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द्वितीय परिच्छेद in  |  Audio book and podcasts

द्वितीय परिच्छेद

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प्रभात वेला Producer : Saransh Studios Author : गुरुदत्त Voiceover Artist : Ashish Jain
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द्वितीय परिचय उक्त घटना के पच्चीस वर्ष उपरांत की बात है । पिता मैं आश्रम एक नगर में परिवर्तित हो चुका था । आसाराम के चार और का वन काटकर नगर के लिए स्थान बनाया गया था । नगर की जनसंख्या कई सहस्त्र हो चुकी थी । इसमें अधिकांश युवक युवतियां और बाल बच्चे ही थे । प्रौढावस्था के लोग उंगलियों पर भी नहीं जा सकते हैं । पितान है की कुटिया के स्थान पर एक पक्का भवन बना था । भवन की डैडी पर सेवक खडा रहता था । अब बिना सूचना के भवन के भीतर कोई नहीं जा सकता था । भवन के बाहर चालीस पचास पकड के अंदर एक विशाल चबूतरा था । उस पर यज्ञशाला थी । निशाना पर छत बनी थी । वैसे वह चारों ओर से खुली थी । छत सुदृड विंडो के संभव पर टिकी थी । यज्ञशाला के चारों और एक विस्तृत खुला मैदान था जिसपर कोमल खास लगी थी । इस मैदान के उस और जिधर पितान है का आवाज किया था । महर्षियों के लिए बने हुए थे । अब इन महर्षियों के साथ बीस के लगभग ऋषि पदवी के व्यक्ति भी थी और उनके भवन आश्रम के बाहर बने नगर में थे । यह बुद्धि और विकास दो कारणों से हुआ । महर्षि अंगिरा ने अग्नि की सहायता से नए नए पदार्थ निर्माण करने आरंभ कर दिए थे । महर्षि जी अग्नि का प्रभाव भिन्न भिन्न पदार्थों पर देखते थे । इन परीक्षणों में उन्नति का एक दूसरा साधन मिल गया परन्तु एक ऐसा पत्थर मिला था तीव्र अग्नि में तपाने पर चलकर अति कट हो परंतु रात वध्य पदार्थ में परिवर्तित हो जाता था । यह लोगो धातु थीं । इस पर और अधिक परीक्षण किए गए है । देखा गया इस को और कठोर किया जा सकता है । इसके लिए अग्नि के तीव्रता आप की आवश्यकता नहीं तो अग्नि को हवा देने का प्रबंध किया गया । इस प्रकार लोग और बनाने और इसे सुधार कर इसे अति कठोर बनाने का ढंग पता चल गया । इन दो अविष्कारों ने आश्रम की कायापलट दी और आश्रम के चारों और नगर बन गया । जिस दिन आश्रम पर प्रथम मानव आक्रमण हुआ था । पिता मैंने ऋषियों को अपनी कुटिया में एक गोष्ठी बुलाई थी और उनको दो बातें कही थी । एक थी वेद ज्ञान को लिपिबद्ध करने की और दूसरी थी वन पशुओं और वन में रहने वाले असब प्राणियों से आश्रम की रक्षा का प्रबंध करना । इन दो प्रकार के चिंतन की दिशा से प्रगति चल पडी थी । इसमें वे स्त्रियां सहायक हो गई जो वन चरों के गोल को छोडकर आश्रम में रहने की लालसा करने लगी थी, उनमें प्रायोग तियां थी और वे आश्रमवासियों की भार्या बन गई । आश्रम में महर्षियों के अतिरिक्त कुछ लोग भी थे तो वानी तो सीख गए परंतु बुद्धि के प्रयोग से अधिक हाथों का प्रयोग करने में प्रसन्नता अनुभव करते थे । वे लोग आश्रम की सेवाओं में संलग्न रहते थे और जब आश्रम में स्त्रियों का बाहुल्य हुआ तो वही लोगों ने सर्वप्रथम गृहस्थजीवन चलाने का यत्न किया । उन स्त्रियों को आश्रम में आये कुछ दिन ही हुए थे कि विश्वपति उनकी देखरेख के लिए नियुक्त हुआ था । पिताजी के पास एक युवती को लेकर आया और उससे विवाह करने की स्वीकृति मांगने लगा । सहयोगी पहले भी एक बच्चे की माँ और अपने बच्चे के पिता को छोड आश्रम में रहने रही थी । पिता मैंने उस स्थिति से पूछा, पैसे भी कुछ कुछ वानी के शब्द सीख गई थी, स्त्री नहीं, पिता है की प्रश्न का उत्तर खाने दिया तो वहाँ हो गया और फिर अन्य स्त्रियां भी धीरे धीरे अपने पति पा रहीं । इसके साथ ही वनचारी जिन्होंने आश्रम पर आक्रमण किया था और आश्रम पक्ष की विजय के उपरांत पिता मेरे द्वारा आश्रम के बाहर फेंक दिए गए थे । उस समय तो भयभीत हूँ । चारों और वन में भाग गए थे तो कुछ दिन पपरा उन्हें एकत्रित हो रात के समय आश्रम की बाढ ध्यान कर रहे हैं । भीतर उस स्थान पर जा पहुंचे जहां उनका स्त्री वार्ड सोया करता था । जब भी अपनी स्त्रियों को पकड पकडकर भागने लगे, स्त्रियों ने चीखपुकार करनी आरंभ कर दी । इसपर पितान है और आश्रम के अन्य प्राणी जहाँ पडेगी अग्नि प्रदीप्त कर दी गई और वन चरों के हाथ से स्त्रियों को छुडाया गया वन चरों को बंदी बना लिया गया । अगले दिन प्रातः कार की जगह तो प्राण उन बन्दियों को पिता में है कि समूह प्रस्तुत किया गया । पुरुष संकेतों से बताते थे कि वे अपनी स्त्रियों को लेने आए हैं । पिता है का प्रश्न था कि वेस्ट प्रिया उनकी किस प्रकार अधिकार से हैं । वनचर पिता है कि वानी और नियुक्ति को समझ नहीं सके वे किस तरी को वेदवाणी अपनी साठ दिनों से अधिक समझने लगी थी । बुलाया गया और उसको पता मैंने अपनी बात बताने का यत्न किया । जब इस्त्री समझ गई तो उसने बंदियों में से एक को पिता नहीं की बात समझाई । वन चरों का उत्तर था कि वे स्त्रियां उनके पास थी, कुछ उन की लडकियाँ हैं । अतः उनके स्वामी है वे उनको मिल जानी चाहिए । पिता मैंने वो सब द्विभाषीय स्त्री से कहा कि वह उन को समझाएँ । ये पत्थर के टुकडे और एक स्त्री में अंतर है । एक इच्छा नहीं तो दूसरे में इच्छा है अच्छा वे स्त्रियां जब तक उनके साथ रहे की इच्छा नहीं करती, उनकी नहीं हो सकती । वन चरों के नेता ने कहा हमारे सामने उन स्त्रियों से पूछा जाए, ये उनके पास रहना चाहती हैं नहीं अगर सब स्त्रियाँ और बच्चे बुलाए गए । उनसे पूछा गया कि वे इन लोगों के साथ रहना चाहते हैं अथवा आश्रम में? उन्होंने आश्रम में रहने की इच्छा व्यक्त की । पिता मैंने द्विभाषियों इस तरी से पूछा ये सब की सब इनके साथ जाना क्यों नहीं चाहती हूँ? बच्चे भी तो आपने कभी ले में जाना नहीं चाहते । उस स्त्री ने बताया कि लोग अतिक्रूर हैं । ये भोजन का अभाव होने पर अपने ही गोल के दुर्बल घटकों को मारकर खा जाते हैं । पैसे स्त्रियाँ कबीले की सांझी संपत्ति हैं और सब उन का प्रयोग करते हैं । मिस्त्री के पेट में बच्चा होता है । अभी उसे पुरुष योगी सेवा से मुक्ति मिलती है । पिता महीने व्यवस्था दे दी । जो स्त्री स्वेच्छा से उन के साथ जाना चाहे जा सकती है अथवा जो स्त्रियाँ अपने पुरुष को अपने पास रखना चाहेंगे यहाँ आश्रम में रख सकती हैं परन्तु यहाँ रहने वाले को आश्रम की व्यवस्था का मान करना पडेगा । स्त्री तो कोई भी उनके साथ जाने को तैयार नहीं हुई । हाँ, दो पुरुष अपनी स्त्रियों के पास रहने के लिए तैयार हुए और उनकी पत्नियों ने उनको अपने साथ आश्रम में रखना स्वीकार कर लिया । इसके उपरांत भी समय समय पर वनचर आश्रम पर छात्र डालते रहे । एक बार एक स्त्री का अपहरण भी किया गया और दो दिनोपरांत उसका आधा खाया मृत शव वन में पडा मिला । इस बात से आश्रमवासियों को अपनी रक्षा के लिए साधन निर्माण करने का विचार करना पडा । संसाधनों के निर्माण ने लाठियों कदम पर बहनों और अन्य अस्त्र शस्त्रों का अविष्कार हुआ । काम है कि भवन के बाहर यज्ञशाला में नित्यप्रति दो बार यज्ञ होता था और नित्य सांयकाल के समय जग्गी के उपरांत प्रवचन होता था । ऍम को श्रवण करने वालों की संख्या पडने लगी थी । कभी कभी कोई मनुष्य कहीं बाहर से भी आ जाता था । इस से ये अनुमान लगाया जा रहा था की कुछ अन्य भूभागों पर भी मैथुनी मानवीय सृष्टि हुई है । जो भी मनुष्य हाँ आता था वाणिज्यिककर वहीं रहने लगता था । इस प्रकार जनसंख्या बढ रही थी और धीरे धीरे आश्रम नगर का रूप ले रहा था । इस बडी हुई जनसंख्या के लिए खाने पीने का प्रबंध भी होने लगा था । बहुत से फलों के उद्यान बना लिए गए थे । साथ ही अन्य भी उत्पन्न होने लगा था हूँ । ठीक था श्रीनगर में सुविधाएँ उपलब्ध थी और वन के हिंसक पशुओं से तथा वनचर मानवों से रक्षा भी सुगम थी । पिता में है कि प्रवचनों से लोग परस्पर सहयोग और सहकारिता का आचरण स्वीकार कर रहे थे । फिर भी दिन प्रतिदिन जीवन संघर्ष कठोर होता जाता था । दिन प्रतिदिन अधिकाधिक परिश्रम करना पड रहा था । ये स्थिति थी जब का ये है ब्रितानी लिखा जा रहा है । महर्षि मरीचि के साथ छह अन्य ऋषि कार्य कर रहे थे तो नगर के रहने वालों की व्यवस्था चलाते थे । ये सब के साथ मरीची के शिष्य भी थे । मिलने से एक था जो वाणी की शिक्षा नगर के बालक बालिकाओं को देता था । अब वाणी शिक्षा के अंतर्गत ही लिपि की शिक्षा भी दी जाती थी और सब वाणी जानने वाले वाणी लिखते भी थे । एक ऋषि भोजन की व्यवस्था पर विचार करता था । वह नए फलोद्यान लगता था और अधिक तथा स्वादिष्ट फलों की उपज का प्रबंध कर रहा था । अन्य की उपज भी की जा रही थी और अन्य की अग्नि में भुनकर नागरिकों को उपलब्ध कराया जा रहा था । महर्षि मरीचि के अधीन कृषि वस्तुओं का प्रबंध कर रहा था । अब खालों के स्थान पर बच्चों की छालों से तंतु निर्माण होने लगे थे और इन तंतुओं को बोलने का ठंग आवश्यक रित हो चुका था । एक दिन महर्षि मरीचि एक नागरिक को लेकर पिता नहीं के पास उपस् थित हुए कितान है की उसे वहाँ लाने का कारण पूछने पर महर्षि ने बताया इस व्यक्ति के घर में तीन प्राणी है ये है उसकी पत्नी और स्टेट बच्चा है । ये सात आठ साल का प्रतीत होता है परंतु उसके घर में कंदमूल, सुखा, सुखा कारण ढेरों के ढेर लगे पडे हैं उसका क्या किया जाए । पिता महीने उस व्यक्ति से पूछा क्या नाम है उपदेश जितना महर्षि बता रहे हैं क्या इतना तुम्हारे घर में है तो भवन है कहाँ से आया है? मैं और मेरी पत्नी नियम से नित्य उद्यान में जाते हैं और वहाँ से कंदमूल जितने हम उठा सकते हैं, ले आते हैं । हम सब खा नहीं सकते । कंदमूल को सुखाकर सुरक्षित करने का ढंग मैंने सीख लिया है । यह महर्षि अंगीरा ने मुझे सिखाया है । मैंने सुखाने का चूडा घर पर तैयार किया है । उसमें अगली जला दी जाती है और उसके चारों और भट्टी की गुफा बनी है । उसमें हम सुखाने वाली वस्तु रख देते हैं । वह सामान्य ऊष्मा होने के कारण चलती नहीं परंतु हुए हैं, सूख जाती है । जब मैं सर्वथा सूख जाती है तो उस को ऐसे स्थान पर रखता हूँ जहाँ नेतृत्व पाती है । हम नीति ऐसा करते हैं । हमारे खाने से या बहुत अधिक होती है है । हम एकत्र कर रहे हैं इसलिए एकत्र कर रहे हो । वर्षा ऋतू में कंदमूल नीरस हो जाते हैं और हम उस समय इसका प्रयोग करेंगे । महर्षि मरीचि ने कहा परंतु तुम्हारे पास इतना है कि तुम्हारा पूर्ण परिवार वर्ष भर में उसे समाप्त नहीं कर सकेगा । पिता मैंने पूछा होता हूँ उसका क्या करोगे? पिता मैं मुस्कुरा रहे थे । इससे उत्साहित उप देव ने कहा भगवान जिस किसी को भी आवश्यकता होगी उसे दे दूंगा । बिना प्रतिकार में कुछ लिए नहीं । भगवान मैं और मेरी पत्नी ने परिश्रम किया है । इस कारण इस परिश्रम का प्रतिकार ले लूंगा । हो गई इस समय नहीं बता सकता । उस समय अपने सुख के लिए कुछ भी ले सकता हूँ । उदाहरण के रूप में महर्षि के सुपुत्र कश्यप हैं पे बने हुए बंद खाने में बहुत रुचि रखते हैं । जब खाने के लिए मांगेंगे तो मैं उनसे अपने पुत्र के लिए सुंदर अक्षरों में मंत्रों की प्रतिलिपि मांगा । इस प्रकार महार्षि कुलहा को यदि वे रस्में कंधे खाने होंगे तो मेरी पत्नी के लिए सुंदर उत्तरीय देंगे । पिता में है । उस देव की बात सुनकर गंभीर विचार में मग्न हो गए । कुछ विचार कर खिलखिलाकर हंस पडे और बोले महर्षि मरीचि, अब बताओ तुम क्या चाहते हो? कितना इसमें कौन सपात किया है जिसे बंदी बना कर लाए हो? प्रताम है मशीने समझाने का यह क्या ये फल सबकी सांझी संपत्ति है । इसमें उन को अपने अधिकार में लेकर चोरी की है । ऐसे ही पिता मैंने समझाया जैसे नदी का जल अथवा भूमि सबकी सांझी संपत्ति है । जब तक किसी दूसरे को जल भरने अथवा भूमि का प्रयोग करने में कोई बाधा नहीं डाल सकता, तब तक ये अपने परिश्रम से जितना भी ले ले, ये चोरी किस प्रकार हो गई? मारी चीज युक्ति को समझने के लिए पितान है का मुख देखता रह गया । पिता मैंने देखा कि महर्षि समझी नहीं । इस कारण बात को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने कहा मान लो की नदी सूख जाए और उसमें जल इतना कम रह जाए कि सबके पीने योग्य ना रहे हैं । जल भरने को नियंत्रण में करना पडेगा परन्तु जब तक जल का प्रवाह था है अब नियंत्रन होगा और अनाधिकार भी यहां की भूमि उर्वरा है । एक वृक्ष से बीस बीस परिवारों का भोजन उत्पन्न होता है । जब तक ये आवश्यकता से अधिक उपज रहा है तब तक नियंत्रन व्यस्त है और उसका यहाँ से उठा लाना चोरी नहीं । इसमें और उसकी पत्नी ने परिश्रम किया है और फलों को तथा कंदमूल को बीनकर और उठाकर घर लाए हैं । वहाँ उन्होंने और अधिक परिश्रम किया । उन्होंने उनको भुनकर सुरक्षित क्या है यदि अब किसी प्रकार से उस परिश्रम का प्रतिकार चाहते हैं । पि ऍफ अपराध है । वाणिज्य समझ गए ये उपदेवता थलों का मूल्य नहीं ले रहा है परन्तु अपने परिश्रम का प्रतिकार लेना चाहता है । महर्षि ने समस्या का एक अन्य पक्ष बताया । इसके भुने कंधे अति स्वादिष्ट होते हैं और लोग इसको कुछ भी देने को तत्पर हैं । यदि इसकी भुने काम नहीं आती स्वादिष्ट हैं तो क्या वह इसका दोष है और कोई अन्य भी तो महर्षि अंगीरस से सीखकर वैसे ही कंधे एकत्र कर सकता है । मवेशी निरुत्तर हो गए । इस कारण अब उसने व्यवस्था की बात की कहाँ भगवन इससे नगर में अव्यवस्था उत्पन्न हो जाएगी । इस वर्षा ऋतू में यह अपने कंदमूल लोगों को किसी उपयोगी वस्तु के नहीं देगा । अगले वर्ष पूर्ण नगर ही यह व्यवसाय करने लगेगा और तब बहुत से फल व्यस्त हो जाएंगे । जब बहुत से लोग यह कार्य करने लगेंगे तो इनकी कंदमूल की मांग कम हो जाएगी । तब अगले बारिश वह काम संचय करेगा अन्यथा इसका परिश्रम व्यर्थ जाएगा । देखो महार्षि समस्या ये नहीं कि जो तुम प्रकट कर रहे हो । समस्या यह है कि वह भुने गंद खाने में हानिकर तो नहीं । मैं समझता हूँ कि अतरजी से वे कहो कि इसके कंदमूल की परीक्षा की जांच हो, पर निश्चित किया जाए ये स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकर तो नहीं उपदेवता तो महर्षि अच्छी के पास चले जाओ और आपने भुने पदार्थों की परीक्षा करवा हो । यदि वे स्वास्थ्य के लिए हानि करना हुए तो तुम यह व्यवसाय करने में स्वतंत्र हो । देखने पितान हैं को प्रणाम किया और अत्रिजी के द्वार पर जब बच्चा जब उप देव चला गया तो मशीने पिता नहीं ऐसे कहा आपकी व्यवस्था को मैं हानिकर सिद्ध नहीं कर सकता परन्तु मुझे इस व्यवहार के गर्व में लोग मुझ हत्यादि दुर्गुण छुपे हुए दिखाई देते हैं । महर्षि तो में लोग मुकाम और क्रोध इस व्यवहार के कारण नहीं दिखाई देते है परन्तु आलस्य, प्रमाद और निष्क्रियता में छिपे प्रतीत होते हैं । परिश्रम करके उसका प्रतिकार पाना पाप नहीं परन्तु आप ये है होगा । कुछ लोग बिना प्रतिकार दिए इसके परिश्रम का फल भोगने की इच्छा करेंगे । वे स्वादिष्ट पदार्थों को खाने की कामना करेंगे । उस कामना की पूर्ति में उनको कुछ प्रतिकार में देना होगा । सबके पास प्रतिकार में देने को होगा । नहीं । वो लोग कामना से पीडित । इसका परिश्रम इससे लूट लेना चाहेंगे । इसको परिश्रम करने से मना करने की आवश्यकता तब होगी । महर्षि यात्री इनका खाना हानिकर बताएंगे अन्यथा इसे परिश्रम करने से रोकना पाप हो जाएगा । रोकने की आवश्यकता उनकी होगी जो इसके परिश्रम का मूल्य तो दे नहीं सकेंगे । फिर भी इसके परिश्रम के फल को प्राप्त करना चाहेंगे तथा मैं समझता हूँ कि समस्या ये है कि काम आ बिभूति को धर्म पर आरूढ रखा जाए । भगवन मैं इस लोग को ही रोकने की आवश्यकता समझता हूँ । यह लोग नहीं है की जान उपकारी परिश्रम करने की प्रवृत्ति है । इसे प्रोत्साहन मिलना चाहिए । महर्षि को देव की सूचना उनके एकमात्र पुत्र महाशीर कश्यप ने दी थी । उसे इसके बने हुए कंधे अति स्वादिष्ट लगे थे परन्तु जब उसने कुछ खाने को मांगे तो देव ने कह दिया कि वेदमंत्रों के प्रति लिखित पृष्ठ के लिए मैं एक मुट्ठी भर काम देगा । कश्यप समझता था कि जैसे बच्चे कंदमूल बिना कुछ लिए दिए मिल जाते हैं वैसे ही ये भी मिल जाना चाहिए था । उसने अपने पिता महर्षि मरीचि से उप देव की बात बता दी । प्रश्य भाषा कर रहा था । सुखदेव के सब संकुचित कंधे छीन कारण लोगों में बांट दिए जाएंगे और वह पिता के पिता नाम है कि पांच से लौटने की प्रतीक्षा कर रहा था । मरीची देव को महर्षि अत्रि के पास पे स्वयं अपने आवास पर पहुंचा तो कश्यप ने उत्सुकताओं से पूछा देव का क्या हुआ है? यह व्यवस्था हुई है कि महर्षि अत्रि यह बताएं कि उनके भूने कंदमूल स्वास्थ्य के विचार से कैसे हैं । यदि वे स्वास्थ्य के लिए हानिकर हुए तो ये सब के सब नदी में बहा दिए जाएं अन्यथा उसके कार्य में किसी प्रकार का दोष नहीं है । ऍम रह गया, बनाया उसके मुख से निकल गया था । जी, आपने पितान हैं को भलीभांति समझाया नहीं । जो तुमने मुझे बताया था, वह सब मैंने पिता नहीं ऐसे कहा और स्वयं ही एक आपकी नियुक्ति की । परन्तु मेरा समाधान हो गया है कि उसने कोई अपराध नहीं किया । पिता मैंने कहा है किसी को जनोपयोगी परिश्रम करने से रोका नहीं जा सकता । यदि महर्षि अपनी नहीं ये व्यवस्था दी कि वे अपनी भुने कंदमूल हानिकर नहीं और भोजन का स्थानापन्न हो सकते हैं, तब देव को यह कार्य करने से रोक नाम होगा । साथ ही जो परिश्रम करता है भी है, उसका प्रतिकार पाने का अधिकारी है । परंतु पिताजी अर्थव्यवस्था नहीं । यह एक दूषित कार्य होगा । इसका परिणाम यह होगा उसके स्वादिष्ट कंदमूल की माँग नगर में बढेगी । लोग इन को प्राप्त करने के लिए उप देव को