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अजंता - 5.1 in  | undefined undefined मे |  Audio book and podcasts

अजंता - 5.1 in Hindi

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AuthorMixing Emotions
जीवन का लक्ष्‍य क्‍या है? इस सवाल ने उपन्‍यास के मुख्‍य पात्र बद्रीनारायण को बहुत ज्‍यादा विचलित कर दिया था। प्रेम कुमारी का प्‍यार और आचार्य का वात्‍सल्‍य भी बद्रीनारायण की बेचैनी को कम नहीं कर सका बल्कि दिन ब दिन यह बढ़ता ही गया। बद्रीनारायण खुद को अजंता के भित्ति चित्रों के निर्माण में खुद को झोंक देता है। उसे लगता है कि उसने जीवन का लक्ष्‍य पा लिया। क्‍या सच में बद्रीनारायण ने जीवन का लक्ष्‍य पा लिया था?
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धीरे धीरे कई वर्ष बीत है । रघु रात के मन में प्रमिल जा की आज ठंडी पड चुकी नहीं लेकिन उसने विवाह नहीं किया था । अब भी वह पहले की तरह अकेला ही रहता था । उसका जीवन बहुत शांत और प्रसन्न था । हफ्ते में एक बार नगर की चित्र शालाओं के विद्यार्थी उसके पास आते हैं और वह हंसी मजाक की बातें सुना सुना कर उन सब को खुश कर देता हूँ । उसके हसमुख स्वभाव से कोई भी ये न जान सकता हूँ की कभी उसके मन में कितनी भयंकर पीडा थी । रघुनाथ के स्वास्थ्य में कोई अंतर नहीं आया था और वो देखने में अभी भी युवक ही लगता था । वो अपनी रुचि का खाता पहनता हूँ और कई बार जब नगर के कोलाहल से ऊर्जा तो घोडे पर सवार होकर बस्ती की सीमा से निकलकर किसी शांत सुहाने स्थल पर जाकर बैठ था और घंटों उस दृष्टि के सान देने में अपने आपको खोये रहता हूँ । फॅमिली जिया के पिता सुदर्शन ने प्रमिल जा की बहुत खोज करवाई लेकिन जब उसका कोई पता नहीं चला तो बहुत निराशा और दुख से उन्होंने खाट पकड ली और इसी दुख में एक दिन वो चल बसे । मृत्यु से पहले उन्हें अपने पुराने कमेंट का बहुत पछतावा था और वो रो रोकर यही कहते हैं कि वो इसी कठोर दंड के योग्य है । बसंत की एक सुबह रघुनाथ घोडे पर सवार होकर नगर से मीलों दूर घने जंगल में ऐसी जगह निकल आया था जहां एक छोटी सी खुली घाटी में चारों ओर हरियाली ही हरियाली दिखाई देती थी । उसने अपना घोडा एक वृक्ष से बांध दिया और नरम नरम घास से ढकी है । हल्की ढलान पर पैदल चलने लगा है । ऐसी सुहानी जगह उसने पहली बार देखी थी । वो एक पत्थर पर बैठने वाला था की छह सात वर्ष की एक लडकी तितली के पीछे भागती हुई नहीं । तितली को पकडने की जल्दी में भागते हुए उसे एक पत्थर से ठोकर लगी है और वह चोट खाकर नीचे गिर पडी है । रघुनाथ ये देख कर बहुत हैरान हुआ कि वह नहीं सी लडकी बिल्कुल नहीं हुई बल्कि चुपचाप उठकर अपने घुटने को देखने लगी । जो जरा सा छिल गया था अपने कपडे झाडकर वह लंगडाती हुई वापस लौटकर जाने लगी लेकिन दर्द के मारे उसे चलना मुश्किल हो गया और वह एक दो कदम उठाकर फिर जमीन पर बैठे और अपने घुटने में कटे हुए स्थान पर ठोक मारने लगे । थोडी देर इसी तरह ठोक मारने के बाद वो फिर उठी है और धीरे धीरे लंगडाती हुई लौटकर जाने लगी । रघुनाथ को उत्सुकता