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चैप्टर थ्री धवन सत्य जो केवल उन्हीं को प्राप्त होता है जो निर्भय होकर बिना दुकानदारी किए उसके मंदिर में जाकर केवल उसी के ही तो उसकी पूजा करते हैं । हाँ विवेकानन्द रामकृष्ण परमहंस एक सच्चे मनीषी थे । वो अपने मनन और भिन्न भिन्न समाधियों द्वारा इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि एक ही सत्ता एक साथ एक भी है और अनेक भी है और फिर घोषणा की थी कि हिन्दू मुसलमान इस साइड था । वैष्णव आदि संप्रदायों का धर्म के नाम पर आपस में लडना व्यर्थ है । उन्होंने एक ही सत्ता के ईश्वर, अल्ला तथा गॉर्ड अलग अलग नाम रख लिए है और अपने अपने मार्ग से एक उसी की खोज कर रहे हैं । अब अपने इस आदर्श को कार्यरूप देने के लिए उन्हें संगठन की जरूरत महसूस हुई । इसके लिए उन्होंने अठारह सौ चौरासी में शिष्य बनाना शुरू की है और अठारह सौ छियासी में आपने मृत्यु के समय तक पच्चीस शिष्य डालिए । नरेन्द्र उन सब में श्रेष्ठ था और परमहंस ने उसके निर्माण में अपनी पूरी शक्ति लगा । नरेंद्र से उनका प्यार जुनून की हद तक बढ गया था । प्रियनाथ सिन्हा अपने स्वर्ण में लिखते हैं, नरेंद्र बहुत दिनों से श्रीराम कृष्ण देव के पास नहीं गए थे । इसलिए वे स्वयं एक दिन सवेरे रामलाल के साथ कल घटना में नरेंद्र के तंग में आए । उस दिन सवेरे नरेंद्र की कमरे में दो सहपाठी हरिदास चट्टोपाध्याय और दशरथी सान्याल बैठेगा । ये लोग कभी पढते थे तो कभी वार्तालाप करते हैं । इसी समय है वह हरिद्वार पर नर्इ नरीन ये शब्द सुनाई पडेगा । स्वर सुनते ही नरेंद्र हडबडाकर तेजी से नीचे पहुंचे । उनकी मित्र ने भी समझ लिया कि श्रीराम कृष्ण देव आए हैं । इसलिए नरेंद्र इतनी अस्त व्यस्त हो कर उन्हें परस्पर साक्षात्कर हुआ । श्रीरामकृष्णन नरेंद्र को देखते ही अश्रुपूर्ण लोचनो से गदगद स्वर में कहने लगे तो इतने दिनों तक आया क्यों नहीं फॅारेन इतने दिनों तक क्यों नहीं आया? बार बार इस तरह कहते कहते कमरे में आकर बैठ के बाद में अंगोछे में बंदे संदेश को खोलकर नरेंद्र को खा खा कहकर खिलाने लगे । जब कभी नरेंद्र को देखने आते तो कुछ न कुछ अति उत्तम खाद्य वस्तुओं उनके लिए अवश्य मान कर लिया । बीच बीच में लोगों के द्वारा भी भेज देते थे । नरेंद्र के लिए खाने वाले तो थी नहीं । उनमें से कुछ संदेश लेकर पहले अपने मित्रों के पास गए और उन्हें दिए । फिर स्वयं है श्री राम कृष्णा । इसके बाद बोले अरे दिन गाना बहुत दिनों से नहीं सुना, जरा गाना तो गा । उसी समय तानपुरा लेकर उसका कान एंड स्वर बांध कर नरेंद्र ने गाना प्रारंभ ज्यादा वो वहाँ कुल कुंडलिनी जो भी गाना आरंभ हुआ, श्रीरामकृष्ण भी भावा होने लगे । गाने के स्तर स्तर में उनका मन ऊपर उठने लगा । आंखे भी अपलक हो गयी । अंग स्पंदन हीन हो गए । मुख्य ने अलौकिक भाव धारण किया और धीरे धीरे संगमर्मर की मूर्ति के सम्मान निस्पंद होवे निर्विकल्प समाधि में लीन हो गए । नरेंद्र के मित्रों ने इससे पहले किसी मनुष्य को इस प्रकार भाव आस नहीं देखा था । वे श्रीरामकृष्ण की व्यवस्था देखकर मन में सोचने लगे । मालूम होता है शरीर में किसी प्रकार की वेदना से ऐसा उत्पन्न हो गई है, इसलिए वे संज्ञाशून्य हो गए । वह बहुत डर दश्ती तो जल्दी जल्दी पानी लाकर उनके मुख पर छींटा देने का प्रयत्न करने लगे । ये देखकर नरेंद्र उनका रोककर कहने लगे उस की कोई आवश्यकता नहीं । वे संज्ञाशून्य नहीं हुए हैं । वे भावा हुए हैं । फिर से गाना संदेश देवी चेतनायुक्त हो जाएंगे । नरेन्द्र ने इस बार श्यामा विषय गाना प्रारम्भ किया । उन्होंने एक बार तीन मिनी तेरे मिनी ते मनी करे ना जो माँ श्यामा इस प्रकार के बहुत से शाम विषय कभी भावना हो जाते थे और कभी स्वाभाविक अवस्था प्राप्त कर लेते थे । नरेंद्र बहुत देर तक गाना गाते रहे । अंत में गाना समाप्त होने पर श्रीराम कृष्ण देव बोले दक्षिणेश्वर चलेगा कितने दिनों से नहीं गया है । चैनल फिर लौटाना । नरेन्द्र उसी समय तैयार हो गए । पुस्तक आदि उसी तरह पडी रही । केवल तानपुरे को यत्नपूर्वक रखकर उन्होंने श्री गुरुदेव के साथ दक्षिणेश्वर प्रस्थान किया । नरेंद्र अगर कुछ दिनों तक दक्षिणेश्वर नहीं जाता था तो रामकृष्णा बहुत व्याकुल होते थे । अठारह सौ छियासी की बात है । वो एक दिन बरामदे में बेचैन हो रहे थे और रोते हुए कह रहे थे मां उसे देखे बिना में रहे नहीं सकता । कुछ क्षण बाद उन्होंने अपने को संभाला और कमरे में शिष्य के पास आकर बैठ हैं । इतना रुपया पर नरेंद्र नहीं आया । वे बेसिस से कह रहे थे उसे एक बार देखने के लिए मेरे हृदय में बडी पीडा होती है । छाती के भीतर मानो कोई मरोड रहा है पर मेरी खिचांव को वो नहीं समझता । जब नरेंद्र आ जाता तो पहले उस से गाने सुनते और फिर खूब खिलाते पिलाते थे । कई बार से ढूंढने खुद भी शहर जाते थे । रामकृष्ण नरेंद्र को अपने शिष्यों में सबसे अधिक प्यार करते थे । उन्होंने सुरेंद्रनाथ के मकान पर पहली ही नजर में पहचान लिया था कि नरेंद्र एक सत्यनिष्ठ और दृढ चरित्र युवक है और इसमें लोक नायक बनने की बडी संभावनाएं रामकृष्णा ने अपनी अंतर्दृष्टि से भाग लिया कि उनके जितने मत उसने पत्थर सार्वभौम संदेश का प्रचार करने के लिए नरेंद्र एक योग्य अधिकारी है । सिर्फ इतना ही नहीं उनकी मैं थक सृष्टा समुद्र कल्पना नहीं और से सप्तर्षि मंडल में से एक नर रूपी नारायण बना दिया । जिस तरह रामकृष्ण परमहंस को देखकर नरेंद्र की एक राय बनी, उसी तरह नरेंद्र को देखकर परमहंस की जो राय बनी उसे उन्होंने यूज किया है । मेरे नरेंद्र के भीतर थोडी भी कृत्रिमता नहीं है । बजाकर देखो तो ठंड ठंड शब्द होता है, दूसरे लडकों को देखता हूँ । मानव आंख कान दबाकर किसी तरह दो तीन परीक्षाओं को पार कर लिया है । बस वही देख । उतना करते ही सारी शक्ति निकल गई है, परंतु नरेंद्र वैसा नहीं है । हस्ते हस्ते सब काम करता है पास करना उसके लिए कोई बात ही नहीं । वहाँ ब्रह्मा समाज में भी जाता है, वहाँ भजन गाता है, परंतु दूसरे भ्रमों की तरह नहीं । वही यथार्थ ब्रह्मज्ञानी ध्यान के लिए बैठते ही उसे ज्योति दर्शन होता है । उसे मैं यही प्यार नहीं करता । नरेन्द्र कि इन्हीं गुणों के कारण रामकृष्ण अपने शिष्यों में से उसे सबसे अधिक प्यार करते हैं और इसे अपना । अगर आपने युग कार्य के लिए तैयार करना चाहती थी, लेकिन नरेंद्र भी सहज में हाथ लग जाने वाला नहीं था । वहाँ भी दृढ संस्कारयुक्त गठन का असाधारण युवक था जिसके बहारी आचरण से लोगों से उद्दंड, हटी, दंभी तथा कैसे तडप रहा है और जीवन रह से पास जाने के लिए सुख भुगतो किया वहाँ प्राण तक होम कर सकता है । रामकृष्णा किसी भी व्यक्ति को जांच परख कर ही अपना शिव बनाया करते थे । नरेंद्र