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Chapter 11 आध्यात्मिक जीवन की कला in Hindi

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Authorरमेश सिंह पाल
Apana Swaroop | अपना स्वरुप Producer : KUKU FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava Producer : Kuku FM Author : Dr Ramesh Singh Pal Voiceover Artist : Raj Shrivastava (KUKU)
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अध्याय ग्यारह आध्यात्मिक जीवन की कला जीवन कैसी चाहिए? ये प्रश्न शायद सदियों से मनुष्य के दिमाग में घूम रहा है और इसको लेकर अनेक महापुरुषों ने महात्माओं ने और स्वयं भगवान ने पृथ्वी पर आकर हमें बताया कि देखो हमें ऐसे देना चाहिए । लेकिन फिर भी ये सवाल अभी तक झुका क्यों बना हुआ है? इस सवाल के जवाब में मैं यहाँ पर कुछ तथ्य बताना चाहूंगा जो कि आध्यात्म और व्यवहारिक परिपेक्ष्य को साथ लेकर भगवान श्रीकृष्ण के द्वारा तथा अन्य महात्माओं द्वारा बताये गए हैं । हमारा संपूर्ण जीवन कैसे चलता है और आगे कैसे चलेगा ये पूर्ण तथा इस बात पर निर्भर करता है कि हमने अपने आप को क्या समझा है हमने । यदि आपने आपको स्त्री समझा है तो हमारे लिए संसार फिर दो भागों में बढ गया स्त्री और पुरुष । इसी प्रकार यदि हमने अपने आपको धनवान समझा है तो ये संचार फिर दो भागों में बढ गया । धनवान स्त्री, गरीब स्त्री, धनवान पुरुष, गरीब ऐसा करते करते हमने अपने आप को एक सीमित दायरे में बांध लिया । फिर हम जगत में वही देखते हैं जो हम देखना चाहते हैं । एक आदमी से ट्रेन की पटरियों के नजदीक रहता है । वह शोरगुल में भी अपने सब क्रिया कलाप करता है उसी शोरगुल में उसे नींद आती है परन्तु यदि उसे शांत वातावरण में कुछ दिन रहना पडे तो वह परेशान हो जाता है क्योंकि हम अपने स्वभाव के अनुसार जीवन जीते हैं । स्वभाव बनता है अपने स्वरूप पर संस्कारों की पर चढने से । जो भी क्रियाकलाप हम बार बार दोहराते हैं वो हमारे चित्र में संस्कार मेमोरीज के रूप में निशान छोडते हैं और ऍम काफी प्रगाढ हो जाते हैं तो इसी को हम लोग हैबिट स्वाभाव कहते हैं और हमारी पूरी जिंदगी हमारे स्वभाव के अनुसार चलती हैं । स्वभाव भी एक चेन प्रोसेस की तरह होते हैं । एक हैबिट के साथ कुछ मायने ऍम हमारे चित्र में आ जाते हैं और जब हमारी एक हैबिट बन गई तो फिर ये ऍम भी धीरे धीरे मेजर इम्प्रेशन का रूप लेकर दूसरी, तीसरी, चौथी हैबिट बनते रहते हैं । तो जो भी हम आज है या कोई भी जानवर पेड पौधे जो हम देखते हैं वे इस वक्त ऐसे केवल इनमें मेरी इसके कारण है । एक उदाहरण से समझने का प्रयास करते हैं । आप लोगों ने गेंदे मैरीगोल्ड के बीच देखे होंगे बहुत ही छोटे होते हैं । हम लोग ये भी जानते हैं कि गेंदे के फूल रंगों में कई तरह के होते हैं । यदि हम लाल रंग कि गेंदे का बीस तथा पीले रंग की गेंद का बीज आपस में मिला दे तो उनको देखकर अलग कर पाना बहुत ही कठिन है । क्योंकि दोनों एक जैसे हैं । लेकिन दोनों फूलों में जो कलेक्टर मैं मेरी है वो अलग अलग है, भले ही वो हमें दिखाई न दे पर दोनों में विभिन्नता है । यदि मनुष्य का उदाहरण लिया जाए तो हमने देखा है कि यदि एक आदमी के चार पुत्र है तो चारों भले ही देने से एक जैसे देखिए लेकिन इनमें जो कलेक्ट्रेट मैं मेरी संस्कार जिसको हम जीत भी कह सकते हैं वो अलग अलग है । यहाँ पर एक और बाद ध्यान देने वाली है कि हम अपने बच्चों को केवल देह प्रदान करते हैं । उस देह में रहने वाला दही जीवन निर्माण नहीं करते और न ही ये जीव ये निर्णय लेता है कि उसे किस देख के माध्यम से संसार में प्रकट होना है । तो कोई मिलाकर तीन बातों पर हमारा कुछ भी नियंत्रण नहीं है । इनको थोडा ध्यान से समझ गया पहला है कि ये जीव कौनसा देख धारण करेगा । क्या हम लोगों को जन्म के समय ये पता था कि अमुक अमुक हमारे माता पिता होंगे । दूसरा है ये जीव को जीवन में क्या क्या भोग सुख दुख मिलेंगे । जो आदमी ये कहते हैं फॅमिली पता था कि तुम्हें जीवन में क्या मिलने वाला है तथा तीसरा है देखो की मृत्यु ये जीविस देख को कब छोडेगा । यह भी निर्णय जीव नहीं लेता हूँ । एक बार की बात है । शाम को हमारा गीता चिंतन कार्यक्रम चल रहा था तो एक सत्तर पचहत्तर वर्ष के महानुभाव हमारे पास आए और