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कांग्रेस की छियालीस अधिवेशन तक सुभाष छठी महाराष्ट्र प्रांतीय कॉन्फ्रेंस के सभापति निर्वाचित किए गए । अध्यक्ष पद से इस कॉन्फ्रेंस में उन्होंने जो वक्तव्य दिया वो उनकी गहन अध्ययन, अतुलनीय देश, प्रेम तथा कदम में उत्साह का अविस्मरणीय परिचायक है । सुभाष ने कहा, स्वतंत्रता ही मेरे जीवन का लक्ष्य है और मेरी दृष्टि में वो एक अमूल्य वस्तु हैं, जैसे ऑक्सिजन फेफडों के लिए आवश्यक है, उसी प्रकार स्वतंत्रता भी मानव जीवन के लिए आवश्यक है । तभी तो स्वामी विवेकानंद ने कहा था स्वतंत्रता आत्मा का संगीत है । आज दादी ही सच्चा अमृत है । हमारी सब दुर्बलताओं की अच्छी औषधि स्वराज हैं और स्वास्थ्य के लिए हमारी योग्यताओं की कसौटी हमारी आजादी की प्रबल आकांक्षा ही है । इस सारगर्भित वक्तव्य के दो सप्ताह बाद ही सुभाष ने बम्बई के ऑपरा हाउस में भारत की राजनीतिक परिस्थिति, सभ्यता, संस्कृति एवं युवकों की चरित्र आदर्श पर प्रकाश डालते हुए कहा, नवयुवकों की जीवन का ये आदर्श होना चाहिए कि मानव समाज तथा अपने लिए एक नए संसार का निर्माण करें । नौजवानों द्वारा संचालित प्रत्येक आंदोलन को मैं नौजवान आंदोलन नहीं कह सकता । नौजवान आंदोलन वो आंदोलन है जिसका जन्म आंतरिक जागृति से हुआ हूँ और जिसकी रूपरेखा में समाज का भावी चित्रांकित हो । नवयुवकों का जीवन भी ये होना चाहिए कि पहले में अपनी आंतरिक स्वयं की अनुमति प्राप्त कर ले । उसके बाद में अपने अनुभव को सामाजिक तथा राष्ट्रीय जीवन में रूपांतरित करें । युवकों का कर्तव्य है कि वे अपनी चारों ओर की स्थिति देखकर राष्ट्र निर्माण का कार्य अपने हाथों में ले । आज भारत के सामने दो महत्वपूर्ण प्रश्न है पहला राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक स्वाधीनता प्राप्त करना और दूसरा सभ्यता के निर्माण में सहयोग प्रदान करना । पर नवनिर्माण के इस कार्य में भारत तभी सहयोग दे सकता है, जब वह पूर्ण रूप से स्वतंत्र हो । भारतीय सभ्यता में हिन्दू मुस्लिम संस्कृतियाँ घुल मिल गई है । मैं तो ये कहता हूँ कि मुगल शासक यदि केवल ताज हमारे लिए छोड गए होते तो भी हम उनकी कृतज्ञ ही रहते और ब्रिटिश सरकार को देखिए, हमारे लिए क्या छोड जाएगी? सिर्फ जेल की तन्हाइयां तथा भीषण कोठरियों के सिवा कुछ भी नहीं । कलकत्ता आने के साथ ही सुभाष कांग्रेस के प्रियाली अधिवेशन की तैयारी में जुट गए । स्वराज पार्टी के प्रधान होने के नाते इस अधिवेशन को भव्य और अभूतपूर्व बनाने का संपूर्ण उत्तरदायित्व सुभाष के कंधों पर था । जब कलकत्ता कांग्रेस के सभापति का जुलूस निकला तो दो हजार स्वयंसेवक एक ढंग की सैनिक वर्दी पहने पचास घुडसवारों और दो सौ साइकिल सवार आगे आगे थे । सभापति पंडित मोतीलाल नेहरू छत्तीस सफेद घोडो की शानदार बग्गी में विराजमान थे । दो हजार स्वराज्य सैनिकों के साथ चार पांच लाख की भीड थी । शायद ही हिंदुस्तान भर में कहीं हूँ और कभी किसी राजा महाराजा या गवर्नर का ऐसा जुलूस निकला हुआ सर्वप्रथम सभापति को स्टेशन पर ही एक सौ एक बंदूकों की सलामी दी गई । जुलूस की सबसे आगे जो सैंक्च्यूरी चल रही थी उसका नेतृत्व सेनापति सुभाष कर रही थी । खद्दर की फौजी वर्दी में उनका व्यक्तित्व अत्यंत आकर्षक और प्रभावशाली देख रहा था । उनके मुख प्रतिदिन आत्मविश्वास और विजयी सूरमाओं का आत्मसंतोष लग रहा था । पंडित मोतीलाल नेहरू द्वारा कांग्रेस का ध्वजारोहण अत्यंत लोमहर्षक ढंग से हुआ । झंडा स्थान पर गडा हुआ था । वहाँ टिकट द्वारा ही लोगों को जाने किया गया थी किंतु अपार भीड ने सुरक्षा घेरे को तोड डाला । सभापति झंडी के रंग की तिरंगी सुसज्जित गाडी में आए और उनका स्वागत करते हुए सुभाष उनको झंडे के पास ले गए । पंडित मोतीलाल नेहरू ने झंडे का वंदे मातरम जयघोष से अभिवादन किया । इसके पश्चात सेनापति की आज्ञा पर स्वयंसेवक झंडी के नीचे सभापति की ओर मार्च करते हुए आए । बारी बारी से सेनापति ने सभापति को सेनानायकों का परिचय दिया । तत्पश्चात बिगुल बजाकर स्वयंसेवकों को संदेश देने की प्रार्थना । अपनी छोटी से वक्तव्य में पंडित मोतीलाल नेहरू ने कहा स्वराज सेना के सैनिकों में ही भारत की भावी सेना बनना है । अपनी नस नस में, पर उसका संचार करो । वृद्ध होते हुए भी मैं कर्तव्य पद से डिगने वाला नहीं । मुझे आशा है कि तुम भी कर्तव्यपथ पर डटे होगी । उसके बाद सुभाष की कार्यनिष्ठा नायकत्व, देश प्रेम, दृडता, लगन, उच्च चरित्र की प्रशंसा करते हुए पंडित मोतीलाल नेहरू ने गद्गद कंठ से कहा सुभाष चंद्र बोस मुझे अपने बेटे की तरह प्रिय हैं ।
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