की असाधारण प्रतिभा को चाहे उन्होंने पहचान लिया था और चाहे भी उसे तन मन से प्यार करते थे, उसे देखे बिना चैन नहीं पडता था लेकिन शिष्य के रूप में ग्रहण करने से पहले उस की भी परीक्षा लेना आवश्यकता हो सकता है की दृष्टि ने धोखा खाया हो । इसी तरह जो व्यक्ति शिक्षा देने का योग के अधिकारी न हो, नरेंद्र उसे गुरु धारण करने को तैयार नहीं था । इसलिए उसने भी रामकृष्ण, स्वभाव और शक्ति की परीक्षा लेना आवश्यक समझा । योग वही है कि एक अद्भुत पुरुष और एक असाधारण युवक अपने अपने कक्ष पत्र में घूमने वाले नक्षत्रों की तरह से ऐसा एक दूसरे से आठ तक रहे और इन दोनों में गुरु शिष्य का संबंध होने से पहले एक दूसरे की परीक्षा लेते एक दूसरे को समझाते पडते रहे । नरेन्द्र दक्षिणेश्वर आने से पहले ब्रह्मा समाज का सदस्य था और उसके प्रतिज्ञा पत्र निराकार द्वितीय विश्व रखकर केवल उसी की उपासना करूंगा पर हस्ताक्षर भी किए थे । अब रामकृष्ण ने उसे अष्टावक्र संहिता अधिग्रहण पडने को दिया लेकिन इनमें व्यक्त मान्यताएं नरेंद्र की पूर्व संस्कारों तथा मान्यताओं के विपरीत थी । इसलिए वजन आउट मैं ये पुस्तकें नहीं पडेगा । मनुष्य ईश्वर कहना इससे बडा पाप और क्या होगा? ग्रंथ करता ऋषि मुनियों का मस्तिष्क अवश्य ही विकृत हो गया था नहीं तो ऐसी बातें कैसे लिख पाते । रामकृष्णा मृदु मुस्कान होठों पर लाकर शांत भाव से उत्तर देते हैं तो इस समय उनकी बातें ना लेना चाहे तो नाले पर ऋषि मुनियों की निंदा क्यों करता है । तो सत्यस्वरूप भगवान को पुकारता चल उसके बाद मैं जिस रूप में तेरे सामने प्रकट होंगे उसी पर विश्वास कर लेना । राखाल चन्द घोष नरेंद्र के साथ ही ब्रह्मा समाज का सदस्य बनाया था । अब नरेंद्र से कुछ दिन पहले ही वह दक्षिणेश्वर आने जाने लगा था । एक दिन नरेंद्र ने देखा कि वो रामकृष्ण के पीछे पीछे मंदिर में जाकर मूर्ति को प्रणाम कर रहा है । नरेंद्र का पारा चढ गया । उसने राखाल पर प्रतिज्ञा भंग करने का दोष लगाया और उसे मिथ्या जारी कहा । राखाल ने अप्रतिम होकर गर्दन झुका ली । उस से कह देना बंद पडा । लेकिन रामकृष्ण ने उसका पक्ष लेकर नरेंद्र से कहा, उसको यदि अब सरकार में होती हो तो वो क्या करेगा? तुम्हें अच्छा नहीं लगे तो तुम ना करो । पर इस प्रकार दूसरों का भाव नष्ट करने का तुम्हें कौन अधिकार देता है? रामकृष्ण अपने विचार किसी पर थोपते नहीं थे और अगर कोई दूसरा किसी पर थोपे तो वे उसका विरोध करते हैं । अपने शिष्य की वृद्धि, रामकृष्ण के व्यवहार के बारे में रोमांस बोला लिखते हैं, उस समय तक भारत वर्ष में गुरु का उसके शिष्य माता पिता से भी बढकर आदर करते थे । परंतु रामकृष्णा ऐसा कुछ ना चाहते थे । वे अपने आप को अपने शिष्य के समान समझते थे । मैं उनके साथ ही उनके भाई थे । वे घनिष्ठ मित्र के रूप में उनसे बातें करते थे और किसी प्रकार के बडप्पन का भाव प्रदर्शित नहीं करते थे । एक दिन की बात है कि केशवचंद्र सेन विजय कृष्ण गोस्वामी आदिब्रह्मा समाज की प्रसिद्ध नेता रामकृष्ण के पास बैठे थे । नरेंद्र भी वहां मौजूद थे । परमहंस भावावेश में उन की ओर देखते और बातें करते रहे, लेकिन जब भी चले गए तो रामकृष्णन ने अपने भक्तों को मुखातिब करते हुए कहा हाँ, अब में मैंने देखा एशिया में जिस एक शक्ति के बल पर प्रतिष्ठा प्राप्त की है, नरेंद्र में उस प्रकार की अठारह शक्तिया कृष्ण और विजय के मन में ज्ञानदीप चल रहा है । नरेन्द्र में ज्ञान सूर्य विद्यमान नरेंद्र ने प्रतिवाद किया । क्या कहते हैं कहाँ विश्वविख्यात केशव सीन और कहाँ? स्कूल का एक नगण्य लडका नरेंद्र लोग सुनेंगे फिर आपको पागल कहेंगे रामकृष्णन एमरित हास्य कर सरल भाव से उत्तर दिया मैं क्या करूँ? भला माने दिखा दिया । इसलिए कहता हूँ महान दिखा दिया या आपके मस्तिष्क का ख्याल है, कैसे समझे? नरेंद्र ने कहा मुझे तो महाराज भी ऐसा होता तो यही विश्वास कर लेता तो ये मेरे मस्तिष्क आ ही क्या है? आशियाकी विज्ञान और दर्शन ने इस बात को निःसंदेह प्रमाणित कर दिया है कि कान, आंख, आधी इंद्रिया कई बार हमें भ्रम में डाल देती है । ये हमें पद पद पर धोखा देती रहती है । आप मुझे प्यार करते रहते हैं और प्रत्येक विषय में मुझे बडा देखने की इच्छा करते हैं । इसलिए संभवतः था । आपको ऐसे दर्शन होते रहते हैं । जो बात तर्क की कसौटी पर खरी ना उतरे, उस पर विश्वास कर लेना नरेंद्र के स्वभाव के विपरीत था । वहाँ राम कृष्ण के हर शब्द को तो बोलता था और संदेह व्यक्त करने में सब कुछ आता नहीं । राम कृष्णा भी नाराज होने या बुरा मानने के बजाय इसी से उसे अधिक चाहते थे । नरेंद्र के आने से पहले उन्हें काली से ये प्रार्थना करते सुना गया था । हाँ, मैंने जो कुछ उपलब्धियां प्राप्त की है, उनमें संदेह करने वाले किसी व्यक्ति को मेरे पास भेज दो । नरेन्द्र विज्ञान और पांच शाह के दर्शन पडा था । उसने जब दक्षिणेश्वर आना जाना शुरू किया तो अंधविश्वास और मूर्ति पूजा से सख्त घृणा करता था । उस समय ना सिर्फ भक्तगण राम कृष्ण का अवतार मानते थे बल्कि वे खुद भी अपने को अवतार मान देते और शिष्यों से कहते थे जो राम था, जो कृष्ण था, वहीं अब रामकृष्ण है । लेकिन नरेंद्र ने इस बारे में उन्हें साफ साफ कहा, चाहे सारी दुनिया आपको अवतार कहे, पर जब तक मुझे इसका प्रमाण नहीं मिलता, मैं आपको वैसा नहीं करूंगा । रामकृष्ण ने मुस्कराते हुए नरेंद्र की बात का समर्थन किया और शिष्यों से कहा, किसी भी बात को केवल मेरे कहने के कारण स्वीकारना करो । तुम स्वयं हर एक बात की परीक्षा करो । रामकृष्णा अद्वैत सिद्धांत की जो ब्रह्मा की एकता सूचक शिक्षा देते थे, नरेंद्र उस पर तनिक भी ध्यान नहीं देता था, बल्कि कई बार उसका मजाक उडाते हुए अपने मित्र हाजरा से कहा करता था क्या ये संभव है? लोटा ईश्वर है, कटोरा ईश्वर है, जो कुछ दिखाई पड रहा है तथा हम सब ईश्वर है । नरेन्द्र की इस प्रकार की आलोचना से रामकृष्ण के भाग कर शिष्य उससे छूट गए थे । शुरू शुरू में वे उससे कठि तथा जानकारी समझने लगे थे । पर नरेंद्र का ज्ञान देखकर स्वयं रामकृष्ण का आनंद इतना तीव्र होता था कि वे बीच बीच में भावा नष्ट हो जाते थे । रोमांस बोला । लिखते हैं नरेन्द्र की तीव्र आलोचना और उसके आगे समय तर्क उन्हें आनंद से मग्न कर देते थे । नरेंद्र की उज्वल तम तर्कबुद्धि और सत्य के अनुसंधान के लिए उसकी अटक निष्ठा के प्रति उन गहरी श्रद्धा जी । वे उसे शिवशक्ति का प्रकाश मानते थे और कहते थे कि ये शक्ति ही अंत में माया को बराबर खुद करेगी । वो कहते थे, देखो कैसे अन्तर भी दी दृष्टि हैं । ये एक प्रचलित अग्निशिखा है । समस्त अपवित्रता को भस्म कर देंगे । महामाया स्वयं भी उसके पास दस कदम के अंदर तक नहीं हो सकती । उसने उसे जब महिमा