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भाग - 8.1 in Hindi

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4 K Listens
AuthorOmjee Publication
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अब सभी जाने की तैयारी में उत्सुक थे । तब प्रमुख सीने कुमार गजेंद्र को कुछ अन्य विषय बताने का प्रयास किया । कुमार आप जहाँ भी जाने के विषय में विचार कर रहे हैं, वहाँ के परिस्थिति वह वस्तु स्थिति के विषय में निश्चित ही विचार कर लीजिएगा । परिस्थिति वह वस्तु स्थिति को तो हम स्वतः ही अपने अनुकूल परिवर्तित कर लेंगे । आप के आशीर्वाद से हम सभी इसके लिए सक्षम हैं । इस पर प्रमुख सीधे कुमार घनेन्द्र की ओर देखा । तब कुमार गणतंत्र नहीं कहना प्रारम्भ किया । मैं परिस्थिति वह वस्तु स्थिति के विषय में जानकारी करने के उपरांत ही चाहूंगा । एक बात मैं स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैं वहीं पर चाहूंगा जहाँ पर मुझे जाना है । इसका आर्थिक गए है कि मुझे कहाँ जा रहा है अथवा क्यों जाना है । ये लगभग निश्चित ही है । इतनी चर्चा हो ही रही थी कि को बार का केंद्र ने देखा कि इंदौर को जानना चाहता है । तब उन्होंने इंदौर की तरफ देखा और उसे संकेत दिया कि वह क्या जानना चाहता है । तबेला विलंब के हिंदू तो कहना प्रारम्भ किया, प्रभु मैं अल्पज्ञानी हो । अटक उनचास की इच्छा जागृत हो गई है । मैं अभी तक समझता था की परिस्थिति व्यवस्था स्थिति एक ही होती है । इतना सुनने के उपरांत उदंडता हार वह वो जंगेश्वर ने भी इसी भर्ती आपने मुक्की आकृति को दर्शाया जिससे यह स्पष्ट हुआ कि उन्हें भी इसकी जानकारी ठीक से नहीं थी । तब कुमार गजेंद्र नहीं कहना । प्रारम्भ किया परिस्थिति वह तो स्थिति एक ही शब्द प्रतीत होते हुए भी भिन्न है । भिन्नता बोलना तैयार स्पष्ट है परंतु ध्यान से समझने का विषय है प्रथम परिस्थिति । निश्चित ही दूसरे व्यक्ति के द्वारा उत्पन्न की गई स्थिति हैं, दोस्ती है वस्तु स्थिति दूसरे अथवा अपने ही द्वारा निर्मित वस्तुओं के कारण उत्पन्न स्थिति है । आप ऐसे भी समझ सकते हैं की परिस्थिति मनाई स्थिति की व्यवस्था है और वस्तुस्थिति उस समय के स्कूल व्यवस्था है । इतना कहने के उपरांत कुमार घनेन्द्र शांत हो गए । तब उन्हें सभी के मुख्य मंडल के आधार पर ये विधित हुआ कि अभी भी बात स्पष्ट नहीं है । तब उन्होंने सभी को एक बार फोन देखा और इस बार देखने की दृष्टि में भिन्नता थी और कहना प्रारम्भ किया सम्भवता आप सभी स्पष्ट रूप से अभी समझ नहीं पाए । मैं पूरा प्रयास करता हूँ । आप ये समझे कि आप किसी व्यक्ति के यहाँ उसके निमंत्रण पर गए हुए हैं । उस ने आप के लिए अत्यंत उत्तम व्यवस्था की है । अच्छा बहुजन अच्छा अनुकूल शयन कक्ष, अच्छा शांत वातावरण आती । ये सभी वहाँ की अच्छी वस्तु स्थिति को प्रदर्शित करता है । अब हम परिस्थिति के विषय में चर्चा करते हैं । अब कल्पना कीजिए कि वहाँ पर कोई दुर्घटना मृत्यु आने की सूचना आ जाएगा और वह सूचना आपके लिए न हो । बल्कि जहाँ आप गए हो, ऊँट वहाँ के परिवार के लिए हो तो आप वहाँ के परिस्थिति को क्या करेंगे? अब वहाँ पर अच्छे वस्तु स्थिति