हुई और वो भी उस लडकी के पीछे चला । वो कुछ दूर गया ही था की एक और पांच छह वर्ष की लडकी भागी भागी आई और पहली लडकी को इस तरह लंगडाते हुए देखकर कुछ चिंतित हो गई । उसने बडी लडकी के घुटनों की चोट देखी और फिर दो तीन बार वहाँ फूंक मारकर उसे सहारा देती हुई अपने साथ नहीं चली । कुछ ही दूरी पर एक झोपडी बनी हुई नहीं झोपडी के पास पहुंचने ही छोटी लडकी ने चिल्लाकर का माँ माँ प्रेम को चोट लग गई है । उसकी आवाज सुनकर झोपडी सेक्स शरीर के लिए जो किसी अप्सरा की तरह सुंदर थी । रघुनाथ को विश्वास न हो रहा था । उसके सामने प्रमिल जा खडी नहीं प्रमिल जाने लडकी को गोद में उठाया और झोपडी के अंदर चली गई । फिर जरा देर बाद ही एक बर्तन उठाकर वो पास के झडने से पानी लेने चलती है । रघुनाथ की समझ में नहीं आया कि वह क्या करें । वो वहीं वृक्ष के पीछे खडा उन लोगों को देखता रहा हूँ । वो सोच रहा था कि इन बालिकाओं का पिता कौन है? उसे अधिक समय तक इंतजार नहीं करना पडा । थोडी देर के बाद ही काफी लंबा चौडा व्यक्ति अपने कंधे पर एक खेरन लादे वहाँ गया । उसके दूसरे कंधे पर धनुष और बालों का तरकश था हूँ । रघुनाथ ने इस व्यक्ति को पहचानने की कोशिश की लेकिन उसने इससे पहले उसे कभी न देखा था । साफ था कि वह उज्जैनी का रहने वाला नहीं था, नहीं तो फौरन पहचान जाता हूँ । ऐसे विशाल व्यक्ति को एक बार देख कर कौन भूल सकता था । रघुनाथ कुछ तय नहीं कर पा रहा था कि वह क्या करें । आखिर उसने निश्चय किया कि वो उनके पास जाकर कुछ खाने पीने को मांगे और उनसे कहीं की वो रास्ता भटक कर यहां पहुंचा है । यह सोचकर वह झोपडी की ओर बढने लगा । झोपडी के बाहर वह दोनों लडकियाँ खेल रही थी । उन्होंने जब एक अंजान व्यक्ति वहाँ के देखा तो घबराकर शोर मचाती हुई है । झोपडी में जा खुसी । उनका हल्ला सुनकर प्रमिल जा और वह विशाल व्यक्ति तुरंत बाहर निकले । मेरा नाम रघुनाथ । उसने अपना परिचय देते हुए कहा अच्छा मैंने तुम्हारा नाम सुन रखा है । तुम तो बहुत अच्छे वास्तुकार हो । हाँ मैं ये काम करता हूँ । विशाल का व्यक्ति मुस्कुराया और कहने लगा मेरा नाम रामगुप्त है । कभी मैं अंगदेश का राज कुमार था । अब केवल एक लकडहारे का जीवन बिता रहा हूँ । क्यों बहुत रोचक कहानी है? मैं अपने पिता को गड्डी से उतारने का षड्यंत्र रच रहा था और मैं अपने इस काम में लगभग सफल भी हो गया था । लेकिन तभी एक ऐसी बात हुई कि मैं सबको छोडकर यहाँ चलाया । ऐसी क्या बात हुई, एक साधु से मेरी भेंट हो गई । उसने मुझे ज्ञान दिया कि सांसारिक सुख वैभव की लालसा कितनी है । उस महापुरुष के उद्देश्य मैं मनुष्य के जीवन की अस्थिरता को पहचाना । उसने मुझे आवागमन का भेज समझाया । पहली बार ये सब बातें जानकर मुझ जैसा दृढ व्यक्ति भी कम था । मेरे मन में घबराहट पैदा हो गयी और मैंने निश्चय किया कि सब दावपेंचों और षड्यंत्र चक्रों को छोड कर कहीं और जा वसूलेगा । इस तरह मैं यहाँ आया तो तुम काफी समय से यहाँ हूँ । हाँ काफी दिन हो गया लेकिन अब मैं यहाँ से और कहीं नहीं जाना चाहता हूँ । ये जगह वैसे तो बहुत अच्छी है लेकिन