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शिव से शिवत्व तक - Part 20 in Hindi

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5 K Listens
AuthorOmjee Publication
शिव से शिवत्व तक | लेखक - आशुतोष Voiceover Artist : Shrikant Sinha Author : Ashutosh
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इस प्रकार के प्रश्नों के उत्तर तो किसी के पास नहीं थे । सभी शांतभाव से एक दूसरे की तरफ निहार रहे थे । चारों तरफ सन्नाटा सा फैल गया था । एक आई कुमार गणतंत्र नहीं कहना प्रारम्भ क्या हमारे पास आज प्रश्नों के उत्तर नहीं परंतु आप सब चिंतित हूँ । जब हम उन के विषय में इतना जान चुके हैं तो आगे भी ब्रह्म कोई ना कोई मार्ग प्रशस्त करेगा । अभी प्रमुख ही कह रहे थे कि तो विषय पर चर्चा करना शेष है । यदि आप लोगों की अनुमति हो, उन विषयों पर चर्चा करनी चाहिए । संभव है कि उन चाहता हूँ मैं कुछ समस्या का समाधान छिपा हो । इस बात का सभी ने समर्थन किया । पुणे चर्चा परिचर्चा प्राथमिक हो गई । प्रमुख से ने कहा, शेष दो विषय जल वाॅक हमारे प्रयोग का । उनके तरफ तत्व के विषय में निष्कर्ष अत्यंत ही अनूठा है । उनका तरफ तत्व अपने तरफ तत्व की तुलना में काम घर लग चुका है । इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात की है कि उनके तरफ तत्व पारस्परिक बंदा बाल बहुत ही अधिक है । कुमार नरेन्द्र पूछा पारस्परिक बंदा बाल का अभिप्राय क्या है? सब चीज पारस्परिक बंद बाल का अभिप्राय के है कि उनका द्रव तरपुर आपस में बहुत ही अधिक बाल से बदलाव हुआ है अर्थात वो जल्द बहने वाला नहीं है । जबकि प्रायर ऐसा देखा जाता है कि कम घनत्व का तब बहुत तेजी से फैल जाता है बार नहीं का । अब मेरे मन में जो इतने समय से विचार उथलपुथल कर रहे थे उनका सम्भवता उत्तर मिलने का समय आ गया । प्रमुख जी ने कहा, इस बार यदि आपके मन में कोई विचार आया हो तो कहें क्योंकि अब हम सभी एक स्थान पर रुक गए । मैंने कहा प्रमुख सी जब आप ने ये निष्कर्ष निकाला की तरफ में पारस्परिक पंद्रह बहुत अधिक है । तब मैंने विचार किया कि संभवता जब मैंने वह प्रभु ने उस पर अत्यंत भारी प्रहार किए थे, तब भी उसके रक्त का एक करना भी नहीं बाहर था । अब मुझे समझ में आ रहा है कि आखिर वक्त क्यों नहीं । वहाँ अब जब रखता नहीं बाहर सब उसके शरीर में कुछ विशेष कारण रहा होगा जिससे उसके घाव पुना शुक्र ही भर गए । प्रमुख ने कहा आप का गठन सकते हैं । हाँ, अत्यधिक पंद्रह बाल के कारण उनका तरफ तत्व बाहर नहीं बढा हुआ परन्तु उनका घाव इतनी शीघ्रता से भर गया । इसका कारण अभी क्या आप नहीं हो सकता है । कब होने कहा आप चिंतित हो? जब इतने रहस्य खुल चुके हैं तो ये रहस्य भी खुलने का समय आप ही जाएगा । अब पृथ्वी तत्व तो होगा ही करन । वे पृथ्वी के निवासी ही नहीं हैं । दण्डक हारने का प्रमुख चीज एक और प्रश्न है । किस प्रकार हमारा शरीर पंच महा मूल तत्व से निर्मित होता है और यह किस प्रकार सुनिश्चित होता है कि कौन किसका पुत्र होगा, प्रमुख जीने का यह अत्यंत गंभीर विषय है । सम्भवता हमारी क्षमता से परे हैं । इस विषय पर बात प्रभु ही प्रकाश डाल सकते हैं । ऐसा मेरा मन है । सभी ने एक सोच से कहा कि आपका मत होना तैयार हो सकते हैं । सभी प्रभु की तरफ में हाथ नहीं लगी । प्रभु ने भी अपने मन व बुद्धि को एक आग्रह किया और कुछ समय के लिए आंखों को बंद करती बैठे रहे । कुछ समय पर शाह उन्होंने अपनी आंखों को खोला और इस समय उनका मस्तक नमक रहा था । मानो ऊर्जा पुंछ उनके बस टाॅपर आ गया हूँ । प्रभु ने का आपका प्रश्न अत्यंत उत्तम दंड हाथ ये प्रश्न आध्यात्मिक तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण पर होना तैयार हरा है । इस प्रश्न से आध्यात्मिक