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द्वितीय परिचय यदि में महेश के पंजाब से तुम्हारा उद्धार करने के लिए आगे नहीं आता तो मुझे तुमसे विभाग का सौभाग्य प्राप्त होता । विक्रम और देवयानी जबरत में बैठे स्वयंबर तथा विभाग के पश्चात अपने घर को जा रहे थे । विक्रम उससे कह रहा था, आप ठीक कहते हैं फिर भी मैंने आपके अतिरिक्त और किसी को भी जयमाला नहीं डाली । परन्तु तुम नहुश के गले में जयमाल डालने ही वाली थी । उसने मायावी रूप बनाकर उसको बहन में डाल दिया था । मैं समझती हूँ कि मुझे आपको अपना रहस्य बता देना चाहिए । मुझे उसे कहने में कोई लज्जा प्रति नहीं होती है । फिर भी इस से आप के मन में ये बात स्पष्ट हो जाएगी । किस कारण से मैं उसके गले में जयमाला डालने जा रही थी । पिछले कई वर्षों से मुझे स्वप्नों में भगवान शिव के दर्शन होते रहे हैं । वे इस प्रकार प्रकट होते रहे हैं की मैं उनसे प्रेम करने लगी हूँ । के रहस्य मेरे माता पिता और देवर्षि नारद को विदित है । उन्होंने मुझको बताया ये मेरे मन का भ्रम है । कारण ये कि भगवान शिव का देहांत हुए चिरकाल हो चुका है । देवर्षि की राय ने मैं स्वयंबर करने के लिए तैयार हुई थी और जीवन भर कुमारी रहने का विचार छोड दिया था । फिर भी भगवान के दर्शन सपनों में होते रहे । मैं उन्हें अपने मस्तिष्क से निकाल नहीं सके । स्वयंबर से पूर्व जब मैंने आपका चित्र देखा तो कुछ आपका रूप मुझको जाना बोझा प्रतीत हुआ । जब आप पहली बार पिताजी से मिलने आए थे तो मैं पर्दे के पीछे बैठी आने वालों को देख रही थी । मैं आपको देख चकित रह गई । ऐसा प्रतीत हुआ कि आप मेरे बचपन के परिचित हैं । यही कारण था कि मेरे कहने पर पिताजी ने दूसरे दिन पूरा आपको भोजन के लिए आमंत्रित किया और मेरे मन में आपको ही वरना का निश्चय हो चुका था । परंतु जब मैंने नहुष के उस मायावी रूप को देखा तो अपने सपनों के संस्कारों के कारण मैं विचलित हो चली थी । भगवान का धन्यवाद है कि देवर्षि उसके प्रथम रूप को पहचान गए और समय पर सचेत करने के लिए पांच आ गए । उसके पश्चात क्या हुआ, ये श्रीमान आप सब जानते ही है । इन सब बातों के होने पर भी श्रीमान मुझको एक पतिव्रता सती साध्वी पत्नी के रूप में पाएंगे । विक्रम ये कथा सुन चकित रह गया और विश्व में उसका मुख देखता रह गया । देवरानी ने समझा कि उसकी कथा का विक्रम पर अच्छा प्रभाव नहीं पडा । फिर भी उसको अपने मन की बात बता देने में कोई शोक नहीं हुआ । आपको चाहती थी कि उनको सच्चाई का ज्ञान हो जाए । विवाहिक जीवन के आरंभ से ही वह परस्पर दोनों के मन में कोई भेदभाव नहीं रहने देना चाहती थी । परंतु जब उसने अपने पति को चुपचाप अपनी और देखते पाया, उसके मन में इस प्रकार का भर ऐसा समा गया । उसके मन नहीं चिंता उत्पन्न हो गई और वो उसके निवारण का उपाय खोजने लगी । इस कारण उसने पूछा श्रीमान, क्या मैंने कोई बुरी बात कही है? ऐसा है तो मैं क्षमा याचना करती हूँ । स्वामी क्या ये ठीक नहीं किए? पति पत्नी में कोई लुकास छिपाव नहीं होना चाहिए । इसी विचार से मैंने अपने मन की बात खोल कर रखती है, जिससे मेरे शरीर और आत्मा के प्रति प्रभु को कभी ये कहने का अवसर ना मिले । मैंने कुछ बात उनसे छुपा कर रखी हुई है । सबसे का ज्ञान हो जाने से एक दूसरे को समझने में सुबह गीता रहेगा । इससे हमारा जीवन सुखी रहेगा और आनंदपूर्वक व्यतीत होगा । इतना कहकर उसने अपने पति के चरणों को स्पष्ट किया । विक्रम ने उसको प्रेमभरी दृष्टि से देखते हुए कहा मुझको तो हरी खता पर इतना विश्वास नहीं हुआ जितना अपने अनुभवों का स्मरण हुआ है । सुनो मुझको भी बचपन में एक सुंदर लडकी के स्वप्ना आते रहे हैं और ये जानकर तुमको विस्मय होगा कि मेरे स्वप्नों की लडकी का रूप तुम्हारे चित्र में मिला था, जो चित्र तुम्हारे पिता ने निमंत्रण के साथ भेजा था । दोनों सर्वथा सामान थे । नवंबर के विषय में मैंने निमंत्रण से पूर्व भी सुना था परन्तु वहाँ आने को मन नहीं कर रहा था । मुझ को बताया था कि बहुत छोटा भूपति होने के कारण प्रभारी दृष्टि में जब जाऊंगा ही नहीं, मेरी माता जी ने बताया था कि मेरे बाबा कश्मीर राज्य से लड कर चले आए थे । इस कारण राज्य में किसी प्रकार का मान पाने की भी आशा नहीं थी । परन्तु जब देखा कि तुम मेरे स्वप्नों की रानी हो तो माँ तथा अन्य संबंधियों के मना करने पर भी स्वयंबर में कहाँ पहुंचा? महाराज का स्वयंबर से एक दिन पूर्व पहुँच के लिए निमंत्रण किया तो मैं चकित रह गया । आशा करता था कि तुम्हारे दर्शन होंगे परंतु हुआ देवर्षि से वाद विवाद । मैं निराश लौटा नवंबर के समय जब नहीं तुम्हारा अपहरण करने लगा तो मैं समझ गया मेरा अवसर आ गया है । अपने सभी बैठे साथियों के मना करने पर भी मैं पूछ पडा और नहीं उससे दो हाथ करने के लिए उसके सामने जा पहुंचा । मेरे प्रसन्न वहाँ का कोई अंत नहीं रहा । जब नहुष बंदी बना लिया गया और तुमने आकर जमान मेरे गले में डाल दी । उस समय मेरे सामने पूर्ण द्रश्य धुंधला धुंधला सा हो गया । जो कुछ भी हुआ वो इतना आनंद उत्पादक तथा होना था । मेरे मन में किसी के बीच में पढकर सबकुछ बदल देने का भय आ गया था । देवयानी को ये कथा सुन अतीव इसमें हुआ । दोनों के स्वप्नों में समता से उसके मन में अनेक आने अन्य विचार होने लगे । उसके आनंद का पारा बार नहीं रहा और उसकी आंखों के आनंद आशु बहने लगे । उसने आंसू पोंछते हुए कहा, इससे तो ये पता चलता है कि हम अपने पूर्वजन्म के संस्कारों के बल से एक दूसरे के लिए ही बने थे । कोई अज्ञात शक्ति थी तो हम दोनों को खींचकर इकट्ठा कर रही थी । मनुष्य उस शक्ति का विरोध नहीं कर सका और हम वहाँ पहुंच गए हैं । इससे तो मुझ को और भी प्रेरणा मिलेगी जिससे मैं आपकी सेवा भक्ति और भी श्रद्धा से कर सकूंगी । विक्रम की माँ ने बहु को देखा तो बहुत पसंद हुई । उसने बहु को गले लगाया और उसे अपने लडके के आधार में ले गई । पडोस कि ऑस्ट्रिया आई और विक्रम की बहु का सौंदर्य देख चकित रह गई । किसी को सपने में भी ये विचार नहीं आया था कि विक्रम का रूप इतना आकर्षक है । ये महाराज कश्मीर की राजकुमारी उसको भरेगी । मां पुत्र को एक और ले जाकर पूछने लगी बेटा ये कैसे हो गया है? कैसे तुम्हें इतनी सुंदर बहुत प्राप्त हो गयी महाराज कश्मीर तो हमारे परिवार से असंतुष्ट थे माँ मैं नहीं जानता हूँ उसने आंखें चरणों में जो खाकर का हम ये सब तुम्हारे आशीर्वाद के प्रताप से हुआ प्रतीत होता है । कुछ थोडी लडाई करनी पडी थी और शौर्य तथा शिक्षा तुमने मुझको दी हुई है मेरी सहायक हुई हैं पुत्र के लिए उन्नति के इस नए द्वार के खुल जाने से माँ कार्यदायी कनगन होता था । आज तक वो छोटे से गांव में अपना जीवन व्यर्थ गंवा रहा था । एक दिन देवयानी ने अपने पिता की कठिनाई का वर्णन किया की उनका कोई पुत्र होने से राज्य का कार्यभार किसे सौंपें । साथ ही उसने अपने पति के चक्रधरपुर चलकर पिताजी को राज्य के कठिन कार्य में सहायता देने की प्रार्थना की । उसने अपने पिता को भी लिख दिया कि आपने जामाता को चक्रधरपुर आने का निमंत्रण दें और उससे राज्य के कार्य में सहायता लेंगे । इस प्रकार अपने जन्म स्थान पर कई मार्च तक रहने के पश्चात विक्रम देवयानी सहित चक्रधरपुर के लिए तैयार हो गया । इस बार उसने अपनी माता को भी चलने के लिए कहा पर तुमने एकदम अस्वीकार कर दिया । मैंने कहा वहाँ पर मेरे पति ने अपना अंतिम स्वास्थ छोडा था । मैं वहीं पर मरना चाहती हूँ । देवयानी ने भी अपनी सास को अपने साथ ले चलने का बहुत प्रयास किया परंतु उसने कह दिया, बेटे मुझको अपनी प्रसन्नता है कि तुम मेरे पुत्र की देखभाल कर रही हो मुझको तुम पर पूर्ण विश्वास है । मैं जानती हूँ की तुम अपने पति का कहीं पर भी अपमान नहीं होने होगी । उसके मान प्रतिष्ठा से ही तुम्हारी मान प्रतिष्ठा होगी । मेरा आशीर्वाद तोहरे साथ है । जाओ वीर श्रीमान और चतर पत्रों की माँ बनो । तुम्हारे पति का नाम संसार भर में विख्यात करें । देवरानी का विश्वास था कि ये नहुष अपने अपमान का बदला जरूर लेगा । इस कारण वो सुख थी कि शीघ्रातिशीघ्र कश्मीर की रक्षा का प्रबंध किया जाए । वो चाहती थी कि विक्रम मस्कारे में उसके पति का साफ थे । विक्रम चक्रधरपुर पहुंचा तो देव नाम ने उसको सेनापति का पद दे दिया । वो काम विक्रम को अति रुचिकर था और वह सेना के पुनर्संगठन और उसमें परिवर्तन करने के लिए जी जान से लग गया । उसने गुप्तचरों का एक दल भी संगठित किया । जो देव लोग गांधार और भ्रम वरतने जाकर वहाँ की सैनिक स्थिति का केंद्र लेकर उनके पास भेजने लगा । इस प्रकार उसने कश्मीर को अंतरराष्ट्रीय केंद्र बना डाला । देव लोग हिमालय की ऊंचाइयों पर और उसके पार ऊंचे पठार पर स्थित था । कश्मीर से पूर्व उत्तर की ओर जाने से इस देश में प्रवेश पाया जा सकता था । ये वादियों की एक श्रृंखला थी जिसको ऊंचे पर्वत पर एक दूसरे से पृथक किया जा सकता था । अंतिम महा प्लावन के पूर्व से ही देवता इस स्थान पर रहते थे और स्थान की ऊंचाई के कारण प्लावन में बहने से बच गए । प्लावन के समय उनको वादियों का तापमान साहरण था परन्तु प्लावन के पश्चात भौगोलिक परिस्थितियों के बदल जाने से और समुद्र के दूर चले जाने के कारण और स्थान धीरे धीरे शीत प्रधान होता गया । देवताओं की बुद्धि और उनका प्लावन पूर्व के विद्वानों से प्राप्त हुआ । ज्ञान लाखों वर्षों के मनुष्य के अनुभव का निचोड था । इस अपार ज्ञान के कारण जो जो उनके देश में शीत बढती गई, वे अपने विज्ञान केबल से देशभर के तापमान को जीवन के लिए अनुकूल अवस्था में रखते रहे । उनको पूर्ण देश का तापमान साधारण रखना था जिससे वे वहां आनंद से रह सकें । इसके लिए उनको शक्ति का अतुल भंडार चाहिए था और शक्ति को उन्होंने प्रकृति के गर्भ से प्राप्त किया जहाँ वो सुषुप्त अवस्था नहीं विद्यमान थी । देवता उसके अस्तित्व को जानते थे और से प्रकृति से बाहर निकालने का उपाय भी जानते थे । उन्होंने उसको एकत्रित किया और शक्ति का प्रयोग उन्होंने जीवन को सुलभ और सुगम बनाने में लगाया । प्रकृति अपनी आदि अवस्था में शक्ति के अतिरिक्त और कुछ नहीं है आदि । प्रकृति के तीन रूप सत, रज और तम जब तक संतुलित अवस्था में रहते हैं तब तक प्रकृति में परिवर्तन नहीं हो पाता । जब ये संतुलन टूटता है तब गति अथार्त परिवर्तन होता है और संसार के भिन्न भिन्न पदार् उत्पन्न हो जाते हैं । संसार में प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील है । कुछ पदार्थों में ये परिवर्तन द्रुतगति से होता है और कुछ में अत्यंत धीमी गति से अधिक पदार्थों में, जो संसार में स्थायी से प्रतीत होते हैं कि परिवर्तन अति धीमी गति से ही हो रहा है । जब पदार्थ में परिवर्तन होता है तो उसमें संचित शक्ति किसी एक रूप में प्रकट होती है । शक्ति का प्रवाह पदार्थों के परिवर्तन की गति के अनुसार होता है । जहाँ गति तीव्र होती है, वहाँ शक्ति प्रचुर मात्रा में निकलती है और जहाँ गति धीमी होती है, वहाँ शक्ति भी कम मात्रा से निकलती दिखाई देती है । देवताओं की चतुराई इसमें भी थी । वे एक स्थायी पदार्थ को लेकर उसमें परिवर्तन की गति को तीव्र कर सकते थे और उसमें शक्ति को एक धारा के रूप में प्राप्त कर सकते थे । शक्ति की इस