सुरक्षित नहीं है । यहाँ चोर डाकू बहुत आते हैं इसलिए हर समय सैनिक घूमते रहते हैं और मुझे काफी परेशानी होती है । दो बदमाशों को तो मैं जान से भी मार चुका हूँ । उन्होंने मेरी पत्नी को जबरदस्ती उठा ले जाने की कोशिश की थी । इसके अलावा कई लुटेरे मेरी ओर से डर कर भाग चुके हैं । इसी तरह इधर उधर की बातें करते हुए वो एक दूसरे के बहुत निकट आते गए । आपस का संकोच धीरे धीरे खत्म होता गया और दोनों में दोस्ती हो गई । अब रघुनाथ लगभग हर रोज वहाँ जाने लगा । दोनों लडकियाँ भी उससे काफी हिल मिल गई । प्रमिल जा भी उसका अपने भाई की तरह सरकार उसे इस बात का जरा भी बताना था की किसी समय रघुनाथ उसे प्रेम करता था । रघुनाथ ने कभी उससे इस बात की चर्चा नहीं की । वो उस से रोज मिलने ने और बात कर लेने भर से ही संतुष्ट था । रघुनाथ और रामगुप्त गहरे दोस्त बन चुके थे । दोनों ने एक दूसरे से अपना कोई भेज छिपाया नहीं । यहाँ तक कि रघुनाथ ने उसे अपनी कहानी सुनाते हुए अपने प्रेम की बात भी बता दी थी । लेकिन रामगुप्त ने इसका जरा भी पुराना माल । उसने कहा देखो जीवन तो एक तरह की होड हैं । जो भी साहस करता है वहीं बाजी मार ले जाता है । इसीलिए मैं तुमसे ज्यादा सौभाग्यशाली रहा । फिर रामगुप्त ने उसे अपनी सारी कथा सुनाई । वो बोला उन दिनों में यहाँ अकेला रहता था । बिल्कुल मस्त बेपरवाह लेकिन हर तरह से खुद ही अपने पिता का राज्य छोडकर जीवन में पहली बार मुझे सही मानसिक संतोष मिला था और मैं धीरे धीरे अपना पुराना जीवन भूलता जा रहा था । मैं सत्य को जानना चाहता था और उसी साधना में अपना जीवन बिता रहा था । इसी तरह की शांत दिनचर्या में जब कभी मेरा मन एक रस्ता से खूब नहीं लगता तो मैं कहीं घूमने निकल जाता है । एक बार इसी तरह घूमता हुआ में शहर जा पहुंचा । वहाँ मैंने पहली बार तो मिल जा को देखा है । वो कुछ रुका । फिर उसने कहा वो मंदिर से पूजा की थाली लिए लौट रही थी । मुझे लगा जैसे वो कोई अप्सरा हो और मेरे मन में अजीब सी उत्तेजना पैदा होने लगी । उस रात में उसके घर की दीवार फांदकर उसके कमरे में जा पहुंचा । मुझे देखकर वह भयभीत हो गई । लेकिन मैंने उसे आश्वासन दिया की मैं कोई चोर डाकू नहीं हूँ । मैंने उसे अपने बारे में सब बाते बताई लेकिन उसे मुझ पर विश्वास नहीं हो रहा था । फिर भी मैं अपनी सच्चाई पर खडा रहा । मैंने उसके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा तो उसने मुझे बताया कि इस काम में कितनी रूकावटें हैं । खास तौर पर उसके पिता उन की ओर से स्वीकृति मिलना बहुत कठिन था । मैंने उससे कहा कि वो मेरे साथ भाग चले लेकिन ये बात उसने नहीं मानी । आखिर कोई उपाय न देखकर मैं परेशान मन से वापस लौट आया । अपने घर लौटकर मेरी परेशानी और बढ गई । आखिर कुछ दिनों बाद मैं फिर से मिलने गया । उसका चेहरा भी बहुत उतरा हुआ था और वह काफी उदास लगती नहीं है । मुझे उससे सहानुभूति हो गई । मैंने कहा सुनो अगर मेरे यहाँ आ जाने की वजह से तुम्हें दुख होता है तो मैं फिर कभी नहीं आऊंगा । इस पर वह सिसकने लगी और आंसू बहाती हुई बोली, अगर तुम यहाँ कभी नहीं आना चाहते तो मुझे भी अपने साथ ले चलूँ । मैं तुम्हारे बिना जीवित नहीं रह सकती हूँ । मेरा मन पिघल उठाऊँ । मैंने उसे अपने कठोर जीवन के बारे में बताया और कहा कि उसे मेरे साथ रहकर बहुत तकलीफ उठानी पडेगी । लेकिन वो उसी तरह आंसू बहाती रही है और कहने लगी जहाँ तुम हो वही मुझे स्वर्ग है । उस रात में उसे घर से भगा लाया । मुझे पता चला कि उसकी बहुत खोज हो रही है । मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ । मैं वहाँ से किसी दूसरी जगह नहीं जा सकता था क्योंकि लोग चारों तरफ हमारी तलाश में घूम रहे थे । हम भगोडों की तरह छिपे हुए यही जीवन बिता रहे थे और अब तक यही है । रघुनाथ ने उसकी कहानी सुनकर कहा, अब तो कोई चिंता की बात नहीं है । वो मामला कभी का खत्म हो चुका है और तुम्हारे बारे में लोग बिल्कुल भूल चुके हैं । ये बात सुनकर रामगुप्त के मन में किसी दूसरी जगह जाने की इच्छा और भी तेज हो । वो रघुनाथ से कहने लगा रघु अब मैं यहाँ से कहीं दूर चला जाना चाहता हूँ । कहीं शांत सी जगह वहाँ जाकर में अपना घर बनाऊंगा । मैं चाहता हूँ की तो मुझे उसके लिए एक अच्छा सा नमूना बनाता हूँ । रघुनाथ ने नमूना बनाकर उसे दे दिया । एक वर्ष बीता ही था कि एक दिन रामगुप्त वहां से चल दिया और इस तरह अचानक गया कि जाते हुए अपने दोस्त रघुनाथ को भी बता नहीं दिया । उस समय वो यहाँ अजंता आया था और तब से अब तक यहीं है । खिडकी से बाहर देखते रामगुप्त ने अपनी नजरें बद्रीनारायण की तरफ घुमाई । बद्रीनारायण ने देखा कि एक हल्की सी मुस्कुराहट उसके होठों पर चमक रही हैं । उसके मन में ये जानने की उत्सुकता हुई कि यह व्यक्ति वहाँ खडा खडा क्या सोच रहा है । लेकिन फिर भी बद्रीनारायण ने कुछ पूछना उचित न समझा हूँ । रघुनाथ बहुत अच्छा आदमी था । रामगुप्त ने धीरे से कहा मेरा कितना मन होता है, उसे पता चल जाए कि मैं यहाँ हूँ । लेकिन कभी मैं सोचता हूँ कि उसे पता न चलना ही अच्छा है । यहाँ क्या करते हैं? बद्री नारायण ने पूछा, मैं अध्ययन मनन करता हूँ । बौद्ध धर्म का अध्ययन करते हैं? नहीं । धर्म में मुझे ऐसी विशेष रूचि नहीं है । मैं तो सत्य की खोज करना चाहता हूँ । ऐसा ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ जो सत्य के मार्ग पर ले जाए । इसीलिए अब इतने वर्षों की साधना के बाद मैं ग्रंथ लिख रहा हूँ । आपने वो ग्रंथ लिख लिया या नहीं । अभी तक आधा लिखा गया है । मुझे भी दिखाएंगे आप? हाँ क्यों नहीं आओ मेरे साथ मेरी बैठक में वो दोनों उठकर दूसरे कमरे में आ गए । ये एक छोटा सा हवादार कमरा था जिसमें चारों ओर हस्तलेख ओं और मोटे मोटे ग्रंथों से अलमारियाँ भरी हुई थी । दीवारों पर आसपास के सुरम्य दृश्यों के चित्र बने हुए हैं, जो शायद प्रेम आने बनाए थे । बहुत अच्छी जगह है । बद्री नारायण ने प्रशंसा भरे स्वर में कहा रामगुप्त के होट धीरे से ही ले शायद उसने हाँ । फिर वो अपने ग्रंट की पांडुलिपि बद्रीनारायण को दिखाने लगता हैं । बद्री नारायण ने भोजपत्रों को खोला और उन पर लिखा हुआ लेख पडने लगा । इस ग्रंथ में दर्शन, कला और