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4. Swami Vivekanand

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स्वामी विवेकानंद की अमरगाथा.... Swami Vivekanand | स्वामी विवेकानन्द Producer : Kuku FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava
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चैप्टर टू शिक्षा क्यूकि हम लोगों ने अपना आधा जीवन विश्वविद्यालयों में बता दिया है अगर हमारा मन दूसरों के विचारों से भर गया है । हाँ, विवेकानन्द नरेन्द्रनाथ जब चौदह बरस का था तो उसे पेट का भयंकर रोक हुआ । ये रोक कई दिन तक रहा और इस शरीर सूखकर कांटा हो गया । उस समय उसके पिता अपने काम से रायपुर में थे और उन्हें वहाँ अभी काफी दिन रहना इस ख्याल से की हवा बदलने से स्वास्थ्य ठीक हो जाएगा । उन्होंने परिवार के लोगों को भी रायपुर बुला लिया । में नरेंद्र अपने पिता के पास रायपुर पहुंचे । रायपुर मध्यप्रदेश का एक नगर है । उस समय सारे मध्यप्रदेश में रेलगाडी नहीं इलाहाबाद और जबलपुर होते हुए कलकत्ता से नागपुर तक गाडी आती थी । नागपुर से रायपुर जाने में दो सप्ताह से अधिक लगते थे और हिंसक जंतुओं वाले घने जंगल में इसे बैलगाडी द्वारा जाना पडता था । बाद में इस यात्रा का उल्लेख करते हुए नरेन्द्रनाथ ने लिखा है वनस्थली का सौंदर्य देखकर मुझे रास्ते की कष्ट कष्ट ही मालूम नहीं । विंध्यपर्वत की आकाश को चूमती हुई चोटियां, फूलों और फलों से लदी हुई तरह तरह की बेले कुंज कुंज में जहाँ चाहते हुए रंग बिरंगे पक्षी जो कभी कभी आहार की खोज में भूमि पर उतर जाते थे । नरेन्द्र ने ये सब कुछ पहले बहुत देखा । देश की अति की कहानियां उसके मन पर पहले से ही की थी । अब उसका रूप उसका वैभव, विशाल दौर महान दागी अंकित हो गई । देश को और अधिक देखने की इच्छा भी यहीं से पैदा हुए । ये वो व्यवस्था थी जब चरित्र का निर्माण होता । नरेंद्र के चरित्र का वास्तविक निर्माण भी रायपुर में हुआ । उस समय वहाँ कोई स्कूल था इसलिए विश्वनाथ बेटी को खुद की घर पर पढाया करके उन्हें वहाँ तो अदालत जाना होता था और नाम वकीलों से माथापच्ची करनी पडती है । फॅसा थी पार्टी पुस्तकों के अलावा वो नरेंद्र को इतिहास, दर्शन और साहित्य संबंधी विभिन्न पुस्तके पढाने लगी । बेटे कि ग्राहक शक्ति देख गैर विश्वनाथ दंग रहे गए और उन्हें उसे पढाने में आनंद आने लगा । उन्होंने बडे परिश्रम से जितना ज्ञान अब तक अर्जित किया था, वो अपने इस योग के पुत्र को सौंप दिया । उनके घर में हर रोज रायपुर के गुडयानी व्यक्तियों कर जगह होता, साहित्य, दर्शन आदि विभिन्न विषयों पर चर्चा चलती थी । घंटों वाद विवाद होता और सूक्ष्म विवेचन किया जाता है । उस समय सुबह नरेंद्र भी वहीं उपस् थित होता और वाद विवाद ध्यान से सुना कर कर कभी कभी विश्वनाथ नरेंद्र से भी किसी विषय पर उस गिराए पूछ लेते हैं और यहाँ उससे विवाद में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करते । नरेन्द्र उम्र में चाहे छोटा था और उसके विचार करने साफ सुथरे और सुलझे हुए थे कि सुनकर बडे बूढे भी आनंद से जुडे होते हैं । विश्वनाथ के मित्रों में एक सज्जन बंग साहित्य के प्रसिद्ध लेकर थे । एक दिन जब भी साहित्य पर बात विवाद कर रहे थे तो उसमें भाग लेने के लिए नरेंद्र को भी बुला लिया गया । बस अब क्या था? नरेन्द्र ने थोडे ही समय में ये सिद्ध कर दिखाया कि