Made with in India
बद्रीनारायण एक बिहार से दूसरे बिहार एक चर्च ऐसे दूसरे चाहते रामगुप्त को घुमाता रहा हूँ । रामगुप्त ने उन विषयों पर चित्र देख रखे थे । लेकिन उसने जो बुद्ध और प्रलोभन चित्र देखा तो स्तब्ध रह गया । मैंने इस चित्र के विषय में सुना था तुमने इस चित्र को बनाने में बहुत परिश्रम किया है । तुम्हारी आत्मा का कल उस खुल गया हूँ, जब मैं ये चित्र बना रहा था । उस समय विचित्र से घुटन थी । मन में चित्र पूरा होने पर वह घुटन नहीं रही । मेरे अंतर में शांति लौटाएं । जैसे आत्मा का कल उस खुल गया हूँ । रामगुप्त बद्रीनारायण की ओर स्थिर दृष्टि से देख रहा था । लेकिन जो आप तुमने क्या वो अक्षम में था? मुझे क्षमा नहीं चाहिए । मैंने बहुत यंत्रणा भोगा ली है । अब मैं तब तक कटस रहकर जीवन जीना चाहता हूँ, जब तक की मृत्यु आ जाए । इससे अधिक और कोई काम ना नहीं करता हूँ । उसने रामगुप्त को बुद्ध की मूर्ति भी दिखाई । इस सब से पता चलता है कि तुम ने उस पाप के लिए कितना प्रायश्चित किया है । इस मूर्ति में भव्य समझता है बद्री, तुम वास्तव में बहुत बदल गया हूँ । बद्री नारायण ने शतरंत जातक भी दिखाया । उसने भू स्पर्श मुद्रा में बुद्ध की मूर्तियां, अपनी पत्नी और पुत्र से भिक्षा मांगते हुए बुद्ध का चित्र आदि भी दिखाए । अंतिम चित्र को देखकर रामगुप्त पूछने लगा इस चित्र में तो क्या व्यक्त करना चाहते हूँ । मैं क्षमा याचना कर रहा हूँ और अनिश्चित हूँ कि क्षमा मुझे मिल पाएगी या नहीं । इस चित्र में मेरे इस भाव की अभिव्यक्ति हुई है । क्षेत्र से एक अर्थ और भी निकल सकता है । माँ शिशु को फुसला रही हैं कि वह पिता से उत्तराधिकार मांगे, अपने पुत्र को मैं उत्तराधिकार क्या दे सकता हूँ । मेरे पास तो मेरा पास ही है । तुम उसे अपना पश्चाताप और उदारता दे सकते हो । मंत्री अपने पाप के लिए तुम दुख बहुत होंगे । तुम्हारा पुत्र क्यों? लेकिन वो मेरी संतान है, ठीक है लेकिन तुम्हें उसका पालन पोषण अन्य विधि से करना होगा तो मेरा पुत्र मुझे दे दो, अभी नहीं । जब वो थोडा बडा हो जाए तो तुम उसे अपने साथ ले जाना । जिस तरह भी चाहूँ उसका पालन पोषण करना है । जब रामगुप्त अजंता से घर लौटा तो उसका चेहरा खेला हुआ था । उस ने अध्ययन कक्ष में जाकर भोजपत्र और लेखनी उठाकर लिखना आरंभ कर दिया । वो बहुत देर तक लिखता रहा भोजन के लिए प्रेमकुमारी और माँ उसे बुलाने आई तो वह लिखने में व्यस्त था । उसमें सिर उठाया और कहा हूँ काम मिल जा । मनुष्य पापों से मुक्त होने के बाद सद्मार्ग पर अग्रसर होता है । संसार का यही नियम है । मैंने बद्री को क्षमा कर दिया । मैं प्रसन्न हूँ । दोनों चुप खडी रही । लोग एक बडी संख्या में अजंता की ओर आ रहे थे । अत्याचार और हत्याओं से बचने के लिए वो सुरक्षित स्थल की खोज करते करते यहाँ पहुंचे थे । खून ज्वालामुखी के लावे की भर्ती भारत पर छा गए हैं । सब कुछ नष्ट भ्रष्ट करते हुए वो आगे बढ रहे हैं । उत्तर के अनेक राज्य ध्वस्त हो गए । बलात्कार, लूट और मृत्यु सब तरफ हाहाकार मचा हुआ है । खून भयानक व्यक्तियों की तरह बढाएं । आए हुए जनसमूहों में घबराए हुए लोग ऐसी अनेक बातें कर रहे हैं । भोजन के अभाव में भी बहुत कमजोर हो गए थे । इन शरणार्थियों की सेवा में तत्काल