बोले कि डॉक् सब कुछ दिनों से मुझे बहुत डर लग रहा है मृत्यु का और मैं सोचता हूँ कि मेरे मरने के बाद मेरे परिवार का क्या होगा? मैंने उन्हें अपने पांच बैठाया और बोला देखिए जिस चीज का होना निश्चित होता है हम उसके कारण डरते नहीं बल्कि उसके लिए प्रिपरेशन करते हैं । लेकिन अगर आप के मन में ये शंका कंफ्यूजन है कि मैं मरूंगा या नहीं तो मैं आपको गारंटी देता हूँ कि आप मरोगे क्योंकि आपने आपने हमको दे हम आना है । और हाँ, जहाँ तक बात है अब के नाती पोतों की तो आप एक बात बहुत स्पष्ट समझ लीजिए कि हमें ही लगता है कि संसार को या हमारे बच्चों को हमारी जरूरत है क्या जिन बच्चों के माँ बाप नहीं होते वो बढते नहीं । क्या कभी किसी ने ऐसा कहा है कि आर में चालीस साल का हो गया लेकिन अभी दो फुट का बच्चा ही हूँ क्योंकि बचपन में मेरे माँ बाप मर गए थे । हमें ही लगता है कि यह संसार हमारे कारण चल रहा है । जब मैंने ऐसा कहा तो महानुभाव नाराज होकर चले गए । देखो सच्चाई सुनने की ताकत हर किसी में नहीं होती और जो ये लोग डर डर की जीते हैं, ये सरासर भगवान का अपमान करते हैं । क्या भगवान कोई डरने की वस्तु है? भगवान ने भगवत गीता में साफ साफ कहा है, अमृत मृत्यु था सर सच्चा हमारी जान जीवन भी मैं ही हूँ और मृत्यु भी नहीं हूँ । सत्य भी मैं ही हूँ और असद भी नहीं हूँ । सबसे पहले अपने दिमाग में एक बात बहुत ही अच्छी तरह से बिठानी होगी कि सब कुछ वही है तथा वह और मैं अलग नहीं है । जिस दिन ये बात समझ में आ गई उस दिन यह प्रश्न स्वता ही मिट जाता है कि जीवन कैसे चाहिए क्योंकि जीवन हम नहीं जी रहे हैं । हमारे माध्यम से जीवन दिया जा रहा है लेकिन स्थिति हम लोगों में कहने मात्र से नहीं आएगी । ये केवल परमात्मा की अनुग्रह से ही आ सकती है और परमात्मा की अनुग्रह के लिए हमें थोडा लायक बनना पडेगा । थोडी मेहनत करनी पडेगी इस पुस्तक के माध्यम से यहाँ पर मैं कुछ बातें बताऊंगा जिसको यदि हम अपने जीवन में उतार सके तो अभी तक जितना भी इस पुस्तक में लिखा गया है यह सुलझाने का प्रयास किया गया है वह सार्थक सिद्ध होगा । अन्य था मैंने अपने हाथ की खुजली मिटाने के लिए पुस्तक लिख दी और आपने आपने जी वहाँ कि खुजली मिटाने के लिए उस तक पढ ली । पहला पहले में माता पिता जी शुरुआत करता हूँ । जब एक बच्चा पैदा होता है तो केवल वहीं पैदा नहीं होता । उसके साथ एक बाप पैदा होता है, एक मां पैदा होती है और अनेक रिश्ते पैदा होते हैं । इस देह पर प्रथम अधिकार माता पिता का होता है लेकिन माता पिता का अधिकार सिर्फ बच्चे की देख पर होता है, बच्चे की देख के स्वामी दही पर नहीं । इसलिए भ्रूण हत्या को एक पाप माना गया है क्योंकि देखो सिर्फ संचार में नहीं आ रहा है । उसके साथ दही भी अपने संस्कारों को भोगने के लिए संसार में आ रहा है । और आप भ्रूण हत्या करके इस प्रकृति के मार्ग में अवरोध उत्पन्न करते हैं । इसलिए कभी भी प्रकृति की क्रिया कलापों में अवरोधक उत्पन्न करने का कार्य ना करें । दूसरा जब बच्चा इस संसार में आता है तो माँ बाप को ये समझना चाहिए कि हम को इस कार्य के लिए चुना गया है । बच्चे को खूब प्रेम करे लेकिन ये बात हमेशा ध्यान रहे कि यह प्रेम आशक्ति में नाम बदल जाए, माता है, अपने बच्चों से इतना हो जाती है कि मेरा बच्चा सबसे अच्छा है लेकिन औरों के बच्चों से हमें क्या लेना देना? फिर अपने बच्चे को लेकर हम विभिन्न कल्पनायें करना शुरू कर देते हैं । ये हमारा कहना क्यों नहीं मानता? बडा होकर जाना नहीं है । क्या करेगा दूसरों के बच्चे ऐसा ये पढाई क्यों नहीं करता? और यही से दुख शुरू हो जाता है । तीसरा कभी भी बच्चों के कारण दुखी नहीं होना चाहिए क्योंकि जहाँ प्रेम है वहाँ तो दुख है नहीं और जहाँ आशक्ति है वहाँ सुख है ही नहीं । बच्चे को पांच छह साल की उम्र तक प्रेम करें, उसके द्वारा मातृत्व सुख का अनुभव करे और जब बच्चा सात साल का हो जाए तो उसे जीवन के बारे में थोडा बताना शुरू करें, उसमें डिसिप्लेन लाने का प्रयास करें । साथ बारह साल तक यदि बच्चे में डिसिप्लिन नहीं आया तो बच्चा कभी भी एक डिसिप्लिन जीवन नहीं जी सकता । इसके लिए बच्चे को दो बातें अवश्य सिखा है कि जीवन में हमें न सुनना आना चाहिए और ना कहना भी आना चाहिए जो अपने जीवन में ना सुन नहीं सकता और