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चैप्टर को देशभ्रमण हमारा सबसे बडा राष्ट्रीय बाप जन समुदाय की उपेक्षा है विवेकानंद नरेंद्र ब्रांड कृष्ण संघ के नेता स्वामी विवेकानंद रामकृष्ण ने विदा होते समय अपने शिष्य को विवेकानंद को सौंपते हुए कहा था इन बच्चों की देखभाल करना । गुरु की मृत्यु की थोडे ही दिन बाद काशीपुर का उद्यान भवन खाली करना पडा । रामकृष्ण के शिष्यों में दो तरह के लोग थे । एक वेज उन्होंने सन्यास धारण किया था । उनकी संख्या बारह थी और विवेकानंद में से एक दूसरे लगभग इतनी ही संख्या उनकी गृहस्त शिष्यों । अब ये समस्या सामने आएगी । तरुण संन्यासियों के रहने की व्यवस्था क्या हो? सुरेंद्रनाथ मित्र ने एक मकान बराहनगर में किराए पर ले दिया । नीचे की मंजिल निकाल थी । पर इन युवा सन्यासियों को जो कुछ मिल जाता था उसी में संतुष्ट रहते थे । अपने आप, आपकी बात उन्होंने कभी सुरेंद्र मित्र से जाकर नहीं थाली, बर्तन आदि कुछ नहीं था । वाले हुए कुंदरा के पत्ते और भारत अरबी के पत्तों पर रखकर खाते । इसके बावजूद पूजा अभियान जा बराबर चलता रहता था । उत्साह में भरकर कीर्तन शुरू करते तो बाहर सुनने वालों की भी लग जाता है । कई बार रस्ते भग बी बराहनगर के इस मठ में आते हैं । अपने गुरु भाइयों के साथ रामकृष्ण के जीवन और धर्म संबंधी चर्चा करते हैं । लेकिन अक्सर इधर उधर के अपरचित व्यक्ति भी गौत्र वर्ष मठ में चले आते पे इंटरन सन्यासियों से तर्क करेंगे । उन की परीक्षा लेते और कुछ ऐसे होते जो हसी ठिठोली और अशिष्ट आलोचना से भी बात नाते । इसके अलावा इन युवकों के अभिभावक उन्हें समझा बुझाकर घर लौटा ले जाने के लिए मठ में मैं उन्हें गृहस्थाश्रम की श्रेष्ठता और उज्ज्वल भविष्य की सबसे बात दिखाते हैं । विवेकानंद ने इस परिस्थिति का उल्लेख मेरा जीवन और ऍम भाषण में इस प्रकार क्या हमारे कोई मित्र थे? हमें सुनता भी कौन हो? कुछ विचित्र सी विचारधारा को लिए हुए छोकरे जो है ना? कम से कम भारत में तो छोकरो की कोई गिनती नहीं । जरा सोचिए लडके! लोगों को समय भी बडी, बडी बातें, बडे बडे सिस्तान और ये शेखी हाँ कि वे इन विचारों को जीवन में चरितार्थ साक्षात करेंगे था । सभी ने हसी ही हंसी करते करते हुए गंभीर हो गए हमारे पीछे पड गए उत्पीडन करने बालको की माता पिता हमें क्रोध से कारने लगे और जो जो लोगों ने हमारी खिल्ली उडाई युवतियो हम और भी दृढ होते गए पारिवारिक भाव भी दूर नहीं हुआ था । इसलिए विवेकानंद चाहे अधिकांश समय मठ में बताते हैं और गुरु भाइयों की शिक्षा दीक्षा तथा देखभाल का पूरा ध्यान देते थे पर भी रहते घर पर हैं । मकान का झगडा भी समाप्त नहीं हुआ । सम्बंधियों ने मुकदमे की अपील करनी थी । अपील का फैसला नहीं हुआ था और इस कारण भी उनका घर पर रहना आवश्यक हो गया । फिर घर वालों की जीविका चलाने वाले वही थे लेकिन विवेकानंद किए इस उदाहरण को लेकर कुछ दूसरे सन्यासी भी घर लौटकर परिवार वालों के साथ रहने और परीक्षा की तैयारी करने लगते । दूसरे मटकी टूट जाने का खतरा पैदा हो गया । अब नरेंद्र चौकी मच टूट जाएगा तो गुरु जो कार्य सौंप गए हैं वो कैसे संपन्न होगा और संघ नहीं रहेगा तो उनके विचार हवा में भी घर जाएंगे । लिखा है तभी ये अनुभव हुआ कि इन विचारों का नाश होने देने के बदले कहीं ये श्री इस करने की कुछ मुट्ठीभर लोग स्वयं अपने को मिटाते रहे । क्या बिगड जाएगा यदि एक मान रही यदि दो भाई मर गए तो ये तो बलिदान है, ये तो करना ही होगा । बिना बलिदान की कोई भी महान कार्यसिद्ध नहीं हो सकता । कलेजे को बाहर निकालना होगा और निकाल कर पूजा की वेदी पर उसे लहूलुहान चढा देना होगा । सब बातों को जानते हुए भी कार्यरूप में परिणत करना सहज नहीं था । मनुष्य पर पूर्व संस्कारों के जाने कितने बंधन होते हैं । सभी जंजीरों को एक साथ तोड देना संभव नहीं । विवेकानंद का पहलवान शरीर भी उन्हें नहीं तोड पाया । लेकिन अब सभी पारिवारिक संबंधों को झटककर उन्होंने देश चौबीस बरस की आयु में अठारह सौ छियासी के दिसंबर में स्थायी रूप में मठ में आकर रहना शुरू किया । विवेकानंद के बारे में दूसरों के मन में जो संदेह तथा भ्रम घाटियां उत्पन्न होने लगी थी, वे उनके बराहनगर मठ में आकर रहने से दूर हो गई । जो युवा संन्यासी अपने अपने घर चले गए थे, वो भी अपने हाथ में लौट है । विवेकानंद की सतर्क देखभाल में वे सब दर्शनशास्त्र, वेदान्त, पुराण, भागवत इत्यादि के पार्ट तथा जब ध्यान कठोरतम, मस्तियाँ आदि में लग गए । विवेकानंद सुबह सवेरे गुरु गंभीर ध्वनि में उन्हें बुखार थे । हेमरेज के पुत्रगण अमृतपान करने के लिए जाएगा जागरू जब ध्यान आदि के बाद विवेकानंद गुरु भाइयों को एक साथ बिठाकर किसी दिन उनके सम्मुख गीता का और किसी दिन टॉमस एक कैंपस के किसान शरण का पार्ट करते रो मामला लिखते हैं । एकांत बाज की इस काल को उन्होंने कठिन शिक्षा का एक उच्चतर के अध्यात्मिक विद्यालय का रूप दे दिया । उनकी प्रतिभा और उनकी ज्ञान की श्रेष्ठता ने शुरू ही से उनको अपने साथियों में अग्रणी का स्थान दे दिया । यद्यपि उनमें से कई उनसे अधिक उम्र के नरेन्द्र ने दृढतापूर्वक इस साधना केन्द्र का संचालन आरंभ किया और किसी को भगवत भजन में अलग से की अनुमति नहीं । सभी सदस्यों को वो निरंतर सतर्क रखते और उनके मन को निरंतर चेताते रहते । मानवीय चिंतन की आत्मक्रांति पढ कर उन्हें सुनाते विश्वास माँ के विकास का सदस्य समझाते सभी मुख्य धार्मिक और दार्शनिक समस्याओं पर नीरज किंतु उत्तेजित वादविवाद के लिए बात नहीं करते । निरंतर उस सीन सत्य के विशाल क्षितिज की ओर प्रेरित करते चलते जो जातियों और संप्रदायों से बडा है जिसमें सभी विशिष्ट सत्य एक आकर हो जाते हैं । किसी प्रकार डेढ साल बीत गया लेकिन अब एक नई प्रवृत्ति ने सिर उठाया । उत्साह और जिज्ञासा से ओतप्रोत तरुण सन्यासी कब तक निरस्त बाद विवाद में उलझे और निर्जीव पुस्तकों से सिर पटक दे रहे हैं । उस तक ज्ञान आवश्यक होते हुए भी पुस्तक मानव अनुभव का संकलन मात्र है । इन युवा सन्यासियों को भी मटकी चारदीवारी से बाहर निकलकर विस्तृत संसार का अनुभव सरस और सचिव ज्ञान प्राप्त करना था । उनके गुरु रामकृष्ण परमहंस ने पुस्तकीय नहीं पडी थी । उन्होंने शास्त्र तथा संस्कृति का क्या है मौखिक रूप से ग्रहण किया था और फिर उस ज्ञान को हास परिहास और शैलेश मई भाषा में सरस और सजीव बनाकर मौखिक रूप से ही भक्तों तक पहुंचाया था । उनके शिष्य मात्र उस तक ज्ञान तक सीमित रहकर अपने को कैसे निर्जीव और आदर्शहीन बना लें । इसलिए दो एक संन्यासी चुपचाप बिना कानोकान खबर किए तीर्थ भ्रमण को चलने के लिए । फिर एक दिन जब विवेकानन् किसी काम से कलकत्ता गए हुए थे । बहुत छोटी उम्र का सन्यासी सारदा प्रसन्न स्वामी त्रिगुणातीत आनंद गुप्त रूप से मत छोडकर चला गया । विवेकानंद बडे व्याकुल हुए और उन्होंने राहुल से कहा तो म्यूजिक यू जाने दिया देख राजा मैं कैसी विकेट स्थिति में पड गया हूँ । एक संसार घर द्वार छोडकर यहाँ आया और यहाँ माया का एक नया संसार जोड बैठा हूँ । इस लडकी के लिए प्राण बडे ही व्याकुल वोट हैं । शारदा प्रसन्न जाते समय पत्र लिखकर छोड गया था । अब किसी व्यक्ति ने पत्र लाकर विवेकानंद को दिया लिखा था मैं पैदल श्री वृंदावन जा रहा हूँ । यहाँ पर रहना मेरे लिया संभव हो गया है । कौन जाने के समय मन की गति बदल जाए । मैं बीच बीच में माता पिता घर स्वजन आदि के सपने देखता हूँ । मैं स्वप्न में मूर्ति मतीम आया द्वारा प्रलोभित हो रहा हूँ । मैंने काफी सहन किया । यहाँ तक की प्रबल आकर्षण के कारण मुझे दो बार घर जाकर स्वजनों से मिलना पडा है । अच्छा अब यहाँ रहना किसी भी तरह उचित नहीं । माया के पंजी से छुटकारा पाने के लिए दूर देश में जाने के अलावा और गति नहीं । विवेकानंद ने पत्र पढकर समाप्त किया तो वह एक जबरदस्त झटका लगा और एक और जनजीव टूटकर गिर पडे । सोचा ये तो सभी तीर्थ भ्रमण का आग्रह कर रहे हैं । इससे तो मटका नाश हो जाएगा । ठीक है होने दो मैं उन्हें बांध कर रखने वाला उनका अपना मैन पिछले दो वरिष्ठ छोड निकलने के लिए छटपटा रहा ये क्या किया की उन्होंने घर द्वार की चांदी की जंजीर तो होगी और अब ये सनकी सोने की जंजीर पहने रहेंगे । इस प्रकार एक साथ रहते रहते सभी धीरे धीरे माया के बंधन में आबद्ध हुए जा रहे हैं । अटेक स्वयं उन्होंने भी बट छोडकर दूर चले जाने का संकल्प कर लिया । गुरु भाइयों का अनुरोध तक उन्हें नहीं रोक पाया । बीमा रामकृष्ण की विधवा पत्नी शारदामणि का आशीर्वाद लेकर तीर्थ भ्रमण को निकल पडे । अव्यवस्था यह की गई की दल का एक भाग हमेशा मठ में बना रहेगा । शशि स्वामी रामकृष्णन सीआई रूप में मंच में रहकर उसका संचालन कर दे रहे हैं । उन्होंने कभी उसमें से बाहर कदम नहीं रखा । विमत की दूरी और उसके एकनिष्ठ संरक्षक थे । दूसरे शिष्य चले जाते हैं और घूम घूमकर फिर इसी नींद में लौटाते । विवेकानंद छियासी में प्रथम भाग में बराहनगर में परिव्राजक रूप में भ्रमण के लिए चले । बिहार उत्तरप्रदेश में घूमते हुए मुख्य तीर्थ काशी पहुंचे और वहाँ कुछ दिन रुकने का निश्चय कर के द्वारका दास आश्रम में रहने रहे । जब ध्यान साधु संगर विद्वानों से चर्चा उनका नित्यकर्म था । एक दिन किसी सज्जन ने उनका परिचय पंडित भूदेव मुखोपाध्याय से करा दिया । युवा संन्यासी विवेकानंद के साथ धर्म समाजनीति तथा देश की उन्नति संबंधी चर्चा करके मुझे बाबू इतने मुक्त हुए कि उन्होंने उनसे जान से कहा इतनी छोटी व्यवस्था में इतनी गंभीर अंतर्दृष्टि मुझे विश्वास है कि भविष्य में एक महान व्यक्ति बनी । वाराणसी में उन दिनों स्वामी भास्करानंद के गुणों की बडी चर्चा विवेकानंद एक जन के आश्रम में भी गए थे । आपने शिशु तथा भक्तों से गिरे बैठे थे । विवेकानंद को सन्यास जीवन संबंधी आदर्श का उपदेश देते हुए भास्करानंद ने ये कह दिया कि कामकाज इनका पूर्ण रूप से कोई भी त्याग नहीं कर सकता । विवेकानंद ने इसका प्रतिवाद करते हुए कहा, महाराज! ऐसे अनेक सन्यासी है । संपूर्ण रूप से कम कंचन के मंदिरों से मुक्त है और उदाहरण के लिए उन्होंने रामकृष्ण परमहंस का नाम लिया । भास्करानंद हसते हुए बोले इस तो बच्चे हुए इस उम्र में वो बात नहीं । समस्या को फिर जब उन्होंने रामकृष्ण के चरित्र की आलोचना की तो विवेकानंद ने निर्भिक दृढता से उसका खंडन किया । स्वामी भास्करानंद की बडी ठाक थी राजे महाराजे, पंडित तथा ज्ञानी उनके चरण छूकर कृतार्थ होते थे । तरुण संन्यासी विवेकानंद के साहस और तर्क से सब स्मित रहे हैं । भास्करानंद उदार है । वैसे सन्यासी है । उन्होंने अपने शिष्यों तथा उपस् थित व्यक्तियों से कहा इसके करंट में सरस्वती विराजमान हैं । इसके हिरदय में ज्ञान आलू प्रदीप हुआ है । गुरु के संबंध में अन आदरसूचक शब्द विवेकानंद से सहन नहीं हुए । वितरण वहाँ से चले आए । कुछ दिन काशी में रहकर विवेकानंद बराहनगर मठ में लौट है । सत्येंद्रनाथ मजूमदार लिखते हैं, वाराणसी हिंदू भारत का हृदय केंद्र है यहां मद्रासी, पंजाबी, बंगाली, गुजराती, महाराष्ट्रीय, उत्तर प्रदेश व्यक्तिगत आचार में भारत भाषा की भिन्नता के बावजूद एक ही भाव के भावुक बनकर भगवान विश्वनाथ के मंदिर में सम्मिलित होते काशी धाम में स्वामी जी ने परमार्थिक ता से भ्रष्ट विचारविहीन एवम राम आचार पराया इन्नर नायउ के बीच भी धर्म की युग युगांतर से संचित महिमा की उपलब्धि । इसलिए हम देखते हैं बराहनगर मठ में लौटकर में ग्रुप भाइयों को प्रचार कार्य के लिए प्रोत्साहित करने लगे । भारत वर्ष को देखना होगा समझना होगा इन लाखों करोडों नर नारियों की जीवन यात्रा के कितने भिन्न भिन्न स्तरों में कौनसी वेदना कौन सा भाग दिन रात एक अपून लालसा की ज्वाला भडकाकर उन्हें दर्द कर रहा है वो समझना होगा इस कल्याण व्रत की साधना के लिए केवल स्वार्थ किया की नहीं बल्कि सर्वस्वत्यागी करना होगा । यहाँ तक कि उन्हें अपनी मुक्ति की कामना तक को भूल जाना होगा । मझसे विवेकानंद दुबारा काशी आए तो उनकी गुरुभाई अखंडानंद ने उनका परिचय प्रभुदास मित्र से करा दिया । प्रभु दादा संस्कृत भाषा, साहित्य और विधान दर्शन के प्रकांड पंडित थे । इनसे विवेकानंद कितने प्रभावित हुए और उनके मन में इनके प्रति कितनी श्रद्धा उत्पन्न हुई, इसका अनुमान बराहनगर कलकत्ता से सत्रह अगस्त अठारह सौ नब्बे को लिखे पत्र से सहज में लगाया जा सकता है । उन्हें पूछे बाद से संबोधित करते हुए लिखा है, आपने पिछले पत्र में लिखा है कि जब मैं आपको अगर सूचक शब्दों से संबोधित करता हूँ तो आपको बहुत संकोच होता है किंतु इसमें मेरा कुछ दोष नहीं । इसका उत्तरदायित्व तो आपके सद्गुणों पर है । मैंने इस पत्र के पूर्व एक पत्र लिखा था कि आपके सद्गुणों से जो मैं आप की ओर आकृष्ट होता हूँ उससे ये प्रतीत होता है कि हमारा और आपका कुछ पूर्व जन्म का संबंध है । इस संबंध में मैं एक गृहस्थ और संन्यासी में कोई भेद नहीं मानता हूँ और जहाँ कहीं महानता, हृदय की विशालता, मन की पवित्रता एवं शांति पाता हूँ, वहाँ मेरा मस्तक श्रद्धा से न हो जाता है । आज कल जितने लोग संन्यास ग्रहण करते हैं, वे ऐसे लोग हैं जो वास्तव में मान सम्मान के भूखे हैं, जीवन निर्माण की नियमित त्याग का दिखावा करते हैं और जब गृहस्थी और सन्यास इन दोनों के आदर्शों से गिरे हुए हैं, उनमें कम से कम एक लाख में एक तो आपके जैसा निकले ऐसी मेरी प्रार्थना है । मेरी जिन ग्रामीण गुरु भाइयों ने आपके सपनों की चर्चा सुनी है । ये सब आपको सागर प्रणाम करते हैं । इसके बाद शास्त्र संबंधी कोई संदेह कोई समस्या उठ खडी होती तो स्वामी विवेकानंद उसका समाधान उनसे पूछा करते थे । लेकिन आठ बरस बाद तीस मई के पत्र में अल्मोडा से लिखा है, यद्यपि बहुत दिनों से मेरा आपसे पत्रव्यवहार नहीं था परंतु औरों से आपका प्राया सब समाचार सुनता रहा हूँ । कुछ समय हुआ आपने? कृपापूर्वक मुझे इंग्लैंड में गीता के अनुवाद की एक प्रति भेजी थी । उसकी जिल्द पर आपके हाथ की पंक्ति लिखी हुई थी । इस उपहार की स्वीकृति थोडे से शब्दों में दिए जाने के कारण मैंने सुना कि आपको मेरी आपके प्रति पुरानी प्रेम की भावना में संदेह हो हो गया है । कृप्या इस संदेह को आधार रहे जानी है । संक्षिप्त स्वीकृति का कारण यह था कि पांच वर्ष में मैंने आपकी लिखी हुई एक ही पंक्ति कुसंगति जी गीता कि जिन पर देखी, इस बात से मैंने ये विचार किया कि यदि इससे अधिक लिखने का आपको अवकाश नहीं था तो क्या अधिक पडने का अवकाश हो सकता है? और दूसरी बात मुझे ये पता लगा कि हिन्दू धर्म की गोरान मिशनरियों के आप विशेष मित्र है और दृष्टि कालेज भारतवासी आपकी घृणा के पात्र हैं । ये मन में शंका उत्पन्न करने वाला विषय था । तीसरे मैं मिल इज शूद्र इत्यादि हूँ । जो मिले तो खाता हूँ वो भी जिस किसी के साथ और सबके सामने चाहे देश हो या विदेश इसके अतिरिक्त मेरी विचारधारा में बहुत विकृति आ गई है । मैं निर्गुण पूर्ण ब्रह्मा को देखता हूँ । यदि वे ही व्यक्ति ईश्वर के नाम से पुकारे जाएँ तो मैं इस विचार को ग्रहण कर सकता हूँ । परन्तु बौद्धिक सिद्धांतों द्वारा परिकल्पित विधाता आदि की ओर मन आकर्षित नहीं होता । जब बौद्धिक अंतर बढ जाए तो आपसी संबंध पुराने पड जाते हैं । तब उन पुराने संबंध को झटक कर आगे बढ जाना ही बेहतर होता है । अगर अग्रसर छियासी में स्वामी विवेकानंद काशी ही से तीर्थ यात्रा पर रवाना हुए उत्तर भारत के कई सीटों पर होते हुए सरयू नदी के तट पर स्थित अयोध्या पहुंचे । यहाँ आकर बचपन की अनीस मृत्यु उनके मन में जाग उठी । रामायण से उन्हें विशेष अनुराग था । सीताराम की कहानी उन्होंने माँ से सुनी थी और महावीर उनका चरित्र नायक था । अयोध्या में कुछ दिन रह गए और उन्होंने रामायण सन्यासियों से सतसंग किया और फिर वे लखनऊ और आगरा होते हुए पैदल ही वृन्दावन की ओर चलने के लिए आगरा और फतेहपुर सीकरी में उन्होंने मुगल इमारतों का शिल्प सौंदर्य देखा और फिर आगे बढे । वृन्दावन के मार्ग में उन्होंने देखा कि व्यक्ति के नारे पर बैठा तंबाकू भी रहा है । उन का मन भी कश लगाने को ललचाया और हाथ बढाकर उस आदमी से चेल्लम्मा महाराज मैं घूमी हूँ वहाँ संस्कार भीरु व्यक्ति बोला बेहतर विवेकानंद की भी जन्मगत संस्कार दे आएँ और बडा हुआ आज पीछे हट गया । जल्दी जल्दी कदम बढाते हुए आगे बढे पर कुछ ही दूर गए होंगे कि मान ने कारण अरे तूने तो जाती कुलमान सभी को त्यागकर संन्यास ले लिया है ना तो दोबारा उस व्यक्ति के पास है उससे चिलम भरवाकर बडे प्रेम और आनंद से तंबाकू क्या? इसके बाद अपनी यात्रा में वे भंगी चमार ओके झोपडे में रातों ठहरे और उनके मन में छुआछूत का विचार कर कभी नाया वृन्दावन में थोडे दिन रहकर जब हाथ र सहित वहाँ के नौजवान स्टेशन मास्टर शरद चंद्र गुप्ता से अचानक उनकी भीड हो गई । शरद उन्हें अपने घर ले गया और विवेकानंद ने गुप्ता परिवार में आपने कुछ दिन बता है जब वहाँ से चले तो शरद उन्हें छोडने को तैयार नहीं था । वहाँ पिता किया गया लेकर विवेकानंद का पहला शिष्य बना और दंड कमण्डलु लेकर उनके साथ चल चला । शरद चन्द्र का संन्यासी नाम स्वामी सदानंद रखा गया और बाद में उसने गुरु के बुलावे पर अमेरिका चाकर वेदान्त प्रचार में उनका हाथ बंटाया । शिष्य और गुरु एक साथ यात्रा पर चल पडे । लेकिन सदानंद सन्यासी जीवन और यात्रा की कठिनाइयों का व्यस्त नहीं था इसलिए वह बीमार पड गए । विवेकानंद उसे अपने कंधों पर उठाए उठाए जंगलों में घूमते रहे । अंत में वे आप भी बीमार पड गए और शिष्य को साथ लेकर हाथरस लौटाए । गुप्ता परिवार और उत्साही युवकों की सेवा सो शिक्षा से विश्वस्त हुए पहली हु और कुछ दिन बाद सदानंद भी अगस्त अठारह सौ छियासी में बराहनगर मठ में आ गया और रामकृष्ण संघ में सम्मिलित हो गया । अब विवेकानंद लगभग एक बरस तक बराहनगर मन तथा बागबाजार कलकत्ता में बलराम बसु के मकान पर रहे । ये समय उन्होंने गुरु भाइयों के साथ मैदान पानी नहीं व्याकरण तथा शास्त्रों के अध्ययन में बताया । इस बीच में उन्होंने प्रभुदास मित्रों को पत्र लिखे । उनसे मटके जीवन कार्या और उनको अपनी मनस्थिति पर भलीभांति प्रकाश पडता है । प्रवक्ता राज ने इन संन्यासियों को वेदांत तथा अष्टाध्यायी ग्रंथ दान दिए थे । इसके लिए कृतज्ञता व्यक्त करते हुए विवेकानंद ने उन्हें उन्नीस नवंबर अठारह सौ छियासी को लिखा था, आपने वेदांत का उपहार भेजकर ना केवल मुझे बहन श्रीरामकृष्ण की समस्त सन्यासी मंडल को आजीवन ऋणी कर दिया है, वे सब आपको सादर प्रणाम करते हैं । मैंने आपसे पानी व्याकरण की जो प्रति मंगाई है, वह केवल अपने लिए ही नहीं है । वास्तव में इस मठ में संस्कृत धर्मग्रंथों का खूब अध्ययन हो रहा है । वेदों के लिए तो यहाँ तक कहा जा सकता है कि उनका अध्ययन बंगाल में बिल्कुल छूट गया है । इस मठ में बहुत से लोग संस्कृत जानते हैं और उनकी इच्छा है कि वे वेदों के सहायता अभी भागों पर पूरा अधिकार प्राप्त कर ले । उनकी राय है कि जो काम किया जाए, पूर्व तरह किया जाए । मेरा विश्वास है कि पानी ने व्याकरण पर पूर्ण अधिकार प्राप्त किए बिना वेदू की भाषा में पारंगत होना असंभव है और एकमात्र पाणिनी व्याकरण ही इस कार्य के लिए सर्वश्रेष्ठ है । इसलिए इसलिए प्रति की आवश्यकता हुई । मुग्ध भूत व्याकरण, जो हम लोगों ने बाल निकाल में पडा था । लघु को मोदी से कई अंशु