Made with in India
भक्ति साधना जीवन में हम जो कुछ भी करते हैं उसका केवल एक ही उद्देश्य है कि हमें अपने जीवन में कृतकृत्य फुलफिल्मेंट की प्राप्ति हो जायेगा और उसके लिए जब हम छोटे होते हैं तो हमें ये बताया जाता है कि बेटा जीवन में अगर खुश रहना है तो एक परिवार होना चाहिए । फिर परिवार की खुशी के लिए पैसा होना चाहिए । फिर धीरे धीरे पैसे की परिवार की महत्ता हमारे दिमाग में बिल्कुल फिट हो जाती है । लेकिन को ये नहीं पता था कि कितना पैसा होना चाहिए, कितना बडा घर होना चाहिए या कितनी गाडी होनी चाहिए या अन्य वस्तु हुए । इतनी आने के बाद आपके जीवन में कृतकृत्य यानी कि फुलफिल्मेंट आ जाएगी । ये जगत सापेक्षता की नियम पर चलता है किसी गरीब गांव में जिसके बाद एक लाख रुपए हैं तो वहाँ पर अमीर व्यक्तियों में वह है परंतु वही आदमी अगर एक शहर में आ जाता है तो वह देखता है कि यहाँ तो मैं कुछ भी नहीं इसलिए तो वहाँ पर गरीब है । एक बार बिल्कुल सत्य है कि जब तक हम सापेक्षता की इस जगत को देखते रहेंगे हमारे जीवन में कभी भी कृति कृतिका नहीं आ सकती । भगवान भगवत गीता के पाँच दंश अध्याय के अंतिम श्लोक में कहते हैं ऍम शास्त्र में दम उक्तम भयानक ए तक बुधवा बुद्धि मांस यार कृतकृत्य भारत ये जो मैंने तुझे सबसे गाॅव विदेश क्या है? अगर तो इस पर चिंतन करे और अपनी बुद्धि का प्रयोग करें तो हे अर्जुन तो जीवन में कृतकृत्य को प्राप्त कर सकता है । लेकिन हम लोग जीवन में कुछ सोचना ही नहीं चाहते । बस जैसा किसी ने बता दिया उसको सबके मानकर उस पर रियायत करना शुरू कर देते हैं । एक बार की बात है, शायद मेरी उम्र उस समय कोई अठारह वर्ष की रही होगी । हम लोग टिहरी गढवाल में रहते थे और पडोस में शर्मा जी रहते थे । उन दिनों उत्तरकाशी में काफी तेज भूकंप आया था तो लोग काफी डरे हुए थे । एक दिन शाम को किसी ने शर्मा जी की खिडकी के नीचे खडे होकर ऐसे ही चला दिया कि अरे भूकंप आया, भूकंप आया । शर्मा जी दूसरी मंजिल पर रहते थे । शर्मा जी ने इधर देखाना उधर सीधे अपनी बालकनी में आया और वहाँ से छलांग लगा दी जिससे उनका एक हाथ और पांव की हड्डी टूट गई । हम लोग भी शर्मा जी जैसे ही है । ये जगह हमें बताता जा रहा है कि ऐसे करो, वैसे करो और हम वो सब करते जा रहे हैं । कभी हमने अपने बारे में जानने की कोशिश ही नहीं की । हम कौन है? ईश्वर कौन है? हमारे उससे क्या संबंध है? इस संबंध को जाने को ही भगवान गुह्यतम शास्त्र का नाम दिया है । दर्शन देखा जाए तो हम लोगों को पता ही नहीं होता कि हमें परेशानी है क्या? एक बार एक दसवीं कक्षा का छात्र मेरे पास आया । उसके पिताजी हमारे अच्छे मित्र थे तो उन्होंने उसको मेरे पास भेजा था । वो लडका आते ही मुझसे कहता है वो ऍम कहा कुछ गलत नहीं है । अगर तुम्हें कंपनी चाहिए तो कल से मैं भी तुम्हारे साथ आता हूँ । वो बोला नहीं, अब समझ नहीं रहे हैं इसमें क्या गलत है । मैंने कहा कि कुछ गलत नहीं है क्योंकि तुम जानते ही नहीं हूँ कि दरअसल तुम्हारी समस्या है क्या । मैंने कहा तुम्हारी समस्या ये नहीं है जो तुम बता रहे हो । तुम्हारी समस्या ये है कि जब तुम पढने बैठते हो तो तुम्हारा मन तुम्हारा साथ नहीं देता । हमेशा वही लडकियाँ तुम्हारे मन में आती रहती है । फिर वो थोडा गंभीर हो गया और रोने लगा । फिर वो बोला मेरे साथ के सभी लडके ऐसा ही करते हैं इसलिए मैं भी उनके साथ चला जाता हूँ । इसलिए मेरा मन पढाई में नहीं लगता । फिर मैंने उससे कहा कि अभी तो बहुत छोटे हो इन सभी चीजों को समझने के लिए । लेकिन एक बाद अभी तुम अच्छी तरह से समझ लो । जीवन में गोल जितना बडा होगा, उतनी ही छोटी चीजें तुम्हें परेशान नहीं करेंगे । जीवन का गोल अगर छोटा रखोगे तो हर छोटी मोटी चीजों से तुम परेशान हो जाओगे । फिर मैंने उसको कुछ और मोटिवेशनल बातें बताई और डेरी सुबह उठकर भगवत गीता का एक अध्याय सुनने के लिए कहा । धीरे धीरे एक साल में वही लडका कितना बदल गया कि दसवीं कक्षा में उसके बहुत ही अच्छे ग्रेड जाए । हमारे जीवन में उपलब्धियां टारगेट से बहुत सारे हो सकते हैं, परंतु गोल उद्देश्य एक ही है कि हम कैसे भी करके जान ले । क्या आखिर हम है कौन और फिर ये जानने के बाद उस अपने स्वरूप का अनुभव और नित्य निरंतर उसी स्वरूप में बने रहना, यही हमारे जीवन का एकमात्र उद्देश्य है । जैसे अगर हमें अल्मोडा से दिल्ली जाना है तो इसके भी कई मार्ग है और सभी मार्ग अंततः दिल्ली को ही जाते हैं । ठीक उसी प्रकार योग उपासना, कुंडलिनी धर्म ये सभी ज्ञान तक पहुंचने के मार्ग है और उस ज्ञान की अनुभूति भक्ति है । जिस