धारा को वे अपने देश को ट्यूशन रखने में प्रयोग करते थे । देश को प्रकाश में करने में, खेतों में उपज बढाने में और अपने धन्यवादी चलाने में भी वे इस शक्ति धारा का प्रयोग जानते थे । कुछ पदार्थों में वेश परिवर्तन की शक्ति को इतना तीव्र कर सकते थे । शक्ति इतनी अधिक मात्रा में एकदम निकलती थी । ये भयंकर विस्फोट का रूप धारण कर सकती थी । इससे वे अपने शत्रुओं का नाश कर सकते थे । पहाडियों की चोटियों पर उन्होंने शक्ति प्रसारक यंत्र लगाए थे जिनसे देश का पूर्ण वायुमंडल रहने योग्य उसने बना रहता था । यह शक्ति प्रसारक यंत्र महल की छत पर लगा था, जिसका चालन केंद्र स्वयं करता था । पारद स्थाई पदार्थ है फिर भी इसमें अन्य संसार के प्रभार तों की बहुत ही सब राज्य और तुम संतुलन में नहीं और इसमें परिवर्तन हो रहा है । ये परिवर्तन इतनी धीमी गति से हो रहा है कि सहस्त्रों वर्षों में भी इसमें एक प्रतिशत भी विघटन दिखाई नहीं पडता । देवताओं ने भारत को जीवित रखने का उपाय जान लिया था । जीवित प्राण एक विशेष गति से विकसित होने लगता था । इससे शक्ति एक धारा में उपलब्ध होने लगती थी । बहुत कम पार अब से अतुल शक्ति उपलब्ध हो सकती थी । इस प्रकार एक भरी पारद पूरन देव लोग को एक वर्ष तब उसने प्रकाश में और हरा भरा रखने के लिए पर्याप्त हो जाता था । आंधी भरी भर पारत को विकसित करने से एक इतना बहन कर विस्फोट हो सकता था की पूरी की पूरी अमरावती चूर चूर हो सके । यापार शक्ति का तो इंद्र ने अपने ही हाथ में रखा था । भारत को जीवित रखने का रहस्य उसको ही विदा था और यंत्र के विकसित होने से शक्ति धारा रूप में बहने लगी थी । वो यंत्र उनके महल में ही लगा था । देवलोक में पारत विघटन के सिद्धांत को तो राय सब देवता विद्वान जानते थे परन्तु उस जनवादी का रहस्य जिनके द्वारा ये कार्य संपन्न होता था इंद्र उसकी पत्नी सच्ची और कुछ सीमा तक देव प्रताम है । ब्रह्मा को ही विदा था । इस प्रकार सहस्त्रों वर्ष व्यतीत हो गए थे और देवा लोग के लोग प्रकृति के प्रतिकूल होने पर भी जीवन की सब आवश्यकताओं इस जीवित पारत की सहायता से प्राप्त करते रहते थे । धनवाद ई इतने सुचारु रूप से कार्य करते थे । इस यंत्रादि को चलाने के लिए इंद्र को किसी अन्य व्यक्ति की सहायता की आवश्यकता नहीं पडती थी और पूर्ण देशभर में जीवन सामग्री उपलब्ध कराने के लिए दो चार सौ व्यक्तियों को ही कुछ घंटे दिन में कार्य करना पडता था । शेष जनता का कार्य खाना, बीना, आनंद, भूख करना मात्र रह गया था । देवताओं में कुछ लोग तो ज्ञान प्राप्ति में लगे हुए थे । ये आत्मा परमात्मा, कर्म, मोक्ष, ध्यान, समाधि इत्यादि विषयों की खोज में लगे रहते थे परंतु विज्ञान की भी एक सीमा थी । कुछ दूर जाकर उनके आगे पढना आ जाता था जिसको हटा सकना असंभव था । शेष जनता नाच रंग भोगविलास और सुख साधना में लगी हुई थी । देवासुर संग्रामों में मानवों की सहायता से अपने शत्रुओं को परास्त कर देवता सुख वासना में फंस गए थे और जीवन की आवश्यकताओं को अनायास पास रखने के कारण आलस्य तथा प्रवास में पडे पतन की और अग्रसर हो गए । मानवों के ब्रम्हवर्त आदि देशों में आने के समय देवताओं में प्रजातंत्र आत्मक राज्य सत्ता थी परंतु जब ये लोग निर्भय हुए और इनका जीवन भोग सुखद और सुलभ हो गया तो उन्होंने राज्यकार्य सभी इंद्रा के हाथ में सौंपकर उस और ध्यान करना छोड दिया । केंद्र को भी कुछ अधिक नहीं करना पडता था आपने प्रसाद ने बैठे बैठे यंत्र का चालन ही उसका कार्य था । सब स्वर्णीम चलता रहता था । खाने पहनने में कमी नहीं थी । इस कारण प्रयास करने की किसी को आवश्यक का अनुभव नहीं होती थी । स्त्री पुरुषों की संख्या विशेष अनुपात में रखना राज्य में शांति रखने का प्रमुख उपाय था । केंद्र ये विद्या जानता था उत्पन्न बच्चों में आवश्यकता अनुसार लिंग परिवर्तन किया जा सकता था । इसके अतिरिक्त गर्भवती स्त्रियों में स्वेच्छा से लडकियाँ अथवा लडके कैसे हो सकते हैं, इसका ज्ञान भी प्रयोग में लाया जा सकता था । देश में सुख और शांति के लिए लडकियों की संख्या लडकों से डैडी रखी जाती थी । जब भी इसमें अन्तर पडता दिखाई देता था, इस अनुपात को ठीक कर लिया जाता था । देवता अपने देश की सुरक्षा में भी वलनशील थे, परंतु ये कार्य भी केन्द्र के हाथ में था । उसने अपने प्रसाद में दूर दर्शक यंत्र लगाए हुए थे जो देश की सीमाओं के समाचार लाते रहते थे और यदि कोई सेना आक्रमण करती दिखाई देती है, केंद्र अपने विश्वास स्थान में बैठा बैठा ही सेना का विध्वंस कर सकता था । भोजन, वर्शन और ग्रहों का प्रबंध हो जाने पर और सुख प्रसाधन उपलब्ध होने पर देवता प्रसादी और आलसी हो गए और इसी कारण उनका पतन हो गया । नहीं । उसके पहले भी अनेक लोगों ने सुख सुविधा से परिपूर्ण देश को विजय कर अपना राजस्थान तक करने का यत्न किया था परन्तु सबने मूकी खाई थी । वे सीमापार करते ही विध्वंस कर दिए गए थे । नहीं नहीं ये सब कुछ सुन रखा था और उसने देवताओं की शक्ति का रहस्य जानना प्रथम कार्य समझा । मैं अकेला अमरावती में आया और केंद्र के भवन में रहने वालों से संपर्क स्थापित करने लगा । इंद्रा भवन के निवासियों से संपर्क स्थापित करने में सफल हो गया । उसने भवन में बहुत से रहने वालों से मैत्री कर ली थी । धीरे धीरे वह भवन के सेवकों में से एक हो गया । वो शारीरिक शक्ति विशेष मात्रा में रखता था । पष्ट पुष्ट होने से और लम्बा कद रखने से स्त्रियों का वो प्रिया था । केंद्र का भवन नर्तकियों से भरा रहता था, न उसकी उनमें विशेष प्रतिष्ठा थी । महल में दिन रात नृत्य गाना चलता रहता था । मृदंग वीणा के घनी से इसके आधार घूमते रहते थे । कथावाचक तथा नाटक ता अपनी अपनी कला की धूम मचाये रखते थे । पांच को की भी वहाँ भरमार रहती थी तो न इतना ये पकवान बनाते रहते थे । एक बार जो इस भवन में प्रवेश कर गया वो मानो नवीन जगत में जा पहुंचा और तदनंतर उसकी बाहर आने की इच्छा नहीं होती थी । उसकी सब चाय और कामनाएं पूर्ण होती रहती थी । नहुश भी भारी प्रलोभनों में फस जाता । यदि उसके मस्तिष्क में ये बात होती है कि उसे तो इस सब वहाँ पर अधिकार प्राप्त करना है । इससे वह भवन के प्रलोभनों से निर्मित रहने का प्रयास करता रहता था । कई वर्ष के प्रयत्न करने पर कितना कुछ जानना संभव था, वो समझ गया । वो ये जान गया कि इंद्र वहाँ पर सर्वेसर्वा है और यदि वो उस पर अधिकार कर लें तो पूर्ण देश उसके पांव पहले मिल जाएगा । बहुत सोच विचार कर उसमें एक योजना बना डाली । वर्ष में एक बार बसंतोत्सव के समय देवता मत मत हो । उत्सव बनाने को मानसरोवर के बना रहे, एकत्रित हो जाते थे और चौबीस घंटे के आनंद विलास के पश्चात अपने अपने घरों को लौट आते थे । नहीं, उसने इस अवसर को अपनी योजना की धुरी बना डाला । बसंतोत्सव चैत्रमास की एक नियत तिथि को मनाया जाता था । न हो उसको उसका ज्ञान हो सका । इस के छह मास पूर्व उसने अपनी योजना को कार्यान्वित कर दिया । लगभग एक सौ साथियों को उसने अपने देश से बुला लिया । वे एक एक दो दो कर वहाँ आ गए और कई तरह के बहाने बनाकर वहाँ रहने लगे । एक सेना जिसमें पचास सहस्त्र सैनिक थे, अपने एक मित्र करन की सहायता से उसने तैयार कर ली । इस सेना को उसने बसंतोत्सव से पहली रात कि सीमापार करने की आज्ञा भेजती । स्वयं मैं अपने दो मित्रों के साथ अमरावती में रहने लगा । इस उत्सव में केंद्र और इंद्राणी विशेष रूप से भाग लेते थे । अनुभव से तथा लोगों से पूछ कर नहुष उस दिन के उनके कार्यक्रम को भलीभांति जान गया था । उसकी योजना ये थी उस दिन वो अपने एक सौ सैनिकों की सहायता से केंद्र और इंद्राणी को शक्ति के केंद्रीय मंत्रालय में प्रथक रखें और सीमापार खडी उसकी सेना ग्रुप गानी सुरंगों पर सवार होकर अमरावती पर चढ जाए और इस पर अधिकार जवाले बहुत नाचने गाने वाली अप्सराओं ने उसे बहुत पसंद किया जाता था और मैं उनके लिए छोटे मोटे अनेक कार्य करता रहता था । इस कारण जब बसंतोत्सव के लिए नियत तिथि से एक दिन पूर्व केंद्र से लेकर उसके भवन के छोटे मोटे सेवक तक उत्सव के लिए तैयार हुए तो नहीं उस की बहुत मांग थी । इस पर वो अपने को सेवकों के साथ केन्द्र के मनोरंजन करने वालों की मंडली में उत्सव को चल पडा । अमरावती के पूर्ण नगरवासी केवल रोगियों और वृद्धों को छोड शेष सब उत्सव से पूर्व मध्यान को ही घरों से चल पडे थे और इंद्राणी भी अपने रथ में सवार हो अपने भवन के लिए निकले और उन्होंने उत्सव की और प्रस्थान कर दिया । केन्द्र के दल के लोग सांयकाल मानसरोवर के तट पर पहुंच गए और सहस्त्रों नर नारी वहाँ पहले ही पहुंच चुके थे । सब खुले मैदान में रात व्यतीत करने का प्रबंध कर चुके थे । केन्द्र के लिए विशाल और सुंदर निवास शिविर बनाया गया था । रात के भोजन के पश्चात वीडा की मधुर ध्वनि सब भरे वायुमंडल में और सुरभित माधवी की मस्ती में अति सुख और शांति के निंद्रा पूर्व उत्सव में बदल रही थी । नहीं उसकी योजना इस रात और अगले दिन पर ही निर्भर थी । इस कारण चिंता और उत्सुकता के कारण वहाँ रात भर शिविर के बाहर बेचैनी से बैठा रहा । वो देख रहा था कि अमरावती में से या सीमा से कोई समाचार आता है अथवा नहीं । कोई सूचना कहीं से नहीं आई । उत्सव के दिन की पहली रात अति आनंद से व्यतीत हुई । अमरावती में भास्कर नाम का एक माल युद्धा रहता था । वह देवलोक में सबसे अधिक शक्तिशाली व्यक्ति था । उसका जीवन कार्य ही व्यायाम करना और खाना पीना प्रायरिटी भ्रम मूरत में जाकर शौचादि से निवृत्त हो अपने अखाडे में चलाया करता हूँ और सुर्योदय के व्यायाम आरंभ कर देता हूँ । ये व्यायाम वह निरंतर सूर्य के सिर पर आ जाने तक करता हूँ । इस काल में उसके शरीर पर से पसीना छूट कर भूमि को गिरा कर देता था । मध्यान् के समय वह व्यायाम बंद करता और उसके शिष्य उसका बदन पहुंचकर सुखा देते । वो स्नान करता और पश्चात भोजन के लिए घर जा पहुंचता । उसका दोपहर का भोजन मध्यान ओ प्रांत आरंभ होता और तीसरे पहर के हम तक चलता रहता हूँ । दस से दूर दो शेर मलाई, एक बाल्टी भर उबली सब्जियां और ऊंचा ढेर रोटियों का उसका इस समय का खाना था । इसको धीरे धीरे चबा चबाकर वो सुरापान आरंभ करता हूँ । कटोरे पर कटोरे सुर्खियां लगाकर भी वो हो जाता है । इस प्रकार सा निकाल हो जाता हूँ और अब उसका रात का भोजन आरंभ हो जाता हूँ । इसमें फल और मानसी वो खाता था । प्राय हिरण का मासी उसको प्रिया था । रात का भोजन समाप्त कर वो तीन प्रहर गहरी नींद सोता । भास्कर की पत्नी का नाम मिलिंद था । भास्कर स्वयं को साढे पांच हाथ ऊंचा और विशाल का आया था । परंतु उसकी पत्नी दुबली पतली स्त्री थी । भास्कर की दो लडकियाँ थी आशा और सपा । दोनों अपनी माँ के समान सुंदर थी । परिवार अतिप्रसन्न था । भास्कर सदा प्रसन्न और संतुष्ट रहता था । मिलिंद घर के काम काज में व्यस्त रहती है । आशा तथा कृपा, नृत्य और संगीत सीखती थी । भास्कर के कोई लडका नहीं था और उसका भाव माँ और बहनों को खेलता था । वहीं एक बात थी जो कभी दुख का कारण मान जाती थी । ऐसे अवसरों पर मिलिंद अपने पति से खींचकर कह देती इतनी भोजन सामग्री को व्यक्त करने से क्या लाभ तो मुझको एक उत्तर भी नहीं दे सकते हैं । मैंने तुमको दो लडकियाँ है क्या? तुम इसके लिए क्रिकेट