में अच्छा है । आप स्वयं एक बडे विद्वान है, अतएव हमारे लिए इस विषय में निर्णय अच्छी तरह कर सकते हैं । अच्छा यदि आप समझते हैं कि पानी कृत अष्टाध्यायी हमारे लिए सबसे अधिक उपयुक्त हैं तो उसे भेजकर हमें आप जीवन भर के लिए अनुग्रहित करेंगे । इस विषय में मैं ये कह रहा हूँ कि आप अपनी सुविधा और इच्छा का आवश्यक स्मरण रहे । इस मंच में अध्यवसायी योग्य और कुशाग्र बुद्धि वाले मनीषियों की कमी नहीं है । इन दिनों विवेकानंद ने वेदों के साथ साथ उपनिषद और शंकर भाषा का भी गंभीर अध्ययन किया । उनके मन में जो संदेह हो उठे उन्हें मिटाने के लिए वे बराबर प्रभुता दास मित्र को लिखते रहे । ये सब पत्र विवेकानंद साहित्य प्रथम खंड में संग्रहित हैं । सदर अगस्त अठारह सौ नब्बे के लम्बे पत्र में पूछे गए बारह प्रश्न में से हम यहाँ सिर्फ तीन का उल्लेख करते हैं । इससे विवेकानंद की विचार पद्धति का पता चलेगा । लिखा है यदि भी नृत्य है तो फिर इन कथाओं में कहाँ तक सकते हैं कि धर्म की वहाँ विधि वापर के लिए हैं और ये कलयुग के लिए इत्यादि इत्यादि । दस । जिस परमात्मा ने वेदों का निर्माण किया, उसी ने फिर बुद्धावतार धारण अगर उन का खंडन किया, इन धर्मोपदेशों में किसका अनुगमन किया जाए, पहले हो या बाद वाले को तंत्र कहते हैं कि कलयुग में वेदमंत्र व्यर्थ है । अब भगवान शिव के भी किस आदेश का पालन किया जाए । ब्याज का वेदान्त सूत्र में ये स्पष्ट कथन है कि वासुदेव संकर शादी, चक्रव्यूह, उपासना ठीक नहीं तो फिर वही ब्याज भागवत में इसी उपासना की गुणानुवाद गाते हैं । तो क्या व्यास पागल थी, हैं और तेरह दिसंबर का पत्र देखिए आपको लिखी हुई पुस्तिका मिली । जब से यूरोप में ऊर्जा संधारण की ऍफ एनर्जी के धान का अविष्कार हुआ है, तब से वहाँ एक प्रकार से वैज्ञानिक अद्वैतवाद फैल रहा है । हिंदू वो सब परिणाम बाद हैं । ये अच्छा हुआ कि आपने उसमें और शंकराचार्य के विवर्त बाद में भेज स्पष्ट कर दिया है । जर्मन अतीन्द्रिय वादियों के संबंध में स्पेंसर की विडंबना का जो उद्वरण आपने दिया है ये मुझे जचा नहीं, पेंसिल स्वयं उनसे बहुत कुछ सीखा है । आपका विरोधीगण अपनी होगी को समझ सकता है या नहीं इसमें संदेह है जो हाँ आपका उत्तर काफी तीसरा एवं पकाते हैं और चार जुलाई को अपने बारे में लिखा था परंतु मुझको तो इस समय अभी एक नया ही रोग है । परमात्मा की कृपा पर मेरा खंड विश्वास है, वो कभी टूटने वाला भी नहीं । धर्मग्रन्थों पर मेरी अटूट श्रद्धा है परन्तु प्रभु की छह से मेरे घर छह सात वर्ष निरंतर विभिन्न विभिन्न बाधाओं से लडते हुए भी थे । मुझे आदर्श शास्त्र प्राप्त हुआ । मैंने एक आदर्श महापुरुष के दर्शन प्राप्त किए हैं । फिर भी किसी वस्तु का अंत तक निर्वाह मुझसे नहीं होगा था । ये मेरे लिए कष्ट की बात है और विशेषतः कलकत्ता के आस पास रहकर मुझे सफलता पाने की कोई आशंका कलकत्ता में मेरी माँ और दो भाई रहते हैं । मैं सबसे बडा हूँ । दूसरा भाई ऐसे परीक्षा की तैयारी कर रहा है और तीसरा अभी छोटा है । परिवार की दरिद्रता और मकान के झगडे का उल्लेख करके आगे लिखा है, कलकत्ता के पास रहकर मुझे अपनी आंखों से उनकी दुर्व्यवस्था देखनी पडती है । उस समय मेरे मन में रजोगुण जाग्रत होता है और मेरे हम भाग कभी कभी उस भावना में परिणित हो जाता है । इसके कारण कार्य क्षेत्र में कूद पडने की प्रेरणा होगी । ऐसे शहरों में मैं अपने मन में एक भयंकर अंतर बंद हो गाना बहुत करता हूँ । यही कारण है कि मैंने लिखा था कि मेरे मन की स्थिति मिशन है । अब उन का मुकदमा समाप्त हो चुका है । आशीर्वाद बी जे की कुछ दिन कलकत्ता में ठहरकर उन सब मामलों को सुलझाने के बाद मैं सदा के लिए विदा हो सकता हूँ । इस बीच में उन्होंने छोटी छोटी यात्रा आएगी । फरवरी अठारह सौ नब्बे में वीरान कृष्ण की जन्मभूमि कामारपुकुर श्री माता शारदामणि की जन्मभूमि जयराम ट्वेंटी गए । वहां से लौटते समय में बीमार हुए और काफी दिन चारपाई नहीं छोडना है । जुलाई में शिमल तू और दिसंबर के अंत में वैद्यनाथ और इलाहाबाद गए । आठ सौ नब्बे में गाजीपुर की दो बार यात्रा की, जो दिलचस्प और महत्वपूर्ण है । इसलिए उसकी तनिक विस्तार से चर्चा करनी होगी । विवेकानंद जनवरी ऍम नब्बे को गाजीपुर पहुंचे । वहाँ पर बाहर ई बाबा नाम के प्रसिद्ध साधु थे, जो गुफा में बंद रहते थे । विवेकानंद बाबा जी से मिलने के लिए बडे उत्सुक थे, पर अवसर नहीं मिल रहा था । जनवरी के पत्र में प्रभुता दास मित्र को लिखते हैं, बाबा जी से भेंट होना अत्यंत कठिन है । मकान के बाहर नहीं निकलने इच्छानुसार दरवाजे पर आकर भीतर ही से बोलने हैं । अत्यंत ऊंची दीवारों से घिरा हुआ पद ज्ञानयुक्त तथा दो चिमनियों से सुशोभित उनके निवास स्थान को देख आया हूँ । भीतर जाने का कोई उपाय नहीं । लोगों का कहना है कि भीतर गुफा यानि तहखाना जैसी एक फट रही है जिसमें में रहते हैं । वो क्या करते हैं ये वही जानते हैं क्योंकि कभी किसी ने देखा नहीं । एक दिन में यहाँ बैठा बैठा कडी सर्दी खाकर लौटा था फिर भी मैं यतना करूंगा । इसके बाद चार फरवरी सात फरवरी के पत्र इस प्रकार है । बडे भाग्य से बाबा जी का दर्शन हुआ । वास्तव में भी महापुरूष हैं । बडे आश्चर्य की बात है कि इस नास्तिकता की युग में भी भक्ति एवं योग की अद्भुत क्षमता के अल्लाह के प्रति है । बहन की शरण में गया और उन्होंने मुझे आश्वासन दिया जो हर एक कि भाग्य में नहीं, बाबा जी की इच्छा है कि मैं कुछ दिन तक है, वो मेरा कल्याण करेंगे । अरे इन महापुरुष की अज्ञान उसार में कुछ दिन और यहाँ ठहरूंगा निसंदेह है । इससे आप भी आनंदित होंगे । घटना बडी विचित्र है । पत्र में ना लिखूंगा, मिलने पर जरूर बताऊँ । ऐसे महापुरुषों का साक्षात्कर किए बिना शास्त्रों पर पूर्ण विश्वास नहीं होता । सचित्र घटना क्या थी या प्रभुदास मित्र जाने अगला पत्र ही ये है बडा और हुआ बाबा जी आचार्य वैष्णव प्रतीक होते हैं । उन्हें योग भक्ति एवं विनय की प्रतिमा कहना चाहिए । उनकी कुटी के चारों ओर दीवार हैं । उसमें दरवाजे बहुत काम पर कोटा के भीतर एक बडी गुफा है जहां वे समाधिस्थ पडे रहते हैं । गुफा से बाहर आने पर ही वे दूसरों से बातचीत करते हैं । किसी को ये मालूम नहीं क्या खाते पीते हैं इसलिए लोग हैं तुम्हारी पवन का आहार करने वाला बाबा कहते हैं, एक बार जब पांच साल तक गुफा से बाहर नहीं निकले तो लोगों ने समझा के उन्होंने शरीर त्याग दिया है । किंतु फिर उठाएं पर अभी लोगों के सामने निकलते नहीं और बातचीत भी द्वार के भीतर से करते हैं । इतनी मीठी वाणी मैंने कहीं नहीं । वे प्रश्नों का सीधा उत्तर नहीं देते बल्कि कहते हैं दास क्या जाने पर हिंदू बात करते करते हैं मान उनके मुख से अग्नि के समान तेजस्वी वाणी निकलती है । मेरे बहुत आग्रह करने पर उन्होंने कहा कुछ दिन यहां ठहरकर मुझे कृतार्थ कीजिए, परंतु हुए इस तरह कभी नहीं कहते हैं । निसंदेह बडे विद्वान है पर कुछ प्रकट नहीं होगा । विश्वास रूकती, कर्मकांड करते । पूर्णिमा से संक्रांति तक होम होता रहता है । अतएव यह निश्चित है कि वे इस अवधि में गुफा में प्रवेश करेंगे । मैं उनसे अनुमति किस प्रकार मांगूं? वे तो कभी सीधा उत्तर देते ही नहीं । ये दास मेरा भाग्य इत्यादि कहते रहते हैं । विवेकानंद ने फलाहारी बाबा शीर्षक से लंबा ने बंद भी लिखा है । जब विवेकानंद साहित्य नवम खंड में संकलित है इसने बंद में उन्होंने प्रभारी बाबा के डीलडौल और विचित्र मृत्यु का वर्णन इन शब्दों में क्या है देखने में वे अच्छे चौडे तथा दोहरे शरीर के उन की एक ही आंख थी और अपनी वास्तविक उम्र में हुए कुछ प्रतीक होते थे । उनकी आवाज इतनी मधुर थी कि हमने वैसी आवाज अभी तक नहीं अपने जीवन के शेष इस वर्ष या इससे भी कुछ अधिक समय से लोगों को फिर दिखाई नहीं पडेगा । उनके दरवाजे के पीछे कुछ आलू तथा पूरा सा मक्खन रख दिया जाता था और रात को किसी समय जब समाधि में न होकर अपने ऊपर वाले कमरे में होते थे तो इन चीजों को ले लेते थे । पर जब एक गुफा के भीतर चले जाते थे तब उन्हें इन चीजों की भी आवश्यकता नहीं रह जाती । हम पहले कह चुकी है कि बाहर से धुआँ दिख पडने ही से मालूम हो जाता था कि वे समाधि से उठे हैं । एक दिन उस चलते हुए वैसे मांस के दुर्गंध आने लगी । आस पास के लोग इसके संबंध में अनुमान ना कर सके की हो क्या रहा है? अंत में जब वो दुर्गंध असहनीय हो गई और धुआँ भी अत्यधिक मात्रा में उडता हुआ दिखाई दिया तब लोगों ने दरवाजा तोड डाला और देखा कि इस महायोगी ने स्वयं को पूर्णाहुति के रूप में उसको मालिनी को समर्पित कर दिया है । थोडे ही समय में उनका वो शरीर भस्म राशी में परिणत हो गया । प्रस्तुत लेखक इस पर लोग गत संत के प्रति नरम ऋणी हैं । इस लेखक ने जिस श्रेष्ठतम आचार्यों से प्रेम किया तथा जिनकी सेवा की है उनमें से एक है । उनकी पवित्र स्मृति में ये पंक्तियां चाहे जैसी भी आयोग के हो, समर्पित करता हूँ, हमारे देश नहीं । न जाने ऐसे कितने अद्भुत और विलक्षण व्यक्ति पैदा किए हैं । उनमें सहमत असहमत होना अलग रहा, पर उनके चरित्र की दृढता और एक निष्ठा से तो इनकार नहीं किया जा सकता है । ये वही लोग हैं जिन्होंने ज्ञान के दीप को अपने खून से जलाया तो मैं आंधी के भयंकर तूफानों में भी पूछने नहीं दिया और जनसाधारण में अपनी संस्कृति तथा परंपरा के प्रति दृढ एवं अटूट आस्था बनाए । इस अद्भुत पुरुष बर्फबारी बाबा से विवेकानंद क्या चाहते थे और उनकी आपसी संबंध क्या थे, इस बारे में सत्येन्द्रनाथ मजूमदार विवेकानंद चरित में लिखते हैं, घनिष्ठ परिचय हो जाने से महान तपस्वी पर बाहर ई बाबा पर स्वामी जी बडे मुद्दे हुए । उन्होंने अपने मन में सोचा क्या कारण है कि भगवान श्रीराम कृष्ण की अहैतुकी कृपा के अधिकारी होकर भी आज तक मुझे शांति नहीं मिली । संभव है कि इन ब्रह्मांड पुरुष की सहायता से मैं शांति प्राप्त कर सकता हूँ । स्वामी जी ने सुना था की प्रभारी बाबा ने योगमार्ग की साधना द्वारा सिद्धि लाभ की थी । अतिरिक्त उनके हृदय में बहुत भारी बाबा से योग सीखने की इच्छा हुई । वे बाबा जी को पकडकर बैठ गए और कहने लगे आपको मुझे योग की शिक्षा दी नहीं हूँ । अत्यंत आग्रह देखकर फलाहारी बाबा ने भी हाँ कह दिया गंभीर रात्रि में स्वामी जी पर बाहर ई बाबा की गुफा में जाने के लिए तैयार हुए श्री राम कृष्णा या पयहारी बाबा । ये प्रश्न मन में आते ही उनका उत्साह ठंडा पड गया । निकालने हृदय से संदेहपूर्ण चिट से विवेकानंद भूमि पर बैठ है । सजल नेत्रों को उठाकर देखा दिव्य दर्शन के जीवन के आदर्श दक्षिणेश्वर के वहीं तो तेज मालवन के सामने खडे विवेकानंद आवाक रहे गए । एक प्रहर तक पत्थर की पूर्ति की तरह से जमीन पर बैठे ही रहे । राधा काल हुआ मन में संकल्प विकल्प होने लगा कि भगवान श्रीराम कृष्ण का प्रदर्शन मस्तिष्क की दुर्बलता ही का फल तो नहीं था । निदान अगली रात को फिर से प्रभारी बाबा के पास जाने का तैयार हुए, पर आज भी वही पहले की देखी हुई ज्योतिर्मयी मूर्ति उसी तरह उनके सामने आ खडी हुई । एक दिन, दो दिन, तीन दिन लगातार इक्कीस दिनों तक किसी प्रकार व्यतीत होने पर अंत में वे मार वेदना से भूमि पर लोट पोट होकर आर स्वर से बोले थे नहीं प्रभु, मैं और किसी के पास नहीं हूँ । रामकृष्ण मेरी एक मात्रा हो मैं तुम्हारा ही दास मेरी मानसिक दुर्बलता के अपराध को जमा करो हो जमा कर गुरु की जिस आसन पर रामकृष्ण परमहंस आसीन थे, उस पर किसी दूसरे को नहीं बिठाया जा सकता था । विवेकानंद ने गाता होगी मैं तुम्हें सुनने को कविता इसी घटना से प्रेरित होकर लिखी बाल केलि करता हो तब से मैं और क्रोध कर के तुम से किनारा कर जाना कभी चाहता हूँ किन्तु निशाकाल में देखता हूँ तुमको में खडे हुए चुपचाप आ के चल चलाई खेलते हो मेरे तो मुख् की ओर उसी समय बदल जाता । भाग है पैरो पडता हूँ पर शाम नहीं मांग तो नहीं करते हो, उत्तर हो तुम्हारा हूँ और कोई कैसे इस प्रकार ममता को सहन कर सकता है प्रभु मेरे ग्रांड सका मेरे कभी देखता हूँ मैं मैं तो व्यक्ति है तेरे को शांति देने की अच्छी कामना पलायन मेरा पलायन दृढ चरित्र एकनिष्ठ नरेंद्र अर्थात विवेकानंद के लिए ये संभव नहीं । गुरु केशव स्मरण हुआ है तेरी निर्विकल्प समाधि अभी ताले में बंद करके रख दी गई है । काम समाप्त होने पर ही मिलेगी और फिर तो जीवों पर दया करने वाला कौन है? शिव ज्ञान से जीवों की सेवा करो । गुरु के शब्दों की व्याख्या करते हुए नरेंद्र और सात विवेकानंद ही नहीं तो कहा था मैंने आज एक महान सत्य को पा लिया है । मैं जीवित सत्य की सारे संसार में घोषणा करूँ । नरेंद्र अर्थात विवेकानंद अपने ही इन शब्दों को कैसे छुट लाए वही अगर मन की शांति के लिए अपने वो गुफा में बंद कर ले और अंत में प्रभारी बाबा की तरह शरीर को हो माने की भेंट करते तो वन के विधान को घर में लाने और शिवरूपी जीरो की सेवा का कार्य कैसे संपन्न