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Chapter 10 (v) - ज्ञान साधना in Hindi

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10 K Listens
Authorरमेश सिंह पाल
Apana Swaroop | अपना स्वरुप Producer : KUKU FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava Producer : Kuku FM Author : Dr Ramesh Singh Pal Voiceover Artist : Raj Shrivastava (KUKU)
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ज्ञान साधना भगवान भगवत गीता में ज्ञान की बात करते हुए कहते हैं नहीं यानी इन सदर शाम पवित्र में ही विद्यते तक स्वयं योग संसद धंधा कालेन आत्मनि विंदति । ज्ञान के समान पवित्र कुछ और है ही नहीं । आदमी को ज्ञान होने के बाद उस की सभी कर्म समाप्त हो जाते हैं । अब तक के हमारे किए गए चन्दन से यह स्पष्ट हो गया कि पूरा विश्व जगत तीन भागों से मिलकर बना हुआ ऐसा प्रतीत होता है । पहला प्रकृति जड, दूसरा पुरुष अंतःकरण, तीसरा ब्रहम् परमात्मा, शुद्ध चैतन्य ब्रह्म और प्रकृति के सहयोग से पुरुष अंत करने की नी शक्ति होती है । अकेले परमात्मा में संसार नहीं है और केवल प्रकृति में भी संसार नहीं है । लेकिन जब परमात्मा प्रकृति के माध्यम से प्रकट होता है तो वह अच्छी इतना कहलाती है । जैसे जब एक देश की सभी वोट एक मनुष्य के माध्यम से प्रकट होती है तो उसे प्रधानमंत्री कहते हैं । ये चेतरा जब पुरुष के देख से प्रकट होती है तो उसे दाढी आती है और यही चेतरा जब स्त्री के देने से प्रकट होती है तो उसे दाडी नहीं आती है । चेतरा सभी में सामान्य है । एक गधे या एक मनुष्य में ये चेतना था तो एक समान हैं । वही चेतना सकता जब एक गाय के माध्यम से प्रकट होती है तो दूध निकालता है । लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि चेतन सत्ता परमात्मा दूध के समान है और परमात्मा जब सिर्फ के माध्यम से प्रकट होता है तो विश्व निकालता है । इसका दाद पर ये नहीं कि परमात्मा विश्व के समान है । एक बार किसी ने मुझसे पूछा कि आप कहते हैं कि परमात्मा एक ही है लेकिन हिंदुओं में तो तैंतीस करोड देवता को मानते हैं । वे क्या भगवान नहीं है? हमने उनसे कहा कि देखो महात्मा जी, आप तैंतीस करोड देवी देवता कह रहे हो गया । बता सकती हूँ कि इस ब्रह्मांड में कितने मनुष्य, जीव जंतु, कीडे, मकौडे पौधे हैं । उन्होंने कहा नहीं, वे सब के सब परमात्मा ही हैं । अनंत में अनेकता केवल कल्पित मात्र होती है । जिस प्रकार एक हजार रुपए के नोट में पांच रुपये भी है, दस भी है, पचास भी है और सौ पांच सौ भी है । बस फर्क केवल आपकी दृष्टि का है कि आप क्या देख रहे हो, हजार रुपये पूरा देख रहे हो या उसकी चीन लेकर अलग अलग नोटों को देख रहे हो । किसी भी ज्ञान के लिए अमित तीन तक क्यों की आवश्यकता होती है उनमें से यही एक भी नहीं हो तो ज्ञान नहीं हो सकता है । पहला है ज्ञान का विषय जगत दूसरा है ज्ञान की प्रक्रिया । उपकरण और तीसरा है गया था जिसे ज्ञान हो रहा है । इन तीन तिथियों में से पहला है ज्ञान का विषय जगह थी तथा तीसरा ज्ञाता चैतन्य । सभी प्राणियों के लिए सामान्य अंदर यदि है तो केवल ज्ञान की प्रक्रिया में इसको उदाहरण से समझ लेना ठीक रहेगा । एक दर्पण है और हम उसमें अपने प्रतिबिंब को देखते हैं । यहाँ पर ज्ञाता हो गए हम ज्ञान के लिए उपकरण हो गया, दर्पण तथा ज्ञान का विषय हो गया प्रतिबिम् जब हम अपने प्रतिबिंब को देखते हैं तो हमारा ये ज्ञान होता है कि हम अपने को ही देख रहे हैं । लेकिन यदि एक चिडिया दर्पण में आपने प्रतिबंध को देखती है तो उसका गया यह है कि उस प्रतिबंध के अंदर अन्य कोई दूसरी चिडिया है और वो उस प्रतिबंध पर अपनी चोंच मार मारकर खून निकाल लेती है । अब वो चिडिया उस दर्पण के आगे बैठ कर चाहे जब करें, यज्ञ करे, दान करें, वह प्रतिबिंब दिखना बंद नहीं होगा । जब तक वो झडिया ये नहीं समझ लेती की ये प्रतिबिंबन अन्य कोई और नहीं है । ये उसका अपना ही स्वरूप है । ठीक उसी प्रकार जब तक हम जगत को, भगवान को और अपने आप को सही तरह से जान नहीं लेते तब तक हमें इस जगत में दुख नजर आते हैं । भगवान अपने से दूर नजर आती है और अपने आप को हम जिंदगी भर बापू तुम हम पापकर्म आ हम किसी प्रकार को उससे रहते हैं । मैं हूॅं फॅमिली ये संत तुकाराम का कहना है ज्ञान केवल अज्ञान का भाव है । ज्ञान में कोई भी नयी वस्तु अथवा धारणा का निर्माण नहीं होता है बल्कि जो हमारी गलत धारणाओं, अज्ञान के आवरण है उन को हटाना है । जिस प्रकार एक फल के अंदर बीज होता है, बस बीस तक पहुंचने के लिए सब हटाना पडता है, ठीक उसी प्रकार हम लोग कहते हैं सेल्फ डिस्कवरी । इसको हमसे ऍम नहीं कहते हैं । डिस्कवरी मारे कवर्स को हटा देना पहले हमें जगत के आदिकारण बीच तक पहुंचना पडेगा । इसके लिए हमारी स्कूल बुद्धि काम नहीं करेगी । इसके लिए हमें सूक्ष्म बुद्धि से विचार करना पडेगा । एक बार ये सवाल मुझ से किसी ने पूछा था कि जिस बुद्धि के द्वारा हम इस भौतिक जगत की चीजों के बारे में जानते हैं क्या उस बुड्ढी के द्वारा हम परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते? हम ने कहा कि भौतिक स्कूल, बुद्धि और परमात्मा सूक्ष्म बुद्धि में थोडा फर्क है । इसे ऐसे समझ लीजिए कि ये कुल्हाडी के द्वारा हम बडे से बडा विश्व काट सकते हैं परन्तु क्या उस कुल्हाडी के द्वारा हम्मा शेविंग कर सकते है? यानी कि दाडी बना सकते हैं? नहीं । ठीक उसी प्रकार परमात्मा प्रकृति के द्वारा ढका गया है और बहुत एक स्कूल बुद्धि भी प्रकृति का ही अंग है जो मन के साथ मिलकर कार्य करती है । जब स्कूल बुद्धि मान के साथ अपने तादात मुखत्यार करके चुनाव भाषा परमात्मा का प्रतिबिंब के साथ तादात्म्य कर लेती है तो ये बुद्धि सूक्ष्म कही जाती है और इस सूक्ष्म बुद्धि के द्वारा ही परमात्मा का चिंतन किया जा सकता है । थोडा स्थूल और सूक्ष्म को समझने के लिए एक और उदाहरण लेते हैं । जिस पधारती या वस्तु में जितने ज्यादा गुण होते हैं वो उतना स्कूल होता है जैसे पृथ्वी में शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध सभी पांच गुण है तो पृथ्वी सबसे स्कूल है जबकि आकाश में केवल शब्द गुण है तो आकाश सभी पंचमहाभूतों से सूक्ष्म है । उसी प्रकार प्रकाशक होता है । वो हमेशा प्रकाशित वस्तु से शुरू होता है । जैसे सूर्य सृष्टि का प्रकाशक है लेकिन सूर्य को कौन प्रकाशित करता है, सूर्य को हमारी दृष्टि प्रकाशित करती है । इसलिए हमारी आंखों में देखने की शक्ति सूर्य से सूक्ष्म