नहीं होगा? दो चूडियां इतने बडे पहाड में से लग जा नहीं आती कहते हुए तो भी देवलोक में वे सर्वश्रेष्ठ सुंदरिया हैं मुझको इससे क्या सौभाग्य उनको जिससे उनका विवाह होगा । किसी विपत्ति के समय आश्रय होने के स्थान ये मुसीबत बन जाएगी । तुमने मुझे अपने सामान पुत्र दिया होता हूँ । पूरे दिनों में वो हमारा आश्रय तो होता है । किस तरी बोर होता हूँ । भास्कर ने अनुमान में सिर ऊंचा करते हुए कहा देवलोक में पूरे दिन की बात कैसे कर सकती हूँ? क्या विपत्ति आ सकती है यहाँ इस देश की और कौन सृष्टि कर सकता है और महात्मा भी यहाँ मुसीबत भेजने से पूर्व कई बार सोचेगा । हमने प्रकृति पर भगवान हम्मा की पत्नी है, मुझे प्राप्त कर ली है क्या तुम नहीं जानती की आंधी वर्ष, भूचाल और बाढ इत्यादि प्राकृतिक उत्तरों पर केंद्र का साम्राज्य है हूँ । बलशालियों से महाबली है । अपनी तर्जनी को उठाकर शत्रु को भस्म कर सकता है । ये सब सब था मेल एंड ये सब कुछ जानती थी और उससे इनकार नहीं कर सकती थी । इस पर भी विपत्ति आई । इन अभिमानी बेकार देवताओं की जाती पर दुख और कलेश बादल गहराए जब सब बसंतोत्सव मना रहे थे । दूर पश्चिम की और पचास सहस्त्र सैनिकों की सेना जो चाहते लोग में घुसी चली आ रही थी और अमरावती में उसे दिन पहुंचने की वो लगाए हुए थी । भास्कर भी उत्सव में गया था । उसका भी वहाँ कार्यक्रम था । प्राथना प्रसन्न और चपन केंद्र उठा और शौचादि से छुट्टी का उत्सव में शामिल हो गया । केंद्र और सचिव यज्ञमय सम्मिलित हुए । सहबरी ऋषि और रोहित बैठे सामवेद का गान कर रहे थे और एक वृहद यज्ञ किया जा रहा था । यज्ञ के पश्चात प्रातः का भोजन हुआ और उसके पश्चात शारीरिक प्रतियोगिता हुई । इसमें भास्कर की शक्ति का प्रदर्शन भी हुआ । एक सौ सुदृढ पहलवान एकदम उस पर छोड दिए गए । दो लाख जनता के सामने देखते देखते भास्कर नहीं उन सौ पहलवानों को गिराकर मात कर दिया । कई साल हो गए । साधु कहकर जनता ने उनकी प्रशंसा की । सच्ची में मुक्ता हार से उसको सम्मानित किया । इस पर भास्कर ने अपने कंधों पर पचास पुरुषों को उठाकर अखाडे में घुस कर दिखाया । शारीरिक प्रतियोगिता समाप्त हो जाने पर मध्यान का भोजन हुआ । पश्चात दो मुहूरत भर में शाम कर पूर्ण उत्सव में नाच रंग, संगीत इत्यादि का कार्यक्रम आरंभ हो गया । सहस्त्र स्थानों पर अपनी अपनी रुचि के अनुसार कार्यक्रम चल रहा था और सचिन अनेक स्थानों पर इस कार्यक्रम को देखने गए और जहाँ जहाँ कुछ विशेषता देखी वहीं पर पुरस्कार दिया । इस प्रकार सांयकाल हो गया । तत्पश्चात भोजन हुआ और रात को केन्द्र के शिविर में उसकी अपनी नाटक मंडली द्वारा नाटक खेला गया । खुले मैदान में सहस्त्रों नर नारियों ने नृत्य किया और फिर पीछे नाटक हुआ तो मध्यरात्रि तक चलता रहा । ये उत्सव की समझते थे । दिन भर के कार्यक्रम नहीं देवता थक चुके थे । इस कारण सब गहरी निद्रा में अभिभूत हो गए । भास्कर का अपना एक शिविर था । पहलवान देवता संगीत में विशेष रुचि नहीं रखता था और जब वह बाहर मैदान में निति ही रहा था तब बैठा अपना रात्रि का भोजन कर रहा था । मेरी और उस की लडकियाँ नृत्य में भाग ले रही थी । मृत्यु के पश्चात आशा अपने साथ एक युवक को लेकर आई और बोली बाबा ये मदन है मैं इससे विवाह करना चाहती हूँ । व्यवहार भास्कर ने वो इसमें से दोनों हाथ मदन के कंधों पर रखती है । मदन भास्कर के हाथों से बोझ से घबरा गया । उसकी कठिनाई देख आशा ने आपके संकेत से उसको सहन करने के लिए कहा । मदन उठकर बैठने ही वाला था की भाषा कर रहे हैं । उसकी सहनशक्ति से प्रसन्न हो जाते ही अपने हाथ उठा लिए । इससे मदन की जान में जान आ गई । भास्कर ने मुस्कराकर कहा तो मैं एक अच्छे युवक लडके प्रतीत होते हो जाओ उसकी माँ से स्वीकृति लेकर विभाग कर लो । आशा मदन को ले अपनी माँ की खोज में चल पडी और भास्कर हेरन की भोली हुई टांग उठाकर खाने लगा । भास्कर भोजन कर सो चुका था और जब मिलिंद और कृपाल नाटक देख कर लौटी आशा अपने पति के साथ चली गयी थी । केन्द्र के शिविर में यथाविधि वीणा की मधुर स्वर लहरी वायुमंडल को तरंगित कर रही थी और केंद्र शशि के साथ शिविर में गाढ निद्रा में लीन था । दिनभर उत्सव में लोग वसंत ऋतु के उल्लास मत मत हुए । गाते बजाते नाश्ते कूद रहे थे नर नारी बाल वृद्ध सब उत्सव के आनंद में पागल हुए से घूमते रहे थे अजय मध्यरात्रि में उत्सव समाप्त होने पर जब लोग सोये तो फिर खोर निद्रा नहीं विलीन हो गए । प्राप्त है बहुत दिन निकल जाने तक लोग थकावट और मध्य की मस्ती दूर करने के लिए सोते रहे । जब जागे सबसे प्रथम समाचार उनके कानों में पडा वो एक विदेशी सेना का देवलोक में घुस आने का कार्यक्रम था परन्तु बहुत प्राथमिक कार सीमा से अश्वारोही समाचार लेकर आया की गांधार सेना ने देवलोक पर आक्रमण कर दिया है और सेना तीव्रगामी अश्वों पर सवार होकर अमरावती की और चली आ रही हैं । इस सूचना के मिलते ही केंद्र और सचिव अमरावती की और चल पडे महेश उनसे दो घडी पूर्व ही अपने घोडे पर सवार हो फिदा हो गया था । लोगों ने जब आक्रमण का समाचार सुना और साथ ही जब केंद्र और सच्ची के अमरावती की और प्रस्थान के विषय में जाना तो जो छठे चिंता उनके मन में आई तो दूर हो गई । उनको विश्वास था केंद्र बडी से बडी सेना का विनाश करने की शक्ति रखता है । ये नहीं जानते थे कि उसकी अमरावती पहुंचने के पूर्व ही नगर और राज प्रसाद पर गांधार ओं का अधिकार हो गया होगा । इसमें सब लोग की आशा कर रहे थे कि उनके अमरावती लौटने से पूर्व ही आक्रामणकारी शरण का हो चुका होगा । परन्तु नहुष इस बात के लिए तैयार था वो केंद्र से दो घडी पूर्व ही मानसरोवर से चल पडा था । सीमा से समाचार लाने वाला आया और वह तुरंत रवाना हो गया । अमरावती के मार्ग में एक दो स्थानों ऐसे थे जहाँ दो पडोसियों के बीच रास्ता बहुत बंद था । वहाँ उसमें एक सौ से अधिक सैनिक छुपा रहे थे । न होश वहाँ आकर उनसे मिल गया । जब केंद्र और सच्ची का रथ पहुंचा तो उसके सैनिकों ने उसको बंदी बना लिया । आज्ञा से भरा केंद्र अपने पांच छह अश्वरोही यों के साथ अमरावती की और भागा जा रहा था । इस कारण उनको अपना बंदी बनाने के लिए विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं पडी । केंद्र को बंदी बनाकर न होश स्वयं एक दर्जन सैनिकों को लेकर अपनी मुख्य सेना से मिलने के लिए अमरावती की और चल पडा और शेष सैनिकों की रक्षा करें । केंद्र और शक्ति को उसने अपने स्थान कमल सर दुर्ग में भेज दिया । अमरावती के द्वार के बाहर उसने मुख्य सेना की प्रतीक्षा की । उसके वहाँ पहुंचने के कुछ ही समय पश्चात उसकी सेना मारकाट करती पहुंची और उसमें सेना के साथ एक विजेता के रूप में अमरावती में प्रवेश किया । इस नगर के प्राय सभी स्त्री पुरुष और बच्चे बसंतोत्सव के लिए नगर से बाहर मानसरोवर गए हुए थे । इस कारण नगर पर बिना किसी प्रकार की विघ्न बाधा के उसका अधिकार हो गया । भास्कर जब उठा तो आक्रमण का समाचार उसने भी सुना और अन्य देवताओं की भर्ती । उसने भी नाक बहुत चढाकर कहा । सब होलिका की भारतीय जलकर भस्म हो जाएंगे । केन्द्र के अपने भवन तक पहुंचने की देरी है कि सब ठीक हो जाएगा । इतना है तो अन्य सबके समान शौचादि से निवृत्त हो । बहुजन कर अमरावती की और चल पडा । ये मध्यान का समय था चलने के समय आशा भी अपने पति के साथ आ गई तो आनंद में झूमते प्रतीत हो रहे थे । उनकी आंखों में विशेष जमक थी । वे इस बात के लक्षण है कि उनकी पिछली रात खूब आनंद में व्यतीत हुई है । भास्कर ने उन्हें आशीर्वाद दिया । आशीर्वाद के लिए हाथ उत्ता देख वो घबरा गया । उसे कह दिया कृपया अपने शुभ हाथ दूर ही रखिए । इससे मेरी हड्डियां चूर चूर हो जाएंगे । मदन के माता पिता भी तब वहाँ आ गए और उन्होंने भास्कर और मिलन को धन्यवाद दिया और कहा कितनी सुंदर भेड आपने हमारे पुत्र को दी है । इस प्रकार सब हसते खेलते पूछते अमरावती की और चल पडे । देहातों और अन्य नजरों से आए लोग भी अपने अपने घरों को चल दिए । सबके मन में विश्वास था कि उनके घर पहुंचने से पूर्व ही इंद्र सब आक्रमणकारियों को समाप्त कर चुका होगा । वे अभी आधा राष्ट्र ही गए थे कि उन्हें समाचार मिला कि आक्रमणकारियों का अमरावती पर अधिकार हो चुका है । उनको ये भी समाचार मिला । केंद्र अमरावती नहीं पहुंचा । सबके मन में घबराहट हो गई और उन्होंने एक विचारगोष्ठी की सब बाल वृद्ध युवा नर नारी इस गोष्ठी में समृद्ध हुए । आरंभ में तो सबके मन ऊपर आतंक की छाप थी परंतु धीरे दिए उच्च चिंता कम हुई । किसी ने कह दिया चिंता करने की आवश्यकता नहीं है । आक्रमणकारी सेना और नया राजा उन्हें खा नहीं जाएगा । उसे राज्य करना है और हम उसे इंद्र का उत्तराधिकारी बना देंगे । वो हमारी रक्षा करेगा और हमको भोजन वस्त्र उसी प्रकार देगा जिससे इंद्रा दिया करता था । ये भ्रांत भावना सबके मन में समा गयी और सब अमरावती की और चल पडे । सांयकाल द्वार तक पहुंचे और वहाँ सब को रोक रोककर एक एक को भीतर जाने के लिए कह दिया । कंधार सैनिक अपनी खडग नंगी की ये खडे थे और जब लोग एक पंक्ति में भीतर जा रहे थे उनमें से कुछ युवा स्त्रियों तथा लडकियों को पृथक करते जाते थे । क्या कोई इसका कारण पूछता तो कह देते कि देवलोक में विजयोत्सव पर उत्सव में पचास सहस्त्र सैनिकों के मनोरंजन के लिए स्त्रियां चाहिए । स्त्रियों को, पत्तियों से, माताओं को, पुत्रों से, बहनों को भाइयों से पृथक करने का ये कार्य अति भयंकर था और नगर के द्वार पर साकार मची हुई थी । इस हाहाकार में एक बार झगडा दी हो गया । भास्कर अपने परिवार वालों के साथ द्वार पर पहुंचा तो उसे भी रोक दिया गया । जब आशा को उसके पति मदन से पृथक करने लगे तो मदन ने बाधा डाली और एक सैनिक का नगर खडक उसके पेट में घुस गया तो तुरंत वहीं ढेर हो गया पास कर जो ये देख रहा था । आगे लगता और एक सैनिक के हाथ से खडक छीनकर सैनिकों को चुनौती देने लगा । एक सैनिक आगे बडा भास्कर ने खडक पवार कर दिया । भास्कर खडक को विशेष रूप से चलाना नहीं जानता था परन्तु उसका खडक जब सैनिक के साथ बाल के साथ टकराया तो सैनिक के हाथ से छूटकर दूर गिर गया । गांधार सैनिक इस बहत काय शरीर को देखकर डर गए । इस कारण एक ने कहा ये आप क्या कर रहे हो? मैं भी महिलाओं की रक्षा कर रहा हूँ । सैनिकों ने उनसे झगडा करना अनुचित मान कह दिया । कौन कौन महिलाएं हैं तुम्हारी? भास्कर ने अपनी स्त्री और लडकियों को दिखा दिया और सैनिकों ने उन्हें जाने दिया । सैनिकों ने समझा जब इतनी और मिल रही है तो इस तीन के लिए क्यों जान जोखिम में डाली जायेगी । वे भास्कर के विशालकाय और ऊंचे शरीर को देख कुछ डर गए थे । भास्कर नगर खडक हाथ में लिए अपनी स्त्रियों को ले नगर में से निकलता हुआ अपने घर पर जा पहुंचा । घर पहुंचकर उसने खडक भूमि पर फेंकते हुए अपनी स्तरीय और लडकियों के रात समान श्वेत मुखो देख रहा हूँ । अब क्या हो देवता सोचो बहुत अभियान था तुमको अपनी जाति पर बगैर केंद्र की बुद्धि और चतुराई पर अब तो तुम को पता चला है ना । ये तुम्हारी शक्ति ही है जो मुसीबत में हमारी सहायक हुई है । हम सत्य कहती थी । भास्कर ने कहा फिर इस समय मेरे साथ मेरे जैसा एक और होता तो हम इन कुत्तों को अमरावती से बडा देते हैं । अब इस अभिमान