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फॅस मैं अभी आपने राजसी ऍफआईआर और आज बहुत ज्यादा विश्वास के साथ क्यूकि आज राज किस बनी सुनने आ चुका है आपको एक ऐसे इंसान की कहानी जो इस दुनिया के लिए ऊपर वाले का बनाया और भेजा हुआ एक वरदान था । एक ऐसे महापुरुष, किवदंती और ऐसे लेजेंड्री चरित्र व्यक्तित्व वाले एक ऐसे इंसान जिन्होंने दुनिया को सिखाया कि अगर ठान लो और अगर अपने मन में उस बात की गांठ बांध लोग जीवन में कुछ भी नामुमकिन मुझे सौ व्यक्ति दे दीजिए जिन्हें पता नहीं कि आलस क्या होता है और मैं ये देश बदल कर दिखाऊंगा । ये इनकी बात की ये इनका कथन था । ये इनका विश्वास था और आगाज घायल । ऐसी अंतरात्मा का एक जगह गुरु का जिनका नाम था जिनका नाम है और हमेशा रहेगा । जब तक ये प्रकृति उसकी आप घोष में है, ये प्रकृति जिंदा है । ये दुनिया जिंदा है और इंसानी आपको सूर्य और चंद्रमा की रोशनी दिख रही है वो नाम हमेशा अमर रहेगा और नाम स्वामी विवेकानंद आज हम जा रही हूँ ऍम की जीवनी के बारे में अलग अलग अध्याय ओ अलग अलग चैप्टर्स के रूप में और सीखेंगे जीवन का असली मूल्य । जीवन का असली अर्थ और इस जीवन में आपका कर्तव्य किया है । राजकीय पानी ऍम मनचाही सुन लें एक अमर गाथा चाहते ओवन पुरखी और बचपन छोटी अवस्था से ली में बडा साहसी था । अगर ऐसा न होता तो खाली हाथ सारी दुनिया घूमाना क्या मेरे लिए कभी संभव होता विवेकानंद जनवरी अठारह सौ प्रभात का स्त्रीपुरुष ओके दल के दल मकर सप्तमी के स्नान के लिए गंगा की ओर जा रहे हैं । इसी समय कलकत्ता के गणमान्य दस परिवार में पालक का जन्म हुआ जिसका नाम नरेंद्रनाथ रखा गया । आगे चलकर यही नरेंद्रनाथ विवेकानंद के नाम से प्रसिद्ध हुआ । बालक की माँ का नाम भुवनेश्वरी देवी था । नरेंद्र से पहले उन की दो लडकियाँ बेटी का मूवी देखने की उनके मन में बडी अभिभाषक इसलिए सुबह शाम शिव मंदिर जाकर प्रार्थना करने लगे । कहते हैं कि एक दिन वो पुत्र कामना में इतनी ध्यान मग्न हुई कि उन्हें कैलाशपति शिव सामने खडे दिखाई । धीरे धीरे उन्होंने शिशु रूप धारण किया और भुवनेश्वरी देवी की गोद में बैठ गए । इससे माँ का ये विश्वास बना की बेटी का जन्म में शिव के वरदान से हुआ है । इसलिए उन्होंने उसका नाम वीरेश्वर घर में यही राम चलता था और प्रियजन बीले कहकर पुकार को कलकत्ता में कायस्थ वंश की कई दत्त परिवार । इन परिवारों में बहुत से योग्य और विद्वान व्यक्ति पैदा हुए । विवेकानंद के समकालीन इतिहास का रमेशचंद्र गत उनमें से एक विवेकानंद का जन्म किसी का इस परिवार में हुआ था । बरो माम रोल सामने उन्हें छत्रिय वंश में उत्पन्न होना बताया शायद नहीं । भ्रांति इसलिए हुई की खुद विवेकानंद ने विदेश यात्रा से लौटकर अपने मद्रास के भाषण में प्रसंगवश कहा था । एक बात और मैंने समाज सुधारकों के मुखपत्र में पडा कि मैं शूद्र और