के साथ खराब परिस्थिति उत्पन्न हो गई । ये सहदेव ध्यान रखे अच्छी क्या खराब वस्तुस्थिति इतना प्रभाव नहीं डालती है जितना अच्छा या खराब परिस्थिति प्रभाव डालती है । आता हमको नंबर से सदैव अच्छी परिस्थितियां बनी रहे इसके लिए प्रार्थना करते रहना चाहिए । मैं पूरा अपनी चर्चा पर वापस आता हूँ की प्रमुख की कृपा से मेरे अंतर करण में वो स्थान प्रदर्शित हो चुका है जहाँ हमें जाना है । अब संभव का वह समय भी आ चुका है जब मुझे अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करना चाहिए । समय से महत्वपूर्ण कुछ नहीं है इसलिए ही संभव परम ब्रह्म को महाकाल कहा जाता है । वस्तु, व्यक्ति, स्थान, कार्य यहाँ तक के धर्म भी काल्कि परिसीमा से बाहर नहीं है । इतना ही कहना था की प्रमुख जी के मस्तक में बाल बढ गए । मस्तक में आये उपहार साफ स्पष्ट कर रहे थे कि कोई चर्चा गलत हो गई है अथवा प्रमुख जी के विचारों से बनना है । प्रमुख ही नहीं अपना विचार रखा क्या धर्म भी काल पर निर्भर है? मुझे तो आप जानते ही होंगे । वस्तु स्थिति अस्थान कार्य आधी सभी समय पर निर्भर करता है । वही वस्तु, व्यक्ति, स्थान अथवा कार्य कभी उपयोगी होता है और कभी उपयोगी नहीं होता है । सर विश्व के भी उपयोगिता तब जीवन के लिए सर्वाधिक हो जाती है जब सर्पदंश हो । अच्छा तो उस वस्तु की उपयोगिता भी हो सकती है जिसका विषय में आप सोचते हो कि वह अनुपयोगी है । आप विचार कर रहे होंगे कि धर्म शास्वत है, ऐसा नहीं है । प्रत्येक निर्मित स्वास्थ्य नहीं और पादित सचिव अथवा निर्जीव वस्तु, व्यक्ति अथवा उनसे जनहित कार्य या विचार एक ना एक दिन काल के गाल में समा जाएंगे । खो बार ये सब बोर्ड बाद सकते हैं । परन्तु क्या धर्म अभी सर्वप्रथम ये जानते हैं कि धर्म क्या है? जी प्रभु यही सर्वोत्तम रहेगा । मुस्कुराते हुए घनेन्द्र नहीं । पुणे कहना प्रारम्भ किया छल्लो इंदौर का मान रख लिया जाए । इस पर सभी बस को रहने लगे । बस उतर सत्यता यही है कि इंदौर का मन रखना अलग विषय । गणतंत्र को तो धर्म की व्याख्या कर नहीं थी । प्रमुख शी दंड आधार भुत जंगेश्वर भी विचार कर रहे थे । के छह प्रारभ ही होता है । अन्यथा किशोरावस्था में इतना तत्वज्ञान असंभव ही है । अब उन्होंने धर्म को जानने के लिए गगनेन्द्र का मुख्य निहारा । तब कुमार गणतंत्र नहीं कहना प्रारम्भ किया । जड से ब्रह्मा टक्का ज्ञान धर्म है था । सब कुछ घर में है नहीं । वो ज्ञान जो ज्यादा से ब्रह्म तक पहुंचाएं वो धर्म है । वही तो मैं भी कह रहा हूँ कि ज्यादा से ब्रह्मण तक सभी कुछ आ गया । अठारह सबकुछ धर्म है नहीं, नहीं नहीं अब आप ध्यान से सब अच्छे जल्दी से ब्रह्म तक सही दिशा में चलना । जो प्रमुख तक पहुंचे वो धर्म है अनेक । बल्कि लगभग प्रत्येक बार जड से ब्रह्म तक चलना तो प्रारंभ करते हैं परन्तु पहुंच नहीं पाते हैं । तब अचानक वो धर्म आधार में परिवर्तित हो जाता है को माँ मैं सत्य का हूँ, मुझे समझ नहीं आ पा रहा है आप । यदि इसे धर्म को समझना इतना सरल नहीं है । अच्छा तरीक रखें और सुने उस पर सभी शांत हो गए और उन्होंने अपने मुँह बंद कर लिए और मन में ये विचार भी कर लिया कि अब शांत रहेंगे । पूरा कुमार