उसमें अधिकांश देखो उसपे नासिर पढ ली है, बल्कि उनकी बहुत से अंश उसे कंटस् और वो उनकी तर्कसंगत आलोचना भी कर सकता है । उन लेखक महोदय ने विस्मय और आनंद में भरकर कहा बेटा, आशा है एक दिन बंगभाषा भारी द्वारा गौरवान्वित और अब ये कहने की कोई आवश्यकता नहीं । उन लेखक महोदय की भविष्यवाणी सही साबित हुए । नरेंद्र रायपुर में दो बरस तक रहा । इस बीच में उसने पुस्तकों और बाजवा द्वारा जो कुछ सीखा वह तो सीखा ही, पर इस संबंध में विशेष रूप से उल्लेखनीय बात यह है कि उसके किशोर मन पर प्रताप के व्यक्तित्व की गंभीर छाप पडी । एक दिन नरेंद्र ने जाने कैसे पता से पूछ लिया पिताजी, आप हमारे लिए क्या छोड रहे हैं? विश्वनाथ ने दीवार पर लगी आए नहीं की तरफ इशारा करते हुए उत्तर दिया था सेना में अपना चेहरा देख तभी समझेगा की मैंने तुझे क्या दिया । विश्वनाथ बेटों को सामंती ढंग से कभी डांटते डपटते या बुरा भला नहीं कहते थे बल्कि उन्हें सुधारने और उनमें आत्मविश्वास पैदा करने का उनका अपना ही ढंग आपने उद्दंड स्वभाव के कारण नरेंद्र ने एक दिन माँ को कुछ कटु शब्द कह दिए । विश्वनाथ ने इसके लिए बेटे को कुछ नहीं कहा पर जब नरेंद्र अपने सहपाठियों के साथ अपने पडने के कमरे में गया तो कोयले से दीवार पर ये लिखा मिला । नरेंद्र बाबू ने अपनी माता के प्रति आज इंदूर वजनों का प्रयोग किया है । नरेन्द्र की काॅपी और वह शिक्षा को उम्र भर नहीं स्कूल पर अगर कोई व्यक्ति नरेंद्र की युक्तिपूर्ण बातों को बच्चे की दृष्टता समझकर उपेक्षा करता तो वह क्रोध के मारे आपे से बाहर हो जाता है । उस समय से छोटे बडे का भी ध्यान नहीं रहेगा । कई बार वो अपने पिता के मित्रों तक को खरी खरी सुना । विश्वनाथ उद्दंडता के लिए बेटे को शमा नहीं करते थे । नरेंद्र को दंड देकर आगे के लिए सावधान कर देते थे । पर बेटी की आत्मनिष्ठा को देखते हुए मन ही मन ऍम विश्वनाथ पाक विद्या में भी निपुण थे । नरेन्द्र नियम से तरह भरा के भोजन बनाने से किए । कॉलेज में वो अपने मित्रों को समय समय पर अपने हाथ से भोजन बनाकर खिलाया कर दी । फिर जब स्वामी विवेकानंद बनकर विश्वभ्रमण पर गए तो विदेशियों को भारतीय खानों का स्वाद चखाया करते । अमेरिका में शस्त्र द्वीप उद्यान में दो महीने के सहवास में वो अपने सिपाहियों को प्रायः अपने हाथ से विभिन्न भारतीय व्यंजन तैयार करके खिलाते थे । दो बजे के बाद जब नरेंद्रनाथ रायपुर से लौटा, वह शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत बदल चुका था । मित्रों से अपने बीच पाकर बहुत प्रसन्न हुए । वो स्कूल में दाखिल हुआ और नवी और दसवीं कक्षा की तैयारी एक साल में । लेकिन स्कूल में सिर्फ वही एक विद्यार्थी था जिसने मैट्रिक के परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास इससे ना सिर्फ सगे संबंधियों बल्कि स्कूल के अधिकारियों को बडी खुशी नरेंद्र शरीर से हष्ट पुष्ट था और सोलह बरस की आयु में बीस बरस का जान पडता था । कारण ये कि वह नियमित रूप से व्यायाम किया करता था । बचपन से ही वो कुश्ती का अभ्यास करता रहा था । ये राजनीतिक चेतना का युक्त सुरेन्द्रनाथ बनर्जी और आनंद मोहन बसु ने विद्यार्थी संघ की स्थापना कि की और वह नौजवानों को शारीरिक और मानसिक रूप से सफल होने की शिक्षा देते हैं । शिमला मोहल्ला में कौन वॉलस्ट्रीट के पास एक खडा था । हिन्दू मेले के प्रवर्तक नाम गोपाल मित्र ने उसकी स्थापना कि