उसकी मांग के अनुसार प्रतिकार देंगे । इस वर्ष उनके पास अमूल्य वस्तुओं का विस्तृत भंडार हो जाएगा, तब है । इन वस्तुओं के प्रतिकार में अन्य मूल्यवान वस्तुएं मांगेगा । उसमें उत्तरोत्तर लोग बढेगा और लोगों में हीन भावना आएगी तथा नगर की शांति भी भंग हो सकती है । देखो कश्यप तुम्हारी नियुक्ति में एक बहुत बडा चित्र है । पिता मैंने कहा कि उसे परिश्रम करने से मना नहीं किया जा सकता है । उसे अपने लिए परिश्रम का प्रतिकार पानी से मना नहीं किया जा सकता । रही बात उसके समृद्ध हो जाने की और लोगों के उस द्वारा निर्मित कंदमूल की मांग बढ जाने की इसका हुवा ये नहीं है । उस पर प्रतिबंध लगाए जाएं पर लोगों में काम को शांत किया जाए । कुछ अन्य लोग उसको फलता फूलता देख स्वयं ऐसा व्यवसाय करने लगेंगे । ये भी संभव है कि घर घर में उस जैसे पकाने वाले चूल्हे बन जाएंगे और लोग घर पर ही वैसे कंदमूल तैयार करने लगेंगे । तब उसकी समृद्धि पर स्वाभाविक सीमा लग जाएगी । परन्तु पिताजी इससे जनसंसाधन के स्वभाव में परिवर्तन होगा और इस प्राप्ति की इच्छा में वृद्धि होगी । इससे कामनाएँ बढेगी और लोग आपका मार ग्रहण करने लगेंगे । उत्तर कि सब कुछ संभव है, परंतु क्यों कि जनसाधारण में ऐसे मूर्ख हैं जो अपनी कामनाओं पर नियंत्रण नहीं रख सकते हैं । इस कारण किसी को अस्वीकार करने तथा अविष्कृत पदार्थ का निर्माण करने से मना नहीं किया जा सकता है । था । यदि उस द्वारा निर्मित पदार् स्वास्थ्य के लिए हानिकारक सिद्ध हुआ तो उसे रोक दिया जाएगा । पिताजी तो ऐसे होगा । जैसे किसी स्त्री को आपने गोवा अंगों का तथा शरीर पर लोग हाय मान स्थलों के सार्वजनिक स्थलों पर प्रदर्शन करने से मना किया जाए । इस कारण की उसके पास सुंदर मनोहर अंग हैं और उनका प्रदर्शन करने से मना करना उनकी स्वतंत्रता पर बाधा होगी । मुझे स्मरण है कुछ वर्ष हुए किस तरी आपने वक्त शोज नग्ना रखकर नगर में घूमा करती थी और पिता महीने उसको मना कर दिया था । मैं समझता हूँ कि उप देव भी आपने भुने कंद मूलों के स्वाद का प्रदर्शन कर जनसाधारण की मनोवृत्ति को बिगाड रहा है । मैं समझता हूँ तुम्हारे उदाहरण में और उस देव की बात में अंतर है तुम बताओ उसके भरे हुए कंदमूल खाने से शरीर में किसी प्रकार का विकास हुआ है । इस पर कश्यप ने मुस्कुराते हुए कहा स्वास्थ्य के विचार से ये भुने कंधे, बच्चे, कंधों से अधिक सुख करण हितकर प्रतीत हुए हैं । मैं कई दिन से उस से लेकर खाता रहा हूँ । ये अधिक पुष्टिकारक हैं, सुगमता से पश्चिमी और शौचादि को नियमित करते हैं हूँ । कल इस ने मुझे कहा भविष्य में ये मुझे कंधे तब तक देगा जब तक नौ से नित्य एक प्रश्न वेदमंत्र सुरेश में लिख कर दिया करूँ तुम इसमें दो समझते हूँ । मैं वेदमंत्र के एक पृष्ठ का मूल्य उसके एकाद कंधे से अधिक मानता हूँ तो मैं चाहिए था । उससे एक पृष्ठ के लिए दो दिन के लिए काम की मांग करते हैं । कश्यप मुख देखता रह गया । मर्जी ने कहा देखो पुत्र! मैं तो उसकी सब इच्छा जान कहता हूँ । ऍम मेरे निवास स्थान पर जाकर वेदमंत्र निशुल्क ले जाया करो । परिणाम ये होता है कि मैं अपना कर्तव्य पालन करता हूँ । इसके प्रतिकार में उसके बंद नहीं मानता हूँ उसका प्रतिकार । यदि वह सब कुछ समझता है तो स्वयं देता दंद खिलाता अथवा कुछ अन्य प्रकार से मेरी सेवा करता हूँ । प्रश् अपमान हो गया । पिता ने कहा तो मैं भी और स्वाध्याय करूँ । पिता में है कि प्रवचनों को सुना करूँ, हमारा ज्ञान अधूरा प्रतीत होता है । इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ अन्य उद्यमशील लोग अंगीरा से फल बोलने की भट्टी बनाने का ढंग और उसके प्रयोग का ठंग सीखने जा पहुंचे और वर्षा ऋतु के उपरांत नगर में पांच छह अन्य कंधों का व्यवसाय करने वाले इस क्षेत्र में आ गए । सामान्य लोगों में कच्चे कंदमूल खाने के स्थान पर भुने कंदमूल खाने का स्वभाव पडने लगा । उसके साथ कश्यप नहीं देखा । पिता मैंने मुद्रा का अविष्कार किया है । इस समय तक स्वर्ण और रजत धातु शुद्ध व्यवस्थान ने प्राप्त की जा चुकी थी । लोहा तो इसके उपरांत खनिज पदार्थों से निकाला गया था । व्यवस्थानुसार स्वर्ण अखबार रजत के एक ही बार शुरू टुकडे बना । उन पर महर्षि अंगीरा का मुद्रांकन किया जाने लगा । ये स्वर्ण और रजत मुद्रा के नाम से प्रचलित हुई और पदार्थों के प्रतिकार में पदार्थ देने के स्थान पर इन मुद्राओं का चालान किया गया । लोग स्वर्ण और रजत के भूषण भरवाने लगे थे । अगर अभूषणों को डलवाकर उनको मुद्राओं में परिवर्तित करवाने लगे । इससे पदार्थों का विनिमय सुगमता से हो सके । दशक की पिता नहीं से इस विषय पर भी बातचीत हुई । एक दिन सा निकाल के प्रमोशन के उपरांत कश्यप ने पता नहीं ऐसे पूछा बता रहे हैं आपने स्वर्ण और रजत मुद्राओं के चलन की व्यवस्था की है । इस जनसाधारण में लोग और मोहो बढने लगा है । पिता महीने उत्तर देने के स्थान पर प्रश्न पूछ लिया । इन मुद्राओं ने लोग बढाया है अथवा लोग और मूं इससे प्रत्येक विषय है । कोई कंदमूल हम अन्य का संचय नहीं कर सकता । अभी कच्चे फल इत्यादि संचय किए जाएं तो वे दो तीन दिन में लडने लगते हैं परन्तु उनके प्रतिकार में होने हुए कंदमूल एक दो वर्ष तक रखे जा सकते हैं और अब स्वर्ण रजत मुद्राएं मनुष्य के जीवन भर रखे जा सकेंगे । बेलो और मौका कारण हो जाएंगे । कश्यप काम रोज लो हम हूँ अंधकार मन के विकार हैं की मुद्रा के अधिकार नहीं अच्छा इनका संबंध दूषित मन से है न कि अन्य तथा तृणमूल इत्यादि से मुद्रा भी स्वयं इसमें कारण नहीं हो सकती । मैं लोग उसे मानता हूँ जब किसी दूसरे के अर्जित धन को हथियाने की इच्छा हो । इसमें भी परिश्रम का अनुदान करके मुद्रा उपार्जन करना लोग नहीं, ये है परिश्रम है । मैं परिश्रम पर भी प्रतिबंध नहीं लगा सकता । अतः उस परिश्रम का प्रतिकार प्राप्त करने पर भी प्रतिबंध नहीं लगा सकता । मुद्रा उस परिश्रम को संचित रखने का उपाय है, जब परिश्रम करना पास नहीं, परिश्रम का फल प्राप्त करना । आप नहीं तो उस फल को संचित रखना भी किसी प्रकार से अपराध नहीं हो सकता हूँ तो दो शुक्ला बात किया है । कश्यप का प्रश्न था, कामनाएँ स्वाभाविक है । स्वाभाविक वस्तु का लोग भी सौहार्द ही होगा, परन्तु भरो को प्राप्त करने का उपाय उच्चत अथवा अनुचित हो सकता है । वो प्राप्ति का उपाय जब अनुचित होता है तब दोष उत्पन्न हो जाता है । साथ ही भो प्राप्ति का उपाय जब अन्य के उचित भो प्राप्ति के उपाय में बाधक हो तब भी दो शुरू हो जाता है । इन उपायों का कामनाओं के निर्माण से कोई संबंध नहीं । कामनाओं की वृद्धि अथवा इनका उचित अनुचित होना एक पृथक बाद है । इस प्रकार कामनाओं की पूर्ति का साधन एक पृथक विषय है । उपाय साधनों का निर्माण का नाम ही है । उचित साधनों पर प्रतिबंध नहीं लग सकता । इसी प्रकार उचित कामनाओं पर प्रतिबंध नहीं लग सकता है । उचित कामनाएँ क्या है जिनसे व्यक्ति के जीवन लक्ष्य में हानि ना हो और जिनसे दूसरों की उचित कामनाओं की पूर्ति में उचित उपायों के मार्ग में बाधा ना हूँ, वह सब इतना झंझट है कि समाज ने व्यवस्था रखना कठिन अवश्य हो जाएगा । था जान बुद्धि के साथ ये व्यवस्था रहना कठिन हो रहा है और हम तो किसी कार्य की कठिनाई को देखकर उस कार्य के करने पर प्रतिबंध नहीं लग सकता हूँ । परन्तु ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए जिससे किसी भी उचित कामनाओं की पूर्ति में और कामनाओं की पूर्ति के उचित उपायों में बाधा ना पडे । इस व्यवस्था के लिए एक व्यवस्था शास्त्र बनाना पडेगा जैसे ये मैं बना रहा हूँ । इसमें तीन खंड होंगे एक धर्म दूसरा और तीसरा काम । काम का अभिप्राय है कामनाएँ । इन की व्यवस्था होनी चाहिए । अर्थ है उन कामनाओं की पूर्ति में साधन । इस विषय में भी उचित अनुचित की व्यवस्था होनी चाहिए । इन दोनों कामनाओं और उनकी पूर्ति के साक्ष्यों पर नियंत्रण के लिए नियम उपनियमों का नाम है धर । यह धर्मशास्त्र बनाना आवश्यक हो गया है । कश्यप के वक्तव्य में सत्यता थी । यदि स्वर्ण और रजत मुद्रा का विस्तार हुआ तो व्यवस्था रखने में कठिनाई होगी । पिता ने भी इस कठिनाई को अनुभव कर रहे थे । परंतु कठिनाई से पार पाने के लिए दोनों के उपाय भिन्न ही नहीं थे वरन परस्पर विरोधी भी थे । कश्यप चाहता था कि पितान है कि जनपद में निजी संचय और संचित का विनिमय करने के लिए अवसर ही न रहने दिया जाए । पिता में है । इसके विपरीत व्यवस्था दे रहे थे । वो ये कि परिश्रम करने की सबको स्वतंत्रता दी जाए । केवल वह स्वतंत्रता धर्मयुक्त हूँ । उस परिश्रम की, किसी दूसरे के परिश्रम से विनय की स्वतंत्रता हो, यह मैंने भी धर्मयुक्त हो । विनिमय से प्राप्त फल के भोग की भी सपने करता हूँ । उसमें भी नियंत्रन धर्म का ही हूँ । कश्यप समझता था इससे ऐसी छीनाझपटी होगी । इस सब वन पशुओं की भारतीय लड पडेंगे उप देवकी कंदमूल भुनने की कुशलता अन्य किसी में नहीं थी । यद्यपि उसका व्यवसाय अन्य भी कई लोग करते हैं, परंतु वे उसकी कुशलता को प्राप्त नहीं कर सकते थे । था । नगर के सब लोग जिनके पास रजत स्वर्ण मुद्रा होती थी, बहुत देर से अपनी भोजन सामग्री उपलब्ध करते थे । परिणाम ये हुआ की एक दो वर्षों में ही उप देव स्वयं और उसकी पत्नी अपने अकेले परिश्रम से जनपद की मांग को पूर्ण नहीं कर सकते थे । उसने कई लोगों को अपने कार्य में सहायता रख लिया था । मैं उनको रजत मुद्रा के रूप में वेतन देता था । नगर भर में उसकी भट्टी से भुने कंधे सब धनियों के घरों में जाते थे और वहाँ से वह इच्छानुसार दम प्राप्त करता था । धनी लोग हुए थे जो स्वर्ण अथवा रजत एकत्रित करते थे । एक दिन महर्षि मूल है । मैंने नदी के बालू में स्वर्ण को मिला देखा तो उसने अंगीरा की सहायता से उनको गलाकर छर्रे बनवा लीजिए । पहले तो उसने इस धातु के भूषण बनवाकर अपनी पत्नी को पहना दिए और बाद में जब पिता नहीं नहीं मुद्रा चलाने की व्यवस्था दी तो स्वर्ण की मांग बढ गई । जनपद के बहुत से लोग स्वर्ण निकालने का कार्य करने लगे । इस समय के लगभग रजत का पता लगा । लोग तो पहले ही खनिज पदार्थ निकाला जा चुका था । लोगों से खोदने, लकडी, पत्थर काटने, छीलने तथा चीज ने के उपकरण बनने लगे थे । वो सब व्यवसाय जनपद के लोग करते थे । वे अपने परिश्रम का फल उनके पास बेचते थे । जिनके पास स्वर्ण तथा रजत मुद्रा होती थी । सबसे बडा व्यवसायी उप देव था । उसके पास स्वर्ण तथा रजत मुद्रा बहुत अधिक मात्रा में एकत्र होने लगी थी । जनसंख्या बढने के साथ साथ कार्यकर्ताओं की संख्या बढने लगी थी और कच्चा माल, धातु वर्ग, वस्त्रों के लिए तंतु निकालने की, वृक्षों की छार तथा फलों में कमी होने लगी थी और इसको उपलब्ध करने में अधिकारिक परिश्रम भी करना पड रहा था । जिन लोगों को उप देव के व्यवसाय के प्रारंभिक दिनों का स्मरण था वे वर्तमान की कठिनाइयों का अनुभव देख मन में असंतोष अनुभव करते थे । कश्यप मुनि ने स्थिति को एक विस्फोट की स्थिति समझा था । एक अन्य ऋषि उत्पन्न हो गए थे । मैं अंगीरा के पुत्र बृहस्पति थे । अंगीरा की पत्नी उन मनचलों में से थी जो एक बार पिता है कि आश्रम में खुश आए थे और जिनके योद्धा के साथ दक्षिण का युद्ध हुआ था । युद्ध के उपरांत बहुत सी स्त्रियां पिता में है कि आसाराम की संपन्नता तथा सभ्यता दें वहीं रह गई थी । उनमें से एक लडकी के साथ अंगीरा का विवाह हो गया था और उसकी संतान बृहस्पति हुए । संतान होने के उपरांत रहे स्तरीय आपने वन के साथियों के पास चली गई थी और अपने पुत्र को भी साथ ले गई थी । जहां बृहस्पति के माता ने वन चरों को सभ्यता का पाठ पढाया वहाँ उनको सुसंगठित हो अपने अस्तित्व को स्थिर रखने का ढंग सिखाया । यह है वह पिता है कि आश्रम में रहती हुई सीख गई थी । राष्ट्रपति की माता ने वन चरों को आश्रम बनाकर एक स्थान पर रहने तथा अपने फलों के उद्यान ऍम अन्य के क्षेत्र बनाने का ढंग सिखाया । साथ ही उनको वाणी का भी लाभ समझाया परंतु वन चरों में रहने से वे स्वयं कुछ उसके व्यवहार को भी सीख गए थे । पुरवासियों का जीवन ही आधार था और वह इसके लिए ही जीवन के सब प्रयासों को उपाधि मानते थे । बृहस्पति ये माता सुनी थी जब अपने पति महर्षि अंगिरा के आश्रम में लौटी तो बृहस्पति दस वर्ष का हो चुका था । महर्षि अंगीरा उसे रखने को तैयार नहीं हो रहे थे परन्तु बृहस्पति ओजस्वी और मैं धारीवाला प्रतीत होता था । उसे देख तथा पितान है के अनुरोध पर वह मान गया । बृहस्पति बडा ही वेद का ज्ञाता युवक हो गया । वो और कश्यप लगभग सब व्यस्त होने से साथ ही थे और दोनों जनपद में अव्यवस्था के बीज बोये चाहते देख रहे थे । वास्तव में दोनों इस पक्ष में थे । इस अव्यवस्था को बढने से रोकने के लिए मुद्रा संचय पर नियंत्रण करना चाहिए । वे जनपद के सैकडों लोगों को दिन राहत स्वर्ण करूँ की खोज में नदी की रेत में उथल पुथल मचाते देखते थे तो चिंतित होते थे । देख रहे थे की कोई खोज करने वाला तो दिन भर ही खोज में खाली हाथ घर लौट ता है और कोई एक डुबकी में दो सौ रजत मूल्य का स्वर्ण पाया जाता है । वो ये भी देख रहे थे की जिनको स्वर्ण नहीं मिलता वह निराश हो निर्जनता का जीवन व्यतीत करता था । तभी वह किसी धनी मानी के घर सेवा कार्य करने पर विवश हो जाता है । धन के एक दो हाथ में एकत्र होने से वे दूर वनों में बहुत सी भूमि पर अधिकार का कर्मचारी रख अन्य की उपज करने लगे थे । उन दिनों व्यवस्थापक पिता नहीं थे । बृहस्पति अपने मन के भावों को लेकर पिता ने से मिलने उनके निवास स्थान पर जाया करता था । एक दिन रह गया तो पता नहीं कि समूह उप देव उपस्थ था और अपने साथ हुई एक दुर्घटना था । वर्णन कर रहा था । उसने बताया था काम है रात में आपके जनपद में सर्वोत्कृष्ट धनी धा नी व्यक्ति था, आज प्रात हूँ । मैं जनपद ने सबसे निर्धन और दुखी हूँ । मैं रात अपनी दोनों पत्नियों से बातें करते करते हो गया । मध्यरात्रि के उपरांत किसी ने मेरे छह हजार का द्वार खोला । पांच सात व्यक्ति भीतर खुश आए । उनमें से एक नहीं प्रकाश सलाखाें जला रखी थी । अन्य ने मुझे तथा मेरी पत्नियों को मार मारकर हमारे मुंह में कपडा ठूंस बांदिया मैं और मेरी पहली पत्नी चुपचाप पडे रहे और अपने हाथ पाँव तथा मूँग बांधे जाने दिए गए । परन्तु मेरी दूसरी पत्नी ने विरोध करना प्रारंभ कर दिया । वो छटपटाने लगी और ऊंचे ऊंचे स्वर में चीखने लगी । इस पर एक ने उसका गला दबाकर उसकी हत्या कर दी । संता मेरे घर में रखा सब स्वर्ण रजत ऍम वस्त्रादि उठा बैलगाडियों पर लाभ ले गए । उन्होंने घर में एक ताना भी नहीं छोडा । मेरे व्यवसाय को नष्ट भ्रष्ट करने के लिए कंदमूल भूलने की भट्टियां भी तो डाली । कपडा बुनने के यंत्रों को एकत्रित कर अग्नि की भेंट कर दिया । मेरे तथा मेरी पत्नी के पास इतना कुछ भी नहीं रहा कि हम दूसरी पत्नी के शव का दाह कर सकें । मुझे आज यह भी विदित हुआ है कि जनपद के अधिकांश लोग मेरी दुखद कथा सुनते हैं और मन में संतोष अनुभव करते हुए चले जाते हैं । कोई यह भी नहीं पूछता मुझे किसी वस्तु की आवश्यकता है अथवा नहीं । भगवान मायावती दयनीय अवस्था में हूँ और आप से सहायता की आशा लेकर आया हूँ । अच्छा मैंने मुस्कुराते हुए पूछ लिया कितनी हानि हुई होगी । उप देव ने कुछ विचार कर बताया । कम से कम दस सहस्त्र स्वर्णमुद्राएं प्रतिवर्ष कितनी आय हो जाती है तो मैं भगवान ये सब चार वर्ष में एकत्रित हुआ था । इस समय घर में एक पत्नी का शव पडा है । दूसरी पत्नी भयभीत अपने आवास में छिपकर बैठी है । मेरे पांच बच्चे उसके पास भूख से व्याकुल हो रहे हैं । वर्ष में कितना दान करते थे जितने भी दान के लिए आते थे सब धूत प्रतीत हुए । उनको कुछ भी देने को जितने नहीं करता । मैं भी ऐसा हो गया । इस प्रश्न पर उम देव पहुंचकर रह गया । परंतु शीघ्र ही अपने को सचेत कर बोला । पर तो भगवान क्या आप भी किसी शिदान की आशा करते हैं? नहीं ये मेरे आशा करने की बात नहीं, तुम्हारे देने की बात है । हमने किसी को एक ऑडी दान के रूप में नहीं दिया । तुमने खोर पास क्या है? धनोपार्जन किया है और उससे जग्य नहीं किया । हमारी पत्नी के शव के दाह का प्रबंध इस आश्रम की ओर से किया जाएगा । तुम्हारे एक मांस भर के लिए खाने पहनने का विजय आश्रम से दिया जाएगा । एक मास में तुम अपनी जीविका का प्रबंध कर लेना । हाँ, मैं महर्षि ऋतु को कहता हूँ की चोरी करने वालों का पता करें । भगवान उन में से एक को मैं पहचान गया था । मेरे वस्तुओं के कार्य का व्यवस्थापक था । उसका नाम है वर्चस् । जब आपने अपनी करूँ ऐसा कह रहा था तो बृहस्पति और कश्यप भी वहां मौजूद थे । पूर्ण खता सुन चिंता अनुभव कर रहे थे । जब देव सामाजिक सहायता का आश्वासन देकर चला गया तब राष्ट्रपति ने बात आरंभ कि उसने कहा पे काम है मैं पहले भी कई बार कह चुका हूँ । आप का अर्थ संविधान ठीक नहीं है । काम मैंने तुम्हारी सम्मति को धर्मयुक्त नहीं समझा । इस कारण मैं अपने मुख से उसके अनुकूल व्यवस्था नहीं दे सका और इसका परिणाम आपने सुन लिया है । कुछ सुना है परन्तु मैं मेरी व्यवस्था का परिणाम नहीं है है । उसके विपरीत आचरण करने वालों का परिणाम है । उस आचरण में एक विचारधारा कार्य कर रही है और उस विचारधारा के प्रचार तुम्हें तो फिर मुझे दंड दिया जा सकता है । बृहस्पति मेरी व्यवस्था दंड देने की नहीं है । मैं तो प्रेरणाओं से कार्य करवाता हूँ परन्तु जब तुम दंड की बात करते हो तो मैं बताता हूँ उसके लिए मैंने एक त्रिवर्ग नाम का व्यवस्था ग्रंथ लिखा है और उसको मैं आप सबके