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राजनीति के रंगमंच पर विदेश में रहते हुए भी सुभाष स्वदेश की तत्कालीन राजनीतिक उथल पुथल से अनभिज्ञ थे । उनका मन और मस्तिष्क हर छह देश के विभिन्न समस्याओं के प्रति उत्सुक और जागरूक रहता । उन्हीं दिनों देशबंधु चितरंजनदास की एक मार्मिक अपील ने उनके रूम रूम को प्रभावित किया । अपील का सारांश किए था नवयुवक की तो देश के प्राण है । स्वतंत्रता संग्राम का पवन प्रयाण के योगदान पर निर्भर है । नवयुवकों कि संगठित शक्ति ही इस महायज्ञ को पूर्णता प्रदान कर सकती है । सुभाष ने अनुभव किया कि ये समय राष्ट्रीय चेतना जागरण का प्रारंभिक काल है । देश की स्थितियां परिस्थितियां भयानक जान जावाद से गुजर रही है । अंग्रेजों के क्रूर अत्याचार से भारतीय शुद्ध होते हैं । नवयुवकों के हृदय में क्रांति की चिंगारियां लगने लगी है । जालिया माना बाप के विभाग से हत्याकांड ने उदार हृदय भारतीयों को बाल पडने के लिए आंदोलित कर दिया है । इतना ही नहीं, सुभाष ने पंजाब को अपने ताजे घावों से बेचैन देखा । वहाँ की स्थिति अत्यंत चिंतनीय और रोमांचक थी । फॅार की क्रूर पैशाचिक वृत्तियों की छटपटाहट अभी पूर्व तथा विद्यमान कि भारतीयों की पीडित आत्माएं अपमान और संताप से झुलस रही थी । अभी राष्ट्रीय ब्रिटिश साम्राज्यवाद की निर्दयता मक्कारी को देख कर किंकर्तव्यविमूढ ही था कि सहसा एक दूसरा आघात लगा ऍफ का महात्मा गांधी देश के कोने कोने में घूमकर लोगों में आत्मबल जगाने लगे । नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में असहयोग आंदोलन का प्रस्ताव पारित हुआ । लोगों ने अपने सरकारी किताब लौटा दिए । वकील, मुक्तान, अधिवक्ता आदि ने कोर्ट कचहरियों को मरघट बना दिया और देश के नवयुवकों ने स्कूल कॉलेज जाने छोडती है । ऐसी स्थिति में बंगाल के बेताज बादशाह, स्वतंत्रता संग्राम के अग्रगामी योद्धा, महान राजनीतिज्ञ एवं कलकत्ता हाईकोर्ट सर्वश्रेष्ठ ॅ देशबंधु चितरंजनदास ने अपनी तिजोरी का मुंह खोल दिया । वो बंगाल का हरिश्चंद्र बनकर स्वयं कंगाल हो गया । देशबंधु ने अपना सब कुछ देश को अर्पितकर अनेक संस्थाओं के संचालन के साथ ही अंग्रेजों की हिंसात्मक कार्यवाहियों का विरोध किया । जिस किसी ने भी उन का प्रतिरोध किया, उसे उन्होंने आंधी की तरह अस्तव्यस्त कर दिया । वो शक्ति का साक्षात भंडार थी, जिसने देश के नवयुवकों के हृदय में विद्रोह और क्रांति की आग भडकाती । सुभाष देशबंधु के अतुलनीय व्यक्तित्व, महान चरित्र नायकत् और सेनापतित्व के आकर्षण में खींचते चले गए । उन्हें लगा कि देशबंधु हुई वह प्रकाशपुंज है, जो उनके पद का सही प्रदर्शन कर सकता है । सुभाष जैसे प्रवृत्ति को देशबंधु के प्रथम साक्षात्कार नहीं अभिभूत कर लिया । देशबंधु ने भी उनकी प्रतिभा को छत भर में पहचान लिया । देशबन्धु ने अनुभव किया की स्वतंत्रता संग्राम को चलाने के लिए जिस नवयुवक की आवश्यकता थी, वह सुभाष ही है । जो दशा रामकृष्ण परमहंस से मिलकर विवेकानंद की हुई थी, वही दर्शन सुभाष की चितरंजनदास से मिलकर हुई और सुभाष चितरंजनदास के नेतृत्व में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की समर भूमि में उतर पडे । देशबंधु ने उन्हें राष्ट्रीय विद्यालय बंगाल का प्रधानाचार्य नियुक्त किया । सुभाष इस महान उतरदायित्व को निष्ठापूर्वक निभाने के लिए जी जान से जुट गए । बेजवाडा में भारतीय कांग्रेस कमेटी द्वारा पारित प्रस्ताव के अंतर्गत जब देशबंधु ने सहस्रों राष्ट्रीय स्वयं सेवक तैयार किए तो उनके नेतृत्व किए है । जिस साहस, चरित्रबल और अनुशासन की आवश्यकता थी, वह केवल सुभाष में ही दृष्टिगत हुई और देशबंधु ने सुभाष बोस राष्ट्रीय स्वयं सेवक टोली का सेनापति बनाया । सुभाष ने डोली के नेतृत्व में अतुलनीय शौर्य एवं संगठन शक्ति का परिचय दिया । बंगाल सरकार उनके इस विशाल संगठन से घबराकर और सचिन विभिन्न करने के लिए राष्ट्रीय स्वयं सेवक संगठन गैरकानूनी करार दे दिया, क्योंकि सरकार ये जान गई थी कि ये संगठन प्रिंस ऑफ वेल्स के स्वागत का बहिष्कार करेगा । इस आगया को भंग करने के आरोप में सहस्त्रों नवयुवक जेल में दोस्ती स्वयं सुभाष को बंदी बनाकर अलीपुर जेल में रखा गया । राजनीति के रंगमंच पर प्रथम बार सुभाष गिरफ्तार हुए और उन्हें छह माह की सजा हुई ।
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