है । हमारी आंखों में देखने की शक्ति को मन प्रकाशित करता है इसलिए मन दृष्टि से सूक्ष्म है । मन का प्रकाशक चैतन्या चित आभास है इसलिए परमात्मा चंदावास मन और स्कूल बुद्धि से भी सूक्ष्म है । सामान्यतः हम ये सोचते हैं कि अगर कोई मनुष्य भौतिक जगत में बहुत बुद्धिमान है तो ये परमात्म तत्व को जानने का अधिकारी हो सकता है । परंतु ऐसा नहीं है और ऐसा भी नहीं है कि जो भौतिक जगत में फेल हो गए हैं या जिनकी स्कूल बुद्धि ने काम करना ही बंद कर दिया है, जो नालायक है वो इस तत्व को जान सकता है । भगवान भगवत गीता में कहते हैं काम ऍम ज्ञाना हाँ प्रपद्यन्ते नियत देवता टम टम नियम मास था, ये प्रकृतियाँ नियताः फस गया । अब भगवान को किस भाव से देखते हैं, ये दृष्टि मायने रखती है । क्या परेशान हूँ और भगवान को परेशान के कारण याद कर रहे हो? या आपको भगवान से धन दौलत चाहिए या फिर आप जिज्ञासा वाले मन से परमात्मा को जानने के इच्छुक हो या फिर आप अपने स्वरूप में परमात्मा का अनुभव करना चाहते हो । जो जिस भाव से परमात्मा को चाहता है, परमात्मा भी उसी भाव से उसके संपूर्ण फल को प्रदान करते हैं । ज्ञान की साधना को समझने के लिए हमें चरणबद्ध तरीके से चलना होगा क्योंकि अभी तक हमारी बुद्धि, मन, इंद्रिया सभी बाहर गामी है । कैसे हम परमात्मस्वरूप का अनुभव कर सकते हैं । अब उन सब स्टेप्स पर आ जाते हैं पहला इंद्रियों का नियमन । भगवत गीता में अर्जुन भगवान से पूछते हैं कि हे भगवान ऍम प्रयुक्त हो या पापं चरति पुरुषः अन्य छपी वार्षिणी याँ बलादी विनियोजित हूँ । मनुष्य ना चाहते हुए भी किस कारण से पाप करने के लिए प्रेरित हो जाता है । तब भगवान कहते हैं काम एश करो देश रजोगुण, समुद्र भरवा महाजनों महापाप माँ सिद्धेहम यहाँ ऍम रजोगुण से उत्पन्न जीवन में ये करना है वो करना है । ये जो करने का रोग है । इसी को रजोगुण कहा गया है । काम ना और कामना पूरी न होने पर उसे उत्पन्न क्रोध ही सभी पापों की जड है । हे अर्जुन! इनको तो अपना सबसे बडा दुश्मन समझता और आगे कहते हैं इन्द्रियाणि मनो बुद्धि रस्सियां रिश्ता नाम अच्छे एहते रवि मोहैया तेश ज्ञान माँ मृत्यु देहिनम् तस्मात् त्वम् इंद्रियानी यादव नियम में भरतर्षभ पाप मानम रजही सोनम ग्यारह विज्ञान आश्रम इस काम ना की तीन स्तर है जहाँ ये निवास करती है । सबसे पहले इंडिया, दूसरे स्तर पर मन तथा तीसरे स्तर पर बुद्धि । इसलिए है अर्जुन सबसे पहले तुम अपनी इंद्रियों पर नियंत्रण लाना शुरू करूँ । कभी हम लोगों ने सोचा है कि हमारी आंखें बाहर की ही विषय वस्तु क्यों देखती है? हमारे कान बाहर की आवाज क्यों सुनते हैं? सभी इंद्रिया बाहर की ओर है । इसको लेकर उपनिषद में एक लोग आता है पर आ गयी खानी वित्र ना स्वयं भूस स्मार्ट परांगत पश्यति नान तार आत्मन् कश्मीर धीर प्रत्यगात्मा मैच दा वृत्त शंकर मृत तत्व मच्छर पांच ज्ञानेन्द्रियां हमेशा बाहर के विषय वस्तुओं में ही लगी रहती है और जो ये इंद्रिया हमको दिखाती है, अनुभव करती है, हम उसी को सत्य मान लेते हैं । कभी ये विचार तक नहीं आता कि जो मैं देख रहा हूँ, ये सत्य है भी या नहीं । लेकिन जब हमारी आंखे कमजोर हो जाती है तब हमारा ध्यान बाहर की तरफ जाता है कि बाहर सब धुंधला क्यों दिख रहा है । तब पता चलता है कि बाहर का जो भी दिखता है, सुनता है । वो हमारे इंद्रियों पर निर्भर करता है । विषयवस्तु बाहर है परंतु उनका अनुभव हम बाहर नहीं करते है । जब हम किसी को देखते हैं तो हम उसे कहा देखते हैं अपने से बाहर या अपने अंदर इस जगत का कोई भी अनुभव हमें बाहर नहीं होता । सब हमारे अंदर ही है । यह संपूर्ण जगह जिसका आज तक हमने अनुभव किया है और जो आगे हम अनुभव करेंगे वो सब इसी वक्त हमारे में मौजूद है । बस हमें उसका ज्ञान नहीं है । हमें संसार की विषयवस्तुओं का ज्ञान होता है । ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा अब हम इंद्रियों का प्रयोग कैसे करते हैं यह हम पर निर्भर करता है । हमारे इंद्रियों के माध्यम से क्या देखना चाहते हैं ये सब हमारे कंट्रोल में होना चाहिए । बाहर की विषय वस्तु इन इंद्रियों को कैसे कण्ट्रोल कर सकती है? नहीं, ये हम निर्णय लेंगे कि हमें इन इंद्रियों से क्या ग्रहण करना है और क्या ग्रहण नहीं करना है । क्योंकि ये इंद्रिया हमारे उपकरण है तो सबसे पहले इन्द्रियों पर नियंत्रण बहुत आवश्यक है । बाहर की विषय वस्तुओं की सत्ता हमारे इंद्रियों के कारण है और इंद्रियों का पूरा कंट्रोल हमारे हाथ में है । पहले बाहर की विषय वस्तु हुए हम पर प्रभाव डालना बंद कर दे तो हम अपने स्वरूप तक पहुंचने की एक सीढी पार कर जाते हैं । लेकिन सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि ये नियमन कैसे होगा? क्या किसी बाहर की विषय वस्तु को देखे नहीं? सुने नहीं, स्पर्श ना करें । अगर ऐसा होता तो हम को फ्री इंद्रिया परमात्मा द्वारा प्रदत्त ही नहीं होती । ऐसा नहीं है जैसा हमको अक्सर बताया जाता है । गांधीजी के तीन मंदिर बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो । लोग अक्सर कहते हैं कि मैं ऐसा बोलना नहीं चाहता था, मगर मेरे मुंह से निकल गया और फिर इस बात को लेकर परेशान होते रहते हैं । आंखों से देखना, कानों से सुनाई देना ये प्रकृति की हम को सबसे बडी देन है । हम मनुष्य अपने बाहरी ज्ञान का प्रतिशत ज्ञान देखकर या फिर सुन कर ही ग्रहण करते हैं तथा अपने ज्ञान को हम जब वहाँ वाणी के द्वारा व्यक्त करते हैं तो विषय वस्तुओं के अंदर आने की गेट हो गए देखना, दृष्टि और सुनना श्रवण शक्ति तथा बाहर व्यक्त करने का माध्यम हो गया । वाणी जब हम रोजाना अनगिनत विषय वस्तुओं को आंखों से देखते हैं, इनमें से कुछ विषय वस्तुओं आंखों के द्वारा देखी जाती है लेकिन मैं हमारे मंतर प्रवेश नहीं करती और वे विषयवस्तु का मन पर कोई छाप संस्कार भी नहीं पडता । इसलिए उन व्यक्तियों विषय वस्तुओं का हमारे हार्ड डिस्क चित्र में भी स्टोरेज नहीं होता है । लेकिन जिन विषयवस्तुओं को हम देख कर उसके बारे में चिंतन शुरू कर देते हैं और जिसके साथ हम अपने को जोडकर देखते हैं, उस विषय वस्तु का मन में प्रवेश होता है और इसके संस्कार बनते हैं उसी प्रकार है जैसे आंख को आप दर्पण के स्थान पर रख दो तो ये दर्पण दिन भर में हजारों लोगों को प्रकाशित करेगा लेकिन दर्पण इनमें से किसी भी चेहरे के साथ चिपकेगा नहीं । लेकिन अगर अपन का कहा जब कैमरे में फिट हो जाता है और था इसका आज के साथ हमने मान भी जोड दिया तो ये फिर एक कैमरे के