कि बात को अपने पास ही रहने दो । अब तो इस नगर से बचकर भाग निकलने की सोचनी चाहिए । मैं समझती हूँ कि इन राक्षसों के राज्य में हम अधिक काल तक सुरक्षित नहीं रह सकते हैं । ये अच्छा नहीं होगा क्या की जब ये रंगरेलियां मना रहे हो तो हम यहाँ से नौ दो ग्यारह हो जाए ऐसा ही करना होगा । अपनी शक्ति को अस्थिर करने के लिए भोजन करना आवश्यक माना गया । उन्होंने मध्यान में कुछ भोजन किया था और नहीं जानते थे कि कितनी देर तक पहुँच दौड करनी पडेगी । उस दिन भास्कर को पेट भरना एक समस्या हो गयी । इस पर भी जो क्यों करके कुछ प्रबंध किया गया । भोजन के पश्चात उन्होंने कुछ विश्राम किया और भ्रम मूरत से भी पूर्व वे घर से निकल पडे । भक्तों की आर्मी ही छुपते हुए वो अंधेरी गलियों में से निकलते हुए लुका छिपी करके नगर के बाहर पहुंच गए । नगर में गतरात गणधरों ने बडी उच्छ्रंखलता से व्यक्ति की पचास सहस्त्र सैनिकों ने नगर भर में प्रस्तुत सब मध्य पी डाली । अन्य के भंडार खाली कर दिए । मिठाइयों की दुकानें लूट ली । सुंदर नर्तकियों को नचा, नचाकर थका डाला और स्त्रियों से बलात्कार किया । नगर भर में इन सैनिकों ने इतना उपद्रव मचाया की सहस्त्रों वर्षों के सुख और चैन का जीवन व्यतीत करने वाले देवता त्राहिमाम त्राहिमाम कर उठे । अमरावती अति सुंदर नगर था परन्तु इन अशिक्षित उंगलियों को इसे नष्ट भ्रष्ट करने में आनंद मिलता था । देवांगनाएँ सौंदर्य में अद्वितीय परन्तु इन पशुओं ने उनके बलात्कार कर उनके प्राण ही मानव हर लिए देवता लोग अति स्वादिष्ट भोजन करते थे । इसलिए इन पे टुओ ने उनको खास खाकर खत्म कर दिया और फिर खाया । जगतकर्ता प्रसन्नता और आनंद की लहरियों में झूमता पता धन धान्य से भरपूर नगर इन मूर्खों ने एक रात में ही नष्ट भ्रष्ट कर डाला । नहीं उसके सेनापति का नाम करण था । जब मैं होश केन्द्र के महल से पहुंच गया तब उसने करण को उसके प्रयास पर पुरस्कार देने के लिए राजभवन का रक्षा नियुक्त कर दिया । भवन के एक कक्ष में उसके रहने के लिए स्थान भी दे दिया गया । करन कामभोज के गांव में एक निर्धन परिवार का युवक था । वो जब बालक मात्र ही था, उसके पिता का देहांत हो गया । उसकी माँ एक शिक्षित आर्य महिला थी जिसमें एक गांधार का विभाग हुआ था । जब करण के पिता का देहांत हुआ तो उसने करण को पूरी पूरी शिक्षा दिलवाई । शिक्षा के उपरांत करण बहोश के पिता के पास कार्य करने लगा । न होश अपने पिता के मरने पर देव लोग चला गया और वहाँ देव लोग को विजय करने की योजना बना । करण को सेना से चढ जाने की आज्ञा दे दी । करण जब बिना किसी प्रकार की बाधा के अमरावती आ पहुंचा तो न होश उसकी चतुराई पर मुग्ध हो गया । नहीं तो उसको अपने समीप रखने के लिए भवन के रक्षकों का नायक नियुक्त कर दिया । यद्यपि करन इससे संतुष्ट नहीं था तो भी वह नहीं उसके साथ विदेश में झगडा करना उचित नहीं समझता था । भवन की रक्षा के लिए दो सौ रक्षक थे । करण ने पचास पचास को बारी बारी से रक्षा करने का भार सौंप दिया और उसके पश्चात वो अपने भवन की देखभाल करने के लिए चला आया । उसके निवास स्थान में तीन आधार पाकशाला तथा सालाना अगर इत्यादि थे सब में उचित सामान और प्रबंध था । आपने रहने के प्रबंध से संतुष्ट होगा । वह बाहर निकला तो महल के कक्ष में भीड देखकर उसका कारण जानने के लिए वहाँ जा पहुंचा । वहाँ बहुत सी स्त्रियां खडी होकर रो रही थी । उन्होंने एक सैनिक से पूछा तो उसने बताया, ये स्त्रियां भवन में से पकडी गई हैं । अब हम इनका बटवारा कर रहे हैं । बटवारा क्यों? इनका रात में प्रयोग होगा । करण के माथे पर त्योरियां चढ गई । इस पर एक अन्य सैनिक ने कहा, श्रीमान, आज रात विजयोत्सव मनाया जाएगा । नगर भर के स्त्रियाँ गांधार ओके मनोरंजन के लिए पकडी जा रही हैं । हमने भी यही किया है । करण यद्यपि इन सब बातों को पसंद नहीं करता था । हम तो इस समय सैनिकों का विरोध करने की क्षमता नहीं रखने से वह चुका था । वो निराश और दुखी अपने घर की और लौट पडा । इस पर एक ने उसे पुकारकर कहा स्वानी इनमें से एक आप के भाग में भी है । मेरे भाग में कैसे? करण ने उन्हें उत्तेजित होकर पूछा ये सब हैं । हम में से प्रत्येक चार के भाग में से एक मिली है । एक बच गई थी । इस कारण हमने निर्णय लिया की एक जो बची है वो आपको दी जाए । करण उसको अस्वीकार करने वाला था परन्तु ये विचार कर यदि वो उनमें से एक को भी बचा सके तो भी ठीक है । उसमें पूछा कौन है वो एक सुंदर कुमारी कन्या को पकडकर उसके समूह कर दिया गया । लडकी नीम के पत्ते की भर्ती काम रही थी । उसके होट रक्तविहीन हो रहे थे और मुख् राॅकी भर्ती सफेद पड गया । करण को उस लडकी पर दया आ गई । करण ने सोचा यदि वह उसे स्वीकार नहीं करता तो ये पशु उसका भी बुरा हाल कर के छोडेंगे । इस कारण उसने कह दिया अच्छी बात है इसको मेरे आधार में छोडा । सैनिकों ने समझा कि उनके अध्यक्ष प्रसन्न हो गए हैं । इससे वे उस लडकी को धकेलकर करण के आधार की और ले गए और उसको एक आधार में बंद करके बाहर से ताला लगा दिया । करण बहोश के रहने का प्रबंध देखने चला गया । वहां सबकुछ संतोषजनक था पर वह अपने निवास स्थान पर पहुंचा । बाहर खडे सैनिक ने ताली देकर कारण से कहा वो उस कमरे में बंद है । करण ने ताली से सैनिक को कहा अच्छी बात है तुम जाओ । जब चला गया तो करण ने द्वार भीतर से बंद कर लिया और उस आधार का ताला खोला जिसमें लडकी बंद थी । जब द्वार खोला तो उसने देखा की लडकी आगार के कोने में सिकुडी बैठी गंभीर विचार में मग्न है । आगार खुलने पर वो घबराकर उठ बैठी और होने में सिकुडकर खडी हो गई । करण को उस पर दया आ रही थी । उसको देखते हुए मन में सोच रहा था कैसे उसको सांत्वना दें । कुछ विचार कर वह एक और रखे पलंग पर बैठ गया और लडकी से बोला हूँ । लडकी धर धर कम हुई । धीरे धीरे उसके सम्मुख आकर खडी हो गई करण उसने पूछा क्या नाम है? लडकी ने धीरे से भर्राए स्वर में कहा सुमन इस की लडकी हो । महल के निरीक्षक श्री चंद्रकांत की वो कहाँ है महा डाले गए हैं । मेरी माँ बीमार थी इस कारण हम बसंतोत्सव में नहीं गए थे । जब ये लोग आए और मुझको और मेरी माँ को पकडकर ले जाने लगे तो पिता ने विरोध किया । एक सैनिक ने उनकी हमारे समूह हत्या कर दी और हम दोनों को लेकर अन्य स्त्रियों में खडा कर दिया । वहाँ सब सैनिकों के नाम लिख कर एक कलश में डाल दिए गए और हम सब को कहा गया कि कलश में हाथ डाल डाल कर चार चार नाम निकले । मैं सबसे पीछे थी । मेरे कर्ज तक पहुंचने पर सब नाम निकल आए थे । जिस जिस स्त्री ने जो जो नाम निकले थे विचार चार उस स्त्री को ले गए । मेरी माँ को भी वो ले गए हैं मुझको आपके पास भेज दिया है । करण इससे व्रतांत से सोच में पड गया । वो सोच रहा था ये अत्याचार क्या पाँच पाएगा? यदि इसका फल मिला तो कितना भयंकर होगा । उसके परिणामों पर विचार कर मैं कहाँ उठा? इस पर उसने लडकी से कहा तो मैं घर से जाना चाहती हो तो जा सकती हो । कहाँ जाओगे बाहर आपके लोग घूम रहे हैं । बाहर निकलते ही वो मुझ पर झपटा लेंगे और तो तुम यही रहता हूँ । हमने भोजन किया है या नहीं । इच्छा नहीं है । अच्छी बात है । बाहर भोजनालय में भोजन रखा है । इच्छा हो तो उसे खा लेना । उसी आधार में सो जाना । इतना कह करण स्वयं सोने की तैयारी करने लगा । लडकी बाहर चली गई और एक पात्र में जल का एक ही घूंट पी आगार के होने में भूमि पर ही लेटी रही । करण दिनभर की भाग दौड से थका हुआ था । इस कारण पलंग पर लेते ही हो गया । प्रातःकाल उठा और शौचादि से निवृत्त हो । बाहर के कमरे में आया तो लडकी को घुटनों में सिर्फ ये बैठा देख उस के विषय में चिंता करने लगा । मन में ये निर्णय कर उसको यहीं पडा रहने दिया जाए क्योंकि बाहर तो उसकी दुर्गति होगी । उस लडकी जब पूछने लगा रात सो सकी हो या नहीं । पिछली रात कुछ नहीं लाई थी । रात कुछ खाया था । नहीं अच्छा नहीं हुई उनको उससे भय लगता है । पहले तो लगता था अब कम होता जा रहा है । डरने की कोई बात नहीं है । जाओ स्नानादि से छुट्टी वालों और कुछ खाने पीने का प्रबंध करो । मैं तुम्हारी माँ का समाचार लेने जाता हूँ । करण घर से बाहर आया तो उसको पता चला कि पचास स्त्रियों में से सात मर गई हैं । उनके साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया गया था । इनमें सोमन की माँ भी थी । इस समाचार से वो अत्यंत दुखी हुआ । यही कारण था जिसने महेश को चेतावनी दी थी कि इस व्यवहार से देव लोग की पूर्ण प्रजा बिगड जाएगी । इस ही के उत्तर में नहुष ने कहा था कि वह इस जाती को सदा के लिए अपना दास बनाने के अर्थ इसके स्त्रीवर्ग को पतित करना चाहता है और इस देश में भारी संख्या में वर्णसंकर संतान उत्पन्न करना चाहता है । इस उत्तर से चरण के रोंगटे खडे हो गए । वो बिना अधिक बातचीत की अपना काम में लग गया था । जब करण मध्यान का भोजन करने आया तो सुमन ने पहला प्रश्न अपनी माँ के विषय में क्या करन मुख देखता रह गया । उसके मुख से ये समाचार निकल नहीं सका । उसे चुप देखकर सोमन समझ गई । उसने कहा वो बीमार थी । भगवान जाने उसकी क्या बीती होगी । करण ने बहुत ही कठिनाई से समझा । ये अब किसी की भी चिंता का विषय नहीं रहा तो अपने विषय में स्वयं विचार करूँ । अच्छा तुम क्या करोगी? मैं क्या कह सकती है? नहीं जानती कि बाहर क्या हो रहा है । फिर भी यदि आप जाने को कहेंगे तो जाउंगी ही । मैंने ये नहीं कहा तुम यहाँ रहो । जब तक की तुम कहीं जाने का सुविधा नहीं पाती । यहाँ तुमने दुर्व्यवहार नहीं होगा । इस सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार से सुमन के आंसू निकल पडे । वो पूरा भूमि पर बैठ गई और घुटनों में सिर्फ दे । वे हाल होकर रोने लगी । करण के लिए भोजन का प्रबंध भवन से होता था । वो आया और उसमें कुछ स्वयं खाया और शेष सुमन के खाने के लिए छोड दिया । तत्पश्चात वो अपना कार्य देखने के लिए चला गया । जाने से पूर्व सुमन से कहता गया, इस कक्ष से बाहर मत निकलना । मैं इन सैनिकों का नायक अवश्य हूँ परन्तु इस विषय में मेरी कोई नहीं सुनेगा और मैं तुम्हारी रक्षा नहीं कर सकूंगा । प्रभारी माँ का दाह संस्कार हो गया है । सुमन इस परिवर्तन से अत्यंत व्याकुल थी । रात को पिता मारा गया था और अब माँ के मारे जाने का समाचार मिला था । स्वयं है । इस प्रकार की दासता की अवस्था में पडी थी । इस पूर्ण अंधकार में करण एक उज्वल किरण के समान था । उसने उस से अभी तक ठीक ही व्यवहार किया था परन्तु ये तब तक चल सकता था क्या यह अकारण उससे ऐसा ही व्यवहार करता रहेगा? कब तक करेगा? वो जानती थी कि देवलोक में सेवकों की आवश्यकता नहीं थी । सब कार्य, सफाई इत्यादि रसोई बनाना, कपडे धोना और ऐसे सब सारे राज्य द्वारा होते थे । राज्यभर में ये कार्य यंत्रादि द्वारा किए जाते थे । इस कारण इस देश में सेवकों की आवश्यकता नहीं थी । सुमन विचार कर रही थी कि इस सेनानायक की सुरक्षा नहीं तो कैसे रह सकेगी । पर्याप्त चंदन के पश्चात भी वो किसी परिणाम पर नहीं पहुंच सके । तीन दिवस इस प्रकार व्यतीत हो गए । करण ने अपने व्यवहार से उसके मन में विश्वास और निर्भयता उत्पन्न कर दी थी । अब वो उस से बातचीत नहीं, संकोच अनुभव नहीं करती और अपने को घर का ही एक अन्य समझने लगी । करण देव लोग के