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ऍम भाषा, साहित्य और कला पर विवेकानन्द के विचार कला सौंदर्य की अभिव्यक्ति हैं । प्रत्येक वस्तु कलापूर्ण होनी चाहिए । हाँ, विवेकानन्द विवेकानंद को सौंदर्य भावना आपने कलाप्रेमी वंश से विरासत में मिली थी । एक निपुण संगीतकार थे और बचपन में उन्होंने चित्रकला भी सीखी थी । बाद में उन्होंने धर्म के माध्यम से जो राजनीतिक संघर्ष क्या उससे जूझे, उनके व्यक्तित्व का विकास हुआ । क्यों? क्यों सौ अंधेरे भावना भी विकसित हुई? गंदी के अलावा उन्होंने बंगला, संस्कृत और अंग्रेजी भाषा में कविताएं लिखी । अमेरिका और इंग्लैंड के विद्वानों और अखबारों ने अंग्रेजी पर उनके अधिकार और विद्वता की बडी तारीफ की, लेकिन इस तारीख के बावजूद उन्होंने अपनी अंग्रेजी पर कभी गर्मी नहीं किया । जुलाई अठारह सौ सन ध्यान में अल्मोडा स्वामी रामकृष्ण को ये लिखते हैं, कल यहाँ पर अंग्रेज लोगों के बीच एक व्याख्यान हुआ । उस से सब लोग अत्यंत आनंदित हुए हैं । किंतु से पूर्व दिवस हिंदी में मेरा भाषण हुआ, उससे मैं जनता आनंदित हूँ । मुझे पहले ऐसी धारणा नहीं थी कि हिंदी में भी मैं वक्त बता दे सकूंगा । अगले दिन तीस जुलाई को स्वामी अखंडानंद के नाम फिर लिखते हैं, यहाँ पर साहबों के बीच मैंने एक अंग्रेजी भाषण तथा भारतीयों के लिए एक भाषण हिंदी में दिया था । हिंदी में ये मेरा प्रथम भाषण था । केंद्र सभी ने बहुत पसंद किया । साहब लोग जैसे है, वैसे ही है चारों और ये सुनाई दिया काला आदमी ढाई बहुत आश्चर्य की बात है । विदेशियों की तारीफ का विवेकानंद की दृष्टि में कुछ भी मूल्य नहीं था । वे इस तथ्य को भलीभांति समझते थे कि विदेशी भाषा में चाहे कोई कितनी ही जान खपाए, कितनी ही विद्वता प्राप्त कर ले, उसमें उच्च कोटि की उत्कृष्ट रचना संभव नहीं है । मौलिकता और प्रतिभा का विकास अपनी मात्र भाषा ही में संभव है और हृदय गत भावनाओं की सहज अभिव्यक्ति उसी में संभव है । लॉर्ड मैकॉले द्वारा हम पर अंग्रेजी आरोपित करना हमारी राष्ट्रीयता को नष्ट करने का सोचा समझा षड्यंत्र है । मद्रास में भारत का भविष्य इस नाम के अपने भाषण में भी कहते हैं । किसी भी दूसरे देश की अपेक्षा भारत की समस्याएं अधिक जटिल और गुरुतर है । जाति, धर्म, भाषा, शासन प्रणाली यही एक साथ मिलकर एक राष्ट्र की सृष्टि करते हैं । ये भी एक एक जाती को लेकर हमारे राष्ट्र से तुलना की जाए तो हम देखेंगे किचन उपादानों से संसार के दूसरे राष्ट्र संगठित हुए हैं भी संख्या में यहाँ के उपादानों से कम है । यहाँ आये हैं, द्रविड है, ताजदार है, तुर्क है, मुगल है, यूरोपीय हैं । मानव संसार की सभी जातियां इस भूमि में अपना अपना खून मिला रही हैं । भाषा का यहाँ एक विचित्र ढंग का जमावडा है । आचार व्यवहार के संबंध में दो भारतीय जातियों में जितना अंदर है उतना पूर्वी और यूरोपीय जातियों में नहीं । लेकिन भाषाओं के विचित्र जमावडे और आचार व्यवहार में अंतर के बावजूद हमें एक महान संस्कृति के उत्तराधिकारी हैं । ये संस्कृति ही राष्ट्रीय एकता के लिए सीमेंट का काम करती है । ये संस्कृति जिस भाषा में सुरक्षित है वह संस्कृत है । अरे हमारे राष्ट्रीय जीवन में संस्कृत का जो महत्व है, उसे विवेकानंद ने समझा और देशवासियों को समझाने का प्रयत्न किया । वो अपनी उक्त भाषण में कहते हैं मेरा विचार है पहले हमारे शास्त्र ग्रंथों में भरे पडे आध्यात्मिकता की रत्नों को, जो कुछ ही मनुष्यों के अधिकार में मत हो और अन्यों में छिपे हुए हैं, बाहर लाना है । जिन लोगों के अधिकार में ये छिपे हुए हैं केवल उन्हीं से इस ज्ञान का उद्वार करना नहीं, बहन उससे भी दुष्टों दुखु दुर्भाग्य पटिका अर्थात जिस भाषा में ये सुरक्षित है, उन शताब्दियों के पर दिखाए हुए संस्कृत शब्दों से उन्हें निकालना होगा । तट पर ये है कि मैं उन्हें सबके लिए सुलभ करना चाहता हूँ । मैं इन रत्नों को निकालकर सबकी भारत के प्रत्येक मनुष्य की सामान्य संबंधी बनाना चाहता हूँ, चाहे वो संस्कृत जानता हो या नहीं । इस मार्ग की बहुत बडी कठिनाई हमारी गौरवशाली भाषा संस्कृति है । ये कठिनाई तब तक दूर नहीं हो सकती जब तक यदि संभव हो तो हमारी जाती की सभी मनुष्य संस्कृत के अच्छे विद्वान ना हो जाए । ये कठिनाई तुम्हारी समझ में आ जाएगी । जब मैं कहूंगा की आजीवन संस्कृत भाषा का अध्ययन करने पर भी जब मैं इसकी कोई नई पुस्तक उठाता हूँ तब वो मुझे बिलकुल नहीं जान पडती हैं । अब सोचो कि जिन लोगों ने कभी विशेष रूप से इस भाषा का अध्ययन करने का समय नहीं पाया, उनके लिए ये भाषा कितनी अधिक लिस्ट होगी । अतः मनुष्य की बोल चाल की भाषा में विचारों की शिक्षा देनी होगी । साथ ही संस्कृत की शिक्षा भी अवश्य होती रहनी चाहिए क्योंकि संस्कृत शब्दों की ध्वनि मात्र से ही जाती को एक प्रकार का गौरव, शक्ति और बाल प्राप्त हो जाता है । महान रामरज चैतन्य और कबीर ने भारत की नीची जातियों को उठाने का जो प्रयत्न किया था, उस से उन महान