लेंस की तरह काम करेगा जो प्रतिबंध को सत्य मानकर मन में उसे संग्रहित करता रहेगा । तो इंद्रियों को नियंत्रित करने का मतलब ये हो गया कि उनके द्वारा प्रभावित ना हुए । और ये तो नियम है कि जब प्रकाशक होता है वो प्रभावित नहीं होता जैसे हमारी आंखे सभी रंगों को प्रकाशित करती है परंतु आंखों पर उन रंगों का कोई प्रभाव नहीं होता । हमारी आंखों के सामने चाहे एक वस्तु हो या हजार प्रकार की वस्तुएं, हमारे कान चाहे भगवान का नाम सुने या गाली, श्रवण शक्ति दोनों को ही सुनती है । ऐसा नहीं है कि कान गाली नहीं सुनते या गाली सुनकर खराब हो जाते हैं नहीं तो फिर गडबडी कहाँ है? गडबडी है हमारे मन में इंद्रियों की स्वतंत्र सकता नहीं है । जब तक हमारे मन के साथ करेंगे ना हूँ । इंद्रियों के नियमन करने के लिए । भगवान भगवत गीता में कहते हैं देवी द्विज गुरु प्राज्ञ पूछना शौच मार । जवाब ब्रह्मचर्य महिन् साज शरीरम् । तब उच्चतर देव, ग्रामीण और गुरु का पूजन, बाहरी तथा आंतरिक साफ सफाई, स्वभाव में सरलता, ब्रह्मचर्य का आचरन, अहिंसा ये सब वो कार्य है जिससे हमारी इंद्रियां धीरे धीरे विषयों से हटना प्रारंभ हो जाती है । अनुभव एक कर्म वाक्यं सत्यम प्रियतम शयद स्वाध्याय । आप जैसा नाम चैव वांगमय हम तब उच्यते । हमारी जिला एक ड्यूल बोपल इंद्रीय है । ये ज्ञान इंद्रीय भी है और कामेंद्रियां वहाँ पानी भी है । इसलिए यदि हमने अपनी जगह पर नियंत्रण पा लिया तो हमने पचास प्रतिशत तक इंद्रियों को नियंत्रन में कर लिया । ये मान सकते हैं किसी मनुष्य की जगह का वजन किया जाए तथा इस की पूरे शरीर का वजन किया जाए और दोनों का अनुपात निकाला जाए तो शायद जगह का वजन पूरे शरीर के वजन का हजार वह हिस्सा भी नहीं होगा । परन्तु ये विवाह पूरी जिंदगी आदमी को बहुत बुरी तरह ना चाहती रहती है । आप के दोस्त भी बनाती है और संसार में दुश्मनों का भी निर्माण करवाती है । जहाँ पर नियंत्रण लाने के लिए मैं दो दिन ज्ञान की साधनाएं बताता हूँ । इनको ट्राई करके आप काफी हद तक इसको नियंत्रन में ला सकते हैं । पहला कभी भी अनावश्यक ना बोले और बोलने से पहले एक बार अवश्य मन में विचार कर ले कि क्या ये बात बोलनी आवश्यक है । दूसरा कभी भी खाना खाने से पहले तथा खाना खाने के बाद खाने के बारे में ना सोचे और ना बात करें । तीसरा हमेशा दूसरों को आदरणीय शब्दों से संबोधित करें । आप तीनों बातों को यदि अपनाओगे तो धीरे धीरे आप मानी तथा रचना पर नियंत्रण पा सकते हैं । ये बात मैंने एक स्थान पर कहीं तो लोग कहने लगे कि ऐसे तो सब लोग होंगे ही हो जाएंगे । देखो भगवत गीता में भगवान कहते हैं मैं यहाँ प्रसाद हाॅग रहा । भाव सम शुद्धि रखती है । तब तो माने समुचे थे जो मलेशिया केले में शांत होकर कुछ देर नहीं बैठ सकता तथा जो बेकार के बाद विवाद से दूर नहीं रह सकता तो मुझे पाने का अधिकारी नहीं है । आप लोगों ने अक्सर सुना होगा कि माताएं बहनें अपने बहु की अथवा सास के बारे में बातें करती है तो क्या कहती है । वो कहती है देखो कहना नहीं चाहिए मगर कह देती हूँ अरे जब पता है कहना नहीं चाहिए तो फिर चुप रहो ना । हमेशा इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि जो शब्द दूसरों के मन में उद्वेग हलचल पैदा करे । विश अब हमें अपनी वाणी से कभी भी नहीं निकालनी चाहिए । हम हमेशा जब भी बोले तो दूसरों को आदरणीय शब्दों के साथ संबोधित करेंगे । इसमें फायदा हमारा ही होता है । जब हम मंदिर में जाते हैं तो भगवान के सामने हाथ जोडकर प्रणाम करते हैं । इसमें भगवान का क्या फायदा है? कुछ भी नहीं परंतु इसमें फायदा हमारा है । संस्कृत में श्लोक आता है । अत्यंत मालिन, ओदेह दही अत्यंत निर्मल माल इनसे मलीन व्यक्ति के दे । हमें जो परमात्मस्वरूप दही है वह अत्यंत निर्मल है । हम मूर्ति में भगवान को देखकर उसके आगे सिर झुका लेते हैं । तो क्या भगवान के द्वारा बनाई गई स्वयं भगवत स्वरूप अनिश्चित देह का हम आदर नहीं कर सकते । एक बार आप ऐसा करके तो देखिए इससे धीरे धीरे आप में आध्यात्मिक हृदय का निर्माण होगा और अपने स्वरूप को जाने की इच्छा स्वतः ही आप में आने लगेगी । लेकिन कई लोगों को हमने कहते हुए सुना है कि ये तो बहुत कठिन है अपनी नौकरी करते हुए व्यवसाय करते हुए हमें को झूठ बोलना भी पडता है । कडवे वचन कहने बढते हैं तो ये सब कैसे संभव है । देखो इंद्रियों का संबंध सीधे बहुत एक जगह से हैं और इंद्रियों का नियमन प्रथम स्टेज है । अच्छा ये बताओ कि पैसा हमारा कठिन है या सरल है । यदि पैसे कमाना आज के दौर में कठिन है ये बात तो सब लोग जानते हैं । तो आज तक किसी ने ये कहा है कि पैसा कमाना कठिन है इसलिए मैं पैसा नहीं कमाऊंगा नहीं । सभी लोग अलग अलग तरीके निकालते हैं, बढाई करते हैं, बहुत सारे काम करते हैं जिससे ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जाए । क्या हूँ क्योंकि पैसों का महत्व हमारे दिमाग में बचपन से कूट कूटकर भरा गया है । इसी प्रकार हमारे दिमाग में जिस दिन ये जाने की इच्छा हो गई कि हम कौन हैं, कहाँ से आए? क्या जीवन यही है? असली प्रसन्नता क्या विषय वस्तुओं तथा संबंधों से आ सकती है? उस दिन आप अपने आप बहुत सारे तरीके निकाल होगे अपने स्वरूप लगाने के । इसलिए जब तक आध्यात्म के प्रति महात्मा बुड्ढी नहीं है तब तक अच्छी बातें सुनो । भगवान का भजन करो, सच्चं करो, चिंतन करो और अपने कर्तव्य कर्म करते रहो । एक दिन स्वता ही आपके मन में जिज्ञासा उत्पन्न होगी । कुछ दिन से ये इंद्रियों के नियमन के बताए गए तरीके आपको बहुत ही सरल मालूम पडेंगे । अब दूसरा मणिका नियमन करोडों वर्ष की अवधि के बाद प्रकृति ने मनरूपी एक घटक का निर्माण किया है । जो लोग ऍम को मानते हैं वो ये समझ सकते हैं कि मनुष्य का विकास प्रकृति के द्वारा कैसे हुआ । मनसा सिद्ध देते इतनी मनुष्य जो मन के माध्यम से जगत में प्रकट होता है वह मनुष्य कहलाता है । मैन प्रकृति का मनुष्य को सबसे बेहतरीन उपहार है । लेकिन दूसरी ओर उपनिषद तथा भगवत गीता में ये भी आता है हाथ मैं वहाँ आत्मन् हूँ । बंधुरात्मैव रिपुरात्मन अहा । मनमाने शिखर सबसे बडा दोस्त भी है और मन सबसे बडा शत्रु भी है । भगवान कहते हैं इन हरियाणा मनुष्य आस में भूत आ नाम असमी चेतना इंद्रियों में मैं हूँ मन भगवान की विभूति है फिर हमारे लिए बंधन तथा दुख का कारण कैसे बन जाता है? भगवान कहते हैं बन्धुरात्मात्मनस्त्स्य येनात्मैवात्मना जीता अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्तेतात्मैव शत्रुवत् जो