कंद्र नहीं कहना । प्रारम्भ किया संस्थान जल और शरीर के मध्य का ज्ञान शिक्षा शरीर, जीवात्मा के बच्चे का स्वास्थ्य आये जीवात्मा वहाँ आत्मा के बच्चे का ध्यान, अध्यात्म और आत्मा और परमात्मा प्रमोद के थे । परमज्ञान को तत्वज्ञान कहते हैं । अब हम कह सकते हैं आपके चढ से प्रमुख तक के संपूर्ण ज्ञान को और उस दिशा को जो प्राम्भ की ओर ही जा रही हो । धर्म कहते हैं इसको आप ये समझ सकते हैं कि हमारा साडी जिन्हें जड तत्वों से बना होता है, उन तत्वों से प्रारंभ होकर अनंत जागृत परम तत्व को प्राप्त करना ही धर्म है । इसके लिए मैं एक अन्य उदाहरण प्रस्तुत करता हूँ । मान लो कि किसी पुष्प के बीच को किसी पुस्तक में परिवर्तित कर इश्वर पर चढाना । यदि धर्म है तो आप इसको कैसे समझेंगे? सर्वप्रथम पुष्प के बीच के लिए भूमि जल वक्त चाहिए । अब बीज को और वन भूमि में रूप देना चाहिए । यदि भूमि उर्वरक नहीं होगी तो आपका बीच व्यस्त हो जाएगा । अब भूमि की उर्वरता हाँ चल उस बीच का अंकुरण करेंगे । बीच का अंकुरण उसी प्रकार है जैसे कोर्ट में शिशु को उदय होना । अब अंकुरण के उपरांत को बीच गन्ने पौधे के रूप में कृष्य होगा । इसी प्रकार नन्ना शिशु भी दृश्य होता है । ललना पौधा धीरे धीरे बडा होकर वृक्ष बनने लगता है और उसमें पुष्पा आने लगते हैं । पुष्प वृक्ष का विशिष्ट गुण है । इसी प्रकार शिशु भी व्यस्कों होकर शिक्षित होने लगता है और ये शिक्षा उसे अपने अनुभव से अपने गुरु से अपनी प्रकृति से धीरे धीरे प्राप्त होने लगती है । अब यहाँ दो संभावनाएं जन्म लेती है । प्रथम अच्छा ज्यादा सही शरीर तक की उसे उस मार्ग पर ले जाएंगे जहाँ से रोज शरीर से जीवात्मा के विषय में जानने हेतु अग्रसर हो जाए । दो ही दिए वो उस पद पर चला जाए जहाँ विषय वो गिलास व्याप्त हैं अर्थात अब वह माया में हो गया तो वहाँ पर भ्रष्ट हो गया अर्थात धर्म पद पर नहीं है । इसी प्रकार पुष्प अच्छी बहत न देकर प्रदूषित तो भी फैला सकता है और वो भी अपने धर्म के पद से भटक गया । इसका अभिप्राय यह हुआ के पहले प्रारंभ में वह धर्म पर था और बाद में वह पथभ्रष्ट हो गया । इसी प्रकार यदि पुश्तो बहत दे रहा है और मनुष्य का शरीर जीवात्मा के साथ स्वाध्याय में लगा है तो वो अभी भी धर्म के मार्ग में ही प्रेरित है । अब यदि वह उस पर इश्वर तक पहुंच चाहता है तो उसने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया । किसी प्रकार अब वह मनुष्य यदि स्वाध्याय के ज्ञान से आत्मा के विषय में जान गया तो वो आध्यात्मिक हो गया और उसने भी अपना लक्ष्य प्राप्त किया । अब मात्र दोनों को पुष्पो । वह मनुष्य अब का परम लक्ष्य प्राप्त करना है वह है मुख्य । यहाँ पर पुश्तों का धर्म समाप्त हो जाता है क्योंकि वह बहुत प्राप्त नहीं कर सकता । कारण मोक्ष की प्राप्ति की उपलब्धता केवल मनुष्य योनि को ही प्राप्त है । अब यदि मनुष्य ज्ञानयोग, कर्मयोग, सांख्ययोग अथवा भक्ति योग से उस परम तत्व को प्राप्त कर लेता है तो वह बॉक्स को प्राप्त कर लेता है । यही है चार से परम तत्व तक की प्राप्ति । अर्था धर्म इंदुर बीस में ही बोलना प्रारम्भ किया प्रभु शाबास मैंने बिना अनुमति के ही बोलना