धर्माचार्यों को अपने ही जीवनकाल में अद्भुत सफलता मिली थी । हिंदू फिर उनके बाद उस कार्य का जो सोचनीय परिणाम हुआ, उसकी व्याख्या होनी चाहिए और जिस कारण बडे बडे धर्माचार्यों की तिरोभाव के प्रायः एक ही शताब्दी के भीतर वो नदी रुक गई, उस की भी व्याख्या करनी होगी । इसका रहस्य है कि उन्होंने निजी जातियों को उठाया था । ये सब चाहते थे कि ये उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर आरूढ हो जाए, परंतु उन्होने जनता में संस्कृत का प्रचार करने में अपनी शक्ति नहीं लगाई । संस्कृति ही यूके आघातों को सहन कर सकती है, मात्र ज्ञानराशि नहीं । तुम संसार के सामने प्रभु ज्ञान रख सकते हो, परंतु इससे उसका विशेष उपकार ना होगा । संस्कार को रक्त में व्याप्त हो जाना चाहिए । वर्तमान समय में हम कितने ही राष्ट्र के संबंध में जानते हैं, जिनके पास विशाल ज्ञान का आगार है, परंतु इससे क्या वे बात की तरह नृशंस है? वे मार बरों के सदृश है, क्योंकि उनका ज्ञान संस्कार में परिणत नहीं हुआ है । सभ्यता की तरह ज्ञान भी चमडी की ऊपरी सतह तक ही सीमित है, छिछला है और एक खरोंच लगते ही वह पुराने नृशंसता जाग उठती हैं । ऐसी घटनाएं हुआ करती है । यही भय विवेकानन् संस्कृत को फिर से जीवित भाषा बनाने अथवा उसे राष्ट्रभाषा बनाने की बात नहीं कहते थे बल्कि वे कहते थे संस्कृत में पांडित्य होने ही से भारत में सम्मान प्राप्त होता है । संस्कृत भाषा का ज्ञान होने ही से कोई भी तुम्हारे वृद्ध कुछ कहने का साहस ना करेगा, यही एकमात्र रहे से है । अतः ढाई से जान लू और संस्कृत पढो एकमात्र रहस्य की ये बात विवेकानंद ने अपने अनुभव के आधार पर कहीं । उन्होंने संस्कृत पडी थी और प्राचीन शास्त्रों का अध्ययन किया था । इसलिए भारत को सभ्य बनाने की डींग हांकने वालों का भी मुंहतोड जवाब दे पाए थे । इसलिए शिकागो धर्म महासभा इंक्लाइन और अमेरिका में उनका विरोध करने वाले पादरियों साध्वियों को धूल चाटनी पडी थी । इसलिए उन्हें आज भी भारत में उस समय की किसी भी विचारक अथवा सुधारक से अधिक सम्मान प्राप्त हैं । अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने भी इस एकमात्र ऐसी को समझ लिया था इसलिए उन्होंने हम पर अंग्रेजी आरोपित की और इसलिए आर्य और ग्रामीणों के विरुद्ध घृणा फैलाई अतेफ हमारे भी शिक्षित बंधु जो इस एकमात्र रहस्य को समझने में असमर्थ है और सिर्फ विदेशी लेखकों की पुष्टि की चार चाटकर आधुनिक तथा प्रगतिशील बने घूमते हैं । बुद्ध को इसलिए प्रगतिशील मान लेते हैं कि उसने संस्कृत की उपेक्षा करके अपने मत का प्रचार पाली भाषा में क्या और विवेकानंद को । इसलिए प्रतिक्रियावादी अगर दांते हैं कि उन्होंने संस्कृत पडने और अतीत को समझने की बात कही । हमारे ये काम समझ बंधु विवेकानंद का उत्तर सुबह कितनी ही बार मुझसे कहा गया है कि अतीत की ओर नजर डालने से सिर्फ मन की अवनति ही होती है । इससे कोई फल नहीं होता । अतः हमें भविष्य की ओर दृष्टि रखनी चाहिए । ये सच है, परंतु अतीत ही से भविष्य का निर्माण होता है । अगर हम जहाँ तक हो सके अतीत की ओर देखो, पीछे जो चिंतन निर्झर बह रहा है, आकंठ उसका जल पियो और उसके बाद सामने देखो और भारत को उज्जवल डर, महत्तर और पहले से और भी ऊंचा उठा हूँ । हमारे पूर्व महान थे । पहले ये बात हमें याद करनी हूँ । हमें समझना होगा कि हम किन उपादानों से बनी हैं । कौन सा खून हमारी नसों में बह रहा है और अतीत के उसके कर्तृत्व पर भी । इस विश्वास और अतीत गौरव के ज्ञान से हम आवश्यक एक ऐसे भारत की नींव डालेंगे जो पहले से श्रेष्ठ होगा । संस्कृत पढने से अभिप्राय यह है कि संस्कृत साहित्य में जो कुछ छिपा पडा है, जनसाधारण के लिए उसे उनकी भाषा में उपलब्ध बनाया जाए । जैसा कि विवेकानंद ने बनाने का प्रयत्न किया । इसके बिना राष्ट्रीय एकता, देशभक्ति तथा प्रगति की बात करना व्यर्थ है । संस्कृत पढना इसलिए भी आवश्यक है कि वह भारत की समस्त भाषाओं के लिए शब्दावली का स्रोत है । पंजाबी, गुजराती, मराठी, बंगाली और आसामी इत्यादि आर्य परिवार की भाषाएँ तो संस्कृत से ही निकली है । इसके अतिरिक्त तमिल, टेलिकाॅम, मलयालम, कन्नड इत्यादि द्रविड परिवार की भाषाएँ भी अधिकांश अब मिथक और रूपक संस्कृति से लेती है । दक्षिण की किसी भी होटल में आप नीलम कहीं तो अपन से मेरा भी पानी लेकर हाजिर कर देगा । संस्कृत अतीत में राष्ट्रीय एकता का आधार रही है शंकराचार्य ने अपना प्रचार संस्कृत में क्या दयानंद का जन्म भी दक्षिण में हुआ । अभी भी अपना प्रचार संस्कृत में करते थे लेकिन अठारह सौ तिहत्तर में वे कलकत्ता गए तो ब्रह्मा समाज वालों को बंगला का प्रयोग करते देखा तो उन्होंने भी जनसाधारण तक अपनी बात पहुंचाने के लिए हिंदी का उफनाया और आर्य समाज का धार्मिक ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश हिंदी में लिखा, विवेकानन् सच्चे देशभक्त थे इसलिए भाषा के बारे में भी उनका दृष्टिकोण दलाल तत्वों से एकदम भिन्न और जनवादी था । लिखा