विचार के लिए शीघ्र ही उपस् थित करने वाला हूँ । उसमें धर्म की व्याख्या ही होगी और धर्म का उल्लंघन करने वालों के लिए दंड भी । मैं उसमें ये भी व्यवस्था दे रहा हूँ कि अधर्म को धर्म कहने वालों के साथ कैसा व्यवहार किया जाए । परन्तु धर्म क्या है, वह किस प्रकार निश्चय होगा और उसका निश्चय कौन करेगा, यह भी उस करंट में लिखा है । इस समय संकेत मात्र ही मैं बता सकता हूँ सनातन धर्म विख्यात है और उन का निश्चय इस बात से होता है जो एक व्यक्ति अपने साथ क्या जाना पसंद नहीं करता । मैं किसी दूसरे के साथ करने लगे तो वह है और हम है उदाहरण के रूप में किसी में उप देव के घर तो इसी है । मैं पूछूंगा क्या चोरी करने वाला अथवा क्या उस चोरी को न्यायोचित बताने वाला? स्वयं धनवान होने पर ऐसी चोरी अपने घर पर की जाना पसंद करेगा? नहीं, नहीं तो वह उप देव के घर चोरी को कैसे न्यायोचित समझ सकता है? पिता मैं मैं तो कहता हूँ कि इतना धन एकत्रित करना ही न्याय आवश्यक नहीं है । उसने धन एकत्रित करने में किसी सनातन धर्म का उल्लंघन किया है । बताओ तो उसके लिए भी दंड का विधान होगा । सनातन धर्मों के विषय में मैं नहीं जानता । मैं तो इतना कह सकता हूँ कि इतना धन एक व्यक्ति के पास एकत्रित हो जाने से ही आप कार्य बढेगा । बृहस्पति हम क्या कार्य करते हो? आप कार्यकार समझाएँ तो मैं बता सकता हूँ । जब किसी का कोई प्रिय कार्य किया जाए तो उसमें व्यय किए गए परिश्रम को ही मैं कार्य कहता हूँ । यही अपना प्रिय किया जाए । तब क्या कार्य नहीं होगा? मैं कार्य तो होता है परंतु उसका प्रतिकार कोई दूसरा नहीं देता । जब तुम प्राथमिक उठ स्नानादि से शरीर शुद्धि करते हो अथवा संध्योपासना से आत्मा की शुद्धि करते हो तो तुम काम तो करते हो परन्तु वह कर्म तुम्हारे लिए ही होने से कोई दूसरा उसके लिए कुछ प्रतिकार नहीं देगा । और जब मैं लोगों को ऐसा कोई उपदेश दूँ, इस पर आचरण करने से उनको लाभ हो तो फिर फिर वे प्रतिकार नहीं देंगे । देंगे वे लोग जिनका लाभ होगा । यदि तुम एक का छीन कर किसी दूसरे को देने की बात हो गयी, इसका छीना गया है । मैं तुमको किस बात का प्रतिकार देगा और मैं समझता हूँ कि जो छीन कर ले गया है वो भी कुछ नहीं देगा । कारण ये की वो समझेगा । उसके पांच एकत्र होने पर तुम उसका भी छीन लेने की बात करने लग हो गए । जब कोई परिश्रम करेगा तो वह परिश्रम उद्यान में हो, स्वर्ण निकालने में हो अथवा किसी अन्य क्षेत्र में हो, उस परिश्रम का जो भी फल होगा, उसका व्यय से बचा शेष एकत्रित करता है तो वह पापी नहीं हो सकता । मैं फल एकत्रित होकर संपत्ति बन जाएगी । तब भी पास नहीं होगा । इससे दूसरों को खानी पहुंचती है । कैसे? यदि वह अपनी संपत्ति से वस्तुएं क्रय करेगा, वस्तुओं के दाम बढेंगे और कोई अन्य वस्तु बनाने वाला भूखा मरने लगेगा । परन्तु ऐसी वस्तु बनाए ही क्यों इससे कोई क्रय नहीं करना चाहता तो वो क्या करें? वहीं करें जिससे उप देव के पास धन एकत्रित हो गया था । यह वह करना नहीं जानता । तब तो उसे जो कुछ दूसरों से मिले उस पर संतोष करना चाहिए । बृहस्पति निरुत्तर हो गया । तदंतर वहाँ उठकर चला गया । पश्चिम भी आया तो बृहस्पति के साथ था परन्तु है उसके साथ गया नहीं । पिता में है कि समूह बैठा रहा । जब बृहस्पति गया तो पिता मैंने कहा मैं समझा था कि अंगीरा का पुत्र, उसके सामान ही प्रतिभाशाली होगा । वेदों का ज्ञाता होगा और लोक कल्याण कार्य में लगेगा । फलती है । अपनी माँ की प्रवृत्ति को स्वीकार कर रहा है । अच्छा हम तो उसके साथ आए थे । इसके साथ गए क्यों नहीं सितावा हैं । मैं इसके साथ नहीं आया था । सात तो साथ ही आते हैं । मैं इसका साथ ही नहीं हूँ । आपने मार्क कर रही हूँ । मैं अपने कार्य से आपकी सेवा में उपस्थित होने आ रहा था । ये मार्ग में मिल गया और पूछने लगा मैं किधर जा रहा हूँ तो मैंने यहाँ आने की बात बताई तो बोला आओ तो मैं वहाँ एक नई बात पता चलेगी । इस प्रकार हम दोनों साथ साथ आए थे । इसका अभिप्राय यह हुआ कि इसे क्या था? युग देव मेरे पास याचना लेकर आ रहा है और ये जानना चाहता था कि वह किस किस के विपरीत याचिका करता है, हो सकता है परन्तु देव ने अपने एक सेवक के अतिरिक्त है अन्य किसी का नाम नहीं बताया । हाँ मैं अनुमान से यह जान गया हूँ कि बृहस्पति उनका नेता है जिन्होंने यह कांड किया है । किताब है, विश्वास नहीं आता । कारण ये कि महर्षि अंगिरा सब प्रकार से संपन्न है और वह ऐसी विद्या के जानने वाले हैं जिसमें सहस्त्रों देव किए जा सकते हैं । ये मैं जानता हूँ । फिर भी मैं तो मैं तो की बात बताता हूँ । पापी पाप की प्रवर्ति रखता है परन्तु पाप कर्म करने का साहस सभी कर पाता है । जब कोई बुद्धिमान, अदूरदर्शी, उसको पाप का मार्ग दिखाने वाला नेतृत्व के लिए आ जाए । मनुष्य में एक नैसर्गिक भय की भावना रहती है । वो जो किसी दूसरी की बुराई करने लगता है तो उसका वहन नैसर्गिक स्वभाव उसे रोकता है । पर अभी जब कोई अपने को तरफ से उसके पाप को पुण्य सिद्ध करने लगे तब बहन निशंक हो पाप करता है । बृहस्पति यही कर रहा है । बुद्धिमान तो है परंतु ज्ञानवान नहीं है । बुद्धि के कार्य का आधा ज्ञान होता है । जितना ज्ञान अधिक होता है उतना ही बुद्धि सन्मार्ग सिखाती है । था । बुद्धिमान अज्ञानी अपनी बुद्धि से उतर करने लगता है और सादा मध्यमार्ग दिखाने लगता है । कश्यप अपने ही मन की बात में उलझा हुआ था । इस कारण वह प्रतीक्षा कर रहा था की कब पिता में है । अपनी बात समाप्त करते हैं तो वह अपनी समस्या उनके सम्मुख रखें था । प्रथम अवसर मिलते ही उसने कहा भगवान, मैं आपसे एक स्वीकृति लेने आया हूँ । वह रह के विषय में है था बताऊँ । मैं कुछ दिन पहले दक्षिण की नगरी में गया था । कुछ दिन वहाँ दक्ष जी के आवास में रहा था । महाराज उनकी पचास कन्यायें हैं । वैसे उनके कई पुत्र भी हुए थे परंतु सब के सब समय पूर्व ही शरीर छोड के चले गए । उन्होंने अपनी दस कन्याओं का विभाग धर्म से कर दिया है । सत्ताइस कन्याएं उन्होंने चंद्रमा को दे दी हैं और तेरह कन्यायें अभी बाकी हैं । रियाज व्यवस्था दे तो मैं शीर्ष सबके साथ वहाँ कर लूँ । एक साल तेरह से बाराज चंद्र ने सत्ताईस एक साथ व्यवहार किया है । देखो बहुत अधिक हैं इससे जीवन तू भर हो जाएगा । पिता मैं बात इस प्रकार हुई है कि दक्षिण के ग्रह पर प्रवास में मैंने उनकी किसी एक लडकी से विवाह की इच्छा प्रकट की तो वो मुझे सभी लडकियों के सम्मुख ले गए और पूछने लगे कि मैं किससे व्यवहार करना चाहता हूँ । इससे पूर्व मैं सब लडकियों से नहीं चुका था और जब भी किसी से मिलता था तो उसी से विभाग की इच्छा करने लगता था । एक से एक सुंदर, सभ्य खुशी प्रशिक्षक और सो संस्कृत है । अच्छा । मैं किसी एक का अपने लिए निर्वाचन नहीं कर सका । पक्ष ने पूछा तो मैंने कह दिया ये सब परम सुंदरियां हैं । वैसे भी उनकी सब ग्रहणी बनने के योग्य हैं । प्रजापति कहने लगे ये तेरह हैं, सब की सब आपके साथ कर सकता हूँ परन्तु ये क्या चाहेंगी? मैंने उनसे पूछा है सब की सब आपको एक समान पसंद करती प्रतीत होती हैं । इस अवस्था में पिता ने ही से स्वीकृति लेनी पडेगी । ये कहकर मैं आपसे इस विषय में सहमती लेने चलाया हूँ । देखो कश्यप मैं वहाँ के विषय में किसी प्रकार का कठोर नियम नहीं बना सकता हूँ । यह पुरुष के स्वास्थ्य सामर्थ्य और संपन्नता पर निर्भर करता है । कितने विवाह करें कश्यप ने कुछ चिंता व्यक्त करते हुए कहा, क्या यही व्यवस्था लडकियों के विषय में भी हैं नहीं और उसमें बीजों की सृष्टि स्त्रियों में भूमि के अनुपात से बहुत अधिक होती है । इस कारण एक पुरुष कई स्त्रियों से बीजारोपण कर सकता है और हम तो इस तरी के पास एक पुरुष के अनेक बीजों के लिए स्थान नहीं होता है । पुरुषों के लिए कहाँ स्थान होगा तथा एक स्त्री का एक से अधिक पुरुषों से व्यवहार युक्तियुक्त प्रति नहीं होता । कश्यप संतानोत्पत्ति और वासना तृप्ति दो प्रथक प्रथक बातें हैं । जहाँ तक संतानोत्पत्ति का प्रश्न है, एक पुरुष अनेक स्त्रियों में बीजारोपण कर सकता है और वासना प्रगति के लिए तो एक स्त्री एक पुरुष के लिए पर्याप्त है, वो तब ही हो सकता है जबकि इस तरी का प्रयोग संतानोत्पत्ति के लिए न हो । मैं केवल स्वाद की वस्तु मान ली जाए और एक पुरुष और एक स्त्री का संपर्क हो सकता है । तो मनुष्य का एक ही प्रकार का भोजन करते करते चित्र ऊब जाता है तो मैं किसी दूसरी प्रकार के भोजन की इच्छा करने रखता है । वहाँ सम्मान के लिए अधिक पत्नियाँ करने से कहीं अधिक दूषित बात है था । मेरी ये व्यवस्था है कि तुम दक्ष की तरह कन्याओं से विवाह कर सकती हूँ और उन सब से संतान उत्पन्न कर सकती हूँ और तुम स्वयं अपनी सामर्थ्य और समृद्धता का विचार कर लो । तेरह पत्तियों से वर्ष में तेरह मालक हो सकते हैं । उनका पालन पोषण कर सक हो गई तो व्यवहार करो । जहाँ तक शरीर के सामर्थ्य का संबंध है तो महर्षि अत्रि जिसे सम्मति ले लोग इस प्रकार प्रदान है की स्वीकृति लेकर कश्यप अपने पिता मरिचि के पास चला गया । स्टॉप प्रांत दक्ष के नगर में जाकर प्रजापति की तेरह कन्याओं से विभाग का एक विशाल भवन बसा पुर में रहने लगा । बृहस्पति उन दिनों पुर में नहीं था और महर्षि अंगिरा से पता करने पर कश्यप को ज्ञात हुआ कि वह पिता है की खूब से भी कहीं घने वनों में जाकर रहने लगा है । कश्यप को ये समाचार सुन जिसमें हुआ और महर्षि अंगिरा से पूछा क्या अपराध किया था बृहस्पति ने अपराध तो उसमें बहुत बडा किया था । उसने नगर के कुछ पेंशनों को बहुत प्रेरणा दी थी कि वे उप देव के ग्रह में संचित संपत्ति लूक सकते हैं । वह पुण्यकार्य होगा । सकती महर्षि आप जैसे विद्वान अपने पुत्र को समझा नहीं सके है कि वह अपनी वाक शक्ति का दुरुपयोग न करें । मैं और उसकी माँ मेरी कहीं में नहीं है । अभी उसकी माँ उसके साथ है जब वह अवश्य उसे अपने लोगों में ले गई होगी । वहाँ जाकर पता क्या है कि माँ पुत्र वहाँ नहीं है । मैं समझता हूँ कि ये उसको पता नहीं ऐसे छमा दिलवाकर उसे वापस ले आना चाहिए । अन्यथा ज्ञान केसरो से असंबद्ध होने पर वह असर संतान उत्पन्न करने लगेगा तो हम उसे ढूंढ निकालो । जहाँ तक काम है का संबंध है मैं उसे कुछ नहीं है । फिर भी रहन हत्या बात करता था और उसकी बात का पिता काम है । अपने प्रवचनों में नित्य खानदान करने लगे तो जिन्होंने उप देव के घर चोरी हुई थी । पिता नहीं के पास जाकर छमा प्रार्थना करने लगे । उन्होंने ही बताया है कि बृहस्पति इसपुर में एक विप्लब उत्पन्न करने वाला है । मैं स्वीकारो आती सार्वजनिक रूप से कराई गई और उनसे क्षमा याचना की गई । तब पिता रहने उन्हें छमा कर दिया । बृहस्पति ने छमा मांगनी उचित नहीं समझे और उसे भय लग गया कि पिता में है कि प्रवचनों से उद्विग्न हो । पूर्व के लोग ही कहीं उसकी हत्या ना कर दें । वो वन में जाकर छिप गया है । कश्यप ने एक दिन पिता में से भी बृहस्पति के विषय में बात चला दी थी । इस समय तक कश्यप की तीन पत्नियां गर्भवती हो चुकी थी । कश्यप अपनी पत्नियों के साथ पुर के बाहर के विशाल भवन में रहता था । उस भवन की देखभाल के लिए कुछ सेवक नियुक्त थे । भवन के साथ एक विशाल उद्यान और अन्य क्षेत्र था । एक पशुशाला भी थी । कश्यप अपना व्यवहार मुद्राओं के द्वारा नहीं चलता था । वह लेन देन पदार्थों के विनिमय से करता था । सेवाओं को उनकी सेवा का प्रतिकार भी अन्य फूल, कंदमूल और दूध घटा दी के रूप में देखा था । उस दिन वह पिता में है कि सम्मुख उपस् थित हुआ तो पिता मैंने मुस्कराते हुए पूछ लिया कश्यप, गृहकार्य कैसा चल रहा है? बहुत रस्में चल रहा है । भगवान सब बहने मिलकर जीवन नीरस तो नहीं कर रही? मैं समझता हूँ कि वे सब मिलकर मेरे जीवन को अधिक रस्में बनाने का प्रयत्न कर रही हैं । उदाहरण के रूप में पहले ही दिन मैंने उन सब को बुलाकर पूछा सबसे पहले माँ कौन बनना चाहती है? भगवान मेरे विश्व का ठिकाना नहीं रहा जब तेरह में से कोई भी तैयार नहीं हुई । मैंने कह दिया तब तो मुझे तो मैं से अपने पुत्र निर्माण के लिए एक का निर्वाचन करना पडेगा । सब भयभीत होकर मेरा मुख देखने लगी । वो सब समझती थी कि मैं उनमें से उसी का निर्वाचन करूंगा । ये भय सत्य था । करन की मैं सबको एक से एक अधिक सुंदर समझता हूँ परन्तु जब मैंने उनको ही परस्पर निर्णय करने का एक ढंग बताया तो सभी आशा करने लगी की इस काम के लिए वही निर्वाचित नहीं होगी । मैंने एक बर्तन लिया और उसमें तेरह गुठलियाँ डाल दी । एक गुट ली पर मासी से चिन्ह बना दिया था और उनको कह दिया कि तुम सब एक एक गुट ली । इसमें से आंखें मूंद करने का लो जो मासी से अंकित गुठली निकलेगी है । सबसे पहले पुत्रवती होगी महाराज इससे सब अपने अपने भाग्य पर विश्वास करती हुई कुछ लिया निकालने लगी और अंकित गुठली मेरी पत्नी अदिति के हाथ में आई और वह मेरे प्रथम पुत्र को जन्म देगी । विश्वास से जानती हूँ कि वह पुत्र होगा हमारा महाशिवरात्रि ने मुझे बताया है किस प्रकार पुत्र को जन्म दिया जा सकता है और मैं समझता हूँ कि अदिति मेरे प्रथम पुत्र की माँ होगी । यदि यह विद्या तुम अपने ससुर को बता देते हैं, उसका कल्याण हो जाता है । वो अपने दो हितों को पुत्र बनाने की इच्छा अनुभव न करता हूँ । मैंने महर्ष यात्री से कहा है कि वह यह कृपा मेरे ससुर पर करते हैं । वो कहते थे कि दस को हमारी विद्या पर विश्वास नहीं और जो विद्या पर विश्वास नहीं करता हूँ विद्या उसे छोड जाती है । वो ये भी कहते थे कि बृहस्पति भी वेद विद्या पर विश्वास नहीं रखता हूँ और उसका परिणाम भी ठीक नहीं हो सकता । एक परिणाम तो हो रहा है कि उसे वनों में रहना पड रहा है । पिता में है कि बृहस्पति के वनों में रहने की बात पर कश्यप को उसके विषय में बात करने का अवसर मिल गया । उसने पूछ लिया मैं कम है, आप उसे किसी प्रकार का भारी दंड देने वाले हैं । नहीं मैं कौन हूँ दंड देने वाला । मैं तो प्रेरणा ही देता हूँ । यह तो उसके अपने मन का भय है जो है इस पुर में आने से भयभीत है । इसमें संदेह नहीं कि उसने समाज धर्म का उल्लंघन किया है और वह समाज से ही भयभीत होकर वहां से भागा है । जब तुम विवाह के लिए दक्षिण अग्री से गए थे तब मैंने नित्य अपने प्रवचनों में उसके विचार में दोस्त प्रकट करने आरंभ किए । इसका एक परिणाम यह हुआ उसके शिष्य एक एक कर अपने अपराध के लिए छमा मांगने लगे । उन्होंने ये भी बताया कि बृहस्पति ने उनको वह समझा दिया था कि वह किसी प्रकार का पाप करना करें, उप देव भी हैं और पार्टी को दंड देना समाज के छत्रिय वर्ग का काम है । मुनि उन्हें छतरी वर्ग में मानते थे और इस प्रकार उनके मानने पर विश्वास कर वे उप देव को दंड देने चल पडे थे । मैंने सबके मन पर ये अंकित कर दिया । वाक प्रग लगता भी मनुष्य की संपत्ति है और जैसे एक मंश धन के बल पर दुराचार और अत्याचार कर सकता है । इस प्रकार वाक संपत्ति केबल पडता हूँ, इससे भी अधिक पाप किए तथा कराई जा सकते हैं । यदि एक धनी धन के बल पर दुराचार कर सकता है अथवा करवा सकता है वैसे ही एक वाणी का धनी भी ऐसा कुछ कर सकता है । दोनों पापी हैं । मैंने ये भी श्रोतागणों को समझाया कि उप देव ने अपनी संपत्ति को आपने भंडारों में सोंचा कर रखा था । ये आप तो नहीं था फिर भी है श्रेयस्कर कार्य भी नहीं है परन्तु वाणी के बल पर सरल चित लोगों को पथभ्रष्ट करना और उनसे हत्या डाका दूर ईत्यादि कर्म कराने की प्रेरणा देना पाप है और इसका फल मिलता है । मेरी इसी प्रेरणा का फल ये हुआ उसके दल में फूट पड गई और जो लोग उसके कहने पर उप देव की हत्या करने अथवा उसे लूटने के लिए उद्यत हो गए थे, वही उसकी हत्या तथा उसको तथा उसके पिता को लूटने के लिए उद्यत हो गए । बृहस्पति के पिता स्वर्ण और रजत मुद्रा को ना तोलकर मोहर से अंतिम करने का पारिश्रमिक लेते हैं और मैं समझता हूँ कि उनके पास भी गन्ना योग्य धनराशि एकत्रित हो गई है । लोग उसको भी लूटने के लिए तैयार हो गए । परिणाम ये हुआ कि महर्षि अंगिरा ने पुत्र को मेरे सम्मुख उपस् थित हो पश्चताप करने के लिए कहा तो वह तथा उसकी माता घर छोड कर कहीं चले गए हैं, किताबें नहीं । मुझे स्वीकृति दे तो मैं उसे ढूंढ कर लेता हूँ । मेरी स्वीकृति की आवश्यकता क्यों है? मैंने इस नगर में आकर शांतिपूर्वक रहने से किसी को मना नहीं किया वो भी आ जाए और समाज के नियमानुसार रहे । वो यहाँ सुखपूर्वक रहे सकता है । अच्छा तुम भी ये समझ लो कि धर्मात्मा व्यक्ति के लिए यहाँ के सभ्य समाज में रहने में कोई बाधा नहीं है । परन्तु पितान है सब की बुद्धि में आ सकने योग्य धर्मकर्म की व्याख्या भी तो होनी चाहिए । जनसाधारण भूल भी कर सकते हैं । हाँ, इस बात का विचार किए छह माह से अधिक हो चुके हैं । मैंने एक स्मृति का निर्माण किया है । छत्तीस अध्याय हैं धर्म और और काम । इन अध्यायों में इन तीनों का प्रथम, प्रथम और फिर उपसंहार में तीनों के समन्वय का वर्णन किया है । उस को महर्षि मंडल ने स्वीकार कर लिया है । इसमें विलंब इस कारण हुआ है । इस क्रिकेट का आकार कुछ बडा हो गया था । इसमें एक लक्ष्य पद है तदंतर इसकी छह प्रतिलिपियां दिखाई गई और एक एक पद पर विचार किया गया है । अब वह तुरंत जनसाधारण का मार्गदर्शन करेगा ये तो ठीक है परंतु भगवान ये एक लक्ष्य पदों का गर्म सब कैसे पढ समझ और स्मरण कर सकेंगे । गन तो भावन वर्ग के ज्ञान के लिए लिखा गया है और वे लोगों को उसका भावार्थ बताते रहा करेंगे । लोग भी जब किसी विषय पर जानकारी चाहेंगे तो वे अपने किसी