आध्यात्म के विषयों पर विचार किया गया था । वार्ता बहुत उच्च कोटि की नहीं । बद्रीनारायण बीच बीच से पन्ने पलट कर देखता रहा हूँ । उसे समाधि के विषय पर लिखा लेख बहुत अच्छा लगा । रामगुप्त ने समाधि में चित्र की चार स्थितियां मानी थी और हर एक के बारे में अलग से विचार किया था । पहली स्थिति उसने वैराग्य की मानी, जिसमें मनुष्य अपने मन की शून्य की खामोशी में जा पहुंचता है । दूसरी स्थिति एकाग्रता की थी, जबकि चित्र का संबंध सब इंद्रियों से छूट जाता है । तीसरी स्थिति उस आनंद की थी जिसमें असीम शांति का राज्य होता हैं और चौथी स्थिति समाधि की थी, जिसमें साधक अनहद नाथ को सुनता है । आपके विचार बहुत गहरे हैं । बद्री नारायण ने कहा, तो मैं अच्छे लगे । जी हाँ मैं समझता हूँ कि अगर ये ग्रंथ पूरा पढ सका तो मुझे भी वही शांति और सुख प्राप्त हो जाएगा जो आप को प्राप्त हैं । इसी पूरा करने के बाद में तो मैं पडने के लिए दूंगा । धन्यवाद बद्रीनारायण । फिर ग्रंथ के पन्ने पलटने लगा । कला के अध्याय पर आकर वो रुका और बीच में एक जगह से पडने लगा । लिखा था की कला मन की अनुभूति से जन्म लेती है और सौंदर्य को व्यक्त करती है । यही नहीं रामगुप्त ने कलाकार की विशेषताओं की चर्चा भी की थी । आपने बहुत गहरी अध्यन किया है । आपका ज्ञान देखकर मुझे अपनी हीनता का पता चलता है । बद्री नारायण ने कहा किसी ने कितना अधिक पड रखा है इससे क्या अन्तर पडता हैं । सबसे बडी बात तो ये है कि किसी में सत्य को पानी की लगन कितनी है । मनुष्य सबके जीवन कैसे बता सकता है । मन से सच्चा रहकर कहने का मतलब है कि किसी वस्तु पर तुम्हें चाहे कितना में विश्वास होगा लेकिन जब तक तुम उस के विषय में पूरी तरह जान नहीं लेते उसका सत्य मन पर नहीं जानता । लेकिन कई बार ये सत्य मन को कष्ट पहुंचाता है । उसका कारण ये है कि मनुष्य अपने मन से सत्य नहीं होता । तभी कमल कुमारी ने कमरे के अंदर झांका और फिर उन्हें वहाँ देख अंदर आ गई और बोली, पिताजी खाना तैयार है । माँ कह रही है कि आप आकर खा लीजिए । रामगुप्त उठा और कमरे से बाहर चला गया । जाते हुए दरवाजे पर जरा रुककर वो बद्रीनारायण से कहने लगा हम अपनी बातचीत फिर किसी समय जारी रखेंगे । आज की वार्ता काफी अच्छी रही । सच पूछो तो मैंने बहुत समय के बाद किसी से आज इतनी लम्बी बात हैं ये कह कर वो चला गया । कमल कुमारी अभी तक कमरे में पिता के जाने के बाद उसने अचानक बद्रीनारायण से का प्रेम से नाराजगी मत रखिए । वो आप को बहुत पसंद करती है । जब भी घर आती है आपकी बात करती रहती है । बद्रीनारायण ने कुछ अनमने ढंग से अपना सिर हिला दिया । कमल उसे चुप देखकर कमरे से जाने लगी तो बद्रीनारायण ने कहा कमल सुना है तुम बहुत अच्छा गाती हूँ । कभी मुझे अपना गाना सुना होगी । कमल शर्मा गई । धीरे धीरे बोलिए । हाँ सुना दुनी और फिर कमरे से चली गई । बद्रीनारायण उठा और बडी बैठक में चला गया । थोडी देर में कमाल अपनी वीना लिए हुए आई और तख्त पर बैठे उसने वीणा के तार मिलाये और आलाप छेड दिया । उसकी आवाज बहुत साडी हुई थी और स्वर में एक ऐसी मिठास