है भाषा का रहते हैं । सिर्फ भाषा सम्बन्धी मेरा आदर्श मेरे गुरु की भाषा है, जो थी तो नितांत बोल चाल की भाषा । साथ ही महत्तम अभी व्यंजक भी भाषा को अभीष् विचार को संप्रेषित करने में समर्थ होना चाहिए । बांग्ला भाषा को इतने थोडी समय में पूर्णता पर पहुंचा देने का प्रयास उसे शुष्क और लोज हीन बना देगा । वास्तव में इससे क्रिया पदों का आभाव सहन माइकल मधुसूदन दत्त ने अपनी कविता में इस दोष को दूर करने का प्रयत्न किया है । बंगला से सबसे बडी कभी कपिल कंकन थे । संस्कृत में सर्वोत्कृष्ट गड्डी पतंजली का महाभाष्य है । उसकी भाषा जीवन पद है । हितोपदेश की भाषा भी बुरी नहीं, पर कादंबरी की भाषा व्यास का उदाहरण हैं । बांग्ला भाषा का आदर्श संस्कृत ना होकर पाली भाषा होनी चाहिए, क्योंकि पाली बंगला से बहुत कुछ मिलती जुलती है । पर बंगला में पारिभाषिक शब्दों को बनाने अथवा उनका अनुवाद करने में संस्कृत शब्दों का व्यवहार उचित है । नई शब्दों के गढने का भी प्रयत्न होना चाहिए । इसके लिए यदि संस्कृत के कोष से पारिभाषिक शब्दों का संग्रह किया जाए तो उससे बांग्ला भाषा के निर्माण में बडी सहायता मिलेगी । क्रांति की हर तरंग के साथ नहीं भावनाओं, नए विचार की उत्पत्ति होती है । उन्हें अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए युग के प्रतिनिधि, कवि और लेखक भाषा तथा शैली में परिवर्तन लेते हैं । लेकिन प्रतिक्रियावादी हर क्षेत्र में मौलिकता और परिवर्तन का विरोध करते हैं क्योंकि उन्हें अपने निहित स्वार्थ खतरे में दिखाई पडते हैं । माइकल मधुसूदन दत्त ने अपने मेघनाथ बद काव्य मैंने विचार अभिव्यक्त करते हुए भाषा में भी मौलिक प्रयोग किया । प्रतिक्रियावादियों ने इसकी हंसी उडाते हुए शिक्षा अंदर बंद लिखा है । शिष्य के साथ वार्ता एवं सन लाख में विवेकानंद कहते हैं वे का पूर्व मंत्री व्यक्ति तुम्हारे देश में पैदा हुए थे । मेघनाथ वध की तरह का दूसरा काव्य बांग्ला भाषा में तो है ही नहीं । समझ यूरोप में भी वैसा कोई काम क्या आजकल मिलना कठिन है? शिष्य ने कहा पर हिंदू महाराज माइकल को शायद शब्दाडंबर बहुत प्रिय है । स्वामी जी बोले तुम्हारे देश में कोई कुछ नहीं, बातें करेंगे तो तुम लोग उसके पीछे पड जाते हैं । पहले अच्छी तरह देखो कि वो आदमी क्या कर रहा है । पर ऐसा ना करके जो ही किसी में कोई नहीं बात दिखाई दी कि लोग उसके पीछे पड गए, वो मेघनाद पद का लिख गया । पर इससे क्या हुआ? करता रहे जो कोई जो कुछ आएँ, वही मेघनाद वध का भी अब हिमालय की तरह अटल होकर खडा है, परंतु उसमें दोष निकालने में जो लोग व्यस्त थे, उन सब समालोचकों के मत और लिख अब न जाने कहाँ रह गए । माइकल नवीन चाँद और ओजपूर्ण भाषा में जिस काव्य की रचना कर गए, उसे साधारण लोग क्या समझेंगे? इसी प्रकार यदि जो जीसी उसकी परवाह करता है, समय आने पर सब लोग उन पुस्तकों का मूल्य समझेंगे । फिर उन्होंने लाइब्रेरी से मेघनाद वध काफी मंगवाया और उसके सर्वोत्कृष्ट अंश की व्याख्या करते हुए कहा जहाँ पर इंद्रजीत युद्ध में नहीं हुआ है, मंदूरी शोक से कातर होकर रावण को युद्ध में जाने से रोक रही है, परंतु पुत्रशोक को मन से जबरदस्ती हटाकर महावीर की तरह युद्ध में जाने का निश्चय कर प्रति हिंसा और क्रोध की आग में स्त्री पुत्र सब भुलाकर वह युद्ध के लिए बाहर जाने को तैयार हैं । वही है काफी की श्रेष्ठ कल्पना चाहे जो पर मैं अपना कर्तव्य नहीं भूल सकता, फिर दुनिया रहे क्या चाहें? यही है महावीर का काफी । माइकल ने इसी भाव से अनुप्राणित हो गए काव्य के उस अंश को लिखा था स्वामी जी खुद भी नए विचार और नहीं भावनाओं के प्रतिनिधि थी । उन्होंने भी बांग्ला भाषा में नया प्रयोग किया तो उन का भी विरोध हुआ । शिष्यों तक ने आपत्ति की । किसी वार्ता एवं सन लाख में उन्होंने अपने दृष्टिकोण की जो व्याख्या की उससे भाषा और विचार का शैली और परिवर्तन का द्वंद्वात्मक संबंध भलीभांति समझ में आ जाएगा । स्वामी जी ने कहा उस दिन मैंने हिन्दू धर्म क्या है? इस विषय पर बांग्ला भाषा में एक लेख लिखा तो होंगी में से किसी ने कहा कि इस की भाषा तो प्रांजल नहीं मेरा अनुमान है की सब वस्तुओं की तरह कुछ समय के बाद भाषा और भाग भी फीके पड जाते हैं । आजकल इस देश में यही हुआ है तो ऐसा जान पडता है श्री गुरुदेव के आगमन से भावर भाषा में नवीन प्रवाह आगे अब सबको नवीन साझे में ढालना है । नवीन प्रतिभा की मुहर लगाकर सब विषयों का प्रचार करना पडेगा । देखो ना सन्यासियों की प्राचीन चार ढल टूटकर अब क्रमशा कैसी नवीन परिपाटी बन रही हैं । इसके वृद्ध समाज में भी बहुत कुछ प्रतिवाद हो रहा है करें तो इससे क्या क्या हम उससे डरें । आजकल इन सन्यासियों को प्रचार कार्य की नियमित दूर दूर जा रहा है । यदि प्राचीन सन्यासियों का वेश धारण कर अर्थात भस्म लगाकर और अर्धनग्न होकर भी कहीं विदेश को जाना चाहे तो पहले तो जहाँ आज ही पर उनको सवार नहीं होने देंगे और यदि किसी प्रकार विदेश बहुत जाए तो उनको कार्यग्रहण में निवास करना होगा । देश, सभ्यता और सहयोग योगी कुछ कुछ परिवर्तन सभी विषयों में कर लेना पडेगा । अब मैं बांग्ला भाषा में नए लेख लिखने का सोच रहा हूँ । संभव है कि साहित्यसेवी उनको पढ करने ना करें । करने दो । मैं बांग्ला भाषा को नए सांचे में ढालने का प्रयत्न अवश्य करूंगा । आजकल लेखक जब लिखने बैठते हैं तब क्रिया पद का प्रयोग करते हैं । इससे भाषा में शक्ति नहीं, विशेषण द्वारा क्रिया पदों का प्रयोग करते हैं । इससे भाषा में यूज अधिक पढता है । आगे तुम लोग इस प्रकार लिखने की चेष्टा करो तो उद्बोधन में ऐसी ही भाषा में लेख लिखने का प्रयत्न करना । भाषा में क्या आप प्रयोग करने का क्या तात्पर्य है? जानती हूँ इस प्रकार भावों को विराम मिलता है । इसलिए अधिक रिया पदों का प्रयोग करना जल्दी जल्दी श्वास लेने के समान दुर्बलता का चिन्ह मात्र है । यही कारण है कि बांग्ला भाषा में अच्छी वक्त पता नहीं दी जा सकती, जिनका किसी भाषा पर अच्छा अधिकार है । विभाग भी व्यक्ति रोककर नहीं चलते । डाल भारत का भोजन करके तुम लोगों को शरीर जैसा दुर्बल हो गया है । भाषा भी ठीक वैसे ही हो गई है । खान पान, चाल, चालन भाव, भाषा सब में तेजस्विता लानी होगी । चारों ओर प्राण का संचार करना होगा । नस नस में रखते हैं का प्रवाह तेज करना होगा जिससे सब विषयों में प्राणों का स्पंदन अनुभव हूँ । तभी इस खोर जीवन संग्राम में देश के लोग बचे रह सकेंगे । नहीं दो शीघ्र ही इस देश और जाती को मृत्यु की चाय ढक लें । उदबोधन स्वामी जी की अपनी पत्रिका थी । इसमें उन्होंने कविताएं लिखी, निबंध लिखे और बांग्ला भाषा तथा साहित्य को समृद्ध बनाया । पहले हम उनकी कविताओं पर विचार करेंगे । उदाहरण के लिए सन्यासी का गीता नाम की कविता लीजिए, जो जुलाई अठारह सौ पंचानवे में न्यूयॉर्क के थाउजंड आइलैंड पाक में लिखी गई थी । तोडो सब श्रृंखला उन्हें निजी जीवन बंधन जाए हो । उज्वल कांच इनके अथवा शूद्र धातु के मलान प्रेम घृणा से ऐसे है सभी ये बंधुओं से संघात दास सादा ही नाज समादृत प्रताडित परतंत्र स्वर्ण बिगड होने से क्या वे सदृढ ना बंधन ियंत्र । अतः उन्हें सन्यासी तोडो छिन्न करो गया । यह मंत्र ओम दत्त अंधकार हो दूर ज्योति छल जल बुझ बारंबार दृष्टि भ्रमित करता तय करते हैं मोहन तमस विस्तार मेटेअॅर तृषा जीवन की जो आवागमन द्वार विश्व जयी हाथ में चाहिए जो मान्य से प्रमाण ॅ हूँ मेरे तो पाओगे निश्चित कार्यकारिण विधायक कहते शुभ का शुभव अशोक का फल श्रीमा दुर्निवार यही नियम जिसके नाम रूप परिधान बंधन है सब है पर दोनों नामरूप के पास निति मुक्त आत्मा करती है बंधन हीन बिहार तुम वो आत्मा को सन्यासी बोलो वीरू दार ओम सच्चा तो स्वामी जी उन दिनों अपने अमेरिकी शिष्य को विधान पढा रहे थे और वहीं वेदांत दर्शन इस कविता का आधार है । कभी आत्मा से कह रहा है की जंजीर लोगों की वो सोने की हो अथवा किसी और धातु की । आखिर जंजीर है आत्माओं से तोडकर अपनी घुमाया बंधन से मुक्त करें और नाम रूप से परे चली जाएगी । यही उसकी स्वाधीनता है । वे वेदांत दर्शन के जो सिद्धांत को मानते थे उसे व्यवहार में भी लाते थे । भारतीय जीवन में वेदांत का प्रभाव भाषण में सिद्धांत द्वारा साहित्य की आलोचना इस प्रकार की है । उदाहरण स्वरूप मिल तिन, दांती, होमर अथवा अन्य किसी पाश्चात कमी को लिया जा सकता है । उनके कार्यों में स्थान स्थान पर उद्दात्त भावना व्यंजक अपूर्वा स्थल है, किंतु उनमें सर्वत्र ही ड्रामा प्रकृति की अनंतता को इंद्रियों के माध्यम से ग्रहण करने की चेष्टा है । देश की अनंतता के आदर्श को प्राप्त करने का प्रयत्न है हम वीर ओके सहिता भाग में भी यही श्रेष्ठ चेष्टा देखते हैं । कुछ पूर्व रचाओ में जहाँ सृष्टि का वर्णन है, ड्रामा प्रकृति प्रकाशित करने में असमर्थ हैं, तब उन्होंने जगत समस्या की व्याख्या के लिए अन्य मार्गों का विलंबन क्या उपनिषदों की भाषा ने नया रूप धारण किया? उसने शुरू की भाषा एक प्रकार से नीति वाचक है, स्थान स्थान पर अस्फुट है, मानो तुम्हें अतीन्द्रिय राज्य में ले जाने की चेष्टा करती है । केवल में एक ऐसी वस्तु दिखा देती है, जिसे तुम ग्रहण नहीं कर सकते, जिसका नाम इंद्रियों से बोझ नहीं कर पाते । फिर भी उस वस्तु के संबंध में तुम को साथ ये निश्चय भी है कि उसका अस्तित्व हैं । फिर लिखा है, वेदांत का प्रभाव यूरोप के काफी और दर्शनशास्त्र में बहुत है । सभी अच्छी कभी वेदांती हैं । दार्शनिक तत्व लिखने चले कि घूम फिर कर विधान, परंतु हाँ कोई कोई स्वीकार करना नहीं चाहते, अपनी मौलिकता बहाल रखना चाहते हैं जैसे हर बर्ड्स, पेंसिल आदि परन्तु अधिकांश लोग स्पष्ट रूप से स्वीकार करते हैं और बिना किये जाए भी कहा इसका रेलवे और अखबारों के जमाने में जो लोग वादों से ऊपर उठने की बात करते हैं ये ये समझ रखेगी । बिना दार्शनिक आधार के अच्छे काव्य और अच्छे साहित्य की सृष्टि संभव नहीं । सिद्धांत क्यूकि व्यक्तियों की नहीं वर्गों के होते हैं इसलिए साहित्य और कला का भी वर्ग