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आप सुन रहे है कुछ फॅस किताब का नाम है लोग का हवा तो में शतायु जीवन के सूत्र जिसे लिखा है ममता सादिक ने और मैं आपका दोस्त हरीदर्शन शर्मा ऍम सुने जो मन चाहे पहला सुख, निरोगी काया, पहला सुख निरोगी काया । वास्तव में हमारे पूरी जिंदगी इस कहावत के आसपास घूमती है । विद्वान कहते हैं कि हम जो कुछ भी करते हैं उसके पीछे सुख पाने का उद्देश्य होता है किन्तु सुख की पहले ही सीडी निरोगी काया अर्थात स्वस्थ शरीर होता है । यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो खाना पहनना मिलना, जुलना, घूमना फिरना किसी में भी सुख की अनुभूति नहीं होगी । इसलिए सुखी रहने के लिए पहली शर्त है कि हमारा शरीर स्वस्थ हो । आधुनिक जीवनशैली, बदलते पर्यावरण, खाद्य पदार्थों में मिलावट, भोजन के बाजारीकरण, पाश्चात्य संस्कृति में आकर्षण के कारण सामान्यतः हम स्वास्थ्य की और ध्यान नहीं दे पाते और व्यस्त जीवनशैली के चलते हैं । थोडी थकान पर भी किसी दर्द निवारक औषधि का प्रयोग करके अपनी थकान को दूर कर लेते हैं और कुछ समय बाद हम इसके अभ्यस्त हो जाते हैं जिसका परिणाम किसी भयंकर रोक के रूप में सामने आता है । मधुमेह, किडनी, स्टोन रया, गाद, सर्वाइकल जैसे भयंकर रोग हमारे अनियंत्रित जीवन शैली का ही परिणाम है । खान पान के बाजारीकरण और व्यस्त जीवनशैली के कारण सामान्यतः लोग अपने भोजन में डिब्बाबंद पदार्थों का उपयोग करते हैं जो भारतीय वातावरण् के लिए अनुकूल नहीं है । इन सबका पाचन तंत्र पर विपरीत प्रभाव पडता है । रात्रि में देर से सोना और प्रार्थना देर से उठता स्वास्थ्य एवं मनोदशा दोनों के लिए हानिकारक है । प्रकृति ने मानव शरीर की इस प्रकार से रचना की है कि साधारण भोजन से भी शरीर के लिए आवश्यक पोषक तत्व प्राप्त हो सकते हैं किन्तु कुछ लोग शक्तिवर्द्धक औषधियों का प्रयोग करते हैं जो कालांतर में स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव डालते हैं । यदि खान पान व रहन सहन प्रकृति के अनुकूल होते हैं तो शरीर की रोग प्रतिरोधी क्षमता बढती है । शरीर स्वस्थ होता है तो सुख की अनुभूति होती है । अपने खान पान व दिनचर्या को प्रकृति के अनुसार करके स्वस्थ और सुखी जीवन जीकर मनुष्य के सौ साल जीने के लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है । जैसा कि लोकोक्ति कहावत में अनुभव के आधार पर कहा गया है भोजन आधा पेट कर दुगना पानी पी त्रिगुणा श्रम चौगुनी हसी वर्ष सवा जो जी कितनी साधारण से बात है की भूख से कम भोजन करें । पानी खूब है, श्रम करें और प्रत्येक दशा में प्रसन्न रहे हैं । ऐसा करने पर सवा सौ साल की आयु होना स्वस्थ शरीर के साथ संभव हो सकता है । तो विद्वान कहते हैं कि मनुष्य अपना हत्यारा स्वयं है । प्रकृति ने उसे सौ साल जीवन जीने के हिसाब से बनाया है किंतु वह अपने दिनचर्या वह खान पान को प्रकृति के विपरीत करके शरीर को कमजोर कर रोग रोधक क्षमता का विनाश करता है । मन में द्वेष व घर पालकर नकारात्मक ऊर्जा को जन्म देता है जिससे शरीर और मन एक दूसरे के विरोधी हो जाते हैं जिससे टेंशन, तनाव वो डिप्रेशन, अवसाद होते हैं । हमें अपने पुरखों से जो सांस्कृतिक विरासत मिली है वे अमूल्य है तथा हजारों वर्ष का शोक है इसलिए उसमें सच्चाई है । युगों से चली आ रही इस परंपरा का आधार अनुभव है और अनुभव से बढकर कोई या नहीं होता । पुरखों द्वारा जो स्वास्थ्य संबंधी कहावते कविता के रूप में कहीं गई है । इनके पीछे उनका यह उद्देश्य रहा है कि मानव मन पर कविता में कही गई बात का सीधा प्रभाव पडता है और कविता मानस मस्तिष्क में सदियों तक पीढी दर पीढी जीवित रहती है । हमारी सांस्कृतिक धरोहर जो हमें पीढी दर पीढी प्राप्त होती है । अब लुप्त हो रही है, क्योंकि समाज में संयुक्त परिवारों का अस्तित्व लगभग समाप्त है, जिसका परिणाम है कि हम सदियों से चली आ रही अपनी सांस्कृतिक विरासत से अनजान होते जा रहे हैं । इसी तारतम्य में लुप्त प्रायः सांस्कृतिक धरोहरों से लोगों का परिचय कराया जाना इस पुस्तक का उद्देश्य है । पाठक देखेंगे कि हमारे सीधे साधे पुरखों ने मन की बात कितने सीधे साधे ढंग से कही है । शिक्षित कहे जाने वाले हमारे महान पुरखों ने अपने अनुभव के आधार पर कितनी जनहितकारी शिक्षा दी है? पुरखों ने समझाया है कि सावधानी इलाज से श्रेष्ठ है सौ दवा, एक परहेज अर्थात परहेज कर लेना । सौ दवाओं से अच्छा बताया है । तंदुरुस्ती हजार नियामत पुरखों की कही गई ये बातें पाठकों के दिलों की गहराई तक पहुंचे ताकि उसे अपने जीवन में उतारकर इस अमूल्य धरोहर को व्यवहारिक बनाकर अपने आने वाली पीढियों तक पहुंचाया जा सके तो पुस्तक लिखने का उद्देश्य सार्थक होगा ।