होगा? निश्चित ही पभारी बाबा का मार्ग विवेकानंद का मार करना था गाजीपुर में रविवार को जो धर्म सभा होती थी उसमें में हमेशा देश, समाज तथा राष्ट्र ही को ऊंचा उठाने की बात कहा । व्यक्तिगत मुक्ति तथा शांति उनकी जीवन का नहीं था । उन्होंने तो कई बार को बकारी बाबा से भी पूछा था कि संसार की सहायता करने के लिए वे अपनी गुफा से क्यू बाहर नहीं आती । बाबा अगर बाहर नहीं आए तो विवेकानंद स्वयं गुफा के भीतर कैसे चले जाते । वे गाजीपुर से जो आप अपने मन में लेकर लौटे उस काशी में रहता दास के सम्मुख इन शब्दों में व्यक्त किया मैं समाज पर बम की तरह फट जाऊंगा और समाज मेरे पीछे चलेगा । इस बार विवेकानंद का ये संकल्प उन्हें हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक पूरे देश की यात्रा करने में दृढ निश्चय कर बांध चुका था और जब तक यात्रा पूरी न हो जाये वे लौटकर मंट में नहीं आएंगे । गुरु भाइयों के आग्रह के बावजूद में अपने इस निश्चय पर अडिग रहे । जुलाई में वे अपने गुरुभाई अखंडानंद के साथ यात्रा पर रवाना हो । वे भागलपुर से देवघर और देवघर से काशी पहुंचे और समय उन्हें हिमालय आकर्षित कर रहा था । इसलिए काशी में में अधिक नहीं होंगे । वे अयोध्या, नैनीताल बद्री और केदार होते हुए अल्मोडा पहुंची । समाचार पाकर महास्वामी, सर्वदानंद और कृपानंद भी उनसे हम हैं । अब बराहनगर मटके अधिकांश सन्यासी पीर भ्रमण को निकल पडे थे । छह सात महीने विभिन्न तीनों पर रहकर उन्होंने हिमालय के प्राकृतिक सौन्दर्य का आनंद ग्रहण किया । कन्याकुमारी की ओर जाने के लिए फिर नीचे उतरे । मेरठ में जब भी सीट के बगीचे में ठहरे हुए थे तो उनके गुरुभाई भी एक एक कर के वहां पहुंचने नहीं युवा बगीचा एक तरफ दूसरा बराहनगर बट बन गया । कीर्तन ध्यान जब विधान की चर्चा शास्त्रा लाख पर आने वालों को धर्मोपदेश नीतिः की दिनचर्या हो गई । एक दिन विवेकानंद ने सोचा ये अच्छा खटराग है । मैं एक बंधन को तोडकर दूसरे बंधन में पड गया इसलिए उन्होंने गुरु भाइयों को एकत्रित करके कहा मैं जल्दी स्थान को छोड रहा हूँ, मेरी इच्छा के लिए यात्रा करने की है तो मैं ऐसे कोई भी मेरे पीछे ना आएं । फरवरी अठारह सौ में भी एक अकेले यात्रा पर चलने के लिए । संक्षेप में इस यात्रा का हाल तो मामा बोला के शब्दों में पडी है । उनका यात्रा पर उन्हें राजपुताना अलवर जोकि फरवरी मार्च के महीने में जयपुर, अजमेर, खेत्री, अहमदाबाद और काठियावाड सितंबर के अंतिम दिनों में जूनागढ और गुजरात पोरबंदर आठ नौ महीने का प्रवास द्वारका पालिताना हम बाते की खाडी से सटा मंदिर बहुत नगर रियासत बडौदा खंडवा, बम्बई होना । बेलगांव अक्टूबर ऍम सौ बयान बैंगलोर कोच हमारा बार रियासत त्रिवाणी स्कूल त्रिवन, त्रिपुरा, मथुरा ले गए । उन्होंने विराट भारतीय अंतरीप कान दिन छोड छू लिया जहाँ दक्षिण का वाराणसी, रामायण का रामेश्वरम और फिर उसके भी आगे कन्याकुमारी की समाधि तक चलते चलते ऍम उत्तर से दक्षिण तक भारत की प्राचीन भूमि पर देवी वीरता बिखरे पडे । इन तो उनकी असम के मुझे आवकी अभी योग्य पृथी केवल एक ईश्वर की प्रति विवेकानंद ने प्राण और मूर्ति के अनन्यता को समझा । उन्होंने उसे समझा सवर्ण और बढ नहीं, सभी प्राणियों से प्रत्या लाख करेंगे और यही नहीं उन्हें भी इसे समझना सिखाया । उन्होंने एक से दूसरे तक परस्पर सद्भाव का संदेश पहुंचाया । अविश्वासी आत्माओं, अमूर्त में आसक्त बौद्धिकों को उन्होंने प्रतिमाओं और देव मूर्तियों का आदर सिखाया । युवकों को भी पुराणादि प्राचीन गौरव ग्रंथों का और इससे भी अधिक आज के जनसमाज का अध्ययन करना है और सभी को उन्होंने सिखाया । संपूर्ण श्रद्धा से भारत माता के उद्वार के लिए आत्मोत्सर्ग करने का आनंद उन्होंने जितना दिया उससे कम नहीं पाया । उनकी विराट आत्मज्ञान अनुभव की खोज में एक दिन भी थक करो कि नहीं और उसने भारत की मिट्टी में बिक्री छिपी समस्त विचारधारा उधारण किया क्योंकि उन्होंने जान लिया था कि इन सब का उद्गम एक है । एक और खडे पानी के दुर्गंध बीच में लिप्त पुराण पंथियों की अंधी श्रद्धा से और दूसरी तरफ क्या शक्ति के रहस्यमय स्रोत हो? अनजाने ही अवरुद्ध करने में सन् लगने ब्रह्मा समाजी सुधार होगी । पथभ्रष्ट वैज्ञानिकता से वे एक समान दूर रहना चाहिए । विवेकानंद चाहती थी कि धर्मप्राण भारत देश की विविध धारराव के इस मिली जुली सरोवर को लीज कर परिष्कार कर डाले । जो रखने योग्य हो, उसे रखें । इतना ही नहीं वे कुछ और भी चाहते थे । मैं जहाँ जाती फॅस अपने साथ रखते । भगवत गीता के साथ साथ हिंसा के विचार भी प्रसारित करते और युवकों से भी आग्रह करती कि पश्चिम के विज्ञान का अध्ययन करें । यात्रा की कठिनाइयों का उल्लेख विवेकानंद ने अमेरिका में दिए गए भाषण मेरा जीवन और ढेर में इस प्रकार क्या है इस तरह चलता रहा । कभी रात के नौ बजे खा लिया तो कभी सवेरे ही एक बार खाकर रहे तो दूसरी बार दूर उसके बाद खाया । तीसरी बार तीन लो । उसके बाद और बार नितांत रूखा सूखा शहीद नीरस अधिकांश समय पैदल ही चलते बर्फीली चोटियों पर चढते कभी कभी तो दस दस मील पहाड पर चढते ही जाते । केवल इसलिए कि एक बार का भोजन मिल जाएगा । बताइए अधिकारी को भला कौन अपना अच्छा भोजन देता है । फिर सूखी रोटी ही भारत में उनका भोजन है और कई बार तो सूखी रोटियां बीस बीस तीस दिन के लिए इकट्ठी करके रखी जाती है और जब ईद ही नई खडी हो जाती है तब उनसे षड्यंत्र व्यंजन का हो संपन्न होता है । एक बार का भोजन पानी के लिए मुझे द्वार द्वार भीक मांगने फिरना पडता था । सच कहूँ वैसी रोटी से आप अपने दम तोड सकते हैं । मैं तो रोटी को एक पात्र में रख देता और इसमें नदी का पानी उंडेल देता । इस तरह महीनों गुजारने पडे पर मेरा स्वास्थ्य गिरता है । विवेकानंद ने अपनी इस यात्रा में भारत की जनता को हर रूप में देखा, दलित और नरेंद्र की झोपडी में नहीं । वे राजी महाराजाओं के प्रसाद भवनों में भी रहे जिन्होंने उन्हें फूलों की तरह रखा । विद्वानों की अतिथि बनकर उनके साथ ज्ञान चर्चा की और उनसे आदर सम्मान पाया । विच चोर उचक्कों तथा बट मारो की संगत में भी रहे और उनमें ऐसे ऐसे उद्दात्त चरित्र व्यक्ति देखे जिन्हें अगर उचित वातावरण तथा अनुकूल परिस्थितियां मिल जाती जाने क्या से क्या हो जाएंगे । इस यात्रा में उन्होंने बहुत कुछ सीखा । इसके विस्तार में जाने की गुंजाइश नहीं समझ लेने के लिए एक दो घटनाएं हूँ । खेतरी का राजा