प्रकार हमने एक मार्ग में से किसी मार्ग पर चलकर दिल्ली पहुंच गए और दिल्ली पहुंचने के बाद हमने जब उस दिल्ली का अनुभव किया जो पहले नहीं हुआ था । उसके बाद कहीं और जाना शीर्ष नहीं है क्योंकि हम साधनों के द्वारा साठ तक पहुंच गए हैं । इसको हम इस तरह से भी समझ सकते हैं । मान लो हमें बद्रीनाथ भगवान के दर्शन करने के लिए जाना है । तो सबसे पहले अगर हमारे मन में बदरान भगवान की महत्ता ही नहीं है तो हम इस बारे में सोचेंगे ही नहीं । लेकिन एक बार हमारे मन में भगवान को देखने की जिज्ञासा उत्पन्न हो गई तो फिर हमारा मन हमें परेशान करना शुरू करेगा कि यदि ये रास्ता बहुत कठिन है और क्या होगा? बद्रीनाथ जाकर इससे बढिया और कहीं घूमने चलते हैं । लेकिन अगर यहाँ पर बुद्धि के द्वारा अपने मन पर विजय प्राप्त कर ली तो आपका आधा काम हो गया । फिर बुद्धि, कर्तव्य अभिमान से ये निर्णय कर लेते हैं की ठीक है हम बद्रीनाथ ही जाएंगे । फिल्म बद्रीनाथ तक जाने के विभिन्न मार्गों के बारे में जानना शुरू करते हैं और फिर अपनी सुविधा अनुसार एक मार्ग का निर्णय कर लेते हैं । फिर हम अपने घर से बहुत सारा सामान लेकर विभिन्न उपायों जैसे हवाई जहाज रेलगाडी, बस टैक्सी के द्वारा मंदिर तक पहुंच गए और फिर अपना सारा सामान होटल में छोड देते हैं तो फिर मंदिर के बाहर जूते चप्पल भी छोड देते हैं और बिल्कुल खाली हाथ भगवान के सामने होते हैं । अब ये जो यात्रा थी यही हमारी आध्यात्मिक यात्रा की कहानी है । जब तक हमारे हृदय में इस परमात्म तत्व को जानने की जिज्ञासा नहीं होती तब तक सब ठीक है लेकिन जहाँ हमने पूजा पाठ करना शुरू कर दिया, हमारा मन हमको परेशान करने लगता है । मैंने हमें समझाने का प्रयास करता है कि ये कोई उम्र है, भगवत गीता पडने की पूजा पाठ करने की और जब बुढापे में हम किसी लायक नहीं रहे थे जब सरकार भी हमें रिटायर्ड कर देती है और परिवार के सदस्य हमें किसी लायक नहीं समझते तब हम आध्यात्मकि लायक बनने की नाकामयाब कोशिश करते हैं । जब हमें अपना नाम तक याद नहीं रहता तब हम भगवद्गीता पढना शुरू करते हैं । लेकिन यदि हमारी जिज्ञासा तीव्र है तो हम अपने सभी कर्तव्य कर्म करते हुए भी परमात्म तत्व को जान सकते हैं । पूजा पाठ, उपासना धर्म में सब केवल हमें अपने साथ तक पहुंचाने वाले साधन है और एक बार हम उस तत्व के साथ एक हो गए तो फिर ना योग ना क्या नवास, नाना धर्म और ना ही भक्ति बचती है । फिर केवल पर महात्मा मात्र ही रह जाता है जो कि एक मात्र सकते हैं । अब सवाल यह आता है कि हमें कैसे पता चलेगा कि हम आध्यात्म के सही मार्ग पर जा रहे हैं या नहीं । यह सवाल एक महोदय ने मुझसे पूछा था तो मैंने उनसे कहा कि चले इसका जवाब हम खाना खाने के बाद देंगे । फिर वो महोदय और मैं खाना खाने लगे तो जब उन्होंने दो रोटी खाई थी तो मैंने उनसे कहा आप का पेट भर गया है, आप जाओ । थोडा नाराज हो गए और बोले आपको कैसे पता मेरा पेट भर गया, मैं अभी और खाऊंगा । फिर उन्होंने पूरा खाना खाया और वह उठने लगे तो मैंने उनसे कहा अरे अभी आपका पेट भरा नहीं । अभी आप चार रोटी और खाओ । वे बिल्कुल नाराज हो गए और बोले डॉक् सब ये क्या बात है । आप ऐसा बोल रहे हैं । मैंने उनसे माफी मांगी और कहा देखो जिस तरह मैं या अन्य संसार का कोई भी व्यक्ति हर निर्णय नहीं ले सकता कि आपकी सुविधा शांत कितना खाना खाने से होगी । यानि कि आपकी भूख कितना खाना खाने से शांत होगी । उसी प्रकार ये भी आपको कोई नहीं बता सकता है कि अब जीवन में आध्यात्मिक एसे ही रास्ते पर चल रही है । क्या नहीं केवल आप की अनुभूति है । आप स्वयं जान सकते हैं और कोई नहीं जान सकता । लेकिन ऍम देखकर यह बता सकता हूँ कि आपको इस मार्ग पर कैसे चलना है । जिस प्रकार मान लोग जिस मनीष ने आज तक कभी पानी नहीं देखा वो उसके गुण धर्म बताकर उसे समझा सकता है । लेकिन उसे पाने का अनुभव तभी होगा जब वो पानी का अनुभव करेगा । ठीक उसी प्रकार एक भक्त की अनुभूति को केवल वही जानता है । लेकिन जितना मैंने जाना है वो मैं आपको बताता हूँ । सबसे पहले हमें कुछ मूलभूत बातें समझनी होगी जो हमारे मैंने में भक्ति को लेकर है उसको समझ लेते हैं । पहला भक्ति एवं आशक्ति भगवत गीता में भगवान ने हमेशा अनन्य भक्ति का ही जिक्र किया है । अन्य मतलब अन्य कोई है ही नहीं । एक मात्र सत्ता को मानना अद्वैत अनन्य भक्ति का पहला लक्षण है जहाँ पर हमें अन्य का भाव आता है । वहीं पर राग द्वेष गिलानी एशिया भाई होता है । जैसे मान लो कोई आदमी जंगल में शिकार करने के लिए गया और वहाँ रास्ता भटक गया तथा उसको जंगल में ही रात हो