब प्रजा की एक भीड उस सैनिक के पास राज्य प्रसाद के बाहर आ पहुंची । नगर में किसी ने सूचना दे दी की पहली बात की हत्या होने वाली है । इस से पूरन नगर ही राज्य प्रसाद की और उन्होंने पडा । सैनिक ने भीतर सूचना भेज दी की वो एक विशेष व्यक्ति को पकडकर लाया है जो अपने विषय में जानकारी महाराज को ही देना चाहता है और उसके साथ बहुत से लोग वहां एकत्रित हो गए हैं । लोग महाराज के दर्शन करना चाहते हैं । राज्यभवन का प्रांगण भीड से खचाखच भर गया था और अभी अन्य लोग भी आ रहे थे । चंद्र ने आज्ञा दी सब लोग तो भीतर नहीं आ सकते हैं । इस कारण कुछ प्रमुख व्यक्ति ही भीतर आकर बता सकते हैं कि वे क्यों आए हैं सैनिक उस व्यक्ति को जिसे वह बंदी बना कर लाया था, साथ लेकर भीतर जाने लगा । उसके साथ एक अन्य व्यक्ति भी चल पडा । फॅसने पूछा हम इसलिए चल रहे हूँ मैं प्रजा के प्रतिनिधि के रूप में चल रहा हूँ । नाम ये भी डर चलकर बताऊंगा सैनिक कोई व्यवस्था की मंत्री ने कुछ प्रमुख व्यक्तियों को भी भीतर आने की स्वीकृति दी है । अतः है उस व्यक्ति को भी मना नहीं कर सकता । राज्य प्रसाद के एक विशाल आगार ने हिरण कश्यप बैठा मंत्री से परामर्श कर रहा था । सैनिक दोनों नागरिकों को लेकर भीतर जा पहुंचा हूँ । मंत्री ने प्रश्न पूछा तो इस प्रयोजन से आए हो पकडकर लाए व्यक्ति ने कहा कि सैनिक मुझे यहाँ अकारण प्रकट कर रहा है इसलिए पता लाए हो मंत्री ने सैनिक से पूछा, परन्तु तीसरे व्यक्ति ने सैनिक के कुछ कहने से पूर्व ही कह दिया व्यक्ति अपने यहाँ आने के कारण को बताना नहीं चाहता हूँ । इस पर हिरण्यकश्यपु पूछ लिया तो हम कौन हूँ? मैं प्रजा का नेता हूँ । उनको पिछले नेता बनाया है । नेता बनाए नहीं जाते हैं । नेता स्वयं बना करते हैं । बाहर खडी भीड को देख लें । मैं उनकी बात कहने आया हूँ । इस कारण मैं उनका नेता हूँ । राज्य भवन के प्रांगण में एकत्रित भीड का हो हल्ला भीतर भी सुनाई दे रहा था । इस कारण प्रमाण की आवश्यकता अनुभव नहीं हुई है । काम तो हमारी प्रजा क्या चाहती है? महाराज ने कुछ नम्रता से पूछ लिया । उसने स्वनियुक्त नेता के आने से पूर्व सब बात पर विचार किया गया और वह उस बात को पूर्ण करने से पहले किसी प्रकार का प्रजा के साथ झगडा नहीं करना चाहता था । नेता बने व्यक्ति ने कहा नगर में चलते फिरते नागरिकों से पूछताछ की जाती है । अरे कौन है, कहाँ से आए हैं और उनका क्या कार्य है? विशनगर में ये पहले इस नगर में कभी नहीं हुआ था । इस कारण असंतुष्ट भीड बाहर इस आज्ञा को वापस लेने के लिए कहने आई है । पर हम तो ये आज्ञा एक विशेष प्रयोजन से की गई है तो वह प्रयोजन ही बता दिया जाए । राजा को विवश नहीं किया जा सकता है कि वह सब कुछ प्रजा आपको बता दें । देखिए ऍम आपका पुत्र प्रहलाद कहता था कि सब नागरिक एक समान है । सबके साथ न्याय होगा । इस कारण हम इस नियम का पालन चाहते हैं परन्तु में अभी राजा नहीं बना । इस कारण उसको नगर में व्यवस्था देने का अधिकार नहीं । प्रजा ने उसको राजा बनाया है । कब? आज एक सप्ताह से ऊपर की बात है । आचार्य शुक्ला जी अभी यहीं पर थे । तब विद्वानों