मुझसे पूछा गया था कि एक शूद्र को सन्यासी होने का क्या अधिकार है? तो इस पर मेरा उत्तर यह है कि मैं उन महापुरुष का वंशधर हूँ, जिनके चरण कमलों पर प्रत्येक प्रमाण यहाँ धर्मराज्य स्तर गुप्ता आॅफ वहाँ चारन करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है और जिनके वंशज विश्वयुद्ध छत्रिय यदि अपने प्राणों पर विश्वास, वो तो इन समाजसुधार को कुछ जा लेना चाहिए कि मेरी जाती नेम पुराने जमाने में अन्य सेवाओं केअतिरिक्त कई शताब्दियों तक आदमी भारत का शासन किया । यदि में जाती छोड दी जाए तो भारत के वर्तमान सभ्यता का क्या शेष रहेगा? अकेले बंगाल ही में मेरी जाति में सबसे बडे दार्शनिक सबसे बडे कवि सबसे बडे इतिहासज्ञ सबसे बडे पुरातत्वेत्ता और सबसे बडे धर्मप्रचारक उत्पन्न हुए । मेरी ही जाति ने वर्तमान समय में सबसे बडे वैज्ञानिकों से भारत वर्ष को भी घोषित किया है । इन निंदकों को थोडा अपने देश के इतिहास का तो ज्ञान प्राप्त करना था । ब्राम्हण, चस्तरीय तथा वैश्य इन तीनों वर्गों के संबंध में जरा अध्ययन तो करना था । जरा ये तो जानना था कि तीनों ही वर्णों, सन्यासी होने और वेद के अध्ययन का समान अधिकार ये बातें मैंने तो यु ही प्रसंगवश कहती वो जो मुझे शूद्र कहते हैं, इस की मुझे सैनिक भी पीता नहीं । मेरे पूर्वजों ने गरीबों पर जो अत्याचार किया था इस से उसका कुछ परिशोधित हो जाए । यदि में पेरिया नीट चांडाल होता तो मुझे और भी आनंद आता क्योंकि मैं उन महापुरुष का शिष्य जिन्होंने सर्वश्रेष्ठ ब्राह्मण होते हुए भी एक पैर या जान डाल के घर को साफ करने की, अपनी छपरखट नरेंद्र को विचार को तथा वैज्ञानिकों की समृद्ध परंपरा विरासत में मिली थी । उसके परदादा राममोहन दत्त कलकत्ता सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील जहाँ धनेश्वरी और ख्याति प्राप्त थी, बहुत ज्ञान, चर्चा और शास्त्र चर्चा तीस परिवार की विषेशता, समय के साथ साथ चलते हुए अर्थ और मुख्य भोग और त्याग तथा आधुनिकता और प्राचीनता दस परिवार के स्वभाव तथा चरित्र में घुल मिल गई । राममोहन की एकलौते बेटे दुर्गाचरण ने समय की प्रथा के अनुसार जहाँ संस्कृत और फारसी पडी वहाँ काम चलाऊ अंग्रेजी भी सीखी थी और वे छोटी ही उम्र में वकालत के धंधे में पड गए पर उनका स्वभाव पिता से भिन्न था । धन कमाने में उनकी अधिक रूचि नहीं धर्मानुरागी युवक दुर्गाचरण सत्संग और शास्त्र चर्चा के अवसर सहयोग सोचते रहेंगे । परिणाम यह की जब उनकी अवस्था सिर्फ पच्चीस बरस की तो उत्तरपश्चिम प्रदेशों से आए वेदांती साधुओं से इतने प्रभावित कि घर बार छोडकर संन्यास ग्रहण कर लिया । पति वियोग में तडफती हुई जवान पत्नी के लिए गोल्ड का नन्हा बालक की एकमात्र सहारा रह गया । सन्यासी प्रथा के अनुसार बारह बरस बाद जब दुर्गा चरण अपनी जन्मभूमि का दर्शन करने आए तो पत्नी का एक साल पहले देहांत हो चुका था । उन्होंने अपने बालक पुत्र विश्वनाथ को आशीर्वाद दिया और चले गए । इसके बाद उन्होंने फिर कभी भी घर में कदम ना रखा ना किसी ने उन्हें ये विश्वनाथ ही नरेंद्रनाथ के पिता उन्होंने भी वकालत का पैतृक धंडा अपनाया था । लेकिन वकालत में व्यस्त रहते हुए भी पारिवारिक परंपरा के अनुसार शास्त्र चर्चा तथा अध्ययन के प्रति उनका विशेष अनुराग राजा राममोहन रॉय के समय से प्राचीनता और आधुनिकता में प्राच्य तथा पाश्चात्य मेरे संघर्ष शुरू हुआ । वह तीन रूप धारण करके एक निर्णायक स्थिति में पहुंच चुका है । राजा राममोहन रॉय जिस पुरानी शिक्षा पद्धति को बदलना चाहते थे, उसका स्थान अब मैकॉले की शिक्षा प्रणाली ने ले लिया । संस्कृत तथा फारसी की शिक्षा कौन हो गई थी और अंग्रेजी का बोलबाला राजा राममोहन रॉय क्या चाहते थे और मैं कॉलेज की शिक्षा प्रणाली ने हमें एक याद । इस पर हम आगे चलकर पूर्ण जागरण परिच्छेद में विचार करेंगे । यहाँ सिर्फ इतना कह देना काफी है कि राजा राममोहन रॉय प्राचीनता और आधुनिकता में समन्व्य और सामंजस्य की जिस स्वस्थ भावना को लेकर चले थे वो अपेक्षित और विकृत होती जा रही है । धर्मान्धता और रूढीवाद के स्थान पर गोल इतिहास, साहित्य, गणित तथा विज्ञान की शिक्षा, संकीर्णता तथा छिछले विद्यार्थ मान को जन्म दे रही है । चिंतन के छितिज पर ये भर स्पष्ट मंडरा रहा था की कहीं प्राची पांच चार से पराजित ना हो जाए । ब्रह्मसमाज वास्तव में संघर्ष का संगठित रूप था । अब इस भय के कारण आदिब्रह्मा समाज और अखिल भारतीय ब्रह्मसमाज दो में विभाजित हो गया । इन दोनों की आपसी संघर्ष का परिणाम ये था कि आदि ब्रह्मसमाज वाले प्राचीनता के खोल में सिकुडते जा रहे थे और अखिल भारतीय ब्रह्मा समाज वाले परंपरा से संबंध विच्छेद करके आधुनिकता के नशे में लडखडाते पांच चाहते की ओर झुक रहे पढे लिखे बंगाली युवक अपने स्वभाव और संस्कार के अनुसार इन दोनों में से किसी एक को चुन देते थे लेकिन ऐसे लोगों की संख्या भी दिन ब दिन बढती जा रही थी जिनका ना आदिब्रह्मा समाज से कोई सरोकार था और ना अखिल भारतीय ब्रह्मा समाज से और अगर था तो वह भी अत्यंत ही औपचारिक और ऊपर उन्हें ना प्राचीनता से कुछ लेना देना था और ना अपने को आधुनिक दिखाने की विशेष चिंता । व्यक्तिगत सुख साधन, उनके जीवन का एकमात्र आधार और शिक्षा तथा ज्ञान, चर्चा, धन और यश अर्जित करने का साधन मात्र व्यतीत और भविष्य की सर गर्दी मोलना लेकर निश्चित भाव से शरण में जीते थे । नरेन्द्र के पिता विश्वनाथ तीसरी श्रेणी के व्यक्ति धार्मिक कट््टरता का उनमें लेशमात्र नाथ अंग्रेजी साहित्य और इतिहास आदि के अध्ययन के अलावा उन्होंने फारसी हाफिज कविताएं उन्हें विशेष रूप से पसंद है । ऊंची खानदानों की कई मुसलमान वकील थे और फिर लखनऊ, इलाहाबाद, दिल्ली, लाहौर इत्यादि शहरों की यात्रा के कारण में अनेक शरीफ मुसलमान परिवारों