गई । अब वो जंगल में बेचारा डर के मारे कह रहा था कि कोई जंगली जानवर ना आ जाए और उस पर हमला ना करते । ये सोचते सोचते हो गया । जब नहीं इनमें कराटे मार रहा था तो उस वक्त वहाँ पर शेयर आया लेकिन शेयर में उस पर हमला करने के बजाय वो डरकर वहाँ से भाग गया । जब तक वैध है तब तक ही मन के विकार है । जमीन में एक पति खराडे मारता है तो उसमें वह हिम्मत कहाँ से आ जाती है कि वह जो पत्नी के आगे मो तक नहीं खोल सकता । नींद में इतनी जोर जोर से आवाज करता है क्योंकि वहाँ अन्य दूसरा दिव्या है ही नहीं, सिर्फ वही है । हमने पहले भी चिंतन किया है कि जीव जगत ईश्वर ये तीनों एक परमात्मा पर ही विभिन्न उपाधियां चढा देने से तीन होते हुए से देखते हैं परन्तु ये सत्य नहीं है । सत्य केवल एक मात्र है कि जगत कुछ और नहीं बल्कि मेरे भगवान ही विराट रूप में संपूर्ण जगत में व्याप्त है और योगी मैं भी संपूर्ण स्वरूप का ही हिस्सा हूँ इसलिए मैं भी वही हूँ । यही अनन्य भक्ति है और अपने में उस परमात्म तत्व को पहचानकर यह जान लेना कि ये जीव जगत कुछ और नहीं बल्कि मेरा ही विस्तार है । ये ज्ञान है । ज्ञान और भक्ति अलग नहीं है । ज्ञान की परिपूर्णता को भक्ति कहते हैं तथा भक्ति के आधार को ज्ञान कहते हैं । दोनों भक्ति और ज्ञान में अन्य कुछ बचता ही नहीं है । केवल वासुदेव सर्व यही भाव शेष रह जाता है । बिना भक्ति के ज्ञान पांडित्य है तथा बिना ज्ञान के भक्ति केवल आशक्ति मात्र है । कई लोग वेदांत तथा भगवत गीता पर पीएचडी करते हैं । क्या हम भगवान को सर्टिफिकेट दे रहे हैं कि बहुत अच्छी बात कही आपने? आजकल देखा गया है कि कई कम उम्र के बच्चे भी भगवत गीता को कंठस्थ याद कर लेते हैं तथा कई तो टीवी पर भागवत महापुराण की कथा भी करते हुए दिख जाते हैं । मेरा तो ज्ञान है ना भक्ति है ये पांच देते हैं । उनका तत्त्व से कुछ लेना देना नहीं है । जब तक इस ज्ञान पर चिंतन मनन और विधि ध्यान आसन नहीं होता तब तक ये ज्ञान दूसरों को बताने के लिए ठीक है । अब हम लोग जो करते हैं उस पर आ जाते हैं । ऍम देखा जाए तो हमारी पूजा पाठ, उपासना, धर्म योग जिसको हम भक्ति का नाम दे देते हैं, ये भक्ति नहीं आ सकती है और जो आशक्ति है वो जहाँ भी सकती है ये रूकती नहीं है । ये उसी प्रकार है जैसे कोई गंगा किनारे गया तो गंगादास जमुना किनारे गया तो जमनादास और घर पर आया तो देवदास फिर बुढापे में आकर यही बोलते फिरते हैं । हम ने इतना क्या? भगवान का हम को क्या मिला? अरे भाई किसने कहा था करने के लिए भागवान कोई जरूरत नहीं है तुम्हारे किए कि क्योंकि परमात्मा पूर्ण है । अपेक्षा केवल अपूर्णता में होती है परिपूर्णता में नहीं । हमने अपने आपको अपूर्ण समझ लिया है इसलिए हम संसार की विषय वस्तु रिश्ते नातों को पानी की अपेक्षा करते हैं और इससे हम प्रेम का नाम देते हैं । ये बात थोडी बचाने में कठिन है परंतु एक बात बहुत ही सही तरीके से दिमाग में उतार लेनी चाहिए कि जो भी हमें संसार में रिश्ते नाते बनाते हैं वह केवल लेन देन के हिसाब से बनाते हैं और इन रिश्तों में हम प्यार प्रेम का नाम दे देते हैं । भगवान शंकराचार्य कहते हैं वैसी गते कहाँ काम विकास रहा शुष् के निर्णय कहा कासा रहा चुने वित्तीय कहा परिवार हो गया आते तत्व कहा संसार रहा हमारा इस संसार में जो भी किसी व्यक्ति या वस्तु को लेकर प्रेम है वहाँ कौन प्रेम है इसको कहते हैं गुणों के कारण प्रेम जिस व्यक्ति के साथ हमारी विचारधारा मिलती है उसे हम कहते हैं कि मुझे उस से प्रेम है । लेकिन जब वही विचारधारा हमारी विचारधारा को सूट नहीं करती तो वह दुश्मन है । चाहे वह पत्नी हो या पुत्र हो या कोई भी हमारा सहकर्मी हूँ हम उससे प्यार नहीं करते हैं । हम लोग उनके गुणों से प्यार करते हैं और यदि उस आदमी के गुण हमसे नहीं मिलते तो फिर वही लडाई झगडा, ईर्षा इसी कारण शायद में पंडित लोग लडके लडकी की शादी से पहले जन्मपत्री के आधार पर गुड मिलाते हैं । लेकिन हमने अधिकांशतः देखा है कि सोलह के सोलह गुण मिलने के बाद भी हमेशा परिवार में तनाव रहता है । तो कहने का तात्पर्य यह है कि कौन प्रेम के कारण ये जिंदगी नहीं चलती । ये जिंदगी चलती है या तो शुद्ध प्रेम भक्ति के कारण या फिर समझदारी ज्ञान के कारण । इसी प्रकार हम जो उपासना करते हैं, उसमें भगवान हमारे लिए बन जाते हैं साधन और ये जगत कि ईट पत्थर बन जाते हैं । साध्य पूजा पाठ, कर्मकांड इनमें मैं का महत्व होता है । भक्ति में मैं रहता ही नहीं, मैं से मुक्ति का नाम ही भक्ति है और यही ज्ञान है । एक बार बहुत ही स्पष्ट है परमात्मा हम से प्रकट हो