न ही नहीं सकता । को पूरे जीवन परेशान ही रहता है । चौथा जब बच्चा बारह का हो जाए उसको जीवन को पांच नेटली कैसे दिया जाता है ये बताना चाहिए । उसको किसी उच्च लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रेरणा दे । उसको जीवन में गोल निर्धारित करने को प्रेरित करें । गोल बहुत ही कि आध्यात्मिक कैसा भी हो सकता है । जैसा बच्चे का स्वभाव हो उसको कर्म करने की स्वतंत्रता प्रदान करनी चाहिए । तेरह साल से उन्नीस साल तक को हम टीनेज कहते हैं । इस समय धर्म, अर्थ, काम तथा इन सब का प्रयोजन केवल मोक्ष है ये बताना चाहिए । ये उम्र का वह समय होता है जब बच्चे को अपनी सबसे ज्यादा जरूरत होती है । इसलिए उसके लिए प्रेरणा का उदाहरण मैंने इस समय बच्चे जैसा घर में देखते हैं वैसा ही करते हैं । भगवान कहते हैं यदा यदा अ चाहती तक देवेंद्र योजना सैयद प्रमाणम् भरते लोहगढ अनुवर्तन थे । जैसा जैसा आचरण हमारे बडे जान करते हैं, छोटी भी वैसे ही उनका अनुसरण करते हैं । इसलिए अपने बच्चों के लिए एक श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करें । पांचवां इसके बाद जब बच्चों, नी सर उम्र पार हो जाए और आपके पैर का जो था उसके पैर में आने लग जाए तो उसके बाद वो आपका पुत्र या पुत्री नहीं रहे जाती । अब उससे आपका संबंध एक मित्र का होना चाहिए । जिस प्रकार एक अच्छे मित्र से हम लोग अपनी सभी बातों का आदान प्रदान करते हैं लेकिन उन से कोई उम्मीद नहीं करते, उसी प्रकार यदि आपका बच्चा भी आपसे बिना हिचक अपनी सभी बातें कर पा रहा है तो आप उसके मित्र है । तीन । खत्म होने के बाद कभी भी अपने निर्णय बच्चे पर थोपना इम्पोज नहीं करना चाहिए बल्कि उसके निर्णय का सम्मान करें । एरिया अपने अपना जीवन माता पिता के रूप में इस प्रकार दिया है तो इससे बडी कोई भी आध्यात्मिक साधना हो ही नहीं सकती । छठा अब हम उस बच्चे पर आते हैं जो बीस साल का हो गया है । बीस साल में मनुष्य का मस्तिष्क सही गलत अच्छा बोलेगा । निर्णय लेने के लिए समर्थवान हो जाता है । अब जीवन में आपको ये जानना है कि मैं किस तरह से क्यों हूँ । उसके लिए आपको धन चाहिए । धन के लिए अपना नौकरी, व्यवसाय कोई भी अपनी रुचि का कार्यक्रम है जिसको करने में आपको प्रसन्नता मिलती है । विराट अपने निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करें । अब आप को शादी करनी है या नहीं करनी है । पैसे कैसे कमाने हैं ये सब बताने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि पच्चीस साल तक आप के मन में इन चीजों का महात्मा इतना प्रगाढ हो चुका होता है । क्या पैसा कमाएंगे ही ये आपकी अभी तक आदि बहुत एक यात्रा है । इसमें आप तीन चीजों पर मुख्य कहा ध्यान देते हैं कि हमें चुस्त रहना है, मस्त रहना है और व्यस्त रहना है । अब हमें आज देवी क्षेत्र में प्रवेश करना है । इसके लिए पहले आप अपने स्वभाव को जानने का प्रयास करें । पूरे चौबीस घंटों में एक ऐसा घंटा निकले जिसमें केवल आप ही हो और आपके साथ कोई ना हो । ना ऑफिस का ना परिवार के सदस्य । आप इसके लिए एक कमरे में आराम से जमीन पर बैठ जाए और अपनी देख पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास करें । बाहरी जगत का कुछ ना सोचे बस यही सोचे कि ये देख क्या है? क्या इस देख के परेड भी कुछ है? ये देख और बाहरी जगत का क्या संबंध है? हम जीवित किस प्रकार है । जितने भी प्रश्न इस देह को लेकर जगत को लेकर आपके मन में आते हैं उन्हें एक डायरी में लिखे हैं । आप के मन में अगर एक के बाद एक और फिर अनेक प्रश्न आ रही है तो आप सही दिशा में हैं । ऐसा आपको तब तक करना है जब तक उन प्रश्नों को जानने की इच्छा आप के मन में प्रकट ना हो जाए । साथ ही साथ आप घर में एक जगह ऐसी चुने जहाँ पर आप किसी देवी देवता को विराजित कर सके । आपके परिवार में यदि पूजा पाठ करते हैं तो वहाँ पर बैठकर आप इस दुनिया को भूल जाए । केवल आपको और आपकी आराध्य देवी देवता अब रोजाना दस पंद्रह मिनट पूजा पाठ करें । अपना सभी कार्य यहाँ तक कि अपने लिए चाहे और कभी कभी सबके लिए खाना बनाये आध्यात्म कोई पार्ट टाइम जॉब नहीं है और ना ही भक्ति एक दिन में हिंदी में प्रकट होती है । एक बार ऐसे ही भागवत कथा का प्रसंग चल रहा था तो एक अम्मा जी ने मुझसे पूछा कि भागवत में तो बताया