के घनिष्ठ संपर्क में आ चुके हैं । युवे मुसलमान की रीति रिवाजों से भलीभांति परिचित थे और उनका सम्मान करते बाइबल पढकर उन्होंने इसाई धर्म के बारे में अच्छी जानकारी प्राप्त कर ली लेकिन इस जानकारी का तात्पर्य सिर्फ इतना ही था कि वह उन्हें एक व्यवहारकुशल तथा सफल वकील बनाने में उपयोगी सकता हूँ । उन्होंने जिस आदर्श का आजीवन पालन किया वो धडल्ले से कमाना और अधिकारिक सुख सुविधाएं जुटाना । घर पर अतिथियों तथा सगे संबंधियों की भीड लगी रहती थी । जरूरत से ज्यादा नौकर चाकर और गाडी घोडे रखकर ठाटबाट से जीना उनका स्वभाव बन चुका था । वे खुले हाथ से खर्च करती और खुले हाथ से दान भी दे देते । बचाकर रखने की भविष्य अथवा पर लोग की चिंता ही नहीं । एक वाक्य में यू पहली ये कि वह हो और त्याग का आधुनिक समिश्रण के उदार, स्वच्छंद और मिलनसार ठसके विपरीत भुवनेश्वरी देवी घर में पर आए । महिला नरेन्द्र के बाद जो छोटे भाई और दो बहने और माँ बेटी बेटियों की स्नेहपूर्वक देखभाल कर के रामायण, महाभारत, भागवत आदि पुराणों का पाठ में नियमित रूप से क्या करती थी और पति तथा पुत्रों से चर्चा चलाकर तत्कालीन हलचलों और आधुनिक विचारधारा से भी अवगत रहे नरेंद्र को माँ के मुख से रामायण और महाभारत की कहानियां बडे चाव से सुनने का शौक दत्त भवन में प्रायः प्रतिदिन दोपहर को रामायण और महाभारत की कथा होती थी । कोई बुढिया आज वह खुद भुवनेश्वरी देवी पडती और मोहल्ले की दूसरी और जिसमें नरेन्द्र वैसे चंचल स्वभाव का बालक था । लेकिन इस छोटी सी महिला सभा में वो चुपचाप और शांत बैठा रहा था । इन ग्रंथों की कहानियों का उसके मन पर गंभीर प्रभाव पडता इनके पात्र उसकी कल्पना में सजीव होते और वह घंटो मंत्रमुक्त सा बैठा सुना कर रमायण संधि सुनती । नरेंद्र को सीता और राम से इतनी श्रद्धा हो गई की वो एक दिन बाजार से उन दोनों की मूर्ति खरीद लिया है । मकान की छत पर एक सोने कमरे में उसने ये मूर्ति स्थापित कर दी और वो उसके सामने घंटों ध्यानमग्न बैठा रहा था । अपने कोच बांसी नरेंद्र बहत हिल मिल गया था । बालक को सीताराम से यह प्रेम देखकर वह कोचवान बहुत पसंद होता है । नरेन्द्र के मन में कोई समस्या, कोई प्रश्न उठता तो कोचवान मित्र ही उसका उत्तर दिया करता था । एक दिन अचानक व्यापर चर्चा सुनिए कोचवान को जाने क्यू यहाँ पसंद नहीं था । उसने ब्याज ऐसा भयानक चित्र खींचा कि नरेंद्र बेचैन हो था और रोता हुआ माँ के पास आया । माने बेटी से रोने का कारण पूछा तो उसने कोचवान की बात सुनाकर कहा हाँ मैं सीताराम की पूजा कैसे करूँ? सीधा तो राम की पत्नी थी । माँ ने उसे गोद में बैठाकर आंसू पहुंचे और बडे दुलार से का सीता राम की पूजा नाम भी करो कोई हानि नहीं । कल से शिव की पूजा करना ठीक है । बेटा मां किसी काम में व्यस्त हो गई तो नरेंद्र दबे पाँव ऊपर गया सीताराम की मूर्ति जो उसने इतने