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7 minsआदिवासी जीवन एवं पत्रकारिता जंगलिया पहाडी क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी लंबे समय से एकाकी जीवन जी रहे हैं । जहाँ तक आदिवासियों का सवाल है तो इस सामाजिक प्रणाली का अंगना होकर अलग थलग रहते आए समुदाय है । वर्ल्ड वार जाति आधारित समाज से अलग देखना होगा । रोजगार के आधार पर बनने वाले श्रेणियों की दृष्टि से भी आदिवासी समुदायों का वर्ल्ड सांस्कृतिक होगा लेकिन या वैज्ञानिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण ही माना जाता रहा है । उनके पास परंपरागत रूप से अर्जित ज्ञान है जिसके आधार पर उन्होंने कई तरह के कौशल विकसित किए हैं । बहुत सारी सामाजिक आर्थिक गतिविधियों जैसे पेंटिंग, पत्थरों एवं लकडी पर कार्यकरी वर्मा का उपयोग, कुल्हाडी चलाना, बंशी काटा से मछली, पकडना, कपडा, खटिया आदि बनना, जंगली औषधि का उपयोग आदि हैं । अब समय है कि इस परंपरागत ज्ञान के साथ कुछ प्रयोग किया जाए और नवाचार के माध्यम से स्केल को बढाया जाए । जैसे किसी आदिवासी क्षेत्र में अगर तेंदूपत्ते का काम होता है तो उसके परिष्करण का काम भी वहीं आस पास किया जा सकता है । भारत सरकार की वर्तमान योजना का जोर समावेशी विकास पर है । कृषि और शिक्षा, स्वास्थ्य, महिला और बाल कल्याण सहित महत्वपूर्ण सामाजिक क्षेत्रों पर अधिक ध्यान केंद्रित करने की बात कही गई है । व्यापक और समावेशी विकास के समर्थन के लिए ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में आवश्यक बुनियादी ढांचे के विकास में सरकार को एक बडी भूमिका अदा करनी होगी । निर्धन और कमजोर वर्गों का पैसा कमाने की क्षमता में सीधे तौर पर वृद्धि और संपूर्ण विकास प्रक्रिया को मुख्यधारा में सम्मिलित करने के लिए उनकी आजीविका का प्रबंध करने है, तो सरकार को विशेष कार्यक्रम चलाने होंगे । सरकार को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रत्येक नागरिक को स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल विकास, सुरक्षित पेयजल और स्वच्छता का स्वीकार्य गुणवत्ता वाली अनिवार्य लोक सेवाएं आसानी से सुलभ हो सकेंगे । इन सेवाओं के बगैर प्रभावी समावेश असंभव है । तीन कारणों के अलावा विकास पर समावेशी निष्पादन का मूल्यांकन करना मुश्किल है । पहला तो यह कि समावेश विकास एक बहुकोणीय धारणा है और इसका प्रगति के अनेक पक्षों के मूल्यांकन की जरूरत है । दूसरे, सर्व समावेशी विकास के विभिन्न पक्षों से संबंधित आंकडे तभी उपलब्ध हो पाते हैं, जब काफी समय बीत जाता है और ग्यारहवीं योजनावधि के बारे में सूचना अभी तक नहीं मिली । तीसरे, सर्वसमावेशी लक्ष्य को लेकर बनाई गई नीतियों का प्रभाव सिर्फ लंबी अवधि के बाद दिखाई देता है । समावेशी विकास की परिभाषा पर ध्यान दे और इन समूहों को बाकी आबादी के बराबर लाने की बात करें तो इस मुद्दे पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है और कुल आय वितरण में इन समूहों का भी प्रतिनिधित्व होना चाहिए । आदिवासी शब्द के प्रयोग पर विरोध रहा है । जब संविधान के हिंदी अनुवाद के समय ट्राइब शब्द के लिए अनुवाद समिति ने आदिवासी शब्द का प्रयोग किया तो आदिवासी लोगों ने इसका विरोध किया जिसपर उसे बदलकर जनजाति करना पडा । भारतीय समाज में आदिवासियों का एक विशाल समुदाय निवास करता है । इसकी अनेक जातियां तथा उपजा दिया है जिनका अध्ययन काला धर्म, संस्कृति तथा भाषा की विविध क्रिश टियों से विशेष महत्व शाली है । मानवशास्त्र के मूलरूप तथा विकास के ज्ञान के लिए यह अध्ययन विशेष लाभप्रद है । भारत में आदिवासियों की संख्या प्राय ढाई करोड है । जातीय तत्व, भाषा, संस्कृति, संपर्क के प्रभाव, धर्म आधी के आधार पर नेतृत्व नेताओं ने विभिन्न भिन्न प्रकार से उन का वर्गीकरण किया है । भौगोलिक दृष्टि से आदिवासी भारत को तीन प्रमुख भागों में विभाजित किया जा सकता है । एक पूर्व और उत्तर पूर्व का आदिवासी क्षेत्र दो । मध्यप्रदेश का आदिवासी क्षेत्र भारत के दक्षिण भूभाग का आदिवासी समाज वर्तमान संदर्भ में खासकर विशाल जनजातीय समुदाय के बीच शैक्षिक परिवर्तन और सुधार धीरे धीरे लाए जा सकते हैं । कभी कभी अलक्षित रूप में जबकि जनमत त्वरित और ठोस परिणामों के लिए अधीर है । मध्य प्रदेश के आदिवासियों में संख्या तथा सांस्कृतिक विविधता की दृष्टि से गोंड सबसे अधिक महत्वपूर्ण है । यह भारत का विशालतम आदिवासी समाज है । इस जाति के अनेक स्वतंत्र उपविभाग है जो अन्य उप भागों में वहाँ संबंधन नहीं करते और जिनकी अपनी विशिष्ट संस्कृतियाँ हैं । गोल्ड वाले के राजकीय उत्थान पतन में इतिहास को महत्वपूर्ण ढंग से प्रभावित करने वाले मंडला के गोल्ड और छत्तीसगढ के संपन्न राजवंशों से संबंधित अमात गोल्ड है । उसी क्षेत्र के अपेक्षाकृत तो संगठित तथा घोटुल नामक यथा ग्रह की विशिष्ट संस्था आज फिर बनाए रखने वाले मुखिया सब मूल रूप से एक ही विशाल परिवार, कोई तुर के सदस्य हैं । उनका मूल एक ही है किंतु सामाजिक विकास की परिस्थितियां भिन्न भिन्न होने के कारण आज उनकी संस्कृतियों में अनेक भेज दिखाई पडते हैं । आदिवासी और किसान संघर्षों की साक्षी रही महाश्वेता देवी का मानना है कि भारत वर्ष में आदिवासी और कृषक वर्ग के असंतोष और विद्रोह का इतिहास समकालीन घटना मात्र नहीं है । आधुनिक इतिहास के हर पर्व में विद्रोह का प्रयास उनके प्रति दूसरे वर्ग के शोषण के चरित्र को प्रकट करता है । कालांतर में भी अब तक महापरायण अपरिवर्तनीय बना है । देश के आदिवासी आज भी संघर्षरत है । वे लगातार अपने क्षेत्रों से विस्थापित किए जा चुके हैं । उचित मुआवजे व कारखानों में नौकरी के सभी वायदे झूठे साबित हो चुके हैं । देशी विदेशी कंपनियों के बडे महाजन इन का सब कुछ लूट रहे हैं और हमारी सरकारें इन शोषकों के साथ खडी है । विरोध करने पर नक्सलवादी साबित कर आदिवासियों को कपडे आम किया जा रहा है । आदिवासी महिलाएं आज भी शहरों, खदानों, जंगलों अन्य कार्यस्थलों पर शोषण का शिकार हो रही हैं । उन्हें सरयाम खरीदा बेचा जा रहा है । आदिवासी बडी साजिशों के शिकार हो रहे हैं । आदिवासियों ने हमेशा शोषण का विरोध किया । कहीं विभाग के कर्मचारियों, ठेकेदारों के खिलाफ कहीं महाजनों, जमींदारों की लूट, अत्याचार के खिलाफ, कहीं स्कूल मास्टरों पुलिस के खिलाफ तो कहीं सीधे फिरंगियों के खिलाफ । इस तरह उन्होंने छोटी बडी करीब चार सौ लडाइयां अब तक लडी है । इनमें कई तो मुख्यधारा के भारतीय समाज की लडकियों से बडी जनक्रांति आधे इनके संघर्ष की शुरूआत सत्रह सौ सडसठ ईस्वी के भूमिज आदिवासियों के विद्रोह से होती है । सरकार संविधान के अनुसार इनका हक देने क्या दिलाने में असफल हो रही है । आज भारत में जैसे अन्य समुदाय अपना हक ले रहे हैं, उसी प्रकार उन्हें भी आम नागरिकों की तरह सुरक्षित सर्वसुलभ साधन क्यों नहीं उपलब्ध करवाए जा रहे हैं । भारतीय संविधान में जितने अधिकार इन्हें प्रदान किए गए हैं, सिर्फ उन्हें ही सही तरीके से लागू कर दिया जाए तो शायद ऐसे विद्रोहों की स्थिति ही न बनें । संचार माध्यमों का दायित्व है कि उनके अधिकारों के प्रति उन्हें आगाह करें और उनका हक दिलाने में मदद करें । जबकि सही सूचना ना देकर उल्टे उन्हें बदनाम करने का प्रयास किया जाता है । यदि कोई गरीब आदिवासी अपनी शिकायत लेकर किसी अधिकारी के पास पहुंच जाये तो अधिकारी उसे पहले ही चोर, दुराचारी आदि कराते देते हैं । गाली गलोच कर भागने की कोशिश करते हैं । यदि सफल रहे तो ठीक वरना किसी अन्य मामले में बदनाम कर फसा देते हैं । नतीजा विद्रोहों में बदल जाता है और नाबालिग लडकियां तक बंदूक उठाने को मजबूर हो जाती है । जब दुख दर्द का अहसास पशुओं में होता है तो वो अपने बच्चे यहाँ के लिए लडते हैं तो फिर ये तो इंसान है । यदि इनके बच्चे माँ के साथ दुराचार हो और कोई सुनने वाला न हो तो निश्चित रूप से वो अपना बदला लेने के लिए किसी भी हद तक उतर जायेंगे ।
Sound Engineer
Voice Artist