सकता है, परंतु हम परमात्मा तक पहुंचते पहुंचते गायब हो जाते हैं । ठीक उसी प्रकार जैसे एक नमक की पुडिया को यदि समुद्र की गहराई नापने के लिए समुद्र में डाला जाए तो वह नमक की पुडिया समुद्र की गहराई तक जाते जाते बचती ही नहीं । उस समुद्र के साथ एक हो जाती है । यही भक्ति में भी होता है । थक वो है जो है ही नहीं और वही सब कुछ है । इसको कहते हैं स्टाॅक सॉलिड क्योंकि इसके अतिरिक्त कुछ और है ही नहीं । स्पेस क्योंकि इसी में सब कुछ है । भक्त पर संसार का कोई भी नियम लागू नहीं होता क्योंकि वह कुछ कर्म करता ही नहीं, उसके माध्यम से सभी के लिए आए प्रकृति के गुणों के कारण होती है । परंतु वाहना उन क्रियाओं के कारण करना ही उन क्रियाओं के फल के कारण प्रभावित होता है । लेकिन हम लोग तबला पेटी लेकर भगवान का दिन रात सर खाते रहते हैं और खूब गाने गाते हैं । खूब भजन सुनते हैं । जिंदगी की डोर सौ दीनानाथ के महलों में रखी चाहे झोपडी में वास्ते धन्यवाद निर्विवाद राम राम कहि है जाहि । विधि राखे राम ताही विधि रही है और गाना खत्म होते ही अपना दिमाग चलाने लग जाते हैं । हमारे बोले हुए का हम पर ही असर नहीं होता तो और ऊपर क्या होगा? मैं नाम और जगह नहीं बताऊंगा लेकिन हमारे ही एक मित्र है । वे प्रत्येक रविवार को तबला पेटी लेकर तीस मिनट तक कुछ भजन गाते हैं । उनके घर पर कॉलोनी के कुछ अन्य लोग भी आते हैं और ये वो काफी समय से कर रहे हैं । एक बात समझने वाली है कि ये जो आजकल एक ट्रेंड सा बनता जा रहा है कि रविवार को ही भगवान को याद किया । बाकी दिनों में रात रात तक ऑफिस का काम और केवल अपने अहंकार का पोषण मैं गारंटी देता हूँ, कुछ नहीं होगा इससे जब तक तबला बेटी हाथ में है तो हम भक्त है वरना विभक्त है और ऐसे लोगों में मैं बहुत मजबूत होता है । हर व्यक्ति को संदेह की दृष्टि से देखना, किसी पर विश्वास न करना ये लक्षण ऐसे लोगों में बहुत प्रबल होते हैं । भगवान शंकराचार्य ऐसे लोगों के लिए कहते हैं वीणावादन सौंदर्य भुगते नाजम ते अध्यात्म । कोई पार्ट टाइम जॉब नहीं है कि ट्वेंटी फोर सेवन प्रक्रिया है । इसलिए एक बात बहुत स्पष्ट समझ लिए । भगवान को हमारी किसी भी पूजा पाठ, कर्मकांड यह किरदान, भजन कीर्तन की कोई आवश्यकता नहीं है । ये तो हम अपने मतलब के लिए करते हैं और जब मतलब अपना होता है तो आदमी को उसका अभिमान नहीं होता । भगवान के लिए चाहे एक जोर हो, डाकू हो, दरिद्री हो, देश का प्रधानमंत्री या कोई महात्मा उसके लिए सभी सामान है । भगवान कहते हैं ना मेरे लिए कोई पराया है ना अपना, ना मैं द्वेषवश तीन अप्रिय दूसरा भक्त के लक्षण जब तक भगवान के नाम का रस हमारे हृदय में नहीं उतरता तब तक चाहे आप एक फिल्मी गाना सुने या कोई भजन दोनों बराबर है । भगवान हमारे हृदय में तभी अवतरित होंगे जब भगवान द्वारा बताये गये भक्ति योग का हम पालन करेंगे । भगवान ने भगवत गीता के द्वादश अहा अध्याय भक्तियोग में भक्त के हृदय में अवतरण के लिए कुछ शर्तें रखी है । ये कुल तैंतीस बातें हैं जो एक भक्त में होनी चाहिए । जिस दिन ये बातें हमारे जीवन में उतर आई उस दिन परमात्मा स्वयं तैंतीस कोटि देवी देवताओं के साथ हमारे हिंदी में निवास करेंगे । इन तैंतीस बातों को संक्षेप में हम समझने का प्रयास करते हैं । अधिवेश ता सर्वभूतानां मैत्र हा करोड बच्चा निर्मलों निरहंकार आ रहा समझ दुख सुख रहा शमी पहले श्लोक में गुण बताए गए हैं अधिवेश मित्र करुणान निर्मम ओ निरंकार समझ सुख दुख और समाज छील पहला अधिवेश ना अधिवेश ना का अर्थ है किसी से भी भूल वर्ष भी हमारे मन में कृष्णा का भाव ना बहुत के लोग हेड शब्द का प्रयोग करते हैं जैसे आई है मैं कभी भी शब्द का प्रयोग ना करें । किसी का पर्यायवाची शब्द डिसलाइक फिर भी ठीक है परंतु जहाँ द्वेष घृणा है वो सुविधाएँ में परमात्मा का अवतरण कैसे हो सकता है? दूसरा मित्र मित्र का मतलब ये नहीं कि हम सभी मित्र बनाने में लग जाए । इसका अर्थ यह है कि सभी के साथ हमारा व्यवहार मित्रता का होना चाहिए । तीसरा करना हम लोगों को करोना, दया और सेवा में अंतर जानना होगा । करो ना वो भाव है । जब हम किसी भी प्राणी के साथ एक होकर उसके सुख दुख का अनुभव कर पाते हैं वो है करो ना दया ये थोडा अलग भाव हैं । दया में हम श्रेष्ठ बन जाते हैं और जिस पर गया की जाती है वह दयानीय बन जाता है । इसलिए कभी दया शब्द का प्रयोग न करें तथा तीसरा है सेवा सेवा एक श्रेष्ठ भाव हैं इसमें दूसरे को श्रेष्ठ मानकर उसकी इच्छा अनुरूप जो कार्य हम करते हैं वह सेवा है सेवा अंत करने की । शुद्धि का एक श्रेष्ठ मार्ग है