मैंने विषयों से बंधा हुआ है वो मैं दुख का कारण है और जो मंदिर विषय है वो मुख्य कारण है । तो समझदारी के साथ पहले हमें विषय वस्तुओं से उपर मत होना है फिर इंद्रियों में आ गए । इंडिया तभी कार्य करती है जब उनके साथ मान जुडा हो तो आप हमें मन में आये । अब हमें मान पर कार्य करना है और यहीं से आध्यात्मिक ज्ञान की सदर शुरू होती है क्योंकि मान के द्वारा इंद्रियों और इंद्रियों के द्वारा विषय प्रकाशित है । मन एक तरह से पुल है परमात्मा और संसार के बीच । यदि हमारा ये पुल ब्रिज ठीक हो गया तो समझ ले कि हम अपने स्वरूप के अत्यंत निकट पहुंच गए हैं । संसार में जब से हम आते हैं तब से हमें यही बताया जाता है कि काम करो, मन से पढाई करो, मन से खेलो, मन से नौकरी करो मन से लेकिन कोई भी ये नहीं बताया था कि ये मन किया है और क्या इस मन पर हमें कार्य नहीं करना चाहिए । जब मैं पंतनगर विश्वविद्यालय में था तो हमारे गुरूजी थे । वो नजारा जिम जाया करते थे । एक दिन मैंने उनसे पूछा सराब रोज जिम क्यों जाते हो? उन्होंने कहा, कसरत करने के लिए मैंने उनसे कहा कि मैं सुबह से शाम तक लेबॉरेटरी में काम करता हूँ तो मैं थक जाता हूँ । आप सुबह सुबह जिम जाते हो और फिर ऑफिस आकर दिन भर काम करते हो । आप थकते नहीं । वे बोले अगर मैं सुबह जिम ना जाओ तो मैं अवश्य थक जाऊंगा । मैं दिन भर के काम से नाथ को इसलिए मैं जब जाता हूँ । उस समय तो मैंने सर से बहस नहीं की लेकिन बाद में मैंने सोचा कि ऐसा कैसे हो सकता है की जिम में वो कसरत करते हैं तो क्या कसरत करने से आदमी थकता नहीं है? चिंतन करने के बाद मुझे इस तथ्य का पता चला कि जिम में हम शरीर पर कार्य करते है और ऑफिस में हम शरीर के द्वारा कार्य करते हैं । दोनों में बहुत फर्क है । इसी प्रकार हम जब जगत में व्यवहार करते हैं तो मन से कार्य करते हैं जिसके द्वारा हम संस्कार इकट्ठा कलेक्ट करते हैं । परंतु जब हम मान पर कार्य करना शुरू करते हैं तो हम मन में संग्रहित संस्कारों को हटाने का कार्य करते हैं जिससे हम अपने आप के नजदीक पहुंच जाते हैं । एक उदाहरण से और समझने का प्रयास करते हैं । कुछ दिन पहले मैंने अपनी एक कॉटन की कमी शॉर्ट हुई और जब सुखाई तो उसने बहुत सारी सेल बातें पड गई जिससे वो इतनी प्यारी सी कमीज बहुत ही खराब दिख रही थी । फिर मैंने सोचा कि इस कमीज पर प्रेस कर लेता हूँ । फिर मैंने उस कमीज की बढिया से स्त्री का डाली और वह कमीज फिर से बहुत ही सुंदर दिखने लगी । ये शायद आप लोगों ने भी कभी ना कभी अनुभव किया होगा परंतु मैंने उससे दो बहुत अच्छी चीज सीखी । पहला क्या वास्तव में सलवटें नाम की कोई वस्तु होती है और अगर नहीं होती तो वह दिखती क्यों है? और यदि होती है तो स्त्री करने के बाद वो कहाँ नहीं । यह संसार भी उन सलवटों की तरह है, ये दिखता है, अनुभव होता है परंतु होता नहीं वरना ये नित्य नींद में कहाँ चला जाता है और देह की समाप्ति के बाद यह संसार कहाँ चले जाएगा? सलवटों के साथ वह शर्ट भर्ती दिख रही थी लेकिन जब हमने टेढी मेढी सलवटों को निकालकर उसकी जगह कृ इस नाम की एक सलवार डाल दी तो वह शर्ट अपने सौंदर्य स्वरूप में आ गई । ठीक उसी प्रकार मन में करोडों वृत्तियां हैं जिसके कारण मन शांत होता है, दुख का कारण बनता है और बुढापे में जाकर हैंग हो जाता है । परन्तु यदि हम इन सभी व्यक्तियों को एक ही दिशा में मोड दे तो फिर मन रहता ही नहीं है । जिस ज्ञान में वृत्तियां नहीं होती उसी को चैतन्य कहते हैं । फिर जो आनंद और सौंदर्य प्रकट होता है वह भगवत स्वरूप होता है । मान के बारे में हम लोग पूर्व में चिंतन कर चुके हैं कि मन की अपनी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं होती है । इसमें जैसे आप इनपुट डालेंगे, वैसे ये परमात्मा तत्व चयन करने के प्रकाश में कार्य करेगा । हम यहाँ पर मन को अपने पर हावी होने से कैसे रोक सकते हैं इस पर चिंतन करेंगे । ये मन हमारा है । हम इसको एक दोस्त की तरह भी रख सकते हैं और एक मजदूर की तरह दबाकर भी रख सकते हैं । पर कभी कभी ये मान हम पर हावी हो जाता है । जी हां, हम पर ही हाँ जी यह हम पर निर्भर करता है । लेकिन इस संसार के अच्छे बुरे जो भी अब हमें आते हैं वो मान के कारण ही है । लेकिन एक बात बहुत स्पष्ट है कि मान हम नहीं है, मान हमसे अन्य हैं । जब ये हम से अन्य है तो मन चाहे दुखी हो या सुखी, हम पर कोई प्रभाव नहीं पढना चाहिए । लेकिन ऐसा नहीं होता । कुछ उदाहरण लेते हैं यह थोडा आपको विचित्र लगेंगे परंतु यही सत्य है । पहला उदाहरण जहाँ हम पहले रहते थे वहाँ हमारे पडोसी थे । वे शाम के समय ज्यादातर मदिरापान में रहते थे तो एक दिन शाम को अपने आराम से टीवी पर गाने चलाकर दारू पी रहे थे । जब अपना काम खत्म करके खाना खाने लगे तो उनके घर से फोन आया कि उनकी माताजी का स्वर्गवास दो घंटे पहले हो गया है । जैसे ही उन्हें फोन आया वह जोर जोर से रोने लगे और उसी समय गाडी बुलाई तथा अपने घर चले गए । अब आप लोग सोचेंगे इसमें क्या है? उस दिन मैंने मान के बारे में बहुत कुछ जाना । दूसरा उदाहरण एक दिन ऑफिस में कुछ प्रोजेक्ट प्रजेंटेशन चल रहा था तो एक वैज्ञानिक महोदय कुछ परेशान से बैठे थे तो हमारे निर्देशक ने उनसे कहा आॅड तो वैज्ञानिक मुस्कुराए और कहा नहीं सर, ऐसी कोई बात नहीं है । फिर वैज्ञानिक महोदय का प्रजेंटेशन आया और वह किसी बात पर गलत बोल गए तो हमारे निर्देशक ने उस समय ऐसे ही कह दिया मैं बस फिर क्या था ये मोहरे ऐसे नाराज हो गए । तरह गुस्सा आ गया कि उनका चेहरा लाल हो गया । फिर हमारे निर्देशक ने उन्हें सौरी बोला तो वो थोडा शांत हुए । तीसरा उदाहरण एक बार मेरे हाथ में एक फोडा हो गया जो काफी भयानक हो गया था तो मैं डॉक्टर के पास गया तो डॉक्टर ने कहा कि इसके अंदर काफी गंदगी भरी है । इसे चीरा लगाकर निकालना पडेगा । हमने कहा ठीक है निकालो । फिर डॉक्टर बोले कि मैं आपको लोकल एनिस्थीशिया दे देता हूँ तो आपको दर्द नहीं होगा और आपसी देख भी लेना कि हमें कैसे करते हैं । डॉक्टर एक इंजेक्शन लगाया और मेरा हाथ केमिकल मेडिटेशन में चला गया । फिर डॉक् ने उसे काठा दबाया और खूब फस निकालकर पट्टी बांधी और हम अपने घर आ गए । अब हम इन तीन उदाहरणों के द्वारा मन को समझने का प्रयास करते हैं । पहले उदाहरण में हमने ये सीखा कि सुख दुख की केवल अपने मन की कल्पना है । हमारे जितने भी रिश्ते नाते है । उनका हमसे कोई सीधा कनेक्शन नहीं है । जैसे लाइट बिल का स्विच ऑन ऑफ करो तो बाल चलेगा तथा बंद होगा क्योंकि वहाँ डिरेक्ट कनेक्शन है परन्तु हमारा इस जगत के विषय वस्तु संबंधों से ऐसा नहीं है । अगर किसी आदमी को एक करोड की लॉटरी भी लग जाए और मन वहाँ नहीं है तो सुख नहीं है । और यदि किसी व्यक्ति के संबंधी की मृत्यु हो जाए और मन नहीं है तो दुख नहीं है । सुख दुख बाहर कहीं नहीं है । ये तो केवल भ्रांति है कि वह पैदा हो गया, वो मर गया । जब तक हम उस विषय के साथ तादात में नहीं करते, हमें कोई भी दुखी नहीं कर सकता हूँ । दूसरा उदाहरण ये सीखा की साइड और मार्टिन शब्दों में इतना अंदर कैसे आ गया । इसकी जगह एम कर देने से जैसे पूरे हालात ही बदल गए । ये केवल अंग्रेजी वर्णमाला का एक अक्षर ही तो है क्योंकि हमारे मन में साइड को लेकर एक अलग ही भाव जुडा है और महान को लेकर दूसरा और ये हमने इसी संसार से सीखा है । लेकिन जिस बच्चे को साइड और माँ का अर्थ नहीं मालूम, तुम उसे कुछ भी कहते रहो, उस पर कोई प्रभाव नहीं है । हमारा मन हमें इन विषयों के साथ जुडकर हमको सुखी दुखी बनाता है । जबकि हम तो मन से अलग है ना । तीसरा उदाहरण ये सीखा कि आज तक जितने भी दुख हमें इस देह को लेकर हुए हैं ये दुख देख को नहीं होंगे बल्कि हमारे मन में हुए हैं । लेकिन क्योंकि मन को हमने अपना माना इसलिए हमें लगता है कि जो भी कुछ मन को हो रहा है वह मुझे ही हो रहा है । परन्तु जब मन पर कार्य करना शुरू करते हैं तो हमें पता चलता है कि हमारी सत्ता मन से सादा ही अलग थी । इसी को देखा तो भाव का त्याग करना कहते हैं और यही ज्ञान कि आध्यात्मिक साधना है । एक बार मैं यह स्पष्ट कर दूँ हम जब तक अपने को इस देह और मन से अलग देखना प्रारंभ नहीं कर देते आप कुछ भी कर लूँ आपको यह संसार परेशान करेगा ये देख परेशान करेगा और आप मनोज साल से कभी भी बाहर नहीं आ सकते हैं । तो अब ये सवाल आता है कि ये कहने के लिए तो ठीक है कि देहातों भाव का त्याग करो लेकिन प्रैक्टिक की ये कैसे संभव है । भगवान भगवत गीता में मानसिक तब के बारे में बताते हैं मैं यहाँ प्रसाद हर सोम में त्वम् मान मात्रा में नहीं रहा । भाव संशोध ई रिक्तियां तक को मान समझते मन में प्रसन्नता, सौमिता मौन मन पर नियंत्रण तथा पुराने संस्कारों को मिटाना तथा नए संस्कार का निर्माण न होने देना ये मान के तब है । इन्हीं के द्वारा हम पहले रिहा, आत्मभाव तथा अंत में जीवात्मा भाव का भी त्याग कर सकते हैं और अपने भगवत स्वरूप को वापस पहचान सकते हैं । जिस प्रकार एक तांबे के बर्तन पर मैं जम जम के वह काला पड जाता है और हम रगड रगड कर उसे साफ कर देते हैं तो वो फिर से समझ जाता है क्योंकि वह चमक उसका अपना स्वरूप है । हमने वह चमक पैदा नहीं कि बस हमने मैं हल्की परत को हटा दिया । उसी प्रकार भगवान कहते हैं की है अर्जुन श्रृति प्रति पन्ना ज्यादा स्थास्थ्य दीनेश चला । समाधान चला बुद्ध इस तरहा योगम वापसी तूने अपने दिमाग में बहुत सारा कूडा करकट भर रखा है । पाप दुनिया, जन्म मरण स्वर्ग नरक पहले इन सबको तो अपने दिमाग से निकाल फेंक तब देख तुझे हर जगह हरशरण मैं ही देखूंगा । मैं आपको कुछ भी दिया बता सकता हूँ जिनके द्वारा आप व्यवहारिक तरीके से मन से परे जा सकते हैं । ये कोई साधारण विधिया नहीं है । वे सभी उपनिषद भगवदगीता के इतने साल के अध्ययन तथा मैंने खुद अपनी जीवन में उतारी है । अभी एक एक करके हम इन विधियों का चिंतन करेंगे । मन का कार्य मनीष यदि हमें क्या है ये जीवित कैसे रहता है? मान के रहने के लिए तीन प्रमुख भोजन है । पहला भूतकाल के मुद्दों को उखाडना, दूसरा भविष्य को लेकर व्यर्थ की चिंता तथा तीसरा वर्तमान में अन्य के साथ तुलना । ये तीन कार्य मन करता है और इन्हीं से वो जिंदा रहता है । इसलिए सबसे पहले हमें ये करना है कि किसी से भी ना उसके भूतकाल के बारे में पूछे और न कभी अपने भूतकाल के बारे में किसी से बात करें । क्योंकि भूतकाल देखता है हमारा नहीं । हम तो वहीं है जो बचपन में भी थे, जवानी में भी थे और बुढापे में भी रहेंगे तथा देख के बाद भी रहेंगे । भविष्य को लेकर चिंता सबसे खतरनाक चीज है । अध्यात्म भूत, भविष्य देख के होते हैं । अगर भविष्य में कोई बात ऐसी होने वाली है जो अप्रिय है तो उसके लिए तैयार रहो अन्यथा भविष्य के बारे में कभी भी नहीं सोचना चाहिए और एक बात अच्छी तरह से जान लें कि जो भी आप इस वक्त हुई आपका खुद का बनाया हुआ है । इसलिए वर्तमान में कभी भी किसी को अपनी हालत का जिम्मेदार नाथ है । राइट ऍम जो भी हमें संसार में करते हैं उसकी जरूरत किसी को नहीं है । जो भी हम करते हैं वो अपनी जरूरत है । उपनिषद में आता है आत्मरस तू काम आएँ, सर्वम् प्रियम भवति ये अपने दिमाग से निकाल देखी । आप किसी के लिए कुछ कर रहे हैं या किसी को इस की जरूरत है । वरना बुढापे में मैंने लोगों को कहते हुए सुना है कि हमने अपने बच्चों के लिए इतना की और वो मुझे पूछते नहीं । देखो बहुत स्पष्ट बात है माँ बाप को बच्चों की जरूरत होती है बच्चों को नहीं । तभी तो जिनके बच्चे नहीं होते वो दुःखी होते हैं और फिर बच्चों से हजारों इच्छाएं पाल लेते हैं । यही आशक्ति आगे दुख का कारण बनती है । किसी भी व्यर्थ के बाद विवाद में ना पडे इसके लिए भगवान मौन का तब बताते हैं । लेकिन मौन का मतलब ये नहीं है कि हम अन्य से तो नहीं बोलेंगे लेकिन अपने मन में हमेशा वृत्तियों का तूफान लेकर घूमते रहेंगे । मौन ये वाणी की तब नहीं है या माने का तब है जो मनुष्य शांत सहज है । वो अपने आप से कम बोलता है और अन्य से उतना ही बोलता है जितनी जरूरत हो । कभी भी अन्य के कारण दुखी ना हो गए । जो अन्य संबंध और संग्रह वो अपनी देख के कारण दुखी होता है उसे भगवान भी प्रसन्ना नहीं कर सकते हैं । इसलिए हमेशा प्रसन्न रहना ये भगवान की सबसे बडी भक्ति है । लेकिन यह प्रसन्नता किसी विषय वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति पर अवलंबित नहीं होनी चाहिए । हम आनंदस्वरूप है कि अपने स्वरूप की प्रसन्नता है जो हमारे माध्यम से प्रकट हो रही है । हमें संसार में दुखी होने के लिए नहीं आया लेकिन ये बात हमारी समझ में तभी आएगी जब हम जीवन के आधारभूत नियमों को समझेंगे । आखिरी बात ये बात शायद थोडा आपको अजीब लगे परंतु यही सत्य है । संसार में अगर सब से बडा कोई रोग है तो वह है दूसरों को सुधारने का । ये सो कॉल्ड समाजसेवा का कभी भी सोशल वर्कर बनने की कोशिश ना करें । ऍम एक बहुत बडे महात्मा हो गए जिसका नाम था निसर्ग दास महाराज । उन्होंने कहा था, दोस्त उठ राइट आॅफ देखो एक बात बहुत अच्छी प्रकार समझ लेनी चाहिए कि यह