चरित्र होता है और उनकी कविता है जागृत देवता । इसमें भी विधान दर्शन ओतप्रोत हैं । पूरी की पूरी कविता इस प्रकार है वो जब तुम में है और तुम से परे भी जो सबके हाथों में बैठकर काम करता है । जिस सबके पैरों में समाया हुआ चलता है, जो तुम सबके घट में व्याप्त है, उस की आराधना करो और अन्य प्रतिमाओं को तोड दो जो एक साथ ऊंचे पर नीचे भी है । पापी और महात्मा ईश्वर और निकृष्ट की एक साथ ही है । उसी का पूजन करूँ जो दृश्यमान है ये ये है सत्य है, सिर्फ व्यापी हैं । अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड हो वो भी मोड जाग्रत देवता की उपेक्षा मत करो, उसके अनंत प्रतिबिंबों ही से ये विश्व पूर्ण है । काल्पनिक छाया ओ के पीछे मत भागो तो में विग्रह में डालती है । उस परम प्रभु की उपासना करो जिसे सामने देख रहे हो । अन्य सभी प्रतिमाएं तोड के ये वेदांत दर्शन का यत्र चीज तत्र शिवरूप है जिसे रामकृष्ण परमहंस ने विकसित किया और से विवेकानंद ने समझौते वेदांत को जंगल से नगर में लाए उसे व्यवहार में डाला और कहा कि सदियों से पिसते आ रहे भारत की श्रमजीवी ही तुम्हारे देवता है । जी की पूजा करो और सब देवताओं को पचास साल के लिए ताक पर रख दो । बस ये दरिद्र नारायण ही तुम्हारे पास अमेरिका ने सत्रह सौ में इंग्लैंड से स्वाधीनता प्राप्त की । तभी से चार जुलाई को स्वाधीनता जयंती मनाई जाती है । चार जुलाई अठारह सौ अच्छा को विवेकानंद कुछ अमेरिकी शिष्यों के साथ कश्मीर में नहीं । वहाँ उन्होंने चार जुलाई के प्रति मुक्ति शीर्षक कविता लिखी । वहाँ देखो वे घने बादल छट रहे हैं जिन्होंने रात को धरती को अशुभ छाया से ढक लिया था । हिंदू तुम्हारा चमत्कारपूर्ण स्पर्श पाते ही विश्व जाग रहा है । पक्षियों ने सह गान गाए हैं । फूलों ने तारोकी भर्ती चमकती उस करोडों का मुकुट पहनकर झूम झूमकर तुम्हारा सुंदर स्वागत किया है । झीलों ने प्यार भरा हिदायत तुम्हारे लिए खोला है और अपने सह साहस कमल नेत्रों के द्वारा मन की गहराई से नहीं आ रहा है तुम्हें ये प्रकाश के देवता सभी तुम्हारी स्वागत में सन् लगने हैं । आज तुम्हारा नव स्वागत है । सूर्य समाज मुक्ति ज्योति फैलाते, स्वाधीनता का आगमन है इसलिए कवि ने उजाले और उल्लास का वातावरण बनना क्या है और स्वाधीनता को प्रकाशपुंज सूर्य से उप मानी है । फिर लिखा है तुम ही सोच संचार ने तुम्हारी कितनी प्रतीक्षा की, कितना खोजा तुम्हें युग युग तक देश देश खून कर कितना हो जा गया, कुछ नहीं घर छोडे मित्रों का प्यार खोया, स्वयं को निर्वासित किया । निरजन महासागरों सुनसान जंगलों में कितना भटकी एक एक कदम पर मौत और जिंदगी का सवाल आ गया । लेकिन वह दिन भी आया जब संघर्ष, फले पूजा, श्रद्धा और बलिदान पूर्ण हुए अंगीकृत हुए तुमने अनुग्रह किया और समस्त मानवता पर स्वातंत्र प्रकाश विकीर्ण क्या और देवता निरभान हो अपने पद पर तब तक जब तक ये सूर्य आकाश के मध्य में ना आ जाए । जब तक तुम्हारा आलोक विश्व में प्रत्येक देश में प्रतिफल इतना हूँ । जब तक नाई और पुरुष सभी उन्नत मस्तक ये नहीं देखें कि उनकी जंजीरे टूट गई और नवीन सुखों के बसंत में उन्हें नवजीवन मिला स्वाधीनता की तब उसके लिए संघर्ष और बलिदान फिर किसी एक राष्ट्र किसी एक देश की स्वाधीनता रही । विश्व के सभी देशों की स्वाधीनता, नर नारी सभी की जलजीरे टूट जाए और सभी उन्नत मस्तक हो इसके लिए सुनाई पडता है कठोर निषद का उद्घोष उत्तिष्ठत जाग्रत वरान्निबोधत कुछ हो जाता है और जब तक तुम अपने अंतिम दिए तक नहीं पहुंच जाते तबतक चैन लो एक छोटी सी कविता नहीं किए शिव संगीन कर्नाटक एकताल साथ है या तातीथैया नाची भोला बम बम बाजे गा डिनडिम डमरू बाजे डोलती कमाल माल गरजे गंगा चटा मांझे उगले अनिल त्रिशूल राजे ठंड धक धक मौली बंद रिज्यूलेशन शक भाग व्याख्या की आवश्यकता नहीं क्रांति का स्वागत कानवन आज शब्दों से व्यक्त है । इसी प्रकार काली माता में कहा है साहसी जो चाहता है दुख मिल जाना मरन से नाश की गति नाचता है । हाँ, उसी के पास में लिखे गए नवभारत निबंध का उल्लेख हम पहले कराए हैं । फिर ही दिनों दूसरी बार विदेश जाते हुए उन्होंने यूरोप यात्रा के संस्मरण लिखिए जो पहले उद्बोधन में और फिर पुस्तिका रूप में प्रकाशित हुए । लोगों का कहना था की विवेकानंद ने ये संस्मरण लिखकर अपनी योग्यता की धाक जमाई लेकिन धाक जमाना उनका अभिप्राय कभी न रहा । उनके समुख आगे आने वाला महान संघर्ष था और वे एक निष्ठा से समूचे राष्ट्र को वेदान्त के विराम चिन्ह को लाभ चुके थे । उनकी दृष्टि बहुत स्पष्ट थी और उनका विश्लेषण ऐतिहासिक बहुत कवाद के निकट आ गया था । हमारी वर्तमान समस्या के आना आशन भारत का ऐतिहासिक क्रमविकास, चिंतनीय बातें तथा प्राची और बात चाहती हूँ । उनकी उत्कृष्ट रचनाएं हैं प्राची और पांच जाती एक लंबा ने बंद है जो पुस्तक रूप में छपा था । पूर्व और पश्चिम के तुलनात्मक अध्ययन का परिणाम है और विवेकानंद की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक । इसमें खुराक, पोशाक, आचार व्यवहार, रीति रिवाज, साहित्य, कला और उत्थान पतन सभी की चर्चा है और सुंदर तथा ज्ञानवर्धक चर्चा है । बानगी के कुछ नमूने देखी और शैली की । डाल दीजिए चीनियों का भोजन सच मुझे कसरत है हमारे देश में जैसे पांच वाली लोहे के पत्थर के दो तुकडो से पांच राष्ट्रीय है, उसी प्रकार चीनी दाहिने हाथ में लकडी की दो तुकडे अपनी हथेली और अंगुलियों के बीच में चींटी की तरह पकडते हैं और उसी से सरकारी आदि खाते हैं । फिर दोनों को एकत्र कर एक कटोरी भात मूंग के पास लाकर दोनों के सहारे उस बात को खेल खेल कर्मों में डालते हैं । सभी जातियों के आदि पुरुष पाते थे, वही खाते थे । किसी जानवर को मारकर उसे एक महीने तक खाते थे । सड जाने पर भी नहीं छोडते थे । धीरे धीरे लोग सब हो गए । खेती बाडी होने लगी । जंगली जानवरों की तरह । एक दिन खूब खाकर चार पांच दिन भी रहने की प्रथा उड गई । रोज भोजन मिलने लगा । फिर भी बांसी और साडी वस्तुओं का खाना नहीं । झूठा पहले सडी गली चीजें आवश्यक भोजन थी, पर अब वे चटनी, अचार के रूप में नैमित्तिक भोजन हो गई है । आहार संबंधी विधि निषेध का तात्पर्य शीर्षक पहले लिखा है हिन्दू की तरह यहूदी भी व्यर्थ ही मान नहीं खाते । जैसे बंगाल और पंजाब में मार्च का महाप्रसाद कहते हैं, उसी तरह यहूदी लोग नियमानुसार बलिदान न होने से मांस नहीं खाते हैं । हिंदुओं की तरह यहूदियों को भी जिस जिस दुकान से मांस खरीदने का अधिकार नहीं । मुसलमान भी यहूदियों के अनेक नियम मानते हैं, पर इतना पर ही नहीं है । बस दूध, मांस और मछली एक साथ नहीं खाते पर हिंदू खाते हैं । पंजाब के हिंदू मुसलमानों में भयंकर वैमनस्य रहने के कारण जंगलीसुअर पुनः हिन्दुओं का आवश्यक खाद्य हो गया है । राजपूतों में जंगली सूअर का शिकार करके खाना एक धर्म माना जाता है । दक्षिण में ब्राह्मण को छोडकर दूसरी जातियों में मामूली सुबह का खाना भी जाए । हिंदू जंगली मुर्गा मुर्गी खाते हैं, पालतू मुर्गा मुर्गी नहीं खाते । बंगाल से लेकर नेपाल और काश्मीर हिमालय तक एक ही प्रथा है मनुष्य की बताए हुई खाने की प्रथा । आज तक उस आज सिर में किसी ना किसी रूप में विद्यमान मांस खानी ना खाने के विवाद पर अपनी राय व्यक्त करते हुए उन्होंने लिखा है जिनका उद्देश्य धार्मिक जीवन है उनके लिए निरामिष भोजन अच्छा है और जिसे रात दिन परिश्रम करके प्रतिद्वंदता के बीच में जीवन नौका खेली है उसे माफ खाना ही होगा । जितने दिन बलवान कि जय का भाव मानव समाज में रहेगा उतने दिन मांस खाना ही पडेगा अथवा किसी दूसरे प्रकार की माँ जैसी उपयोगी चीज खाने के लिए ढूंढ निकाली हूँ नहीं तो बलवानों के पैर के नीचे बलहीन प्रेस जाएंगे । मानव समाज के विकास के साथ साथ भोजन तथा कपडे संबंधी मनुष्य के आचार व्यवहार कैसे बदले हैं और विभिन्न देशों तथा विभिन्न जातियों में उनकी क्या क्या रूप है उन्होंने ये सब दिखाया है । अंत में आर्थिक उन्नति तथा समृद्धि का सौंदर्य, भावना और संस्कृति से जो सम्बन्ध हैं उस पर यहाँ प्रकाश डाला है । पांच जाते देशों में समय एक साथ ही लक्ष्मी और सरस्वती दोनों की कृपा हो गई है । केवल भोग की चीजों को ही एकत्र करके विशांत नहीं होते वरन सभी कामों में सुंदरता देखना चाहते हैं । खान पान, घर द्वार सभी में सुंदरता कि खोज है । जब धन था तो हमारे देश में भी एक दिन यही भाव था । इस समय एक और पवित्रता है । दूसरी ओर हम लोग तो नष्ट तो भ्रष्ट होते जा रहे हैं जाती के जो गुंथे हुए मिट्टे चले जा रहे हैं और पांच सात के देश भी कुछ पर से नहीं रहे हैं । यहाँ सबसे अधिक दूर्दशा अलाव की हुई है । पहले सभी वृद्धाएं वालों को रंग बिरंगे रंगीन ही आम दिन को फूलपत्ती के चित्रों से सजाती । खाने पीने की चीजों को भी कलात्मक ढंग से इस जाती थी । ये सब या तो झूले में चला गया या शीघ्र ही जा रहा है । नहीं चीजें अवश्य ही सीखनी होंगी और करनी भी होंगी । पर पुरानी चीजों को जाल में डुबाकर नहीं बातें तुम्हें खाक सीखी है । केवल बकवाद करना जानती हूँ । काम की विद्या तुमने कौनसी सीखी है । आज भी दूर के गांवों में लकडी और ईटों के पुराने कम देखा कलकत्ते की बडाई एक जोडा तब नहीं तैयार कर सकते हैं । दरवाजा क्या सिर्फ तक नहीं तक नहीं बना सकते । वह बढाई बंद तो अब केवल अंग्रेजी औजारों को खरीदने नहीं रह गया है । जिसके पास धन है उनका घर देखने की चीज होता है । काला में ध्यान प्रधान वस्तु पर केंद्रित होना चाहिए । नाटक सब कलाओं में कठिन दम है । उसमें दो चीजों को संतुष्ट करना पडता है । पहले कान दूसरे आप और कहा है । वास्तविक कला की उपमान लिली से दी जा सकती है । जो पृथ्वी से उत्पन्न होती है उसी से अपना खाद्य पदार्थ ग्रहण करती है । उसकी संस् वर्ष में रहती हैं किन्तु फिर भी उससे ऊपर ही उठी रहती है । इसी प्रकार कला का भी प्रकृति से संपर्क होना चाहिए क्योंकि ये संपर्क ना रहने पर कला का अंधा पतन हो जाता है । भावनृत्य काला काला नहीं है । वे लिखते हैं, वास्तु और साधारण