समीप के भ्रमण के पास जाकर जानकारी प्राप्त कर सकेंगे । और ऍम कौन होगा तो पढा लिखा विद्वान होगा और हम दम । तब शौच छह आभाव और आस्तिक बुद्धि रखता होगा । साथ ही स्वभाव से विद्यादान का काम करता हूँ और उनको इस विद्यादान का प्रतिकार क्या मिलेगा? भगवान आपकी अर्थव्यवस्था में तो बिना मूल्य के किसी को कुछ नहीं देता । हाँ, उसको क्या मिलेगा, उसकी व्यवस्था भी उसी ग्रंथ में की है तो इस ग्रंथ की व्यवस्था कब से लागू होगी? आगामी श्रावणी से मैं इस ग्रंथ की घोषणा करूंगा और तुम्हारे पिता महर्षि मरीचि इस ग्रंथ का परायण आरंभ करेंगे । उस दिन आरंभ होने वाले चातुर्मास में उस जाॅन समाप्त होगा और तदंतर लागू हो जाएगा और यदि में बृहस्पति को इसपुर में लेता हूँ तो वह किस प्रकार रह सकेगा । उसके पिता धनवान हैं । वहाँ रहकर गृहस्थाश्रम में प्रवेश करें और एक नागरिक के रूप में रहता हुआ नागरिक के अधिकारों का सेवन करें । कश्यप को कुछ वनवासियों से यह पता चला कि पश्चिम की और एक घने जंगल में एक माँ पुत्र दो प्राणी कुटियां बना रहते थे । पुत्र पति ओजस्वी शौर्य वान और बुद्धिमान प्राणी है और वह वन में रहने वालों का एक संगठन तैयार कर रहा है । इस प्रकार शक्ति संचय कर ब्रह्मपुरी को लूट लेगा, क्योंकि ब्रह्मपुरी में बहुत सवर्ण एकत्रित हो रहा है । सूचना पर ही कश्यप को चिंता लग रही थी तो हम पुरी के सब लोग जानते थे कि वे अकेले पितान है कि बाल पर वे लक्ष्य लक्ष्य शत्रुओं का दमन कर सकते हैं । कश्यप को उसके पिता ने भी एक युद्ध की कथा सुनाई थी, जिसमें दक्षिणी किंचित बुद्धि के प्रयोग से अपने प्रतिद्वंद्वी को पराजित किया था और पिता मैंने अपने योग बल से क्षत्रों को आश्रम से ऐसे बाहर निकाल दिया था जैसे कि आंगन में से पूरा क्रिकेट बुहारकर बाहर कर दिया जाता है । कश्यपी समझ रहा था कि बृहस्पति वनवासियों के बल पर ही तो पिता मैं को पराजित नहीं कर सकता । पिता मैंने तो एक बार गंगा के बहाव को ऐसे रोक दिया था जैसे कि किसी ने उसे बहुत बडा और ऊंचा बांध लगा दिया हो । उस वर्ष हर्षाना होने से एक हम उद्यान सूख रहे थे । गंगा के बहाव को रोक देने से बाढ आ गयी थी और किनारों के सब खेतों की सिंचाई हो गई थी । इस संवाद को संभव समझाते हुए बृहस्पति का कल्याण इसी बात में मानता था कि बृहस्पति को पुरनपुर में लाया जाए और पिता में है कि सहयोग से वनवासियों की दशा सुधारने का यत्न किया जाए । अब पता है की स्वीकृति से एक दिन वह बृहस्पति की खोज में चल पडा । अच्छा कई वर्ष तक मन मंथन करने के उपरांत वे बृहस्पति के आश्रम को पा गए । इस काल में बृहस्पति ने कई सहस्त्र वनवासी एकत्रित कर लिए थे । ये सब लोग अपने परिवारों सहित मुठिया बना एक वन नगर सा बनाने में लीन थे । कश्यप बृहस्पति को मिलने गया तो वहां पहुंचा । उसमें एक बात देखी । प्रत्येक संज्ञान व्यक्ति ने हाथ में एक प्रकार का अस्त्र पकडा था । एक बांस के फल को ले उसे छील पूछ कर साफ किया गया था और उस फल के दोनों किनारे एक डोर से बांध कर बंधे हुए थे । ये सब के पास एक ही प्रकार का था परंतु छोटे बडे आकार के देख कश्यप समझ गया था ये किसी प्रकार का अस्त्र है । कश्यप आपने एक वनवासी साथी के साथ जब वहां पहुंचा उसके साथ ही ने बताया कि आपने लक्ष्य स्थान पर पहुंच गए हैं परन्तु वनवासी ने अभी है । सूचना दी थी कि बीस के लगभग अर्धनग्न पुरुष स्त्रियों ने उनको घेर लिया । सब अपने कंधों से अस्तर उतार । उनमें एक प्रकार की छडी जिसके अगले किनारे पर एक लकडी का तीव्र पूर्ण दार्शिनिक लगा हुआ था, तानकर खडे हो गए । कश्यप के साथ ही ने उसको समझाया । इसके मुखिया के हम मित्र हैं । इस पर दोस्तों को पकडकर बृहस्पति के सम्मुख ले गए । राष्ट्रपति कश्यप को वहाँ देख प्रसन्न नहीं हुआ तो समझ रहा था कि वह पिता में का गुप्चर लिए यहाँ आ गया है । अच्छा उसने माथे पर त्यौरी चढाकर पूछ लिया, हम यहाँ किस लिए आये हो, तुम्हारे कल्याण का चिंतन करता करता यहाँ पहुंचा हूँ परन्तु वो तुम यहाँ का पता कैसे पा गए? मित्र की गंध को सुनता सुनता यहाँ पहुंचा हूँ । कश्यप ने उसको कर कहा मैं तो ये समझा हूँ कि बूढे पिता मैंने तो मैं यहाँ का भेद जानने के लिए भेजा है । पिता महीने नहीं भेजा हो । मैं उनकी स्वीकृति से अवश्य आया हूँ । मैं मित्र से मिलकर पिता में से उसकी मित्रता कराना चाहता था । इसी विचार से आया हूँ । परन्तु यहाँ का नियम ये है कि बिना मेरी स्वीकृति के यहाँ आने वाला मार दिया जाता है । अपना नियम का पालन करूँ, नियम भंग नहीं होना चाहिए परंतु यदि तुम सत्य सत्य बात बता दो तो तुम को जीवन दान मिल सकता है । सत्य से तुम्हारा क्या अभिप्राय है? तुम अपने भेदिए के कार्य को स्वीकार करूँ और उसके लिए छमा मांगी तो तुमको दंड युक्त किया जा सकेगा । फिर भी तो उन्हें इस वन को छोडकर तुरंत चला जाने के लिए कह दिया जाएगा । तुम्हारा अभिप्राय है कि मैं तुम्हारी असब के बाद वो सत्य मान लो और फिर शपथ लोगों की यहाँ की बात किसी को नहीं बताऊंगा । साथ ही जो कार्य मैं यहाँ करने आया हूँ वो न करूँ । बृहस्पति मैंने सत्य बताया है । मैं अपनी इच्छा से अपने मित्र से मिलने आया हूँ । मेरे आने का प्रयोजन तुमने और प्रथम है नहीं मित्र का कराना है । यदि इस पर विश्वास नहीं तुम अपने नगर के नियम का पालन करो । हाँ तो मैं मृत्युदंड दे दूँ । मैं मारता नहीं हूँ । मैं अनादि आनंद अजर अमर हूँ । काम उसकी हत्या नहीं कर सकते परन्तु तुम्हारे तेरह पत्नियों को तुम्हारे शरीर का भोग भी तो प्राप्त नहीं हो सकेगा । पत्नियों की बात पत्नियाँ जाने, वहाँ नगरी में कई नर नृत्य मरकर पर लोग को चले जाते हैं । समझेंगी मैं भी पाँच फिसल जाने से गंगा जी की लपेट में आ गया हूँ । यही तो कठिन बात है । क्या आप लोग एकदम में फंसे हुए किसी से डरते नहीं है परन्तु बृहस्पति मैं तो तुम्हारे है की बात बताने आया हूँ । मुझे विश्वास है कि वास्तविक कश्यप मारेगा नहीं हम तो हम तो मानते हो मरने के उपरांत तुम्हारा कुछ नहीं रहेगा । इस कारण मरने का है उनको करना चाहिए हो ये जो तुमने यहाँ निर्माण क्या है इसमें किसी प्रकार का दोष नहीं । भूखंड बहुत लंबा चौडा है ट्राय सबका सब निर्जन पडा है । हम कहाँ रहते हो और बहुत क्या करते हूँ इसकी कोई दूसरा चिंता नहीं करता । साथ ही ये जो तुमने इन वनवासियों को यहाँ एकत्र कर रखा है और इनको दूसरों की हत्या करने में निपुणता करा रहे हो । इसका ज्ञान पे काम है तो नहीं है । समझता हूँ कि इसकी भी वो चिंता नहीं करेंगे । इसका प्रतिकार भी वो उसी ढंग से करेंगे जिससे वह तुम्हारी चिंता करते थे । तुम वहाँ से भाग आए हो वैसे ही ये यहाँ से भाग जाएंगे । ऍम जीवन के अंत में सब भोग सुविधाओं का अंत मानते हो वैसे ही ये बेचारे मानते हैं और जब ये मारे जाने लगेंगे तो भाग खडे होंगे । इनके विचार से इनका जीवन भ्रम शरीर इनसे चलने लगेगा तब तुम्हारे लिए भय का अवसर उत्पन्न हो जाएगा । मैं भयभीत नहीं हूँ । मैं तब था जब मैं हम पूरी छोडकर यहाँ चलाया था और ना अब हूँ । मैं समझता हूँ कि तुम लोग लोगों में एक मिथ्या भावना उत्पन्न कर रहे हो और मुझे उससे जनमानस को बचाना चाहिए तो ये यहाँ रहते हुए क्यों नहीं किया? यहाँ अशिक्षित और सरल चित्र वनवासियों को बरगलाने क्यों चले आए हो? मैं शक्ति संचय करना चाहता था परंतु वहाँ तो शक्ति का काम नहीं । जब देर के घर घर पर डाका पडा तो किसी को पकडा नहीं गया । कोई पकडने के लिए नियुक्त भी नहीं था । बन्दुक देव का आधे से अधिक धन उसे दिया गया है । उसकी मूल पत्नी तो उसे मिली नहीं । हाँ एक नवीन पत्नी मिल गई है । वो अब उन्हें अपना वही व्यवसाय करने लगा है जो पहले करता था । वही तो मैं कह रहा हूँ कि पता नहीं की बात करने में चतुराई की तुलना नहीं कर सका और यहाँ से पलायन कराये । ये भाई के लक्षण है । बृहस्पति मैं तुमको निर्भय करने आया हूँ कैसे हमारे मन में ये विश्वास बैठाकर वहाँ तुम्हारे लिए भय का कोई वातावरण नहीं है । जो कुछ तुम यहाँ कर रहे हो, यदि है किसी मानव के विपरीत नहीं है तो मैं इसके लिए भी भय करने की आवश्यकता नहीं । वहाँ विचार से बात की जाती है । हम भी विचार युक्त बात कर सकते हो । अपने विचार को स्वीकार कराने के लिए वहाँ का कोई भी व्यक्ति बल प्रयोग नहीं करेगा और तुम को भी आश्वासन देना होगा । तुम भी अपने विचारों का प्रयोग बाल से नहीं करोगे और यदि करूँ क्या होगा तो दूसरे भी बल प्रयोग करेंगे, इस प्रकार करेंगे । वे तो उधर जवान नहीं बना सकते हैं । उन लोगों ने पृथ्वी को प्राप्त कर भोगविलास का जीवन चलाना आरंभ कर दिया है । तो अपनी ही बात देख लो ना । तेरह तेरह पत्नियाँ क्या विलासिता का लक्षण नहीं तो हमारे पास कितनी है । हमारी माने तो तुम्हारा भी व्यवहार नहीं किया है और तुम स्त्रियों से निर्लिप्त तो हो नहीं । मेरा व्यवहार यहाँ की विधि से हुआ है, परंतु तुम्हारी भांति नहीं । एक ही रात में तेरह दे रहे उपस् थित हूँ । यहाँ से वहाँ की क्या विधि है? यहाँ विवाह तथा पत्नी नाम की कोई वस्तु रही युवती और युवक परस्पर मिलते हैं और जब किसी के घर पे ठहर जाता है तो उसको युवकों से मिलने नहीं दिया जाता हूँ । संतान होने के उपरांत उन्हें स्वतंत्रतापूर्वक अपनी इच्छानुसार युवकों से मिलती है, ऐसा प्रतीत होता है । यह बात तुमने वन पश्मीन सचिन की है परन्तु हमारा ढंग उनसे उन्नत है । इस अवस्था में कौन किस पिता की संतान हैं पता नहीं चलता हूँ । साथ ही है विधि अव्यवस्था उत्पन्न कर देगी । यहाँ पूर्ण समाज ही सब बच्चों के माता पिता है । बच्चे किसी की निजी संपत्ति नहीं होते था । कश्यप ने हसते हुए कहा, एक क्षेत्र में उत्पन्न अन्य की भर्ती क्षेत्र के स्वामी की संपत्ति होते हैं । यह पशुओं से भी निकृष्ट स्थिति है । हम में से सर्वश्रेष्ठ पद्धति मानते हैं । हम बच्चों का कोई सोनी स्वीकार नहीं करते और तुम क्या हो? मैं स्वामी नहीं हैं तो फिर मुझे उन को समझाने दो कि तुम एक अच्छी सम्मत दी नहीं दे रहे हैं । कैसे समझा हो गई? मैं इनके सामने ये सब कर दूंगा कि तुम इन सब को मरने के लिए तैयार कर रहे हो । पता यदि तुम किसी पर अनावश्यक आक्रमण के लिए कम हो गई तो तुम्हारा साथ छोड देंगे । और मैं आक्रमण करूंगा ही क्यों? तो फिर तुम्हारा ये झुकाओ लुक आओ तथा इनके प्रक्षेपण शस्त्रों का निर्माण किस प्रयोजन से है? ये तो वन पशु ने अपनी रक्षा के लिए क्या है? किसी मानव समुदाय से युद्ध करने के लिए नहीं । ऐसा कोई विचार नहीं । ठीक है, कल मैं हम पूरी की और लौट जाऊंगा । हम भी मेरे साथ । वहाँ चलो तो हमारा दक्ष कर्दम इत्यादि से अधिक मानने होगा । इसलिए तुमने अपने में कुशलता जो प्रकट की है तो मैं एक योग्य संगठन करता हूँ । तो तुम यदि वहाँ चलो तो तुम्हारी इस योग्यता के लिए तुम पुरस्कृत किए जा हो गए । इस प्रस्ताव पर बृहस्पति मुख देखता रह गया । उसे गंभीर भाव में विचार कर कहा, विश्वास नहीं होता । इस पर भी विचार करके बताऊंगा । अविश्वास की बात बताने के संबंध में नहीं थी । यह बृहस्पति के अपने साथियों के विषय में थी । उसने अपने माता पिता के कबीले वालों से पिता ने कि इतनी निंदा की थी । वे अत्यंत भडके हुए थे और उनको शाम तरफ सकना संभव प्रति नहीं होता था । राष्ट्रपति ने योजना बनाकर अपने साथियों को बता रही थी कि ब्रह्मपुरी पर आक्रमण कर न केवल अपने पुरखों की हानि का बदला लेंगे वरन यहाँ के अपार स्वर्ण भंडार को भी लूट लेंगे । एक सहस्त्र से अधिक धनुष मान से सुसज्जित योद्धा इस वन में एकत्रित थे । मैं सब तेज व्यवस्था में थे । इस विषय में परम तेजना का शो भ्रष्ट पति की माता सुनीति थी । माँ पुत्र को भी भडकाती रहती थी । सुनीति का तथा उनके माता पिता का भडकाना प्रभावहीन ही रहता । यदि बृहस्पति वेदवाणी पर श्रद्धा रख सकता हूँ । उसे जो कुछ इंद्रियों से अनुभव होता था, उसके अतिरिक्त वह किसी भी बात मानने के लिए तैयार नहीं था था । पिता में है कि जीवन निवान सा उसे अशुद्ध प्रतीत होती थी और वह समझने लगा था कि उस जीवन मिमांसा से मानव अंत में पशु बनने वाला है । इसी कारण मैं उस जीवन मिमांसा का विरोध करना मानव कार्य समझता था । इस उद्देश्य की पूर्ति में उसे अपनी माँ के पिता के परिवार के लोग सहायक मिल गए । सुनी थी कि माता पिता के कबीले वाले जीवन मिमांसा के विषय में कुछ नहीं जानते थे । उनको इसमें किसी प्रकार का विरोध अनुभव नहीं होता था । उनको तो बीस वर्ष पूर्व अपने कबीले वालों की पराजय की स्मृति कष्ट दे रही थी । इस कष्ट का प्रतिकार लेने में बृहस्पति उनका सहायक था । जब बृहस्पति ने अपनी योजना बनाई और उनको ब्रह्मपुरी आने का धन वैभव लूटने की आशा दिखाई तो सब तैयार हो गए । धनुषबाण बृहस्पति का अविष्कार था और इससे पशु हत्या में सुगमता देख सकते पसंद थे और ब्रहमपुरी पर आक्रमण की तैयारी होने लगी । एक बात बृहस्पति की चिंता का विषय ही वो थी । पता है कि योगविद्या यद्यपि उसमें इसका चमत्कार कभी नहीं देखा था, परंतु है उस के विषय में किंवदंतियां सोंचता रहा । ये अज्ञात भय था और उसका पार पाने के लिए उसकी योजनाएं थी कि पिता मैं को किसी प्रकार बंदी बना लिया जाए और तदंतर पूरी पर आक्रमण करें । कश्यप आया उसके मन में ये विचार हुआ । यदि पिता मै संपत्ति का सबसे सामान्य रूप में वितरण मान लें तो उसके ननिहाल के लोग अनायास ई धनसंपदा से युक्त हो जाएंगे और यदि वह यह नहीं मानेंगे तो अपने साथियों को लेकर पुरी में रहना आरंभ कर देगा । जब अपने लोग पुरी में रहते हुए परिश्रम करने लगेंगे तो वहाँ पूरी के भीतर ही विप्लब उत्पन्न करना सुगम होगा । इसी कारण उसने कश्यप को कहा था कि वह विचार करके बताएगा । कश्यप उसके साथ ही सहित कुटिया में ठहरा दिया गया और वह अपनी माता से विचार करने जा पहुंचा हूँ । उसने माता को बताया कि मरीची का पुत्र कश्यम उसे ढूंढता हुआ यहाँ पहुंचा है । वो यहाँ के योद्धाओं को धनुष मान लिए युद्ध के लिए तैयार देख चुका है । माँ अब क्या किया जाए? राष्ट्रपति ने पूछा हमने क्या विचार क्या है? वो कहता है कि वह पिता में से हमारी संधि करा देगा । संधि कैसे होगी? मैं उस पुरी में चलकर रह सकता हूँ । वहाँ हम में से कोई अथवा सब चल सकते हैं और वहाँ रह सकते हैं । वहाँ पडती भूमि पर अधिकार कर फल, फूल, कंदमूल तथा अन्य उत्पन्न कर सकते हैं । वहाँ के धनी मानी नागरिकों के घरों, उद्यानों अथवा क्षेत्रों में सेवा कार्य भी प्राप्त कर सकेंगे । मुझे इसमें किसी प्रकार की धोखाधडी प्रतीत होती है । पिता में है, अति बुद्धिमान हैं । इस कारण उनसे सबकुछ की आशा की जा सकती है । अच्छा उसकी बुद्धि का मानना बताओ उसकी बुद्धि का सामना बुद्धि से ही किया जा सकता है । बेटा हम पराजित हो जाओगे माँ अभी तो कहा करती हूँ कि वह योगशक्ति से गंगा नदी का बहना बंद कर सकता है । युद्ध में वो क्या करेगा, ये भी तो विचार नहीं है । मैं समझती हूँ या वो हो गया है उसमें वो शक्ति नहीं रही होगी जिससे गंगा का बहाव रोक सके । फिर भी यह शक्ति तो है उसका सामना करने के लिए भी वो कुछ करता होगा । इस पर तुम क्या विचार कर रहे हो? यही कि उससे संधि का लोग संधि में ये स्वीकार करवा लूँ कि हमारे लोग भी वहाँ रहते हुए जीवन निर्वाह कर सकें । जब हम सहस्त्रों की संख्या में वहाँ रहने लगे और साथ ही अपना संगठन रख सकें तो फिर एक दिन अवसर मिलते ही मैं पिता नहीं के स्थान पर जाकर रह जाऊंगा और पिता मैं सहित सब को रास्ता की श्रृंखला में बांध लूंगा । देख लो इसमें भी है । अभय की चिंता ना करो मा मैं कश्यप के साथ जाऊंगा और अपने साथ एक सौ के लगभग यहाँ के लोग ले चलूंगा । जब मैं वहाँ रहने लगूंगी तो तुम दो दो चार कर यहाँ के वनवासियों को वहाँ भेज देना । इस बार में पिताजी के घर पर नहीं रहूंगा । मैं अपना पृथक आवास बनाऊंगा और हमारे लोग मेरे आवास के चारों और अपने निवास स्थान बनाकर रहेंगे । इस प्रकार मैं वहाँ अपना एक पृथक नगर बनाऊंगा । तब एक दिन अवसर पाते ही सुनीति समझ गई और बोली ठीक है यदि किसी प्रकार की छलना हुई तो समाचार भेज देना और मैं अपने योद्धाओं के साथ हमारी सहायता के लिए पहुंच जाऊंगी । इस प्रकार अगले दिन कश्यप उसका साथ ही वनवासी तथा बृहस्पति और उसके साथ एक सौ से कुछ अधिक स्त्रीपुरुष चल पडे । सब ने अपने कंधों पर धनुष बाण लटकाए हुए थे । ये लोग वनस्थली से चले तो पांच दिन की यात्रा पर हम पुरी में जा पहुंचे । बृहस्पति ने अपने साथ ही पुरी के एक खुले स्थान पर बैठा दिए और कश्यप बृहस्पति को लेकर पिता में है कि निवास गृह पर जा पहुंचा पे काम है की स्वीकृति से वे उनके सामने उपस् थित हुए तो कश्यप ने पिता में है कि चरण स्पर्श किए और जब तक पिता मैंने बैठने को नहीं कहा बैठा नहीं मैं सम्मुख खडा रहा । बृहस्पति ने केवल नमस्कार की और पिता है कि संभव बैठ गया । पिता मैंने मुस्कुराते हुए कहा बैठो कश्यप कहाँ रहे इतने दिन भगवान दक्षिण के वन में बृहस्पति के रहने का पता चला था था वहाँ इसको ढूंढता रहा । कई मांस की खोज के उपरांत इसे पा सका और इस से यह आश्वासन देकर यहाँ से आया हूँ । आप इसके पूर्व के अनियमित व्यवहार के कारण इसे दंड नहीं देंगे । दशक देख रहा था बृहस्पति ने अपना व्यवहार ऐसा बना रखा है कि मानव है, पिता में है कि सामान है । इस कारण पितान है कि रुष्ट होने की रोकने के लिए उसने अपने इस आश्वासन की बात सुना दी । पिता मैंने कहा इसके जितने साथ ही थे, उनको हमने कभी कष्ट नहीं दिया । नहीं उन्हें किसी प्रकार का दंड देने का कभी