नरेंद्र नाथ अपने मित्रों के साथ वही व्यायाम का अभ्यास किया करता । बॉक्सिंग यानी कि मुक्केबाजी में वो एक बार सर्वप्रथम आया और से चांदी की पिछली पुरस्कार में । अपने समय में वो क्रिकेट का भी अच्छा खिलाडी था । उसे घोडे की सवारी का शौक था । पिता ने उसके लिए अच्छा सा घोडा खरीद दिया था जिस पर सवार होकर वह हवाखोरी के लिए जाया करता था । विश्वविख्यात लेखक रो माम रोला ने अपनी पुस्तक विवेकानंद में लिखा है नरेन्द्र का शैशव और माल निकाल यूरोपीय पुनर्जागरण काल के कला प्रेमी राजकुमार सर रहा । उनकी प्रतिमा बहुमुखी थी और सभी दिशाओं में उन्होंने उनका विकास किया । उन का रूप से तीस श्रावक कैसा प्रभावशाली और मृत छुआने साफ कोमल था । बलिष्ठ सुगठित शरीर कसरतों से और भी मंच गया था । कुश्ती घोडे की सवाल टेयर ने और नाम खेलने का । उन्हें चौक युवकों की वे नेता और फैशन के नियंत्र ता के नृत्योत्सव में भी कलापूर्ण नृत्य करते थे और उनका कंट्री बडा सुरीला था जिसपर अंतिर रामकृष्ण भी मुक्त हुए । उन्होंने चार पांच वर्ष तक हिंदू और मुसलमान सिंह चायों के साथ गायन और संगीत का अभ्यास किया । वो स्वयं गीत लिखते थे और उन्होंने भारतीय संगीत की दर्शन और विज्ञान पर एक संदर्भ ग्रंथ भी प्रकाशित किया । संगीत में नरेंद्र के मुसलमान स्टार बननी और हिंदुस्तान कांसी घोषाल थे । कांजी खुशहाल आदिब्रह्मा समाज की संगीत साधा में पखावज बजाया कर देते हैं । नरेन्द्र ने पखावज और तबला इन्ही से सीखा साहित्य, इतिहास और दर्शन पारिवारिक परंपरा इसी विषय में उसके गुरूभाई स्वामी सारदानंद ने अपनी पुस्तक श्रीराम कृष्ण लीला प्रसन्न इसमें लिखा है बडे होने पर परीक्षा की दो तीन माह पहले वे अपनी पार्टी पुस्तकों को पडना आरंभ करते थे । अन्य समय अपनी इच्छा के अनुसार दूसरी पुस्तक कि पढकर समय बिताते थे । इस प्रकार मैट्रिक परीक्षा देने के पहले उन्होंने अंग्रेजी और बांग्ला के अनेक साहित्यक तथा ऐतिहासिक ग्रंथ पर डाले थे वाला कहा । परीक्षा की पूर्व उन्हें कभी कभी बहुत अधिक परिश्रम करना पडता था । हमें स्मरण हैं एक दिन उन्होंने इस विषय का प्रश्न उठने पर हमें बताया था मेट्रिक परीक्षा के आरंभ होने के दूर तिन दिन पहले मैंने देखा कि रेखा गणित कुछ भी नहीं पढा गया है । तब सारी राज जाकर उसे पडने लगा और चौबीस घंटे में उसकी चार पुस्तके पढकर परीक्षा दिया । ईश्वर कृपा से उन्हें दृढ शरीर तथा पूर्व मेरा प्राप्त की इसलिए वैसा कर सके इसमें कोई संदेह नहीं । मेट्रिक पास करने के बाद नरेंद्रनाथ जनरल असेंबली कॉलेज में भर्ती हुआ और एस । ए में पडने लगा । इस समय उसकी उम्र अठारह बरस उसकी तेज बुद्धि और आकर्षक व्यक्तित्व नहीं अध्यापकों और छात्रों दोनों का ध्यान आकर्षित किया । थोडे ही समय में बहुत विविध भारती उसके मित्र बन गए । दरअसल विद्यार्थियों से अपना मित्र बनाने में गर्व महसूस करते हैं । प्रियनाथ सिन्हा नाम के मित्र सहपाठी ने इन दिनों के अपने स्मरण में लिखा है नरेंद्रनाथ हे दो तालाब के पास जनरल असेंबली कॉलेज में भर्ती हुआ और एस ए बहिन से पास किया है । उनके असंख्य दिनों के कारण बहुत सहपाठी उनमें अत्यंत से अनुरक्त । वो उनका गाना सुनकर इतना आनंदप्रद मानते हैं की अवकाश पाते ही नरेंद्र के घर पर उपस् थित हो जाते हैं बैठ कर एक बार नरेंद्र की तरफ यूपीए गाना बजाना आरंभ होते ही समय कैसे निकल जाता है ये समझ नहीं पाए । नरेन्द्र