तो उसी दास कहते हैं मैं सेवक सचराचर अम् रूप स्वामी भगवंता । चौथा निर्मलों ममता रहित होना पूरी भगवत गीता को यदि एक वाक्य में समझना है तो हम इस प्रकार समझ सकते हैं कि इसमें अर्जुन की एक बीमारी का जिक्र है जिसका नाम है ममता और इसके लिए जो दवाई बताई गई है उसका नाम है समझा पांचवां निरंकार एक बार बिल्कुल साफ है कि ये समझने की जब जब हम दुखी होते हैं तो उस वक्त हमारा अहंकार बहुत स्ट्रोंग होता है । अहंकार ये एक बहुत बडी रुकावट है हमारी आध्यात्मिक उन्नति में छठा समझ, सुख दुख, जीवन में सुख दुख का प्रसंग आना स्वाभाविक है । लेकिन सुख दुख और दुख के साथ तादात्म्य करके सुखी दुखी होना अलग बात है । जो मनुष्य सुख दुःख में समान है, वहीं प्रभु के प्राप्त भैया की काबिल है । सातवां शमी समझ होना एक बहुत ही बडी आध्यात्मिक साधना है । समाज झील होना मतलब अपने भूतकाल के बोधि को उतार फेंकना छमा हमारे अंदर करने की पवित्रता के लिए एक प्रमुख मार्ग है । जब मनीष क्षमाशील है उसके मन पर संस्कारों का निर्माण नहीं होता है । संतुष्ट संततम् योगी गतात्मा दृढनिश्चय यहाँ मई अर्पित मनो धीरे यो मद्भक्तः हर समय प्रिया हाँ आठवाँ गतात्मा भगवान कहते हैं कि ऐसा योगी जिसका मन हमेशा अपने बस में होता था, जो संतुष्ट हूँ वो मुझे प्रिय है । किताब वहाँ मतलब जिसका आपने पर पूर्ण नियंत्रण है तथा वो मन को जब चाहे जहां चाहे जितने समय के लिए, चाहे किसी भी काम में लगा सकता है, उसे यह आत्मा कहा जाता है । न वहाँ दृढ निश्चय जीवन में दृढ निश्चय का होना बहुत जरूरी है । जब तक हम दृढ निश्चय वहाँ नहीं होते तब तक किसी भी लक्ष्य की प्राप्ति एक समस्या नजर आती है । इसलिए कहते हैं लक्ष्य से दृष्टि हटने के बाद जो दिखता है उसी को समस्या कहते हैं । और दसवां मई अर्पित मनो बुद्धि मंदबुद्धि ये भी प्रकृति का ही अंग है । भक्ति यानी की अनुभूति मन और बुद्धि के द्वारा नहीं होती शुरू त्री से युक्ति, युक्ति से अनुभूति, चिंतन मनन करने के लिए बुद्धि तथा मन की आवश्यकता होती है जिससे हमें ज्ञान प्राप्त होता है । ज्ञान होना भी एक मानसिक प्रक्रिया है लेकिन बहुत ही एक मानसिक प्रक्रिया नहीं है । अपना हमें बोर्ड होता है इसलिए आत्मबोध कहा जाता है ना कि आत्मज्ञान । आत्मबोध आत्मज्ञान से श्रेष्ठ है और यह तभी संभव है जब आत्मज्ञान के बाद हम अपनी मन बुद्धि को परमात्मा को अर्पित करें । यस्मान नोट विजयते लोगों को लोकानां भेजते चलो यहाँ हर शाम अरशद भाइयो द्वय गैर मुक्तों यहाँ साझा में प्रिय हाँ पहला यस्मान नो द्वीप बजते लोग को भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त वह है जिसके कारण संसार का कोई भी प्राणी दुखी नहीं है । एक बार कहीं पर मैं बता रहा था कि खुश रहना भगवान की सबसे बडी साधना हैं । तभी एक वहाँ से हमारे पास आए और बोले कि मैं बहुत खुश हूँ और हमेशा मजे में रहता हूँ या मैं साधक हूँ । हमने कहाँ पहले एक प्रश्न का जवाब दो । आपके घर पर सब कैसे हैं? वो महाशय तुरंत बोले अरे सर, उनको छोडिये ये सब न लायक है । हमें अपना देखना है । मैं खुश रहता हूँ, चाहे दुनिया कुछ भी कहे । हमने कहा ठीक है आप खुश रही है और मैं वहाँ से चला आया । फिर एकदिन महाशय के ऑफिस का एक सहकर्मी मुझे मिला तो वह मेरे बिना पूछे उन महाशय के बारे में बताने लगा कि वह घर में बच्चों पर ध्यान नहीं देता । बीबी से हमेशा लडाई करता है और ऑफिस में मदिरा भी कराता है । हमने कहा उस दिन वो ठीक ही कह रहा था कि वह स्पिरिचुअल है, लेकिन वो लिक्विड स्पेशल है । देखो हमारे कारण जगत का कोई भी प्राणी अथवा नियम कानून यदि दुखी है तो ये भक्ति नहीं है कि भोगती है लो कानों द्विजत्व भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त वो है जो संचार के किसी भी प्राणी के कारण दुखी नहीं होता । भगवान का भक्त होने का ये मतलब ये बिल्कुल नहीं है कि लोग हमें डोरमैट पायदान की तरह प्रयोग करें । हमें ना तो इस दुनिया में किसी को धोखा देना है और न ही सिद्ध होगा । खाना है इसलिए हमेशा सावधान रहना ये भी एक आध्यात्मिक साधना है । हर्ष अमर्ष भय और भयमुक्त भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त वो है जो खुशी में उछलता नहीं है और अप्रिय समाचार से दुखी नहीं होता तथा कभी भी भाई को प्राप्त नहीं होता और मन में उठने वाले विभिन्न उद्वेगों से सदेव अप्रभावित रहता है । इस श्लोक के अनुसार आध्यात्मिक साधना मतलब पहला हम जिएंगे तथा दूसरों को जीने रहेंगे । साथ दूसरा हम किसी को धोखा नहीं देंगे और अन्य से धोखा नहीं खाएंगे । चिट तीसरा