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कार्तिक केंद्रों पर लटकेंगे द्वारा मालिक शो के को तोडना रात्रि का हुई थी । पहले चल रहा है कुमार कार्तिक केंद्र अपनी समाज व्यवस्था से सामान्य अवस्था में आते हैं । उनको देखकर लटक दिन की जिनके ऊपर कुमार की संपूर्ण सुरक्षा का उत्तरदायित्व हैं । सामने स्थित शिला से चलकर कुमार के समीप आ जाते हैं । कुमार के पास शांत भाव से भूमि पर बैठने के लिए जैसे ही नीचे की ओर झुकते हैं, कुमार उन के दोनों कंधों पर हाथ रखकर कहते हैं आपको भूमि पर बैठने की आवश्यकता नहीं है । आप यहाँ ऊपर हो । सेवक अपना स्थान जानता है और व्यक्ति को अपना स्थान सतह ध्यान रखना चाहिए । अपना स्थान न जानना भी दुख का कारण हो सकता है । अच्छा प्रभु मुझे मेरे अपने स्थान पर ही रहने दीजिए । प्रभु यदि अनुमति हो तो मैं कुछ हाँ क्या जानना चाहते हैं । आपने पिछली रात से भी विश्राम नहीं किया था और आज रात से भी आपने अभी शायद नहीं किया । इतना अधिक परिश्रम परिश्रम नहीं ये करना है । दखार घर में एक स्वाभाविक क्रिया है । कर्तव्य कर्म असहज होता है और परिश्रम से आप खर्च चाहते हैं । करन है परिश्रम था । कामना से युक्त होकर किया गया कर कामना होगी तो आशा होगी, आशा होगी तो स्वार्थ होगा, स्वार्थ होगा तो लोग जम्मू काम क्रोध का होना उसी प्रकार होना स्वाभाविक है । जैसे वर्षा ऋतू में सूखी हुई भूमि पर वनस्पतियां होता ही निकलती है । इसी प्रकार काम ना होते ही कर्म परिश्रम में परिवर्तित हो जाता है । हम यहाँ पर करतब देखकर मत कर रहे हैं । जब परिश्रम है ही नहीं तब थकने का प्रश्न कहा । इतना सुनने के उपरांत लटकेंगे के मन प्रांगण में उत्सुकता का मृत्य प्रारंभ हो गया । जिसका अनुमान कुमार कार्तिक केंद्र को पहले से ही था कि लफंगे को जब भी अनुकूल समय प्राप्त होगा वो अवश्य ही अपनी जिज्ञासा प्रस्तुत करेंगे । इसके पहले की लटकेंगे और प्रश्न करते कुमार ने स्वतः ही करवा के विषय में उन्हें समझाना प्रारम्भ किया । करवडा थे चंदू अर्थात कर्मों से जीव बनता है । ध्यान रहे उन्हीं कर्मों से उसकी मुक्ति भी संभव है । कर्मयोग में मूल रहस्य की चार मुख्य बातें हैं । प्रथम मेरा कुछ नहीं है, मात्र कहते नहीं । मार्च से मात्र विचार कर लेने मात्र से नहीं होगा । प्रत्युत इस बात को समझता भी होगा जैसे आज आप एक वस्तु ग्रह करके लाते हैं जिसका मोह आज होगा । कुछ समय पश्चात निश्चित ही नहीं होता है । ये तो निश्चित ही है । जो धन वैभव आज आपका है वह सदैव आपका रहने वाला नहीं है । संभव है आपके जीवन पर्यंत स्थायी रहे । यदि मान भी लें कि वह जीवन पर्यंत स्थायी रहेगा तब भी जीवन ही शास्वत नहीं है । तब हुई थी अपने लिए कुछ नहीं करना है । कारण अपने लिए कर्व करते ही लोग वो जागृत हो जाएगा । लोग वो वो आते ही फल की इच्छा जागृत होगी । हल्की इच्छा कर्म को परिश्रम में परिवर्तित कर देती है । इतना सुनकर लटपट इनकी सम्भवता वो पूर्ण रुपये भाव समझना सके । तब उन्होंने पूछा लगभग देंगे प्रभु कर्म का परिश्रम में परिवर्तन । यदि आप पुरा आप इस प्रकार विचार करें के जवाब अपने घर में किसी अनुष्ठान