अनेक भिक्षु जुड गए । लेकिन ये शरणार्थी अपने साथ एक विचित्र रोक भी ले आए थे । ये था है जे का रुक भिक्षु । इस प्रकार के रोग से अभी तक अपरिचित थे । लोग वमन और माल करते करते चेतना खो बैठे । वे भाई और पीडा से कराते और जल की कमी के कारण उनकी सांस उखडने लगती है । हर प्रकार की औषधि का प्रयोग किया गया, लेकिन कोई लाभ नहीं हुआ । लोगों को रूप से बचाने के लिए कुछ व्यक्ति स्वयं इस रोग के शिकार हो गए । प्रेमकुमारी उनमें से की थी । बद्रीनारायण प्रेमकुमारी के निकट बैठा उसे बचाने के प्रयास में लगा रहा हूँ तो उसका अमन और माल अपने हाथों से साफ करता है । प्रेमकुमारी सन्निपात की स्थिति में थी और अपने मस्तिष्क पर नियंत्रण रखने में असमर्थ थी । उसकी सांसे रुक रुककर चल रही थी । गोपी कुमार इस रोग के अतिरिक्त और कोई रोक क्यों ना होगा? गोपी कुमार क्रोध में बडबडाया प्रेमकुमारी धीरे धीरे मृत्यु की ओर सरक रही थी । कभी उसकी स्थिति जरा अभी स्थिर होती तो वह भर्राई आवाज में बद्री से कहती है बद्री! मैं तो मैं छोड कर जाना नहीं चाहती । मैं तुम से प्रेम करती हूँ । मुझे आपने चित्र में मरनासन्न राजकुमारी कि आकृती पूरी करनी है । बद्री मेरा वह चित्र भी पूरा नहीं हुआ है । उसने उठने का प्रयत्न किया लेकिन दुर्बलता के कारण वो उठा सकें । बद्री मुझे सहारा दो । अपनी बाहों में समेट लोग मैं तुम से प्रेम करती हूँ । बद्री बद्रीनारायण विकसित सा होता था । एक सप्ताह तक प्रेमकुमारी की यही स्थिति रही और अंत में वो मर गयी । बदरीनारायण उसे उठाकर बागोरा के तट पर ले आया । चिता में आग लगाई गई । लपटें धीरे धीरे उठने लगता है । फिर प्रेमकुमारी का शरीर लखनऊ में खो गया । बद्रीनारायण को लगा जैसे उसके भीतर की कोई वस्तु मर गई है । उसकी आंखों में आंसू नहीं थे । हृदय, मस्तिष्क और आत्मा सब सूख गए थे । कहीं किसी प्रकार की तरलता नहीं थी । जब वह प्रेमकुमारी के घर इसकी सूचना देने के लिए पहुंचा तो वहाँ उसे रोग में घूमती हुई कुछ दुर्बल आकृतियां दिखाई पडी । अपने पुत्र को बचाओ रामगुप्त कहने लगा उसे ले जाओ । उसी में हम अपना जीवन पालेंगे । कमल कुमारी के मुंह से एक शब्द भी ना निकला । वो इतनी दुर्बल हो गई थी कि हाथ भी नहीं उठा सकती थी । वो केवल उसे घूमती रही । अचानक उसकी माँ जोर से चीखी और विलाप करने लगीं । फिर एकदम संज्ञाहीन हो गयी । बद्रीनारायण की आंखों से आंसू निकल आए । उसने बच्चे को उठाया और नदी में स्नान कराकर बिहार ले आया । गोपी तो मेरा पुत्र बचाना ही पडेगा । उसके चीखते हुए स्वर से चिकित्सक चौंक उठा । लेकिन अपने प्रयत्नों की असफलता और परिश्रम ने उसे बहुत क्लांत कर दिया था । मैं क्या कर सकता हूँ? उसने कहा कुछ भी करूँ, मेरे पुत्र को बचाओ तो मेरा पुत्र बचाना ही पडेगा । भरसक प्रयत्न करूंगा । बद्री बद्रीनारायण अपने पुत्र के पास बैठा रहा भिक्षु नई नई जडी बूटियों की खोज में लगे रहे हैं । हर बूटी का प्रयोग किया गया लेकिन सफलता ही हाथ लगी । तब अचानक एक विचित्र पौधा उन्हें मिल गया । इस पौधे की पत्तियों से एक अजीब सी गंदा रही थी । ये हमेशा हरा रहने वाला कौन था और इसके बीच और फल बहुत भर देते हैं । ये धीरज का पौधा था । पौधे को उखाडकर उन्होंने सत्य निकाला और उसमें जैतून