प्रारंभ कर दिया । यदि कोई व्यक्ति स्वाध्याय में लगा रहा हूँ परन्तु बॉक्स तक ना पहुंच पाया हो तो उसका संपूर्ण कार्य अथवा धर्मपत् पर चलना व्यस्त हो गया । इस प्रकार यदि मनुष्य उस परम लक्ष्य तक पहुंच पाए तो पुनर शुरू से ही प्रारंभ करना होगा । अर्थात उसका संपूर्ण धर्म निष्फल हो गया? नहीं नहीं ऐसा कदापि नहीं । अच्छा तुम ये बताओ कि हर शिशु का जन्म क्या सामान्य परिस्थितियों में होता है । हर शिशु सामान क्षमतावान होता है । प्रत्येक शिशु सामान क्षमतावान माता पिता के घर जान माल लेता है । प्रत्येक अपने जीवन के समान करने के उपरांत भी क्या सामान फल प्राप्त कर पाते हैं? पिता कहने के उपरांत कुमार कविंद्र शांत हो गए । उनके शांत होते ही वहाँ उपस्थित इंदुर प्रमुख सी दंड आधार भुत जंगेश्वर के मन में बहुत से प्रश्नों ने अस्थान ले लिया । रिश्तों को बात नहीं इंदौर से किया था, परंतु इंदौर से पहले वो जंगेश्वर ने गहरा प्रारम्भ किया । कुमार ये तो सभी जानते हैं कि जन्म के समय वह उसके उपरांत सभी व्यक्तियों की परिस्थितियां होती है । यदि कभी कुछ परिस्थितियां समान होती भी है तो ये मात्र सिंह लोगे ही होता है । अब आप अपने अंतिम प्रश्न का उत्तर पीछे क्यों? समान कर्म के उपरांत भी दो भिन्न व्यक्ति तो भिन्न कर्मफल को प्राप्त करते हैं । अंतिम प्रश्न नहीं बल्कि वही एक प्रश्न ही था से इसको सभी बातें आप प्रतिदिन देखते और उसका अनुभव करते हैं । आप देखते हैं ये एक ही घर में जान में अलग अलग व्यक्ति अपने जीवन को अलग अलग तरीके से व्यतीत करते हैं । एक व्यक्ति धनवान के घर जन्म लेता है और एक व्यक्ति धनहीन गया । जन्म लेने में तो कोई कर्म नहीं किया गया है । यहाँ पर भी परिणाम कर्मों पर ही निर्भर करते हैं । मिलना था मात्र कितनी हैं वे पूर्व जन्मों के कर्मों का फल है जिसे आप प्रारब्ध कहते हैं । प्रारभ का होता है पहले से ही प्राप्त किया हुआ । इसी प्रकार यदि आपके अपने जीवन के पूर्व के चरणों में बहुत सा धर्मकर्म क्या है तो आपका जन्म उन्हीं परिस्थितियों में होता है जहां से आपके पिछले चरणों में कार्य छोडा था । आप ऐसे भी कह सकते हैं कि हजारों लाखों ग्वारन जन्मों का संबंध जैसी थी बना रहता है । इसलिए कोई काम कर्म करने के उपरांत भी सफल होता है और कोई अधिक कर्मों के उपरांत भी असफल कुमार इसका अर्थ क्या ये नहीं हुआ के मुख्य प्राप्त ही है । इस जीवन के कर्मों का बहत को बहुत कम है । अपनी आंखों कोकन ेंद्र गोल गोल को बातें भी कहते हैं । नहीं नहीं ऐसा नहीं है । वो प्रारभ जो आज तुम्हारे कर्मों पर भारी पड रहा है वो भी एक एक धर्म से जोडकर बना है । प्रारभ का महत्व सम्भवता इसलिए अधिक होता है कि वह बहुत से जन्मों से संचित फल है । आप उसे मात्र चर्म के कर्म से समायोजित नहीं कर सकते हैं । यहाँ पर एक विशेष बात का भी ध्यान रखना होगा । एक घर वही महान है क्योंकि कर्म सही प्रारब्ध बना है ताकि प्रारभ से कर आता है । जो पूर्वजन्मों के संचित कर्मफल हैं उन्हें हम बदल तो नहीं सकते परंतु अच्छे कर्मों से आने वाले जीवन का धीरे धीरे प्रारब्ध निश्चित ही बदल सकते हैं । अ तक कर रही प्रधान है या कर्म वो छोटी बचत है