के उपरांत पहुंच की व्यवस्था करते हैं तब आपको बहुत से चिंताएं रहती हैं जैसे भोजन कहीं काम ना पड जाए । ये भोजन व्यस्त बचना चाहिए । ये भोजन यदि कम स्वादिष्ट बना तो लोग क्या कहेंगे चाहती थी । परन्तु यहीं पर जब जब कर रखा इसी प्रकार और स्थान करते हैं तब आपको इसकी चिंता नहीं रहती । आपका विचार परिवर्तित हो जाता है । यदि भोजन कम हो गया तो आप कहते हैं कि प्रभु की इच्छा नहीं थी कि आपको प्रसाद प्राप्त हो और आने वाला आगंतुक भी कहता है । यहाँ संभावना प्रभु नहीं चाहते थे तो नहीं हुआ अर्थात ना आप तो सी ना अगर यदि भोजन पर गया तो आप कहते हैं कि जिसके भाग्य था उसे प्राप्त हो गया । शेष भोज्य पदार्थ को नदी में प्रवाहित करूंगा । अभी से मछली वह जलचर खाएंगे । इसमें भी आपको संतुष्टि प्राप्त होती है । ये चिंताएं परिश्रम के साथ अवश्य ही रहेंगे परंतु कर्तव्य कर्मा के साथ कदापि नहीं । इसी प्रकार रीत किये मुझे कुछ नहीं चाहिए । जब आपको कुछ नहीं चाहिए तभी आपको सुख वक्त दुख नहीं होगा और आप कर्मफल से वे मुख् रह सकते हैं । चतुर्थ सभी कार्य प्रभु के हैं और हम प्रभु कार्य ही कर रहे हैं । यदि ये चारों बातें व्यक्ति मान ले और वो इनका नंबर समझ ले तो वह निश्चित ही कर्मयोगी होगा । इस प्रकार का कर्मयोगी निश्चित ही प्रभु के अत्यंत समीप होता है । वो प्रभु भक्तों होता है । इतना सुनने के उपरांत लड्डू करेंगी के मन मस्तिष्क में भक्त के विषय में जानने की अभिलाषा प्रबल हो गई । मन में अभिलाषा और संकोच दोनों ही एक साथ उत्प्रेरित में प्रीत मनाई । स्थिति कौन विजयी होगा दोनों एक ही मन से बहुत कार्य एक भक्ति के प्रेरणा से उत्तेजित है जो अभिलाषा कहलाती है । दूसरी सेवक के कारण प्रेरित हुई जो संगोष् गहलाई अब यहाँ सेवक ही भक्त है और भक्ति ही सेवा अर्थात सेवक भक्त है । कभी सेवक का भाव सिंचाई हो रहा है और कभी भक्त का भाव अंततक दोनों ही विजयी होना चाहते हैं । दोनों ही एक मन से उत्पन्न भाव इस प्रकार प्रतिद्वंदिता कर रहे हैं की बुद्धि को ही हस्तक्षेप करना पडा । ये ठीक उसी प्रकार था जिस प्रकार एक पिता के दो पुत्र युक्त कर रहे हो । दोनों में समान पराक्रम, सामान, कौशलता, सामान, प्रतिद्वंदिता परन्तु भिन्न वैचारिकता हो । कोई भी किसी से हारने को तैयार नहीं । सर्वश्रेष्ठ उपाय पिता युद्ध ही रूकवाते । किसी प्रकार स्वामी ने अपने धर्म की दुविधा को समाप्त करने के लिए स्वतः ही पूछ लिया । अब आपका अगला प्रश्न मानो भूखों को भोजन प्यासे को जल अथवा जीवन प्राप्त हो गया हो, निष्प्राण शरीर हो, इस प्रकार का सुख शब्दों से नहीं बल्कि भावों से ही स्पष्ट हो पाता है । इतना सुनकर लेट करेंगे ने कुमार से अगला प्रश्न किया हूँ । धक्का के विषय में भी यदि आप चर्चा करें कारण बहुत प्रकार से भक्ति के कारण मैं इस विषय पर लिखते थी अत्यंत अंधकार में हूँ । धक तो चार प्रकार के होते हैं । प्रथम जो अनुकूलता प्राप्त करने के कारण भक्ति करते हैं उनको अठारह थी । भक्त कहते हैं इस प्रकार के भक्त ईश्वर आराधना करते हैं परन्तु उसका गर्भ फल संबंधता में प्राप्त करना चाहते हैं । आप ये भी समझ सकते हैं कि