हम हमेशा आनंद में रहेंगे लेकिन अन्य को ना खुश करने का प्रयत्न करेंगे और ना दुखी करने का आनंद । यही सच्चिदानंद परमात्मा की साधना हैं । आप एक शहर शुचि रक्षियों रहा सीनों गत दिया था । सरवा आरंभ बरी त्यागी यो मद्भक्तः का समय प्रिया हाँ । तो चलिए आप एक शाह यह संसार में ये जाना बहुत जरूरी है की अपेक्षा आकांक्षा आज शाम ममता ये सभी मानसिक बीमारियां हैं । कोई कोई आदमी अपने बच्चों के नाम अपेक्षा आशा ममता रखते हैं लेकिन जिस प्रकार हम शारीरिक बीमारियों, कब्ज, डायरिया, दर्द पर अपने बच्चों का नाम नहीं रखते ऐसे ही हमें यह समझना होगा की अपेक्षा आज शाम ममता ये भी आध्यात्मकि क्षेत्र में बीमारिया ही है । इसलिए भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त कभी भी किसी से कोई भी अपेक्षा नहीं रखता । सूची आज के लिए स्वच्छ भारत अभियान चल रहा है, बहुत अच्छी बात है परन्तु स्वच्छता का तात्पर्य केवल नहाना धोना, बाहर के वातावरण को साफ रखना ही नहीं, स्वच्छता बहारी और आंतरिक स्तर पर होनी चाहिए । भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त वो है जो बाहर की साफ सफाई के साथ मानसिक स्तर पर पवित्र हैं । उदासीनता उदासीन का मतलब डिप्रेशन नहीं है या फिर किसी से बात ना करना और हमेशा मुंह फुलाकर रखना ये उदासीन कार्ड नहीं है । उदासीन शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है । उत् प्लस आसीन उत् यहाँ धातु है जिसका अर्थ है ऊपर या श्रेष्ठ स्थान तो उदासीन का अर्थ हुआ कि चाहे जगत में कुछ भी हो या हम चाहे जगत में किसी भी परिस्थिति में हो अन्य के कारण मन की स्थिति को विचलित नहीं होने देंगे । और यदि बहुत ही सीधे शब्दों में कहा जाए तो दासीन कार्ड हैं चाहे बाहर कुछ भी हो, क्या फर्क पडता है गत व्यथा गत वित्त माने किसी भी व्यक्ति, वस्तु, परिस्थिति के प्राप्त होने के कारण अथवा दूर चले जा रहे कारण भक्त दुख रहित रहता है । भगवान भी कहते हैं कि हे अर्जुन गटास उन गता सुनिश्चित नानो शो चलती पंडिता जो दीवार मनीष है वो जो चले गए हैं या जो नहीं गए हैं, दोनों के कारण परेशान नहीं होते । सर्वा रंभ, परित्याग ई, सरवा आरंभ पर इत्यादि शब्द कई बार भगवत गीता में आया है । इसका अर्थ है कि भगवान का भक्त में स्वार्थ और कर्म का अभिमान होता ही नहीं है तो वो जो कुछ भी करता है अपने आराध्य के लिए ही करता है । योजना हर्षित टीना द्वेष तीन अशोक दीन आकांक्ष अति शुभाशुभ परित्याग िरिक्त मान यहाँ समय पर यहाँ तो अब आगे ना है । स्थिति ना सोचती ही भगवान का भक्त वह है जो हर्ष और शोषित शोक से सजा दूर रहता है है । स्थिति का अर्थ यह नहीं कि वह खुश नहीं रहता बल्कि भक्ति ये जानता है की खुशी कही बार है नहीं वो हमेशा आनंद में रहता है । यहां लाख थेरेपी वाले हर्ज की बात भगवान ने नहीं रही है तथा दुखी तो कभी भक्त होता ही नहीं है क्योंकि वो जान ज्यादा है कि सब कुछ परमात्मा ही है और परमात्मा आनंद स्वरूप है । अपना देश की नाक कान शक्ति दृष्टि गार्ड है । द्वेष तथा काङ् क्षति का अर्थ है राग । ये द्वंद्व है राग और द्वेष । इसलिए भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त राग द्वेष से सादा दूर रहता है । भगवान ने भगवत गीता के अंत में कहा भी है ब्रह्मा भूतहा प्रसन्नात्मा ना सोच तीन आकांक्ष अति शुभ अशुभ परी त्यागी भगवान के भक्त के लिए कुछ भी ना शिव है ना शुभ है क्योंकि वो जानता है कि राम में भी वही परमात्मा है जो रावण में है । शुभ भी वही है और अशोक भी वही है तो भक्त कभी भी शुभ अशुभ के चक्कर में नहीं पडता । सबहा शत्रोहन, अमित रेज तथा मना अपमान यू हूँ शीतोष्ण सुख दुख ए शूज समाज संगम विविधता टू ले निंदा स्थिति मौनी संतुष्ट हो ये इनके अनुचित अनिकेत स्थिरा मदीर भक्त मान में प्रियोन रहा समाज शर्त राऊत सुमित्री हाँ भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त वह है जो चाहे शत्रु हो या मित्र उनमें समान भाव रखता है । यहाँ पर व्यक्तिगत शत्रु और मित्र की बात नहीं हो रही है । क्यों भक्त का तो कोई ना मित्र हैं और ना कोई शत्रु वरन यहाँ पर अच्छे बुरे प्रवृत्ति वाले मनुष्य की ही बात हो रही है । भक्ति के लिए अच्छा देव बुरा दाना कुछ नहीं है । वास्तव में परमात्मा का ही दर्शन करता है सवाह मान अपमान यू हूँ हमारे मैंने में महान अपमान को लेकर बहुत ध्यान दिया है और अधिकांश लोग इस महान अपमान के कारण दुखी होते हैं । थोडा मान अपमान को समझ लेते हैं । मान ये शब्द किसी वस्तु को नापने की एक इकाई है जैसे तापमान, द्रव्यमान तो जब हमारा मान होता है