प्रबंध से संतुष्ट हो गया था । सब लोग अपने अपने कार्यों पर कार्य करने के लिए आ गए थे । सैनिकों की वासना तृप्ति क्यों ग्राम सब स्त्रियाँ उनके घरवालों को लौटा दी गई थी और नगर जैसे भयंकर भूकंप के पश्चात सहमा हुआ भी । विचारहीन और भाग्य को कोसता हुआ सा स्वाभाविक दिनचर्या नहीं लीन हो रहा था । सुमन का कोई नहीं रहा था इस कारण वो कहाँ जाए? यही जानने के लिए इस दिन सोने से पूर्व तरफ से पूछा तुम्हारा कोई संबंधी है जहाँ तुम जा सकती हो? नहीं । जहाँ तक मैं जानती हूँ, कोई नहीं तो मैं अकेली बाहर नहीं घूम सकती । ये ठीक है कि पहले दिन की भर्ती उच्छ्रंखलता नहीं रही है । फिर भी ये कहना आसान नहीं । सैनिकों की स्त्रियों के प्रति भूख अभी मेरी नहीं, उनको अकेली देख कोई ना कोई सैनिक अपनी पत्नी बना ही लेगा । मैं नहीं जानती कि अब मैं क्या करूँ । अभी तुम यहाँ रह सकती हो । यहाँ तुम को किसी प्रकार का कोई भय नहीं है । मैं आज एक बात सोच रही थी आप लोग कब तक रहेंगे? क्यूँ क्या मतलब है तुम्हारा । हमने इस देश को जीत लिया है । अब यहाँ सदैव के लिए रहेंगे पर आप रह नहीं सकेंगे । विदेश चंद शीतल है । जहाँ जो उष्मा आप अनुभव कर रहे हैं वो कृत्रिम है और इस उष्मा को एक यंत्र द्वारा इस तापमान पर रखा जा रहा है । यंत्र दिन रात अपना कार्य करता जाता है परंतु इस प्रकार ये सदैव नहीं चल सकेगा । इसमें कार्य करने वाला एक पदार्थ है वो है जीवित पारा समाप्त हो जाएगा । अब यहाँ ठंड हो जाएगी । बाजारों में बर्फ जमने लगेगी, खेती वाडी समाप्त हो जाएगी और जीवन दुर्भर हो जाएगा । जी तुमको किसने बताया है? मैं अपने ज्ञान से जानती हूँ । जीवित भारत का रहस्य देवलोक में केवल तीन व्यक्ति जानते हैं । इंद्र स्वयं उनकी पत्नी शचि और पिता मैं धम्मा धम्मा इतने वृद्ध हो चुके हैं कि उनको कोई बात स्मरण रह गई है । ये कहा नहीं जा सकता हूँ और केंद्र तथा शचि भगवान जाने कहाँ है । जब ये जीवित पारस समाप्त हो जाएगा तो कोई भी व्यक्ति इसको नहीं बना सकेगा और यहाँ सब काल के ग्रास बन जाएंगे । ग्रहण को इस समाचार से अत्यंत चिंता हुई । उसने अब और अधिक परिचय प्राप्त करने के लिए देवलोक ने कार्य की प्रणाली पूछी । सुमन ने बताया, यहाँ प्राय सब कार्य यंत्रादि से होते हैं । ब्रात है । हम अपने वस्त्र घर के बाहर एक डिब्बे में डाल देते हैं । यहां से वे स्वयमेव निकल कर धुलने के स्थान पर पहुंच जाते हैं । वहाँ वो बोलते हैं, सूखते हैं और फिर पहनने को तैयार कर बहुत जाते हैं । भोजन महल की केंद्रीय पाठशाला में बनता है । यहाँ से वो घरों में पहुंच जाता है । झाडने फूंकने के लिए कहीं से यंत्र चला दिए जाते हैं और घर की सफाई हो जाती है कि सब कार्य जीवित पारद के आश्रय होता है । करण विश्व में सुमन का मुख देख रहा था । तीन दिन के अब मैदान से उसके मुख पर उन्हें यौवन के लक्षण प्रतीत होने लगे थे और उसका स्वाभाविक सुंदर है और शील ब्रिटेन होने लगा था । करण ने उसकी और विश्व में देखकर पूछा तो भारत के समाप्त हो जाने पर ये कार्य समाप्त हो जाएंगे । यू तो मनुष्य अतिशी देशों में भी रह सकता है पर हम तो उनका इतनी संख्या में यहाँ रहना संभव हो जाएगा । साथ ही जीवन सफल और सुखद और सुबह स्तर नहीं रहेगा । करण अगले दिन ये चिंताजनक समाचार लेकर नहीं उसके पास पहुंच गया । न उसको ये समाचार बताने का अभिप्राय स्पष्ट था । वो चाहता था कि पारस समाप्त होने से पूर्व ही इसके निर्माण का और उन यंत्रों का जिनसे वह कार्य करता है, ज्ञान हो जाना चाहिए । ये कैसे हो सकेगा? वो नहीं जानता था कि इसके बिना ये देश विराट को प्राप्त हो जाएगा । करण ने सोमन की सत्यता को जानने के लिए नरेंद्र भवन की छत पर जाकर शक्ति प्रसारक यंत्रों को देखा । यद्यपि वो उन के विषय में कुछ भी नहीं समझता का फिर भी वो ये देख चकित रह गया । यंत्र बिना किसी व्यक्ति की देखभाल के वैसे ही चल रहा है जैसे सूर्यादि नक्षत्र स्वयं चलते हैं । उसने महोत् से भेंट कर सुबह द्वारा बनाई गई पूर्ण बाद वर्णन करते हैं । नहुश इन सब दिनों में मनोरंजन में लगा था । सुरा सुंदरी के प्रभाव में ही उसके दिन और रात कट रही थी । आज पहली बार राज्य के गंभीर विषयों पर बात करने के लिए पहला व्यक्ति करण उसके पास आया । इससे करने की बातें उसे ब् रुचिकर प्रति नहीं हुई । नहीं, उसको करन की बातों की गंभीरता का ज्ञान नहीं था । उस ने कह दिया, मुझको तुम्हारे कथन का विश्वास नहीं होता । इस पर करण नहीं सुमन का परिचय दिया और कहा वो पढी लिखी और इंद्रा भवन के निरीक्षक की लडकी है । मैं उसके कहने की सत्यता की परीक्षा कर चुका हूँ । भवन की छत पर यंत्र लगे हैं तो नगर का नहीं । प्रत्युत देशभर के जीवन का संचालन करते हैं । वे अपना कार्य कर रहे हैं परन्तु इतना तो मैं भी समझ गया हूँ । कोई भी यंत्र सदा के लिए अपने पास चल नहीं सकता तो फिर क्या किया जाए । गम केंद्र अथवा सच्ची से मैत्री कर इस शक्ति का रहस्य जानना चाहिए । तब तक ये उनकी सहायता के लिए चल सकते हैं । सुमन का अनुमान है कि एक वर्ष तक कार्य चलेगा । एक वर्ष तो बहुत लंबा काल है । इस विषय पर कभी विचार कर लेंगे । जीवित भारत तो एक वर्ष तक चलेगा परन्तु यदि इससे पूर्व ही कोई खराबी यंत्राधीन हो गयी तो क्या होगा? ऐसा होगा और मैं समझता हूँ कि उस लडकी ने तुमको ठहरा दिया है । मेरी राय मानो तो उसको अपनी पत्नी बना डालो तो भारी रुचि की तो होगी ही । इतने दिन तुम्हारे घर रही है । अपनी उसकी इच्छा के विरुद्ध कैसे बना सकूंगा जैसे उसको घर में रख छोडा है । वो अपनी इच्छा से वहाँ रह रही है । वैसे ही अपनी इच्छा से वो तुम्हारी पत्नी बनेगी । जब तो हरी पत्नी बन जाएगी तब वो बताएगी कि कौन व्यक्ति क्या कर सकता है । तो हम उस से बातचीत कर उससे वो काम करा सकेंगे ये तो उसने अब भी बता दिया है । इस समय की बात पर विश्वास नहीं किया जा सकता है । विवाह हो जाने पर लडकी अपने पति को अपना एक अन्य समझने लगती है । इससे उसके हित को अपना हित मानने लगती है । जाओ मैं तुम्हें आज्ञा देता हूँ कि उससे विभाग हो । करनी नहीं समझ सका कि विभाग का इस से क्या संबंध है । साथ ही वह स्वयं उससे व्यवहार की बात करें । उसको अपमाजनक प्रतीत हुआ । वो बिना किसी प्रकार का उत्तर दिए चला गया । जब वो अपने घर की ओर जा रहा था तो भवन के तीन संरक्षक उससे कुछ कहने के लिए मार छोडकर खडे हो गए । करण ने उनको नमस्कार कर स्वीकारकर पूछा कि आबाद है एक प्रार्थना है हूँ वो लडकी जो आपके पास पिछले पांच दिन से हैं । अब हमको मिल जानी चाहिए तो आपके पास हो पर्याप्त काल तक रह चुकी है । अब हमको दे दीजिए और ऑस्ट्रियन समाप्त हो गई हैं । हम उसको चाहते हैं वो नहीं मिलेगी । क्यों हमें स्त्रियों को बदल रहे हैं । हम उसको चाहते हैं वो नहीं मिलेगी । करण नया अनायास बिना विचार किए कह दिया वो मेरी पत्नी पता नहीं इस पर उन्होंने मार्ग छोड दिया और करण को चले जाने दिया । कारणों को इससे बहुत चिंता लगती है कि वो उससे विवाह करने का प्रस्ताव करें जो और कैसे करें । इस अनिश्चित पांच से वो अप्रैल कक्ष में पहुंचा तो सुमन को चिंतित सामने खडे देख पूछने लगा हूँ क्योंकि क्या हुआ है । सुमन सिर से पहुँचा काम रही थी और उसका पसीना छूट रहा था । उसने आठे नीचे किए हुए कहा आपकी कुछ सैनिक अभी आए थे और उसको अपने साथ चलने को कह रहे थे । मैंने उनसे कहा कि आप उनको इसके लिए तंडेल देंगे । मैं आपकी ये कहते कहते वो रुक गई, धारण समझ गया, उसने क्या कहा होगा? उस ने कह दिया तो मैंने कहा होगा कि तुम मेरी विवाहिता हूँ और क्या कहती? अपने को बचाने और कोई उपाय ही नहीं था । मेरी बात सुनकर उन्होंने मेरा हाथ छोड दिया और कहा कि वे आपसे पूछेंगे । जब ये झूठ हुआ तो उसको बलपूर्वक उठाकर ले जाएंगे । मुझे है कि जब आप उनको सत्य बताइए तो मेरा पता नहीं क्या हाल होगा? करना मुस्कराया और कहने लगा यदि मैं तुम्हारी बात को सकते ही कह दूँ तो फिर क्या होगा? आप मेरे लिए झूठ कह देंगे और फिर क्या हो वो अभी भी दीवार का आश्रय लिए खडी थी । करण ने कहा मुझे उनकी बात हो गई है । मैंने कह दिया है कि तुम मेरी पत्नी हूँ । आपने कह दिया है बहुत बहुत धन्यवाद । आप बहुत अच्छे हैं परन्तु अब क्या होगा मैं तुमको तुम्हारी इच्छा के बिना पत्ती नहीं बनाऊंगा, चाहो तो सदैव कब है? झूठ सकता है हमारी प्रथानुसार विवाहिता पत्नी की रक्षा का अधिकार पति को हो जाता है तो मेरी विवाहिता होगी तो मैं खडक लेकर उनसे तो तुम्हारा इस प्रकार अपमान करेंगे, लड जाऊंगा और तब मैं अपराधी नहीं बनूंगा और आप की भी तो कुछ अच्छा है । मैं बात हो गई है और करन से सुमन का वहाँ तय हो गया । जो बात नहुष की आज्ञा से भी नहीं हो पा रही थी वो परिस्थितियों के वार्षिक स्वयं हो गई । एक दिन करण ने सुमन से कहा मैंने जो पहली बार तुमको देखा था तभी तुम से विवाह कर लेने का निश्चय कर लिया था परंतु बिना तुम्हारी इच्छा के ये नहीं कर सकता था और जिस परिस्थिति ने तो मेरे घर आई थी उसमें तुम से इस प्रकार का प्रस्ताव करना मानवता की हत्या करना था । आप बहुत अच्छे हैं । आपसे व्यवहार कर तो मैं अपना अहोभाग्य समझती हूँ परन्तु ये कैसे हुआ कि कान धारों आप इतने श्रेष्ठ हो गए । आपके दूसरे साथी तो सर्वथा पशु है । गर्म ने कहा आज से पचास वर्ष पूर्व गांधार और कामभोज में भी सारे लोग रहते थे । उनका यहाँ राज्य था । तुम खार से कामभोज पर और पीछे गांधार । देशभर मलेच्छों का आक्रमण हुआ और वहाँ उन का राज हो गया । बुखार देश के लोग वास्तव में आ सकते हैं । इनके यहाँ स्त्रियों के सतित्व की महिमा नहीं, व्यवहार ही करते हैं, परंतु व्यवहार से पूर्व ही राय करने आए और तय हो जाती है कभी माँ बन जाती हैं । इसको वो लोग कोई निंदनीय कार्य नहीं मानते । इन लोगों का राज्य होने से हमारे लोग भी वैसा ही कर रहे तथा मानने लग गए हैं । मेरे पिता गांधार थे जो इनकी बातों को अच्छा नहीं समझते थे । इस कारण उन्होंने अपने देश में व्यवहार नहीं किया । उनको अपने देश में कोई अछूती कुमारी कन्या नहीं मिली । वे ब्रम्हवर्त से एक आर्यकन्या जहाँ कर ले आए । ये मेरी माँ है, पिताजी का देहांत हो चुका है परंतु माँ जीवित है । सती साध्वी हैं मेरे विचार उन की ही देन है । मैं बडा हुआ तो मेरी माँ ने मुझ को भी शिक्षा दी थी कि बिना बाहर देश की कन्या से विवाह करूँ । गांधार में कोई कन्याकुमारी मिल सकेगी । उस को संदेह था । सौभाग्य से तो मिल गई और मैं प्रसन्न हूँ तुम मेरी पत्नी बन गई हो । करण नहुष का मित्र और फिर सेवक बन गया था परन्तु आरंभ से ही वो उसके कामों तथा विचारों को पसंद नहीं करता था । अमरावती में आकर तो उसको पता लगने लगा था कि नहीं उसकी नीति कितनी मूर्खतापूर्ण है । पचास सहस्त्र सैनिक आपने खडक के बल पर राज्य जमा हुए थे । राज्य स्थापना के इस कार्य में देवताओं की भीरता तथा मुर्खता भारी कारण थे फिर भी वह नहुष के व्यवहार को हमने नहीं मानता था । वो नृत्य हो रहे अन्याय और अत्याचार को देख रहा था और समय समय पर नाम उसको सचेत करता रहा था । परन्तु वो देख रहा था कि वो अपनी जाति के संस्कारों और परंपराओं में कहाँ जाता है । तरीके है अपनी भूल समझ भी जाता था परंतु स्वभाव से वो फिर भूल कर बैठता था । इस