दी है, उसकी शक्ति ही उसे पीछे रोक रखती है । यहाँ भी लिखा है । तथापि कभी कभी जब उसकी आलोचना दूसरों का कोई ख्याल न करते हुए कठोर भाव से प्रयुक्त होती थी तो उससे वृद्ध रामकृष्ण को दुःख होता था । नरेंद्र ने रामकृष्ण के ऊपर ही कहा था, आपके से जानते हैं कि आपकी उपलब्धियां केवल आपकी अस्वस्थ मस्तिष्क की उपज । यह केवल दृष्टि ग्राम मात्र नहीं है । इन मतभेद के बावजूद अद्भुत पुरूष और असाधारण युवक के आपसी संबंध दिन दिन कैसे घनिष्ठ और स्मिथ होते जा रहे थे, इसके दो उदाहरण लीजिए । नरेंद्र कोई दो सप्ताह से दक्षिणेश्वर नहीं आया था । रामकृष्णा उसे देखने के लिए व्याकुल हो उठे । कलकत्ता जाकर देखने का निश्चय किया । इतवार का दिन था । सोचा कि नरेंद्र शायद घर पर नाम ले । परेशान को साधारण ब्रह्मा समाज की उपासना में भजन गाने अवश्य जाएगा । अतेम रामकृष्ण शाम को ब्रह्मा समाज के उपासना भवन में उसे खोजने गए जब वे वहां पहुंचे उस समय आचार्य वेदी से व्याख्यान दे रहा था । वे अपनी सीधे स्वभाव से वेदी की ओर बढ चले । उपस् थित सर्जनों में से कईयों ने उन्हें पहचान लिया । खुसर पुसर शुरू हुई और लोग उच्चकुल चक्कर उन्हें देखने लगे । राम कृष्ण बेदी के निकट पहुंच करे से ऐसा भाव विष्ट हो गए । उन्हें इस अवस्था में देखने की उत्सुकता और भी बडी उपासनागृह में गडबडी मछली देख संचालकों ने गैस की बत्तियां बुझा दी । अंधेरा हो जाने के कारण जनता में मंदिर से निकलने के लिए हडबडी मच गई । नरेंद्र को रामकृष्ण के वहाँ आने का कारण समझने में देर नहीं लगी । उसने आकर उन्हें संभाला । जब समाधि भंग हुई तो वहाँ मंदिर के पिछले दरवाजे से किसी तरह ने बाहर लाया और गाडी में बैठाकर दक्षिणेश्वर पहुंचाया । ब्रह्मो ने रामकृष्णा के प्रति दैनिक भी शिष्टाचार नहीं दिखाया बल्कि उनका आचरण अभद्रता और उपेक्षा का था । नरेन्द्र के मन पर इससे चोट लगी और उसने इसके बाद ब्रह्मा समाज में जाना छोड दिया । रामकृष्ण ने नरेंद्र की परीक्षा लेने के लिए एक बार ऐसा भाव अपनाया की उसके दक्षिणेश्वर आने पर वे उसकी ओर कुछ भी ध्यान नहीं देते थे । ना उसका गाना सुनते और नौ से बातें करते । नरेंद्र ने भी इसकी कोई परवाह नहीं कि वहाँ आता और शिष्य से हज बोल कर लौट जाता । प्रतापचंद हाजरा से उसकी खास तौर पर पट्टी वहाँ कभी कभी उसके साथ बातचीत और बहस में तीन चार घंटे बता देता, जब इस प्रकार जाते जाते लगभग एक महीना बीत गया । एक दिन हाजरा से बात करने के बाद वो कुछ देर के लिए रामकृष्ण के पास बीज बैठा । जब नरेंद्र उठकर जाने लगा तब बोले, जब मैं उससे बात नहीं करता है तो फिर किस लिए आता है? नरेन्द्र ने चट कर दिया । आपको चाहता हूँ इसलिए देखने आता हूँ । बात सुनने के लिए नहीं । उसका ये उत्तर सुनकर रामकृष्ण भाव आनंद से गदगद हो उठे । आपने पर रामकृष्ण का इतना मेंहदी करेगी? नरेंद्र ने उनसे मजाक में कहा । पुराण में लिखा है राजा भरत दिन रात अपने पालित हिरण की बात सोचते सोचते मरने के बाद हिरण हुए थे । आप मेरे लिए जितना करते है, उससे आपकी भी वही दशा होगी । शिशु के समान सेटल रामकृष्णा चिंतित होकर बोले, ठीक ही तो कहता है तो फिर क्या होगा? मैं तुझे देखे बिना रह नहीं सकता । संदेह का उदय होते ही रामकृष्णा चट काली मंदिर में माँ के पास गए और कुछ दिनों के बाद हसते हुए लौट हैं । बोले अरे मूर्ख मैरी बात नहीं मानूंगा । माँ ने कहा टूस नरेंद्र को साक्षात नारायण मानता है इसलिए प्यार करता है । जिस दिन उसके भीतर नारायण नहीं दिखेगा उस दिन दूसरी उसका मूवी देखने के बीच में नहीं होगी । से से अठारह सौ चौरासी तक तीन वर्ष ऐसे ही चलते रहे । जब नरेंद्र ने दक्षिणेश्वर आना जाना शुरू किया तो उसे एफडीए की परीक्षा दी नहीं, तब तक वहाँ मिल आदि पार्शियल आती । नया इको के मतवार का अगेन बराबर जारी रखा । बी । ए पास करते करते उसने देखा करके हम बाद यूँ और बैंक है इनकी नास्तिकता अगले अवाद और आदर्श इच्छित वस्तु आज डार्विन का विकासवाद, कामटे और स्पेंसर का अज्ञेयवादी और आदर्श समाज की अभिव्यक्ति के संबंध में बहुत कुछ पढ लिया था । उन दिनों जर्मन दार्शनिको की बडी चर्चा थी इसलिए नरेंद्र ने बाॅन्ड फिफ्टी हेंगे । शॉप ने हावर के मतवादों से भी परिचय प्राप्त किया था । इसके अलावा स्नायु और मस्तिष्क की गठन एवं कार्य प्रणाली को समझने के लिए मेडिकल कॉलेज में जाकर व्याख्यान सुने और विषय का अध्ययन किया । लेकिन इस सबसे ज्ञान की प्यास बुझाने के बजाय और तीव्र होती । उसके हृदय में सत्य तत्व निर्णय करने का प्रबल अच्छा रहा था । एक तरफ पश्चिम का भौतिकवाद और दूसरी तरफ दक्षिणेश्वर का अध्यात्मवाद दोनों के बीच डोर रहा । उसका मन अत्यंत शांत था । बिना अनुभव किये ईश्वर को मानने की उपेक्षा । नरेंद्र नासिक बन जाना बेहतर समझता था । निर्णय कर लेना साइज नहीं था । घर का वातावरण और पारिवारिक परंपरा भी दो परस्पर विरोधी आदर्श प्रस्तुत कर रही थी । एक तरफ दादा का त्याग था, जिन्होंने सबकुछ छोडकर सन्यास धारण किया था । दूसरी तरफ पिता का भोगवाद जिन्होंने वकालत जमाई थी, ज्यादा से ज्यादा रुपये का माना और ठाठ से खर्च करना ही इनके जीवन का लक्ष्य था । पास शायद शिक्षा के प्रभाव से उन्होंने अतीत को भुलाकर वर्तमान में रहना सीखा था । वे संस्कृत नहीं जानते थे । इसलिए गीता और उपनिषद आदि का अध्ययन उन्होंने नहीं किया था और न करने की आवश्यकता ही महसूस की । विचार अपने को स्वतंत्र चिंतक मानते थे । पर आत्मा तथा शरीर का क्या संबंध है? ईश्वर है या नहीं ये जानने की चिंता उन्होंने कभी नहीं । फारसी की सूफी कवि हाफिज की कविता और बाइबिल में दर्ज ईसा मसीह की वाणी ही उनके आध्यात्मिक भाव की चरम सीमा थी । नरेंद्र को धर्म में प्रवृत्त देखकर उन्होंने एक दिनों से बाइबल उपहार में दिया और कहा ले धर्मकर्म सभी इसी में हैं । दरअसल हाफिज की कविता दत्ता बाइबिल बी वे मान बहलावे अथवा फैशन के तौर पर पडते थे । उनकी स्वार्थ प्रिया बुद्धि को इन दो ग्रंथों की भी और कोई व्यवहारिक उपयोगिता दिखाई नहीं दे दी थी । वे नितांत आत्मजीवी थे । धन और यश उनकी जीवन नौका के दो सपूत हैं । पहले आप सब भोग से रहूँ फिर जो धन बच्चे उसे दान में देकर दूसरों की दृष्टि में सुखी और श्रेष्ठ मनोज कलकत्ता के शिक्षित समाज में ऐसे ही लोगों की संख्या दिन दिन बढ रही थी । इन लोगों की यह धारणा बन गई थी कि विज्ञान, स्वतंत्र चिंतन और आध्यात्मिक भी अगर है तो पश्चिम के पास है । हमारे ऋषियों तथा शास्त्रों से अंधविश्वास और दुर्बलता के सिवा और कुछ नहीं सीखा जा सकता है । इसी पाश्चात शिक्षा के कारण ब्रह्मा समाज दो में विभाजित हो गई थी । भावावेश में आनंद विभोर हो जाने वाले रामकृष्ण का अद्वैतवादी ऐसा था जो आत्मत्याग ई और