समय अपने पिता के घर केवल दो बार भोजन करने जाते हैं और शेष समय समीर की गली में अपनी नानी के घर में रहकर अध्ययन करते अध्ययन के लिए ही वहाँ रह रहे हैं । ऐसी बात नरेन्द्र एकांत में रहना अधिक पसंद करते कमरा बहुत छोटा था । नरेंद्र ने उसका नाम दंग रख लिया था और मित्रों से कहा करते थे चलो तंग में चले अब इस संघ की एक बैठक देखिए नरेंद्र आज मन लगाकर पढ रहे । इसी समय किसी मित्र का आगमन हुआ । लगभग ग्यारह बजे हूँ । भोजन करके नरेंद्र पढ रहे मित्र ने अगर नरेंद्र से कहा भाई रात में पढ लेना अभी जरा एक गांधी तो सुना दो । उसी समय नरेंद्र पुस्तक बंद कर उसे एक और सरकार तानपुरी की तारों संभाल कर उन्हें स्वर्ग में बांध कर गाना गाने से पहले उन्होंने अपने मित्र से कहा अच्छा जो तबला उठा । मित्र ने कहा भाई में तो बजाना जानता नहीं स्कूल में मेस का तबला बजा लेता हूँ क्योंकि तुम्हारे साथ तबला भी बजा सकूंगा । तब नरेंद्र ने स्वयं थोडा सा बजाकर दिखा दिया और कहा अच्छी तरह से देखने आवश्यक जा सकेगा । क्यों नहीं जा सकेगा कोई कठिन काम थोडी ना है । इस तरह बस ठेका दिए जा हो जाएगा । साथ ही साथ बजाने के बोल भी बदला दी । मित्र एक दो बार चेष्टा करने के बाद किसी तरह ठीका देने लगा । गाना आरंभ हुआ टाइम ले में उन्मुक्त होकर और दूसरों को उन बनाकर नरेंद्र ने रेस वर्षी स्वर में टप्पा ढप ख्याल, ध्रुपद बंगला, हिंदी और संस्कृत गानों का प्रवाह चलने लगा । गंभीर चिंतनशक्ति और तीसरा मुद्दों के कारण नरेंद्र सभी विषय बहुत थोडे समय में सीख लेता । संगीत, स्वच्छंद भ्रमण, मित्रों के साथ खेल कूद और हसी मजाक के लिए उसे काफी समय मिल जाता है । दूसरे लडके इससे ये समझ लेते थे कि नरेंद्र कि अध्ययन में बिल्कुल रूचि नहीं । उनकी देखा देखी जो दूसरी लडकी खेलकूद में समय बिताते उनके लिए इसका परिणाम अच्छा नहीं होता । पार्टी पुस्तकीय परीक्षा पास करने का साधन मात्र वरना जैसा की उसका स्वभाव बन चुका था । नरेन्द्रनाथ, साहित्य, दर्शन और इतिहास की पुस्तके अधिक पडता था । बेकार का अहमदाबाद यू और वेन की नास्तिकता, डार्विन का विकासवाद और इसके अलावा हरबर्ट स्पेंसर का अब ये बाद उसने एफ एक ही परीक्षा देने से पहले पर अदालत उसके मित्र बृजेंद्र बाबू ने प्रबुद्ध भारत पत्रिका में अपने संस्मरण लिखे जिसमें नरेंद्र की अशंति और ज्ञान पास अगर चित्र प्रस्तुत करते हुए उन्होंने बताया है कि नरेंद्र ने शीली की कविताओं, हेगल के दर्शन और फ्रांसीसी क्रांति के इतिहास का अध्ययन भी इसी अवस्था में कर दिया था । इसके अलावा संस्कृत कविता उपनिषद राममोहन रॉय की पुष्टि किए भी वो बडे चाव से पढा करते थे । पढते समय वह चंचल और खिलाडी नरेंद्र से एकदम भिन्न दूसरा ही व्यक्ति हो जाते । बृजेंद्र बाबू कॉलेज में नरेंद्र से दो तीन बार ऐसा पर इन दोनों में खूब पटती भी । दोनों दार्शनिक क्लब में जाया करते रोमांस बोला ने लिखा है कि बृजेंद्र फ्रांसीसी क्रांति से प्रभावित थे और अराजकता वाली । बाद में उन्होंने बुद्धिवादी के रूप में नाम पाया । मैट्रिक पास करती करती नरेंद्र की बुद्धि इतनी विकसित हो गई थी कि कोई पुस्तक पडने में अधिक समय नहीं लगाना पडता है । अपनी अध्ययन पद्धति की चर्चा करते हुए वो अपने गुरु भाइयों से कहा करता था अब से कोई पुस्तक पढते समय प्रत्येक पंक्ति क्रमश शाह पढकर ट्रेंट कर का वक्तव्य समझने की मुझे आवश्यकता नहीं हर चीज