है कि अजामिल जोकि एक राक्षस प्रवृत्ति का मनुष्य था उसने केवल एक बार नारायण नाम लिया और वह भी ये जानकर नहीं की ये मैं भगवान का नाम ले रहा हूँ । उसने तो नारायण कहकर अपने पुत्र को बुलाया था तो भी उसका उद्धार हो गया तो हम भी बुढापे में क्यों ना भगवान को याद करने और मारते समय भगवान को बुखार ये । इस पर पहले तो मैंने उन अम्मा जी को प्रणाम किया और कहा कि आप धन्य हैं क्या? दिमाग पाया है आपने? मैंने अम्मा जी से कहा अम्मा की आपको ये अनुभव है कि मृत्यु के वक्त क्या अनुभव होता है । उन्होंने कहा नहीं मुझे नहीं पता । फिर मैं वहाँ से पूछा । फॅमिली के साथ ही कह सकती हूँ कि मरते वक्त सिर्फ भगवान का नाम ही आपकी वाणी और मन में होगा । तब वो हमारी सोचने लगी और बोली नहीं गारंटी के साथ तो कोई नहीं कह सकता । हमने कहा लेकिन मैं गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि आप अंतिम समय में भगवान के साथ एक होंगे । यदि जो मैं बता रहा हूँ उसको आप समझदारीपूर्वक जीवन में उतार हो । फिर मैंने उनको समझाया कि देखो जो भी हम इस वाणी से सुबह से शाम तक कुछ भी उल्टी सीधी बातें बोलते हैं । इसे बैखरी वाणी कहते हैं । हम लोग बैखरी वाणी में बोलते हैं, जो सर्वदा छोटी है । इस वाणी में सिर्फ शब्द प्रकट होते हैं, उनका अर्थ प्रकट नहीं होता । शब्द को पद भी कहा जाता है और ये बात जब इसके अर्थ के साथ जुडता है तो इसी को पदार्थ कहते हैं । जैसे उदाहरण के लिए मैंने कागज पर लिखा पत्थर और वह कागज किसी को फेंक कर मारा तो भले ही मैं उस कागज पर पत्थर लिखा लेकिन शब्द का अर्थ उसके साथ नहीं था । इसलिए जिसको मैंने कागज फेंक कर मारा उसको चोट नहीं लगेगी । परंतु जिसको मैंने कागज लेकर मारा था यदि उसने मुझे उस पत्थर का अर्थ जोकि पदार्थ है वह फिर कर मारा तो उसमें उसका और उसके साथ साथ उस शब्द का अर्थ भी नहीं है । तो सत्य वो शब्द है जिनके साथ उनके अर्थ भी जुडे होते हैं । मार लिया में ये कहता हूँ कि झूठ बोलना गलत बात है और स्वयं झूठ बोलता हूँ तो ऊपर मेरे स्वास्थ्य का कुछ प्रभाव नहीं पडेगा क्योंकि ये सिर्फ बैकरी वाणी है, शब्द है । पर शब्द का अर्थ बोलने वाले में ही प्रकट नहीं है तो उसका प्रभाव बाहर नहीं होगा । अब वाणी का दूसरा स्तर है मध्यम वाडी । ये मन की वाणी जब विचार मन तक तो आए और वहीं से आकर लौट गए ये मध्य मावाणी । तीसरी वाणी है पश्चिमी वाणी । इसको सिद्ध महात्माओं की वाणी कहा जाता है । इसमें शब्द और शब्द का अर्थ अलग अलग नहीं होते । इसलिए सिद्ध महात्मा लोग बहुत कम बोलते हैं । लेकिन जो भी वह बोलते हैं उस सत्य घटित होता है क्योंकि वह पश्चिमी वाणी में जीते हैं तथा अंतिम वाणी है परावाणी ये शब्द का उद्गम स्थान है । इसको परमात्मा की वाणी भी कहते हैं । जिस प्रकार गोमुख गंगा जी का उद्गम स्थान है लेकिन गोमुख में गंगा जी बिल्कुल शांत अपने स्वरूप में हैं । परावाणी तक मनुष्यमात्र की पहुंच केवल परमात्मा की अनुग्रह से ही हो सकती है । अपने प्रयास नहीं पर हिंदू पश्चिम दीवानी तक हम आसानी से पहुंच सकते हैं और इसके लिए एक बहुत ही आसान तरीका है । यदि हम अपने प्रत्येक साल से भगवान का नाम जोडने, जब भी साँस अंदर ले लूँ तथा बाहर छोडे शिव शुरू में हम भूल जाएंगे । लेकिन यदि सचेत रहकर यह क्रिया की जाए तो पांच छह महीने में भगवान का नाम बैखरी वाणी से मध्यम मानी में तथा उसके बाद तीन चार महीने में ये भगवान का नाम पश्यन्ति वाणी में रम जाएगा । कोई ये भी कह सकता है कि भगवान का नाम लेंगे तो ऑफिस का घर का कार्य कैसे होगा । देखो हम सांस ले रहे हैं तो ऑफिस का या घर का कार्य करने में कोई परेशानी हो रही है । उसी प्रकार आरंभ में कुछ दिन परेशानी अवश्य हो सकती है । लेकिन एक बार हमारी सांसों के साथ भगवान का नाम जुड गया तो जिस प्रकार आपकी सांसे चल रही है उसी प्रकार नित्य निरंतर ये भगवान का नाम भी हमारी आपकी सांसों के साथ चलेगा । पर आपके हृदय में परमात्मा के नाम का रस अपने आप प्रकट होने लगेगा । बिना किसी प्रयत्न, फिर चाहे मृत्यु कभी भी आए, आपके आखिरी स्वास्थ्य के नाम आपके साथ रहेगा । धीरे धीरे जीवन में एक संतुलन लेकर है । पहले आप के लिए आपका करियर ही सब कुछ था । अब आपको प्रोफेशनल लाइफ, पोर्सन लाइव तथा स्पेशल लाइफ के बीच