की एक सभा ने राज कुमार को यहाँ का युवराज नियुक्त किया गया था और महाराज को राज्य के कार्यभार से निवृत करने का निर्णय लिया गया था । परंतु हमने विद्वत सभा की बात कभी नहीं मानी । विद्वानों की बात न मानने का परिणाम अच्छा नहीं हो सकता । हमने निश्चय किया है की प्रहलाद को बुलाकर उसे हम अपने अधीन रहने की प्रेरणा दें । यदि वो मान जाए तो उसे मुक्त किया जा सकता है अन्यथा उसे मैं युदंड दिया जा सकता है । तो महाराज उसे पूछे की वो क्या चाहता है । प्रजा भी इस बात को जानने के लिए बेहद उत्सुक है । हिरणकश्यप अपने विचार किया और ताली बजाई । दो सुभट भीतर आ गए । उनको आज्ञा दे दी गई की तरह रात को यहाँ लाया जाए । सुबह तक है और पहला रात को चलाते हुए ले आए । पहला जननेता को देख मुस्कराया । ऋण कष्टपूर्ण उसका मुस्कराता देख पूछ लिया इसलिए मुस्कराये वो बालक पिताजी आपने मुझे इन के कहने पर बुलाया है । जानते हो जी तुरंत ये अपना परिचय सुन लेंगे । ये तो कहता है कि ये जननेता है । हाँ जी कहते हैं छोडो इस बालक को पता हूँ हमारा प्रस्ताव स्वीकार है अथवा नहीं? जननेता ने कहा क्या तो नहीं जानते हैं जो कुछ आपकी बात जानता हूँ, उसे अस्वीकार कर चुका हूँ । कोई अन्य और बात हूँ तो बताइए देखो मैंने एक बात विचार की है मैं इस जनपद का ईश्वर मेरे इस जनपद में अधिकार नहीं है तो तुम लोग ईश्वर को देते हूँ । रही बात अन्य जनपदों की वो यदि तुम इतना मान जाऊं कि हम पूर्ण पृथ्वी को विजय कर उसके ईश्वर बनने का यत्न करेंगे । पृथ्वी की बात पिताजी पृथ्वी वाले जाने मुझे उससे कोई प्रयोजन नहीं । मैं ब्रह्मपुर में रहता हूँ और वहाँ रहता हुआ भी मैं आप को ये अधिकार नहीं दे सकता हूँ जो ईश्वर को देता हूँ । मैं सर्वशक्तिमान है, सर्वज्ञ है, सर्वव्यापक है और सबके कर्मफल को देने वाला है । बस बस कुछ विचार करो । तुम क्या कह रहे हो तुम्हारे कर्मों का फल देने वाला मैं हूँ वो नहीं है और पिताजी आप तो उसकी इच्छा के बिना एक दिन का भी नहीं तोड सकते । देने का अरे मूर्ख बालक हमने तुम को मृत्युदंड दिया है और तो मैं बुलाया है । यदि तुम दृष्टता के लिए छमा मांगों तो हम दंड वापस ले सकते हैं । अन्यथा प्रहलाद ने पिता को चुप होते देखकर पूछा हाँ हाँ, अन्यथा जी बताइए तो तुमको मृत्यु से भय नहीं लगता । पिता जी आप मुझे मार नहीं सकते । आप अपने पुत्र की हत्या कर सकते हैं परन्तु आप नहीं जानते की आपके पुत्र के शरीर में एक दिन जीवात्मा है । मैं वो हूँ और जीवात्मा मरता नहीं उसे कोई मार नहीं सकता हूँ । इस कारण आप मेरी हत्या नहीं कर सकते हैं । बहुत दिन हो गए हो क्या आरोप ठीक नहीं । पिता जी मैं वास्तविक ज्ञान को जान उसे हृदयंगम कर चुका हूँ । वो दिखता नहीं है वो तो ज्ञानवान होना है तो तुम नहीं मानोगी । आपकी मानने योग्य बात मान रहा हूँ । मानने योग्य और न मानने योग्य का निर्णय तुम कर रहे हो ये धर्मशास्त्र कहता है पिता में है कि स्मृति शास्त्र में है । लिखा है सनातन धर्मों का पाल सबके लिए आवश्यक है । राजा रंक वाला, वृद्ध स्त्री पुरुष सभ्य धर्म का पालन करें और धर्मों में से बहुत से हैं जिनका उल्लंघन कर रहे हैं । इसी कारण जनपद के विद्वानों ने यह निश्चय किया है क्या आप राज्य कार्यभार के अयोग्य हैं? आपने इस जनपद की एक समय तक सेवा की है । इस कारण आपको सुख ऍम शांति से जीवन व्यतीत करने की स्वीकृति दी है । रात के राज्य कार को अब मैं चलाऊंगा । अरे दुष्ट हम अपने पिता राजा और ईश्वर के विरुद्ध मित्र हो करते हो जाओ । नाटक में हमारी आशा है कि तुम्हें भस्म कर दिया जाए । हिरण का शपूर सुबह को आज्ञा देने के लिए रोड में हाथ उठा कहने ही लगा था । जननेता ने हिरण का शब्दों का हाथ पकड लिया और घसीटकर सिंहासन से नीचे खींच लिया । ऋण कश्यप के मुख से निकला पकडो पकडो परन्तु वो आगे कुछ नहीं कह सका । जननेता का एक मुक्का उसके मुख पर लगा । मुक्खा वज्र के समान कठोर था और उसके मुख से बात नहीं निकल सकती है । उसके सिर को चक्कर आने लगे और वह मुख्य के वेग से भूमि पर लुढक गया । चंद्र जननेता की और आपका परन्तु जननेता की एक बात के प्रहार से ही वह दस पन्द्रह दूर लुढक गया । सामने खडा सुबह भयभीत राज्यभवन से बाहर की और चिल्लाता हुआ आया बाहर प्रांगण में खडी प्रज्ञा की भीड को पुकार पुकारकर कहने लगा बचाओ बचाओ महाराजकुमार डाला को नियंत्रण में रखने के लिए राज्यभवन के सुबह वहाँ खडे थे भीड का विचार छोड राज्य प्रसाद के भीतर भागे और भीड उनके भीतर को भागते थे स्वयं भी राज्यभवन के भीतर की और लडकी परन्तु सुबह और भीड के भीतर जाने से पूर्व हिरण्यकश्यपु भूमि पर मृत पडा था । उसका पेट भाडा जा चुका था और भूमि रक्त से लगभग हो चुकी थी । सुबह भैया भयंकर दर्शक देख सब रह गए । वो जननेता हिरण कश्यप के शव के समीप खडा हाथ के संकेत से सुबह तो और भीड को दूर रहने को कहते हुए बोला हम सब बाहर चलो । इस समय भीड में से किसी ने खोज कर दिया नरसिंह हरी की और भीतर सुबह बाहर की प्रजा ने घोष कर दिया जय हो सबका इस घोषणा निस्तेज हो अपनी जान बचाने के लिए अपने आगारों की और भाडी वहाँ उनके स्टीवर्ड रहते थे । उनके मन में भय समझ आ गया कि वह नागरिकों की सुंदर लडकियों, बहूं और स्त्रियों को हरकर महाराज के लिए लाया करते थे और इस समय भीड अपने साथ अत्याचार का प्रतिकार लेने का जब भी कर सकती है । इस भय से प्रतिशत भवन के पिछवाडे में आपने आगारों की और अपने बाल बच्चों की रक्षा के लिए भागे वो जननेता जिसका नर्सिंग हरी के नाम से जयघोष किया था । भीड को राज्यभवन से बाहर चलने के लिए कहने लगा था । भीड हर्षोल्लास ऍम ऋण कश्यप के शव को चीर फाड कर अपने मन का रोष निकालना चाहती थी परन्तु उस जननेता के संकेत और वाणी में बाल और प्रभाव था । उसके संकेत पर लोग प्रसाद से बाहर निकल जाने लगे । चंद्र जब आपने मारे जाने की बारी समझकर जननेता के पांव पर अपना सिर रखे पडा था । जननेता ने पांव की ठोकर से उसे दूर धकेलते हुए कहा उठाओ और राजमुकुट लाओ नवीन राजा का राज्याभिषेक होगा । चंद इससे साम तो ना पाकर उठा और भवन के रत्नाकार में चला गया । हिरणकश्यप की मृत्यु का समाचार भवन के भीतर और बाहर सर्वत्र फैल रहा था । बाहर प्रांगण में लोग नर्सिंग हरी की जय जयकार कर रहे थे और भवन के