वह इस्वर से अपने शुभ कर्मों का पारितोषिक प्रसन्नता के रूप में चाहते हैं । वो धनार्जन उचित वाह मैदान तक सिद्धांतों के आधार पर करना चाहते हैं । वेदांत इक विचारों पर चलते चलते वो कभी दरार चंद त्यागकर प्रभु भक्ति में लीन हो जाते हैं । इसको आप इस भर्ती भी समझ सकते हैं कि किसी भी प्रभु उपासना में अपना जीवन लगाया क्योंकि उसको राजा बनना था । वो राजा बनना चाहता था परंतु जा प्रभु ने उसको दर्शन दिए तो उसमें रागद्वेष लोग वो सब समाप्त हो गए । प्रभु के दर्शन के उपरान्त रागद्वेष, माया हूँ, मददगार आदि स्वतः ही समाप्त हो जाते हैं । अब वो राजा नहीं बनना चाहता है । करन उसने सत्य को जान लिया है परन्तु प्रभु दर्शन निष्फल नहीं हो सकता अर्थात उसे राजसिंहासन अवश्य ही प्राप्त होगा । इस प्रकार का भक्त चतुर्थश्रेणी का भक्त कहा जाता है । अब दूसरे प्रकार है । आठ जो आधार थी से श्रेष्ठ भक्त माना जाता है अर्थात श्रेणी के अनुसार रही थी और तब भक्त का अर्थ है प्रतिकूलता ना चाहने वाला भक्त है । निश्चित ही अनुकूल का चाहने वाले भक्त की तुलना में प्रतिकूल का ना चाहने वाला भक्त श्रेष्ठ होता है । हूँ में अनुकूलता चाहने वाला वह प्रतिकूलता न चाहने वाले भक्त में भी लगता नहीं कर पा रहा हूँ । मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि दोनों एक ही हैं । मात्र कहने में भी रहता है । लेटर भेंगी दोनों एक समान प्रतीत होते हैं परन्तु दोनों भी नहीं । अनुकूलता का अर्थ है अपने अनुसार धन संपदा, मान सम्मान । आप ख्याति आप ध्यान दे वो लॉकी वह पारलौकिक सुख प्राप्त करना चाहता है । प्रतिकूलता अर्थात वो सुख नहीं चाहता । बस वो चाहता है कि प्रभु कष्ट से उसके रक्षक है । आप इसको इस खाते भी समझ सकते हैं कि दो व्यक्ति नदी पार करना चाहते हैं । एक व्यक्ति ईश्वर को इसलिए याद कर रहा है केश्वर नदी पार करने हेतु अनुकूलता बनाते । अठारह नाव की व्यवस्था कराते हैं । दूसरा लाओ नहीं चाहता । वर्चस्वता तैरकर नदी पार करना चाहता है परंतु वो इश्वर से सहायता मांगता है । जब वह देखता है कि नदी में उसके सामने मगर आ गया है अथवा वो डूबने लगा है । इतनी बात सुनकर लटकेंगे ने अपना सेट खिलाया और मुद्रा स्पष्ट की । जैसे की वो समझ गया है तब कुमार ने आगे बढना उचित समझा । भक्त का तृतीय प्रकार है जिज्ञासु हूँ । ये श्रेष्ठता में इस काम में हुई थी । ये आधार थी वहाँ अर्थ दोनों से ही सृष्ट है । इसका कारण है कि इसको प्रभु भक्ति में मात्र जिज्ञासा है । ये प्रभु के विषय में ही उसके प्राप्ति के साथ उन के विषय में जानना चाहता है । वो अपनी उन्नति अथवा अवनति, सुख दुःख, लाभ हानि, जीवन मरण, मिलन वियोग आदि को अपना प्रारब्ध मानता है तो इन सभी के लिए प्रभु को इस पर नहीं करता । वो बस प्रभु को ही जानना चाहता है । अब चतुर्थ अखार ज्ञानी प्रेमी सर्वश्रेष्ठ भक्त होता है क्योंकि वह सुख तक हानि लाभ हाथ से तो पहले ही बाहर आ चुका है और वो प्रभु को प्रेम करता है । इतना सुनने के उपरांत लटक पडेंगे की भाव भंगिमा से कुमार जान चुके थे कि अब विराम लेना होगा । कारण कुछ अस्पष्टता कुमार का रुकना हुआ और लडेंगे