सब का एक परिणाम ये हो रहा था कि नहीं नहीं करण को अपना आंतरिक सन्मति दाता मानना छोड दिया था और अपने राज्य कार्य में उससे सम्मति लिए बिना ही काम करता रहता था । परन्तु जाओ देवयानी के स्वयंबर से अपने प्रयास में असफल होकर आया तो विचार करने लगा कि उसके मंत्रीगण प्रबंध करने में अयोग्य है । इस समय उसको उन्हें करन का ध्यान आया, अपने को बंदी बना देव नाम के सामने खडा किया जाना और फिर आपने पर विजय प्राप्त करने वाले विक्रम के कहने पर दया कर छोड दिया जाना उसके लिए भारी लग जा और निंदा की बात थी । कश्मीर में देव नाम की आज्ञा के सैनिक उनको एक रख में हाथ पांव बांधकर सीमा तक ले आए थे और इसी अवस्था में उनको सीमा के पार धकेल दिया गया था । वो क्रोध और एशिया से पागल होकर लौटा था । उसने उन यंत्रणा देने वालों को जिन्होंने देवयानी के अपहरण की योजना बनाई थी, बुलवाया और उनकी त्रुटिपूर्ण सम्मति देने के लिए प्रार्थना की । उनको अयोग्य, मूर्ख और गवार कहकर डाडा पर तत्पश्चात तरुण को बुलाकर अपनी व्यवस्था वर्णन की । करण ने जब नहुष के कश्मीर की राजकुमारी के अपहरण की बात छोड नहीं तो बहुत दुख अनुभव किया । उसने कहा महाराज इस समय आपके सम्मुख सबसे प्रथम कारें राज्य को सुदृढ कर रहा है । मान लीजिए आप राजकुमारी देवयानी को उठाकर ले भी आते हैं तो क्या होता हूँ । मैं देख रहा हूँ कि आपका राज्य यहाँ दो तीन वर्ष से अधिक नहीं रह सकता है । छक्की प्रसारक यंत्र दुर्बल पड रहे हैं जिससे दूर दूर के शक्ति प्रसार के यंत्र बेकार हो गए हैं और वहाँ पर वर्ष में छह मार्च बर्फ पडने लगी है । वहाँ के लोग अपना अपना घर और भूमि छोड अमरावती में आ रहे हैं और कुछ देवलोक ही छोड रहे हैं । यहाँ अमरावती में लोगों की भीड बढ रही है और खाने की कमी हो रही है । यहाँ भी तापमान गिर रहा है और ऐसा अनुमान है कि देव लोग दो वर्ष में शीत प्रधान हो जाएगा । तब यहाँ न खाने को मिलेगा और नाम पहनने को लोग जाडे मेटेअॅर कर मर जाएंगे और आपका राज्य भी समाप्त हो जाएगा । तब राजकुमारी से देखा हुआ है अथवा दिखाई से इसमें कोई अंतर नहीं रह जाएगा । नहुश इस समस्या से घबरा उठाओ और पूछने लगा, मुझ को क्या करना चाहिए? मैंने तो ये समझा था कि कश्मीर की राजकुमारी से विवाह हो गया । फिर यहाँ का राज्य भी मिल जाएगा । तब देवलोक रहे अथवा न रहे । मैं अपनी राजधानी चक्रधरपुर बना लेता हूँ । करना मुस्कराया और बोला राजकुमारी से धोखा कर अथवा उसका अपहरण कर विवाह कर लेते तो कश्मीर का राज्य प्राप्त नहीं होता हूँ । संभव है कि राजकुमारी भी आत्महत्या कर लेती । मेरी संपत्ति तो सीधी है कि इन सब व्यर्थ की बातों को छोडकर राज्य सुदृढ करने का यत्न करना चाहिए । इनके दो पाए हैं । एक तो प्रजा को संतुष्टि करिए, उनको ऐसा अनुभव हो कि आप उनके अपने हैं और दूसरा किस योग्य व्यक्ति से मिलकर भवन की छत पर लगे यंत्रादि को ठीक करवाइए । मैंने बहुतों से मालूम किया है और यही पता चला है कि इंद्र और सच्ची के अतिरिक्त ऐसा कोई व्यक्ति नहीं जो उनको ठीक कर सकें । ब्रह्मा भी इस विषय में जानते तो हैं परंतु वृद्ध होने के कारण वो स्वयं कुछ नहीं कर सकते हैं । उनको भी किसी अन्य की सहायता की आवश्यकता होगी । इस सब वार्तालाप का प्रभाव ये हुआ के नहीं । उसने करण को अपना प्रधानमंत्री मान लिया और उसकी सम्मति से राजकार्य चलाने लगा । करण ने हो श्चय कहकर राज्यभर में ये घोषणा करवा दी । याद से देवता और कांधार में कोई अंतर नहीं माना जाएगा । उनको भी राज्यकार्य में भाग मिलेगा । इस घोषणा का प्रभाव देवताओं पर कुछ विशेष नहीं हुआ हूँ । इसका कारण ये था कि कार्यरूप में घटनाएं इसके विपरीत हो रही थी । पचास सहस्त्र गांधार सैनिक कुछ कार्य नहीं करते थे और खाते पीते देवताओं से अधिक थे । वे गांधार से अपनी पत्नी लेकर नहीं आए थे । इस कारण देवताओं की युवा स्त्रियाँ उनकी वासना की भेंट होती रहती थी । भोजन सामग्री उनसे बचकर ही तो देवताओं को मिल पाती थी । करण समझता था कि गांधार सैनिकों को शिक्षा देने की आवश्यकता है । राजा क्या कर सकता है यदि उसके सैनिक ही उस चाँद हूँ । सैनिकों के कार्य उनके संस्कारों पर निर्भर हैं और संस्कार एका एक बदल नहीं सकते । इस कारण इस एक घोषणा से वो कुछ चमत्कारी प्रभाव की आशा नहीं करता था । वो फिर भी वो निरंतर ये घोषणा करवा रहा था । वो समझता था कि समय पाकर इसका प्रभाव आवश्य होगा । इसका एक प्रभाव ये हुआ की एक दिन भास्कर नहीं, उसके न्यायालय ने आप उपस्तिथ हुआ नहीं, उसकी लम्बी चौडी देखो देखो इसमें में पड गया । भास्कर ने जो कर नमस्कार की और खडा हो गया । बहुत पूछा कौन हो तुम? श्रीमान देवताओं का एक योद्धा हूँ । देवताओं के राज्यकाल में राज्य की और सम उसको खाने पीने को मिलता था और मैं व्यायाम तथा मल्लयुद्ध करता था । जब कोई पराक्रम करतारे करता तो मुझे बुला लिया जाता था । आज की घोषणा सुनी है । अब दोनों जातियों में भेद नहीं किया जाएगा जो पहले की भारतीय राज्य की सेवा के लिए आया हूँ । काम क्या कर सकते हो? मैं मलयुद्ध हूँ बीस तीस पचास तक लोगों से एक साथ लड सकता हूँ और यदि लडाई में तो मारे गए तो ये नहीं हो सकता । महाराज यद्यपि आजकल खाने पीने को विशेष कुछ प्राप्त नहीं होता तो भी पचास तक को अनायास पछाड सकता हूँ । हम लाठी इत्यादि से लड हो गया तो अब खाली हाथों से मैं बिना शास्त्र के लडूंगा तो पहले अपना करतब दिखाओ । उसके बाद हम विचार करेंगे कि तुमको राज्य सेवा में स्थान मिले अथवा नहीं । तो श्रीमान आप अपने आदमियों को मेरे साथ लडने के लिए बुलाइए नहीं । उसने पचास योद्धाओं को बुलाया और भास्कर से लडाकर उसकी बोटी बोटी कर देने की आज्ञा दे दी । भाजपा इससे भयभीत नहीं हुआ । वो लंगोटा कसकर मैदान में उधर पडा पचास गांधार योद्धा उसपर चीजों की भारतीय पिल पडे । भास्कर कितने ही दिनों से पेट भर खाना नहीं खा सकता था । इस कारण कुछ दूर वन ले उसके भीतर घुस चुका था । फिर भी वो समझता था की उन पचास को वो पछाड रहेगा । आरंभ में तो पचास गांधार ओं ने उसे गिरा दिया और उस पर चढकर उसको मुक्कों से पीटने लगे और नाखूनों और दांतों से नोचने लगे पडेगा । एक भास्कर उठा और उसके साथ आठ दस योद्धा जो उसके ऊपर चढे हुए थे ऊपर उठ गए । उसने दो को टाइम से पकडा, ऐसा घुमाया जैसे कोई चूहों को पूछ पकडकर घुमा रहा हो । दो तीन चक्कर देकर वह उनको आकाश की और ठीक नहीं लगा । वो पन्द्रह बीस गज ऊपर जाकर ऊपर से नीचे गिरने लगे । स्तर है उसने कईयों के साथ क्या सब की हड्डी पसली टूटने लगी । इस प्रकार पंद्रह बीस को घायल और निष्क्रिय कर चुका तो गांधार योद्धा घबरा उठे और उसके सभी पानी से डरने लगे तो बच गए थे । वे दूर दूर रहने लगे । पहले तो नहीं कुछ भास्कर पर हुए आक्रमण को देख वहां वहां करता रहा । परंतु जब उसने अपने सैनिकों को भय से दूर खडे देखा तो रोज से उतावला होता था । उससे समझा ये मनुष्य कोई दानव है उसके मन में आया ऐसे मनुष्य को मरवा डालना अधिक अच्छा है । इससे उसने कहा पहलवान तो बहुत बली हो, मैं तुम्हारे बल्कि प्रशंसा करता हूँ परन्तु तुमने मेरे बीस बाईस योद्धाओं को घायल कर दिया है । हम को इस बात का दंड मिलना चाहिए । परिसीमन यदि मैं मर जाता है तो क्या होता है? मैंने उनको तुम्हारी बोटी बोटी कार्ड देने के लिए कहा था । शेजवान मुझको भी तो लडने की आज्ञा दी थी । मैंने वही किया है जो आप चाहते थे । इस कारण मैंने कोई अपराध नहीं किया और मैं दंड का भागी नहीं हो परन्तु मैं यहाँ का राजा हूँ । यदि मेरे मन में आ जाए तो मैं किसी को भी मरवा सकता हूँ और ऐसा कर सकता हूँ । भास्कर इस युक्ति से कम उठा और अपनी स्त्री मिलिंद को कोसने लगा । वो उसे कई दिनों से कह रही थी कि अब देवता और गांधार एक सामान हो गए हैं और उसे महाराज के यहाँ सेवा कर लेनी चाहिए । भास्कर समझता था उसको इस प्रकार की बातें समझाकर भेजा गया था परन्तु उसकी इस तरह हो ये पता नहीं था कि इस समता की घोषणा वास्तविक नहीं थी । इस समय जब भास्कर से नहुष का संवाद हो रहा था, करण वहां पहुंचा । नहुष ने उसको बुलाकर सारा वृतांत बताया और कहा इतना वली व्यक्ति देवताओं में नहीं होना चाहिए । इस कारण मैं इसको प्राणदंड देना चाहता हूँ, करण को नहीं । उसकी मूर्खता पर अत्यंत निराशा होगी । उसने कहा महाराज, ये व्यक्ति जब आपकी सेवा करेगा तो आपके लाभ में ही कार्य करेगा । पर ये देवता है । ठीक है तो आप ने घोषणा करवा दी है कि आप दोनों जातियों के साथ समान व्यवहार करेंगे नहीं, उसका मन मानता नहीं था । परंतु करन के समझाने पर उसने भास्कर को पेट भर खाने और वस्त्रादि के लिए दो रजत प्रतिदिन पर अपना सेवक बना लिया । भास्कर नहीं महाराज नहीं, उसकी जय जयकार की और घर चला आया । भास्कर देव लोग की विजय पर अपनी स्तरीय और लडकियों को लेकर देहात चला गया था और वहाँ छिपकर अपना जीवन व्यतीत कर रहा था । कालांतर में जब देहातों में शीत बढने लगी और भोजन सामग्री कम होने लगी तो उसकी स्त्री ने उसे देश छोड अन्य देश में चलने के लिए कहा । भास्कर अलग से वर्ष जाने का नाम नहीं लेता था । एक दिन मिलने गहराई और नहुष की घोषणा का उल्लेख कर बोली जाओ उसके यहाँ सेवाकार्य कर लो । भास्कर इसे भी मानता नहीं था । फॅमिली से वो युक्ति में कभी भी जीत नहीं सकता था । इस प्रकार विवश होकर वो अमरावती आया । मिलिंद उसके साथ थी और आशा तथा कृपा तो हाथ में रह गई थी । जब भास्कर नौकरी पाकर घर पहुंचा तो मिल इनसे बोला तो मुझे तंग आ गई । मालूम होती हो आज तो मुझे मौत के मुख में भेज दिया था न होश । ऐसा तुष्ट है कि जब मैंने उसके पचास योद्धाओं को पछाड दिया तो कहने लगा मैंने उसके योद्धाओं को बेकार कर दिया है । इस कारण मुझको फांसी देगा तो तो रांड हो चली थी और भगवान का धन्यवाद है कि उसका मंत्री करन वहां पहुंचा हूँ । मेरी जान छुटी मैंने पूछा और नौकरी हूँ, वो भी मिल गई है । मैंने कहा जब तक मेरे भाग्य में सौभाग्य वैसा है तब तक आपको उससे कौन छीन सकता है? भाग्य वाक्य सब निकल जाता । मेरे कुछ देर करन वहां पहुंचता पर मैं तो उसकी परीक्षा तो भास्कर की उस दिन हुई जब होश नहीं एकांत में उसे अपने प्रासाद में बुलाकर कहा वीरपुर जी महाराज, जो हम कहेंगे करोगे इसीलिये तो श्रीमान की सेवा स्वीकार की है । यही कहना नहीं माना तो दंड का भागी बनाऊंगा । ठीक है तुमको कमल सर दुख जाना होगा वहाँ तुम्हारा राजा इंद्र रहता है तो मैं उसके पास जाकर उसका गला घोटकर उसको जान से मारना है । भास्कर आवाज को खडा रह गया । वो जानता था कि उससे नहीं हो सकेगा । परन्तु से न करने पर अभी मौत के मुख में ढकेल दिए जाने का भय था । इससे न तो न कर सका और न ही हाँ । उसे चुप एकदम खुश ने कहा इतने दिन खाना खा खाकर व्यर्थ में नष्ट किया है ना । इसीलिए कहते थे कि सेवक भास्कर को छेत्र हुई वो अपनी जान भय में देख कहाँ उठा हूँ । इससे उसने कहा श्रीमान ने गलत समझा है । मैं ये नहीं सोच रहा कि आप कार्य करूँ अथवा नहीं । आपकी सेवा की है तो आज्ञा का भी पालन करूंगा । मैं तो ये विचार कर रहा था की इतना छोटा सा काम और उसके लिए मुझको भेजना । मच्छर मारने के लिए आग नहीं अस्त्र चलाना है । तुम को ही जाना होगा । हम को बंदी बनाकर वहाँ रखा जाएगा । अवसर पाकर एक दिन