चावल श्रद्धा से खरीदी थी, कमरे से उठा लाया मुंडेर पर अगर उसने मूर्ति बिना संकोच नीचे फेंक भी जो गिरते ही चूर चूर हो गई । नरेंद्र बडा नटखट था उसके हम के मारे सबकी नाक में दम बडी बहने उसके पीछे दौडती की पकडकर पीटे । नरेंद्र चैट से नाली में उधर कर बदन पर कीचर लगा लेता बहने अपवित्र होने के डर से उसे छूना बाद वो विजय घर से ताली बजाकर कहता लोग पकडो मुझे घर में जाने कब से चले आ रहे देश आचर और लोकाचार के नियमों को नरेंद्र बचपन से ही नहीं मानता । इसके लिए मागज् चलाती है । डांट डपट थी तो निरीह भाव से पूछता की थाली छूकर बदन पर हाथ लगाने से क्या होता है? बाएं हाथ से गिलास उठाकर जल पीने से हाथ क्यों होना पडता है? हाथ में तो कर नहीं लगती माइंड प्रश्नों का कोई संतोषजनक उत्तर नाते पाती तो नरेंद्र उद्दंड होता और नियमों का उल्लंघन करता । विश्वनाथ की मुवक्किलों में एक पठान भी था । नरेंद्र के प्रति उसका विशेष नहीं था । उनके अपने की खबर सुनते ही नरेंद्र दौडा ज्यादा और उसकी गोद में बैठकर पंजाब और अफगानिस्तान के हाथियों और उठु कि कहानियां बडे चार्स कई बार वो उसके साथ जाने का अनुरोध करता था । वह मुसलमान से जान हसते हुए कहता तुम दो और बडे हो जाओ तब मैं तो मैं अपने साथ जरूर ले जाऊंगा । नरेन्द्र कभी कभी अगले ही दिन पंजों के बल खडा होकर कहता देखिए मैं रहता भर में दो गोली बडा हो गया हूँ । अब आप मुझे अपने साथ ले चाहिए । इस पठान मुवक्किल से नरेन्द्र का अनुराग इतना बढ गया कि वो उसके हाथ से संदेश फल लेकर निसंकोच खा लेता था । विश्वनाथ कट्टर नहीं थे । उनकी दृष्टि में सभी जाति के लोग समान इसलिए उन के नजदीक नरेंद्र का मुसलमान के हाथ से खाना कोई अपराध नहीं । पर परिवार के दूसरे लोगों को इस पर आपत्ति होती थी । वो भी बहुत बडी । नरेंद्र को तरह तरह के भय दिखाकर दूसरी जाति के हाथ का खानी से मना कर दी । पर ये बात नरेंद्र के मन में ना बैठ जाती भी उसके लिए नहीं ली । बन गया । वो सोचता एक व्यक्ति किसी दूसरे के हाथ का क्यों नहीं खाता? अगर कोई दूसरी जात बिरादरी के हाथ का खाले तो उसका क्या होगा? क्या उसके सिर पर छत टूट पडेगी? क्या वह मर जाएगा? अनिल जातियों के मुवक्किल मुकदमों के सिलसिले में दर्ज भवन आते रहते हैं । रिवाज के अनुसार बैठक घर के एक कोने में उनके लिए चांदी जुडा हुआ अलग अलग के रखे रहते थे । एक दिन उक्त विचार मन में लिए नरेंद्र बैठक घर में गया । वहाँ कोई दूसरा नहीं । नरेन्द्र ने एक एक होके को अपने होटों से लगाकर गुड बढाया । ये देख उसे बडा या शुरू हुआ कि वह जैसा पहले था वैसा ही बना रहा है । उसमें कोई परिवर्तन तो हुआ नहीं । एका एक विश्वनाथ बाबू उधर आने के लिए और बीटेक स्थिति में देख उन्होंने पूछा अरे ये क्या कर रहा है? मिले बेटे ने चैट कर दिया । मैं ये परीक्षा कर रहा था की अगर मैं जाती भेद नाम आलू तो मेरा क्या