का बुक चलना कब हूँ? ज्ञानी भक्त अच्छे क्या सुन भक्त से श्रेष्ठ किस प्रकार है जो प्रेमी अथवा ज्ञानी भक्त है वो प्रभु के विषय में कहीं भी शंका नहीं करता अर्थात उसको अंतर बन में स्पष्टता प्रभु दर्शन हो रहे हैं । प्रेमी या ज्ञानी भक्त वही हो सकता है जो इस वर्ग को जान गया हो । आप किसी से प्रेम बिना देखे अथवा बिना उसके विषय में जाने नहीं कर सकते हैं, उसके विषय में सुनकर प्रेम कर सकते हैं । परन्तु निश्चित ही वो भाव नहीं आएगा जो उसको देखने के उपरांत आएगा । जब आप इश्वर के दर्शन अपने अंतर्मन में कर लेते हैं तब शंकाएं समाप्त हो जाती है । मन की दुविधा निर्मूल हो जाती है । परन्तु इतना कहकर कुमार शांत हो गए । कुमार के शांत होते ही लड भरेंगे ने पूरा प्रश्न किया । प्रभु परन्तु ऍम ग्यारह भक्त ईश्वर को भी मिलना दो क्लब हो जाता है । यानी भक्त ईश्वर की असीम कृपा के बिना संभव नहीं । इतना सुनने के उपरांत लग भृंगी का मन विचार करने लगा कि ज्ञानी होने के लिए अंतर्मन में प्रभु के दर्शन अर्था सगोनी या निर्गुण । तब लडवाएंगे ने पूरा प्रश्न किया प्रभु ज्ञानी होने के लिए सकुल यानी कुल किस प्रकार उपासना की जाए कि बार गई हूँ, काम हो जाए । प्रथम ता आपके समझने का प्रयास कीजिए । किस्सा गूंजा निर्गुण दोनों एक ही है । जिस प्रकार जल जब वास्तव अवस्था में परिवर्तित हो जाता है, कब उसका कोई आकार, रूप अथवा भौतिक उपस् थिति प्रतीत नहीं होती है हूँ । मैं क्षमा चाहता हूँ । मेरी अज्ञानता ही है जो आपको कष्ट दे रही है । मैं बिना आप क्या ही बात संपूर्ण समाप्त होने के पूर्व ही पोल पर कुमार ने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी बल्कि कुछ पल पर शायद मुस्कुरा दिए । एक का एक पता नहीं क्यों लड करेंगे को प्रतीत हुआ कि कुमार का मुखमण्डल कुछ नहीं । उन्होंने अपनी आंखों को कुमार कार्तिक केन्द्र के मुखमण्डल पर के विकसित किया । उनका मुस्कुराता हुआ भक्तमंडल परिवर्तनशील प्रतीत हुआ । लाॅचिंग की अब कुछ शंकर से ग्रसित हुआ । उसे प्रतीत हुआ कि क्या ये बाले क्षों का फिर उसके कुछ क्षण के लिए अपनी आंखों को बंद किया और कुछ क्षण उपरांत जब उसने अपनी आंखें खोली तो उसके विचार कुछ परिवर्तित हुए । उसने कुछ कहना अथवा पूछना इस विषय में उचित नहीं समझा । तब वो अपने पूर्व विषय पर वापस आ गया । प्रभु मैं बहुत इको पस्थिति का अर्थ नहीं समझ सका । इसका अर्थ है जिस प्रकार जल को देख कर अथवा छूकर उसका भगवान होता है । उसके ठीक वे अपनी जब जल वास्तव में परिवर्तित हो जाता है तो उसको ना तो देखा जा सकता है अथवा ना ही अस्पष्ट से समझा जा सकता है । अब यदि उसी जल को ठोस में अर्थात बर्फ में परिवर्तित कर लिया जाए तो आप छूकर देखकर आसानी से उसके आकार, रूप वार रंगा को समझ सकते हैं । इसी प्रकार प्राम्भ चेतता वास्तव के समान देर को भी है और बर्फ के सवाल सकू भी है । इसी प्रकार उस प्राम्भ छेडता को ऊर्जा के रूप में भी समझ सकते हैं । ऊर्जा जब आपने आपका प्रभाव प्रदर्शित करती है तब वो नकुल हैं परन्तु से ताप के अंतर के प्रभाव के कारण अस्पष्टता समझ पाते हैं । अब जब वो ऊर्जा ताप के प्रभाव