कॉर्डिनेशन बनाना है और ऐसा तभी संभव है । जवाब एक वक्त पर सिर्फ एक ही आइडेंटी रखते हैं । जैसे हम घर पर है तो कभी अपने व्यवसाय अथवा नौकरी का कार्य घर पर डिस्कस ना करें और यदि ऑफिस में है तो घर की बातों को बीच में लाना है और ऐसा करते करते यदि भगवान का लोग रहा पर हुआ तो एक दिन अवश्य ही आपके मन से एक सवाल अवश्य आएगा कि क्या यही जीवन है या इससे ऊपर भी कुछ है । उस दिन समझ लेना कि आपने जो भी अब तक किया है ये सवाल उन सभी कर्मों का फल है । अब यहाँ से आपकी आध्यात्मिक यात्रा शुरू होती है । ये यात्रा ऐसी है जिसमें हमें कहीं जाना नहीं है । हमें इस यात्रा में लौट कराना है । स्वयं की ओर इस यात्रा में कुछ खोजना नहीं है । इसमें खो जाना है । स्वयं में इस यात्रा में कुछ पाना नहीं है । इसमें जो अभी तक पाया है उसे गवाना है । इस यात्रा में कुछ करना नहीं है बल्कि सभी कर्मों से मुक्त होना है । अगर हम लोगों ने यहाँ बताया गई प्रक्रिया के अनुसार जीवन दिया है तो हमारी समझ में आएगा कि आध्यात्म का मतलब घर छोडना, परिवार का त्याग करना, संसार से मुंह मोड लेना या संसार को भला बुरा कहना नहीं है । आध्यात्म केवल गलत धारणाओं को समाप्त करके अपने असली स्वरूप को लौटाना है । आध्यात्म हमें दो बातें सिखाता है कैसे जीना है और कैसे मारना है । जो सही ढंग से दिया नहीं वो सही ढंग से मार भी नहीं सकता । बहुत से लोगों से हमने कहते सुना है कि आध्यात्मिक खोज है खोज इसको थोडा समझते हैं खोज ये दो तरह की होती है एक जिसमें कोई वस्तु जो कहीं दूर हो गए हो उसको खोजने के लिए हमें कुछ कर्म करना होगा । इधर उधर भटकना पडेगा । डब जाकर शायद वस्तु हमें मिल जाये तथा दूसरी तरह की खोज वो है जिसमें वस्तु कहीं खोई नहीं है । परन्तु अज्ञान के कारण वह वस्तु बस ढक गई है वो हमारे पास ही है परंतु हमें उसका ज्ञान नहीं । जैसे एक उदाहरण से समझाते हैं मैं चश्मा पहनता हूँ । पहले कभी कभी मैं चश्मा को आंखों से हटाकर माथे के ऊपर सिर पर रख लेता था । एक बार मैंने ऐसे ही किया । फिर कुछ समय बाद ध्यान आया कि अरे मेरा चश्मा कहाँ गया? फिर चश्मे की खोज शुरू हो गई और जैसे ही मैंने अपनी माता जी से पूछा की मैं चश्मा देखा गया आपने तो वो बोली की तरह सर पर ही तो रखा है और देखा तो चश्मा कहीं खोया नहीं था । वो हमेशा मेरे साथ ही था बस उसका मुझे ज्ञान नहीं था । इसी प्रकार आध्यात्मिक हमारे अज्ञान को हटाने की प्रक्रिया है जिससे हम अपने वास्तविक स्वरूप में लौट सके । इस संसार में जो भी हम करते हैं वो हम ड्यूटी समझकर करते हैं लेकिन यदि वही कहा की हम डिमोशन के साथ करे तो ड्यूटी भी एक आध्यात्मिक साधना बन जाती है । हम लोग जब ड्यूटी करते हैं तो हम मनुष्यों का यूज करते हैं और वस्तुओं से प्रेम करते हैं । लेकिन जब हम डिवोशन के साथ जीवन जीते हैं तो हम वस्तुओं का उपयोग करते हैं ताकि हम मनुष्यों से प्यार कर सके । इसलिए कहा गया है डाॅॅ भगवान शंकराचार्य सपने की परिभाषा बताते हुए कहते हैं स्वप्न माने अन्यथा ग्रहण जो वस्तु जैसी है उसको वैसा ही ना देख पाना ये स्वप्न है तथा निद्रा माने तत्व अस्य अगर हम जो एक परमात्मा तत्व है उसको ना पकड पाना यही नेत्रा है । एक बार में कहीं पर ऐसे ही विधान के कुछ बडे बडे शब्दों के द्वारा लोगों को भ्रमित कर रहा था । हमारा लक्ष्य बिल्कुल साफ है । फॅस दोनों ही स्थिति में दूसरे का भला हो जाता है । जब मैं ऐसे मैदान की बातें बता रहा था तो एक पचास पचपन साल के महाशय बोले किए जो आप बता रहे हैं कि हमेशा खुश रहो और अपने सभी कार्य आज शक्ति के बिना करो । किसी से यहाँ तक कि अपने पुत्र से भी कुछ अपेक्षा नहीं करनी चाहिए । ये आम आदमी की जिंदगी में कैसे संभव है? मैंने उनसे पूछा कि सर आप का नाम जान सकता हूँ । उन्होंने कहा कि फरमान बंसल जैसे ही हमने उनका नाम चुनाव हमारे मुख से एकदम जय श्री राम निकल गया तो बदले में उन्होंने भी जय श्री राम कह दिया । हमने उनसे कहा कि अब भगवान राम को मानते हैं तो उन्होंने कहा हाँ जी बिलकुल तो मैंने कहा अब जो मैं बताने जा रहा हूँ उसको थोडा ध्यान से सुनना वाल्मीकि हमारे में आता है कि हर मान जी भगवान राम से कहते हैं कि हे भगवान देव बुद्धया तो दासो उसमें जीव बुद्धया पद मौसम आत्मबोध याद विवा हम तीस में निश्चित