की प्रथम और अंतिम बंगिया पढते ही उसके भीतर क्या कहा गया है? मैं समझ लेता था ऍम है वह शक्ति परिपक्व होने पर मुझे हर अनुच्छेद पडने का भी प्रयोजन नहीं होता । हर पृष्ठ की प्रथम और अंतिम पंक्तियां पढकर मैं आश्रय समझ सकता था । फिर पोस्ट किस स्थान पर ग्रंथकार ने कोई विषय तर्क युक्तियों द्वारा समझाया है । वहाँ यदि प्रमाण प्रयोग की सहायता से किसी नियुक्ति के समझाने में चार पांच या उससे अधिक पृष्ठ लगे तो उस युक्ति का आरंभ मात्र पढकर यूनिक रिश्तों की सारी बातें में समझ लेता था । अपनी इस असाधारण प्रतिभा से नरेन्द्र ने विवेकानंद बनने पर जर्मनी के प्रसिद्ध वेदान्ती डॉक्टर डाइटिंग को कैसे चकित? क्या ये हम डॉक्टर डाइसन से भेंट के समय देखो । अध्ययन का उद्देश्य सत्य की खोज था और नरेंद्र जिसे सत्य समझ लेता था, उसकी जी जान से रक्षा करता था । जब देखता था की कोई दूसरा उसके विपरीत भाव्या मत व्यक्त कर रहा है । नरेंद्र चट विवाद पर कराता था और अपने सशक्त तर्को और युक्तियों द्वारा उसे परास्त करके दम लेता हूँ । पराजित व्यक्ति कई बार बिलबिला उठते थे और नरेंद्र पर दम्भी होने का आरोप लगाने में भी संकोच नहीं करते थे । पर नरेंद्र में मन में किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं था और अपनी बात को ऊंचा रखने के लिए वो कभी कुतर्क का सहारा नहीं लेता था । उसे जो कहना होता था, दूसरे के सामने साफ साफ कहता था कोई उसकी बात से चढता है, उसके बारे में क्या राय रखता है या उसकी निंदा करता है इस बात की उसे जरा भी परिवार उसका हृदय शुद्ध था और वह खुद पीठ पीछे किसी की निंदा या बुराई नहीं करता था । धीरे धीरे जब उसका स्वभाव उजागर हुआ तो विद्यार्थी उसके बाद ध्यान से सुनते और उसका आदर करने लगे । जनरल असेंबली कॉलेज के अध्यक्ष विलियम गृहस्ती सर्जन होने के अलावा बडे विद्वान, कवि और दार्शनिक हो नरेंद्र, बृजेंद्र आदि कुछ प्रतिभाशाली विद्यार्थी नियमित रूप से उनके पास जाते और दर्शनशास्त्र का अध्ययन किया करते थे । ऐसी नरेंद्र की बहुमुखी प्रतिमा के बहुत प्रशंसक थे और इसलिए उसे सबसे अधिक चाहते थे । एक मर्तबा नरेंद्र जब कॉलेज के दार्शनिक क्लब में किसी मत विशेष का सूक्ष्म विश्लेषण किया तो ऐसी खुशी से झूम उठे और मुक्त कंठ विश्वविद्यालयों में एक भी ऐसा छात्र ही हैं जो इनके सम्मान मेधावी हो । अध्ययन और आयु बढने के साथ साथ नरेंद्र की जिज्ञासा तीव्र से तीव्र कर होती चली गई । मानव जीवन का उद्देश्य क्या है? क्या सच मुझे जड जगत को चलाने वाली कोई शक्ति मान सकता है? इस प्रकार के अनेक सवाल उसके मस्तिष्क में उठने लगे । पांच जाते विज्ञान और दर्शनशास्त्र ने उसके मन में संदेह उत्पन्न कर दिया । नरेन्द्र जब किसी धर्म प्रचारक ईश्वर के बारे में भाषण देते सुन दात झट घुसपैठ क्यों महाश् है आपने इश्वर की दर्शन किए हैं? हाँ या ना? हाँ या ना में उत्तर देने के बजाय धर्म प्रचारक उपदेश वाक्यों से उसे संतुष्ट करना चाहते हैं और अपना पुस्तक ज्ञान बघारने लगते हैं । नरेंद्र को तो प्रत्यक्ष बाद ही खोजती । धर्म प्रचारकों की रटी रटाई संप्रदाय जगत बोलिया सुनकर व प्रबल संदेह अवादी हो गया । पिता से विरासत में पाए हुई आलोचना वृत्ति पर पास जातीय विचारों इंसान चढ चुकी फिर उस तक क्या नरेंद्र को शांत नहीं कर पा रहा हूँ उसे अब एक जीती जाते आदर्श की खोज इसी खोज का वह कुछ मित्रों के साथ आदिब्रह्मा