के साथ प्रकाश के रंगों के साथ अपना रूप प्रकट करती है तब वो सब हो जाते हैं । इस प्रकार वह पोछा दोनों ही रूपों में अपने को प्रदर्शित कर पाती है । इतनी बात कुमार का टिकेंद्र नहीं पाए थे कि लटकेंगे ने अपना अगला प्रश्न समय गवाह ही पूछा प्रभु आप किस प्रकाश ने तो हो सकता है जबकि हम उसे अनुभव कर सकते हैं । निर्गुणं मत साहपुर में बहुत से अंतर है परन्तु सबसे महत्वपूर्ण लगता है उसको अंतर्मन से देखना । अनुभव तो आपको दोनों ही होंगे, परन्तु साग उनका अनुभव आसान है और अंतर्मन में अस्पष्टता इसका बूत हो सकता है । आपका आप अपने अंतर्मन में पोर्ट नहीं कर सकते हैं । यदि आपको अंतर्मन में अनुभव करने की चेष्टा करो गए और निश्चित ही स्कूल हरीज अथवा स्थूल वस्तु की आवश्यकता होगी । जब आपने स्कूल शरीद अथवा वस्तु की सहायता ले ली तो वो कह रहा है वो तो सब हो गया, अब तुम प्रश्न पूछ हो क्योंकि इस वरीय प्रेरणा से मैं तुम्हारा अगला प्रश्न जान गया । तुम्हारा अगला प्रश्न है सगुन वरना कुल में कौन सा ड्रेस है? सकुन मार्ग यदि आसान है तो क्यों इसका उत्तर ध्यानपूर्वक सुनो । मैं अब सरोवर नहीं, कुल दोनों के विषय में चर्चा कर रहा हूँ । आप स्वतः ही विचार करें की दोनों में श्रेष्ठ कौन? उपासक में उपासना क्या सकती तो स्वतः ही चीज व्यक्ति की होती है । जवाब सदन उपासक होते हैं तो वो प्रेम वह इंद्रियों को संयमित करने का बाल प्रभु सेवा में चित्र को लगाने का साबर थे, प्रभु से प्राप्त होता है । जवाब निर्गुण भक्ति के मार्ग पर चलते हैं तो वो प्रेम संभव नहीं है । कारण कि सिर्फ इंद्रियों को मन को संयमित करने का बाल तो चाहिए ही और वो पल आपको स्वतः अर्चित करता होता है । अब आप ऐसे समझो जैसे मनुष्य का छोटा बालक जब अपने कदम बढाता है और गिरने वाला होता है तब उसकी माँ से संभाल लेती है । वो इस बात को जानता भी है कि माँ स्वता ही उसे सुरक्षित रखेगी । इसके विपरीत बंदर का छोटा बच्चा अपने बल से ही अपनी रक्षा के विषय में सोचता है । जब महात्व अभिभावक चलते हैं तो वह स्वतः एक हाथ से बच्चे को संभालते रहते हैं परंतु बंदरिया धाक दिया था होती है तो वो अपने बच्चों का ध्यान नहीं देती है । इसी प्रकार सगुण भक्ति में प्रभु का सहारा अभिभावक की भर्ती प्राप्त होता रहता है और निर्माण में स्वयं कोई स्वयं का सहारा बनना होता है । इसी प्रकार सकल उपासना भैया भी कुछ कभी रहती जाती है तो वह दोष प्रभु स्वतः ही कृपा करके समाप्त करते थे । यहाँ पर निर्गुण में प्रथम तो वह दोष दिखता ही नहीं है और यदि दिख गया तो उस को ठीक करने की दिशा में पढना बिना सहायता के कठिन मार्ग होगा है । सगुण भक्ति की विशेष बात भी है तो उसमें आपको गुरु की आवश्यकता नहीं है बस ईश्वर ही आपका गुरु रहे । मैं यहाँ पर ये नहीं कह रहा हूँ की सकून भक्ति में गुरु कभी हो ही नहीं सकता बल्कि कुरोकी सतत् आवश्यकता नहीं होती है परन्तु निर्गुण भक्ति में गुरु की आवश्यकता अंत तक होगी । जब तक स्वयं ज्ञानवान न हो जाये वो बिल्कुल उसी बंदरिया के बच्चे की भर्ती ही होता है जो एक कदम भी अपने माँ के बिना आगे नहीं पडता था । ऍम
Sound Engineer
Writer