विचार किया था । बृहस्पति हमने हमारा किसी भी प्रकार से अब कार नहीं किया । इस कारण हमारे मन में तुम्हारे विरुद्ध किसी प्रकार का भी विचार नहीं था । इस कारण हम तुमको दंड नहीं दे सकते थे । फिर भी तो मैं एक बात समझ लेनी चाहिए । जब तुम किसी का आप कार करोगे तो निस्संदेह वह उस अब कार का प्रतिकार लेगा । तुमने समाज का अपमान किया था तो तुमने समाज में रहने के ढंग को अस्वीकार कर दिया था । यदि अब भी तुमने समाज का किसी प्रकार से अनिष्ठ क्या समाज तुम पर रूष्ट होकर प्रतिकार लेगा? परन्तु पिता में जब समाज के नियम नियम हो जाए तो उनका भंग करना क्यों होगा? अनियमित व्यवहार भूल है और भूल का विरोध होना चाहिए । उपराष्ट्रपति सब ठीक रहते हो परन्तु इस बात का निर्णय कौन करेगा? समाज का नियम खाने कर है अथवा अन्य आयुक्त है, यह समाज ही निर्णय कर सकता है । समाज को चेतावनी दी जानी चाहिए । फिर काम है एक अत्यंत अहानिकर नियम । आपने प्रतिपादित किया मैंने उसके संबंध में जिनको हानि हो रही थी उन को चेतावनी दे रही है । उन्होंने उप देव को लूटा, बताओ उसमें क्या हुआ? ये बात तो मुझे किस लिए पूछते हो । जिस समाज को तुम ने चेतावनी दी थी उसी से जाकर पता करो कि उन्होंने तुम्हारा कहा मना क्यों नहीं? आपने पुल है, उनको पथभ्रष्ट कर दिया है । ये भी तुम उनसे ही पूछो । मैंने उनको क्या कहा है? जल्दी वे बहकाए गए हैं तो क्यों? भगवन अब आया हूँ तो उनसे पूछूंगा ही और उनको पुनः सीधे मार्ग पर ले जाने का यत्न करूंगा । ठीक है, मैंने इससे मना नहीं किया और एक बात तो मैं समझ लेनी चाहिए कि तुम्हारी और कश्यप की अनुपस्थिति में एक यह नियम स्थापित हो चुका है । यदि कोई बलपूर्वक मनमानी चलाए तो उसको बाल से रोका भी जा सकता है । परिणाम यह हुआ युव देव ने अपनी रक्षा के लिए कुछ संरक्षक नियुक्त कर रहे हैं और वे शस्त्रास्त्र सचित हैं । ऐसे शस्त्रों से सुसज्जित हैं ये उसको विदित हो जाएगा, जो अब उसके घर पर डाका डालने आएगा । अभी बातचीत चल ही रही थी कि पिता में है कि सेवक ने भीतर आकर कहा पिता में पता नहीं मुझे उठाकर पूछा हैं क्या कहते हो महाराष्ट्र पूरी पर कुछ वनवासियों ने आक्रमण कर दिया है । ट्रंप फिर हमने तो ये नियम बना रखा है । जो किसी पर अत्याचार करेगा, वो पाई है और प्रताडित व्यक्ति ताई को दंड देने का अधिकार रखता है । धम्मा ने सूचना लाने वाले को कहा, पर भगवन बहुत अधिक संख्या में हैं । समाचार लाने वाले ने कहा नगरवासियों की संख्या से भी ज्यादा वो तो नहीं, परन्तु वो एक प्रकार के अस्त्रों से सुसज्जित हैं । उन अस्त्रों से पूरी वासियों की हत्या कर रहे हैं । अच्छा हूँ और देखो कि वे भाग गए हैं तो नहीं । आपने शास्त्र छोडकर अधीनता स्वीकार करें । उन्हें यहाँ आश्रम में बंदी बना कर लेता हूँ । सेवक तो ये देख कराया था कि ब्रह्मपुरी के नागरिक वनवासियों के बाणों से घायल हो । भावविभोर होकर घरों में छिप रहे थे । यहाँ पिता में कह रहे थे कि वनवासी भाग रहे हैं, फिर भी पिता मैं के आदेश के अनुसार वह भागा हुआ आश्रम से वनवासियों के आक्रमण स्थल की और चला गया । जब सेवक चला गया तो पिता मैंने बृहस्पति से पूछ लिया, ये वनवासी तुम्हारे साथ आए प्रतीत होते हैं था । एक सौ से ऊपर आए हैं तो उनको यहाँ क्यों नहीं ले आए? मैं आप से जानना चाहता था कि उनको कहाँ रह रहा हूँ । कुछ अन्य कबीलों के लोग भी नगर की सुविधाओं से लाभ उठाने के लिए यहाँ आ रहे हैं और वो भी बिना मुझसे पूछे नगर के बाहर अपनी इच्छानुसार अपनी कुटिया बनाकर रहते हैं । देवर मुख्यमार्गों के अतिरिक्त कहीं भी स्थान लेने की स्वीकृति है । परंतु मैंने उनसे कहा था वे शांति से रहे । मैं उन्हें वृक्षों के एक झुरमुट के नीचे बैठा कराया था । वो सूचना सूचना दे । बृहस्पति उठते हुए बोला मैं उनकी अवस्था देखने जा रहा हूँ । प्राय सभी यहाँ लाए जा रहे हैं तो मैं जाने का कष्ट करने की आवश्यकता नहीं है । राष्ट्रपति अभी विचार ही कर रहा था, जाएँ अथवा नहीं या फिर वही ठहरे । बाहर बहुत से लोगों का हल्ला सुनाई देने लगा । किताब है आश्रम की जल्दी शाला में आकर खडे हो गए । यज्ञशाला के सम्मुख मैदान में सत्तर अस्सी के लगभग वनवासी स्त्रीपुरुष ब्रहमपुरी के नागरिकों से घिरे हुए वहाँ खडे थे बृहस्पति और कश्यप दोनों पिता नहीं से कुछ पीछे हटकर खडे थे । नगर का एक मुखिया पिता उन्हें को देख आगे बढाऊं और हाथ जोड प्रणाम कर बोला भगवान! ये लोग सोमनाथ के उद्यान में एकत्रित हो गए थे । नागरिक उनको देखने वहाँ जा पहुंचे थे । नागरिक इनसे कुछ अंतर पर खडे थे । एक किसी के आदेश पर इन लोगों ने अपने कंधों पर रखे अस्त्र तारें और तीव्र नोकदार शहर रख नागरिकों पर छोडने लगे । नागरिक घायल हो भागने लगे तो उन्होंने पीछा करते हुए नगर में घुसकर लूट मचा दी । कुछ ही काल में नागरिकों ने अपने को संगठित कर लाठियों से इन पर आक्रमण किया । वे अपने अस्त्र उतारकर छमा मांगने लगेगे भगवन इनके छरों से चालीस के लगभग नागरिक घायल हुए हैं और नागरिकों की लाठियों से दस बनवासी तो मारे गए हैं और बीस के लगभग घायल महर्षि अत्रि के निवास स्थान पर नहीं किए गए हैं । पिता मैंने मुखिया के कथन पर किसी प्रकार की अपने मन की प्रतिक्रिया बताएँ बिना बृहस्पति से पूछा, बताओ तुम क्या कहते हो? मैं अपने व्यक्तियों से पूछना चाहता हूँ कि ये दुर्घटना कैसे हुई है? यद्यपि मुझे विश्वास है कि मुखिया अमृत भाषण नहीं करता हूँ । फिर भी मैं जानना चाहता हूँ कि ये लोग क्या कहते हैं । बृहस्पति ने आगे बढकर एक वनवासी को अपने सामने बुला पूछ लिया । ये घटना किस प्रकार हुई है? वनवासी ने अपनी भाषा में कुछ बताया तो बृहस्पति पिता है की और मैं घूमकर बताने लगा कि बनवासी क्या कह रहा है । परन्तु पूर्व इससे बृहस्पति पिता मैं को बनवासी की बात बताए । वनवासियों में से स्त्री लगभग कर जब द्विवेदी के समीप परन्तु नीचे आकर खडी हो गई और बृहस्पति से कुछ कहने रही राष्ट्रपति उससे वहाँ विवाद करने लगा । पिता में है उस तरीके मुख पर क्रोध का भाव देख रहा था । साथ ही वह प्रवक्ता वनवासी के मुख पर भय और लग जा के लक्षण देख रहा था । पिता में है उनके मुख पर अंतर भावों से हम अपने अनुमान से सब समझ गया । उसने बृहस्पति को डांट के भाव में कहा । राष्ट्रपति मैं समझ गया हूँ स्त्री क्या कह रही है और तुम उसे सत्य कहने से घुमा रहे हो । थोडा इस विवाद हो । बताओ ये पुरुष और स्त्री क्या कहते हैं हम स्वयं अनुमान लगाएंगे । अकाउंट सत्य कहता है पर पिता में बृहस्पति को चढकर कहा आप समझ रहे हैं तो फिर मेरे बताने की आवश्यकता नहीं । आप बताइए कि अब वे क्या करें? बृहस्पति पुरुष ने दोष नागरिकों का बताया है । उसका इनकी और से किसी बात के पहल किए जाने की बात कही है । परंतु उस स्त्री ने इसे मिच्छा कहाँ है? जब भी इस पुरुष का नागरिकों के विपरीत आरोप में समझ नहीं सका परमप्रिय है, निर्विवाद है । उसने झूठ बोला है । स्त्री ही उसके झूठ बोलने की बात कही है । वो सब होने पर भी मैं कहता हूँ यदि तुम्हारे लोग वन को लौट जाना चाहे । मैं इन को स्वीकृति दे सकता हूँ, ये जाने के लिए स्वतंत्र हैं । यदि यह नगर में रहना चाहे तो रह सकते हैं । इनके लिए स्थान की व्यवस्था नगर का मुखिया कर देगा । परंत ये वहाँ पर धनुष बाणों के बिना रहेंगे । साथ ही इन को किसी के फल उद्यान में से बिना मूल्य दिए फल तोडने की स्वीकृति नहीं है । मूल्य परिश्रम करने से इन को मिल जाएगा । परिश्रम महर्षि अंगे्रजी बताएंगे । पारिश्रमिक रज्यों में मिलेगा और उससे ही अपनी आवश्यकताओं को क्रय कर सकेंगे । इसके अतिरिक्त वन के फल कंदमूल वे स्वेच्छा से प्रयोग कर सकते हैं । नगर में रहने के लिए सब्जियों के से वस्त्र पहनने होंगे । प्रथम बार के लिए हम नगर के मुखिया को आज्ञा देते हैं । इस वर्ग को उचित वस्त्र दे दें और जो इनके पुरुष मर गए हैं । राष्ट्रपति ने पूछा युद्ध में मरने के कारण स्वर्ग प्राप्त करेंगे और जो नागरिक मारे गए हैं, मुखिया की सूचना है कि कोई मरा नहीं घायल हुए हैं । उनके घावों पर औषधि लगा दी गई होगी । बृहस्पति इतने से संतुष्ट था । इसका अर्थ वह समझा था, पिता में है । उन वनवासियों को लूटमार करने के लिए दंड नहीं दे रहे और नहीं उनको इन उच्च ठंड वनवासियों को साथ लाने के कारण अपराधी मानते हैं । इसी प्रसन्नता में उसमें पूछा मुझे क्या गया है? आ जाओ कुछ नहीं । यहाँ सब स्वतंत्रतापूर्वक धर्म का पालन करते हैं तो उनको भी करना चाहिए भगवान जो बात आज तक मेरी समझ में नहीं आई, वो ये धर्म ही है । बिना जाने इसका पालन कैसे कर सकूंगा, वो मैं बता दूंगा । बृहस्पति ने उसी वनवासी को झगडे का वृतांत बता रहा था । कह दिया कि वह अपने सब साथियों के साथ नगर के मुखिया द्वारा बताये स्थान पर रहे । उसने यह भी कहा, मैं पिता में ऐसे अन्य बातें जन का नहीं आता हूँ जहाँ आपको ठहराया जाएगा । इतना कहकर पितान है की साथ आवाज के भीतर चला आया । इस समय कश्यप ने भी कम है से कहा था मैं मुझे अपनी पत्नियों को छोडे । तीन मांस के लगभग होने जा रहे हैं । मुझे स्वीकृति दी जाए तो मैं उनसे मिलने के लिए जाऊँ । बृहस्पति हस पडा फसकर उसने कहा था मैं इसे स्वीकृति दी जाए ये देखें इसके क्षेत्र में कोई अन्य तो नहीं प्रविष्ट हो गया कश्यप गया तो पिता मैंने पूछा हूँ राष्ट्रपति मैं जानता हूँ कि कश्यप की पत्नियां प्रसन्न और सुरक्षित हैं । यहाँ कोई ऐसा व्यक्ति नहीं रह सकता । चोर हो, अमृत भाषी हो अथवा कामनाओं से पीडित हो उस की तेरह पत्नियां इसने काल तक काम से उत्पीडित नहीं । नहीं नहीं काम वासनाओं का बडा पुत्र है । जब कामनाएँ ही नहीं तो पुत्र कहाँ से आ गया । कामनाओं की शांति सत्संग से होती है, कामनाओं के भोग से नहीं हो प्रज्वलित कामनाओं पर जी का कार्य करता है । इन की शांति का उपाय विवेक और संयम है । कश्यप की पत्नियां नृत्य साईं वहाँ वेद का प्रवचन सुनने आती हैं और उनकी कामनाएँ शांत रहती हैं । मैं जानता हूँ मैं एंड तेरह जलती हुई लकडियों से मेरा अभिप्राय है कि सुंदर युवतियों को एक जिले से बांध कर रखना क्या पाप नहीं है । मैंने इनको किसी भी जिले से नहीं बांधा । इनमें से प्रत्येक स्वतंत्र है वो जहाँ चाहे जा सकती है । हम वहाँ साईं प्रवचनों में उनकी कामनाओं को शांत करने का यत्न करते रहे हैं । पिता महीने बाद बदल दी । बृहस्पति से पूछने लगे हमने विभाग क्या है या नहीं उस ढंग से नहीं की जिस ढंग से यहाँ विवाह होते हैं । फॅस तरीको आपने कभी लेके पुरुष के वक्तव्य को गलत बताने के लिए यज्ञशाला के समीप खडी हुई थी । आज तक मेरी पत्नी के रूप में मेरे साथ रहती है तो पहले किसी अन्य के साथ रहती थी । इसका वृतांत ज्ञात नहीं है । मुझे अति सुंदर प्रतीत हुई थी । इस कारण जिस पुरुष के साथ भी उसको मारकर मैंने इसे वार लिया है, अब रहते दिनभर वन में घूमती है और रात को मेरे शयनागार में होती है । पिता नहीं ने विचार करके पूछा इसके अतिरिक्त भी तुम्हारे शरीर नासार का भोग कोई करती है, बहुत रह चुकी हैं । मुझे उनकी गणना स्मरण नहीं परंतु जब से वो आई है तब से किसी अन्य का साहस नहीं हुआ । इसको वहाँ आने से रोकें और स्वयं आ रहे हैं । पिता में हंस पडे और बोले तब तो प्रशासन सबसे अच्छी स्थिति में है । उसकी कोई भी पत्नी किसी दूसरे को न तो कश्यप के शयनागार में जाने से रोकती है और न ही एक के वहाँ होते । दूसरी वहाँ घुसने की इच्छा रखती है । अधिकार कश्यप का है । किसको आपने शयनागार में स्वीकार करता है तो एक पृथक बात है कि वो अपनी पत्नियों की इच्छाओं का मान करता है । ये बात मुझे कश्यप ने बताई है परन्तु मुझे इस पर विश्वास नहीं आया । शरीर की मांग की पूर्ति करनी ही पडती है । वास्तविक बात ये है कि विषयों का चिंतन करने से कामनाएँ उभरती हैं । कामनाओं की पूर्ति के अभाव में क्रोध उत्पन्न होता है । अब विवाद होते हैं और विनाश होता है । पता इस दूषित श्रृंखला के उद्गम स्थान अर्थात विषयों के चिंतन को ही रोकना चाहिए । बीच में वह श्रृंखला नहीं टूट सकती और विषयों का चिंतन चिंतन से ही रोका जा सकता है । उसके लिए सब संग है । साधु महात्माओं की संगती से वह संभव है । बृहस्पति की रुचि इस विषय में नहीं थी । वो समझता था की अर्थव्यवस्था में सुधार हूँ । ब्रहमपुरी की अर्थव्यवस्था, गुण, कर्म, स्वभाव और परिश्रम से संबंधित थी । राष्ट्रपति चाहता था कि अर्थ जिस किस प्रकार से भी उपलब्ध क्यों ना हो, मानव समाज की साझी संपत्ति है और कोई ऐसा ढांचा होना चाहिए जिससे अर्थ का वितरण सामान्य भाव में हो सके । राष्ट्रपति ने कह दिया, मैं आपकी अर्थव्यवस्था को पसंद नहीं करता । इससे धन एक स्थान पर एकत्रित हो जाता है और हो रहा है । पिता महीने मुस्कराते हुए पूछ लिया धन क्या है? यह परिश्रम का एक रूप है । ठीक है, परंपरिक व्यक्ति थलों की ऋतु में अधिक परिश्रम कर फल संचय कर लेता है और जब फल उपलब्ध नहीं होते तो वहाँ उनको निकालकर प्रयोग करता है । इसमें क्या हानि है तो सब करते हैं । कुछ लोग ये करते हैं कि फलों का संचय नहीं करते हैं । विफल को रजत ओके विनिमय में दूसरों को दे देते हैं और फिर रजत ओं से अपनी अन्य वस्तुएं जब उन की आवश्यकता होती है, कराये कर लेते हैं तो तुम इस बात का विरोध करते हो? नहीं, यह स्वाभाविक ही है । तो तुम क्या इस बात का विरोध करते हो? एक व्यक्ति अपनी युवावस्था में जब वह अधिक परिश्रम कर सकता है, करता है और भूख के उपरांत शेष परिश्रम के विनिमय में रजत बटोर रखता है और अपने वृद्ध अवस्था में प्रयोग करता है । नहीं वह भी नहीं । तो क्या तुम इस बात का विरोध करते हूँ । एक पिता विशेष बुद्धि रखने के कारण अधिक परिश्रम से धन को संचित कर अपनी संतान को दे देता है । हाँ, यह घोर अन्याय होगा । इससे धन के बल से धन उपार्जन में सहायता मिलती है । तुम ये चाहते हो कि किसी पिता के देहावसान के समय वह अपने पुत्र को कुछ नहीं देगी । अपना परिश्रम तो वह दे नहीं सकता हूँ । इस कारण वह परिश्रम का प्रतिरूप धन दे सकता है । भला हो क्यों ना देखें इस कारण की जिसमें परिश्रम नहीं किया, उसको किसी अन्य के परिश्रम का फल मिल जाता है तो उस दिन का क्या किया जाए? क्या वो गंगा नदी में वहाँ दिया जाए? नहीं, उसका समाज में वितरण कर दिया जाए । आधार वह धन उनको मिल जाए जिन्होंने उसके अर्जन के लिए परिश्रम नहीं किया । तब हमने मना क्या किया है? उन कहते हो कि उसके पुत्र थोडा मिले तो किसने? परिश्रम नहीं किया तो दूसरों को दे दिया जाए । परिश्रम तो उन्होंने भी नहीं किया । मेरी मुख्य आपत्ति धन का एक स्थान पर एकत्रित होना है तो इस अतिरिक्त धन का वितरण होना चाहिए । यही कह रहे हो ना उसका एक उपाय । मैंने विचार क्या है, वह दान है । इसका गुण यह है कि परिश्रम करने वाला ही स्वेच्छा से अपने अतिरिक्त परिश्रम के फल का वितरण करता है और वहाँ करता है जहाँ है पसंद करता है । मैं चाहता हूँ कि उस वितरण में दूसरे भी सहमती दे सकें, परंतु मैं बल प्रयोग से ऐसा करना ठीक नहीं मानता हूँ । जिसने धनोपार्जन किया है, उसी को प्रेरणा देकर लोक कल्याण के कार्यों के लिए दान दिलवाना ही ठीक मानता हूँ । मैं प्रेरणा देकर उसे अपने ढंग से वितरण करवाना चाहता हूँ । ठीक है, बिना बल प्रयोग करो । प्रभारी वनवासी जो करने लगे थे, उसकी स्वीकृति नहीं दी जा सकती । बृहस्पति मैं बात नहीं मानते । इसी से तुम मेरी बात को समझ नहीं सकते हैं । वो है मनुष्यों में एक आत्म तत्व की विद्यमानता । आत्मतत्व का लक्षण चेतना है । चेतना अर्थ है किसी कार्य को आरंभ करने, उसे चालू रखने और उसका अंत करने की इच्छा । कोई काम कब, कैसे और किस दिशा में आरंभ किया जाए, चारु रखा जाए अथवा समाप्त किया जाए, वह मनुष्य में आत्मा करती है । यदि उसके इस उपकरण को तुम छीन लोगे तो निश्चय जानो । तुम उसकी चेतना को छीन रहे हो था तो हूँ उसकी हत्या कर रहे हो । यदि किसी की विशेष प्रतिभा, सामर्थ्य और परिश्रम से उपलब्धि को तुम किसी पात्र कुपात्र में वितरण कराना चाहते हो तो प्रेरणा से कराओ । किसी का नाम मैंने ध्यान रखा है । बृहस्पति कुछ ऐसा समझने लगा था कि वे एक वृताकार में घूमते हुए किसी परिणाम पर नहीं पहुंच रहे था । वह पिता मैं से अवकाश लेकर चल दिया । पिता में है या समझ रहा था कि वह निरुत्तर होकर जा रहा है । यथार्थ बाद ये थी कि वह आत्मा परमात्मा के विषय में विचार ही नहीं कर सकता था । बृहस्पति के वनवासी साथियों के लिए नगर के बाहर एक वन में रहने का प्रबंध कर दिया गया । वह एक दिन अपने पिता महर्षि अंगीरा से मिलने गया है । उसके लौटने के पंद्रह दिन उपरांत की बात थी । महर्षि अंगीरा को अपने पुत्र के साथ आए वनवासियों के दुष्कर्म का ज्ञान हो चुका था । वह पुत्र से मिलकर उसे समझाने का यत्न करना चाहता था परन्तु इस भाषा में वह स्वयं अपने पिता से मिलने आएगा । अपने निवास स्थान पर ही उसकी प्रतीक्षा कर रहा था । महर्षि अंगीरा अग्नि का उपासक था । वह अग्नि के गुणों को जान उससे भारती भारती के लाभ उठाने का यत्न कर रहा था । अपने निवास स्थान के समीप थी । उसने अग्नि संबंधी परीक्षणों के लिए अपनी प्रयोगशाला बनाई हुई थी । वहाँ अपना संपूर्ण समय उसमें व्यय करता और अपना लाभकारी ज्ञान दूसरों को सिखाता था । सीखने वाले शिष्य उसके प्रतिकार में धान देते थे । इससे अंगीरा सब महर्षियों से अधिक धनवान हो रहा था । उसने अपने भव्य निवास स्थान को प्रत्येक प्रकार की सुख सुविधा से युक्त बना रखा था । इसने उसे कभी विश्वास ही नहीं