संसार पहले भी ऐसा ही था । अब भी वैसा ही है और हमारे जाने के बाद भी वैसा ही रहेगा । भगवान राम आए चले गए कहाँ है रामराज भगवान कृष्ण आए कुछ नहीं कर सके महाभारत फिर भी हुआ यह वंश का नाश फिर भी हुआ द्वारिका फिर भी जल में डूबी भगवान बुद्ध आये अहिंसा का पाठ पढाया लेकिन फिर भी यह संसार ऐसा ही है । इसके चक्कर में ज्यादा नहीं पढना है । भगवान भगवत गीता में कहते हैं उदवीर दाद मनाते मानम नात्मानमवसादयेत् आत्मैव ह्यात्मनो बंधुरात्मैव रिपुरात्मन अहा हमें संसार में अपना उधार करने आए हैं । जगत में आप चाहे कोई भी काम करें लेकिन अगर उस कार्य के द्वारा आपके मन पर जरा सी भी खराब हो जा रही है तो वहाँ से तुरंत निकल जाओ । कर्तव्य कर्म करने को यज्ञ सामान बताया गया है । कर मना करने के बजाय कर्म करना श्रेष्ठ होता है । ये उपनिषद में बताया गया है । लेकिन कर्म करके उसका फल मिलेगा तब हम खुश हो जाएंगे । ये नहीं होना चाहिए । अगर हम दारू नहीं पीते हैं तो हमारे लिए समाजसेवा मतलब किसी को भी दारू नहीं पीनी चाहिए । हम यदि मांस मच्छी नहीं खाते तो समाज सेवा का मतलब सबको घास खानी चाहिए । अपनी बात मनवाना ये दुराग्रह है । असली समाजसेवा वह है जब हमारे माध्यम से सब कुछ होता है और हमें ये भी पता नहीं होता कि क्या ये मेरे माध्यम से हुआ है । अगर एक बार ये एनजीओ नॉन बॉडी ऑर्गनाइजेशन के चक्कर में पड गए तो फिर हम ने ये किया हमने वह क्या हम बेहतर है दूसरा खराब है बस वहीं संसार से फिर से शुरू और आदमी को अहंकार हो जाता है हमारे जैसा कौन है आरडीओ भेज नवान असमी को न्यूज तीस दृश्यों मया यक्षी दासियाँ मीमो देश्य ऍम विमोहित आहा किसी जगह बहुत ही सुंदर वह के लिखा था नो बडी फॅसने वहाँ भी जो जीवन में कुछ बना है वह दुखी है और जो कुछ नहीं बना वो सादा खुश है । आदमी कभी देखी नहीं होता जब जब हम दुखी होते हैं उस वक्त हम कुछ न कुछ बने होते हैं जैसे ऑफिस में कौन दुखी है फॅार में कौन दुखी है? एक पति पुत्रिया एक बेटा आदमी कभी दुखी नहीं होता ये जो बनावटी है ये हमेशा दुखी होता है । इसलिए पूरी आध्यात्मिक साधना में जो बनावटी है उसे छोडो एक आदमी मात्र बन जाए । यही है इसके लिए करना कुछ नहीं है । बस समझना है कि सत्य किया है और बनावटी क्या है । ऍम अगर आपने यहाँ बताई हुई बातें कर ली तो धीरे धीरे आपका मन चैतन्यमय खोलना शुरू हो जाएगा । ठीक उसी प्रकार जैसे एक बर्फ का टुकडा पानी में बिना आवाज किए घुलने लगता है । फिर आप संसार में वैसे ही रहोगे जैसे पहले रहते थे । परन्तु अब आप के माध्यम से परमात्मा ही प्रकट होगा । आप सभी कार्य करोगी लेकिन करता पैदा नहीं होगा । यही है ज्ञान के साथ था तो चलिए बुद्धियोग साधना बुद्धि का नियमन । इस संसार में दो तरह के मनुष्य होते हैं । पहला इंटेलिजेंट यानी कि समझदार, दूसरे ऍम बुद्धिमान ॅ । जो समझदार आदमी है वो कभी दुखी नहीं होता है क्योंकि उसके फंडामेंटल्स बिल्कुल क्लियर होते हैं और समझदारी की नहीं । बातों को भगवान भगवत गीता में अर्जुन से कहते हैं, ध्याये तो विश्व यान पंद्रह संगती शुरू बजाए थे संघात सन जायती कम से कम आठ करोड हो जाए थे । क्रोधाद्भवति समूह सम्मोह हाथ स्मृति विभ्रम अहा स्मृति भवन शायद बुद्धिनाश ओ बुद्धिनाश शायद प्रणश्यति बहुत ही साफ साफ बताया गया है । आप जितना संसार के विषय वस्तुओं के बारे में सोचेंगे, उतना उन के प्रति आकर्षण पैदा होगा । आकर्षण के कारण उन विषयों को पाने की कामना पैदा होती है । फिर कर्म के द्वारा यही कामना पूरी हो गई तो और पानी की इच्छा लोग पैदा होता है और यही कामना पूरी नहीं हुई तो क्रोध उत्पन्न होता है और क्रोध मनुष्य में समूह लूजन पैदा करता है, जिसके कारण आपके अच्छे बुरे कार्य को सोचने समझने की शक्ति हर ली जाती है । इसी के कारण बुद्धि का नाश हो जाता है और जिसमें बुद्धि का नाश हो गया, उसका पतन निश्चित है । ये बहुत ही सरल इक्वेशन है । इसको शायद हम सब लोग जानते हैं । आजकल तो गूगल तथा वह साहब महाराज पर सुबह सुबह इतना ज्ञान मिलता है । लगता है कि किसी साधु महात्मा, आध्यात्मिक गुरु की जरूरत ही नहीं । फिर भी रोज अखबार अनेक अप्रिय घटनाओं से भरा होता है । ऐसा इसलिए होता है कि वह ज्ञान पुस्तक से उतरकर मस्तक में नहीं जाता । मैंने किसी पुस्तक में पढा था । जिस समाज में कार्यपालिका, इन्द्रियाँ, भ्रष्ट को तो वह समाज फिर भी चल सकता है और जिस समाज की सरकार के मंत्री लोग मान भ्रष्ट हो तो वहाँ भी लोग जैसे तैसे गुजारा कर ही लेते हैं । बरिंदरजीत समाज की न्यायपालिका बुद्धि भ्रष्ट हो गई उस समाज का सत्यानाश होना निश्चित है । भगवान कहते हैं इंद्रियाणि परानिया हो रेंद्र ये यहाँ पर हम मना मना सस्ती ऊपर अब धीरे जो बुद्धे है प्रकाश दूसरा हा इंद्रियों से परे मन है, मन से परे बुड्ढी है परंतु बुद्धि से भी बडे ये कामना है इसलिए जब तक काम ना पर विजय नहीं मिलती है तब तक सब व्यर्थ है और कामरा पर विजय केवल बुद्धि द्वारा ही मिल सकती है क्योंकि बुद्धि में परमात्मा का प्रतिबिंब बचत आभास के रूप में पडता है । हम लोग जीवन का प्रेरक किसे मानते हैं सब कुछ इस बात पर निर्भर करती है । हमारे जीवन का प्रेरक कम है या श्याम है । यदि प्रेरक कम है तो आप कभी भी ये नहीं समझ पाएंगे कि एक पशु के जीवन जीने में और एक मनुष्य के जीवन जीने में अंतर भी हो सकता है और जीवन का प्रेरक श्याम हो तो बस थोडा बुद्धि को कामना से हटाकर देखिए परमात्मा तो आप किसी कामना के पीछे आराम से बैठे वन से हो जा रहे हैं । भगवान ने भगवत गीता में बुद्धियोग की बहुत ही तारीफ की है और इसको सत्यम योग का नाम दिया सत्व माने सब में समान भाव से उसी परमात्मा को देखना विद्या विनय कंपनी ग्रामणी गवी हस्तिनी शुनि चैव शिवप्पा केचप पंडिता हा समदर्शन हा जो विद्यावान ज्ञानीजन मनुष्य है वो एक ब्रामण गाये हाथ चांडाल तथा कुत्ते में कोई अंतर नहीं देखता हूँ उस सब में उसी परमात्मा को ही देखता है । भौतिक जगत में हम जिनको ज्ञानी स्कॉलर कहते हैं, अगर उसके पास की दृष्टि नहीं है तो उसकी बुद्धि अभी शुद्ध नहीं है । चाहे वो कितनी भी नोबल प्राइज क्यों ना जीत ले । वो बुड्ढी परमात्मा तत्व को नहीं पड सकती है परंतु जिस दिन आप को ये समझ में आ गया कि हर जगह परमात्मा ही है वहीं प्रकट हो रहा है उस दिन समझ लेना कि हमको दिव्यदृष्टि प्राप्त हो गई है । लेकिन अभी हमारे भेद बुद्धि है, हम परमात्मा में भी भेद करते हैं । ये राम है वही है जो लोग रामायण और कुरान को लेकर मंदिर तथा मस्जिद को