भीतर स्त्रियों के रोने दे होने से हाहाकार मचा था । भीतर के वो लोग जो राज्य परिवर्तन में लाभ समझ रहे थे, भवन से निकल प्रांगण में नागरिकों में जा खडे हुए थे । सुबह अपने गनवेश उतारकर सामान्य नागरिकों के पहनावे में अपने बाल बच्चों को ले भवन के पिछवाडे के द्वार से भाग रहे थे । चंद्र राजमुकुट लेकर आया तो नर्सिंग हरी ने उसे पकड लिया और बाहर प्रांगण आ गया । वहाँ ऊंचे स्थान पर वो खडा हो गया । उसने अपने समीप पहला रात को खडा कर लिया और प्रजा को शांत रहने का संकेत करने लगा । जब लोग शांत हुए तो नर्सिंग हरी ने कहा इस जनपद के सर्वजन को विदित हो । मैं प्रजापति कश्यप का कनिष्ठ पुत्र विष्णु हूँ । हिरण्यकश्यपु मेरा भाई था । मेरी विमाता का पुत्र था । काम हिरणकश्यप ओके प्रजा पर अत्याचार का समाचार पिता है के पास पहुंचा तो उन का आदेश हुआ कि मैं हिरणकश्यप को सन्मार्ग दिखाऊँ मैं आया । यहाँ आकर मैंने भाई के व्यवहार का ज्ञान प्राप्त किया । जनपद के प्रमुख विद्वानों की सभा बुलाई और फिर भाई के पुत्र प्रहलाद कुमार के विचार सुनाई । विद्वानों की सभा ने यह निश्चय किया किरण कश्यप को कहा जाए वो राजगद्दी छोड रहे और स्वेच्छा से आपने योग्य पुत्र प्रहलाद को राज्य सौ वन को चला जाए । ये संदेश प्रहलाद के द्वारा हिरण्यकश्यप को भेज दिया गया । संदेश के प्रतिकार ने उसने पहला को बंदी बना लिया और से जीवित भस्म कर देने की आज्ञा दी । मेरे पास कोई भी उपाय नहीं रह सकता था की मैं हिरण कश्यप को मार्ग से पृथक कर दूँ । सलवार ये देख नहीं सका । इस कारण उसको मार्ग से हटा देना ही उचित प्रतीत हुआ है । मैं जानता हूँ कि वह मुझसे युद्ध नहीं कर सकता । व्यसनों में डूबा हुआ व्यक्ति किसी भी चरित्रवान के सामने खडा नहीं हो सकता है । परंतु मैं उसको अवसर देना चाहता था कि वह सन्मार्ग स्वीकार कर ले । अब हिरण कश्यप का देहांत हो गया है तो अपने पापों का फल भोगने यम धाम को जा चुका है । इस कारण जनपद के सुप्रबंधन के लिए यहाँ के विद्वानों ने प्रहलाद को यहाँ का शासक नहीं करने का निश्चय किया है । अतः मैं प्रहलादका राज्यभिषेक करता हूँ और इस बालक को वो सम्मति देता हूँ कि वे धर्म के अनुसार वहाँ का राज्य चलाये । धर्म और न्याय के मार्ग में अपना पराया सब सामान होना चाहिए । यहाँ विद्वानों का आदेश पालन होगा और सब चरित्र तथा परिश्रम ियों का मान होगा । मैं रात को इस जनपद का शासक घोषित करता हूँ । इतना कहकर विष्णु ने प्रहलाद के सिर पर राजमुकुट रख कर काम काम से उसको तिलक लगा दिया । इसके उपरांत विष्णु ने अपने सफल प्रभारी और गंभीर स्वर में घोषणा महाराज पहला की जय हो सहस्त्रों उपस्तिथ जनों ने एक स्वर में इसके समर्थन में ऊंचे स्वर में कहा महाराज प्रहलाद की जय हो तो तो आपने सुना । साहित्यकार गुरुदत् प्रतिनिधि रचना प्रभात इलाका तीसरा परिच्छेद कुकू ऍम पर सोने जो मनचाहे

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प्रभात वेला Producer : Saransh Studios Author : गुरुदत्त Voiceover Artist : Ashish Jain
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