को नदी के भी मार्गप्रशस्त होते हैं । परन्तु इस प्रश्न के उत्तर के लिए यह उपयुक्त समय नहीं है । अच्छा जब इसका समय आएगा तब मैं स्वतः इसका उपयुक्त उत्तर देकर सभी के मन की उत्कंठा को समाप्त करने का प्रयास करूँगा । अभी मात्र राष्ट्ररक्षा मातृ रक्षा वो अपने भूमंडल की रक्षा के विषय में प्रयास करना चाहिए । वहाँ उपस्थित सभी महानुभावों ने सहमती जताई । इस बात का अनुमोदन भी किया कि अब युद्ध के विकल्प के अतिरिक्त अन्य चर्चा न की जाए । प्रातःकाल पुनर्स् सभा राज महल में आयोजित होगी । इस निर्णय के उपरांत सभा विसर्जित हो गई । मालिक शो द्वारा यत्र की तैयारी, गोश रिंग पूरा से लगभग सौ तो उस की दूरी पर स्थित विद्या मार कंटक एक विकसित वहाँ उन्नत राष्ट्र के प्रजा संतुष्ट, सुखी व संपन्न है । ये संतुष्ट, सुखी और संपन्न एक ही तरह के शब्द प्रतीत होते हैं । परंतु दुर्लभ ही व्यक्ति में ये तीनों को नहीं एक साथ देखने को मिले । संतुष्टि आत्मा का गुण है और आत्मगुणों आध्यात्मिक गुरु होता है । कहा जाता है कि संतोषम परम् सुखम संतोष अथवा संतुष्टि के समान सुख कुछ हो ही नहीं सकता । सुख शारीरिक व मानसिक उन्हें था वह संतुष्टि से बहुत होता है । शारीरिक सुखों को आप अपनी इंद्रियों के द्वारा प्राप्त कर सकते हैं । मानसिक सौ शारीरिक सबसे श्रेष्ठ है । आप सभी प्रकार के शारीरिक सुखों का भोग कर रहे हूँ परन्तु मान शाम तक हो तो शारीरिक सुख की अनुभूति नहीं होगी । उदाहरण के लिए आप सभी शारीरिक को भोग रहे हो और एक आपको आपके मृत्यु का समय क्या हो जाए तब क्या होगा? आप अपने सुखों को भोगते हुए उसका आनंद करना ले सकेंगे । संपन्नता सबसे छोटी वस्तु है । संपन्नता आपको अच्छे बीज हाँ नहीं, वहाँ अच्छा घर तो दे सकती है, परन्तु नेत्रा तो आपको नहीं दे सकती । अच्छा भोजन तो उपलब्ध करा सकती है परंतु भूख तो नहीं बता सकती था । यदि आप के पास संतोष धन है तो आप प्रमाण के सबसे सुखी बसम पन्ना बैठती हैं । अब इसी प्रकार दिब्या मार कर्नाटक के निवासी संतुष्ट तो अपने आध्यात्मिक स्कूलों के कारण थे । उन में सुख संपन्नता देने का कार्य वहाँ के महाराज शत्रु विजय ने किया था । वे प्रजा अपने राज्य का विशेष ध्यान देते थे । वर्तमान स्थितियां प्रजा के दृष्टिकोण में सामान्य थी और राज महल की दृष्टि से तो स्थिति दयनीय थी । अब प्रश्न होता है कि प्रजापति राज महल के दृष्टिकोण सही स्थितियों में इतना अधिक अंतर क्यों है? कारण स्पष्ट हैं । जिस प्रकार पिता अपनी समस्याओं को अपने तक से मित्र अपने कुटुम्ब को प्रसन्न रखना चाहता है, उसी प्रकार उत्तम राजा अपनी समस्याओं को अपने राज महल के बाहर नहीं जाने देना चाहता है । परन्तु अब शत्रु विजय का साहस बत्ती वक्त वे उसे उत्तर देने लगे थे । अब वो समझ नहीं पा रहा था कि इस चक्रव्यूह से निकलने का उपाय कुछ है भी अथवा इस योग के अंदर ही सिल सिल कर मृत्यु प्राप्त हो जाएगी । वो जान रहा था कि वो उसका अच्छी परिवार व अन्य राज महल में रहने वाले उसके शुभ चिंतक अपने प्राणों का बलिदान करने के उपरांत वही संभाव्यता अपने राष्ट्र व प्रजा को ना बचा सके । उसका मुंह बना रहना । उसके सेनापति वा महामंत्री दोनों को उचित नहीं लग रहा था । शत्रु विजय अपने महल के शयन कक्ष में रात्र के दूसरे पहर के बीच आने के उपरांत भी सोया नहीं था । वो कक्ष में धीरे धीरे चहलकदमी कर रहा था । उसके दोनों हाथ पीछे खबर पर एक दूसरे को सहारा दे रहे थे । ऐसा प्रतीत हो रहा था कि कभी जिन हाथों में शस्त्र को देखकर शास्त्र भयभीत हो जाते थे बेहार स्वतः एक दूसरे का सहारा चाह रहे हो । आंख है लगभग बन्द हुई थी । मस्तक की रेखाओं पर भारी वो बाहर था । इतने में द्वारपाल ने धीरे से कक्ष में प्रवेश किया । पहले द्वारपाल की दृष्टि