अनुमति ये जगत है ही नहीं । ये केवल रामलीला कृष्णलीला चल रही है और हम इसको इतना सत्य समझ लेते हैं कि जो भी जगत में हमको दिखाई दे रहा है, अनुभव आ रहा है वहीं परम सत्य है बहुत जगह जो हमको अनुभव में आता है । यह संपूर्ण जगह केवल एक प्रतिशत से भी कम है । बाकी सब आप भौतिक है । हमने उन महाशय से पूछा आपने कभी रामलीला देखी है? उन्होंने कहा हाँ देखी है । हमने कहा देखो चाहे रामलीला हो या कोई नाटक । सिनेमा उसमें दो पार्टियां होती है, एक होती है एक्टर लोगों की जो एक्टिंग करते हैं तथा दूसरी होती है । दर्शकों की जो एक्टर होते हैं एक्टर वो है । जिसे जो भी रोल दिया जाता है उसको बहुत ही बेहतरीन ढंग से करता है और रिएक्टर लोग उस नाटक में जो भी वह देखते हैं उसे सत्य मानकर होते हैं । बहुत समय पहले की बात है । उस समय मैं बहुत छोटा था पर मुझे आज भी याद है । उस समय हमारे घर में टीवी नया नया आया । एक दिन टीवी पर कोई फिल्म आ रही थी । उस फिल्म में कुछ लोग मिलकर एक आदमी को मार डालते हैं और बकायदा मरे हुए आदमी का दाह संस्कार भी हो जाता है । उन दिनों हमारे घर पर मेरी नानी क्रायन मदर आई हुई थी । वो ये फिल्म देकर बहुत परेशान हो गयी । हमने उनसे पूछा कि क्या हुआ? उन्होंने कहा कि देखो इस फिल्म के चक्कर में एक आदमी मर गया । अब उस की बीवी बच्चे का क्या होगा? मैंने नानी से कहा ये सब सच में नहीं होता है तो नाटक है तो आदमी नहीं मारा तो नानी ने कहा अरे कैसे नहीं मारा, उसको तो जला भी दिया और जो कहता है नहीं मारा । अभी तो बच्चे हैं तो मुझे मत बता । अमिताभ बच्चन चाहे दिल्ली में कुली की शूटिंग करेगा, दुबई में टीचर की, उसे पता है कि मेरा घर मुंबई है और मैं कहा करूँ चाहे मुझे कोई सा भी रोल दिया जाए, बस मुझे वो रोल बेहतरीन ढंग से निभाना है । यही हमारा जीवन है । जो जीवन को एक्टर की तरह जीता है । वो हर रोल बेहतरीन ढंग से करता है । बंदो किसी भी रोल के साथ चिपक ता नहीं । आप सभी लोगों ने रामायण देखी होगी । आप सभी लोग भगवान राम को पुरुषोत्तम कहते हैं । पता है क्यों? क्योंकि वह सभी पुरुषों में उत्तर मैं थे । उन्होंने हार रोल, फॅमिली प्ले किया परंतु कहीं छिप के नहीं । जब उनको पता चला कि रावन आएगा और सीताजी को लेकर जाएगा तो उन्होंने सीताजी से कहा कि आप अपना रूप तन्मात्रा अग्नि में छुपा दीजिए और सीता माता ने अग्नि में प्रवेश किया और फोटोकॉपी सीता माता बाहर आ गई । ये बात रामचंद्रजी और सीता माता को पता थी । रावण आया और रॉक सीता माता को ले गया और जब सीता माता चली गई तो भगवान ने कितनी बेहतरीन एक्टिंग की । ये खत हेम्बर्ग है । वृक्षों तथा अन्य वस्तुओं से रो रोकर पूछा । बिचारे हम जैसे अज्ञानी मनुष्य को लगा कि देखो रामचंद्रजी कितना प्यार करते हैं अपनी पत्नी को । लेकिन सत्य केवल भगवान राम ही जाते थे । इसी को कहते हैं भगवान की लीला । ये जगह भी भगवान की रंगभूमि है । यहाँ सब कुछ होता था, दिख रहा है परन्तु कुछ भी नहीं हो रहा है । ये जगह ऊपर से जो नाम रूप से ढका हुआ है, इसका यदि विश्लेषण करने लग जाओ तो आपको पता चलेगा कि इस जगह ऊपर से इतना उथलपुथल परिवर्तनशील दिखाई देता है । असल में इसके राजस्थान के रूप में परमात्मा शांत बैठा छिंगम जमा रहा है । जैसे समुद्र ऊपर है । भले ही कितना भी लहरों के कारण परेशान नजर आता है परंतु गहराई में बिल्कुल शांत लहरों से अनछुआ होता है । परंतु हमलोग जगत के नाम रूप को इतना सत्य मान लेते हैं कि उनसे हमारी दृष्टि हटती ही नहीं । अगर एक आध्यात्मिक जीवन जीना है तो कुछ बात हमें अपने गले उतारनी होगी । यहाँ पर कुछ बातें बताई जा रही है । आप इनका विश्लेषण स्वयम करो कि ये कैसे सकते हैं परन्तु ये मैं आपको गारंटी के साथ कह सकता हूँ कि यही सकते हैं । पहला हमारा जीवन चार वस्तुओं का एकीकरण है । ये चार अवस्थाएं हैं जाग्रत, स्वप्न सुन सकती और समाधि जिस प्रकार हम हर सपने में एक नए सपने पुरुष होते हैं उसी प्रकार हम रोज जाग्रत अवस्था में नए जाग्रत पुरुष होते हैं । दूसरा हम लोग दिन भर में कई बार निर्विकल्प समाधि में जाते हैं पर इंदु अज्ञानवश हमें पता नहीं चलता । तीसरा जो भी हम वाणी, मन और बुद्धि के द्वारा बोलते अथवा सोचते हैं वो सब झूठ है । चौथा आज तक सम्पूर्ण जीवन में कोई भी अनुभव हमने