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अजंता - 2.1 in  | undefined undefined मे |  Audio book and podcasts

अजंता - 2.1 in Hindi

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जीवन का लक्ष्‍य क्‍या है? इस सवाल ने उपन्‍यास के मुख्‍य पात्र बद्रीनारायण को बहुत ज्‍यादा विचलित कर दिया था। प्रेम कुमारी का प्‍यार और आचार्य का वात्‍सल्‍य भी बद्रीनारायण की बेचैनी को कम नहीं कर सका बल्कि दिन ब दिन यह बढ़ता ही गया। बद्रीनारायण खुद को अजंता के भित्ति चित्रों के निर्माण में खुद को झोंक देता है। उसे लगता है कि उसने जीवन का लक्ष्‍य पा लिया। क्‍या सच में बद्रीनारायण ने जीवन का लक्ष्‍य पा लिया था?
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पाठ समाप्त होने के बाद सभी शिष्य उठकर चलती है । बद्रीनारायण उनके साथ न जाकर आचार्य के पास गया और उन्हें प्रणाम किया । आचार्य ने शांत भाव से उसकी ओर देखा । बद्रीनारायण को लगा जैसे उन आंखों के पीछे असीम शांति का एक सागर है जिसकी लहरें हर तरफ फैलती जा रही है । तुम नहीं आए हो क्या नाम है तुम्हारा । हाँ गुरदेव कल ही आया हूँ । मेरा नाम बद्रीनारायण है । आज तुम कक्षा में थे । क्या तुम चित्रकला सीखना चाहते हो? हाँ गुरुदेव चित्रकला और मूर्ति कला भी तुमने पहले कुछ अभ्यास किया है । कुछ कुछ । मैंने उज्जैनी में शिक्षा प्राप्त की है उज्जयनी में वो तो कला का सर्वश्रेष्ठ विद्यालय तो मैं काफी ज्ञान होना चाहिए । तुम्हें मुझसे पाठ लेने की आवश्यकता नहीं है । आप अच्छी तरह समझाते हैं । मैं कुछ और सीख जाऊंगा, लेकिन मैं तुम्हें लक्ष्मीदत्त से अधिक कुछ नहीं सिखा सकता । क्यों ठीक बात है ना, वो सबसे अधिक प्रतिभाशाली । आचार्य आपको कैसे पता चला गुरूदेव की मैंने आचार्य लक्ष्मीदत्त से शिक्षा प्राप्त की है । उज्जैनी के विद्यालय में पिछले बीस वर्ष से वही आचार्य बहुत सिद्ध विद्वान है और भला भी आप उनसे परिचित हैं । आचार्य पद मदत मुस्कुराते हुए बोले, होना तो चाहिए वो मेरा भाई बद्री नारायण ने श्रद्धा से सर झुका लिया । उसने इस बार आंखें उठाई तो उसे लगा कि आचार्य पद्मा दत्त का चेहरा आचार्य लक्ष्मीदत्त से बहुत मिलता है तो भी दोनों भाइयों के आदर्शों में कितना अंतर था । लक्ष्मीदत्त कलामे शक्ति और वेग का उपासक था, लेकिन पद्मा दत्त की कला में हवा के झोंकों सी दबी दबी सरसराहट थी । लक्ष्मीदत्त का प्रखर व्यक्तित्व दूसरे पर छा जाता था लेकिन पद मदत एक छाया की तरह सहज था । आचार्य पद मदत के पास आकर बद्रीनारायण को अजीब सी शांति का अनुभव हो रहा था । एक ऐसा अपार आनंद जिसमें मानवीय आकांक्षाओं और सांसारिक ऊंचनीच मैं तोहीन लगती थी । काम आरंभ करने से पहले बिहार देखो आओ मेरे साथ आओ । किसी को यहाँ घुमाने में मुझे विशेष आनंद आता है । आप की कृपा है । गुरु बद्रीनारायण ने तो ऐसा कर का आचार्य पद मदद उसे संघ चाहती ले गए । इसके सामने की ओर एक हवादार गोल छज्जा था जिसकी शानदार सजावट की तारीफ करते ही बनती नहीं । छज्जे में बने हुए सतोन शिल्पकारी की बेहतरीन मिसाल थे । इसमें एक आयताकार बडा भवन था जो पीछे की ओर गोलाई में था । भवन के बीच में मंडप बना हुआ था । और दोनों लंबाई क्यों की? दीवारों के साथ साथ नक्काशीदार संतुलनों की कतारों से दो बेटियाँ बनी हुई थी । सब दोनों के ऊपर रैकेटों के सहारे एक लम्बा चौडा छत्र बना हुआ था जो पूरे मंडप के ऊपर छाया हुआ था । भवन के अंतिम भाग में एक बडी चट्टान से बने चबूतरे के ऊपर खडे हुए बुद्ध की एक विशाल मूर्ति थी । सब दोनों दीवारों और छत पर बने वजह लेखों और चित्रों को बद्रीनारायण अचंभि की नजरों से देखा था । ये हमारा उपासनागृह हैं । हम प्रात और संध्या यहाँ इकट्ठे होते हैं और लूटपाट करते हैं । कभी कभी यहाँ आचार्य विज्ञानानंद का उपदेश भी होता है । वो बहुत सिद्धपुरुष, धीरे धीरे तो उनके बारे में जान जाओगे । फिर वो बद्रीनारायण को अंगुलिमाल बिहार ले गए । इस बिहार की सात सजा बहुत अनूठी थी और यहाँ की एक एक चीज चुनी हुई थी । भारी गोल गोल सपनों पर जो ऊपर की ओर सुख हो जाते थे, बहुत बारीक नक्काशी की गई थी । इन सब दोनों के ऊपरी सिरे पर जहाँ पे छत से मिलते थे, कमल के तीन फूल बने थे । इन पत्थर के फूलों में ऊपर और नीचे के कमरों की पत्तियां खुली थी और बीच वाला कला की तरह गोल था । बिहार के अंदर एक खुला आंगन था । इस बिहार में चौकोर भवन की चार दीवारों में गलियारे फूटते थे जिनके साथ साथ भिक्षुओं के रहने के लिए दस कोठरियां बनी हुई थी । इस बिहार में भी बुद्ध की एक बडी प्रतिमा थी और इस की जोडी और द्वार पर बहुत सुंदर नारी मूर्तियों की शिल्पकारी थी । वो दोनों बाहर निकलकर द्वार के पास आकर खडे हुए और सामने फैले हुए वन का दृश्य देखने लगे । उनके पास से ही वा गोरा के बहने की हल्की हल्की आवाज सुनाई दे रही थी जो कहीं कंदराओं के नीचे से बहती हुई अब सतीकुंड की ओर जा रही थी । मुझे लक्ष्मीदत्त के बारे में बताऊँ । पद्मा दत्त ने उससे पूछा वो बहुत कठोर साधा है । कभी कभी तो उनकी साधना देखकर मुझे डर लगने लगता था । उन्होंने अपने अंदर सारा भी दुर्बलता नहीं आने दी है । अपने शरीर को रात वासना से मुक्त रहने के लिए उन्होंने विवाह तक नहीं किया । लेकिन चित्रकला में स्थित है भी बहुत महान पुरुष । वो लोग उन के बारे में बताते हैं कि बचपन से ही उनके अंदर एक अनोखी सतर्कता झगडती थी । उनके हाथ में कोई अलौकिक शक्ति है । उनके चित्रों में एक अनूठी प्रतिभा है । उज्जैनी की राजकुमारी उनसे प्रेम करने लगी थी, लेकिन उन्होंने राजकुमारी का इतना तिरस्कार किया कि उसने उनसे बदला लेने की कसम खा ली । ये मैं नहीं कह सकता कि वो किस तरह का बदला लेना चाहती थी या उसने बदला ले भी लिया की नहीं । जब तक मैं वहाँ था तब तक तो कोई ऐसी बात नहीं हुई थी । बात की मैं कह नहीं सकता हूँ । असल में उन्होंने कभी भी स्त्रियों को अपना शिष्य नहीं बना । उनका अनुशासन बहुत कठोर है और वह कट्टर ब्राह्मण मैं बहुत । वो इसीलिए मुझसे बहुत