विवेकानंद का भक्त बन गया तो उसके पास रुके हुए थे । एक दिन रागरंग की मैं फिर थी जिसमें एक नर्तकी बाला को अपनी कला का अभिनय करना था । जब वो आई युवक सन्यासी उठकर दूसरे कमरे में चले गए । महाराज के अनुरोध पर भी नहीं रुके नजदीकी को ये तिरस्कार अखरा किसने गाया हूँ मेरे ॅ जितना घरो सामग्री ऐसी है नाम ऍर स्वामी जी समय पर इस पद के गाये जाने का भाव समझाते हैं । फिर भजन में आस्था का जो स्वर था वो उन पर जीवन भर के लिए छा गया । बाद में कई वर्षों तक उसके स्मरण हुआ । आने पर विभावि बोर हो जाते थे । वो तुरंत उठकर महत्व वाले कमरे में आये । सबके सामने नर्तकी बाला से क्षमा मांगी और फिर वहीं बैठकर उसका नृत्य देखा गाना है । हिमालय की लद्दाखी और तिब्बती जातियों में आज भी बहुपति प्रथा प्रचलित है । विवेकानंद वहाँ यात्रा करते हुए पहली बार जिस परिवार में ठहरे उसमें छह भाइयों की एक ही पडती थी । स्वामी जी ने अपने जोश में इन भाइयों को इस अनैतिकता का बोझ कराना चाहते परंतु वे लोग उनकी बात सुनकर दंग रहे हैं । कहने लगे महाराज, एक स्त्री पर अकेला पुरुष अपना अधिकार जमा रखे । इससे बडी स्वार्थपरता और क्या होगी? इस घटना से विवेकानंद को सदाचार की सापेक्षता का बहुत हुआ । उन्होंने जाना कि देश और काल के अनुसार नैतिक मान्यताएं बदलती रहती है और फिर एक देश तथा एक ही काल में विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न जातियों की नैतिक मान्यता अलग अलग हो सकती है । उनमें पाप उन्हें ढूंढना, फिर इस यात्रा में और फिर पश्चिम की यात्रा में जैसे जैसे उनके पूर्वग्रह टूटते रहे, वैसे वैसे में मनीषियों के साथ अपने संबंधों में सामंजस्य सीपी करते रहे । आगामी चार पांच वर्षों में उनके भीतर जो परिवर्तन आया, उसका उल्लेख आपने छह जुलाई अठारह सौ छियानवे के पत्र में उन्होंने इस प्रकार क्या है बीस वर्ष व्यवस्था में मैं हत्या के आज सही हूँ और कट्टर था । कलकत्ता में सडकों की जिस के नारे पर थिएटर है, मैं उस ओर के पैदल मार्ग से नहीं चलता था । अब वर्ष की उम्र में मैं वैश्याओं के साथ एक ही मकान में ठहर सकता हूँ और उनसे तिरस्कार का एक शब्द भी कहने का विचार मेरे मन में नहीं है । उन्होंने सोशल उत्पीडित वर्गों के अभाव और अपमान में हिस्सा बताया । उनके दुख दर्द को अपना दुःख दर्द समझकर महसूस किया । रामकृष्ण को भावावेश में ज्योतिर्मय कालीका साक्षात्कर हुआ और वह विवेकानंद को इस यात्रा में जीर्णावस्था ना भारत माता का साक्षात्कर हुआ । एक बार भी कलकत्ता में किसी व्यक्ति के भूख से मर जाने की खबर पढकर टूट फूट कर रहे हैं और कातर स्वर में चिल्लाओ थे मेरा दे रे मेरा देश इस से पहले अपने गुरुभाई रामकृष्णा ग्रहस्थ बहुत बलराम वस्तु के मरने की खबर सुनकर फूट फूटकर हुए थे । तब अहमदाबाद तूने कहा था ये क्या महाराज अब सन्यासी है । शो कार्ड होना आपको शोभा नहीं देता । विवेकानंद ने उन्हें कर दिया था । क्या सोचते हैं कि सन्यासी के हृदय नाम की कोई चीज नहीं होती? प्रकृत सन्यासी दूसरों के लिए साधारण व्यक्ति की अपेक्षा अधिक सहानुभूति का अनुभव करते हैं और मैं तो मनुष्य के अतिरिक्त और कुछ नहीं मेरे गुरुभाई होते हैं । उनके उपयोग में जो मैं कातर हूँ, उसमें विचित्र बात क्या है? पत्थर की तरह अनुभूति शून्य संन्यासी का जीवन मुझे नहीं चाहिए और वे सन्यासी देश में हमेशा अनुभूति शील मनुष्य बने रहे । उनका हृदय कोमल से कोमल डर होता चला गया जिसमें भारत की समूची सोच है पीडित दलित और दरिद्र जनता की पीडा समा गयी और फिर इस पीडा से वे आजीवन विशुद्ध और व्यापर रहे । सितंबर अठारह सौ छियानवे में बम्बई से पूना जा रहे रेल गाडी की जिस डिब्बे में बैठे थे उसमें तीन महाराष्ट्र युवक भी थे । वो सन्यास के विषय पर गरमा गरम बहस कर रहे थे । उनमें से दो नौजवान पांच यात्री जीवन पद्धति की श्रेष्ठता को मानने वाले रानाडे आदि सुधारकों के स्वर में स्वर मिलाकर संन्यास को डोम तथा व्यर्थ बता रहे थे । लेकिन तीसरा नौजवान प्राचीन सन्यासी महिमा का गुणगान करके प्रतिवाद कर रहा विवेकानन् कुछ देर चुप बैठे रहे । इन नौजवानों का तर्क वितर्क सिंदे रहे । अंत में वे भी तीसरे नौजवान का पक्ष लेकर बहस मकर पडे । उन्होंने धीर भाव से समझाया की विभिन्न प्रांतों में भ्रमण करने वाले संन्यासियों ने ही जातीय जीवन के कुछ आदर्शों का प्रचार समस्त भारत में क्या है? भारतीय संस्कृति की सर्वोच्च अभिव्यक्ति सन्यासी ही है जो शिष्य परंपरा द्वारा विघ्न बाधाओं के बीच इतने दिनों तक राष्ट्रीय आदर्शों की रक्षा करता आया है । हाँ ही है होंगी तथा स्वार्थी लोगों के हाथों सन्यास बीच बीच में लांछित और विकृत भी हुआ है । पर इसके लिए समझ सन्यासी साम्प्रदाय को जिम्मेदार ठहराना उचित नहीं । अंग्रेजी बोलने वाले इन सन्यासी विधता मेरे नौजवान बडे प्रभावित हुए और पूरा स्टेशन पर गाडी होगी तो तीसरा नौजवान स्वामी जी को अपने घर ले वाले गया । वेदादि शास्त्रों, पर्स, नौजवान का अधिकार देकर विवेकानंद भी आनंद हुए और कई दिनों तक उसके घर में रहकर वेद की गुंडा तत्वों की चर्चा करते रहेंगे । ये नौजवान लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे । दरअसल उम्र में विवेकानन् से साठ बरस बडे थे । भूपेन्द्रनाथ दत्त ने लिखा है कि पूना में बासुदेव ने उन्हें बताया कि विवेकानंद और तिलक की बातचीत के समय भी मौजूद उन दोनों में ये तहत आया तिलक राजनीति के मंच से और विवेकानंद धर्म के माध्यम से राष्ट्र को जगाएंगे । विवेकानंद ने शंकराचार्य के महाभाष्य का कुछ भाग इस यात्रा में राजपुताना की नारायण दास से पढ लिया था और जो शीर्ष था वो पोरबंदर के विख्यात विद्वान पंडित शंकर पांच रन से पढा । उसे समाप्त डर कि वे ब्याज के विधान सूत्र का अध्ययन करने लगे । इसी बीच में वहाँ पंडितों की एक विचार सभा हुई एकत्रित पंडित कितने ही प्रश्न पर आपस में सहमत नहीं थे । विवेकानंद ने मधुर कंठ से सुनियोजित संस्कृत में बोलते हुए बताया कि विधान के विभिन्न संप्रदाय परस्पर विरोधी होने की बजाय एक दूसरे के समर्थक हैं । विधान शास्त्र कुछ दार्शनिक मतवादों की समझती नहीं बल्कि साधन जीवन की विभिन्न स्थितियों में अनुभूत सत्यों का समूह उनके मुख से विधान की ये नहीं व्याख्या सनकर उपस् थित पंडित मंत्रमुग्ध तथा आश्चर्यचकित रहे गए । इस सभा के बाद विवेकानंद के अध्यापक पंडित शंकर पांडुरंग ने उनसे कहा स्वामी