इमारत में अंतर यह है कि प्रथम एक भाव व्यक्त करता है जबकि दूसरा आर्थिक सिद्धांतों पर निर्मित एक इमारत मात्र है । जड पदार्थ का महत्व भावों को व्यक्त कर सकने की उसकी क्षमता पर ही निर्भर है । भूपेन्द्रनाथ दस हमें बताते हैं कि भारत भ्रमण के दिनों में वास्तुकला सम्बंधी वस्तुओं का संग्रह है तथा अध्ययन विवेकानंद की हॉबी थी । अठारह सौ चौहत्तर में जब उनके पिता रामपुर में थे तो उनके एक संबंधी राम दादा ने एक पारिवारिक नाटक मंडली संगठित की । इस नाटक मंडली द्वारा राम दादा के लिखे हुए तीन नाटक पहला क्या यही मानती है दूसरा शराबी की माँ का विलाप और तीसरा बाल विवाह । खेले गए इन नाटकों में विवेकानंद गाना गाते और अभिनय तो करते ही थे । इसके अलावा वे नाटकों के दृश्य पर्दों पर चित्रित करते थे । चित्रकला का अभ्यास तो उन्होंने बाद में जारी नहीं रखा, पर भी इसके पारखी तथा आलोचक थे । अतीव लिखते हैं, यूनानी कलाकार रहती है । प्रकृति के सूक्ष्म ब्यौरों तक का अनुकरण करना पर भारतीय कलाकार है । ऐसे है आदर्श की अभिव्यक्ति करना । यूनानी चित्रकार की समस्त शक्ति मांस के टुकडे ही को चित्रित करने में व्यय हो जाती है और वह उसमें इतना सफल होता है । यदि कुत्ता उसे देख लेते, उसे सम्मुख का मार्च समझकर खाने दौडायें । किंतु इस प्रकार प्रकृति के अनुकरण में क्या अगर है कुत्ते के सामने यथार्थ मांस का एक टुकडा ही क्यों ना डाल दिया जाए? जब वे दूसरी विदेश यात्रा से लौट आए थे, तो शिष्य के साथ वार्ता एवं सिंह लाख में भी कहते हैं, आज एक मजेदार बात हुई है । मैं एक मित्र के घर गया था । उन्होंने चित्र बनवाया । विषय था कुरुक्षेत्र में अर्जुन कृष्ण संवाद श्रीकृष्ण औरत में खडे हैं । हाथ में रात है और अर्जुन को गीता को देश कर रहे हैं । उन्होंने मुझे चित्र दिखाकर मेरी सम्मति मांगी । मैंने कहा ठीक है, किंतु जब में नाम आने तो उन्हें मुझे अपना सच्चा मत बताना पडा कि उस चित्र में मुझे प्रशंसा योग्य कुछ नहीं दिखाई पडा । प्रथम तो श्रीकृष्ण की युग करत आज के तू पाकार वाहनों के समान नहीं होता था और दूसरे श्री कृष्ण की आकृति में भाग भी व्यक्ति का नितांत अभाव है । प्रश्न क्या उस यू कीरत तू पाकार नहीं होते थे? स्वामी जी ने कहा, क्या तुम नहीं जानते कि बौद्ध युग के बाद इस देश की हर बात में प्रकार की अव्यवस्था सी आ गई? प्राचीन राजागण रथों में कभी युद्ध नहीं करते थे । राजस्थान में आज भी कुछ राहत है जो उन प्राचीन रथों से मिलते जुलते हैं । यूनान की पौराणिक कथाओं में वर्णित रथों के चित्र तुमने देखे हैं । उनमें दो चार होते हैं और उन पर पीछे से चला जाता है । हमारे साथ भी ऐसे ही थे । यदि चित्र की इन गार्डन गोभी का अंकन सही नहीं हुआ तो चित्र बनाने से क्या लाभ? ऐतिहासिक चित्र कभी उच्च कोटि का होगा जब उचित अध्ययन था । गाँव स्टेशन के बाद वस्तु का वैसा ही चित्रण किया जाए जैसी वो उस युग में नहीं । यदि चित्र में थार पता नहीं है तो सब कोई मूल्य नहीं । आजकल हमारी जो युवक चित्रकला के क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, साधारण था ऐसे होते हैं, जिन्हें घर वाले भी निकम्मा समझकर निराश हो गए हैं । इन व्यक्तियों से आप कैसे कलाकृतियों की आशा कर सकते हैं? सिंदर चित्र बनाने के लिए भी उतनी ही प्रतिभा लगती है, जितनी एक श्रेष्ठ साहित्यिक कृति में । प्रश्न आया तो मेरे क्षेत्र में श्री कृष्ण का चित्र कैसा होना चाहिए था? स्वामी जी ने कहा श्री कृष्ण का चित्रण वैसा ही होना चाहिए जैसे हुई थी गीता के मूड स्वर्ग । उस समय मैं किंकर्तव्यविमूढ महोग रहे है और कापुर ने दोषियों बहर अर्जुन को धर्म का उपदेश कर रहे थे । इसलिए कृष्ण की छवि से गीता का मूल तत्व अभी व्यक्त होना चाहिए और इससे पहले देखिए शिष्य कहता है मैंने कहा महाराज, मैंने कुछ जापानी चित्रकला के नमूने देखे हैं और काला कि प्रशंसक ये बिना नहीं रहा जाता और उनकी प्रेरणा का स्रोत उनकी अपनी संस्कृति है, वहाँ अनुकरण से परे हैं । स्वामी जी बोले बिल्कुल ही है । आज जापान एक महान राष्ट्र है और इसका कारण है उनकी कला देखते नहीं । वी भी हमारे सामान एशिया वासी हैं और यदि पी आज हम अपना सर्वस्व खो बैठे हैं, फिर भी हमारे पास जो कुछ विशेष है, वही विश्व को चकित कर देने के लिए काफी हैं । एशिया की आत्मा ही कलात्मक है । एशिया का विजय चीर काल से कला का क्लास चल रहा है । एशिया वासी काला शून्य वस्तु का कभी प्रयोग नहीं करेगा । उसके उपयोग की हर वस्तु कला से शोभित है तो नहीं जानते हैं हमारे यहाँ कला हमारे धार्मिक जीवन का एक अंग बन गई है । हमारे देश में कोई युवती, तीज त्योहार पर वित्त, सबके दिल्ली अभी घर के आंगन और उधर पर चावल के पीठा सुंदर चित्र बनाना जानती है तो उसकी कितनी प्रशंसा होती है? श्रीराम कृष्ण स्वयं कितने महान कलाकार थे । प्रश्न आया अंग्रेजों की कला भी अच्छी है । क्या नहीं है स्वामी जी का तो तुम कितने जडमूल हो, पर तुम्हें दोष देने से क्या