उसका गला खोल देना मैं तैयार हूँ । कब जाना होगा तुम को कल यहां से रवाना होना पडेगा । यहाँ से एक पत्र दिया जाएगा जो तुम वहाँ दुर्ग के अध्यक्ष को दे देना । आगे वह स्वयं देख लेगा । भास्कर जाने के लिए तैयार हो गया । वो एक बात मन में विचार कर रहा था कि जब इंद्र बंदी है तो बंदी को मारने के लिए बाहर से किसी को भेजना तो बुद्धिमता नहीं है । दुर्गा अध्यक्ष बहुत सुगमता से ये काम कर सकता है । उसके लिए एक योद्धा की पांच सौ को उसका रास्ता तय करके भेजना सर्वथा आयुक्त संगत है । वो इसमें कोई विशेष रहस्य समझता था । इस कारण वो चुपचाप जाने को तैयार हो गया । उसका विचार था कि अमरावती से बाहर जाकर विचार करना है कि उसे क्या करना चाहिए । इस प्रकार वो आज्ञापाल अपनी स्त्री से इस नई समस्या पर विचार करने के लिए घर पहुंचा तो वहाँ अपने इस तरीके स्थान पर देवर्षि नारद को बैठा देखा तो चकित रह गया । देव लोग के पतन के पश्चात उसने नारद को नहीं देखा था । आज देख विश्व में करने लगा । उसने उत्सुकता से पूछा देवऋषि आज यहाँ कैसे आना हुआ? भाई भास्कर तुमसे ही मिलने आया हूँ । सेवा बताइए महाराज भाज करने जब तचित होकर पूछा ये बताओ कि केंद्र कहाँ बंदी है । आपको कैसे पता चला कि मुझे वह स्थान वजह है । ये बात भी भला छिपी रह सकती है । तुम जा रहे हो तो उसे जान से मारने के लिए ये आपको किसने कहा है जिसने तुमको कहा है । मैंने ये नहीं उसके मुख से सुना है । अब तुम ये बताओ कि कहाँ जा रहे हो? भास्कर ना स्थान बताया तो भारत ने कहा देखो भास्कर अब तुम्हारा नगर में ठहरना उचित नहीं तो यहाँ से सीमा पार कर कश्मीर चले जाओ । वहाँ तुम्हारे निवास स्थान आदि का प्रबंध हो जाएगा । मैं भी यही सोच रहा हूँ । मैंने समझाता है कि खाने पीने को खूब मिलेगा परन्तु यहाँ तो ये पाप कर्म करने को मिला । मुझे ये नहीं हो सकेगा । परन्तु भागू कैसे? इसका प्रबंध मैंने कर दिया है । हमारी स्तरीय और लडकियाँ पहले यहाँ से विदा हो चुकी हैं । मैं तो हरी प्रतीक्षा कर रहा था चलो भास्कर इसका अर्थ नहीं समझा । उसने कहा देवर्षि महाराज ये क्या रहस्य है? मेरी पत्नी और लडकियों पर श्रीमान की कृपादृष्टि क्यों है? भारत हस पडा । उसने कहा कि तुम से अधिक बुद्धिमान हैं । इस कारण कृपादृष्टि है कल तुमको यहाँ से सीमा की और चल देना चाहिए । कल राज्य की ओर से दुर्ग के अध्यक्ष के नाम पत्र मिलेगा । मिलते हैं यहाँ से चले जाना फिर कभी लौटकर बताना । भास्कर अभी नहीं समझा था । भारत में उसको कहा अब मान जाओ देवता शेष अपनी पत्नी मेलन देवी से पूछ लेना । एक दिन एक का एक केंद्रीय शक्ति प्रसारक यंत्र बंद हो गया । नगर में ठंडक हो गई और अंधेरा छा गया । लोगों ने तेल के दीपक जला लिए और जहाँ कहीं से भी लकडी मिली जलाकर उष्णता पैदा करने का यत्न करने लगे और करण ने अपनी पत्नी सुमन से इसका कारण पूछा जैसा वो अनुमानकर्ता था । जीवित भारत समाप्त हो जाना ही इसका कारण प्रतीत हुआ । सुमन का ये विचार था कि जीवित पारद कुछ मात्रा में यंत्र के बाहर कहीं रखा होगा । यदि मिल जाए तो प्रयोग में लाया जा सकता है । उसने बताया कि इतना मात्र तो वो कर सकेगी । उसने पारत यंत्र में डालते हुए इंद्राणी को देखा है । ये समाचार नहीं । उसको मिला तो बहुत प्रसन्न हुआ । सुमन को यंत्रालय में जाकर पारम् ढूंढने की स्वीकृति मिल गई और करण तथा सुमन की उपयोगिता और भी बढ गई । जब सुमन ने भारत की एकमात्र ढूंढ निकाली और उसको शक्ती प्रसारक यंत्र में डाल उसको चालू कर दिया । तब नहीं उसको विश्वास हो गया । ये जो भाय सुमन ने बताया है वो सत्य है । सुमन का कहना था की जो भारत अभी मिला है वो अधिक से अधिक एक वर्ष तक चल सकेगा । स्टार्ट ये हुआ की एक वर्ष के भीतर इस भारत को उपलब्ध करने का यत्न करना चाहिए नहुष नहीं । तरन से पूछा जब तुम और तुम्हारी इस तरी इतना कुछ जानते हो तो इस भारत को कहीं से प्राप्त करने का ढंग जानने का यतना क्यों नहीं करते? सब लोग कहते हैं कि इन्द्र, इन्द्राणी और धम्मा ही इस रहस्य को जानते हैं । ऍम के साथ मैत्री कर सकें तो ये संभव हो सकता है । केन्द्र के साथ मैत्री तो असंभव है । वो मेरे साथ मिलकर राज्य का बहुत पसंद नहीं करेगा । इसी कारण मैंने उसको समाप्त करने का उपाय कर लिया है । समाप्त जहाँ अभिप्राय था मैंने उस योद्धा को जिसने पचास योद्धाओं को एकदम पछाडा था । कमल सर और आपने भेजा है वो वहाँ बंदी बना कर रखा जाएगा । समय पाकर वह केंद्र का काम तमाम कर देगा । पष्चात उसको इंद्र का अपराधी सिद्ध कर प्राणदंड दे दिया जाएगा । गन्ने मुस्कराकर का था । यह योजना किसकी बनाई हुई है क्योंकि ये सफल नहीं हो सकेगी । वो योद्धा देवलोक से भाग जाएगा और अन्य किसी देश में चला जाएगा । उसके साथ मेरे दस सैनिक गए हैं से भी बाढ डाले जाएंगे । नहीं, उसको इस भविष्यवाणी से संतोष नहीं हुआ । उसको अपनी बात पर विश्वास ना करते हुए थे । करण ने कहा, या आपने अच्छा नहीं, क्या केंद्र मारा नहीं जाएगा? परंतु उसको पता चल जाएगा । क्या उसको मरवाने का षड्यंत्र रख चुके हैं? इससे पारद के विषय में बातचीत करने में बाधा खडी हो जाएगी । कहीं मम्मा को पता चल गया तो भी इस प्रकार हत्यारे से बातचीत करना पसंद नहीं करेगा । तब तो इस बात के निकलने से पूर्व ही इसका कोई प्रबंध कर लेना चाहिए । धम्मा देवलोक नहीं रहता है । पहले उसी के पास जाकर ये अपना करना चाहिए । यदि वह वहाँ की प्रजा की सुख शांति के लिए जंतर आदि को चालू रखने का उपाय कर दे तो आपकी भारी जीत होगी । तो मैं इस विषय में यत्न क्यों नहीं करते? आपको चलना पडेगा और जिस ढंग से मैं कहता हूँ और ढंग से बात करनी पडेगी नहीं । तीन दिन तक रात की शीट का बट वो अनुभाव प्राप्त कर चुका था । उन्होंने इस दुख से बचने के लिए कारण की नियुक्ति पर काम करना स्वीकार कर लिया । करण ने मम्मा के पास जाने के पूर्व देवलोक में ये विख्यात कर दिया । देव लोग अधिपति देव लोग की उन्नति के लिए देव पिता मैं मम्मा से सहायता की प्रार्थना करने वाले हैं । इस घोषणा का प्रयोजन ये था कि इससे देवताओं का गान, धारों पर अधिक विश्वास हो और उनके लिए सहानुभूति उत्पन्न हो । नारद इन दिनों देवलोक नहीं था । वो इस नीति का विरोध करना चाहता था । उसको भरमा में विद्यमान गया कि ये व्यक्ति का क्या नाम था । कहीं ब्रह्मा प्रजा के सामाजिक हित का विचार कर नहीं उसकी सहायता के लिए तैयार हो गया तो भारी अनर्थ हो जाएगा । वो तीन दिनों की अमरावती व्यवस्था देख चुका था जब यंत्र बेकार हो गए थे । नारद का विचार था कि एक ना एक दिन पारत समाप्त हो ही जाएगा । अब वह इंद्र के बंदीग्रह का पता भी जान गया था और वो उसको छुडाने का यक्त करना चाहता था । इस कारण वो सोचता था यदि देव पिता मैं कार्य ते लोगों का कष्ट देख पसीज गया तो पारद रहस्य नहीं उसको दे बैठेगा और उसके पश्चात नहीं उसको जीतना कठिन हो जाएगा । परिणाम शुरू पवन वैदिक संस्कृति का देवलोक से लोग हो जाएगा । उसने नहुष के धम्मा के पास जाने से पूर्व स्वयं मम्मा के पास जाने को उचित समझा । सुरलोक की सीमा के सभी एक साफ सुथरे छोटे से स्थान पर जिसमें जीवन की प्रत्येक सुविधा के लिए प्रबंध था, धमका निवास था । उसने अपनी युवावस्था नहीं सहस्त्रों शिष्यों को शिक्षा दी थी और बीस यो तपस्वियों को वरदान देकर तारा कईयों को उसने ऐसे अस्त्रशस्त्र भी दिए थे जिनसे उन्होंने पृथ्वी भर को विजय किया था । कई बार तो इन वर प्राप्त तपस्वियों ने धम्मा की संतान देवताओं को कष्ट देना आरंभ कर दिया था । अब आयु और अनुभव के बढ जाने से एकांतवास को उचित मानकर वहाँ उस स्थान पर आकर निवास करने लगा था । उसका ये स्थान धर्म लू कहलाता था । जब नाराज धम्मा से मिलने गया तो मम्मा को अचंभा हुआ । उसने उत्सुकता से पूछा संगीताचार्य कैसे आगमन हुआ? आप से कुछ निवेदन करने आया हूँ तो नहुश आपसे वर मांगने आ रहा है तो मैं समझता हूँ कि उसको वार नहीं देना चाहिए अन्यथा सब बना बनाया काम बिगड जाएगा । क्या बना है जो बिगड जाएगा । आज तीन वर्ष हो गए मालिक छोडने, देवताओं की पत्नियों और पुत्रियों को पदक, क्या उनको मार मार कर अपमानित किया और अब उनको भूखो मार मारकर देवभोग खाली किया जा रहा है? क्या क्या है हम लोगों ने इस व्यवस्था को सुधारने के लिए अब ना उसने राज्य कार्यभार में देवताओं को लेने के लिए घोषणा की है । सब देवता उसकी दासता के लिए तैयार हो रहे हैं । तुम्हारा योद्धा भास्कर भी उसके साथ आजीविका के लोग में उसकी सेवा के लिए गया है । नारद इस वृद्ध देवता को रिश्ता नहीं करना चाहता था । इस कारण उसने अपने पूर्ण योजना ब्रह्मा के सामने रखती है । उसने कहा पता हैं आपका कहना ठीक है कि नहीं । उसका राज्य अभी तक देवलोक में है । इसमें सबसे बडा कारण तो यह है कि देवता कई सहस्त्र वर्षों तक बिना युद्ध सुख और शांति से जीवन व्यतीत करते रहे हैं । वे इतने दुर्बल सुख स्वाद के इच्छुक और भी शुरू हो गए हैं कि उनसे कुछ भी आशा नहीं की जा सकती । इसकारण मैंने सर रोक के आधार के लिए मानवों को तैयार किया है । कश्मीर के महाराज देव नाम की कन्या देवयानी का विवाह एक वीर पुरुष विक्रम से हो गया है और वह कश्मीर का सेनापति नियुक्त हो गया है । विक्रम ने कश्मीर सेना का संगठन और परिवर्तन आरंभ कर दिया है । कश्मीर देश के बहुत से सैनिक डेवेलोप में आकर देवताओं से उत्साह भर रहे हैं । भास्कर को मैंने ही उनकी स्त्री द्वारा उकसाकर नहीं उसकी सेवा में भेजा था । उन को वहाँ भेजने का प्रयोजन सिद्ध हो गया है । हमें ये पता नहीं चल रहा था कि इंद्र कहाँ पर बंदी है । भास्कर की सहायता से अभी पता चल गया है । मैं उससे संपर्क स्थापित करूंगा । फिर सर लोग के विजय की योजना अपने आप बन जाएगी । आपके पास इस कारण आया हूँ ना होश आपसे पारद रहस्य जानने का यत्न करेगा । यदि आपने उसको वो रहस्य दे दिया तो । भगवान हम कभी भी देव लोग का उधार नहीं कर सकेंगे । ब्रह्मा अपनी भर्राई हुई आवाज में हस्पताल । उसने कहा अब तो मेरी सहायता मांगने के लिए आए हो परंतु जब तुम लोग शक्ति संपन्न थे तब तो मुझसे कभी राय लेने की आवश्यकता नहीं समझे थी । जब गणराज्य का रूप केंद्र राज्य में बदलाव तब ही तुमने मुझसे समझते नहीं हैं । उन मनुष्य समाज के अविष्कारों का निचोड देवताओं के भाग्य में बताया था । पर हम तो प्रकृति के अंतर खतम रखकर उसने ये समझा था । इसका राज्य अनंत काल तक स्थिर रहेगा । विधि को कोई नहीं टाल सकता । वही बात जो उसने अपनी सत्ता स्थायी रखने के लिए की थी, अब उसके विपरीत जा रही है । कोई नहीं जानता है कि उस अपारशक्ति हो देवताओं के उद्धार के लिए अथवा केंद्र को बंदीग्रह से छुडाने के लिए कैसे प्रयोग किया जाए । देखो भ्रमाने भारत की आंखों में देखते हुए कहा ज्ञान किसी की बपौती नहीं यही तो मैं इसको दूसरों से छुपा कर रखना चाहोगे तो ये तुमको भी छोड जाएगा । नारद को इंद्रा की अनुचित नीति का दोष मानना पडा परन्तु उसने कहा बताएं यदि इस समय ये रहस्य और लोगों को भी विद्युत होता तो खुश हैं । अनेक देशों को जलाकर भस्म कर दिया होता । यहाँ तक कि वह कश्मीर धमोहन इत्यादि सारी पृथ्वी पर उधम मचा देता । उधर मचानेवाले तो बिना शक्ति का रहस्य जाने भी मचा रहे हैं । देखो चंद्रवंशीय लोग