अपने बाहर नहीं किया है । इसलिए संपूर्ण संसार का अस्तित्व केवल हमसे है । पांचवां संसार में हमारा किसी पर कोई अधिकार नहीं है । जो भी हम करते हैं, जरूरत अपनी छठा जिसका त्याग नहीं हो सकता वो परमात्मा है और जो कभी पकड में नहीं आ सकता वह जगह है । सातवां एक मैंने एकता केवल अब उत्पादित है सत्य एक है । जिस ज्ञान, मस्ती और नासी प्रतिका ज्ञान होता है वह ज्ञान सत्य नहीं है । आठ बार आध्यात्मिक जगत में प्रश्न को संबोधित नहीं किया जाता । प्रश्न पूछने वालों को संबोधित किया जाता है तथा हमें प्रश्न का उत्तर मिलता है समाधान नहीं । समाधान हमें खुद खोजना पडता है । कितना हुआ कर्मयोग उपासना में मैं की मुक्ति की बात होती है परंतु ज्ञान और भक्ति में मैं से मुक्ति की बात होती है । दसवां अच्छाई का विमान बुराई के अभिमान से ज्यादा खतरनाक होता है । ये बताई गई दस बातें जिस दिन हम ने बचा लिया उस दिन आपको पता चलेगा कि जीवन केवल टाइम पास मात्र है और जो जीवन को टाइम पास के सिद्धांत से जीता है वही केवल जीता है । वरना हम सभी लोग तो केवल मरने के लिए ही जीते हैं । अब थोडा इस टाइम पास वाले सिद्धांत को समझ लेते हैं । एक बार एक आदमी ने चैतन्य महाप्रभु से पूछा कि हे भगवान ना आप हमेशा भगवान का नाम लेते रहते है, ऐसा क्यों करते हैं? इस पर चैतन्य महाप्रभु बोले कि अरे ये तो मैंने अब तक सोचा ही नहीं कि मैं ऐसा क्यों करता हूँ लेकिन तुमने पूछा है तो मैं बता देता हूँ । मैं ये सिर्फ टाइमपास करने के लिए करता हूँ । चैतन्य महाप्रभु को शायद अंग्रेजी नहीं आती थी तो उसको उन्होंने संस्कृत में कहा काल केवल निरंतर हम माने टाइमपास । इस संसार में टाइम पास के सिद्धांत के साथ जीना सबसे बडी आध्यात्मिक साधना है । आज तक बहुत से लोगों ने भागवत महापुराण की कथा कही और बहुत से लोगों ने सुनी । परंतु कोई भी वक्ता शुकदेवजी जैसा नहीं हुआ और कोई भी शुरू था राजा परीक्षित जैसा नहीं हुआ क्योंकि दोनों को ही भागवत केवल टाइम पास के लिए काहे नहीं और सुन्नी थी, कुछ करना नहीं था । ब्रह्मा जी को जब नारायण भगवान ने भागवा चुनाई तो वह सृष्टि निर्माण में व्यस्त हो गए । नाराज जी ने ब्रह्मा जी से कथा सुनी तो वे इसके प्रचार प्रसार में लग गए । लेकिन राजा परीक्षित को पता था कि सात दिन बाद तो मानना है ही । इसलिए पूरी कथा में ध्यान केवल तत्व पर ही था । पहला, जब भी कोई कार्य हम टाइमपास के सिद्धांत से करते हैं तो वहाँ पर मैं का निर्माण नहीं होता । मान लो हमलोग सभी सुबह सुबह अपने आप उठकर केवल टाइम पास के लिए घूमते हैं तो इससे मैं घूम रहा हूँ । ऐसा भाव का निर्माण नहीं होता । एक और अच्छा उदाहरण लेते हैं । एक बार हम सब परिवार किसी अपने रिश्तेदार के यहाँ गए तो ये महाशय तो नहीं थे लेकिन उनकी पत्नी और आठ साल की एक बेटी अगर पर थी हमारी धर्म पत्नी और भावी जी खाना बनाने में लग गए । लेकिन तीनों बच्चों ने हमें घेर लिया कि कैरम बोर्ड खेलते हैं । अब मुझे बहुत तेज भूख लगी थी तो मैंने कहा चलो टाइमपास हो जाएगा, खेल लेते हैं । खेल आधे में ही था । तभी अंदर से आवाज आई कि खाना तैयार है खाना खालो । हम ने बच्चों से कहा चलो खाना खाते हैं तो बच्चों ने हमें पकड लिया की नहीं, खेल पूरा करके ही जा रहे हैं । आप हार रहे हो इसलिए गेंद छोड रहे हो तो अब तो हम जीत कर ही दिखाएंगे । बाहर जी को लेकर बात करने लगे । अब इस घटना से हमने ये टाइम पास वाला सिद्धांत सीखा कि मैं खेल केवल टाइम पास के लिए खेल रहा था । इसलिए हार जीत को लेकर मेरे मन में कोई भाव नहीं था और ना ही उस हार जीत के कारण मैं सुखी दुखी होने वाला था । वहीं दूसरी ओर बच्चे लोग खेल हार जीत के लिए खेल रहे थे इसलिए उनकी सुख दुख उस खेल के साथ जुड गया था । जबकि मेरे साथ ऐसा नहीं हूँ । यही है जीवन जीने का टाइमपास सिद्धांत । भगवान कहते हैं सुख दुख के समय कृत्वा लाभा लाभ हो गया । जया तो युद्धा ये ऍम आप वापसी दूसरा जब हम टाइमपास के सिद्धां के साथ जीवन जीते हैं तो इसमें मैं का निर्माण नहीं होता है और जहाँ मैं का निर्माण नहीं होता है वहाँ थकावट नहीं आती । क्या कभी हम लोगों ने इस बात पर ध्यान दिया है कि हम था क्यों जाते हैं? यदि आपको कहा जाए कि दो सौ बारह लोग विलोम प्रणायाम करोड शायद ही हम लोग दो सौ बार कर