होता था कि उसकी पत्नी कुरीति क्यों इस सुख सुविधा से संपन्न घर को छोडकर वनों में जाकर रहती है । अपुत्र को भी उसके सामान ही बुद्धि वाला देखकर वह पुत्र से इसका कारण जानने के लिए उत्सुक था । बृहस्पति पिता के घर पर जाने के स्थान पर वनवासियों के साथ एक कुटी बनाकर रहता था । उसके त्याग और तपस्या का प्रभाव तो नगरवासियों पर भी हो रहा था और वह उसकी बात सुनने भी जाने लगे थे । किस प्रकार बृहस्पति को भ्रम पुरी में आए हुए एक पखवाडा व्यतीत हो चुका था । एक दिन उसकी समझ में आया या वो स्थिर हो गया है तथा उसे अपने पिता से मिलने जाना चाहिए वह । उस दिन भी वह उस दिन प्रातः सूर्योदय के समय पिता के घर पर जा पहुंचा । महर्षि अंगिरा यज्ञवेदी पर बैठे हुए हवन कर रहे थे । उसके दक्षिण अंग की और महात्मा श्रमिक बैठे थे और वाम कक्ष में बृहस्पति की विमाता सावित्री महार्षि अंगीरा मंत्र उच्चारण कर रहे थे और सावित्री यज्ञकुंड में आहुति डाल रही थी । शौमिक मुनि मंत्रोच्चारण की मधुर ध्वनि पर मुक्त महर्षि और उनकी पत्नी को देखते हो रहे थे । महर्षि के सामने जब कुंड के दूसरी और कुछ शिष्यगण थे भी जग्य में मंत्र चैनल से सहयोग दे रहे थे । इस समय बृहस्पति यज्ञशाला में यहाँ वसत हुआ । महर्षि अंगिरा ने आप के संकेत से उसे शिष्यगण में बैठ जाने को कहा और मंत्र पाठ में संलग्न रहा वो चारण कर रहा था वे दस से वह मित्र शुरू, प्रतिष्ठा ग्यातो, मौका बहूऍ । पदमपुरी निपुर । ओये भरण मैं मिष्ठान शर्मा प्रतिमा भी अज्ञात सम विषम वह रहा स्वान हाँ सोनम तनवंत प्रतिबंद आयु हूँ ये धम शक एम हत शाह नक्ष मना योग जीवन था शर्मा पुरुष इस प्रकार मंद के उपरांत मंत्र उच्चारण करते हुए यज्ञ चल रहा था । मैं राष्ट्रपति समझ नहीं सका । इस प्रकार भावों वाले मंत्रों का उच्चारण करने से लोग क्या सिद्ध करना चाहते हैं और इनका प्रभाव समाज पर क्या होगा? इतना तो वह समझ रहा था । ये मंत्र दूर से आए परिश्रम न करने वाले लोगों के विषय में है । आधार उसके साथियों के विपरीत अगली को आह्वान है परंतु अग्नि उनको किस प्रकार संतप्त करेगी रे तो इस अग्नि की बहुत से बहुत दूर है । अतः मंत्रालयों को समझता हुआ वो गंभीर विचार में पडा हुआ बैठा था । यह समाप्त हुआ और पूर्ण होती के उपरांत महर्षि अंगिरा ने आसन से उठते हुए बृहस्पति को संबोधन कर पूछा, राष्ट्रपति यहाँ नहीं का अवकाश मिल गया है । वहाँ पिताजी मेरा भी परिवार बन गया है और उसका प्रबंध करने में इतने दिन लग गए हैं और तुम्हारी मानता कहाँ है? वह वनस्थली में हैं । शेष परिवार के लोग वहाँ हैं और वह उन का प्रबंध करती है । कितने लोग हैं? यहाँ हमारे साथ एक सौ लोग आए थे । इनमें से दस पहले ही दिन मारे गए थे और दो उसके बाद मारे हैं । ये बताया गया है कि उनमें से कम से कम एक को तो तुम नहीं भरवाया है और दूसरे के विषय में कहा जाता है कि उसके किसी साथी ने अपने निजी बेहर के कारण उसे मार डाला है । बृहस्पति सबके सामने कुछ भी कहना नहीं चाहता था । इस कारण मौत था । फिर भी उसे जिसमें हो रहा था कि जहाँ पिता में पर बैठे सब सूचनाएं रखते हैं वहाँ उनका पिता भी उन के विषय में सूचना रख रहा है । उसे मॉम देख पिता ने अपनी पत्नी सावित्री को कहा, राष्ट्रपति भी प्राप्त है का आहार यहीं करेगा । राष्ट्रपति ने मना नहीं किया । मैं जिसमें कर रहा था की उसके पिता को ये ज्ञान है कि उसने अपनी पत्नी कमला को इस कारण मरवा डाला है कि उसने वनवासियों के विपरीत पिता में है कि सम्मुख हल्ला किया था उसे जिसमें इस बात का था कि पिता ही जानता था । पिता ये जानता था कि उसे अपने भोजनालय ने भोजन देने की वो बात कर रहा है । वो अभी भी मौत था । कारण ये कि कुछ बाहरी लोग वहां मौजूद थे । ग्यारह शिष्य थे और शौमिक मुनि थे । अंगीरा नहीं छोडने का परिचय दिया और कहा ये एक दूर आश्रम से अथर्व विद्या सीखने यहाँ आए हैं । वैसे ये बहुत संपन्न ऋषि हैं । इनका आश्रम यहाँ से अधिक समृद्ध है । शिष्यगण प्रयोगशाला में चले गए थे और महर्षि अतिथि यौनिक और पुत्र बृहस्पति के साथ भीतर आए तथा कुछ काल तक बैठक घर में बैठ बहुजन तैयार होने के समाचार की प्रतीक्षा करने लगे छोडने के बाद आरंभ कर दी । उस ने कहा आचार्यवर मैं अशुद्ध धातु को शुद्ध करने में अग्नि का प्रयोग सीखने आया हूँ । वहाँ से अंगिरा ने कहा ऋषिवर! केवल इतना ही पर्याप्त नहीं कि शुद्ध धातु निकली जाए और ये भी जानना चाहिए युज धातु को संस्कारित करने की भी आवश्यकता रहती है । बिना उसका संस्कार किये है उतनी लाभदायक नहीं होगी जितनी की होनी चाहिए । हमने यहाँ प्रयोगशाला में शुद्ध लोहे को संस्कारित करने के लिए परीक्षण किए हैं । संस्कारित लोहा भर बुरा नहीं रह जाता । इसे गर्म कर बारीक तारों में खींचा जा सकता है । इतने तीसरे शस्त्रास्त्र बनाए जा सकते हैं । मैंने ऐसे खडक बनाए हैं जिनकी सहायता से एक ही बार में किसी का भी सिर काटकर रखा जा सकता है । ये सुनकर की लौ से अतीत तीक्षण अस्त्रशस्त्र बन सकते हैं । बृहस्पति पिता की बातों में रूचि लेने लगा । वह दत्तचित्त होकर सुनने लगा । अंगीरा ने आगे कहा, मेरे इस सापुतारा बृहस्पति में भी पिता की प्रतिभा तो है परंतु विनय और शिष्टाचार नहीं । इसने वनों में रहते हुए एक ऐसा अस्त्र तैयार किया है जिससे सौ पकड दूर खडे शत्रु को घायल किया जा सकता है । हमने उस अस्त्र का नाम धनुष बाण रखा है परन्तु हमने एक ऐसे धनुष का आविष्कार किया है जो आकाश में उडते पक्षी का पीछा कर उसको मारकर भूमि पर ले आता है । इनका बांध तो धनुष के डोरे केबल से दूर फेंका जा सकता है पर तो हमने अपने बाढ को फेंकने के लिए अगली की शक्ति का प्रयोग किया है । बृहस्पति से मौन नहीं रहा गया । उसने आंशिक रूप से उत्सुकता और आंशिक रूप से व्यंग के भाव में कहा, परन्तु पिताजी आपके इस स्तर को हमने वनवासियों पर प्रयुक्त होते नहीं देखा । इस प्रश्न का आशय समझने के लिए पिता पुत्र का मुख देखने लगे । पिता को मोहन देख पुत्र ने एक बात और कह दी हमारे धनुषबाण तो एक व्यक्ति एक दिन में बीस तक बना सकता है । वनवासियों के सब धनुष नागरिकों ने पहले ही दिन तोड दिए थे । हमारे लोगों ने एक ही दिन में उससे दुगने धनुषबाण निर्माण कर लिए हैं । अंगीरा ने मुस्कुराते हुए कहा हम नहीं चाहते थे व्यर्थ में नरहत्या की जाए । यदि वैसे अस्त्र जनता के हाथ में होते तो तुम्हारे परिवार का अब तक एक भी व्यक्ति तुम्हारी सेवा के लिए उपस्थ इतना होता हूँ । पिताजी ये तो आपकी बहुत कृपा हुई है । एक प्रभाव और कर दीजिए । हम को भी उन आगने वस्त्रों का निर्माण बता दीजिए । आप की कृपा कि आश्रय हम नहीं रहेंगे । हम सोनम उनसे निपटा लेंगे तो हमें मारने के लिए उद्यत होंगे । एक है मैं सिखा सकता हूँ परन्तु उनको सीखने के लिए विवेक बुद्धि की आवश्यकता रहती है । हम अपनी खोज के परिणाम केवल विवेक वालों को ही देते हैं । पिताजी हमने रेट है । हम सांसारिक वैभव को मिथ्या और व्यर्थ का झंझट मानकर छोड चुके हैं । इस से बढकर त्याग और तपस्या और क्या हो सकती है कि हम सर्वथा सरल और व्यावहारिकता से शांतिपूर्वक यहाँ रहते हैं । हम देख रहे हैं की तुम लोग इस नगर के अन्य रहने वालों को देखकर अपना व्यवहार युक्तियुक्त तथा अनुकूल बना रहे हो । जब हम देखेंगे कि आप लोग सर्वथा शांति में हो गए हैं तब हम तुम्हारे परिवार के लोगों को अपने समाज में सम्मिलित कर उन को भी उन्नति के पथ पर डाल देंगे । इस समय सूचना मिली कि भोजन तैयार है । तीनों पुरुष भीतर भोजनालय में जा पहुंचे, आसन लगे थे और तीनों आसनों के समूह पतले भी अच्छी थी । उन पर मिट्टी के कुल्हडों में जल रखा था । तीनों हाथ होकर आशन पर बैठ गए । भाषी की पत्नी सावित्री भी उनके सामने एक आसन पर बैठ गई । वहाँ पत्तल नहीं लगी थी । सावित्री ने अपने आसन पर बैठने पर पुकारा । कमला हम ना एक लकडी चेक उठाने में, दूध में उबला हुआ एक प्रकार का अन्य ले आई । एक लकडी की कलछी से वह अन्य को पत्रों पर टालने लगी । बृहस्पति अवाक उस लकडी को देखता रह गया । ये वही कमला थी जिसने वनवासियों के विचारों का आदर करते हुए मृत्युदंड देकर मरवा डाला था । मर जाने के उपरांत कमला का शव जंगल में ठुकवा दिया गया था । जब वह लडकी उनके सामने बिची पत्थल पर अन्य डाल रही थी तो उसने पूछ लिया, तुम हमला हो । कमला ने बृहस्पति की और देखा और मुस्कुराकर शेष बचा अन लिए हुए भीतर रसोई घर में चली गई । ट्रोनिक मुनि! तो बृहस्पति के उस प्रश्न का अर्थ समझा नहीं, अंगीरा समझ रहा था, फिर भी वो मौन था । पिता को चुप देख बृहस्पति ने पूछा वो कौन थी जो ये भरोसा रही थी, मैं तुम्हारी प्रेमिका है । उच्चतम ने मरवाकर वन में भिजवा दिया था । हमारे एक नागरिक ने इसको जीवित परन्तु अचेत पडे देखा उठाकर महर्ष यात्री के पास ले गया । उन्होंने इसे औषधि देखा । ठीक किया तो इसमें इस घर में सेवा कार्य करने की इच्छा प्रकट की । पांच यात्री ने इसे वहाँ भेज दिया । उसने बताया, ये तुम से प्रेम करती थी तो तुमने उसके पिता नहीं के समूह सत्य बात कहने पर अपने सेवक से उसका गला घोट मरवाने का यत्न किया था । वो मच गई और अपने पे भी ये माता पिता के घर में रहने की इच्छा करती है । बृहस्पति विषय में पिता का मुख देखता रह गया । पिता ने खाना आरंभ करते हुए कहा इसे हम चीर कहते हैं । धान की गुठली निकाल उसे भूसे से साफ कर दूध नहीं उबाल कर बनती है से और भी स्वादिष्ट करने के लिए इसमें दूध डाल दिया जाता है । बृहस्पति इस चीज बनाने के ढंग को नहीं सुन रहा था । उसका ध्यान कमला की बात विचारने में लगा हुआ था । ने कहा, हमला मुझे प्रिया थी परन्तु हमारे परिवार में सब कार्य सबकी सम्मति से होते हैं । इसके जाती भाइयों ने इनके पिता नहीं कि समूह कथन को परिवार के साथ रहो मान इसे दंड दिया था । मैं व्यवस्था और रहे हैं । हत्या हो गई तो हत्या नहीं हुई । ना देखो ईश्वर की इच्छा से तथा कर्मफल के अधिक जीवन मरण होता है । परमात्मा तुम्हारी इस बात को पसंद नहीं करते थे इसी कारण ये मारी नहीं । मैं उससे बात करना चाहूंगा । अंगीरा नशीर खाते हुए कहा ये उसकी इच्छा के अधीन ही है । सावित्री उसे बता देगी । तीनों भोजन कर रहे थे । चीन के उपरांत पूरी साठ भाजी आई । बृहस्पति ने अब मौन रहना ही ठीक समझा । भोजनोपरांत अंगीरा शौर्य कृषि को लेकर अपनी प्रयोगशाला में चला गया । बृहस्पति भी वहाँ जाकर देखना चाहता था परन्तु पिता ने कह दिया मैंने तुम्हारी माता से कह दिया है तुम कमला से बात करना चाहते हो । कमला से कहा गया है कि वह तुम्हारी माता के सम्मुख तुमसे बात करेंगी । मैं उससे प्रथक से मिलना चाहता हूँ । मैं भी उस की इच्छा पर है । हम स्वयं उससे पूछ लेना । इस कारण बृहस्पति अपने पिता के साथ प्रयोगशाला में नहीं जा सका जो तो उसने प्रयोगशाला पहले देखी थी परन्तु उस समय वह प्रयोगशाला को मात्र मन बहलाने की बात समझता था । अब पिता के मुख से सुना यागने की शक्ति से बाण चलाए जाते हैं तो उस की रुचि हो गई की प्रयोगशाला में जाकर इन अस्त्रों को देखें । अब कमला आकर्षण का केंद्र थी इस कारण वो घर में ही रह गया । वाशी के जाने के उपरांत सावित्री कमला के साथ बैठक घर में आ गयी । बृहस्पति चटाई पर बैठा था । दोनों स्त्रियाँ बृहस्पति के सामने आकर खडी हो गई । बात कमला ने आरंभ कि मैं भी बहुत ही कम वेदवाणी सीख सकती थी । इस कारण टूटी फूटी वेदवाणी में तथा कुछ अपनी वन भाषा में बोली बताइए आप क्या कहते हैं? मैं तुमसे क्षमा याचना करना चाहता हूँ । मुझे परिवार के लोगों ने विवश कर दिया था । जमा की आवश्यकता नहीं । मैं तो आपसे संतान प्राप्ति की इच्छा से आई थी और फंस गई आपके मुँह में । मैं तो अभी भी छोटा नहीं । इसी कारण स्वस्थ होने पर जब महर्षि अत्रि जी ने पूछा की मैं कहाँ जाउंगी तो मैंने आपके पिता का घर बता दिया । मैंने अपने मन की भावना इनको बताई । उन्होंने घर पर रख लिया ऍम के हूँ अच्छी बात तो मैं यहाँ हूँ । मैं कभी कभी यहाँ सोने के लिए आया करूँ, अभ्यर्थ है क्योंकि मेरी संगती व्यक्त किसलिए प्रतीत हुई है? पिछले दस दिन में मैंने जो कुछ देखा है उससे मुझे यहाँ का रहन सहन पसंद आया है और मैं माता जी की सेवा में रहना चाहती हूँ । उनका कहना है, तीसरी को संतानोत्पत्ति के अतिरिक्त पति से सहवास नहीं करना चाहिए और ये आप से हो नहीं सका । क्या हो नहीं सकता । संतानोत्पत्ति यदि आप कहीं होगी गई तो आपके सामान और बुद्धिहीन और अस्थिर मन होगी । मैं आप के पिता सामान शुद्ध आश्रम वाली संतान चाहती हूँ । ये तो हो सकती है परन्तु इससे तुमको के अलावा होगा । आपकी माताजी ने बताया है श्रेष्ठ संतान से मन प्रसन्न होता है । इनके पांच बच्चे हैं । एक लडकी है चंद्रकला और वे सब के सब जब यहाँ होते हैं तो बहुत ही प्रिय प्रतीत होते हैं और वे इस समय कहाँ है? नगर के उत्तर कक्ष में गुरुकुल है । पांच वहाँ शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । राष्ट्रपति ने अपने विमाता से पूछा उनको घर पर शिक्षा क्यों नहीं दी जाती है? वहाँ की आचार्य मुझसे अधिक योग्य है । चाहती वहाँ अन्य विद्यार्थी भी हैं । विवाह खेलकूद में प्रसन्न रहते हैं । मांस में दो बार पूर्णिमा और अमावस के दिन आते हैं । रात को भी आचार्यकुल में वापस चले जाते हैं और माँ आज कर देती है । आज एकादशी है आज से चार दिन उपरांत अमावस को आएंगे माता जी मैं उस दिन आऊंगा और कमला के पास रहूंगा । योग कमला क्या कहती हो? मंत्री ने पूछ लिया माता जी चित नहीं करता हूँ, उनका चाहती हूँ । सावित्री का प्रश्न था मैं चाहती हूँ कि ये उन वनवासियों के साथ रहना छोड दें अन्यथा वो अब अब भी उनको प्रसन्न करने के लिए मेरी हत्या कर देंगे । मुझे अपनी जाती वालों की बुद्धि पर अब बिलकुल भी विश्वास नहीं रहा । उपराष्ट्रपति ठीक रहती है । वो लोग अशिक्षित और हीन संस्कारयुक्त हैं । उनमें रहते हुए तुम भी हीन संस्कार और हीन बुद्धि रखने वाले बन गए हो । माता जी ये बहुत कठिन है । मैंने कई साल के कठोर परिश्रम से वहाँ की सृष्टि का निर्माण किया है । मैं आपके पिता हैं कि सवाल प्रतिष्ठित और सम्मानित बनना चाहता हूँ । मैं समझता हूँ कि मैं वह स्थिति प्राप्त कर रहा हूँ । मैं भी सा निकाल अपने शिविर में प्रवचन देता हूँ । आपने वनवासी तो उसे सुनते ही हैं परंतु उत्कृष्ट नगर के कुछ लोग भी आने लगे हैं । मेरे जीवन में मनसा और समाज की कल्पना उनको भी स्वीकार हो रही है । क्या जीवन में मनसा है तुम्हारी ये जीवन घटना वर्ष निर्माण हो गया है । इसका प्रयोग कुछ भी नहीं है । फिर भी यह अति रस्में है । इस कारण प्रकृति की सडक का लाभ यही है कि अधिक से अधिक रस प्राप्त किया जाए । मैं उनको प्राप्त करने का यत्न कर रहा हूँ । यहाँ आपके समाज में आकर वो सब कुछ सुख भोग प्राप्त नहीं हो सकेगा । हमने एक अंडे मस्तू का निर्माण किया है । उसे हम मध्य कहते हैं । मधु को जाल में मेरा ऍम मिट्टी के घरों में रख दिया जाता है । कुछ दिनोपरांत उनमें एक विशेष प्रकार की कंधे आने लगती है । जब हम उसका पान करते हैं तो संसार के रस ड्रैगन हो जाते हैं । यहाँ लोग उसे बनाना नहीं जानते । माताजी, मैं समाज की कल्पना भी इसी आधार पर बनाता हूँ । जिस समाज में आबाद सुख भोग की स्वीकृति हूँ, मैं समाज मेरा है । अभी देवता लोग इस जीवन में मनसा को नहीं समझते हैं । तब ठीक है तुम वहाँ का सुख हो करो । हम यहाँ के ढंग पर सुख भोगना चाहते हैं । कमला यदि वहाँ जाना चाहती है तो जा सकती है । यहाँ भी यदि इस की इच्छा हो तो इसको तुम्हारे संग रहते देख हमें हर्ष शोक कुछ नहीं होगा । अब बताओ । कमला राष्ट्रपति ने पूछ लिया, मैं कुछ निश्चित नहीं कर सकें । मैं कुछ दिन विचार करने के लिए चाहती हूँ । बृहस्पति तो उसको तैयार कर लूँ । हमने इसे पृथक आगार रहने के लिए दे रखा है कि चाहे तो तुमको वहाँ आमंत्रित कर सकती है । इस आश्वासन पर बृहस्पति ने प्रेमभरी दृष्टि से हमला किया और देखा परन्तु कमला ने सर हिलाते हुए कहा, नहीं आज नहीं अभी आपके शरीर से वनवासी लडकियों की कंधा आती है । पहले इस गंदे से स्वच्छ हो कराइए । ये कहकर कमला उठी और आपने आगार की और भाग गई । भीतर जाकर उसमें आगार कद्वार भीतर से बंद कर लिया । सावित्री ने निराशा भाव दिखाते हुए बृहस्पति से कहा एक हो बृहस्पति । अन्य वनवासी लडकियों से यह भिन्न प्रतीत होती है । भगवान जाने क्यों उसके मस्तिष्क में के बाद बैठ गई है कि पुरुष के सहवास का प्रयोजन संतानोत्पत्ति है, एशवर्थ है । इस कारण ये तुमसे संधि तो करना चाहती है और अंतिम तुम्हारी उन लडकियों से संगती तो इसके विपरीत विचार रखती हैं । इस सहन नहीं कर सकती । इसके पूर्व जान के संस्कारों के कारण ही प्रतीत होता है । बृहस्पति पूर्ण घटना से पहुंचता वनवासियों के शिविर में लौट गया । मैं कमला के आकर्षण को अनुभव कर रहा था । परंतु जो जो है वनवासियों के शिविर की ओर जा रहा था, उसके मस्तिष्क से कमला के आकर्षण का प्रभाव कम होता जा रहा था । उसके मन की महत्वाकांक्षा थी । पिता मैं की सामान, मान प्रतिष्ठा और समाज पर प्रभावी निर्माण करें । उम्र होने लगी थी । जब है शिविर में पहुंचा और शिविर के लोगों की अनेकानेक समस्याएँ होनी वहाँ कमला को भूल शिविर की समस्याओं में लीन हो गया । शिविर की सबसे प्रमुख समस्या भोजन की थी । अभी तक वनवासी वन में स्वतः बजने वाले कंदमूल खाकर निर्वाह कर लेते थे परन्तु नगर के लोगों को भारतीय भर्ती के खाद्य पदार्थ बनाते हैं । हम देश से देख लालसा करने लगे थे, उनको वैसे ही