होगा । बाप ने सस्नेह बेटे की तरफ देखा । वो मुस्कुराते हुए पठन कक्ष में चले गए । लगातार रामायण और महाभारत सुनते सुनते नरेंद्र को उनका बहुत सब हात कंटेस्ट हो गया था । कथा के समय वह कई बार इन्हें अपने बल मधुर स्वर में श्रोताओं को सुनाता तो बहुत ही भला लगता । उसने भिक्षुक गायकों से राधा कृष्ण और सीता राम की लीला संबंधी कितने ही गाने सीख लिए । जब हुए हैं अपने मधुर स्वर में गाता तो सुनने वाले मुक्त हो थे । उसे सभी का लाड प्यार प्राप्त था । उस पर किसी तरह का कठिन नियंत्रण ना था । घर का वातावरण चाहे धार्मिक था पर किशोर नरेंद्र की स्वच्छंदता और स्वाधीनता पर किसी प्रकार का अंकुश नहीं था । नरेंद्र को रामायण का हनुमान बहुत पसंद था । उसके अलोकिक गाडियों की कथाएं मन लगाकर सुंदर फिर माने । उसे बताया कि हनुमान अमर है और अब भी जीवित । तब से वो उसे देखने के लिए बडा उत्सुक्ता पर देखिए तो कहाँ कुछ समझ में नहीं आ रहा था । एक दिन वो कथा सुनने गया तो कथाकार पंडित अपनी अलंकारिक भाषा में हास्यरस मिलाकर हनुमान के चरित्र का वर्णन कर रहा था । नरेन्द्र के मन में जाने क्या आई वो धीरे धीरे कथाकार के पास गया और पूछा पंडित जी आपने जो कहा है कि हनुमान केला खाना पसंद करते हैं और केले के बगीचे में रहते हैं तो क्या मैं वहाँ उनकी दर्शन कर सकता हूँ? पंडित ने बोले बालक को बहलाने के लिए उत्तर दिया हाँ बेटा, बगीचे में तो मैंने पा सकते हो । नरेन्द्र ने इसके बाद भी हनुमान को बगीचे में ढूंढा हो या न ढूंढा हो पर ये तय है कि वो हमेशा उनके प्रियपात्र बने रहे हैं । जैसे जैसे आयु बडी उनके प्रति श्रद्धा भी बढती गई । मृत्यु से कुछ महीने पहले शिष्य शरद चंद्र चक्रवर्ती ने जब पूछा हमारे लिए इस समय किस आदर्श को ग्रहण करना उचित है? तो उन्होंने उत्तर दिया महावीर के चरित्र को ही तुम्हें इस समय आदर्श मानना पडेगा । देखो ना विराम की आज्ञा से समुद्र लांघकर चले गए । जीवन मृत्यु की परवाह किए बिना महाजिद, केंद्रीय महा बुद्धिमान दास से भाग के उस महान आदर्श से मैं अपना जीवन गठित करना होगा । वैसा करने पर दूसरे भावों का विकास स्वयं भी हो जाएगा । अब नाम बनकर में योगी और दूसरा कोई पत्नी एक और हनुमान जी जैसा सेवाभाव और दूसरी ओर उसी प्रकार त्रैलोक्य को भयभीत कर देने वाला सीन जैसा विक्रम राम की सेवा के अतिरिक्त अन्य सभी विषयों के प्रति उपेक्षा । यहाँ तक की संगत ब्रह्मांड पर शिवत्व प्राप्ति के प्रति उपेक्षा केवल रघुनाथ के उस देश का पालेंगी जीवन का एकमात्र व्रत है, उसी प्रकार एकनिष्ठ होना चाहिए । ढोल, मृदंग, करताल बजाकर उछलकूद मचाने से देश पतन के गर्त में जा रहा है । एक तो ये पेट के रोगी मरीजों का दल और उस पर इतनी उछल कूद भला कैसे सहमत हूँ । काम ही लुत् साधना का अनुसरण न करके देश फोर तमोगुण से भर गया है । देश देश में गांव गांव में जहाँ भी