बिछाने पर गई, परंतु वहाँ पर महाराज को ना पाकर एक पल वो ठीक था और उसने देखा कि महाराज कक्ष में टहल रहे हैं । उसने एक दो क्षण प्रतीक्षा की । उसकी प्रतीक्षा का कारण था कि महाराष्ट्र सही उसके आगमन को जान जाएंगे । परंतु महाराज बहुत ही अधिक चिंता मत थे । जब वे नहीं जान पाए तब द्वारपाल ने उन्हें सूचित करना उचित समझा । द्वार पालने का महाराज की जय हो । कुछ देर तक उत्तर ना आने पर पुनः द्वारपाल नहीं महाराज की जय हो । अबकी स्वर में तीव्रता थी । महाराज की जागृत था । महंगा हो गई । वे एकदम चौक से गए । अगवत कह सकते हैं कि कुछ भयभीत से हो गए अपने दृष्टि द्वारपाल पर डालते हैं । वह उसे ठीक से पहचान नहीं की चेष्टा करते हुए एक का एक में पास आए और पूरी तरह से आश्वस्त होने के उपरांत द्वारपाल से बोले क्या हुआ द्वारपाल? रात्रि के समय आने का कारण क्या तुम नहीं जानते की इस समय आने पर इतना कहने के उपरांत वह शाम हो गए । एक का एक वो पूरा फुल पडेगी । मैं समझ रहा हूँ तो मैं अपना मंतव्य शीघ्र हो और यहाँ से जाओ महाराज, सेनापति महामंत्री आपसे मिलने के लिए अच्छी शिक्षा अभिलाषी है । उन्हें आपके विशेषातिथि कक्ष में प्रतीक्षा करने के लिए कहकर मैं आप के समीप स्थित हुआ हूँ । अब मेरे लिए क्या आदेश है? महाराज, तुम चालू मैं अभिषेक पहुँचता हूँ । द्वारपाल के जाने के उपरांत महाराज शत्रु विजय अपने आसन पर कुछ क्षणों के लिए बैठ गए । विचार मतलब तो पहले से थे ही, अब नई समस्याओं के लिए उनका मस्तिष्क तीव्रता के साथ नए विचारों का मंथन करने लगा । ये मानव मस्तिष्क की सामान्य समस्या है कि वह आपातकाल में ऋणात्मक दिशा को ही उपयुक्त मानता है । यहाँ पर तो आपातकाल चल ही रहा है । ऐसे में खिलाते विचारों के लिए अस्थान का रचनात्मक विचारों को, अपने मन मस्तिष्क में साथ ये महाराज शत्रु मिल जाए, अपने आसन से घुटने की चर्चा करते हैं । उनका शरीर इतना बोझिल हो चुका है अथवा कह सकते हैं कि पैरों में इतनी शक्ति नहीं रह गई है कि वे शरीर का भार रह सके । मनुष्य का बाल उसके मन के उत्साह में भरा होता है, ना कि उसके शरीर में । इसी कारण कहा जाता है कि मन के हारे हार है । मन के जीते चीज मनुष्य को किसी भी परिस्थिति में मन को कमजोर नहीं होने देना चाहिए । तल पर किसी का बस नहीं है । जब आपको जीवन में कभी ऐसा प्रतीत हो कि अब शरीर के साथ मन भी हाथ रहा है तब मन को किसका सहारा मिलेगा, शरीर को बलबन देता है और मन को बुद्धि बल देती है । हमारी बुद्धि सही और सटीक दिशा में जब विचार करना प्रारंभ करती है तब बन अपने आप ऍम स्थिर होने लगता है । बुद्धि को बाल कहाँ से प्राप्त होता है? बुद्धि को बाल प्राप्त होता है । विचारों से विचार कहाँ से आते हैं, विचार आते हैं आपकी अंतर क्षेत्र से अंतर्चेतना आपके बीच का गुण है अर्थात आध्यात्मिक कुल । इस प्रकार सभी समस्याओं का निवारण आपके अपने आध्यात्मिक गुरुओं पर निर्भर है । इसलिये अपने आध्यात्मिक गुरुओं का कभी पता नहीं होने देना चाहिए । इस प्रकार अपने मन को मजबूत कर सकती हूँ । विजय ने पूरा उतने की चेष्टा की और उठकर अतिथि कक्ष की ओर ही देती भी बढने लगा । अतिथि कक्ष से बाहर पहुंचते ही वहां स्थिति द्वारपाल ने सभी को सचेत किया कि महाराज आ रहे हैं । महाराज के अंदर पहुंचते ही सभी नहीं खडे होकर उनका अभिवादन किया । अभिवादन में महल के अंदर की दैनिक स्थिति साफ झलक रही थी । सभी महाराज की तरफ एक तक ऋष्टि गडाकर देख रहे थे । महाराष्ट्र सभी को धीरे धीरे अपने दृष्टि कुमार कर देखा और बोले

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शिव से शिवत्व तक | लेखक - आशुतोष Voiceover Artist : Shrikant Sinha Author : Ashutosh
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