समाज का सदस्य बनाया । ब्रह्मसमाज चंद साल पहले आदि ब्रह्मसमाज और अखिल भारतीय प्रमा समाज में विभाजित हो गया । पहले के नेता देवेंद्रनाथ ठाकुर और दूसरे के एशिया चंद्र सी केशव बहुत बडे वक्त और इस समय उनकी ख्याति शिखर पर बंगाली नौजवान उनसे बेहद प्रभावित थे । विमान बोला का कथन है नरेंद्रनाथ उनसे ईर्ष्या करते थे और स्वयं केशव बनने की महत्वकांशा रखें । लेकिन इसके बावजूद उनके अखिल भारतीय ब्रह्मा समाज के सदस्य नहीं बना । कारण ये था कि अखिल भारतीय ब्रह्मा समाज राजा राममोहन रॉय की आदर्श और परंपरा से हट चुका । केशव और उनके अनुयायी ईसाइयत में रंगे हुए थे और उनका चालान सनातन हिंदू भर में कि उच्चतम मान्यताओं के प्रतिकूल था । लेकिन नरेंद्र की बचपन से ही इन मान्यताओं में आस्था संदीप वादी होते हुए भी उसमें दूसरे नौजवानों से उच्छ्रंखलता और अराजकता ना नरेंद्रनाथ ब्रह्मा समाज की रविवारीय उपासना में शामिल होता था और आपने मधुर कंठ से ब्रह्मा संगीत सुनाकर सदस्यों का मन प्रसन ने क्या करता? पर वासना के विषय में वो दूसरे सदस्यों से सहमत नहीं था । उसे ब्रह्मा समाज में क्या और धर्मनिष्ठा की कमी महसूस होगी? नरेन्द्र जो कुछ देखता था उसकी वह निर्भिक आलोचना करता था । उसका मन अब भी अशांत था और जिस जीती जाती सर्दी की उसे खोज थी तो यहाँ भी दिखाना पडता है । एक दिन देवेंद्रनाथ ठाकुर ने उसे उपदेश देते हुए कहा तुम्हारे अंग प्रत्यंग में योगियों के चिन्ह मौजूद । ध्यान करने से ही तो में शांति और सत्य की प्राप्ति होगी । नरेन्द्र लगन का पक्का था । उसी दिन सीधा आयरन रात में रह गया । थोडा खाना, चटाई पर सोना, सफेद धोती और चंद्र पहनना और शारीरिक कठोरता का पालन करना उसका नियम बन गया । उसने अपने घर के निकट नानी के मकान में एक कमरा किराए पर ले रखा था । परिवार के लोग समझते थे कि घर पर पढाई की असुविधा के कारण ही नरेंद्र अलग रहने लगा । विश्वनाथ बाबू ने बेटी की स्वाधीनता में कभी हस्तक्षेप नहीं किया था । इसलिए नरेंद्र अध्ययन, संगीत आदि ही चर्चा करने के बाद शेष समय साधना भजन में बताता था । सत्येंद्रनाथ मजूमदार अपनी विवेकानंद चरित्र पुस्तक में लिखते हैं, इस प्रकार दिनबदिन बीते गए निगरनी की सत्य को जानने की इच्छा तो नहीं हुई अपील तू अधिकारिक बढने लगी । धीरे धीरे उन्होंने समझा कि अतिंद्रिय सत्य को प्रत्यक्ष करने के लिए एक ऐसे व्यक्ति के चरणों के पास बैठ कर शिक्षा लाभ करना आवश्यक है । इसने स्वयं सत्य का साथ शाह कर क्या है? उन्होंने अपने मन प्राण से ये भी निश्चय कर लिया कि इसी जीवन में सत्य को प्राप्त करना होगा नहीं तो इसी प्रयत्न में प्राण दे देता हूँ । सुरेंद्रनाथ मित्र रामकृष्ण परमहंस के भक्त थे और वे शिमला मोहल्ला में ही रहते हैं । नवंबर सौ इक्यासी के एक दिन उन्होंने रामकृष्ण परमहंस को अपने मकान पर बुलाया और इस उपलक्ष्य में एक आनंदोत्सव का आयोजन कोई अच्छा गायक ना मिलने के कारण उन्होंने अपने पडोसी नरेंद्रनाथ को बुलाना रामकृष्ण परमहंस से यू नरेंद्रनाथ का पहली बार साक्षात्कर हुआ गाना सुना तो उन्होंने इस युवक की प्रतिभा को पहचान लिया । वो उठकर नरेंद्र के पास आए । कुछ देर बातें की और फिर दक्षिणेश्वर आने का अनुरोध करके चले गए । ऍम परेशान निकट नरेंद्र उसमें इतना व्यस्त रहा कि इस बात को भूल ही गया । परीक्षा सामान हुई तो पिता ने बिहार की बात चलायी । नरेंद्र का भाविन