लेकर झगडा करते हैं । शायद ही उन्होंने कभी रामायण या कुरान उठाकर भी देखी हो । ईशावास्योपनिषद कहता है आवासीय मैडम सर्वम् यत्किंचित जगत्यानी जगत तीन तीन तीन भज्जी जगहा माँग रह रह कस्ट धना यह संसार परमात्मा से ओतप्रोत है । यह संसार भगवान की विभूति है परंतु भेद बुद्धि के कारण हम उसे देख नहीं रहे हैं । हम लोग कहते हैं कण कण में भगवान है, ये भेद बुद्धि है, कनगन भगवान में है, ये समबुद्धि है । ठीक उसी प्रकार जैसे हम कहते हैं कि समुद्र में पानी बहुत गहरा है । अब जरा सोचिए की बारे में समुद्र है या समुद्र में पानी । पानी में समुद्र पानी में ही लहरें हैं लेकिन हमारी बुद्धि इसको पकडा नहीं पाती । ये वही सत्य मान लेती है जिसको इंद्रियों द्वारा दिखाया जाता है । इसलिए हमको बुद्धियोग के लिए पहले अनेकता में एकता को पकडने की कोशिश करनी होगी क्योंकि अनेकता केवल अ वो पा अधिक है । द्वैध सत्य नहीं है । अद्वैत ही परम सकते हैं उसे एक तत्व को पकडने के लिए । मैं आपको कुछ विधियां बताता हूँ । आप इसका अभ्यास वाइस पर चिंतन कर सकते हैं । जैसे पहले भी बताया गया है कि हमारा अस्सी से नब्बे प्रतिशत ज्ञान हमें हमारी दो इंद्री दृष्टि और श्रवण शक्ति के द्वारा ही होता है । पहली है दृष्टि के द्वारा अपनी बुद्धि से सब में एक तत्व कैसे देखें इस पर चिंतन करेंगे । सामान्यतः देखा जाए तो अपनी दृष्टि में परिवर्तन लाना ही आध्यात्मिक साधना है । एक औरत को देखने का नजरिया सबका अलग अलग होता है । एक पुत्र उसी औरत को बहुत ही आदर से देखता है । एक भाई उसे औरत को अलग भाव से देखता है और एक साथ उस भारत को देखना भी नहीं चाहती । ऐसा क्यों? क्योंकि अलग अलग रिश्तों के साथ अलग अलग भाव जुडे हैं । लेकिन वो एक औरत है इस भाव से उसे कौन देखता है? शायद वो स्वयं रूपरंग के कारण इन्द्रियाँ ढक गई है । इंद्रियों के कारण मैंने ढक गया है मान के कारण जागृत स्वपन सुषुप्ति समाधि ढकी गई है तथा इन चारों अवस्थाओं के कारण वो ढक गया है जो इन सबका आधार है । रंग रूप हजारों है परंतु इन सभी का प्रकाशक दृष्टि ये सभी मनुष्यों में एक जैसी है और इस दृष्टि को खास बात ये है कि ये बिना रंगरूप के रहे ही नहीं सकती । जहाँ दृष्टि को रंगरूप नहीं दिखता, वहाँ ये दृष्टिभ्रम के कारण स्वयं ही रंगरूप का निर्माण कर लेती है । उदाहरण के लिए अनंदा आकाश को अगर हम ऊपर की ओर देखे तो हम आज समानी नीला रंग दिखाई देता है । जबकि हम जानते हैं कि आकाश कोई रंग नहीं होता । ठीक उसी प्रकार जब हम आंखे बंद कर लेते हैं तब भी हमें एक रंग दिखाई देता है । काला रण करन की दृष्टि बिना रंग के है ही नहीं । इसलिए ये भी कहा नहीं जा सकता कि रंग रूप के कारण दृष्टि है या दृष्टि के कारण रंगरूप है । यहाँ पर कार्यकारण मिथ्या साबित हो जाता है । हम जब बहुत से रंगरूप देखते हैं तो हम क्या देखते हैं? हम उस वस्तु से परिवर्तित प्रकाश को देखते हैं जो कि हमारी आंखों की रेटीना पर एक उलटा प्रतिबिंब बनता है । हम उसको देखते हैं, वो भी अपने अंदर बाहर । हम कुछ नहीं देखते हैं तो सभी रंग रूप को प्रकाशक हो गया । प्रकाश तथा सभी आकारों का आधार हो गया । आकाश अगर प्रकाश और आकाश न हो तो रंगरूप संभव ही नहीं है । जवाब किसी भी वस्तु का आकार, प्रकार, रंग रूप अपने भीतर देखते हैं । तो फिर काला, गोरा, छोटा बडा ये सब आपके अंदर है, बाहर नहीं है । इसलिए आप जब बाहर की विषय वस्तुओं को देखें तो ध्यान हमेशा जो प्रकाशक है उस पर होना चाहिए । इन फिजिकल वर्ल्ड ऍप्स पीती हूँ । जब हमारा ध्यान प्रकाशित वस्तुओं से हटकर प्रकाशक पर जाना शुरू हो जाएगा तो ये विषय वस्तु के होते हुए भी ये हमें परेशान नहीं करेगी । इसके लिए आप एक अंधेरे कमरे में बैठे रोशनी की एक भी किरण कमरे में न आ रही हो । अब आप आंख खोलकर बाहर कि चीजों को देखने का प्रयास करें । कुछ नहीं देखते हुए भी आप देख रहे हैं इसको कहते हैं अद्वैत साधना । दूसरा तथ्य इस बारे में ये हो सकता है हमें वस्तुए अलग अलग क्यों दिखाई देती है । मान लो एक दीवार है बिल्कुल सफेद रंग की । उस पर एक लाल रंग की पेंट की एक पट्टी है एक नीले रंग की और एक पीले रंग की । इस पर आपसे कोई पूछे की दीवार पर कितने रंग है तो आप कहेंगे तीन रंग लाल, नीला, पीला लेकिन ये अलग अलग रंग सफेद दीवार के कारण दिख रहे हैं । उस तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता है । अब अगर दीवार लाल कर दी जाए तो जो लालपट्टी थी वो नहीं दिखेगी । इसलिए जितने भी रंग हमें देखते हैं वो किसी आरे स्थान पर अध्यारोपित होते हैं जिसके कारण रंग अलग अलग दिखते हैं । थोडा इसको और समझने का प्रयास करते हैं । आप एक बडे पात्र में दस छोटे छोटे कटोरी रखिए और दस कटोरियों में पानी डाली और बडे पात्र को दस कटोरियों सहित रात में बाहर रखकर चंद देखने का प्रयास कीजिए । अब आपको अलग अलग कटोरी में दस अलग अलग चंद देखेंगे तो क्या चंद दस बन गए नहीं । अब आप बडी पात्र में पानी डाले । जब तक की कटोरिया उसमें डूब नहीं जाती तो अब आप बडे पात्र में एक ही जान देखेंगे । यही हमारे साथ भी हुआ है । परमात्मा का प्रतिबिंब सभी प्राणियों में सामान्य है । बस सब का पात्र अलग अलग है । हमें इसी बात को समझना है । यही ज्ञान की साधना है । दूसरी है श्रवण शक्ति । श्रवण शक्ति के द्वारा अपनी बुद्धि से सब में एक तत्व कैसे देखें हम लोग आगे बंद करके रंग रूप से जो आपने दृष्टि को हटा सकते हैं लेकिन हमारी श्रवण शक्ति को हम बंद नहीं कर सकते हैं । श्रावण में अध्ययन कैसे पाए ये एक बहुत कठिन प्रक्रिया है परन्तु अगर थोडा बुद्धि का प्रयोग करके चिंतन करें तो ये बहुत ही सरल हो जाती है । एक उदाहरण से समझाते हैं महान लिया में चार बार कहता हूँ राम राम राम राम । अब आप चिंतन करो कि ये रामशब्द हमें चार बार क्यों सुनाई दिया? क्योंकि जब मैंने पहली बार राम कहा तो राम कहने के बाद कुछ देर फिर शांति थी और इसी प्रकार हर एक शब्द के बाद कुछ शांति थी । अब दो बातें सोचने वाली है । पहली क्या जो रामशब्द कहने के बाद वाली पहली शांति थी वह दूसरी शांति से भिन्न थी तथा दूसरी अगर दो शब्दों के बीच यदि शांति न हो तो क्या हमें शब्द अलग अलग सुनाई दे सकते हैं? शांति एक है । अशांति शब्द अनेक है परंतु शांति शांति के बिना संभव ही नहीं । थोडा ध्यान देना पडेगा इस बात पर यहाँ अभाव भी भावात्मक है । अभाव एक ही होता है जो भाग में भी है परंतु भाव से प्रभावित नहीं होता और जो अभाव में भी है परंतु जिसका अभाव नहीं होता वो