सत्यनिष्ठ युवकों को अपनी और आकर्षित कर रहा था । पर नरेंद्र की तर्कबुद्धि उससे भी अपना सामंजस्य स्थापित नहीं कर पा रही थी । नरेंद्र ने अठारह वर्ष की आयु में दक्षिणेश्वर जाना शुरू किया था । अब ये की परीक्षा देते समय उसकी आयु किस बस्ती यह तय था कि व्यक्तिगत सुख भोग को उसने अपने आदर्श के रूप में कभी ग्रहण नहीं किया था । सत्य का अनुसंधान, समाज, राष्ट्र और मानव जाति का कल्याण ही उसके जीवन का पर मत दिए था । अपने आप को इस दिए के अनुरूप बनाने के लिए जिस तरह सोना को थाली में पिलाया जाता है, नरेंद्र ने अपने मस्तिष्क को ज्ञान की कुछ खाली में पिछला डाला था । लेकिन इस चमक थी मचलती तरल पदार्थ को उठा ली से निकालकर ठोस रूप देने वाला आदर्श पुरुष उसे अभी नहीं मिला था और ये अधिकार उसमें अभी रामकृष्ण को भी नहीं दिया था । इंडियन ओवर पास जाते दार्शनिक हेमिल्टन से अधिक प्रभावित था । हैमिल्टन ने अपने दर्शन ग्रैंड के उपसंहार में लिखा है संसार का नियामक ईश्वर है । इस सिद्धांत का आभास पाकर मनुष्य की बुद्धि निरस्त हो जाती है । ईश्वर का स्वरूप क्या है, ये प्रकट कर रहे की शक्ति उसमें नहीं है । अतः दर्शनशास्त्र की वही पिछली है और जहाँ दर्शन की समाप्ति है वहीं अध्यात्मिकता का प्रारंभ है । दक्षिणेश्वर में वह रामकृष्णा की शिष्यों से इसकी चर्चा खूब करता था । देखा जाए तो जाने अनजाने में इस माध्यम से भी अद्वैतवादी सिद्धांत के निकट पहुंच गया था । अब थोडा ही फासला तय करना बाकी रह गया था । ऐसी मनोस्थिति में कई बार जीवन घटनाएं भी निर्णायक भूमिका अदा करती है । बी । ए । पास करने से पहले ही विश्वनाथ ने बेटी को प्रसिद्ध टोनी निमाई चरण बसु के पास जाकर कानून की शिक्षा पाने का आदेश दिया ताकि वह भी पिता की दराज सफल वकील बने । फिर वे ये भी चाहते थे कि नरेंद्र नाम कृष्ण की चक्कर से निकले और विभाग करके ग्रहस्थ बने । उसके स्वतंत्र स्वभाव को जानते हुए विश्वनाथ ने इस संबंध में सीधे बात करना उचित नहीं समझा और नरेंद्र को ढर्रे पर लाने का काम उसके प्रिय सही पार्टी मित्र को सौंपा । एक दिन नरेंद्र टंग में बैठा परीक्षा की तैयारी के लिए पाठ्यपुस्तक पड रहा था । उसका ये सब पार्टी मित्र आया और गंभीर मुद्रा धारण करके कहने लगा नरेन्द्र सात संघ धर्म अर्चना आदि पागलपन छोर ऐसा काम कर जिसे सांसारिक सुख सुविधा प्राप्त हो । तथाकथित अनुभवी व्यक्तियों से ऐसी बातें सुनते सुनते नरेंद्र के कान पक चुके थे । अभी एक प्रिय मित्र के मुझसे भी वही उपदेश सुनकर वह स्तब्ध रह गया । कुछ क्षण मौन स्थिर बैठा रहा और फिर बोला सुन मेरा विचार अच्छे एकदम भिन्न है । मैं संन्यास को मानव जीवन का सर्वोच्च आदर्श मानता हूँ । परिवर्तनशील अनित्य संसार की सुख की कामना मेरे उधर दौडने की अपेक्षा उस अपरिवर्तनशील सत्यम शिवम सुंदरम के लिए प्राणपण से प्रयास करना कहीं श्रेष्ठ है । पर मित्र दो उसे समझाने का कर्तव्य अपने ऊपर छोडकर आया था । वह उत्तेजित होकर बोला, देखो नरेंद्र तुम्हारी जितने बुद्धि और प्रतिभा है, उसे तुम जीवन में कितनी उन्नति कर सकते हो? दक्षिणेश्वर के रामकृष्णन ने तुम्हारी बुद्धि बिगाड दी है । कुशल चाहते हो तो उस पागल का सब छोड दो, नहीं तो तुम्हारा सर्वनाश हो जाएगा । नरेन्द्र पुस्तक छोडकर कमरे में टहलने लगा । मित्र अपनी बात कहता रहा और उसने रामकृष्ण के बारे में कई प्रश्न पूछे । नरेंद्र नरुका और शांत भाव से बोला भाई, उस महापुरुष को तुम नहीं समझते हैं । वास्तव में मैं भी उन्हें पूरी तरह नहीं समझ पाया । फिर भी उनमें कुछ ऐसी बात तो है कि मैं उन्हें चाहता हूँ । कई युवक सदस्य ब्रह्मा समाज को छोडकर रामकृष्ण के शिष्या बन गए थे । जब विजय गोस्वामी ने भी धर्म परिवर्तन करके साधारण समाज से संबंध विच्छेद किया तो ड्रामा नेता शिवनाथ ड्रामा को रामकृष्ण के पास जाने से रोकने लगे । उन्हें मालूम था कि नरेंद्र भी दक्षिणेश्वर जाता है । इसलिए एक दिनों से वहाँ जाने से मना करते हुए कहा वह सब समाधि भाग जो कुछ तुम देखते हो, उसने आयु की दुर्बलता की ही चिन्ह हैं । अत्यधिक शारीरिक कठोरता का ब्याज करने के कारण परमाणु उसका मस्तिष्क बिगड गया है । नरेन्द्र ने शिवनाथ बाबू की बात का कोई उत्तर नहीं दिया । वोट कर वहाँ चला गया । उसके मस्तिष्क में आंधी चल रही थी और नाना प्रकार के प्रश्न उठ रहे थे । ये सरल हृदय महापुरुष क्या है? क्या बाॅस विकृत मस्तिष्क हैं? मुझे ऐसे कुछ व्यक्ति से वे इतना प्यार किसलिए करते हैं? ये रहस्य क्या प्रमाण? समाज के अधिकांश नेताओं से नरेन्द्र का परिचय था । वहाँ उनके पांडित्य से प्रभावित था । लेकिन उनमें से किसी के प्रति भी नरेंद्र के मन में इतनी श्रद्धा नहीं थी, जितनी रामकृष्ण के प्रति थी । अब उन सबके चेहरे एक एक करके उसकी आंखों के सामने घूमने लगे । उसने अपने आप से पूछा की इतने दिन ब्रह्मा समाज में उपासना प्रार्थना कर की भी उसका हृदय शांत क्यों नहीं हुआ? कैन में से किसी को भी ईश्वर प्राप्ति नहीं हुई है । सत्येंद्रनाथ मजूमदार अपनी पुस्तक विवेकानंद चरित्र में लिखते हैं, एक दिन ईश्वर प्राप्ति के लिए तीव्र व्याकुलता लेकर नरेंद्र घर से निकल पडे । महर्षि देवेंद्रनाथ उस समय गंगा जी पर एक नौका में रह करते थे । नरेंद्र गंगा किनारे पहुंचकर जल्दी से नौका पर चढाए । उनकी जोर से धक्का देने पर दरवाजा खुल गया । महर्षि उस समय ध्यानमग्न थे । एकाएक शब्द सुनकर चौंक उठे । देखा सामने उन मत की तरह ताकते हुए नरेन्द्रनाथ खडे हैं । महार्षि को थोडी देर के लिए भी सोच विचार या प्रश्न करने का अवसर ना दे । वे आवे ग्रुप घंटे से बोल उठे महाशय है क्या आपने ईश्वर के दर्शन किए हैं जिसमें चकित महर्षि ने ना जाने क्या उत्तर देने के लिए दो बार चेष्टा की परंतु शब्द मुख में ही रह गया । अंत में बोले नरेंद्र, तुम्हारी आपकी देखकर समझ रहा हूँ कि तुम योगी हो । उन्होंने नरेंद्र को कई तरह के आश्वासन देकर कहा कि वे यदि नियमित रूप से ध्यान का अभ्यास करें तो ब्रह्मा ज्ञान के अधिकारी बन सकेंगे । नरेंद्र प्रश्न का कोई ठीक उत्तर ना पाकर घर लौट आया । घर लौटकर नरेंद्र ने दर्शनशास्त्र और धर्म संबंधी पुस्तकों को दूर फेक दिया । यदि वे ईश्वर प्राप्ति में उन्हें सहायता ना दे सकी । व्यर्थ में उनकी पार्ट से क्या लाभ? रात भर जाकर नरेंद्र कितनी ही बातें सोचने लगा । एकाएक उन्हें दक्षिणेश्वर के उस अद्भुत प्रेमिक की बात स्मरण हुआ । सारी रात असहनीय उत्कंठा में बिताकर नरेंद्र बोर होते ही दक्षिणेश्वर की ओर दौड पडे । गुरुदेव केशरी चरण कमलों के पास पहुंचकर उन्होंने देखा । सदानंद में महापुरुष भक्तों में घिरे हुए अमृत मधुर उद्देश् प्रदान कर रहे हैं । नरेंद्र के हृदय में मानव समुद्र मंथन आरंभ हुआ । यदि वे भी नहीं कह दे तो फिर क्या होगा? फिर किसके पास जाएंगे? अंदर रहा प्रकृति के साथ बहुत देर तक संग्राम करने के बाद अंत में जिस प्रश्न को एक अनेक धर्माचार्यों से पूछ चुके थे, पर आज तक कोई भी जिस प्रश्न का संतोषजनक उत्तर देने में समर्थ बना हुआ था, उसी प्रश्न को दोहराकर उन्होंने कहा महाराज! क्या आपने ईश्वर के दर्शन किए हैं? मृदुभाषी किसी महापुरुष का प्रशांत मुखमण्डल पूर्व शांति और पुण्य की आभासी उद्भासित हो होने सैनिक भी सोच विचार न करते हुए उत्तर दिया बेटा मैंने ईश्वर के दर्शन किए हैं तो मैं जिस प्रकार प्रत्यक्ष देख रहा हूँ, इससे भी कहीं अधिक स्पष्ट रूप से उन्हें देखा है । नरेंद्र का विस् में सौ गुना बढाते हुए उन्होंने फिर कहा क्या तुम भी देखना चाहते हो तुम मेरे कहे अनुसार काम करो तो में भी दिखा सकता हूँ । ईश्वर इस वाणी में विश्वास का बाल था । नरेंद्र ने रामकृष्ण परमहंस को मन से गुरु धारण किया । अपनी साहब विमान स्वतंत्रता उन्हें सौंपी और उनके बताया अनुसार साधना आरंभ कि थोडे ही दिन बाद उसके पिता हृदय रोग से अचानक चल बसे । नरेन्द्र के लिए ये भयंकर अज्ञात था । सारे परिवार पर मुसीबत का पहाड टूटा । विश्वनाथ ने धन बहुत कमाया था, पर जितना कमाते थे उससे कहीं अधिक खर्च करते थे । उनकी मरती ही कर्ज हुआ होने आगे रह कर चुकाना तो दूर रहा । छह सात व्यक्तियों के लिए अन्य जुटाना समस्या बन गई । कहा रईस ठाठ है और कहाँ फांकों की नौबत आ गई । नरेन्द्र ने पहली बार दरीद्रता का स्वाद चखा । मित्र भी आजमाए गए । सबने संकट में मुंह फेर लिया । नरेंद्र ही अब परिवार में सबसे बडा था इसलिए आजीविका का भार उसी पर आ पडा । इसके लिए जो दौड धूप करनी पडी और इन दोनों उसकी जो मानसिक दशा थी, उसका नरेंद्र ने स्वयं विस्तारपूर्वक वर्णन किया है । उसका कुछ अंश रो माम रूला ने इस प्रकार उस वक्त क्या है मैं भूत से मारा जा रहा था । नंगे पैर में दफ्तर से दूसरे दफ्तर तक दौडता परन्तु सब तरफ से घृणा के अतिरिक्त और कुछ ना मिलता । मैंने मनुष्य की सहानुभूति का अनुभव प्राप्त किया । जीवन की वास्तविकताओं के साथ ये मेरा प्रथम संपर्क था । मैंने देखा कि इस जगह दुर्बल, गरीब और परित्यक्त के लिए कोई स्थान नहीं है । व्यक्ति जो कुछ ही दिन पूर्व मेरी सहायता करने में गर्व अनुभव करते थे, उन्होंने सहायता करने की शक्ति के विद्यमान रहने पर भी अपने मुख फेर लिए । यह संसार मुझे शैतान की श्रृष्टि दिखाई देने लगा । एक दिन जल्दी दोपहरी में जब मैं मुश्किल से अपने पैरों पर खडा हो सकता था, मैं एक स्मारक की छाया में बैठ गया । वहाँ पर मेरे कई मित्र भी थे और और इसमें से एक मित्र भगवान कि अखबार करना का गान करने लगा । ये गाना मुझे अपने सिर पर जानबूझकर किया गया प्रहार जान पडा । अपनी माता और भाइयों की असहाय व्यवस्था याद कर मैं चिल्ला उठा ये गाना बंद करो । जो लोग अमीरों के घरों में पैदा हुए हैं और जिनके माता पिता भूख से नहीं मार रहे हैं, उनके कानों में ये गण सुधार वर्शन कर सकता है । हाँ, एक समय था जब मैं भी इसी प्रकार सोचा करता था । परन्तु अब जब मैं जीवन के अनिश्चितताओं के समूह खडा हूँ, ये गाना मेरे कानों में एक भयानक उपहास के समान चोट करता है । मेरे मित्र को इससे चोट पहुंची । उसे मेरी भयानक आपत्ति का कोई जाना था । अनेक बार जब मैं देखता था कि घर में खाने का पर्याप्त भोजन भी नहीं है । मैं अपनी माँ से यह बहाना करके की । मुझे एक दोस्त ने निमंत्रित किया है । भूखा रहना चाहता हूँ । मेरे धनी मित्र ने मुझे दुर्भाग्य के बारे में कौतुहलवश चिंता प्रकट नहीं की । मैं अपनी व्यवस्था को किसी पर प्रकट न करता था । नरेंद्र के चरित्र गठन में माँ का प्रभाव सबसे अधिक वे धर्मप्राण महिला थी । पर इस घोर संकट में उन का विश्वास भी डगमगा गया । एक दिन सुबह नरेंद्र बिस्तर पर बैठा प्रार्थना कर रहा था । माने चढकर कहा चिप करे झोपडे बचपन से ही भगवान भगवान केवल भगवान भगवान ही नहीं तो ये सब क्या है? माँ की ये बात नरेंद्र को पहुंच गयी । वह सोचने लगा क्या भगवान सच मुझे अगर है तो मैं जितनी प्रार्थनाएं करता हूँ वो सुनता क्यों नहीं? शिव के संसार में इतना शिव क्यों हैं? उसे ईश्वरचंद्र विद्यासागर के शब्द स्मरण हुआ है । यदि भगवान दया मैं और मंगल में है तो अकाल में लाखों आदमी बिना अन्य क्यों मर जाते हैं? उसके मन में ईश्वर के विरुद्ध प्रचंड विद्रोह की भावना उत्पन्न हुई और वह सोचने लगा इश्वर! यदि है भी तो उसे पुकारना व्यर्थ है क्योंकि इससे कुछ लाभ नहीं होता । अब नरेंद्र ठहरा, निडर और फिर थी मनोगत भावनाओं को छुपाए रखना उसके स्वभाव के विपरीत था । अपनी ईश्वर विरोधी भावना को उसने लोगों के सामने युक्ति द्वारा प्रमाणित और सिद्ध करना शुरू किया । परिणाम ये हुआ कि नरेंद्र की नाजिर नासिक के रूप में निंदा फैली बल्कि बात को बढा चढाकर कहा जाने लगा कि दुष्ट लोगों की संगत में पडकर वह शराबी और दुराचारी बन गया है । इस बेईमानी से नरेंद्र और हाथ पकड लिया और वह लोगों के सामने सगर्व कहने लगा कि अगर कोई अपना दुख कष्ट कुछ समय तक भूल जाने के लिए शराब पीता है या वैश्या के पास जाता है, समय इसमें कुछ भी दोष नहीं समझता, अगर वैसे ही उपायों से मैं भी अपना भूल सकू जिससे यह बात मेरी समझ में आ जाएगी । मैं भी ऐसे काम करने से पीछे नहीं हटूंगा । उसकी ये बातें विविध प्रकार से विकृत होकर दक्षिणेश्वर में परमहंस के शिष्या और कलकत्ता में उनके भक्तों तक पहुंची । लिखा है कोई कोई मेरी स्थिति जाने के लिए मुझसे भेंट करने आए हैं और जो निंदा पहली है वह पूर्णतः सही न होने पर भी उसमें से कुछ अंशों पर उनका विश्वास है । इस बात को वो इशारे से व्यक्त कर गए । मुझे लोग इतना हीन समझते हैं ये जानकर दंड पाने के भय से ईश्वर पर विश्वास करना । दुर्बलता का लक्षण मैं यू बिल्डिंग मिल काम के आदि पास शादी दार्शनिको के मतों का उद्यत करने लगा और ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण नहीं है । यह दिखाने के लिए उनके साथ प्रचंड युक्ति तर्कों की अवतारणा करने लग जाता था । ये जानकर कि वे लोग इस बात पर विश्वास करके चले गए कि मैं पतित हो गया हूँ । मुझे प्रसन्नता ही हुई और सोचा कि ठाकुर भी उनके मुख से सुन कर इस पर विश्वास कर लेंगे । पर ऐसी चिंता मन में उठने से मैं फिर हजार हो गया । निश्चय क्या वे जो चाहिए माने मनुष्यों के माता मतों को मूल्य ही जब कुछ है तो उससे मेरी क्या हानि? पर इन तो बाद में सुनकर में सांबित हो गया कि ठाकुर ने उन बातों को सुनकर पहले कुछ नहीं कहा । बाद में भवनाथ ने रोते हुए जब उनसे कहा महाराज नरेंद्र की ऐसी गति होगी ये तो स्वप्ने में भी संभव नहीं था । तो उस समय ठाकुर ने उत्तेजित हो गए