पदार्थ मिले । स्वादिष्ट भोजन के अतिरिक्त वे नगर में रहने वालों को भिन्न भिन्न रंगरूप के वस्त्र पहने देख वैसे ही वस्त्रों की लालसा करने लगे थे । धनवासी स्तरीय ऐसी लालसा करने वालों में अधिक संख्या में थी । आवाज की तीसरी समस्या थी । नगर में बहुत कम लोग थे, जिनको झोपडों में रहना पडता था । प्राय नागरिक मिट्टी, चूना अथवा सीटों के भवनों में रहते थे । नगर में भवन बनाने वाले लोग थे, परन्तु मेरे पिता में है की मुहर लगी मुद्राओं में अपने परिश्रम का प्रतिकार चाहते थे । स्वस्थ बनाने वाले भी मुद्राओं में मूल्य मांगते थे और भोजन सामग्री भी मुद्राओं पर ही प्राप्त हो सकती थी । वनवासियों में सबसे अधिक असंतुष्ट स्त्रियाँ थी । नागरिकों को स्त्रियों की भांति भांति के शनिनार किए रंग बिरंगे वस्त्र पहने घूमते हुए देखती थी और वैसे ही सामग्री की लालसा करती थी । राष्ट्रपति समझ गया वास्तविक समस्या रजत एवं स्वर्ण मुद्राओं की है । मुद्राओं को प्राप्त करने के लिए जनो कारी परिश्रम की आवश्यकता थी या वनवासी नहीं जानते थे । समस्या का एक सुझाव यह था इन वनकर्मियों को पूर्ण छूट दे दी जाए कि वे अपने परिश्रम को मुद्राएं प्राप्त करने में लगा दें । परिश्रम से मुद्राएं प्राप्त करने का ढंग जानते नहीं थे तथा लूट, चोरी और डाका डालने से मुद्राएं प्राप्त कर सकते थे । परन्तु प्रथम झडप में वनवासियों को बहुत पानी हुई थी । इस समय पुल है, जगह लेने में लाभ नहीं समझता था । मुद्रा प्राप्त करने का एक दूसरा उपाय था तो ये की कुछ बालक बालिकाओं को नगर के गुरुकुल में शिक्षा दी जाए । भारत बालिकाएं शिक्षित होकर अपने समुदाय के लिए मुद्रा अर्जन करने का ढंग सीख जाएंगे परन्तु इसमें समय लगेगा और असंतोष तो निरंतर बढ रहा था । साथ ही वनस्थली से समाचार आया । एक सौ अन्य वनवासी स्त्रीपुरुष बालक बालिकाएं आ रही हैं । माता सुनी थी । उन को भेज रही थी । बृहस्पति इन समस्याओं का सुझाव विचार करने में लीन बैठा था । एक वनवासी आया और बृहस्पति के सामने उपस्थित हो बोला भगवान मुझे चाहिए क्या हुआ? नदी के किनारे कुछ धीवर झोपडी में रहते हैं । उनका धंधा मछली पकडकर नगर में बेचना है । उन की स्त्रियों के पास भी रजत और स्वर्ण के भूषण है । एक ही वार लडकी के गले में स्वर्ण माला थी । मेरे मन में विचार आया कि वह माला मेरी लडकी के गले में हो तो बहुत सुंदर लगेगी । इस विचार के आते ही मैंने उस लडकी के गले से माना, निकालने में उसका गला घोंट दिया हो । या तो मर गई या फिर अच्छी हो गई है । मालूम है ले आया हूँ परन्तु कुछ दीवर लाठियां मेरा पीछा करते हुए यहाँ हमारे शिविर में आ गए हैं । मुझे मांग रहे हैं आपने संधीर मेरी हत्या कर देंगे । राष्ट्रपति ने पूछ लिया वो कितने हैं? सात आठ होंगे और तुम कितने हो? इस प्रश्न पर सम्मुख खडा वनवासी मुक्ति पा रह गया । कुछ देर तक विचार कर रहे बोला हमारे शिविर के प्रहरियों ने उसे रोक रखा है परन्तु मैं कह रहे हैं या तो मैं उनका अधिकार में कर दिया जाओ । अन्य सारे पूर्ण शिविर को अग्नि के पेट में झोंक देंगे । एक बार तो बृहस्पति के मन में आया कि कहते इन दीवरों को मारपीट कर भगा दो । महत्वपूर्ण शिविर को अग्नि की भेंट किए जाने की बात सुनकर मैं गंभीर विचार में पड गया । उसमें कुछ विचार कर अपने सेवक को बुलाया और शिविर के प्रहरियों को ये कहलवा दिया । विधिवित को भीतर मेरे सम्मुख खाने दो और उनको कहो कि वे अपनी बात मुझे बताएँ । अच्छे लग गया तो बृहस्पति ने सामने खडे वनवासी को कहा, जहाँ भी जाओ मैं सब वनवासियों को उन दीवरों के समय उपस्तिथ करूंगा और कहूँगा कि वहाँ जाने किसने लडकी का गला दवा है । हम सब के साथ इस देखा देखी में मत आना । मैं वनवासी शिविर के पिछवाडे से जंगल में घुस गया । दीवरों के सम्मुख स्त्रीपुरुष बाल वृद्ध सब वनवासी एकत्रित कर दिए गए और उन्होंने कहा हत्यारे वनवासी को पहचाने, हम उसको उचित दंड के लिए तुम्हारे साथ कर देंगे । उन्होंने कई बार वनवासियों को देखा और हत्यारे को वहाँ न देख कह दिया । तेहरा इनमें नहीं है ऐसा प्रतीत होता है । बृहस्पति ने कहा मैं भागकर वनस्थली में चला गया है । हम पता करेंगे और हम उसे यहाँ पकडकर मंगवाएंगे । हीरो ऍम तोश पर नहीं हुआ था परन्तु वो ये नहीं कह सकते हैं कि एक के अपराध कर दंड किसी दूसरों को दिया जाए । पता नही निराश लौट गए हत्यारे को वापस वनस्थली में भेज दिया गया । उसके बाल परिवार को भी उनके साथ लौटा दिया गया परन्तु ये समस्या का सुझाव नहीं था पर पिता नहीं के पास गया और अपने शिविर के कुछ बालक बालिकाओं को गुरुकुल में प्रवेश की स्वीकृति ले आया । उसी दिन साकार अपने प्रवचन में उसने कहा हमें भी धनोपार्जन के ढंग सीखना चाहिए । इस कारण मैंने यह निश्चय किया है कि हमारे शिविर के दस बालक बालिकाएं नगर में स्थित गुरुकुल में पडने जाएंगे । जब वे वहां से शिक्षा प्राप्त कर यहाँ आएंगे तो वे नगर से मुद्रा अर्जन करेंगे । इससे हमारा शिविर भी धनधान्य से संपन्न हो जाएगा । अगले दिन दस बालक बालिकाओं को गुरुकुल में आशा जी के पास भेज दिया गया परंतु वनवासियों में असंतोष बढता ही गया और ये दो दिशाओं में कार्य करने लगा । एक तो वनवासी चोरी का धंधा करने लगे और दूसरे कुछ नागरिकों के यहाँ सेवा कार्य करने लगे । एक दिन पता नहीं कि प्रवचन के उपरान्त एक नागरिक ने कहा था मैं मेरी पत्नी के भूषण चोरी हो गए हैं, कौन ले गया है, ले जाते, किसी ने देखा तो नहीं । फिर भी संदेह हैं की हमारे पडोसी विश्ववाणी चोरी की है तो क्या कार्य करता है, वस्त्र बनता था परन्तु कुछ दिन से उसने कार्य बंद कर रखा है तो भगवन ये तो वही बता सकता है परंतु आजकल वस्त्र बनने से उसके कल चलते नहीं । पिता मैंने पूछ लिया उस पर संदेह करने का कुछ आधार है । एक आधार पर है उसके कल निश्चल पडे हैं । परन्तु उसके घर में नृत्य उत्सव होते हैं है वनवासियों से मध्य क्रयकर स्वयं भी पीता है और अपने बच्चों को भी दिलाता है । क्या उत्सव करता है वो अपने घर में वनवासी स्त्रियों का उसके घर में आना जाना होता है और नगर के लोग भी वहाँ जाते हैं । तुम्हें नगर के मुखिया को सब की सूचना दी है अथवा नहीं । अपने घर की चोरी की सूचना तो दे दी है परंतु विश्व के घर की बात मैंने नहीं बताई क्यों उसकी अपने जीवन से संबंध रखती है । भगवन आपकी आ गया है कि सब अपने निजी कार्यों में स्वतंत्र है । चोरी के संबंध में मुखिया ने क्या कहा है? चोरी की गई वस्तुओं की खोज करने के उनके पास न तो साधन है और न ही उसकी सामर्थ्य है । किसी चोर को दंड दे सके । उनका कहना है की अभी तक समाज में अधर्माचरण करने वालों को प्रेरणा से ही पश्चाताप करने के लिए कहा जाता है । इसी कारण उसने आपकी सभा में उपस्थित हो सब बात बताने के लिए कहा है । ठीक है हम यत्न करेंगे की चोरी किया गया माल फिर से मिल जाए । पिता मैंने ये कह तो दिया परन्तु वो यह भी समझ गया कि अब केवल प्रेरणा से काम नहीं चलेगा । प्रेरणा के लिए तो दो माध्यम होते हैं वही है समाज अथवा परिवार के प्रमुख के प्रति मान प्रतिष्ठा और न्याय मुद्द्े । अब जीवन का आधार नास्तिकवाद हो, अपना कर्मफल की अनिवार्यता स्वीकार हूँ । वहाँ प्रेरणा सफल होती है परंतु जब किसी जगत नियंता के अस्तित्व पर विश्वास न हो और काम फल की अनिवार्यता मानने ना हूँ, वहाँ स्वतः धर्म का पालन संभव है । ऐसे समाज में जहां दोनों प्रकार के लोग रहते हैं । प्रेरणा से धर्माचरण करने वाले और पशु की भर्ती लाठी से सीधे मार्ग पर हाथ जाने वाले वहाँ धर्म की व्यवस्था होनी चाहिए और अधर्माचरण करने वालों के लिए दंड का विधान होना चाहिए था, पिता नहीं । मैंने अपने त्रिवर्ग स्मृति को चालना देने के लिए शीघ्रता करने का निर्णय कर लिया । नृत्य दो दो प्रहर तक महर्षियों की विचार गोष्ठियां चलने लगी । अभी ये घोषणा चल ही रही थी । एक अन्य किताब उपस्तिथ हो गई । वनवासियों के शिविर में जनसंख्या बढने लगी । वनस्थली के बहुत से वनवासी ब्रह्मपुरी के समीप के शिविर में आ गए । उनके साथ बृहस्पति की माता सुनीति भी थी कि शिविर वालों को काट काटकर विस्तार पाने लगा रहे । वनवासी वन में आखिरकर जीवन चलाते थे । वन पशुओं के चर्म से शरीर उठाते थे । शिविर में तो प्राइम नग्न रहते थे । नगर में जाते समय उत्तर यह पहनते थे । अधिकांश वनवासी नगर के रहने वालों का लाभ का कोई काम नहीं कर सकते थे । ये कुछ सीखने में रुचि भी नहीं रखते थे । अच्छा वन पशुओं के चर्म सी अथवा पक्षियों के पंख भेजकर और नगर की वस्तुएं क्रय कर सकते थे । सुनी थी । जब हम पुरी में आई तो वह बृहस्पति के पिता से मिलने जा पहुंची । कमला तब भी वही रहती थी, कमला और बृहस्पति में संबंध नहीं हो सका । कमला एकाकी जीवन से प्रसन्न और संतुष्ट प्रतीत होती थी । बृहस्पति के अनेक बार यत्न करने पर भी वो उससे संबंध बनाने के लिए उद्यत नहीं हुई तो एक ही बात चाहती थी वनवासियों की संगती का त्यागकर अपने पिता के घर में आकर रहे और बृहस्पति ये नहीं कर सका । सुनी थी आई तो अपनी सह पत्नी सावित्री । सावित्री के बच्चों और कमला से मिली भाषी अंगीरा ने पत्नी को कहा जीवन में रहते रहते पेट भर गया हो तो मैं सुन्दर, स्वच्छ है और सुखद निवास स्थान पर आकर रह सकती हो । इतने दिन खुले वायुमंडल और स्वच्छ संसार में रहते हुए ऐसा सुभाव बन गया है । इस घर के आगारों में रहते हुए दम घुटता, अनुभव होगा तब ठीक है तो तुम लोगों के स्वच्छंद जीवन की सीमा निश्चय हो गई है और जीवन को अब हम सीमा के बाहर नहीं चला सकेंगे । बृहस्पति को यहाँ सरकार हो गया है । यदि वहाँ आ जाता तो उस को भी सचेत कर देता हूँ । मैं कहता है कि कमला के प्रति उसके मन में प्रबल हो है और वैसे देख अपने पर नियंत्रण रखने में कठिनाई अनुभव करता है । यह उसकी पत्नी के रूप में रहना पसंद नहीं करती है । वो यहाँ आकर दुख अनुभव करता है परन्तु मैं दूसरी बात कह रहा हूँ । वो अब अपने को राजा के रूप में प्रकट कर रहा है । इसलिए उसकी प्रचार द्वारा किए गए को कर्मों का फल उसे भोगना पडेगा । यही चेतावनी में देना चाहता था तो वहाँ राजमाता के रूप में रहती तो इस कारण तुम भी अपने राज्य की प्रजा के गर्म फलों से मुक्त नहीं मानी जाओगी या दंड होगा । हमारे लिए यहाँ एक मानव स्मृति का निर्माण हो चुका है । उस स्मृति को चालू करने के लिए राजा की आवश्यकता अनुभव हुई है । राजा के कार्य के लिए महर्षि विरजा को आमंत्रित किया गया था । विरजा ने राज्य करने से इंकार कर दिया है तो फिर जा के पुत्र कीर्तिमान को ये पद स्वीकार करने का आग्रह किया गया । उसने भी से स्वीकार नहीं किया । कीर्तिमान के पुत्र कर जब ने भी राजा वरना स्वीकार नहीं किया । अब दर्जन के उत्तर आनंद से प्रार्थना की जा रही है कि वह राज्य भार वहन करें । सुनीति हंस पडी, हसते हुए बोली हमारी मीमांसा और आपकी विमान सा में यही अंतर है । पिता मैं ऐसे कह दीजिए । इतनी दूर जाने की की आवश्यकता है हूँ पर में ही एक राजा है बृहस्पति को राज्य पर दे रहें तब वह सब प्रबंध मुक्ति पूर्वक कर देगा । अब हसने की बारी अंगीरा की थी उसमें हसते हुए कहा वहाँ पे काम है को ज्ञात है कि बृहस्पति में संगठन करने की शक्ति उच्च कोटि की है परंतु संगठन करना एक काम है, ठीक है, किसी शुभ उद्देश्य से भी हो सकता है और किसी अशोक उद्देश्य के लिए भी धर्म का फल उस उद्देश्य के अनुसार ही मिलता है । देखो सुनीति कारण और उसमें सफलता बहुत बडी बात होते हुए भी जब निकृष्ट उददेश्यों के लिए होती है तो घोर पतन का कारण बन जाती है परंतु महार्षि वो अपनी अपनी बुद्धि ही तो है तो किसी कर्म कोशिश उद्देश्य वाला मानती है अथवा निकृष्ट उद्देश्य वाला । हम समझते हैं कि फल तो कामना के आधार पर मिलते हैं । जिस कामना से जो कार्य किया जाए, भले ही काम कैसा हो, उसी प्रकार का फल होना चाहिए । कामना से ही उद्देश्य का पता चलता है । कभी कामना के मूल्यांकन में भूल हो सकती है परंतु उस कामना के लिए किए गए कर्म का फल उस भूल को सुधारने में समर्थ होना चाहिए । जो मनुष्य अशुद्ध परिणामों को देखकर भी अपनी कामना के अशुभ होने को स्वीकार नहीं करता, वो यहाँ तो निपट मूर्ख माना जाना चाहिए । भगवान धूर हूँ, पिता हूँ और मुझे भी बृहस्पति के उद्देश्य पर कोई संदेह नहीं । उसकी इच्छा यह है कि वह अपने संगठन शक्ति का प्रयोग करें । अपने विचार से उतने लोक कल्याण के विचार से संगठन आरंभ किया है । परंतु उसकी जो परिणाम निकल रहे हैं उनको देखते हुए उसका संगठन कल्याण के स्थान पर कल्याणकारी सिद्ध हो रहा है । वह स्वयं भी परिणामों को देख रहा है । हम तो अपनी संगठन शक्ति का दूषित हो । वो छोड नहीं रहा था । उसको या तो मूर्ख मानना पडेगा अथवा धूर्त बिता नहीं तो बृहस्पति को मूर्त मानते हैं परन्तु मेरी दृष्टि में महादूत है । पिता में कहते हैं कि उसकी धूर्तता के कारण है । वो ये नहीं जानता कि उसकी व्यवस्था से जो अनाचार और अत्याचार व्याप्त हो रहा है वो उसको भी भारी कष्ट देने वाला है । मेरा मानना ये है कि वो सब कुछ जानता है परन्तु वो अपने विषयों से तथा महत्वाकांक्षा से प्रेरित होकर अपनी कार्यविधि पर आरोप है, समझता हूँ उसे अपनी सुख सुविधा को लोग कल्याण नहीं मानना चाहिए । वो समझता तो है परंतु स्वमुख के लोग में मिथ्या मार्ग कर रही बना हुआ है । इसका भयंकर फल उसको मिलने वाला है । भाषी सुनीति ने गंभीर भाव से कहा, आपको ये विचार करना चाहिए कि वह आपका पुत्र है, आपके शरीर का अंग है । आपको उस पर संधि नहीं करना चाहिए । अठारह अपने पुत्र के विषय में विचार करते हुए मैं धर्म व्यवस्था को भूल जाऊँ । अपने ज्ञान और बुद्धि का त्याग कर दूँ, ये नहीं होगा सुनी थी । यदि उसके कर्मों का परिणाम उसके अपने तक सीमित रहता तो मैं मौन रह सकता था । हम तो उसके कर्मों का परिणाम उसके अतिरिक्त ऊर मानव समाज के लिए दुख और कष्ट का साधन बनता जाता है । इस कारण अब पुत्र और पिता के संबंध की बात नहीं रही । एक आचार्य और शिष्य की बात हो गई है । जाओ देगी उसे कह दो की अविलंब पिता नहीं के चरणों की शरण ले ले और अपने भूत कर्मों के लिए छमा याचना कर भविष्य में ठीक रहने तथा पिता नाम है कि आदेशानुसार आश्रण करने का आश्वासन दें । इसी में उसका कल्याण है । चिन्ताग्रस्त सुनीति वनवासी शिविर को लौट गई । शिविर में पहुंच उसने बृहस्पति को अपनी कुटी में बुलवाया । बृहस्पति को विजिट था । उसकी माता अपने पिता से मिलने गयी हुई है तथा माता का सन्देश आया तो वह किसी प्रकार की विशेष बात की जानकारी होने के बाद समझ तुरंत माता के सामने जा पहुंचा । सुनीति ने उसे अपने सम्मुख बैठाया और अपनी दासियों को बाहर निकालकर उसने महत्वपूर्ण वातावरण उन वार्तालाप सुना गई तो उसके पिता के साथ हुई थी । जब सुनीति सब बात कह चुकी बृहस्पति ने कह दिया माँ तो रद्द हो रही प्रतीत होती हूँ । मैंने वहाँ पर दो कार्य करने के लिए कहा था और कार्य तो एक रात वहाँ रहकर ही कर सकती थी कहीं और लॉट भी हाई और कुछ भी कार्य नहीं करवाई । उत्तर के लांछन सुनी सुनी थी मुस्कराई और कहने लगी ऍम मैं वहाँ गई तो इसी प्रयोजन से थी कि महर्षि जी की सेवा में कुछ देर रहेंगी । आखिर मैं बी आर चाम की बनी हुई हैं । मुझे भी कामनाओं और वासनाओं का जो आ रहा है बंद मैं इस तरी से कुछ अधिक मैं माता दी हूँ । मेरे अकेले पुत्र हो और मुझे यही ठीक समझ में आया था कि अपने पुत्र के कल्याण के लिए तुरंत लौट जाना चाहिए । मैं मेरी वेयर्स में जनता करती हो । पता नहीं हो गए हैं । मानव समाज देख बहुत उन्नति कर ली है और पिता में अभी भी यह समझ रहे हैं कि अमैथुनी मूल्क सृष्टि चल रही है । मैंने मानव समाज की इच्छाओं और अभिलाषाओं को जान उनकी पूर्ति के सुगम उपाय विचार किए हैं । इस कारण कुछ ही वर्षों में मैं कार्य कर सकता हूँ । जो पिता है सहस्त्रों वर्षों भी नहीं कर सके हैं । शीघ्र ही उसके नगर से बडा शिविर हमारा हो जाएगा । तब की और संख्या के बल पर हम इन मूर्खों को इनके कल पे स्वर्ग में भेज देंगे अन्यथा जल भरने तथा सीमा के लिए रख लेंगे देख लेता हूँ । मैंने प्रदान है की शक्ति को देखा है । उस अकेले ने एक बार सौ से अधिक वनवासियों को आश्रम से ऐसे बाहर निकाल दिया था जैसे ही कोई बुहारी से पूरा करकट बुहारकर आंगन से बाहर भेज दे । मैंने सुना है ये तो उसकी शक्ति का अतिसामान्य प्रदर्शन था की शक्ति का विशिष्ट प्रदर्शन बहुत ज्यादा है । इसके अतिरिक्त सुना है कि अनंग वहाँ का राजा बनने वाला है और वह बहुत ही तृण संकल्प व्यक्ति है । उसका न्याय क्रूड का की सीमा को छू जाता है तो आनंद ने स्वीकार कर लिया है अभी उस को आमंत्रित किया गया है । मैं समझती हूँ कि वो मान जाएगा तब कठिनाई उपस् थित हो जाएगी । पिता मेहमी एक गुण है, प्रेरणा में विश्वास रखते हैं और अनंग बल के प्रयोग को अवैध नहीं मानता हूँ । मुझे स्मरण है कि जब वह पितान है कि आश्रम में महर्षि मरीची से शिक्षा ग्रहण किया करता था तब भी रहे दृढनिश्चय और स्थिरबुद्धि रखता था । ऐसे व्यक्ति को जब तुम्हारे पिता अंगीरा का सहयोग प्राप्त हुआ, वह भूमंडल को अपने अधीन कर लेगा । माँ चिंता मत करूँ, कुछ नहीं होगा । आनंद को हमारे साथ संधि करनी पडेगी । वो अपने राज्य का विस्तार उत्तर की और करेगा और हम दक्षिण की और करेंगे । वह अपूर्व की और उस पार कर सकता है और हम पश्चिम की और उन्नति करेंगे । इस प्रकार हम दोनों एक दूसरे का बार काटे बिना उन्नति कर सकेंगे । ठीक है चार करूँ । मैं वहाँ सावित्री से एक अन्य सूचना