झगडा करता है । आचार्य आपने धर्म क्या बोला, मैंने धर्म नहीं बदला । धर्म ने मुझे बदल दिया । बस अचानक ही मैं बहुत हो गया और यहाँ चलाया । इसे यूज ही मन की तरह खेलो । लेकिन एक बात जरूर है जब से मैं यहाँ आया हूँ, मैं बहुत सुखी । यहाँ मुझे खुशी नहीं धर्म बदलने से आपके परिवार वालों ने तो काफी बुरा माना होगा । भुला नहीं । एक विपदा टूट पडी । लेकिन अपने पूर्वजों के आदर्शों के अनुसार ही तो हमेशा जिंदगी नहीं बताई जा सकती । कभी कभी अपने मन की बात भी करनी पडती है । मेरे पिता भाई, दूसरे सगे संबंधी कोई भी मुझे मुक्ति नहीं दिला सकते । तथागत ने तभी तो कहा है अपने निर्माण के लिए स्वयं सदर करूँ । बात समाप्त करके वे वहां से चल दिए और शिल्पशाला में आप पहुंचे । यहाँ एक शिल्पाचार्य अपने शिष्यों को शिल्प की शिक्षा दे रहा था । वहाँ से चलते हुए वे पहाडी पार करके दूसरी ओर वस्तु शाला में आ गई । यहाँ थोडे से शिष्य वास्तुकला सीख रहे थे । उससे आगे वे दोनों आयुर्वेद शाला में पहुंचे । यहाँ एक लंबा तगडा व्यक्ति मृगछाला पहने औषधियां तैयार करने के ढंग सिखा रहा था । उसके आस पास कई साधु बैठे औषधियों को खरल कर रहे थे या जडियों को कूटकर अजीब अजीब से काढे तैयार कर रहे थे । ये एक छोटा सा आदर्श विश्वविद्यालय था । बद्रीनारायण इसे देख कर बहुत प्रसन्न हुआ । उसे ये समाज बहुत अच्छा लगा जहाँ वो अचानक या पहुंचा था । उसने इरादा कर लिया कि वह अब यहाँ से कभी नहीं जाएगा । मैं इस जगह आकर और यहाँ का होकर कितना सुखी हूँ की बता नहीं सकता । बद्री नारायण ने आचार्य पद मदत से कहा ये जगह तो मैंने बस जाती है । बाद में बद्रीनारायण की उस लडके से फिर मुलाकात हुई जिसे यहाँ आते ही सबसे पहले वो मिला था तो मुझे अच्छे लगते हूँ । बद्रीनारायण नहीं उसे कहा मैं तुमसे दोस्ती करना चाहता हूँ । ठीक है यहाँ संघ में हम एक दूसरे के मित्र हैं । मैं तुम्हें किस नाम से पुकारूं? प्रेमानंद मैं बद्रीनारायण हूँ । तुम यहाँ क्या? आप काफी समय से हूँ नहीं । बहुत ज्यादा समय नहीं हुआ । मैं यहाँ चार वर्ष पहले आया था । भाग कर आए थे । नहीं भाग कर क्या ये सारे लोग तुम्हारे ख्याल से कहाँ से आए हैं? प्रेमानंद के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कुराहट उभरी और उसकी आंखों में एक शरारत सी चमकने लगी । वो बोला जहाँ से सब आते हैं बद्रीनारायण को खांसी आ गई हूँ । मैं तो यही पूछ रहा था । उसने हसते हुए कहा प्रेमानंद भी खिलखिलाकर हंस दिया । उसकी हंसी से उसका भोला भाला चेहरा और अधिक आकर्षक हो गया । हाँ हाँ, कोई बात नहीं पूछने से पता चलता है । प्रेमानंद ने कहा नहीं बात ये थी कि सभी समाज से दूर यहाँ पहाडी इलाके में इतने सारे लोगों को देखकर हैरानी सी होती हैं । बद्रीनारायण ने समझाते हुए कहा, लेकिन जिस सबके समाज की तुम बात कर रहे हो, हम उस से बहुत अधिक सकते हैं । यहाँ हम नगर बस्ती से अलग रहते हैं, लेकिन हमने उनसे बिल्कुल ही नाता नहीं तोड लिया है । अक्सर हम पास के गांव