जो भाव अभाव के परे हैं वो अपना स्वरूप है । शब्द का आभाव होता है शांति का नहीं । काम, क्रोध, लोग मोहम्मद मात्सर्य के अभाव को शांति कहते हैं । अगर शांति अब भावात्मक होती तो इस की प्राप्ति का प्रयास संभव ही नहीं होता परंतु ऐसा नहीं है । शांति के कारण शांति का निर्माण होता है । अशांति कारण शांति का नहीं, शांति एक है । अशांति अनेक है परंतु एक ऐसी शांति है जो शांति के कारण बढती नहीं है और अशांति की विरोध ही नहीं है बल्कि दोनों का आधार है । उसी को प्रशांति कहते हैं । इसी कारण जिस जगह हमारे शिरडी साईं बाबा का मंदिर है उस जगह को प्रशांती निलायम कहते हैं तो हमेशा शांति पर ध्यान देने का प्रयास करे जो सभी शब्दों का आधार है लेकिन शब्दों से प्रभावित नहीं है । इसको कहते हैं अभाव में भाव की साधना । आप जब इसका उच्चारण करते हैं तो ये ध्यान देखिए कहाँ प्रकट हुआ और कुछ समय रहने के बाद ये कहाँ चला गया । आप पाएंगे कि ये जहाँ से प्रकट हुआ था वापस ये वहीं लौट जाता है । इस ध्यान की साधना का अभ्यास करते करते हम लोग धीरे धीरे शब्दों के कारण परेशान होना बंद हो जाएंगे और स्वतः ही आभास होगा कि मैं ही हूँ । जगत को प्रकाशित कर रहा हूँ परन्तु मैं किसी से प्रभावित नहीं हूँ । इसी को कहते हैं बुद्धियोग या बुद्धि की साधना । यहाँ पर ये बात स्पष्ट करना आवश्यक हो जाता है कि ज्ञान जब तक पुस्तक में रहता है तो हम को प्रभावित नहीं करता और उसका उपयोग भी हमारे लिए कुछ नहीं होता । परंतु कभी कभी जब ये ज्ञान पुस्तक से हटकर मस्तक में आता है तो आदमी को उसका अभिमान हो जाता है । फिर दो बातें होती है ऐसा अभिमानी व्यक्ति या तो वो आधा पक्की ज्ञान को उल्टी प्रवचन के रूप में लोगों को सुधारने के लिए लगा देता है । यहाँ फिर उसके मन में यह भाव आ जाता है कि हमारे के जैसे नहीं, तबला पेटी लेकर हमेशा गाने गाते रहते हैं । हम भला मंदिर क्यों जाए? हम तो ज्ञानी है, पूजा पाठ क्यों करना? जब हमें इसका दाद पर यह पता है और हम लोगों की जैसे नहीं है । मांस मदिरा उल्टी बात करते रहते हैं और कई बार तो लोग ये भी कह देते हैं कि अब तो मैं ज्ञानी हो गया हूँ । अब जगत में कार्य करने का मन नहीं लगता, आप कार्य कर के क्या करेंगे? ये लोग होते हैं जिन्होंने सिर्फ ज्ञान सुना तो है परंतु उस पर चिंतन मनन और निधि रिया आसन नहीं किया । इनके लिए आध्यात्म पॉजिटिव एनर्जी की जगह नेगेटिव एनर्जी का काम करता है क्योंकि ज्ञान अभी बच्चा नहीं, किसी को कहते हैं मुँह कॉन्स्टीपेशन । एक बार एक चालीस पचास साल के युवक ने मुझसे पूछा कि मैंने भगवद्गीता पढी, उसमें भगवान कृष्ण नहीं तो हमेशा अहम की बात करें तो मेरी पूजा कर तो मेरी शरण में आ जाओ । मेरी भक्ति कर मैं ये कर दूंगा, मैं वो कर दूंगा । क्या भगवान कृष्ण अहंकारी नहीं थे । मैंने उनसे सीधे यही कहा कि आपको स्पिरिच्युअल कॉन्स्टिपेशन हो गया है । आप जल्दी से इसका इलाज कीजिए । पढना ही हानिकारक साबित होगा । मैंने उन महोदय से ये पूछा कि क्या भगवत गीता में कहीं पर भी ये लिखा है कि श्री कृष्णा हुआ आज नहीं कृष्णा नाम भगवत गीता में केवल दो जगह आया है । एक जब भगवान कहते हैं की दुश्मनी गोत्र में उत्पन्न वालों में मैं कृष्ण हो तथा दूसरा जब संजय बिल्कुल अंतिम श्लोक में कहते हैं यत्र योगेश्वर अहा कृष्णा हूँ । एक जगह भगवान श्रीकृष्ण को भगवान की विभूति बताते हैं तथा दूसरी जगह संजय भगवान को कृष्णा नाम से संबोधित करते हैं । सभी जगह या तो अहम शब्द प्रयोग किया गया है या श्रीभगवानुवाच शब्द प्रयोग किया गया है । जैसे कि पहले भी बताया जा चुका है । हमारे जीवन का प्रयोजन यही है कि हमारे माध्यम से परमात्मा प्रकट हो सके । जब श्री कृष्ण अर्जुन को भगवत गीता का ज्ञान दे रहे थे तो उस समय श्रीकृष्ण नहीं बोल रहे थे । उस समय उन के माध्यम से भगवान के वचन निकल रहे थे इसलिए कहीं पर भी श्रीकृष्ण आवाज नहीं लिखा गया है तथा दूसरा अहम शब्द का अर्थ अहंकार या मैं नहीं है । इसका अर्थ है नहीं । हाँ हाँ बंटी वो जिसका कभी नाश नहीं होता है । सादा ऐसा ही है जैसा वो आदि में था । उस परम तत्व को अहम कहा गया है । अगर मैदान का ज्ञान हम दूसरों पर लगाने का प्रयास करेंगे तो ये अनुसार वेदांत कहलाता है और यदि वेदांत का ज्ञान हम अपने जीवन में उतारते हैं तो यही भक्ति बन जाती है । जो भी हमें संसार में करते हैं यदि उसका प्रभाव जगह पर पड रहा है तो हम समाज सेवक है और यदि प्रभाव हम पर पड रहा है तो हम शायद हक है । भगवान ने पूरी भगवत गीता अर्जुन को सुनाई सभी सवालों के जवाब भी दिए लेकिन अंत में आकर कहते हैं ये थे छह सी तथा क्यूँकि है अर्जुन मेरा काम तो मैं बताना आगे तुम्हारी इच्छा है । जैसे तुम्हें ठीक लगे वैसा करूँ तो भगवान के द्वारा बताई गई बातों ने अर्जुन के लिए पॉजिटिव एनर्जी सकारात्मक ऊर्जा का कार्य किया और उसने पूरा युद्ध बिना किसी रात दिवेश, भय, ग्लानि, पढना ही राजा बनने के लिए या युद्ध जीतने के लिए क्या? बस उसने फल की इच्छा के आवेश कर्मफल को त्यागकर केवल कर्तव्य कर्म किया जिसका परिणाम ये हुआ कि वह युद्ध जीता और उसके मन पर उस युद्ध के द्वारा एक खरोच तक नहीं आई । यही ज्ञान की सदर का प्रयोजन है कि हमें संसार में अपने सभी कर्तव्य कर्म, उत्साह, खुशी के साथ करें । ना की खुशी के लिए कर्म करें । वरना लोग जितना परेशान अध्यात्म को लेकर होते हैं, इतना किसी भी वस्तु को लेकर नहीं होते हैं । आध्यात्मिक मनुष्य माने जो गंभीर हो, कभी हस्ता नहीं । हमेशा डर डर कर राम राम करता रहता है या अध्यात्म का मतलब नहीं है । अध्यात्म मतलब ये जहाँ लेना कि हमें संसार में एलटीसी टूर पर आए हैं । ये अपना पाँच मिनट घर नहीं है । हमें वापस वही जाना है । लेकिन जब तक हम एलटीसी पर जाते हैं तो क्या वहाँ दुखी होने जाते हैं? वहाँ पर हम एंजॉय करने चाहते हैं और वहाँ पर पैसे लोगों के साथ रिश्ते नहीं बनाते, बस आनंदपूर्वक रहते हैं । इस प्रकार हमें भी जगत में आकर किसी भी संबंधी या संग्रह से चिपक ना नहीं है । यहाँ आए हैं आनंद व्यक्त करने के लिए और एक दिन जब एलटीसी पैकेज खत्म हो जाएगा तो वापस जाना ही पडेगा ।

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Apana Swaroop | अपना स्वरुप Producer : KUKU FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava Producer : Kuku FM Author : Dr Ramesh Singh Pal Voiceover Artist : Raj Shrivastava (KUKU)
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