का तेल मिलाकर रोगियों पर उसका प्रयोग करना शुरू किया है, जो धीरे धीरे मिटने लगा । रोगियों की स्थिति ठीक होने लगी । रोगियों की स्थिति ठीक होने पर उन्हें उबला हुआ दूध और भाग दिया गया । उनका स्वास्थ्य सुधरने लगा । बद्रीनारायण का पुत्र भी स्वस्थ हो गया । जिस गति से रोक आया था, उसी गति से लौट गया । लेकिन इस विभीषिका में कुछ व्यक्ति ही शेष रहे हैं । रामगुप्त के परिवार में केवल रामगुप्त ही बच्चा वो अजंता आ गया और एकाग्र होकर अपने ग्रंथ को पूरा करने में व्यस्त हो गया । बद्री नारायण ने मरनासन्न राजकुमारी वाले चित्र को पूरा करने का निश्चय किया । प्रेमकुमारी का विंबलडन अभी भी उसके हृदय में था । मरणासन्न अवस्था में पडी हुई प्रेमकुमारी की वो क्लांत छवि बद्रीनारायण भूल नहीं पाया था हूँ । बद्रीनारायण की मनोदशा एक ऐसे लूटे हुए यात्री किसी थी जिसका लक्ष्य हो गया हो । आचार्य विज्ञानानंद से ये सब छिपा नहीं था । उन्होंने उसे चित्रशाला का अध्यापक बना दिया । आचार्य पद मदद की परिपाटी के अनुसार वो अपने शिष्यों को चित्रकला की शिक्षा देने लगा । मूर्तिकारों, वस्तु, कलाकारों और चित्रकारों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही थी । आचार्य विज्ञानानंद नहीं, बिहार को विस्तृत करने की आवश्यकता महसूस की । पहाडी का दक्षिणपूर्वी भाग इस विस्तार के लिए चुना गया । नए चर्चों और नए विहारों पर निर्माण आरंभ हो गया । वास्तु कलाकारों ने एकत्र होकर अपना योग दिया । पास के गांवों और नगरों से राजा के आदेशानुसार श्रमिक भी आ गए । हथौडों और कुदाल । ओके शोर से वातावरण में जीवन सा आ गया । धीरे धीरे चट्टानें निकाल दी गई और समतल धरातल निकल आया । वी तियां और स्तंभ उभरने लगे । छोटे छोटे कक्ष चट्टानों में ही काटे गए और उनमें पथरीली शैयाओं का प्रबंध किया गया है । बडे बडे विशाल कक्षों में स्तंभ, आसन और अनेक सुंदर खम्बे बनाए गए । वस्तु कलाकारों का कार्य पूरा होने पर दूसरे व्यक्तियों की बारी आई । छतों, दीवारों और दरवाजों पर चित्रकारों ने चित्र बनाने आरंभ किए । बुद्ध और मोदी सत्र की मूर्तियों का निर्माण हुआ हूँ । सारा स्थल उत्साह और जीवन से रखने लगा । इस सौन्दर्य और प्रसन्नता से भरे वातावरण में आचार्य विज्ञानानंद और बद्रीनारायण व्यक्त आनंद में डूबते उतरते रहे । विज्ञानानंद की तेजस्विता हूँ, हत्प्रभ हो गई और बद्रीनारायण वृद्ध हो गया था । उसके बाद सफेद हो गए थे और उसके चेहरे पर झुर्रियां भराई थी । देवपाल और गोपी कुमार आयु बीतने के साथ साथ दुर्बल हो चले थे । वेंकन्ना प्रभु खोश आज नहीं आदि जर ग्रस्त होकर मृत्यु की गोद में सो चुके थे । ये शेष भिक्षु धुंधले होते अतीत को देख रहे थे और अनिश्चित भविष्य की ओर दृढ कदमों से बढ रहे थे । बद्रीनारायण का पुत्र इन्हीं भिक्षुओं के बीच पडा हुआ है । उसका नाम कमलानंद था । कला के क्षेत्र में उसकी शिक्षा बाल्यकाल से ही आरंभ हो गई थी । वो स्वयं ही दीवारों पर टेडी मेडी आकृतियाँ खींचता रहता था । पत्थरों के टुकडों पर छह नहीं हथोडे मारता रहता हूँ । शीघ्र ही उसके हाथ में तो लिखा देती गई । जब होलिका से थक जाता तो छह नहीं हथोडी संभाल लेता हूँ । उसने यक्ष और यक्षिणियां चित्रित करना आरंभ किया । फिर जातक