और नोज थी जो किसी को जन्म से ही मिलती है । इस समय वह राग बागेश्वरी के स्वर छेड रही हैं । जरा देर से कमाल की माँ और रामगुप्त थी । वहाँ कर बैठे और कमल का गाना सुनने लगी । कमाल ने हालात के बाद ध्रुपद की तीव्र ले में रात समाप्त किया तो कुछ देर तक कमरे में एक कापटी हुई सी खामोशी तैरती रही । फिर धीरे से बद्रीनारायण बोला वाह! वाह क्या गला पाया? ऐसा लग रहा था जैसे इस संगीत की धुनें मुझे उठाकर बादलों पर तेहरा रही हैं । एक बहुत ही आनंद भरे शून्य में उसकी बात का कमाल ने कोई उत्तर नहीं दिया । सिर्फ उसके चेहरे पर हल्की सी लालू बद्री नारायण ने उसकी माँ की ओर देखते हुए कहा अब मुझे काफी देर हो चुकी है । आज्ञा दीजिए, मैं चलूंगा । विदा लेकर वहाँ से चला है । अगले दिन बद्रीनारायण चित्रशाला में बैठा आचार्य पद मदद का भाषण सुन रहा था । नम्र और शांत स्वभाव वाले आचार्य पद मदत आपने गंभीर स्वर में इस समय कला की साधना के विषय पर बोल रहे थे वो कह रहे थे, मैं आप लोगों को पहले भी बता चुका है की कला की साधना से मन शुद्ध होता है । काला मनुष्य की भावनाओं को उज्जवल करके उसकी आत्मा को निर्मल करती है । मन एक दर्पण की तरह है जिस पर इंद्रियों की लालसा से धुंधलाहट आती है । कला की साधना से ये विकार दूर होता है और एक उज्ज्वल दृष्टि मनुष्य को मिलती है । वास्तव में कला का जन्म ही मनुष्य के निर्मल और शांत मन से होता है । शुद्ध मन की कल्पनाएं एक लाइन और रूप में बंद कर काला कहलाती है । कला की साधना भी एक प्रकार का योग है । कलाकार की भावना विकसित होकर अंत में ध्यान या समाधि की कोटि पर जा पहुंचती, इसे आनंद की स्थिति कहते हैं । काला मन की सौंदर्य भावना है । ये ऐसी समदृष्टि है जिससे मनुष्य संसार को उसके वास्तविक रूप में देख पाता है और उसमें न केवल उत्तम रचना की बल्कि संसार को बदलने की भी शक्ति उत्पन्न हो जाती हैं । मैं आप लोगों को बता चुका हूँ की कला के छह होते हैं, उन्हें याद रखना बहुत आवश्यक है । लेकिन मैं समझता हूँ कि आप लोगों में से शायद ही किसी ने श तंग याद किया । मैं चाहता हूँ कि आप में से हर एक रोज शैतान दोहराया करें । ये कहकर आचार्य ने अपने सामने बैठे छात्रों को ध्यान से देखा हूँ और फिर अचानक प्रेमानंद से पूछता हूँ प्रेमानंद तुम्हें शैतान याद है? हाँ आचार्य प्रेमानंद ने उठकर आदर भरे स्वर में कहा बद्रीनारायण! उसे कुछ अनमनी आंखों से देखने लगा । अच्छा तो चुनाव

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Sound Engineer

जीवन का लक्ष्‍य क्‍या है? इस सवाल ने उपन्‍यास के मुख्‍य पात्र बद्रीनारायण को बहुत ज्‍यादा विचलित कर दिया था। प्रेम कुमारी का प्‍यार और आचार्य का वात्‍सल्‍य भी बद्रीनारायण की बेचैनी को कम नहीं कर सका बल्कि दिन ब दिन यह बढ़ता ही गया। बद्रीनारायण खुद को अजंता के भित्ति चित्रों के निर्माण में खुद को झोंक देता है। उसे लगता है कि उसने जीवन का लक्ष्‍य पा लिया। क्‍या सच में बद्रीनारायण ने जीवन का लक्ष्‍य पा लिया था?
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