जाओगे देखोगे, ढोल करताल ही बज रहे हैं । धुंध बीन गाडी क्या देश में तैयार नहीं होते पर ही भीरी क्या भारत में ही मिलती है वही सब गुरु गंभीर बनी लडकों को सुना । बचपन से जनाजे बाजी सुन सुनकर कीर्तन सुन सुन कर देश रियो का देश बन गया है । इससे अधिक और क्या अधःपतन होगा? गाडी में ब्रह्मा रूद्र ताल का धुंध विनाद उठाना होगा । महावीर महावीर की ध्वनि रखा हर हर बम बम सबसे दिख दिगंत कंपनी कर देना होगा । हनुमान को शिव का अवतार कहा जाता है । पांच वर्ष पूरे होने पर नरेंद्र की शिक्षा कुछ दिन घर पर भी इसके बाद उसे मेट्रोपॉलिटन इंस्ट्यूट में भेज दिया गया । वहाँ नरेंद्र को बहुत से हम उम्र से पार्टी मिले । नए साथ ही पाकर उसके आनंद की सीमा ना रही और उसने जल्द ही अपना एक छोटा सा दल संगठित कर लिया । उसके साथ ही सुबह शाम घर पर खेलना दत्त भवन का विशाल आमिर उनकी कोल्हा ऐसी गोंझू खेल में अगर कोई लडका किसी प्रकार की धांधली कर दाद नरेंद्र बहुत बिगडता और आगे बढकर फैसला करता । अगर देखता कि उसकी बातें नहीं मानी जा रही और लडकी आपस में मारपीट पर उतारू हैं तो वह निर्भिक भाव से बीच में खडा होकर उन्हें रोक देता । शारीरिक बल में नरेंद्र अपनी किसी भी हमजोली से ही जाना था बल्कि उसका असीम साहस देख बडे बडे दंग रह जाते हैं । खुलसा सी में निपुण होने के कारण दुष्ट लडके उससे दबते थे । जब उसकी अवस्था केवल छह वरिष्ठ की वो अपने हमजोलियों के साथ चडक का मेला देखने गया, मेला देखा और मिट्टी की बनी हुई शिव की मूर्तियां हैं । शाम को जब घर पर लौट रहे थे तो एक छोटा सा लडका दल से अलग हो गया और फुटपाथ से रास्ते में चला गया कि उसी समय सामने से घोडा गाडी आई जिसे देख बालक पर आ गया । राहत जल्दी रही, रुक गए और बचाओ बचाओ चिल्लाने लगते । शोरगुल सुनकर नरेंद्र पीछे की ओर देख और सारी स्थिति हूँ । एक क्षण भी देर नहीं लगाई । महादीप की मूर्तियां देखकर वह तेजी से लग का बालक खोडे के पैरों तले रौंदा ही जाने वाला था कि नरेंद्र से बाल पाल पचास हजार बालक को सुरक्षित देखकर लोग बडे खुश हुए और सभी ने नरेंद्र के साहस की दाद नरेन्द्र के अपूर्व साहस की ये घटना और है । कलकत्ता के दक्षिण मटियाबुर्ज में लखनऊ के भूतपूर्व नवाब वाजिद अली शाह की पशुशाला नरेन्द्र की उम्र कोई सात आठ बरस रही होगी की वो अपने हमजोलियों के साथ एक दिन ये पशु पाला देखने गया । लडकों ने आपस में चंदा करके चंद पालघाट से छोटी सी नाव किराये पर ली । लौटते समय एक बच्ची ने नाम में उल्टी कर दी । मुसलमान मल्लाह बहुत नाया और कहा ना साफ किए बिना किसी को करने नहीं दूंगा । किसी दूसरे आदमी से साफ करा लेने के लिए लडकों ने पैसे देने चाहिए पर वो नहीं माना और घाट के दूसरे महिलाओं को इकट्ठा करके उन्हें मारने पर उतार हो गया । झगडा बढते देखा तो नरेंद्र नाम से उतर गया । वह क्योंकि सबसे छोटा था इसलिए