ससुर दहेज में दस हजार रुपये नकद देने को तैयार । पर नरेंद्र झंझट में कैसे पडता? वो मित्रों से कहा करता था मैं वहाँ नहीं करूंगा और तुम लोग देखोगे कि मैं क्या बनता हूँ । विश्वनाथ अपने बाबू बेटे पर किसी प्रकार का जवाब नहीं थी । अब इस मामले में नरेन्द्र राय जान लेने का काम उन्होंने अपने संबंधी डॉक्टर रामचंद्र दर्द को सौंपा । जब ये प्रसंग छिडाव नरेंद्र ने साफ ये दिया की मैं यहाँ के बंधन में नहीं बंधना क्योंकि मैंने जीवन का जो उद्देश्य बना रखा है क्या उसमें मादक बनेगा? उत्तर सेंटर डॉक्टर रामचंद्र ने कहा यदि वास्तव में सिटी की प्राप्ति ही तुम्हारा मूल्य देश है तो प्रमा समाज आदि में भटकना वेयर दक्षिणेश्वर में श्रीरामकृष्णन देख के पास जाओ । नरेंद्र को सुरेंद्रनाथ के मकान पर भी सीट याद आई और वह तीन चार मित्रों के साथ दक्षिणेश्वर फौज रामकृष्ण चीर परिषद की तरह सहजभाव से मिले । नरेंद्र को अपने करीब चटाई पर बैठा लिया और गाना सुनने को नरेन्द्र ने प्रमा समाज का मन चलो नॅान फिर नरेंद्र की अपने अनुसार जब कार्य समाप्त हुआ तो वो उसे हाथ पकडकर एकांत में ले गए । भीतर से कमरा बंद करके बोले अरे तो इतने दिन कहा रहा मैं कब सिथिल बाढ जो रहा हूँ विषय लोगों के साथ बात करते करते मेरा मूड जल गया । आज फेरे सामान सच्चे त्यागी के साथ बात कर के मुझे शांति नहीं । ये कहते कहते उनकी आंखों में आंसू बहने नरेन्द्र हद बुद्धि सा उनकी ओर ताकता रहा देखते ही देखती । रामकृष्ण परमहंस ने हाथ जोडकर नरेंद्र को सम्मान संबोधित किया । मैं जानता हूँ सप्तऋषि मंडल है न रुपये नारायण है । जीवों के कल्याण की कामना से तूने देहधारी नरेंद्र का कहना है कि उनके मुख से ऐसी बातें सुनकर में एकदम अफवाह पर संबित रहेंगे । सोचा ये तो नीरा पागलपन मैं विश्वनाथ दत्त का पुत्र मुझसे क्या कह रहे हैं? उन्होंने मेरा हाथ पकडकर दोबारा का मुझे वचन देख तू मुझसे मिलने फिर अकेला आएगा । वर्षी नरेंद्र ने इस अद्भुत स्थिति से छुटकारा पाने के लिए वचन तो दे दिया पर मन में सोचा कि फिर यहाँ नहीं हूँ । बैठक में लौट आए । वहाँ दूसरों की मौजूदगी में जो बातें हुई उनमें पागलपन का लेशमात्र भी ना । रामकृष्ण ने नरेंद्र की जन्म के बारे में अपने शिष्यों को भावेश में का अद्भुत कथा सुनाई थी । वो कथा रो मामा बोला ने अपनी पुस्तक विवेकानंद में जो बयान एक दिन समाधि में मैंने पाया कि मेरा मन प्रकाश के पद पर ऊंचा उतरा । तारा जगत को पार करके वो शीघ्र ही विचार सूक्ष्मतर जाती में प्रविष्ट हुआ तथा और ऊंचा उठने लगा । पद के दोनों ओर मुझे देवी देवताओं के सूक्ष्म शरीर दिख पडने लगी । उस मंडल को भी पार करके मन वहाँ पहुंच गया जहां प्रकाश की मर्यादा रेखा सापेक्ष्य को निरपेक्ष से प्रकट कर रहे हैं । उस रेखा का भी उल्लंघन करके मन वहाँ पहुंच गया जहां सर वो कुछ भी नहीं अपने अपने आसान पर ही संतुष्ट । इन दूषण भर बाद मैंने सात ऋषियों को समाधि लगाए बैठेगा । मुझे ध्यान हुआ कि इन ऋषियों ने ज्ञान और पवित्रता में त्याग और प्रेम में न केवल मांगों को वरुणदेव को भी पीछे छोड दिया है । मैं मुक्त भाग से उनकी महत्ता का चंदन करेंगे था की उस करू प्रकाश क्षेत्र के एक अंश ने घनीभूत होकर एक्टिव भी शिशु का रूप ग्रहण कर लिया । वहाँ शिशु हुए कृषि के समीप आकर उनके गले से लिपट कर मधुर स्वर से पुकारता हुआ समाधि से झुकाने का प्रयत्न करने लगा । समाधि से जाकर