लाभ? जबकि सर्वसाधारण की यही धारणा है अफसोस आज देश की ये दशा हो गई है । आज हम अपने सोने को तो पीटर समझ बैठे है और दूसरों का पीडल हमारे लिए सोना बन गया है । ये हमारी आधुनिक शिक्षा का जादू है । देखो यूरोपीय जबसे एशिया के संपर्क में आए हैं तब से कहीं उन्होंने अपने जीवन को कलामे बनाने का प्रयत्न किया है । महाराज यदि कोई आपकी बात सुनेगा तो कहेगा कि अब निराशावादी हो रहे हैं । इस बात पर स्वामी जी ने उत्तर देते हुए कहा, स्वाभाविक है जो हो गए हैं वे और क्या सोचेंगे उस कोई मेरी आंखों से देखें डन की मानती देखो वे कितनी साधारण कितनी अर्थ । शून्य इन विशाल सरकारी इमारतों को देखो ऍम रामस्वरूप देकर कुछ अनुमान लगाया जा सकता है । लेकिन आप किस आदर्श का प्रतीक है? नहीं क्योंकि ये सब प्रतीक शून्य हैं । पांच जातियों का ये पहनावा ही ले लो उनके दंग कोर्ट सीधे पैन शरीर पर इतने तंग और चिपकी होते हैं कि बिलकुल भद्दे मालूम देते हैं । नहीं । पर हम लोग पता नहीं उनमें क्या सुंदरता देखते हैं जिसे देखो कोट्यूडा ले कर रहा है । इस देश का भ्रमण तो करूँ और देखने के लिए आगे और समझने के लिए बुड्ढी है तो देखो इस देश के प्राचीन भग्नावशेषों को उनके देखने भर ही से मालूम होता है । उनमें कितने भाव भरे हुए हैं? कितनी काला भरी है, उनका जलपात्र हैं कांच का ग्लास पर हमारा धातु निर्मित लोटा दोनों में कौन कलापूर्ण हैं? तुमने देहातों में किसानों के घर देखे हैं । जी हां, अवश्य स्वामीजी उनमें क्या देखा, मेरी समझ में नहीं आया । क्या करूं? फिर मैंने कर दिया । महाराज व्यतित साफ सुथरे होते हैं और रूस उनका आंगन ली होता जाता है । स्वामी जी ने कहा, क्या तुमने अन्न भंडार देखी हैं? उनमें कितनी कला है? उनकी मिट्टी की दिवालों पर भी कितने प्रकार के चित्र बनाए हैं और जरा पाश्चात्य देशों में जाकर देखो? निम्नवर्ग के लोग किस तरह रहते हैं? तब तुम्हें मालूम होगा कि दोनों में कितना महानंद उनका आदर्श है । उपयोगिता हमारा है काला पश्चिम कवासी हर वस्तु में उपयोगिता ढूंढता है और हम काला पाश्चात्य शिक्षा प्राप्त कर हमने कलापूर्ण लोडा तो फेक दिया और उसके स्थान में हमारे घर में विदेशी कम चीनी की क्लास विराजमान हो गए । हमने इस उपयोगितावाद के आदर्श को सीमा तक अपना लिया है कि अब हास्यास्पद लगता है । अब हमें उपयोगिता और काला के समन्वय की आवश्यकता है । जापान ये समन्वय लाने में जल्दी सफल हो गया और उसने अभूतपूर्व प्रगति करें । अब जापान पाश्चात्य देशों को भी सिखाने की क्षमता रखता है । हम देख चुके हैं कि स्वामी जी की बुद्धि एकपक्षीय नहीं । पश्चिम के दोषियों को दो सौ गुना को गुण कहते थे । पास जाती संगीत के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा, पांच जाते संगीत बहुत कृष्ट है । उसमें गीत माधुरी लाइक्स चरम सीमा को प्राप्त हो चुकी है, जो हमारे संगीत में नहीं है । ये और बात है कि हमारे अनाब बीस ठिकानों को फॅमिली तो मुझे प्रतीत नहीं होता और हम सोचते हैं कि वे तैयार हो के समान चलाते । पहले मेरा भी यही ख्याल था, पर जब मैंने उसकी संगीत को ध्यानपूर्वक सुनना शुरू किया और शास्त्र का अध्ययन किया तो प्रशंसा किए बगैर नहीं रह सकते । सभी कलाओं का यही हाल है । किसी उत्कृष्ट चित्र पर एक दृष्टि डालकर हम ये नहीं समझ सकती कि उसका सौंदर्य कहाँ छुपा है । जब तक चित्रकला में निपुणता प्राप्त ना हूँ, तब तक किसी कलाकृति का मर्म समझना कठिन है । हमारा संगीत केवल कीर्तन और धुप ही में शुद्ध रूप में जीवित शेष सब इस्लामी संगीत कला के अनुकरण से दूषित हो गया । क्या सोचते हैं कि टप्पा को नाक में गाते हुए बिजली के समान एक स्वर से दूसरे स्वर्ग में दौडना कोई उत्कृष्ट संगीत है, नहीं, जब तक प्रत्येक नहीं हो सकता । विवेकानंद जब दूसरी विदेश यात्रा पर गए थे तो उन्होंने पैर इसकी धर्म इतिहास सभा में पाश्चात्य विद्वानों की इस मिथ्या धारणा का खंडन किया कि भारत नाटक, चित्रित साहब, गणित इत्यादि । विज्ञान में यूनान से प्रभावित उनकी ये विचार पेरिस प्रदर्शनी लेख में संग्रहित हैं । इसका सहारा राशि है कि भारत और यूनान में सांस्कृतिक आदान प्रदान होता रहा है और दोनों ने एक दूसरे से बहुत कुछ सीखा है । सिर्फ भारत पर यूनान का प्रभाव दिखाना एक तरफ और एकदम कडक तेरह अध्यायों के बाद तेरह चैप्टर । इसके बाद एक जीवनी को छन कर सुनकर पढकर और समझकर सिर्फ एक ही चीज कहना चाहूंगा इस महात्मा को इस विद्वान को चिरंजीव, इस महाबली महापुरुष और इस धर्म गुरु शत शत नमन । स्वामी विवेकानंद जी शत शत नमन । काश हम आपके पदचिन्हों पर काश हम आपके दिखाए हुए रह कर इस तरीके से चल पाएगी जैसा आपने कभी सपना देखा था, जैसा आपने उस सपने को पूरा करने के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान कर राज किस बनी ऍम हुए थे । सुने जब मन चाहे ये स्वामी विवेकानंद की जीवनी तेरह अच्छाइयों के रूप में आपके समझे
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