और शहरों में जाते रहते हैं । यहाँ सब लोगों का निर्वाह कैसे होता है? पीने का पानी वाघोडा से मिल जाता है लेकिन खाने को पास पडोस के प्रांतों से आता है । वहाँ से कौन भेजता है? राजा वाक अटक भेजता है और कौन भेजेगा? वो हमारा संरक्षक है । उसके अलावा कुछ और धनी लोग भी हैं जो दान के रूप में सहायता करते हैं । यहाँ रहते हूँ । मन, वचन और कर्म से पवित्र जीवन बिताने और सदर करने के लिए इतने संयम से जीवन बिताते हूँ । हम से आशा की जाती है कि हम पूरे संयम से अपना जीवन बताएं लेकिन फिर भी कई बार हमसे चूक हो जाती है । पूर्ण केवल बुद्ध हैं और कोई फोन नहीं हो सकता हूँ । लेकिन ये चित्रकला और सिर्फ ये क्या हूँ ये तो मात्र साधन है । हम अपनी साधना को चित्रों का रूप दे रहे हैं । कला की रचना साधना का ही ढंग है । इससे मन को एकाग्र करने का तरीका आता है तो उन्हें जातक कथाओं के चित्र देखें जो दीवारों पर बने हुए हैं । मैं नहीं जानता कि जातक कथाएं क्या होती है तो तुम बौद्ध नहीं हो । फिर भी इस अज्ञान के दोष से तो मुक्त नहीं हो सकते तो सीखना चाहिए तो उनसे खिलाओ के मुझ से क्या सीखना चाहता हूँ तो मुझे बहुत अच्छे लगते होंगे । धन्यवाद लेकिन मुझ जैसे से सीखना ठीक नहीं होगा । मेरा ज्ञान तो बहुत कम है । तुम आचार्य विज्ञानानंद से कहूँ या कभी देवपाल से कहो वो पूरी तरह विस्तार से तो मैं समझा सकेंगे । अच्छा तुम रहते किस बिहार में हूँ बुद्ध विहार में और तो अभी तक मुझे किसी बिहार में नहीं भेजा गया है । मैं आचार्य विज्ञानानंद से कहूंगा कि वह मुझे तुम्हारे बिहार में ही भेजते हैं तो मुझे वाकई बहुत पसंद करते हो । ऍम और दम साफ दिल के हो । मैं भी तो मैं पसंद करता हूँ लेकिन आचार्य विज्ञानानंद के बजाय तो मठाधीश प्रभु घोष से बात करूँ । बिहार और खान पान का काम उन्हीं के अधीन है तो तुम्हारी बात मान जाएंगे । अक्सर इस तरह की बात कोई नहीं कहता हूँ लेकिन तुम ध्यान नहीं हो और अभी तो मैं कुछ भी पता नहीं । शायद वो मान जाएं तो ज्योतिष्शास्त्र पढे हुए हो । हाँ थोडा बहुत तब ठीक है वो तुम्हारे काम आएगा । प्रभु घोष को भी ज्योतिष में बहुत रुकी हैं और वो हमेशा ग्रहों के बारे में बात करते रहते । अगर तुमने उनके ज्योतिष्शास्त्र संबंधी ज्ञान की तारीफ कर दी तो तुम्हारा काम बन जाएगा । धन्यवाद । मैं ऐसा ही करूंगा और वो दोनों अलग अलग चल दिए ।

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जीवन का लक्ष्‍य क्‍या है? इस सवाल ने उपन्‍यास के मुख्‍य पात्र बद्रीनारायण को बहुत ज्‍यादा विचलित कर दिया था। प्रेम कुमारी का प्‍यार और आचार्य का वात्‍सल्‍य भी बद्रीनारायण की बेचैनी को कम नहीं कर सका बल्कि दिन ब दिन यह बढ़ता ही गया। बद्रीनारायण खुद को अजंता के भित्ति चित्रों के निर्माण में खुद को झोंक देता है। उसे लगता है कि उसने जीवन का लक्ष्‍य पा लिया। क्‍या सच में बद्रीनारायण ने जीवन का लक्ष्‍य पा लिया था?
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