कहा था चुप रह अमूर । मैंने कहा है युवा कभी वैसा नहीं हो सकता । यदि फिर कभी ऐसी बात मुझसे कही तो मैं मेरा मूड नहीं देखूंगा । नरेंद्र को दूसरों की निंदा प्रशंसा की कोई परवाह नहीं । गर्मी के बाद बरसात आई और चली गई पर सब तरह बैठ सकते । रहने के बावजूद भी उसे कोई काम ना मिला । आखिर उसने सोचा कि साधारण मनुष्य की तरह धनोपार्जन के लिए उसका जन्म नहीं हुआ है । उसे अपने दादा की तरह सन्यास धारण करना होगा । जाने का दिन भी निश्चित हो गया । पर उसी दिन भर मांस पडोस के एक मकान में आए नरेंद्र उनकी दर्शन करने गया और वे उससे आग्रहपूर्वक अपने सात दक्षिणेश्वर लिया है । दक्षिणेश्वर पहुंचकर मैं दूसरों के साथ कमरे में बैठा था । इतने में ठाकुर का भावेश हुआ देखते देखते हुए का एक मेरे पास आया और मुझे प्रेम से पकडकर आंसू बहाते हुए गाने लेंगे का था कहीं थे ड्राई ना नहीं थे वो राई मैंने संदेह है मुझे तो माॅक हूँ । बाद कहने में डरता हूँ न कहने में भी डरता हूँ । मेरे मन में संदेह होता है कि शायद तुम्हें खो बैठी हूँ । अंतर की प्रबल भाव राशि को अब तक मैंने रोक रखा था । अब उसका वेट नहीं संभाल सका । ठाकुर की तरह मेरे भी नेत्रों से आंसुओं की धारा ऍम हमारे इस प्रकार के आचरण से दूसरे लोग आवाक रह गए । प्रकृतिस्थ होने पर उन्होंने हसते हुए कहा हम दोनों में वैसा ही कुछ हो गया । बाद में सब लोगों के चले जाने पर मुझे पास बुलाकर उन्होंने कहा जानता हूँ तो माँ के काम के लिए संसार में आए हैं । संसार में तो कभी नहीं रहेगा परंतु जब तक मैं हूँ तब तक मेरे लिए रहे । इतना कहकर वह हृदय के आवेग से पुनः सुना रोक सके । नरेन्द्र दक्षिणेश्वर से घर लौटा फिर वही आजीविका की चिंता इकट्ठे धोनी के ऑफिस में कुछ काम करके और कुछ पुस्तकों के अनुवाद से थोडा पैसा मिलने लगा । लेकिन इतने बडे परिवार के लिए ये काफी ना था । सूट सोचकर नरेंद्र दक्षिणेश्वर पहुंचा और हठपूर्वक ठाकुर से कहा माँ भाइयों को कष्ट दूर करने के लिए आपको माँ जगदम्बा से प्रार्थना करनी होगी । रामकृष्ण ने ससनी बहुत कर दिया । अरे! मैंने कितनी बार कहा है । माँ नरेंद्र का दुख कष्ट दूर कर गए तो माँ को नहीं मानता इसलिए मान नहीं सुनती । अच्छा आज मंगलवार है । मैं कहता हूँ आज रात को काली मंदिर में जाकर माँ को प्रणाम करके जो कुछ मांगेगा वही महत्व जीतेगी । मेरी माँ जिनमें ब्रह्मा सकती है उन्होंने अपनी इच्छा से संसार का प्रसाद क्या है? बच्चा है तो क्या नहीं कर सकती । परमहंस के आग्रह से नरेंद्र एक बार नहीं दो बार तीन बार मंदिर में गया । पर वह एक बार भी स्वार्थपूर्ति के प्रार्थना नहीं कर पाया । लिखा है मंदिर में प्रवेश करते ही लग जाने हृदय को व्याप्त कर लिया । मैंने सोचा ये कैसी कुछ बात हैं । मैं जगत्जननी को कहने आया । ठाकुर कहते हैं राजा की प्रसन्नता प्राप्त करके उनसे कह दू को मारना मांगना ये भी वैसी मूर्खता की बात है । मेरी भी वैसी बुद्धि हुई है । लज्जा से प्रणाम करते हुए मैंने फिर का मैं कुछ नहीं मान सामान केवल ज्ञान और भक्ति दो । आगे की बात परमहंस के वक्त तारापद घोष के मुख से सुनी है । आज दोपहर को दक्षिणेश्वर जाकर मैं देखा श्रीरामकृष्ण देव अकेले कमरे में बैठे हैं और नरेंद्र बाहर एक और पडा हो रहा है । पांच जगह प्रणाम करते ही उन्होंने नरेंद्र को दिखाकर कहा देख ये लडका बडा अच्छा है । इसका नाम नरेंद्र हैं । पहले माँ को नहीं मानता था, कल मान गया है कष्ट में है । इस कारण माँ से पैसा रुपया मांगने के लिए कह दिया था परन्तु मांग नहीं सका । कहा लग जाती है मंदिर से लौटकर मुझसे कहा माँ का गाना सिखा दीजिए माँ, मृतक ही तारा ये गाना सिखा दिया । कल रात भर वही गाना गाया पडा हो रहा है पैसे नजरा से हसते हुए उन्होंने कहा नरेन्द्र ने काली का मान लिया । बहुत अच्छा हुआ ना उन्हें । इस बात से बालक के समान आनंदित होते देख मैंने कहा हाँ महाराज बहुत अच्छा हुआ । कुछ देर बाद सुनाते हुए बोले नरेंद्र नीय माँ को मान लिया । बहुत अच्छा हुआ क्यों? उसी बात को बार बार घुमा फिराकर कहते हुए में आनंद प्रकट करने लगे । निद्रा भंग होने पर लगभग दिन के चार बजे नरेंद्र कमरे में आकर ठाकुर के पास बैठ गए । ठाकुरों ने देखकर भाव आष्टी होकर उनसे सटकर प्रायः उन्हीं की कोर्ट में बैठे और कहने लगे अपना शरीर और नरेंद्र का शरीर क्रमश शाह दिखाकर देखता हूँ कि ये मैं हूँ । फिर भी मैं सच कहता हूँ । कुछ भी भेज नहीं देख पा रहा हूँ जैसे करना के जल्मी । लाठी का आधा भाग विवाद देने से दूर भाग दिखाई पडते हैं । पर यथार्थ में दो भाग नहीं है । एक ही है समझा माँ के सिवाय और है ही क्या? क्या बातचीत में आठ बज गए । उस समय ठाकुर की भावा सारा काम होते देखकर नरेंद्र और मैं उनसे विदा लेकर कलकत्ता लौटाए । इसके बाद हमने नरेंद्र को अनेक बार कहते सुना है । अकेले ठाकुर ही प्रथम दिन की भेंट से हर समय समान भाव से मेरे ऊपर विश्वास करते आए हैं । अन्य कोई नहीं, अपने माँ भाई भी नहीं । उनके इस प्रकार के विश्वास और प्यार ही ने मुझे जन्म भर के लिए बांध लिया है । केवल वही प्यार करना जानते हैं और कर सकते हैं । संसार के दूसरे लोग केवल अपने स्वार्थ साधन के लिए प्यार करते हैं । मूर्ति पूजा से घृणा करने वाला नरेंद्र अंत में खुद मूर्ति पूजक बन गया । प्रेम से तर्क पराजित हुआ । बाद को जब भी नरेंद्र विवेकानंद बन गए थे तब उन्होंने कुमारी मेरी है । एल को लॉस एंजिलिस में अठारह जून उन्नीस सौ पत्र में लिखा था काली पूजा किसी भी धर्म का आवश्यक साधन है । धर्म के विषय में जितना कुछ भी जानने योग्य है, तुमने कभी भी उसके विषय में मुझे प्रवचन करते या भारत में उसकी शिक्षा देते हुए नहीं सुना होगा । मैं केवल उन्हीं चीजों की शिक्षा देता हूँ, जो विश्व मानवता के लिए हितकर है । यदि कोई ऐसी विचित्र विधि है, जो केवल मुझे पर लागू होती है तो मैं उसे गुप्त रखता हूँ और यहीं पर बात खत्म हो जाती है । मैं तो मैं नहीं बताऊंगा । काली पूजा क्या है? क्योंकि कभी मैंने इसकी शिक्षा किसी और को नहीं । शिक्षा में वे सिद्धांत ही को प्रमुख मानते थे । ये बात स्वामी थोडा कितान अच्छे को न्यूयॉर्क के लिखे चौदह अप्रैल अठारह सौ छियानवे के पत्र में भी स्पष्ट हो जाती है । रामकृष्ण परमहंस ईश्वर है, भगवान है क्या इस प्रकार की बात यहाँ चल सकती है, सब की है । नए में बलपूर्वक उस प्रकार की भावना को बद्धमूल कर देने का झुका मैं मैं विद्यामान हैं हिन्दू इसमें हम एक शूद्र संप्रदाय के रूप में परिणत हो जाएंगे । तुम लोग इस प्रकार के बैठने से हमेशा दूर रहना । यदि लोग भगवन बद्दी से उनकी पूजा करें तो कोई हानि नहीं है । उनको ना तो प्रोत्साहित करना और ना ही निरूत्साहित । साधारण लोग तो सर्वदा व्यक्ति