ऋषि ने आपने अवर दून मिलित नेत्र शिशु पस्थित कर दिए । उनकी वात्सल्य भरी मुद्रा से स्पष्ट था कि शिशु उन्हें कितना प्रिया आनंद रिपोर्ट होकर जिसने कहा मैं नीचे जा रहा हूँ । आप भी मेरे साथ चले । विष्णु उत्तर नहीं, पर उनकी वत्सल दृष्टि में स्वीकार का भागता शिशु की ओर देखते देखते वो फिर समाधिस्थ हो गए । मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उनका एक से एक प्रकाशपुंज के रूप में धरती की ओर उतर रहा है । जब मैंने नरेंद्र को देखा तब देखते ही पहचान लिया । किसी करूँ नरेन्द्र घबराये और वैसे चिल्लाओ था जी आपने यह मेरी कैसे व्यवस्था कर डन मेरे तो माँ बाप अब बहुत पागल, सिर्फ इलागढ हस पडा और नरेंद्र का हाथ अपनी छाती पर रखकर बोला अच्छा तो फिर अभी रहने दे । इसके बाद रामकृष्ण परमहंस फिर सामान्य स्थिति में आ गए । उन्होंने नरेंद्र को पहले ही दिन की तरहा प्रेमपूर्वक खिलाया पिलाया । विभिन्न विषयों पर बातचीत प्यार और हास परिहास किया और शाम को जब नरेंद्र ने विदा चाहिए उन्होंने अप्रसन्न होकर कहा हो फिर शीघ्र ही आएगा लिखा है लाचार होकर पहले दिन की तरह वचन देकर की लौटना पडा नरेंद्र ने विस्मय की सीमा ना वो लौटते समय मनी मंजूर से लगा क्या के लिए पहले क्या है इस पहली को समझना ही होगा । नरेंद्र की इस समय की मन स्थिति को स्वामी सारदानंद ने अपने ग्रंथ श्रीराम कृष्ण लीला प्रसंग में व्यक्त किया है । जिस तरह मैं मुझे लगा की इच्छा मात्र से ये पुरुष यदि मेरे जैसे प्रबल इच्छा शक्ति संपन्न चितरपुर दृड संस्कार युक्त गठन को इस तरह तोड फोड कर मिट्टी के लॉन दे की तरह अपने भाव से ढल सकते हैं तो इन्हें पागल ही कैसे? केंद्र प्रथम दर्शन के दिन मुझे गांठ में ले जाकर इन्होने जिस प्रकार संबोधित करते हुए बातें की उससे इन्हें पागल के अतिरिक्त और क्या मान सकता हूँ । बुद्धि गांव में होने, अंदर खोज तथा तर्क युक्ति की सहायता से प्रत्येक वस्तु तथा व्यक्ति के संबंध में एक मतदान मत सिर्फ ये बिना मैं कभी निश्चित नहीं सकता । इसी स्वभाव में आज एक प्रचंडा अज्ञात प्राप्त हुआ है । इससे संकल्प था उदय हुआ । जैसे भी हो सके अद्भुत पुरुष इस वक्त आप और शक्ति की बात अवश्य ही समझ में हूँ । छह से लिए पुरुष ईवा जीता जाता । आदर्श था नरेंद्र जिसे खोजता हुआ दक्षिणेश्वर पहुंचा था । लेकिन इस दृढ संस्कारयुक्त युवक में इस अद्भुत पुरुष को तबतक गुरु के रूप में धारण नहीं किया जब तक उनके स्वाभाव और शक्ति को खाली प्रकार समझना लिया । अब देखना यह है कि इस अद्भुत पुरुष का स्वभाव और शक्ति क्या कि नरेंद्र ने उसे कैसे पहचाना और इस अद्भुत पुरुष ने नरेंद्र को विवेकानंद बनाने में क्या भूमिका निभाई । ये जैसे हमारा बल्कि भारतीय दर्शन के इतिहास का आवश्यक रोचक विषय है । गुरु और शिष्य रामकृष्ण और विवेकानंद व्यक्त नहीं युगपुरूष हमारे राष्ट्रीय विचार के विकास क्रम की ऐसी ऐतिहासिक कर दिया है जिन्हें समझे बिना और पहली को सुलझाना मुमकिन नहीं जिसे तथाकथित अध्यात्मवाद ियों ने पूरी तरह शादिया और तथाकथित वामपंथियों ने जिसके निरंतर अब खेलना तथा उपेक्षा

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स्वामी विवेकानंद की अमरगाथा.... Swami Vivekanand | स्वामी विवेकानन्द Producer : Kuku FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava
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