कथाएं चित्र की पिता के प्रशिक्षण में पुत्र बडी लगन से कार्य सीखने लगा । बद्रीनारायण को आचार्य की उपाधि से विभूषित किया गया । बद्रीनारायण बहुत लोकप्रिय और सम्मानित आचार्य था । विज्ञानानन्द के बाद हर व्यक्ति सबसे अधिक उसी को चाहता था । शिष्य अपनी अपनी मानसिक उलझनें, छोटे छोटे कष्ट और अनेक बातें लेकर उसके पास आते हैं और उससे परामर्श लेते । वो नदी वाले चित्र के दर्शन से ही उनकी समस्याओं का समाधान करता हूँ । उसके होठों पर एक गंभीर मुस्कान रहती है और स्वप्निल दृष्टि कहीं दूर उस पार देखती होती है जो वृक्षों से देखते हैं । उन्हें वह बोधि सतरस्ता दिखाई देता हूँ । वह सदैव नदी तट पर घूमता था, लेकिन अब उसके हृदय में वेदना नहीं, गहन संतोष और शांति थी । वो अतीत को भूल चुका था । निर्माण के विषय में मनन करते हुए उसकी स्थिर दृष्टि दूर क्षितिज पर टिकी रहती । शांत मन के अखण्ड मौन का अनुभव इससे पूर्व उसे कभी नहीं हुआ था । कभी कभी कमलानंद, उसके पास आ पहुंचता पिता पुत्र अनेक विषयों पर बातें करते हैं । बुद्ध चित्रकला मूर्तिकला हूँ । नदी निर्माण और महत्व के गुड सत्य स्थानों, महान पुरुषों आदि के बारे में दोनों बातें करते हैं । कभी कभी रामगुप्त दिया जाता हूँ लेकिन वह चुप चाप बैठा रहता है और पिता पुत्र का वार्तालाप सुनता है । उसके होठों पर संतोष की मुस्कान होती है । कभी कभी गोपी कुमार और देवपाल भी आ जाते हैं और अतीत और भविष्य के विषय में बातें करते उनके स्वरों में न कोई कठोरता थी और न किसी प्रकार का पश्चाताप । अचानक बद्रीनारायण एक दिन सृजन के लिए व्याकुल होता था । उसके हाथ रंगों को छोडने के लिए मचलने लगे । उसने अपने जीवन के सबसे शक्तिशाली चित्र का अंकन प्रारम्भ किया । उत्तेजनात्मक स्थिति में उच्च चित्र पर जुटा रहा है और जब तक चित्र पूरा नहीं हुआ वो चैन से नहीं बैठा । इस चित्र में बडी विशाल आकृति लयात्मक ढंग से चित्रित की गई थी । सुंदर रंगों और मंजी हुई अभिव्यक्ति चित्र का प्राण थी । बुद्ध का मुख्य आभासित दीप था ब्रेड वोट शांत, गहन आंखें, तेजस्वी, मस्तक, लंबे, काले केश । कंधों पर बिखरे हुये सिर पर मुकुट था, जिसमें सुंदर हीरे जडे हुए थे । कमर एक लाइन में झुकी हुई थी जैसे नृत्य की मुद्रा में हूँ, गाये हाथ में चरित्र की शुद्धता का प्रतीक नीलकमल था । उच्च परिवार के संस्कार, दृढ चरित्र, धार्मिक स्वभाव और युवावस्था की सभी विशेषताएं इस चित्र में आंकी गई थी । चित्र में करुणा, प्रेम और बौद्धिकता का समन्वय सजीव हो उठा था । गंभीरता शांति और आंतरिक संतुलन का प्रतीक है । रचित चित्र में मुख्य आकृति के चारों ओर अनेक स्त्रीपुरुष राजा और प्रजा श्रद्धा और प्रेम के भाव से चुके खडे थे । पृष्ठभूमि में भारती भारती की वनस्पतियां थी । अशोक और ताड के वृक्षों के पत्ते ऐसी सजीवता से आगे गए थे कि वो वास्तविक प्रतीत होते थे । चित्र पूरा होने पर वो आचार्य विज्ञानानंद, रामगुप्त देवपाल और गोपी कुमार को चित्र देखने का निमंत्रण देने गया । ये मेरी अंतिम कृति है । आचार्य विज्ञानानंद धीरे धीरे दूसरे व्यक्तियों का सहारा लिए आए । चित्र देखने पर सभी की आंखों में जमा को भराई और हृदय आनंद से भर गए । चित्र देखकर वे सब कुछ भूल गए । बद्री अब तो