ही चाहेंगे । उच्च श्रेणी की लोग सिद्धांतों को ग्रहण करेंगे । हमें दोनों ही चाहिए किंतु सिद्धांत ही सार्वभौम है, व्यक्ति नहीं । इसलिए उनके द्वारा प्रचारित सिद्धांतों को ही दृढता से पकडे रहो । लोगों को उनके व्यक्तित्व के बारे में अपनी अपनी धारणा के अनुसार सोचना । गुरु भाइयों के नाम सत्ताईस अप्रैल अठारह सौ छियानवे को इंग्लैंड से लिखे हुए एक लंबे पत्र में रामकृष्ण के व्यक्तित्व और सिद्धांतों पर उन्होंने इस प्रकार प्रकाश डाला है । मधु आदि के बारे में मुझे यही कहना है कि यदि कोई रामकृष्ण देव का अवतार आधी स्वीकार करें तो भी ठीक ही है । नरेन्द्र सच बात ये है कि चरित्र के विषय में भी रामकृष्ण देव सबसे आगे बढे हुए हैं । उनके पहले जो अवतारी पुरुष हुए हैं, उनसे वे अधिक उदार, अधिक मौलिक और अधिक प्रगतिशील ये है कि योग, भक्ति, ज्ञान और कर्म के सर्वोच्च भावों को सम्मिलित होना चाहिए जिसे समाज का निर्माण हो सके । प्राचीन आचार्य निसंदेह अच्छे थे तो ये इस युग का नया धर्म है अर्थात योग, ज्ञान और कर्म का समन्वय आये और लिंगभेद के बिना प्रतीत से प्रतीत तक में ज्ञान और भक्ति का प्रचार पहले के अवतार ठीक से परन्तु श्रीराम कृष्ण जी के व्यक्तित्व में उनका समन्वय हो गया है । ये प्रश्न उठ सकता है कि जब ईश्वर ही अवतार धारण करता है तो एक रफ्तार को दूसरे से ईश्वर का, ईश्वर से आगे अथवा प्रगतिशील होने का क्या? और विवेकानंद ने इस प्रश्न का उत्तर भी दिया है । उन्होंने एक बार अपने शिष्य से कहा था गुरु को लोग अवतार कह सकते हैं अथवा जो चाहे मान कर धारण करने की चेष्टा कर सकते हैं । पर इंदु भगवान का अवतार कहीं भी और किसी भी समय नहीं होता । एक ढाका ही में सुना है तीन चार रफ्तार पैदा हो गए । दरअसल विवेकानंद अवतार को आचार्य के अर्थ में लेते हैं । ये सच है कि का आचार्य के बाद दूसरा आचार्य आगे है । उनके द्वारा ज्ञान चाहे आध्यात्मिक हो या बहुत, उसकी निरंतर प्रगति हुई । अपने गुरु रामकृष्ण के बारे में भी लिखते हैं । श्रीरामकृष्ण अपने का अवतार शब्द के सूली अर्थ में एक अवतार कहाँ करते हैं? यद्यपि में ये बात समझ नहीं पाता था । मैं कहता था कि वे वेदांत की दृष्टि से ब्रह्मा है किंतु उनकी महासमाधी से ठीक पूर्व जब उन्हें सांस लेने में कष्ट हो रहा था । मैं अपने मन में सोच रहा था कि क्या इस वेदना में भी वे अपने को अवतार कह सकते हैं? तो उस समय उन्होंने मुझसे कहा अरे राम था आज कृष्ण था वहीं रामकृष्ण हो गया लेकिन तेरी वेदांत की दृष्टि से नहीं । नरेंद्र की कहानी को आगे बढाने से पहले ईश्वर दर्शन के बारे में भी विवेकानंद का अभिमत जान लेना चाहिए ताकि ब्रह्म क्रांति गुंजाइश ना रहे हैं । लिखा है यदि तुम मुझसे पूछोगे, ईश्वर है या नहीं और मैं ये कह रहा हूँ की हाँ ईश्वर है तो तुम झट मुझे अपने युक्तियां बताने के लिए बाध्य पर होगी और मुझे बेचारे को कुछ यूपिया पेश करने के लिए अपनी सारी शक्ति लगा देनी पडेगी इनको यदि कोइ सा सीए प्रश्न पूछता तो इसका तत्काल उत्तर देते । हाँ ईश्वर है और यही तो मीसा से इसका प्रणाम मानते तो निश्चय ही हिंसा ने कहा होता लोग एशवर्थ हमारे सम्मुख खडा है, कर लो दर्शन । इस प्रकार हम देखते हैं कि महापुरुषों की ईश्वर विशेष धारणा साक्षात उपलब्धि प्रत्यक्ष दर्शन पर आधारित है । तर्क जानने नहीं और फिर लिखा है ये महान शिक्षक इस पृथ्वी पर जीवन तो ईश्वर रूप है । इनके अतिरिक्त हम और किन की उपासना करें । मैं अपने मन में ईश्वर की धारणा करने का प्रयत्न करता हूँ और अंत में पाता हूँ कि मेरी धारणा अत्यंत शुद्र और मिथ्या है । वैसे ईश्वर की उपासना करना पाप होगा । रिजर्व में अपनी आंखें खोलकर पृथ्वी की महान आत्माओं के चरित्र देखता हूँ तो मुझे प्रतीत होता है कि ईश्वर विषय मेरी उच्च से उच्चतर धारणा से भी वे कहीं उच्चतर और महान वेदांत सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक मनुष्य क्योंकि वहाँ आत्मस्वरूप है अपने को शिवोहम मैं ईश्वर हूँ । कह सकता है सिद्धांत का तात्त्विक विवेचन हम आध्यात्मिक अद्वैतवाद बनाम भौतिक अद्वैतवाद परिषद में करेंगे । प्रत्येक सिद्धांत क्यूँकि व्यक्तियों में मूर्त रूप धारण करता है । इसलिए नरेंद्र अर्थात विवेकानंद की जीवन कथा भी सिद्धांत को समझने का ठोस माध्यम है और हम अपनी इस कहानी को आगे बढाते हैं । कुछ दिनों बाद मेट्रोपॉलिटिन स्कूल की एक शाखा चाम्पा ताला मोहल्ले में हुई । ईश्वरचंद्र विद्यासागर की सिफारिश से नरेन्द्र वहाँ प्रधान अध्यापक नियुक्त हो गया । इससे पारिवारिक समस्या हल हो गई । इस संकटकाल में कुछ संबंधियों ने नरेंद्र और उसके घरवालों को खूब सताया । उन लोगों ने छलबल से उनके पैतृक मकान पर कब्जा कर लिया । हाँ, भाई और नरेंद्र को नानी के मकान में शरण लेनी पडी । नरेंद्र ने संबंधियों के विरूद्ध हाई को तक मुकदमा लडा जिसमें कई बार लगे और तब वो मकान नहीं मिला । रामकृष्ण के जितने शिष्य थे ये सब अठारह सौ तिरासी तक उनके पास आ चुके थे । वे उन्हें कम कंचन, भोगविलास आदि से हटाकर धीरे धीरे भक्ति के मार्ग पर ला रहे थे । एक दिन पर हम हैंस भक्तों से घिरे बैठे थे । नरेंद्र भी मौजूद था । इधर उधर की चर्चा और हसी मजाक हो रहा था कि वैष्णव धर्म की बात की । रामकृष्ण ने ई धर्म का सारा तक को बताते हुए कहा किस्मत में तीन विषयों का पालन आवश्यक बताया गया है । नाम में रूचि, जीवन के प्रति दया और वैष्णव पूजा । इसके बाद ये बताते हुए किसी भी का ये जगत संसार है ऐसी धारणा है जय में रखकर सब जीवों पर दया करनी चाहिए । ये भाव आविष्ट हो गए और कहने लगे जी पर गया जी पर गया धरती किटाणु की ठोकर तो जी पर्दे करेगा । दया करने वाला तो कौन हैं? नहीं नहीं जीवन पर गया नहीं । शिव ज्ञान से जब की सेवा भावना विष्ट, रामकृष्ण की ये शब्द सभी ने सुनी पर उनके गुड अर्थ को केवल नरेंद्र नहीं समझा । उसने कमरे से बाहर आकर शिवानंद से कहा, आज मैंने एक महान सकते को सुना है । मैं जीवित सकती कि सारे संसार में घोषणा करना और फिर व्याख्या की । आज ठाकुर से भावेश में जैसा बताया तो उसे जान गया हूँ कि वन के विधान को घर में लाया जा सकता है । सबसे पहले हमें यह बात समझ लेनी चाहिए कि ईश्वर ही जेफ और जगह के रूप में प्रकट होकर हमारे सामने विराजमान है । इसलिए शिवरूप जीवों की सेवा ही सबसे बडी भक्ति है । फिर तीन जुलाई अठारह सौ को शरद चंद्र के नाम पत्र में उन्होंने इसी विचार को यू प्रस्तुत किया है । हमारा मूल तत्व प्रेम होना चाहिए ना कि गया । मुझे तो जीवों की वृद्धि, दया शब्द, विवेक रहित और व्यर्थ जान पडता है । हमारा धर्म करना नहीं, सेवा करना है । इन दिनों नरेंद्र परमहंस के बताए उपाय से साधना कर रहा था । कभी कभी वह पंचवटी