छीरसागर के तट से चलकर बुखार पहुंचे । वहाँ से कामभोज और कामभोज से गांधार और वहाँ से देव लोग पहुंच गए हैं । अब वे गांधार, धनवर और आर्यव्रत में छा जाने वाले हैं । क्या वो प्रकृति की इस रहस्यमय शक्ति के आश्रय बढ रहे हैं? इस शक्ति के गया था केंद्र को तो अपनी नर्तकियों से ही अवकाश नहीं था । उसने महाराज कामभोज की तथा गांधार के आर्य नरेश की सहायता तक नहीं जो ईश्वर की इस अनुपम देन को शुभ कार्यों में भी प्रयोग नहीं कर सका, वो उसके भी काम नहीं आई । आपका कथन सर्वथा सत्य है परन्तु भगवान केंद्र की भूल का परिणाम निर्दोष प्रजा को भोगना पड रहा है । इस समय परिस्थिति यह है कि सब बुद्धिमान और विद्वान लोग देव लोग छोड कर भाग रहे हैं । मैंने छोडने हमारे स्टेवर्ट को अपवित्र कर वर्णसंकर उत्पन्न करने आरंभ कर दिए हैं । ऐसी अवस्था में ये परिस्थिति कहीं स्थायी ना हो जाए इस कारण प्रकृति के रहस्य को नहीं, उसको कदापि नहीं बताना चाहिए । आप के आशीर्वाद से और भगवान की कृपा से मैं शीघ्र ही उनको देव लोग से बाहर खदेड दूंगा । तुम जो कर सकते हो करो परंतु तुम मुझ को ज्ञान को छुपा कर रखने को क्यों कहते हो? मेरी चिरंतन नीति यही है के अधिकारी को ज्ञान का पुरस्कार देता हूँ । यदि वह ज्ञान का दुरुपयोग करता है, उसको उसके कार्य का फल मिलता है । कर्म के अच्छे अथवा पूरे होने पर न्याय करने वाला मैं कौन हूँ, कर्म का फल देने वाला भी मैं नहीं हूँ । जो अधिकारी है हो पाएगा ही । यही तो भगवान मैं कह रहा हूँ कि नहुष अधिकारी नहीं है । उसके पूर्व के कर्म उसको और अधिक शक्ति प्राप्त करने के योग्य नहीं बताते हैं । ठीक है और वो मेरे द्वारा किए गए ज्ञान का दुरुपयोग ही करेगा । इसको मैं कैसे जान सकता हूँ? यूँ तो मैं समझता हूँ, केंद्र ने भी ज्ञान का सदुपयोग नहीं क्या? क्या होता तो जो भाय आर्यव्रत को हो रहा है वो नहीं हो सकता था । भारत का आयोजन सफल नहीं हुआ । वो ब्रह्मा से वचन नहीं ले सका कि पारद रहस्य नहीं, उसको न बताया जाए । परन्तु मम्मा के अनुभव के सम्मुख नारद अभी बालक था । हम माने जैसे नाराज हो डाटा उससे कहीं अधिक नहीं । उसको फटकारा पहुँचाया । वो ब्रह्मा से भेंट की स्वीकृति ले । तरुण को साथ लेकर उससे मिलने गया । धम्मा एक आसन पर बैठा था । ये दोनों अनेक अनेक वस्तुएं भेंट के लिए ले गए । उन सबको भी मम्मा के समूह था और चरण स्पष्ट कर वंदना की । धर्म मानने, सम्मुख आसन पर बैठने का आदेश देकर पूछूँ कौन होते हैं? नहीं, उसने हाथ जोडकर नम्रतापूर्वक निवेदन किया । सेवक का नाम नहीं खुश है । कांधार । देश में कमाल सर दुख का रहने वाला हूँ । इस समय इस देश का राज्य करने का काम भगवान ने मेरे कंधों पर रख दिया है । ये जानकी आप इस देश के प्राचीनतम विद्वान है । आपकी सेवा के नियमितता है हैं । बहुत अच्छी बात है । ये साथ कौन है? ये मेरे प्रधानमंत्री करना है । हम माने करन की और ध्यान से देख कर कहा ऍम, तुम इसकी सेवा में कैसे रह सकते हो? हम दोनों की प्रकृति नहीं मिलती । करण इस अंतरात्मा की बात का रहस्य खुल जाने से भारी असमंजस में पड गया । जहाँ उसको इस बात के प्रकट हो जाने से संघोल हुआ वहाँ ब्रह्मा की इस दिव्यदृष्टि पर अचंभा भी हुआ न हो भी मम्मा के इस कटाक्ष को समझ नहीं सका । इस से वो चुप चाप मुख देखता रहा । करण ने कहा भगवान कर्मों की भर्ती अधिग्रहण है, मूर्ति राज्य करते हैं, विद्वान भिक्षा मांगते हैं । सुंदर स्त्रियां वैश्यवृत्ति करती हैं । साधारण स्त्रियां सती साध्वी होती हैं । वृद्ध अनुभवी जनों को सखिया गया समझा जाता है और युवा विषय लो लोग और अपनी बुद्धि को ठीक मार्ग पर कार्य करती हुई मानते हैं । धम्मा समझ गया एक रन पढा लिखा समझदार व्यक्ति है इससे कहने लगा ये तो मूर्खों किसी बातें हैं । बुद्ध शील कर्मनिष्ठ मनुष्य तो ऐसी धारणा नहीं रख सकते । उनको तो अपनी बुद्धि से वैश्यवृत्ति नहीं करनी चाहिए । हर छोडो इस बात को वी श्रीमान तीन वर्ष तक देव लोग का सत्यानाश कर आज यहाँ किस लिए आए हैं । जो कुछ देवलोक में हुआ है वो सब मैं जानता हूँ । उसने इनकार करने की कोई आवश्यकता नहीं तो पिता में ये भी तो आप जानते होंगे कि हम किस नियमित सेवा ने उपस् थित हुए हैं । जानता हूँ हम तो जब कोई वस्तु मानी जाती है तो अपने मुख से नहीं जाती है । बताऊँ मुझे क्या चाहते हो? हम ये चाहते हैं कि आप राज्यकार्य के चलाने में अपने ज्ञान से हमारी सहायता करेंगे । शक्ति केंद्रों में जीवित पारत समाप्त हो रहा है । इसके समाप्त होने से पूरन देव लोग शीत माएँ अंधकार में बंजर और दुख में हो जाएगा । इस विपत्ति से आप अपने ज्ञान द्वारा हमारी रक्षा कर सकते हैं । उनको ये सूचना किसी ने ठोक दी है परंतु तुम एक बात नहीं समझे । ज्ञान हर जा ही नहीं है । सरस्वती भगवान विष्णु की पत्नी है । वो हिरणकश्यप ओके पत्नी नहीं बन सकती है । ठीक है ऋण कश्यप ओके पत्नी नहीं तो समाज की माता तो सरस्वती हैं । हम समाज की रक्षा के लिए ही उन का आह्वान करना चाहते हैं । माँ को अपनी संतान की चिंता नेशनल्स शासकों से अधिक रहती है । वो देख रही है कि उनकी दुर्दशा हो रही है परन्तु कपूतों को शिक्षा देने के लिए कभी कभार ट्रष्ट देना भी उचित होता है । तो क्या ये कष्ट अभी पर्याप्त नहीं है? नहीं साथ ही कष्ट जिस दिशा से है उस दिशा का सुधर करना है । अभी तक भारत की दिशा से कोई कष्ट नहीं । तीन दिन तक यंत्र बन रहे थे तो माँ भगवती नहीं जनता के कृष्ण निवार्णा पास ढूंढ निकाला और कार्य फिर चालू हो गया । माँ भगवती ने करण ने असंभव पूछा भगवन उसको ढूंढने वाली धमाल बात बीच में ही काटकर का ठीक है । ठीक है तो हमारी पत्नी सुमन ने ढूंढा है ना और कौन कर सकता है कि वहाँ का विचार नहीं है फॅार हो गया । जो कुछ वो मांगने आया था वो मिला नहीं । इस कारण उसने अत्यंत नम्रतापूर्वक उन्हें कहाँ? आप महाराज नहीं उसके लिए क्या आज्ञा करते हैं । अभी समय की देव लोग छोड अपने देश को चला जाए । इंद्रा को लाकर उसके सिंघासन पर बिठाए और उससे छमा याचना करें और कोई मार नहीं था । हम तो अब नहीं है, कब था और अब क्यों नहीं है । जब राज्य स्थापित किया गया था उस समय प्रजा को प्रजा के भाव से देखता हूँ तो यहाँ से कोई न कोई विद्वान सहायता भेज दिया जाता हूँ । परन्तु उसने प्रजा को दास दासियों का क्या अपने को स्वामी बनाया और उनका मूढतापूर्ण ढंग से भोग क्या अब इस सब कुछ हो जाने के उपरांत यदि ये अपने देश को लौट जाये तो उसका यहाँ आना भगवान के दंड का रूप ही माना जाएगा । ऐसा माना जाएगा । डंडा मूर्ख देवताओं की पीठ पर लगा है और वापस चला गया है । दंड जिसकी पीठ पर पडता है उसकी पीठ के साथ जोड नहीं जाता लौट जाता है । यदि वो यही जुडा रहा तो जो का रूप हो जाएगा और फिर जो व्यवहार जॉब के साथ होना चाहिए वो उसके साथ भी होगा । करण ने नहीं उसके पिछले कर्मों के लिए क्षमा याचना करते हुए कहा हमारे देश में राजा स्वानी होता है, इस कारण नहीं उसने यहाँ भी स्वामित्व ही दिखाया । इतने समय तक इस देश में रहने से इस देश के व्यवहार का ज्ञान इनको हो रहा है और यदि आप आशीर्वाद दें तो राजा के भाव से प्रजा की रक्षा का कार्य किया जाएगा । कुछ माँ से श्रीमान जी ऐसा ही व्यवहार रखने का यत्न कर रहे हैं वो तो मैं जानता हूँ भास्कर को ेंद्र का गला घोटने के लिए भेजना इसी भावना का चिन्ह है ना देखो कारण तो मुझ को धोखा नहीं दे सकते हैं । मैं अपनी योगसाधना के कारण त्रिकालज्ञ हूँ । इसी कारण मैं कहता हूँ कि अभी समय है नहीं उसको ेंद्र को देवलोक ने वापस बुला उसका राज्य उसको सौंप देना चाहिए । अभी तक जो भोग उसने होगा है, अपने पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों के फल से है । आगे वह जो कुछ करेगा वो स्थल से ऊपर की बात होगी फिर उसका परिणाम भी होगा । ये परिणाम महाभयंकर होगा । इतना काहे धम्मा ने भेंट की उन सब वस्तुओं की और संकेत कर कहा इन को ले जाओ । ये मेरे काम की वस्तुएं नहीं है । मैं उनको लूंगा भी नहीं । ये देवताओं के रख से रंगी प्रतीत होती हैं । ब्रह्मा से भेंट समाप्त हुई और नहुष कुछ पाने के स्थान पर कुछ खोकर ही गया । फिर भी करण ने अमरावती में पहुंचकर ये घोषणा करवा दी की महाराज नहुष देवताओं के पिता मै ब्रह्मा से मिलने गए थे । महाराज ने पिता के चरणों में अनेक वस्तुएं भेंट की और उन्होंने अपार कृपा कर इन सब वस्तुओं को वहाँ की जनता में वितरित कर दिया । पिता मैंने महाराज की इस नीति को गांधार और देवता दोनों जातियां एक समान प्रजा है सराहा है । दोनों में अत्यंत सहानुभूतिपूर्ण वार्तालाप हुआ । पिता महीने आशा प्रकट की । एक वर्ष के पश्चात इस नीति का अच्छा प्रभाव जानकार वे प्रसन्न होंगे । सुमन इस भेंट का परिणाम जानने के लिए अत्यंत उत्सुक थी । इस कारण जब करण अमरावती लौटा और महेश को प्रसाद में छोडकर अपने कक्ष में आया तो सुमन ने चरण छूकर बिछाया । बहुत हुए और पूछा क्या सफलता मिली? करन की हंसी निकल गई उसने खासकर कहा हूँ सफलता क्या मिल ली थी? डाँट पडी है । सुमन तुमने किस प्रकार कहा था कि तो कम है । बहुत ये वाले हैं । वो जनता का हित समझ कुछ उपाय बता देंगे । मैंने जैसा उन के विषय में सुन रखा था, वैसा ही आपको बता दिया । मैंने स्वयं उनको कभी नहीं देखा । क्या हुआ है? पहली बात तो ये कि उनको यहाँ कि प्रत्येक बात का ज्ञान है । प्रभारी विषय में भी, यहाँ तक कि तुम्हारा नाम भी उनको विदेश है । महाराज और उनके सैनिकों ने जो कुछ किया वो सब उनको ज्ञात है । ऐसी अवस्था में उनसे महाराज के साथ किसी प्रकार की सहानुभूति की आशा व्यर्थ थी । प्रजा के नाम पर ही उनसे सहायता मांग नहीं थी । मांगी थी । कहने लगे ज्ञान की देवी भगवती सरस्वती को अपनी संतान की नृशंस राजा से अधिक चिंता है । कभी कुछ सुल्तान को शिक्षा देने के लिए कुछ कष्ट देना पडता है । माँ भगवती उन के विषय में स्वयं विचार कर लेगी । पहले भी तो उसने पारस ढूंढ निकाला है । आपने कहा नहीं कि भगवती ने नहीं प्रत्युत आपकी पत्नी ने तरण खिलखिलाकर हंस पडा और बात काटकर बोला बताया था कहने लगे कि कौन कह सकता है कि तुम भगवती का अवतार नहीं हो तो कुछ नहीं मिला मिला है । शिक्षा मिली है । महाराज को कहा गया है कि अपने देश को लौट चाहे और ये राज्य केंद्र को लौटा नहीं । सुमन इस उत्तर के अर्थ समझने का यत्न करती रही । बहुत विचार के उपरांत उसने पूछा और महाराज का चाहते हैं । वे इस बात के लिए तैयार नहीं है । एक बार राजभोग कर उन्हें खेतों में हाल नहीं चलाया जा सकता हूँ । साथ ही इन पचास सैनिकों का क्या होगा? इनमें से सहस्त्रों ने यहाँ विवाह कर लिए हैं । उनके बाल बच्चे हैं, वे कैसे लौट सकेंगे? फिर उनकी वहाँ भी पत्नियाँ हैं । वे सब बातें हैं जो उन्हें अपना पद पीछे ले जाने की स्वीकृति नहीं देती । फिर आगे पद केस और जाएगा । अभी हमने स्वीकार नहीं किया । मेरा तो विचार है कि इस देश में गांधार और देवताओं का समन्वय होना चाहिए । दोनों को मिलकर उपाय ढूंढने चाहिए । किस प्रकार इस देश का जीवन चलेगा, ये ठीक है । पर क्या केंद्र से किसी प्रकार मैत्री नहीं हो सकती? इस सुझाव को सुन का करण गंभीर विचारों में टूट गया । आप सुन रहे हैं तो कॅश सुनी जो मन चाहे हाँ ।
Sound Engineer