मल्लाहों ने उसे नहीं होगा । किनारे पर पहुंचकर नरेंद्र अपने साथियों की रक्षा को उपाय सोचने लगा । उसने देखा की दो पूरी सिपाही मैदान की रास्ते से टहलने जा रहे हैं । वो दौड कर उनके पास आया और नमस्ते करके एक का हाथ पकड लिया । अंग्रेज तो जानता ना था । नरेंद्र ने उन्हें इशारों से अपनी बात समझाई और घाट की तरफ चलने के लिए खींचने लगा । एक छोटी सी सुंदर बाले के इस आग्रह पाई बहुत खुश हुए । मुद्रण तनाव के पास आए और सारी बात समझ गए । उन्होंने हाथ का बेन उठाकर मल्लाहों टाटा और बच्चों को छोड देने का आदेश दिया । गोरे सिपाहियों को देखकर मल्लाह लोग करे और अपनी अपनी नावों में चले गए । यू नरेंद्र साथियों ने संकट से छुटकारा दोनों से पानी नरेंद्र के इस आचरण से बहुत प्रसन्न हुए । वो उसे अपने साथ थियेटर ले जाना चाहते थे पर वो अपने हमजोलियों के साथ लौटाया । नरेंद्र को भय दिखाकर किसी काम से रोकना असंभव इस सिलसिले की घटना इस प्रकार उसके पडोसी साथी के घर में चम्पक खून का एक पेड था । पेड की टहनी में पैर की गौर डालकर सिर और हाथ मुझे लटकाकर झूलना नरेंद्र का प्रिय । एक दिन वो पेड की ऊंची टहनी पर इसी प्रकार छूट रहा था कि उसके एक साथी का दादा उधर आ निकला । बूढे का हृदय भय से काम किया । एक तो ऊंचाई दूसरे नरेंद्र के उत्पाद से पहनी टूटने की काफी आशंका । बूढा ये भी जानता था कि नरेंद्र डराने धमकाने से मानने वाला नहीं । इसलिए उसने दुलार से कहा बेटा स्पेड कर्नाटर इसपर तो ब्रह्मा राक्षस रहते हैं । नरेंद्र बोला कहाँ है ब्रह्मराक्षस? हमने तो नहीं देखा । बूढे ने फिर कहा काम महाराष्ट्र दिखाई हो रही देता है, वो तो बिना दिखाएगी गर्दन जो पेट लेता है । बूढे ने ब्रह्मराक्षस की विकेट आकृति का वर्णन किया और क्रूर जा के दो चार धारण देकर समझाया कि वह अपने आश्रय पेड का अपमान कब से है नहीं करेगा । नरेंद्र को चुप देकर पूरे ने समझा सी कम कर हुई पर जैसी बूढा वहाँ से हटा नरेंद्र फिर उसी ऊंची चोटी पर चढ बैठा । लेकिन उसके साथ ही की हिम्मत नहीं पडी । वो फॅमिली होता से नीचे खडा रहा । भावनाओं पर नरेंद्र ने उसे कहा, नहीं भाई, ब्रह्मराक्षस की बात कौन जाने । नाम मालूम कब की डर से आकर गर्दन मरोड डाले । साथ ही कर दिया ढक तू ऍफ है । नरेंद्र बोला तेरे दादा डराने के लिए झूठमूठ बात बनाये गए । अगर पेड पर सचमुच ब्रह्मराक्षस रहता तो उसमें मेरी गर्दन कब की मरोड भी होती । नरेंद्र का यही स्वभाव सारी उम्र बना रहा । किसी भी बात पर विश्वास करने से पहले वो उसे तर्क की कसौटी पर कसता था । महेंद्र और पेंद्र उसके छोटे भाई भी हर तरह चुस्तदुरूस्त हूँ । नरेंद्र से उनका कोई मुकाबला मुझे नरेंद्र से स्वामी विवेकानंद बन गया तो बाल निकाल के बारे में उसने शिष्य से बातें करते हुए कहा मैं बचपन से ही जिद्दी शैतान था नहीं क्योंकि खाली हाथ सारी दुनिया को मारा संभव था ।