पाए क्योंकि उससे पहले ही हम थक जाएंगे जब की पूरे दिन में हम हजार छह सौ बार सांस लेते हैं परंतु रहते नहीं और हमारा हृदय पूरी जिंदगी में करोडो लीडर रक्त को बंद कर देता है । फिर भी थकता नहीं । ऐसा क्यों? क्योंकि सांस लेने में, दिल की धडकने में तथा खाना बचाना इन क्रियाओं के साथ मैं नहीं जुडा है । जहाँ जहाँ मैं कार्य कर रहा हूँ, ऐसा भाव है वहाँ थकावट है । लेकिन जहाँ जहाँ कार्य हो रहा है वहाँ थकावट नहीं है । बच्चे अपने फॅमिली शोर पूरे दिन बिना थके देख सकते हैं । पूरे दिन मिला था कि खेल सकते हैं लेकिन पढने का कहो तो एक घंटे में ही वह थककर सो जाते हैं क्योंकि पढाई के साथ वो मैं जोड लेते हैं । पढाई वो टाइम पास के लिए नहीं करते । पढाई करते वक्त उनमें ये भाव होता है कि मैं पढाई कर रहा हूँ तो कुल मिलाकर दो बातें हो गई एक नाटक करना सीखें जब घर पर है तो घर का नाटक प्रॉफिट ढंग से करो । जब ऑफिस में हो तो वहाँ पर जो आपकी ड्यूटी दी गई है उनका नाटक सही ढंग से करो तथा दूसरा इस बात से हमेशा आश्वस्त रहो कि ये सब टाइम पास के लिए हो रहा है । हमें ज्यादा गंभीर होने की आवश्यकता नहीं है । इन दो बातों के साथ एक और महत्वपूर्ण बात है भूलना सीखो, चीजों को घटनाओं को भूलना सीखो । कई लोग बहुत ही चूज ही होते हैं । वस्तुओं की वृद्धि केवल ब्रांडेड कपडे पहनेंगे, केवल महासिंह शोर पहनेंगे तथा खाने के लिए तो कहना ही क्या । इतना सोचते हैं कि मानव खाना ही सब कुछ हो तो जब हम इन बाहर कि चीजों के बारे में इतना ध्यान रखते हैं तो हमारे मन में किस तरह की बातें जानी चाहिए ये बात का भी हमें ध्यान रखना चाहिए । अपने दिमाग में अनावश्यक बातों को स्थान ना दें क्योंकि जिस प्रकार एक कंप्यूटर की हार्ड इसकी एक स्टोर इसका पार्टी होती है, उसी प्रकार हमारी दिमाग की भी है । इसलिए अनावश्यक विकारों जैसे एशिया द्वेष, मोहन अपना पराया इनको अपने दिमाग से निकाल दें । इसके लिए सबसे अच्छा तरीका है भूलना भूलने की आदत डालें । एक बार एक सरकारी अस्पताल में एक डॉक्टर है । उन्होंने हमें अपने घर पर बुलाया लेकिन कहा कि वह जो आपके साथ दूसरे आपके सहकर्मी है, उनको मत लेकर आना । हमने कहा ठीक है हम उन के घर तो गए लेकिन कुछ फैमिली फंक्शन था । उनके घर पर डॉक्टर साहब हमारे पास है और बोले कि आपको बुरा तो नहीं लगा जो मैंने आपको उस आदमी को लाने के लिए मना किया । दरअसल में उसे नफरत करता हूँ । इसलिए मैं नहीं चाहता था कि वो मेरे घर है । जब उन्होंने ऐसा कहा तो मैं जोर से हंसा । डॉक्टर बोले क्या हुआ आप हो रहे हैं तो मैंने कहा आप कह रहे हो कि मैं उस आदमी को घर नहीं बुलाना चाहता परंतु वो तो आ गया और वो इस समय आपकी सबसे प्रिय स्थान अपने हृदय में बैठा है । नफरत बनकर कहीं मैंने एक बहुत ही सुंदर पंक्ति पडी थी । डाॅ । बिकॉज बूत आरॅन इसलिए जो भी व्यक्ति, वस्तु परिस्थिति हमारे मन के संतुलन को खराब करे उसे वहीं पर कंट्रोलशिफ्ट डिलीट मार देना चाहिए । ये है जीवन जीने का तरीका और यदि हम ऐसे जीवन जीते हैं तो हमारे मन में स्वतः अपने स्वरूप की जानने के प्रति जिज्ञासा प्रकट होगी । आप केवल आगे बढते जायेंगे और आपको रास्ते अपने आप मिलेंगे । और फिर एक दिन हम लोगों को यह एहसास होता है कि नौ वाॅर्ड ये स्थिति को ही कहते हैं । जीवन मुक्ति जीवन्मुक्त पुरुष को यह संसार छोडने के लिए कुछ प्रयाप्त नहीं करने पडते हैं उसके लिए तो संचार होना हो क्या फर्क पडता है क्योंकि वो ये जानता है कि मैं गणादि अविकारी अखंड सकता हूँ और वह जीवन्मुक्त पुरुष अपने स्वरूप में हमेशा स्थित रहकर एक ऐसी स्थिति में आता है जिसमें परमशांति परमसुख का अनुभव मात्र रह जाता है और जो भी हमने जाना बढा सीखा वो सब छूट जाता है । ये अनुभव वैसा ही है । मानव हजारों मील का लम्बा सफर करके गंगा जी गंगा सागर में मिलकर शांत स्थिर हो जाती है । जैसे हम जो स्वास्थ्य के लिए भटकते रहे वो हमें अचानक मिल जाए

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Voice Artist

Apana Swaroop | अपना स्वरुप Producer : KUKU FM Voiceover Artist : Raj Shrivastava Producer : Kuku FM Author : Dr Ramesh Singh Pal Voiceover Artist : Raj Shrivastava (KUKU)
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