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भाग - 16 in Hindi

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3 K Listens
AuthorOmjee Publication
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नीलकंठ द्वारा गर्म भत्तों के दर्शन, वहाँ अनुभव, प्रतीक्षा ना सुख है, न दुख है । वो सुख भी हो सकता है और दुख भी । साथ ही दोनों से पूर्णतया भिन्न । अभी यदि सुबह घटना की आपको प्रतीक्षा है तो आप सुख के साथ दुख का भी अनुभव करते हैं । करन सुख इसलिए क्योंकि सुखद घटना का संदेश उस की प्राप्ति आपको सुख देने वाली है । इसके विपरीत इसमें सत्य का विलंब आपको दुख देने वाला है । आप समय से पूर्व सुखद घटना चाहते हैं अर्थात सुख के साथ दुख चल रहा है । इसके विपरीत यदि आपको दुखद घटना का आभास है तो अभी विचारों में दुख है और घटित होने के बाद सत्यता, पेट दुख होगा । इस दुखद घटना की प्रतीक्षा समय का लम्बा होना सुख प्रदान करता है । इस प्रकार के दुःख में सुख है । इस तरह मालिक शिश्यूं सुख की प्रतीक्षा में दुखी है । सुख में दुख होना पल पल भारी हो जाता है । माॅनसून अपना धैर्य धारण किए हुए था । इसके अतिरिक्त वो कुछ कर भी नहीं सकता था । तब तक उसको सूचना प्राप्त हुई कि बाल एक शिवपोरा मिलने आ रहे हैं । उसको सुख का संदेश सुनने की तत्पर्ता व्यक्त किये जा रही थी । वो अपने कक्ष में बैठा था । तब मालिक शिप होना नहीं, कक्ष में प्रवेश किया । महाराज की जय हो कार्य संपन्न हो गया है । आज से सातवें दिन आपको परिणाम मिलने प्रारंभ हो जाएंगे । आपके सैनिक शिशु आज से सातवें दिन जन्म लेना प्रारंभ करेंगे । महाराज और तो दिनों तक लगातार शिशुओं का जन्म होता रहेगा । अतिउत्तम हाँ आप अपने कार्य से छोडता संतुष्ट हैं । महाराज क्या आज तक मैंने आपके बताया सभी अनुसंधान सत्य सिद्ध नहीं किए । नहीं नहीं ये बात नहीं है । ये प्रजनन विकास प्रकृति के नियमों का उल्लंघन प्रतीत होता है । इसके साथ ही मैंने कभी ऐसा नहीं सुना है । इसलिए जब से आप ने इस विषय पर चर्चा की है मुझे पता नहीं क्यूँ कुछ शंग होता जा रहा है । मुझे आपकी योग्यता पर संदेह नहीं है परन्तु इतना कहकर बाल एक्शन सोन शाम तो हो गया । मालिक शिप भी शांत था । बिना परिणाम आए वो भी क्या प्रदर्शित कर सकता था । अच्छा उसने भी वहाँ से वापस जाना उचित समझा । इधर वह मालिक शुरू उनके पास से वापस हुआ ही था कि लगभग उसी समय आशुतोष इंद्रा महाराज के पास गुप्तचर पहुंचा और उसने पूर्ण विवरण प्रभु को दिया । विवरण सुनकर प्रभु मुस्कुराने लगे । प्रभु आशुतोष चंद्र नहीं कुछ एक को छोडकर सभी को वापस बुला लिया । अब प्रभु ने उपयोग रचना प्रारंभ की जिससे इस बार मालिक बजकर ना निकल सके । प्रभु ने सभी मुख्य सेनापतियों और बडों को बुलाया और सभा प्रारंभ हो गई । यह था आज से सातवें दिन प्रारंभ हो जाएगा । हमें पूरे कुंभ हापुर पर्वतश्रृंखला । वही मैं चीन आदि को ध्यान में रखकर ऍम बनानी है । ये क्षेत्र बहुत विस्तृत है । हम सभी को घेर नहीं सकते । याद रहे केबल एक हारने के समय भाग सकते हैं । हमें उन्हें भागने का अवसर नहीं देना है । क्या युद्ध सात दिन के पहले प्रारंभ नहीं हो सकता जो नहीं हो सकता है । हो सकता है यदि हम आक्रमण करे तो हमें प्रतीक्षा करनी चाहिए । यदि उन्होंने आक्रमण किया तब प्रमुख वे आक्रमण नहीं करेंगे क्योंकि वे अपनी सैन्य संख्या बढाने में तक पर हैं । हम क्यों नहीं आक्रमण कर रहे हैं, इसका कारण आपको कुछ समय पर शायद पता चल जाएगा । अब आप एक कार्यप्रारंभ भतीजी आदेश करे । प्रभु प्रमुख से पांच दिन के भीतर आपको पूरे युद्ध क्षेत्र का आकलन करने के पश्चात दस स्थानों को चेन्नई करना होगा जहाँ से आप व्यक्तियों को कहीं भी स्थानांतरित कर सके और काम पे हूँ । मैं अभी से कार्यप्रारंभ करता हूँ । एकता आदेश प्राप्त होते ही प्रमुख चीजें आंचलिक को याद किया अंजलि के साथ गोश सिंगा पूरा प्रस्थान करके क्योंकि वहीं पर संपूर्ण अनुसंधान की व्यवस्था थी । उन्होंने आंचलिक की सहायता से कार्य प्रारंभ करने की योजना प्रारंभ की । उन्होंने आंचलिक को उसका वेश पहना दिया । उस देश में प्रकाश परावर्तन करने वाले श्रेष्ठ यंत्रों का सिंह जो जान था । अंजलि को पूर्णता समझा दिया गया कि वह भूमि से अधिक दूरी पर रहे ताकि उसको कोई पहचान न सके । आंचलिक एक करोड पक्षी होने के साथ साथ अत्यंत योग के वहाँ प्रशिक्षित योग था । मालिक के साथ हुए युद्ध में उसने मालिक राजा मालिक हो उनकी एक आंख नोचकर खा डाली थी । दो ही दिनों में प्रमुख सीधे मानचित्रों पर मैं दस स्थान अंकित कर दिए तो साथ ही गढों की सहायता से वहाँ पर स्थानान्तरण की व्यवस्था कर दी गई । अब तीन दिन हो चुके थे को श्रृंगा पूरा की सेना ने पूरी व्यवस्था कर ली थी । मुख्यता आक्रमण की ही प्रतीक्षा थी । रात का प्रथम प्रहर था । प्रकाश की व्यवस्था इस प्रकार की गई थी कि प्रकाश बाहर के दिशा में न जाए । सभी को एक एक पल काटना भारी हो रहा था । सभी मुख्य पदाधिकारी महाराज माँ वह दोनों कुमार उपस्थित थे । तब लाट भृंगी नहीं प्रभु से एक प्रश्न किया कब उ मैं कुछ जानना चाहता हूँ । यदि आप पूछे जाने तो इस समय युक्त की चर्चा के अतिरिक्त और कोई विषय नहीं । अच्छा पूछो शाम हूँ । मैं भी समझ रहा हूँ की युद्ध क्षेत्र में युद्ध की ही चर्चा होनी चाहिए । परन्तु मन में एक प्रश्न है कि यदि युद्ध में मैं वीरगति को प्राप्त हो गया तो इस ज्ञान को प्राप्त करने के लिए न जाने कितने जन्म लेने पडेंगे । इतना सुनने के उपरांत प्रभु भाव विभोर हो गए । क्या ऐसा व्यक्तिग ज्ञान पाने का सर्वोत्तम अधिकारी नहीं जो अपने प्राणों से अधिक महत्व ज्ञान को दे रहा है? इस पर प्रभु के अंदर का प्रभुत्व चाक किया और उन्होंने कहा क्या है मृत्यु मृत्यु केवल शरीर का त्याग नहीं तो भारे विचार नहीं ही तुम्हें अमर कर दिया है । जिस व्यक्ति के अंदर ज्ञान पाने की अभिलाषा जीवन रक्षा से श्रेष्ठ है वो अमर है । साथ ही उसका मौके पर अधिकार सिद्धर है । सत्य का ज्ञान शरीर का गुणा नहीं है । सत्य का ज्ञान जीवात्मा का गुण है । जीवात्मा जब सत्य का अनुभव करने लगती है तो उसे आनन्द की अनुभूति होती है । आनंद जीवात्मा ज्ञान से सराबोर जीवात्मा उत्तरोत्तर जम्मू में अपने ज्ञान की बढोत्तरी करते हुए परमात्मा में समा जाती है । यही है मुख्य पूछो क्या पूछना चाहते हो मुझे? कुमार कार्तिक केंद्र नहीं सामान प्राण का संबंध मणिपुर चक्र से होता है । यहाँ तक बताया है । यहाँ तक बताया था की उसके उपरांत उसके उपरांत क्या संभव है? वे स्वतः ही स्पष्ट थे, ऐसा उन्होंने कहा था । इसका अभिप्राय यह हुआ क्या प्राणों का चक्रों से संबंध जानना चाहते हैं जी प्रभु सभी अत्यंत उत्सुकतावश प्रभु के वचनों को सुनने के लिए आतुर थे । पूर्वजन्मों के पूर्व कर रही संचित होंगे की कहने वाले प्रभु स्वयं हूँ । तब प्रभु ने कहना प्रारम्भ किया योग से ध्यान से संयमित जीवन से आप अपने दो चक्रों को जागृत कर सकते हैं, वो है मूलाधार । वह स्वाधिष्ठान । इसके जागृत होने से आप स्वस्थ, ऊर्जावान वहाँ एक आक्रो जीवन में अग्रसर हो सकते हैं । अभी अधिशेष