जो कुछ फिल्मों के उपरांत बडी संपत्ति के रूप में प्रारब्ध के भाव में आपको प्राप्त होती है । एकता सुनने के उपरांत प्रमुख भी बहुत विचाराधीन स्थिति में प्रतीत हो रहे थे । संभव तो उनको अपने प्रश्न का उत्तर नहीं प्राप्त हो सका था । तब वे धीरे से बोले कुमार जब चढता ब्रह्मा तक पहुंचना ही धर्म है तब हर वो कार्य, वो चिंतन, वचन, वो दर्शन जो प्रमुख बार को प्रशस्त करें तो निश्चित ही धर्म है । इतना कहना था की कुमार तुरंत बोल पडे प्रवक्ता आप सत प्रतिशत सत्य समझ रहे । कुमार इसका तो हुआ आप के घर पर शास्वत है । आप कह रहे थे कि धर्म भी काल्कि परिसीमा में बना हुआ है । नरेन्द्र नहीं कुछ विचार किया और उनके विचार करते समय सभी ये विचार कर रहे थे कि कुमार घनेन्द्र के विचारों का सिंधु बात कर रही है । उनके हिरदय प्रांगण में ज्ञान स्रोत प्रस्फुटित हो गया है । तब कुमार कल इंद्रा ने कहा धर्म का परम तत्व तो निश्चित है, शास्वत है परन्तु क्या युद्धकाल में जवाब का राष्ट्र संकट में हो तो क्या भक्ति मार्ग को अपनाना घर में है? जब आपका कुकुम्बर संकट में हूँ और आप पर निर्भर हो तो क्या भक्ति भाव में डूबे रहना घर मैं जब रात तीन आपा इज अथवा अबला पर अत्याचार हो रहा हूँ तो क्या शांति के बारह पर अथवा प्रभु भक्ति में लीन होना धर्म है? नहीं ये सभी धर्म के बाहर गए । जब राष्ट्र पर संकट हो तो राष्ट्र के लिए शरीर मान अल थी या युक्ति से समर्पित हो ना घर में है । इसी प्रकार रात दिन आप आइच अथवा अबला की रक्षा ही धर्म है । जब शांतिकाल चल रहा हो तो प्रभु भक्ति में लीन होना है । अर्थात अलग अलग समय पर अलग अलग कार्य धर्म होते हैं । परंतु मूलतत्व अभी भी नहीं बदला मूल है । सभी कार्य करते हुए प्रभु कुम्भ मन में बनाए रखा था । परम लक्ष्य को मन में स्थिर रखना ही धर्मा है । इस प्रकार हम कह सकते हैं कि धर्म भी काल्कि परिसीमा से वो अलग नहीं है । इतना सुनने के उपरांत सभी के मन में विचारों की गतिशीलता बढ गई । सभी इस विचार से ओतप्रोत हो गए कि इस समय हमारा राष्ट्र, हमारे प्रभु, हमारा परिवार, हमारा सब को संकट में है । पता हमें उससे भक्ति चाहिए और मुक्ति आज परम धर्म है । इतनी चर्चा के उपरांत सभी देश भक्ति की भावना के साथ धर्म भाव से भी लबालब भरे हुए थे । तभी ये विचार प्रमुख सीधे रखा कि अब जाने का समय प्रतीत हो रहा है । इस पर गजेंद्र बस सभी ने स्वीकृति दी । तब कुमार गवेन्द्र इंडोर डंडधार । वह बहुत जगेश्वर उसको लाभ के अंदर स्थिर होकर बताया हुये स्थानों पर बैठ गए । प्रमुख ही कोलक के बाहर आ गए । उन के बाहर आते ही गोलक सोता ही बंद हो गया । उसके उपरांत क्या हुआ इसका अनुभव कुमार कविंद्र वशेष तीन व्यक्तियों को हुआ । इन चारों का अनुभव प्रायोगिक था जबकि प्रमुख किसी का अनुभव इसको लग पर प्रायोगिक नहीं था । इसके बाद भी प्रमुख जी को बोल अब के बाहर लगे संकेतों से पता चल रहा था की गोलक अपना कार्य ठीक प्रकार से कर रहा था । अब प्रमुख सी जो कर सकते थे वो थी प्रतीक्षा । अब प्रतीक्षा के साथ उनके ऊपर राज्य की सुरक्षा का भी भार था और भी इसके लिए तैयार थे ।

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