जी, मैं नहीं समझता कि इस देश में धर्म प्रचार द्वारा कुछ कर पाएंगे । समय और शक्ति व्यर्थ में मत दवाई । आप आसियान देशों में जाएंगे । वहाँ के लोग प्रतिभा और योग्यता का सम्मान करना चाहते हैं । अपने उधर विचार अभी कारण आप वहाँ अवश्य सफल । स्वामी जी ने दैनिक रुककर उत्तर दिया । हाँ, एक दिन प्रभाग में मैं समुद्र तट पर खडा तरंगों का नृत्य देख रहा था । एक का एक मन में आया मुझे कि इस विश्व समुद्र को लांघकर दूर विदेश में जाना चाहिए । देखो ये सात खबर कैसे पूरी होती है । फिर जब वे मैसूर के राजभवन में अतिथि थे तो पता चला कि शिकागो में धर्मसभा होने जा रही मैसूर का राजा वहाँ जाने का सारा खर्च वहन करने को तैयार था । स्वामी जी ने उनसे कहा, महाराज, मैंने हिमालय से कन्याकुमारी तक के भ्रमण का संकल्प ले रखा है । पहले मुझे से पूरा करना है तो फिर क्या करना और कहाँ जाना है । उसके बाद सोचूँगा । अक्टूबर में मैसूर से चले तो कोचिंग और मथुरा होते हुए दिसंबर में जब वे कन्याकुमारी पहुंचे तो बहुत थके हुए यात्रा में अंतिम चरण तक पहुंचने के लिए उनके पास नाक का किराया ना था, समुद्र में कूद पडे और शार्कों से भरे जलडमरूमध्य को तैरकर पार किया । धरती के अंतिम छोर पर बने स्तम्ध की छत पर चढकर जब उन्होंने इधर उधर दृष्टि डाली तो उनके भीतर आनंद की तरह की उठ रही थी । सामने समुद्र पीछे पहाड मैदान, नदियाँ महल, मंदिर झोपडियां भारत की पवित्र भूमि का एक के बाद एक दृश्य सामने आते चला । उन्होंने देखा धर्मक्षेत्र भारत वर्ष, दुर्भिक्ष, महामारी, दुख, दैन्य रोग शोक से जर्जरित है । एक और प्रबल विलास मोह में उन मत अधिकार, मत्स्य, मतवाले दैनिक लोग गरीबों का खून चूस कर अपने विलास कि बिपाशा को तृप्त कर रहे हैं । दूसरी ओर अल्पाहार से जीर्णशीर्ण फटे वस्त्र वाले मुखमण्डल पर युग युगांतर की निराशा लिए अगणित नर नारी बालक बालिकाएं हालांॅकि चित्कार से गगन मंडल को विदीर्ण कर रहे हैं । शिक्षा दीक्षा के अभाव में निम्न जातियों लोग पूरे संप्रदाय के वही कठोर व्यवहार से सनातन धर्म के प्रति श्रद्धा हीन हो गए । केवल यही नहीं हजारों व्यक्ति हिन्दू धर्म में ही को अपराधी ठहराकर दूसरे धर्म को ग्रहण करने के लिए तैयार है । करोड व्यक्ति अज्ञान के अंधकार में डूब रहे हैं । उनके हृदय में ना आशा है न विश्वास करना, नैतिक बल, शिक्षित नामधारी एक अपूर्व श्रेणी के जीत गढन के प्रति सहानुभूति प्रकट करना तो दूर रहा । पास चार शिक्षा से स्वेच्छाचारी बन उन्हें छोडकर नए नए समाज व सांप्रदायों स्थापना द्वारा धर्म के मस्तिष्क पर अग्निमय अभिशापों की वर्ष करने में लगे हुए हैं । धर्म केवल प्राणविहीन आचार नियामों की समझती कुसंस्कारों की लीलाभूमि हैं । परिणाम में वर्तमान भारत प्रयास यहाँ आशा उद्यम आनंद वह उत्साह के बिखरे हुये ध्वंसावशेष ओ से पूर्ण महाशमशान बना हुआ है । वो सोचने लगे हम लाखों सन्यासी भी के अन्य से जीवन धारण करके उनके लिए क्या कर रहे हैं । इन्हें दर्शनशास्त्र की शिक्षा दे रहे हैं । अधिकार है भगवान श्रीराम कृष्ण देव कहा करते थे खाली पेट में धर्म नहीं होता । साधारण अन्य मोटे वस्त्र की व्यवस्था चाहिए । भूख व्यक्ति को धर्मोपदेश देने के लिए अग्रसर होना मूर्खता मात्र है । धर्म उनमें यथेष्ठ हैं । आवश्यकता है शिक्षा विस्तार की चाहिए भोजन, वस्त्र की व्यवस्था परन्तु ये कैसे संभव होगा इस कार्य में अग्रसर होने के लिए प्रथम चाहिए मनुष्य और द्वितीय धन । अठारह सौ बयान के अंत में कन्याकुमारी के मंदिर के शीला पर बैठे हुए विवेकानन् अठारह सौ छियासी के आरंभ में बराहनगर मत से देश भ्रमण पर रवाना होने वाले विवेकानंद एकदम भिन्न तो नहीं लेकिन बहुत मैं चार वरिष्ठ थोडे समय में उनका जवाब बहुत मानसिक विकास हुआ । वहाँ केवल जनसंपर्क द्वारा ही संभव था । उन्होंने देश की धरती का चप्पा चप्पा अपनी भी है से स्पर्श किया और राष्ट्रीय समस्याओं को प्रत्यक्ष देखा । उस तक ज्ञान अनुभूत सत्य में और कल्पनाथ हो । सिद्धार्थ में परिणीत हुई ये सोच कर चले थे कि धर्मप्रचार बारात, भारत को सोते से जगाना और विभिन्न मतवादों से विभाजित जातियों, संप्रदायों तथा धर्मों में अद्वेत मैदान की शिक्षा द्वारा एकता स्थापित करना यही काम है जो रामकृष्ण परमहंस उन्हें सौंप गए । पर इस देश भ्रमण के दौरान उन्होंने अपनी आंखों से देखा कि भारत की जीर्णशीर्ण जनता अज्ञान के अंधकार में, अन्य के अभाव में भूख से तडप रही धर्म बाद की बात है पहला काम उसके अज्ञान और भूख को दूर करना । अपनी इस यात्रा में उन्होंने धनी राजा महाराजा से बार द्वार जाकर प्रार्थना की कि देश गरीबों, दीन दुखियों की सहायता कर, पर किसी ने उनकी प्रार्थना पर काम नहीं और मौखिक सहानुभूति के सिवा कुछ हाथ नहीं । अब उन्होंने सोचा कि पाश्चात्य देशों के पास धन बहुत हैं, पर धर्म का भाव मैं वहाँ जाकर नेवेडा की शिक्षा दूंगा और उसके बदले में मैं उनसे कहूंगा । भारत के अनपढ दरिद्र जनता के लिए थंडो धंधो और धन मिल जाएगा, जो आगे का कार्य निर्धारित हुआ । और भी शिकागो की धर्म महासभा में जाने का निश्चय कर के ही तैरकर समुद्र तट पर है । अब कन्याकुमारी से फ्रांस अधिकृत पांडिचेरी होते हुए मद्रास पहुंचे । मद्रास में उनकी कितनी शिक्षित उनसे अपना निश्चय बताया और अमेरिका जाने की तैयारी करने लगे । राज्य और महाराजे उन्हें विदेशी यात्रा के लिए सहायता लेना चाहते थे, पर उन्होंने अपने शिष्यों से कहा, मैं देश की जनता निर्धन जनता का प्रतिनिधि बनकर जा रहा हूँ, इसलिए मध्य वित्त जानता ही से सहायता लेना । उससे इसकी सूचना उन्होंने अपने बराहनगर मटके गुरु भाइयों को नहीं, पर एक तपाक से जाने से एक दिन पहले बम्बई के निकट एक स्टेशन पर उनकी भेज अब हैनन और सूर्यानंद से हो गई । मैं समस्त भारत की प्रदक्षिणा कर चुका हूँ । मेरे बंद हूँ अपनी आंखों से जनसमुदाय की भयंकर गलत रखा और पीडा देखने की वेदना मैंने अनुभव की है । आंसू संभाल नहीं सकता हूँ मैं अब मैं दृढता से कहता हूँ कि उस जनसमुदाय का खिलेश उसका काठ इंडिया दूर करने का यात्रा किये बिना उसको धर्मशिक्षा देना समर्था बियर! इसी कारण भारत के तरफ परिजनों की मुक्ति का साधन जुटाने मैं अमेरिका जा रहा हूँ । इकतीस नहीं अठारह सौ छियानवे बम्बई से अमेरिका के लिए जहाज पर सवार हुए स्वामी भी देखा है । उस समय उन्होंने रेशमी अंग रखा पहन रखा था और उनके सिर पर एक गेरुए रंग की पकडनी