मैं और चित्रा आंकने की आवश्यकता नहीं । आचार्य विज्ञानानंद बोले, तुम्हारे संपूर्ण जीवन की उपलब्धि ये चित्र हैं । हमारी आस्था बुद्ध और उनके शिष्यों में अटूट रही हैं, लेकिन तुम नहीं उस आस्था कुछ दिया है । हमने आस्था तक ही सीमित रहकर जीवन बिता दिया लेकिन तुम ने उसे अनुभव किया होगा । तुम सौभाग्यशाली हो । बद्री बुद्ध तुम्हारे लिए प्रतीक मात्र नहीं बल्कि एक जीवंत व्यक्तित्व है । तुम हो मैं अपना मस्तक नमन में झुकाता हूं । रामगुप्त ने श्रद्धा से गदगद होकर कहा बद्री! कला का मूर्त प्रतीक है ये चित्र संगीत लाये रेखाओं का सहज प्रवाह । त्रिपाक्षिक प्रभाव उत्पन्न करने के लिए मूर्ति कलात्मकता भंगिमा युक्त और नृत्य की गरिमा से मंडित कला का उच्चतम बिन्दु है ये चित्र । इतनी प्रशंसा उचित नहीं बद्री नारायण ने कहा । गोपी कुमार ने बद्रीनारायण के कंधों पर हाथ रख दिया । वो चुप था, लेकिन कंधे पर उसकी पकट बताती थी कि वह भी भावनाओं से अभिभूत है । अचानक देवपाल गाने लगा । वो सृजन के प्रेरक आनंद प्रदान कर रहे हैं । वो विजय को शांति देने वाले सुंदरता प्रदान कर वो संसार का दुख दूर करने वाले शान्ति प्रदान कर वो शांति के प्रेरक संतुष्टि प्रदान कर हम तेरी शरण में है, तेरे सामने घुटने देखते हैं । वो हम शरणम् अच्छा भी हम्म । शरणम् अच्छा, ये संघम् शरणम् अच्छा! बहुत देर तक नीरवता छाई रही । क्या नाम दोगे इस चित्र में अंकित खुद करूँ । विज्ञानानंद ने पूछा है अवलोकितेश्वर पद्मपाणि उचित नाम है । इस बिहार का नाम भी पद्म पानी यहाँ रहेगा । इसके कारण अजंता महान कहलाएगी और सभी को इससे प्रेरणा मिलेगी । चट्टान के सिर पर खडा बद्री अपने अतीत पर दृष्टि डालने लगा । बागोरा से संबंधित हर स्मृति है । बिना किसी प्रकार की भावना जगाए मन से गुजर गई । अनेक चित्र आंखों के सामने कौन है? लेकिन अंतर में कुछ भी नहीं हुआ । अपने पिता और उनके आदर्शवाद को उसने स्मरण किया । एक एक करके स्मृति पटल पर अनेक आकृतियां आकर गुजरने लगी । लक्ष्मीदत्त उज्जैन की कुमारियां उत्तेजनापूर्ण जीवन एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकना । आगमन प्रेमानंद जो वास्तव में प्रेमकुमारी थी, कमल कुमारी और उसकी नृत्य, उसका पागलपन, आचार्य पद मदद की कला, शिक्षा, पुस्तक लिखते हुए मौन अवस्था में काम को भयानक रोग का प्रसार, प्रत्येक प्रिया और परिचित की मृत्यु, श्रृंगार करती हुई स्त्रियों वाला चित्र, युद्धरत साढे आनंद और मरनासन्न, राजकुमारी बुद्ध को प्रलोभन वाला चित्र पद्मपाणि, उसका पुत्र कमलानंद धीरे धीरे सब कुछ स्मृति पटल से ओझल होता गया । वो खडा रहा हूँ उसकी दृष्टि, चट्टानों, कंदराओं, गहरे खड्डों और घाटियों पर प्रपातों के गिरते हुए जल पर फिसलती नहीं दूर झुका हुआ आकाश पर्वत के उभरे हुए आकार, वनस्पतियों का हरापन सबकुछ आनंद में सुखद वातावरण प्रस्तुत कर रहा था वो संतुष्ट था । धीरे धीरे सांस हो रही नहीं । सूर्य अस्त हो गया वो वहीं खडा । गहरे सोच में डूबा नदी का दर्शन शांति से उत्पन्न प्रसन्नता उसके प्रिय मित्र और उसका नहीं है । अंधकार धीरे धीरे चारों तरफ छा गया । उसी अंधकार में खडा तो दूर क्षितिज के पार देखने लगा हूँ । उसके लिए समय रुक गया था ।
Producer
Sound Engineer