लाई हूँ । क्या हमारा मित्र कश्यप इस समय दक्ष पत्रों का पिता हो चुका है? उसके बडी पत्नी आदित्य से चार बच्चे हैं और पांचवी बार गर्भधारण कर चुकी है । एक विशेष बात यह है कि उसकी कुछ पत्नियां हैं जो संतान की इच्छुक नहीं, उनमें से एक देती है । सुना है कश्यप से कई बार संतानों भक्ति के लिए आह्वान कर चुका है परन्तु मैं अपनी खेल कूद में ही रुचि रखती है । ठीक है उस बैल बुद्धि से और कुछ आशा भी तो नहीं की जा सकती है परंतु सुना है कि पता है कि प्रकरण स्मृति शास्त्र में उसका बहुत भारी योगदान है । पिता में उसकी विद्वता को बहुत मानते हैं । बृहस्पति हस पडा बोला प्रत्यक्ष में तो उसकी विद्वता बच्चे पैदा करने में दिखाई दी है । ये तो महान नील जैसे अनपढ मूर्ति भी उत्पन्न कर रहे हैं । सुनीती को पुत्र की बातों से संतोष नहीं हुआ परन्तु वो उसकी अपनी ही जिज्ञासा थी जो फलीभूत हो रही थी । उसने अपने लडके को अपने माता पिता तथा कमीने वालों की सहायता के लिए अपने पिता और पितान है के विरुद्ध किया था । अब वो उसे उनके अनुकूल करना चाहती थी । उसे अब इसमें ही उसका कल्याण दिखाई देने लगा था । परन्तु वो जिस पद पर चल पडा था उसमें लौटने की उसमें सामर्थ्य नहीं थी । उसके पूर्वग्रह उसे प्रमित कर रहे थे । इस वार्तालाप के उपरांत सुनीती को यही ठीक प्रतीत हुआ कि वह स्वयं पिता में है कि आसाराम वालों से बनाकर रखें तो दोनों में सेतु का काम करना चाहती थी । किसी कठिनाई के समय वह पुत्र अथवा अपने पति के लिए नौका का काम करना चाहती थी । अगले ही दिन वो उन्हें अपने पति के निवास स्थान पर जा पहुंची । बच्चे गुरुकुल गए हुए थे । महर्षि अपनी प्रयोगशाला में थे । घर पर सावित्री और कमला ही थी । सावित्री ने सुनीती को उन्हें देखा, उसका स्वागत किया । सुनीति ने कहा, मैं कल एक प्रयोजन विशेष आई थी, परंतु महर्षि की बातें सुन पुत्र की चिंता ने भूल गई थी । किस कार्य से यहाँ आई थी पुत्र को अपनी चिंता का कारण बता । जब चित्त स्थिर हुआ तो उन्हें अपना प्रयोजन स्मरण हुआ है और यहाँ नहीं हूँ । क्या प्रयोजन है तुम्हारा । यहाँ पर मुझे घर से गए छह वर्ष से अधिक हो गए हैं और इतने दिन से पति की संगती से वंचित हो । आपने नहीं कुछ अभाव महसूस करती हूँ । इसलिए मैं पति की संगती की इच्छा रखती हुई वहाँ कुछ दिन रहने के विचार से आई थी । अब उस विचार को पूर्ण करने आई हूँ । सावित्री ने आंखे मून सुनीति के बाद पर विचार किया और तब कहा इस बात का मुझे कोई संबंध नहीं भाषी सहायता डाल के समय आएंगे तब उनसे पूछ लेना मैं यही रहूंगी और वो घर लौटेंगे तो उनसे पूछ होंगी देखो सावित्री, मैं उनकी पत्नी हूं । यदि वह मेरी इच्छा पूर्ण नहीं करेंगे तब भी मैं वहाँ रहने का कार्यकार रखती हूँ । मैं ये जानती हूँ परन्तु यहाँ रहने का एक नियम है । उसका पालन तो करना ही होगा । वैसे तो इस घर की दिनचर्या से मैं परिचित हूँ और उसका पालन करूंगी तो नहीं । बात चल रही हो तो वो बता दो नहीं, कुछ नहीं बात नहीं है । पर घर पर तो वही स्थिति है । परंतु आपने जब अपनी एक नई स्थिति बना ली है । आपको कुछ लोग असरों की राजमाता के रूप में मानते हैं । इसमें राजमाता कैसे एक महर्षि के घर में पत्नी के रूप में रह सकेंगे? यह विचारणीय है । सावित्री हम जनता वक्त करूँ । मैं राजमाता का पद बाहर वनवासी शिविर में ही रखा हूँ । यहाँ एक महर्षि की पत्नी के रूप में ही रहने का विचार रखती हूँ । ठीक है उनको आने दो । जैसा वो चाहेंगे वैसा ही करना चाहिए । चुनाव कामयाब तो निधि ने अब लडकी की बात किया और ध्यान दिया कल तो तुम से भी बात नहीं हो सकी । यहाँ प्रसन्न हो माता जी यहाँ किसी प्रकार का कष्ट नहीं है । यदि ये कहूँ कि शिविर से वहाँ अधिक सुख, संतोष और सुरक्षा अनुभव होती है तो अधिक ठीक होगा । बृहस्पति से मिलने की इच्छा नहीं करती करती है परन्तु जिस कारण से करती है वो उससे उपलब्ध नहीं इस कारण से पति से मिलना चाहती हो । उस दिन आदित्य अपने पांच बच्चों के साथ यहाँ आई थी और उन बच्चों को देख मेरे मन में भी वैसे ही एक दो बच्चों के लिए उत्कट इच्छा उत्पन्न हो रही है । वैसे बच्चे वहाँ रहते हुए वह दे नहीं सकेंगे और नहीं उसके पालन पोषण का प्रबंध वहाँ हो सकेगा जैसा यहाँ हो सकता है । ये कैसे कहती हूँ कि ऐसा मान नहीं हो सकेगा । मैंने उन दोनों स्थानों को देखा है इसलिए यही समझ रही हूँ । उसके लिए अपनी प्रजा को छोड यहाँ आकर रहना संभव नहीं है तो वह वहीं पर ऐसा वातावरण निर्माण कर सकते हैं जैसा यहाँ है । इसके लिए यहाँ के ऋषियों महर्षियों के सहयोग की आवश्यकता होगी परन्तु वहाँ का सहयोग न तो वो चाहते हैं और न ही वहाँ के लोग इसके अधिकारी हैं । इतना समीप रहते हुए भी बहुत कम पिता मेरे से मिलने जाते हैं । कभी जाते भी हैं तो प्राइम झगडा ही करते रहते हैं । एक बात और है । बिना योग्यता प्राप्त किए वह पिता नहीं को प्रतिस्पर्धा करना चाहते हैं । पिता में है जी स्वयं बता रहे थे उन्होंने दो मध्यांतर भर होर तपस्या की है । योग निश्चिंत हैं । अब भी वह जब चाहते हैं तो बाहर से अंतर्ध्यान हो । सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान परमात्मा से योगस्थ हो जाते हैं । उस समय यहाँ की जटिल समस्या को सुलझाने का मार्ग पा जाते हैं । इस योग्यता के अतिरिक्त वह आयु और अनुभव में हम सबसे बडे हैं । उन्हें उन का बान करना चाहिए, परंतु आपके पुत्र उनको मूर्ख और मिथ्या परसाई मानकर उनकी अवहेलना करते हैं । सुनीति सब बात को जानती थी, पर अब जो अनुभव कर रही थी कि अपने पुत्र में ये सब गुण उसने ही उत्पन्न किए हैं । मैं उस दिन की घटना को बोल नहीं सकती थी, जिस दिन उसके वनवासी पुरुषों को पिता मैंने अपनी किसी बजाय शक्ति से पराजित किया था । इस बात को तीस वर्ष के लगभग व्यतीत हो चुके थे । जब उसे अपने घर वालों की दुर्दशा देख हाथ दुख हुआ था । वह अयोद्धा जो दक्ष से पराजित हुआ, उसका बडा भाई था । वहाँ पे काम है कि शिविर में तो अपनी माँ के कारण आकर रहने लगी थी । उसकी माँ दक्ष की चतुराई से और पे काम है की सामर्थ्य से अति प्रभावित हुई थी और अपनी लडकी तथा एक लडकी के साथ अपने कबीले को छोड पिता में है कि आश्रम में रहने के लिए तैयार हो गई थी । इस घटना से पूर्व सुनी थी कि माँ ये भी देख चुकी थी कि जब दो कबीलों में युद्ध होता था, विजयी कबीले वाले पराजित कबीले के स्त्रीवर्ग को आपने कभी ले में सम्मिलित कर लेते थे । पूरी स्त्रियों को मार डाला जाता था और युवा स्त्रियों का पत्नी के रूप में प्रयोग किया जाता था । अच्छा सुनी थी कि माँ और कबीर की अन्य स्त्रियां यही आशा करती थी । इसी कारण वे दया की भीख मांगती हुई इस आश्रम में आ गई थी । यहाँ पे आश्रम में किसी की हत्या नहीं हुई । हाँ, स्त्रियों को अपने कबीले में लौट जाने की स्वीकृति दे दी गई । तब स्त्रियां यहाँ की सुख सुविधाओं को देख रहने को तैयार हो गई । तब भी उनमें से विवाह के योग्य कहा उनकी इच्छा से ही क्या व्यवहार किया गया? सुनीती को स्मरण था कैसे अंगीरा ने उस से आग्रह किया था कि वह उसकी पत्नी बनना स्वीकार करें । इन सब सुविधाओं के होते हुए भी उनको अपने पिता और भाई की दुर्दशा स्मरण थी । इसलिए वह अपना पूर्ण दोष और असंतोष अपने पुत्र को पिता में है के विरुद्ध करके निकालने लगी थी । अब मैं अनुभव करती थी कि उसने अपने पुत्र के मन में सीमा से अधिक पिता में है कि प्रति विश्व भर रखा है और अब वह उसे मिटा नहीं सकती थी । जब उसे अनंग के भी हम पुरी में राजा बनने का समाचार मिला तो वह भी हो गई और अपने पुत्र के पास गई । अनंग कठोर प्रवृत्ति का व्यक्ति था और उसके राजा बनने की बात सुनकर बहुत ही कठोर समय की आशा कर रही थी । अतिथि के पांचवां पुत्र उत्पन्न हुआ और उसके नामकरण संस्कार पर हम पुरी के प्राइस सब प्रतिष्ठित विद्वानों को आमंत्रित किया गया जिसमें वे मानक को आशीर्वाद दे सकें । पिता मैं भी आमंत्रित थे, पिता में है, अपने साथ एक अन्य व्यक्ति को भी लेते आए थे । इस नवीन व्यक्ति को भ्रम आश्रम के कुछ प्राचीन निवासी ही जानते थे । नवीन संतति इस ओजस्वी और बलशाली व्यक्ति के विषय से अनभिज्ञ थी था जब पे काम है पधारे और उनके साथ वो व्यक्ति आए तो प्राचीन महर्षियों ने उठकर जहाँ पे काम है का सत्कार क्या वहाँ इस नवीन व्यक्ति को भी हाथ जोडकर प्रणाम किया । अन्य जान तो पिता में है कि सम्मान में उठे थे । फिर भी वेश नवीन व्यक्ति के मुख की दृढ मुद्रा देख उत्सुकता से उसकी और देख रहे थे और हम तो उन अनभिज्ञ व्यक्तियों में से किसी का साहस नहीं हुआ । वो इस के विषय में कुछ पूछे । ऐसी आशा की जा रही थी कि पिता मैं स्वयं इसका परिचय कराएंगे । पिता महीने बाद में ऐसा ही किया । जब यज्ञ, हवन नामकरण हो चुका तो पिता नहीं नहीं आशीर्वाद रूप दिए गए । प्रवचन में जहाँ बालक के विषय में दो शब्द कहीं वहाँ इस नवीन व्यक्ति का भी परिचय दिया । मैंने कहा हम देखते हैं कि मानव सृष्टि का प्रभातकाल कहाँ पहुंचा है । अन्य ऋषियों ने भी इसको लाने के लिए प्रयत्न किया है, परंतु कश्यप द्वारा ऐसी सृष्टि की जा रही है जो इस भूल लोग के अंत तक अपना संतान सूत्र आगे ले जाएंगी । ये अदिति के आदित्य और दीप्ति के व्यक्ति ही इस जगह में संघर्ष को जीवित रखेंगे । इससे मानव उत्तरोत्तर उन्नति करेगा । वह हालत जिसको महर्षि मरीचि ने इंद्र के नाम से संबोधित किया है । आदित्यों की संतान का रखवाला होगा । जैसे भूलोक में केंद्र राज्य करता है और अंतरिक्ष की विभिन्न शक्तियों का संचालन करता है, वैसे ही उसी का नामधारी वह बाला इस भूमंडल पर राज्य करेगा । वह आदित्यों का राजा बनेगा और अपने यौवनकाल में आदित्यों के यश और कीर्ति का पालक बनेगा । सब बैठे हुए होने एवमस्तु एवमस्तु के वाक्य से पिता में है कि वजन का समर्थन किया । उसके उपरांत पिता मैंने अपने समीर बैठी भव्य मूर्ति का परिचय दिया था । मैंने कहा इस बात को जानकर सबको खर्च होना चाहिए कि इस जनपद को अब एक शासक मिल गया है । महात्मा अनंग ने इस जनपद का शासन चलाने की स्वीकृति दे दी है । सबके साथ न्यायायुक्त व्यवहार चलाकर स्थान पर और भूमंडल में शांति व्यवस्था स्थापित करेंगे । महात्मा अनंग कीर्तिमान के पुत्र और कदम के पौत्र हैं । कदम मैं सुनी सृष्टि के जी थे और विराट स्वभावी थी । अंगने हमारे त्रिवर्ग स्मृति शास्त्र का अध्ययन किया है और उसके अनुसार ही वह राज्यकार्य चलाएंगे की ग्रही अनंग का राज्याभिषेक किया जाएगा और वह जनपद के शासक हो गई । इस आशीर्वाद के उपरांत कश्यप में एक वृहत बोझ दिया । पिता में है भी उसमें सम्मिलित थे । महर्षि पिता में है आनंद और उनके साथ कुछ कश्यप के मित्र एक प्रसव कक्ष में बैठे पूजन कर रहे थे । उस समय विभिन्न विषयों पर चर्चा का आरंभ कश्यप नहीं किया । कश्यप ने प्रदान है से पूछा पितामह हैं? आप ने कहा है कि मेरी पत्नी दिति की संस्था टेस्ट इस भूमंडल को मानव सृष्टि से भरने में अतिथि की संतान आदित्यों को सहयोग करेगी । परंतु भगवान ये तो संतान से गिर्णा करती हैं और मेरे अनेक बार प्रयास करने पर भी वह इंकार कर चुकी है । खाता पिता मैंने मुस्कान भरकर कहा जब हम देख रहे हैं कि जहाँ अन्य दक्षिण अन्याय सृष्टि रचना ने संलग्न हो रही हैं, वहाँ देती अभी बाल्यकाल में ही पिक्चर रही है परंतु इस भविष्यवाणी ने भी सार है यह अन्यथा नहीं होगी । वार्तालाप चलने लगा तो बृहस्पति को कश्यप के मित्र के नाते आमंत्रित किया गया था और बोल उठा पे काम है महात्मा अनंग का जनपद कितना बडा होगा, जितने पर नियंत्रण रखने की इसकी सामर्थ्य होगी । अंदर भी अपनी सामर्थ्य तो हमारे एक सुबह तो सुनने से भी कम है । शब्द जैसे हमारे शिविरों में बीसियों है । देखो बृहस्पति तुमसरा अपनी विलक्षणता का ही परिचय देते हो । साथ ही तुम्हारे लक्षण का सादा विघटन की और ही जाती है । संगठन तुमको सुहाता नहीं देखो समाज एक मानव शरीर के समान है, शरीर में सामर्थ्य की सूचक बाहे हैं परन्तु शरीर बही मात्र नहीं । इसके दूसरे अंग भी हैं । इनमें सबसे मुख्य सिर्फ अच्छा मस्तिष्क पूर्ण शरीर का संचालन करता है । वहाँ भी मस्तिष्क से अपनी सामर्थ्य का प्रश्न पाती हैं । इसी प्रकार समाज रुपये शरीर में अनंग अपनी सैन्यशक्ति के साथ बहु का काम करेगा परन्तु समाज का मस्तिष्क महर्षि और अन्य विद्वान आनंद की सहायता करेंगे । इस कारण तुम्हारे सुंदर इत्यादि सुन्नतों की शक्ति अनंग की शक्ति से ही सिद्ध होगी । उनको भी अपने समाज में ग्रामीणों का निर्माण करना पडेगा अन्यथा अनंग का ही प्रभाव रहेगा, अन्य किसी का नहीं । अपने समाज का मस्तिष्क मैं और यदि दोनों समाजों के मस्तिष्क न्याय एवं शांति के पक्ष पर न चल सकें तो संघर्ष होगा और विजय उसकी होगी । जिस समाज में मस्तिष्क और हूँ तथा शरीर के अन्य अंगों में समन्वय और सहकारिता होगी, कश्यप हैं । इस समय एक नवीन आयोजन किया । उसकी एक पत्नी मुनिष वो भी दक्षकन्या थी । भोजन हो रहा था । सबके समक्ष मुनि की दो कन्यायें एक उच्च मंच पर आकर खडी हुई एक अन्याय पांच बरस की थी । यात्री सुंदर देवीभूषण और वस्तुओं को पहले थी और शंघाई आयुक्त थी । जब ये आई तो कश्यप ने पिता में का ध्यान उस और आकर्षित कर रहा हूँ । ऍम एक अन्यायी मेरी पत्नी मुनि की जुडवा संतान है । जन्म से नृत्य और कला का प्रदर्शन कर दी रही हैं कि आपने नृत्य और संगीत का आपके सम्मुख प्रदर्शन करना चाहती हैं । इनमें से एक स्पष्ट है और दूसरी स्वच्छता है पिता नहीं । मुस्कराकर इसकी अनुमति दी तो गाने लगी । सर्वप्रथम ओंकार ऍम उपासी का उद्घोष गान हुआ तत्पश्चात उन्होंने अनेकानेक भक्तिभाव की मुद्राएं नृत्य में संपन्न की । पिता महीने परेशान होने आशीर्वाद क्या इनकी संतान गणधर नाम से विख्यात होंगी और मानव को मोक्ष का मार्ग दिखाने में सहायक होंगी? रसोत्सव और बोझ में महर्षि अंगीरा की प्रथम पत्नी बृहस्पति की मात्रा भी उपस्थि थी । उसने भी वहाँ बृहस्पति और पिता नहीं में हुए वार्तालाप को सुना था । उत्सव से लौटते समय सुनीति बृहस्पति को अपने पिता महर्षि अंगीरा के निवास स्थान पर ले आई । वहाँ पुत्र को उनके पिता के सामने बैठाकर बोली राष्ट्रपति अब अनंग राजा बनेगा, इस कारण अपनी स्थिति पर विचार कर लो । परमाणु राष्ट्रपति ने कहा अंको कौन राजा मानेगा । किसी ने भी उसे राजा बनने के लिए नहीं बुलाया और नहीं उसे राजा बनने के लिए कहा है । महर्षि अंगिरा ने कहा यहाँ के सब ऋषि महर्षियों की अनुमति से अंग को राजा निर्वाचित किया गया है । अंदर की राज्य करने में योग्यता की परीक्षा कर ली गई है । मैं समझता हूँ कि वह ठीक व्यक्ति है परन्तु बृहस्पति ने पूछा उन ऋषियों एम महर्षियों की संख्या कितनी थी, जिन्होंने अनंग भी परीक्षा कर इसे राजा निर्वाचित किया है । ग्यारह थी । इनमें छहों महर्षि थे और पांच अन्य ऋषि थे । परन्तु पिताजी मैं तो था ही नहीं । नहीं सहस्त्रों अन्य लोग थे जो इस जनपद में रहते हैं । इस कारण खाने और से अपना राजा मानने पर बाध्य नहीं किया जा सकता । बाध्य करने का तो प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता । वास्तविक स्थिति यह है कि अधिकांश लोग इसके अधीन रहने के लिए स्वतः तैयार हो जाएंगे । कुछ लोग तो विद्वता मंडल के लिए मंगलकामना की बात जानकर और अन्य इसकी कार्य पटता को देखकर तथा इसके राज्य दंड को देख कर आधार दंड से राज्य करेगा । क्यों नहीं जब आवश्यक होगा तो राज्य दण्ड भी प्रयोग में लाया जाएगा । राष्ट्रपति मौन हो गया । सुनीति ने कहा, बृहस्पति क्या तुम अपराधियों को दंड नहीं देते? तुम तो नर अपराधियों को भी दंड दे देते हो? नहीं, मैंने ऐसा नहीं किया तो हमला का गला किसलिए घोडा गया था? इसमें आपने कभी ले वाले को रुष्ट कर दिया था । मैं समझता हूँ कि वह अकारण नहीं हुआ था । सामूहिक युद्ध ही सबके और न्याय है । अंगीरा ने पुत्र को समझने का यह क्या? बृहस्पति तुम भूल कर रहे हो? सत्य और न्याय का निर्णय जनमत से नहीं, वन ईश्वरीय विधान से होता है । उसको कहाँ ढूंढा जाए? वेद और वेदों के या था तथा सदाचारी जम नियमों का पालन करने वालों के कथन ही धर्म का निर्णय करने में समर्थ हैं और अंत उसका निर्णय कौन करेगा? विज्ञान वान, सदाचारी और यम नियमों का पालन करने वाला कौन है? ये लोग अपनी विद्वता से अपने अधिकारी होने को सिद्ध कर देंगे । तो क्या अस्त्र शस्त्रों का निर्माण तथा उन का प्रयोग विद्वता के लक्षण नहीं है? ये विद्वता को सिद्ध करने का एक साधन है । इसके अतिरिक्त अन्य भी साधन है । साधन समूह ही निर्णय करते हैं । कौन सत्य और न्याय का पक्ष ले रहा है? पिताजी कैश का यह अर्थ नहीं, जो विजयी होगा । वहीं सत्य का पक्ष ले रहा है अंगीरा हस पडा उसने कहा हाँ! परन्तु स्मरन् रखो की मृत्यु और अन्यायमुक्त पक्ष लेने वाले सदा पराजय होंगे । जब भी उन को पराजित करने के लिए न्याय स्त्रियों को भी क्या तपस्या और बलिदान करना पडेगा था । इस मानव सृष्टि में संघर्ष सादा रहेगा । संघर्ष में दोनों पक्षों की हानि हुआ करेगी । साथ ही विजय सब विपक्ष की ही होगी । बृहस्पति अपने मन में विचार करता रहा की विजय शक्ति की होगी । इस कारण शक्ति संचय ही धर्म है हैं । आपने सुना साहित्यकार गुरुदत् प्रतिनिधि रचना प्रभात वेला का दूसरा परिच्छेद

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प्रभात वेला Producer : Saransh Studios Author : गुरुदत्त Voiceover Artist : Ashish Jain
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