इसका मतलब हमने जो अपने आप को समझा है उसके अनुसार हमें अन्य ने सराहा या पहचान । लेकिन जब अपमान हुआ तो हमारे सामने ऐसी घटना घटी जो हमारे अनुरूप नहीं थी । जब हमारी सोच की नहीं भी गलत है तो हमको अपमान तो लगेगा ही । लेकिन जब हमें ये ज्ञान होता है कि अपमान किसका हो रहा है तो पता चलेगा कि मेरा तो अपमान हो ही नहीं सकता क्योंकि मैं ही तो हो जिसके कारण ही जगत कि सकता है । परन्तु अज्ञानवश हमने अपने आप को दो हाथ किस दे हम मात्र तक सीमित कर रखा है । एक बार एक गांव में एक अत्यंत श्रेष्ठ महात्मा जी आए तो वहाँ गांव की जो पंडित लोग थे उन्होंने कुछ बुरा भला कह देते थे तो महात्मा जी के चेले ने उनको आकर बताया कि अमुक पंडित आपके बारे में बहुत गलत गलत बात बोल रहा था तो महात्मा जी हाँ और बोले क्यों सही कह रहा था बस तुम्हारी समझ में नहीं आया । अगर वो मेरी देह को लेकर मुझे बुरा बोल रहा था तो वहीं बात है तो मैं भी देख को लेकर बोलता हूँ और यदि वह देख को धारण करने वाले जीवन के बारे में गलत बोल रहा था तो उसमें और मुझमें ये चैतन्य अलग नहीं है । वो अपने को ही गलत कह रहा था । सदाशिव दोष ना सुख दुख रहा । भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त वो है जो प्रकृति के द्वारा प्रदत्त लाभ हानि, सुख दुख तथा सर्दी गर्मी के कारण परेशान नहीं होता है । वो सभी द्वंद्वों में समान भाव रखता है । समाज संघवी वर्षिता भगवान कहते हैं मेरा भक्त चाहे अकेला हो या भीड में हो, चाहे घर में हो या कुछ काम कर रहा हूँ । कोई उसके साथ रहे या ना रहे वह सभी स्थितियों में सामान रहता है । इस पर भगवान शंकराचार्य भक्त के लिए कहते हैं योग तोवा भोग तो वसं घर तो वह संघ भी ही ना जैसे ब्रह्माणी रमते उच्चत्तम ननद थी, नन्द की ननद थी, ए टू ले निंदा सुनती है जान इन दा और स्थिति को सामान समझने वाला है वह मेरा भक्त है । किसी ने चाहे हमारी बुराई की हो या कोई हमारी आरती उतारें, दोनों ही व्यवस्था में मन की स्थिति सम रहनी चाहिए । वहीं भक्त है मौनी मौन । ये मन का तब है कई लोग साधु महात्मा मौन व्रत रखते हैं परन्तु अंदर में तूफान चलता रहता है । मौन वाणी का तब नहीं है । मौनी मानसिक स्तर पर होता है । जो मनुष्य मौल रहता है वहीं मननशील भी हो सकता है । इसलिए भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त मौन है । साइलेंस ऍफ रियालिटी संतुष्ट हो । ये नहीं कि इन चिट भगवान कहते हैं कि मेरा भक्त वह है जो किसी भी बिना कारण के हमेशा संतुष्ट सैटिस्फाइड रहता है । हम लोगों की संतुष्टि किसी कारण के होती है परंतु भक्त वो है जो अकारण ही संतुष्ट रहता है और जो भी कुछ घटित हो रहा है उसको हरी छा मानकर स्वीकार कर लेता है । अनिकेत अनिकेत का अर्थ है कि जो रहने के लिए घर की इच्छा नहीं करता वरना वहाँ संपूर्ण जगत को भी अपना घर समझता है । एक बार में एक आदमी से मिला कहीं कोई साइंटिफिक मीटिंग थी तो उन्होंने अपना नाम डॉक्टर अनिकेत बताया । मीटिंग के बाद हम लोग खाना खा रहे थे तो मैंने डॉक्टर अनिकेत से पूछा कि ये अनिकेत का अर्थ क्या होता है? वो बोले मुझे नहीं पता । मैं हैरान हो गया कि ये कितना बडा साइन तेज पूरी मीटिंग में इतनी बडी बडी बातें कर रहा था । उसको अपने नाम का अर्थ भी नहीं पता । इसी को कहते हैं वही रामी बुद्धि । हम संसार की सभी वस्तुओं को जानना चाहते हैं परन्तु क्या हम संसार की वस्तुओं को जानकर उन को बदल सकते हैं? यह संसार हमारे बदलने से बदला जा सकता है नहीं । लेकिन यदि हम अपने बारे में जाने और स्वयं को बदलने का प्रयास करेंगे तो हमारा दृष्टिकोण संसार के प्रति अवश्य बदल सकता है । हम लोग ईट पत्थर के बारे में जानने में इतने व्यस्त हो जाते हैं कि जिसके कारण ईट पत्थर का संचार है उसकी तरफ ध्यान ही नहीं देते । मैं दावे के साथ कह सकता हूँ कि हम लोगों में बहुत से कम लोग हैं जो अपने नाम का शाब्दिक अर्थ जानते होंगे और जानती भी है तो उस नाम के अनुरूप किया । हमने अपने आप को जानने की कोशिश की । बस बचपन में किसी पंडित जी नया घर वालों ने इस देह को एक नाम का टाइम लगा दिया और हम लोगों ने पूरा जीवन यही गलत धारणा में गवाह दिया है कि ये दे हमें हूँ और मेरा नाम ये है इस बात पर एक बार अवश्य चिंतन करें । स्थिरमति स्थिरमति का अर्थ है जिसकी मति बुद्धि स्थिर है और जो कभी करप्ट नहीं होती उसको जानने के लिए अब कुछ भी नहीं बचा । वो संदेह रहे ज्ञान को प्राप्त हो चुका है । वहीं मनीष स्थिरमति स्थित प्रज्ञा है । हम लोगों की माटी स्थिर नहीं है क्योंकि हमने बहुत कुछ सुनकर देखकर बढकर ये