के नीचे रात रात भर ध्यान में लीन रहता । उसका ये अनुराग देख रामकृष्ण नहीं एक देने से अपने पास बुलाकर कहा, कठिन साधना द्वारा मुझे अष्टसिद्धियां मिली थी । उनका किसी दंगों, कोई उपयोग मैं तो कर नहीं पाया । जिले में भविष्य में तो बहुत कम है । नरेन्द्र ने पूछा, महाराज क्या उनसे ईश्वर प्राप्ति में कोई सहायता मिलेगी? रामकृष्ण ने उत्तर दिया नहीं, सुबह नहीं होगा पर ये लोग की कोई भी इच्छापूर्ण न रहेगी । नरेन्द्र ने निसंकोच कर दिया तब तक महाराज भी मुझे नहीं चाहिए । अच्छा सौ छियासी में रामकृष्ण की गले में कैंसर हो गया । डॉक्टर महेंद्र लाल सरकार का इलाज था पर रोक कम होने के बजाय बढता चला गया । उन्हें पहले कलकत्ता के मकान में और फिर काशीपुर के उद्यान भवन में रखा गया । नरेंद्र ने अगस्त महीने में अध्यापन कार्य छोड दिया था और दूसरे शिशियों के साथ काशीपुर में रहने लगा था । गुरुसेवा के अलावा गंभीर श्रद्धा के साथ उपनिषद अष्टवक्र संहिता, पंचदशी, विवेक, चूडामणि आदि ग्रंथों का अध्ययन भी हो रहा था । साधना पूजा पर काफी आगे बढ जाने के बाद नरेंद्र के मन में निर्विकल्प समाधि की इच्छा प्रबल होती । वो जानता था की परमाणु जिसके लिए मना कर रहे हैं फिर भी वो एक दिन साहस करके उनके पास जा पहुंचा । रामकृष्ण ने नहीं हमारी दृष्टि से उसकी ओर देखा और पूछा नरेंद्र क्या चाहता है? उसने उत्तर दिया शिवदीप की तरह निर्विकल्प समाधि के द्वारा सदेव सच्चिदानंद सागर में डूबे रहना चाहता हूँ । रामकृष्ण नरेंद्र को चाहे सबसे अधिक चाहते थे, पर वहाँ कृत्य स्वर में बोले । बार बार यही बात कहते मुझे लग जा नहीं आती । समय आने पर कहाँ तो वटवृक्ष की तरह बढ कर सैकडों लोगों को शांति छाया देगा । और कहाँ आज अपनी मुक्ति के लिए व्यस्त हो था । इतना छुद्र आदर्श दे रहा है नरेन्द्र की विषय इलाकों में आज सुबह दबाये और वहाँ आग्रहपूर्वक बोला निर्विकल्प समाधि न होने तक मेरा मन किसी भी तरह शांत नहीं होने का और यदि वहाँ ना हुआ तो मैं सब कुछ भी ना कर सकूंगा क्योंकि अपनी छह से करेगा जगदंबा देवी गर्दन पकडकर करा ले ही ना करे, तेरी हंडिया करें पर नरेंद्र की प्रार्थना कोवर्ट टाल नहीं पाए । अंत में बोले अच्छा जाए निर्विकल्प समाधि हूँ । एक दिन शाम को ध्यान करती करती नरेंद्र अकस्मात निर्विकल्प समाधि में डूब गया । शिष्यों ने देखा तो उन्हें लगा कि नरेंद्र मर गया है । दौडे दौडे रामकृष्ण के पास आए लेकिन उनकी बात सुनकर भी रामकृष्ण शांत रहे । थोडी देर बाद नरेंद्र की चेतना लौट है । उसका मुखमण्डल आनंद से खेला हुआ था । उसने अगर रामकृष्ण को प्रणाम किया, वे बोले बस अब तालाबंद पूंजी माँ के पास रहेगा । काम समाप्त होने पर पे खोल दिया जाएगा । दिन रात जाना भजन चलता रहा । नरेंद्र भावन मत हो गए । रामकृष्ण सीता राम चैतन्य देखो लीला संबंधी की गाकर भक्तों आनंद प्रदान करता रहा । उधर रामकृष्ण काली से प्रार्थना करने लगे माँ उसकी अद्वैत की अनुमति को तो अपनी माया शक्ति के द्वारा ढक रख मुझे तो अभी सैनिक कम करानी । जो बारह शिष्य घर बार छोडकर काशीपुर में रहते थे । गुरु सेवा करते करते उनमें प्रेम सम्बन्ध दृढ हो गया । एक दिन इसे उद्यान भवन में रामकृष्ण संघ की नींव रखी गई । अपने इंटर्नशिप को गेरुआ वस्त्र पहनाकर रामकृष्ण नहीं । उन्होंने संन्यास की दीक्षा दी और उनके नेता नरेंद्र से कहा क्या तुम लोग संपूर्ण मेरा विमान बनकर दीक्षा की झोली कंधे पर लिए राजपूतों पर भीक्षा मांग होगी । वो लोग उसी समय शाम नहीं निकल पडे उसी कलकत्ता में जिसमें उनका जन्म हुआ था और जिस कलकत्ता में जाने क्या क्या सपने मन में संजोकर उन्होंने पढना लिखना शुरू किया था । अब सन्यासी बनकर गली गली भीक्षा मांगी । जो अन्य मिला उसे पकाकर उन्होंने परिवहन के सामने रखा और फिर प्रसाद ग्रहण किया । उस दिन रामकृष्ण के आनंद का ठिकाना रामकृष्ण की तबीयत बीच में एक बार कुछ सुधरी थी । उसके बाद हालत बिगड गई । रो मामला लिखते हैं, नरेंद्र उनके शिष्यों कार्य और उनकी प्रार्थनाओं का निर्देशन करेंगे । उन्होंने गुरु से भी प्रार्थना की । उनके स्वास्थ्य लाभ की प्रार्थना में वे भी योग समान विचारों के पंडित के आगमन से उनके आग्रह को और भी बल मिला । पंडित ने रामकृष्ण से कहा, धर्मशास्त्रों का मत है कि आप जैसे संत अपने इच्छा बाल ही से अपनी चिकित्सा कर सकते हैं । रामकृष्ण बोली, मैंने अपना मान संपूर्ण तैयार भगवान को सौंप दिया । आप क्या चाहते हैं कि वो मैं वापस मांग शिशियों का उल्हाना था कि रामकृष्ण स्वस्थ होना नहीं चाहते हैं तो क्या समझते होगी । मैं अपनी इच्छा से कष्ट बोल रहा हूँ । मैं तो अच्छा होना चाहता हूँ पर वहाँ पर निर्भर तो वहाँ से प्रार्थना कीजिए । तुम लोगों का ये कह देना आसान है पर मुझे वे शब्द ही नहीं जाएगा । नरेन्द्र ने आग्रह किया हम पर गया करके ही आप कहीं गुरु ने मतलब भाव से कहा अच्छा मुझे जो बन पडेगा प्रयत्न करूँ शिशु ने और है कुछ घंटे अकेले हो जब वे लौटे ना । गुरु ने कहा मैंने माँ से कहा था माँ कष्ट के कारण में कुछ खा नहीं सकता । ये संभव कर दे कि मैं कुछ खास मारे । तुम सब की ओर संकेत करके मुझसे कहा इतने समूह है जिनके द्वारा खा सकता है । मैं लज्जित पर फिर से कुछ नहीं कहा । कई दिनों बाद उन्होंने कहा, मेरी शिक्षा प्रायः समाप्त हो गई है । मैं दूसरों को और शिक्षा नहीं दे सकता कि मुझे दिखता है कि सभी कुछ प्रभु मैं तब मैं पूछता हूँ मैं किससे शिक्षा रविवार पंद्रह अगस्त अठारह सौ छियासी को इस महापुरुष के जीवन का सूर्या हो गए । अपना समझते ज्ञान और खोल वो अपने सहयोगी उत्तराधिकारी विवेकानंद को विरासत में देखा । विवेकानंद ने इस ज्ञान का विकास और खोल का विस्तार कहाँ तक किया ये हम आगे देखेंगे । नरेंद्र को विवेकानन् बनाने में परमहंस ने जो भूमिका अदा तो मामलो लाने उसका उन लेकिन शब्दों में क्या जो धारा विवेकानंद की असाधारण नियति को कट रही तो धरती की पेट ही में समा गयी होती । यदि रामकृष्ण के अच्छे योग दृष्टि ने मानव मु बाढ की भर्ती पत रोचक चट्टान को फोडकर शिशी की आत्मा के प्रवाह को मुक्त ना कर दिया होता । रामकृष्ण को आशंका थी कि अगर असाधारण युवक नरेंद्र को विधान शिक्षा ना दी गई तो उसकी प्रतिभाएं कम ही बनी नहीं और वहाँ से अपने धर्म एक संप्रदाय संगठित करने में नष्ट कर सकता है । इसका क्या हुआ कि नरेंद्र रामकृष्ण परमहंस के संपर्क में ना आया होता तो उसकी वृद्धि में द्वय विशिष्टाद्वैत और अद्वैत का तीन और वर्तमान तथा प्राची और पांच चाचे का जो समन्वय हुआ शायद कभी ना होगा । लेकिन समय का तकाजा तो जैसे हुआ वैसे ही पूरा होना था । हम देखेंगे कि एक अनुगामी ऐतिहासिक कडी का अपनी पूर्ववर्ती ऐतिहासिक कडी में आकर मिलना अनिवार्य