चक्रों को भी जागृत करना है तो प्राणों को आध्यात्मिक बाल देना होगा । आध्यात्मिक बाल मात्र कर्मकांड नहीं है, बल्कि आध्यात्मिक बाल अपने मन, बुद्धि, वाइन, सियो के नियंत्रन के साथ अपने तीनों शरीर को प्राण से उर्जित करते हुए उर्ध्वगामी ले जाने से प्राप्त होता है । शाम आप हूँ । मैं आपका अभिप्राय नहीं समझता । प्रभु ने सभी की तरफ निहारा । उनको समझ आ गया कि कोई भी इसे समझ नहीं सकता है । तब उन्होंने पुनः कहना प्रारम्भ किया था तो होते ये शब्द तो वह समझ नहीं कहा विषय नहीं है । ये अनुभव करने का विषय है । अब प्रभु ने माँ की तरफ देखा तो मारने के आसन क्या ये भावार्थ तो कोई नहीं जान सका, परंतु को संकेत अवश्य था । इसके उपरांत प्रभु ने अपने को योगासन की मुद्रा में स्थापित किया । सभी को निहारा । सभी को इस प्रकार की अनुभूति हुई कि जैसे प्रभु की आंखों से प्रेम का प्रकाश उत्पन्न हो रहा है । देखते ही देखते सभी न जाने का हो गए । किसी को आपने होने या न होने का अनुभव ही ना था । अब सभी को समान अनुभव होना प्राप्त हुआ । सभा सभी देख रहे थे कि प्रभु वमा दोनों एक में ही समा गए । देखते ही देखते हुए शरीर रहित होकर ऊर्जा पुंजा के सामान हो गई । एक ऐसी मोर्चा जिसमें उस मना होकर शीतलता प्रवाहित हो रही है, सब और हसीन शीतल ऊर्जा का अनुभव कर रहे थे । एक ओमकार का कूंच चौथी धीरे धीरे आपने वृहत्ताकार रूप लेती जा रही थी । तब ओमकार का नाथ वार शीतल ओरछा एक सवाल प्रतीत होने लगी था । दोनों का स्रोत एक ही हो गया । धीरे धीरे सभी को यह अनुभव होना प्रारंभ हुआ । किना भी के केंद्र में प्रकाश की शीतलता प्रतीत हो रही है । वो प्रकाश किसी तल ऊर्जा उर्ध्वाधर दिशा में पडती हुई मणिपुर चक्र से अनाहत चक्र पर पहुंची । राहत चक वक्ष के ठीक नीचे के अ स्थान पर होता है जहाँ पर अस्थियां पेट से जोडती हैं । धीरे धीरे आ राहत चक्र के प्रकाश माल होने के उपरांत विशुद्धि चक्र जो की सेवा के मध्य में होता है, से मस्तक के केंद्र में प्रकाश पहुंचता है । अब संपूर्ण ऊर्जा केंद्र आप क्या चक्र पर स्थापित हो चुका था । इसके ऊपर अंतिम चक्र जो सहस्त्रार कहलाता है वहाँ ऊंचा वहाँ ओमकार का केंद्र होना लगभग असंभव होता है । अब जब प्रभु वर्मा अर्थात शिव पर शक्ति अथवा संपूर्ण ऊर्जावान चेतनता ही सात हो तो क्या संभव नहीं है । देखते ही देखते ऊर्जा का केंद्र संस्कार पर इस फिर हो गया । संस्कार पर ऊर्जा चक्र के चार आकृत होते ही सभी ने अनुभव किया तो स्वतः प्रभु शाम में समाज है । वो चीज एक बूंद थी जो अनंत महासागर में समाने के उपरांत अपने को समुद्र कह रही थी । बूंद का अकेले समुद्र बन जाना असंभव था परन्तु वहाँ वो उन महासागर में परिवर्तित हो गई । साथ ही अपने को महासागर ही मान रही है और उसमें वे कुछ आ गए हैं जो महासागर में होते हैं । इस तरह जीव चीज बना होकर ब्रह्मा बन परम ब्रह्म हमें समझ आ गया और जहाँ से उस की उत्पत्ति हुई थी वहीं पहुंच गया । इस प्रकार का अनुभव संभावना किसी को प्राप्त हो अथवा उसी को प्राप्त होगा जिसको परम चाहेंगे अथवा जो परम प्राम्भ की कृपा से चलेगा अथवा जिसने अपने लाखों करोड जन्मों का पुण्य संचित क्या होगा । कुछ भी हो यह अनुभव पढकर ज्ञान अर्जित कर अथवा सुनकर प्राप्त हो सकता था । अब प्रभु ने अपनी चेतता को अपने में समेट नाश प्रारम्भ किया तब धीरे धीरे सभी की चेतना वापस आई । इस प्रक्रिया वह प्राम्भ ज्ञान में कितना समय व्यतीत हो गया, किसी को कुछ पता ही नहीं चला था ।

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