मान लिया है कि खाओ पीओ मजे करूँ इसी को जीवन कहते हैं लेकिन जिस दिन ये कलईल खीचड हमारे दिमाग से निकल गया उस दिन हमें पता चलेगा । मनुष्य जीवन का तात्पर्य केवल एक ही है कि किसी भी तरह हम जीव जगदीश्वर के मूल तत्व को पहचान ले और ये केवल मनुष्य जीवन में ही संभव है । इस पर भगवान कहते भी है श्रिति विपरीति पन नाती । यदा स्थान स्थिति निश्चल समाधार चला बुद्धिस् तदा योगम वापसी की है और जिन जिस दिन धीरबुद्धि एक निश्चय वाली हो जाएगी और जो भी तूने सुना है उस से भ्रमित हो ना छोड देगा उस दिन तो इस समय प्रयोग को प्राप्त हो जाएगा । इस प्रकार भगवान ने अपने भक्त के ये तय छत्तीसगढ भक्ति योग के द्वारा बताये और कहा कि जिस भक्त में ये सब तय छत्तीसगढ है तो वह साक्षात मेरा ही रूप है । हमने जो ऊपर बातें की ये वह सारे तैंतीस गुण थे जो एक भगवान श्री कृष्ण अपने भक्त में ढूंढते हैं । मैं उसके माध्यम से सदेव प्रकट होता हूँ ऐसा उनका कहना है । जिस प्रकार कुरुक्षेत्र के मैदान में वह परमात्मा भगवान श्रीकृष्ण के माध्यम से संपूर्ण रूप से प्रकट हुए और अर्जुन को भगवत गीता रूपी अमृत पान कराया । ये ते तीस भक्त के लक्षण सुनकर कुछ लोगों के दिमाग में एक बात अवश्य आई होगी । किस में तो भगवान ने ये बताया ही नहीं कि भक्त को कैसे कपडे पहने चाहिए, सुबह कितने बजे उठना चाहिए, कितने घंटे पूजा पाठ करनी चाहिए तथा भक्त का मेकअप कैसा होना चाहिए । भगवान ने ये भी नहीं बताया कि व्रत रखा हो, खूब तबला बेटी ले गए, मेरा भजन करो और जो मेरा भक्त है उसे मैं बदले में क्या क्या देता हूँ । देखो एक बात बहुत ही स्पष्ट समझ लेनी चाहिए हम लोग भक्ति के नाम पर ये जो देवी देवताओं की उपासना करते हैं या अध्यात्म की नर्सरी या ज्यादा से ज्यादा कि जी कक्षा है । मैं ये नहीं कहता कि ये मत करो लेकिन क्या जिंदगी भर की जी कक्षा में रहना अच्छा लगता है? कभी तो हमें बडा होना होगा । बहुत से महात्मा लोगों के अन्य लोग मुझे कहते हैं कि अरे आपको ग्रहस्थ हो, आपके बच्चे हुई है, नौकरी भी करते हैं फिर भी आप ऐसी बातें करते हैं । कई ने तो ये तक कहा कि अगर कोई संन्यासी ऐसी बात करे तो ठीक लगता है परन्तु आप तो अभी जवान हूँ और आपने कहीं से दीक्षा ली है । फिर रात को अध्यात्म भक्ति के बारे में क्या समझ? इन सब चीजों के लिए तो कहीं से पहले दीक्षा लो, फिर हिमालय में जाकर भगवान की तपस्या करूँगा । फिर गुरु की सेवा करो तब जाकर अध्याय पूरा होता है । ऐसे लोगों के प्रति हमारा बहुत ही साफ नजरिया है । पर वह है उदासीनता था । हम कभी भी ऐसे लोगों से किसी भी तरह के बाद विवाद में नहीं पढते क्योंकि नारद भक्ति सूत्र में साफ कहा गया है वादों ना अब लिम्बा कभी भी बेकार के बाद विवाद में ना पडे । क्या मैं परमात्मा को जाने के लिए पहले किसी सर्टिफिकेशन की आवश्यकता है । आध्यात्मिक साधना देशकाल परिस्थिति से परे हैं और जो मनीष ऐसा सोचता है कि भगवान के भक्त बनने के लिए घर छोड देना चाहिए, नौकरी नहीं करनी चाहिए, जंगल में जाकर तपस्या करनी चाहिए । उस मनुष्य की बुद्धि अभी संसार से ही बैठक रही है । इस संसार में जितना धोखा हम अपने आप को देते हैं और किसी को नहीं देते, हमारे एक जान पहचान के साहब है । उनके रिश्तेदार कोई बडे नेता है तो वह बद्रीनाथ धाम गए । उन दिनों बडी भीड चल रही थी तो हमने उनसे कहा कि साहब कैसी रही या था सुना है आजकल बहुत भीड चल रही है । दम पर इतना हमारा पूछना था कि वह एकदम बोले जब हाथ में वीआईपी पास हो तो कहे की भी मैं थोडा हजार तथा उनकी और थोडी तारीफ करके चलाया । कहाँ पर ये है कि हम बद्रीनाथ धाम पर हाथ में वीआईपी पास लेकर भगवान को ये बताने गए थे कि देखो मैं कितना बडा आदमी हूँ । इससे बडी मूर्खता और कुछ नहीं हो सकती । जितने भी ये मंत्री संत्री लोग भगवान के धाम पर जाते हैं कोई नहीं बताया कि जो अखण्ड ब्रह्मांड को अपने में समेटे हुए है उसके लिए क्या राजा क्या रंक । क्या भारत क्या पाकिस्तान लेकिन अहंकार बिमडा आत्मा करता हम इतनी मान्यता इसलिए अगर कभी भगवान के मंदिर में जाओ तो कुछ बन कर्म अच्छा होगा । यहाँ तक कि अपने देहात में भाव का त्याग करके ही हमें मंदिर में प्रवेश करना चाहिए । इसलिए शायद हमारे यहाँ चमडी की चीजों को मंदिर में ले जाना मना है । चमडे का आर्थिक हमारी चमडी देखा है इसलिए अपने आप को धोखा मत दो । जिस दिन हम अपने आप को धोखा देना बंद कर देंगे उस दिन ये जो जगह है आध्यात्म के नाम पर भक्ति के नाम पर एक दूसरे को बेवकूफ बनाने का जो खेल चल रहा है वो अपने आप बंद हो जाएगा ।
Voice Artist
Writer