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भाग - 03 in Hindi

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AuthorRJ Abhinav Sharma
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दंड भी क्या होगा सरकार की आप प्रसन्नता हुआ । वेतन में वार्षिक वृद्धि में साल दो साल के लिए रो बस इस प्रक्रिया में सालों लग जाएंगे । फिर शकुन लाके पति के दंडित होने से इस वाली महिला को क्या मिल जाएगा? इस लंबी प्रक्रिया के दौरान पति पत्नी के बीच खुली खाई और चौडी ही होगी । पटने से तो रही नहीं । ये समस्या का समाधान नहीं । इस समस्या का समाधान तो मानवीय आधार पर होना चाहिए । सांप भी मर जाए और लाठी बिना टूटे कुछ ऐसी तरकीब निकालनी चाहिए । इस दुखी नारी को वो सब कुछ मिलना चाहिए जिस पर इसका अधिकार है । क्या सोचने लगे निर्मला के प्रश्न प्रकाशचंद्र की समाधि भंग कर दी । वो सब पढवा ऐसे बोले कुछ नहीं । जरा सी समस्या के बारे में गहराई से सोचने लगा था । कोई समाधान सूझा देखो एक परित्यक्ता को उसका पति लौटा देना बडे पुण्य का काम है । निर्मला ने दार्शनिक अंदाज में कहा गंगा शरण तो मेरे पास अवसर में आना । मैं इस मामले में आगे तक की गाज करना चाहता हूँ । प्रकाश इन्होंने कहा जी हुजूर, मैं कब हाजिर हो जाऊँ? ऍम आने की जरूरत नहीं है तो मैं जा रहा हूँ । दस दिन बाद आने से पहले फोन कर लेना जी बहुत अच्छा क्या कर गंगा चरण खडा हो गया । शकुंतला भी उठ खडी हुई । वो बडी कृतज्ञता महसूस करती हुई बच्चों को आशीष देती हुई बोली साहब, आपके बच्चों को बडी उमर हो । आप दोनों खुश रहे । आपकी खूब तरक्की हूँ, ठीक है और तुम लोग जा सकते हो । प्रकाश । उन्होंने कहा । वे दोनों अभिवादन करके मुख्यद्वार की तरफ बढ गए । अचानक प्रकाशचन्द्र के अंतर्मन में बिजली सी कौन थी? उन्होंने छठ पूजा को आवाज भी शफीउल्लाह । जरा सोनू, शकुंतला छोटा कर खडी हो गई । प्रकाश चंद्र उठे और उसके पास जाकर बोले तो मैं कुछ रुपये पैसों की जरूरत है । पहले तो शकुंतला सर पटाई! फिर और सुर में बोली साहब, हम लोग तो भूखों मर रहे हैं । सवालों हो गए । मैंने बच्चों को दो वर्ष पेट भर करोड ही नहीं मिली है । प्रकाशचन्द्र ने अपनी जेब से सौ रुपए का एक नोट निकालकर उसकी तरफ बढाते हुए कहा ये रख लो । शकुंतला के मुझ पर संघर्ष की छाया है । उभर आई आत्मसम्मान तथा समझौता करने की भावना के बीच संघर्ष चार जीत स्वाभिमान की ही हुई । वो गोली साहब मैंने आज तक किसी के सामने अपनी फटी छोडी नहीं फैलाई है । मेहनत मजदूरी करके अपने बच्चों का पेट पाला है । भीख लेने से तो प्रकाशचंद्र ने शकुंतला की बात को बीच में ही काटते हुए कहा मैं तुम है नहीं । नहीं नहीं राहुल फिर ये रुपये में तुम्हारे पति की तरफ से दे रहा हूँ । इन है मैं उसे वसूल करूंगा । कहते हुए उसने एक झपट्टे में दो सौ करोड प्रकाशचन्द्र के हाथों से छीन लिया । फिर वो उन्हें और उनके परिवार को आशीर्वाद देते हुई चली गई । प्रकाशचन्द्र का अनुमान शत प्रतिशत सही निकला । इस समस्या के समाधान की दिशा में किया गया प्रयोग एकदम सफल रहा था । सौ का नोट मिलने से पूर्व नारी के व्यक्तित्व से उदासी, पीडा और अवसाद का जो कोहरा लिपटा हुआ था और वो ऐसे लोग हो गया था जैसे सूरज के निकलने पर कोहरा छंट जाता है, जैसी प्रफुल्लित लगने लगी थी । शकुंतला लॉर्ड का प्रकाशचंद्र अपनी आराम कुर्सी पर बैठे । निर्मला ने उनकी तरफ प्यार से देखते हुए कहा, एक प्याला गर्म जाए और मुंबई हूँ नहीं रहने दो । इस गरीब औरत के लिए जरूर कोशिश कीजिएगा, जरूर करूंगा । पर अपने इसके भाई को दस दिन बाद क्यों बुलाया? काम जल्दी नहीं हो सकता हो, मैं तो मैं बताना भूल गया । परसों में बैंगलोर जा रहा हूँ । कई चार पांच दिन के लिए एक सेमिनार है । मैं तो नहीं चाहता था और सचिव का आदेश बैंगलौर निर्मला ने बडी उत्सुकतापूर्वक दोहराया । फिर वो और स्पोर्ट्स और में बोली अकेली जा रहे हैं । नहीं डॉक्टर से दो व्यक्ति है एक मैं और मैं डॉक्टर की बात नहीं कर रही थी ना । और बडी खूबसूरत जगह है । फांसी मैसूर है । चंदन वृन्दावन बाद रास्ते में हैदराबाद और तिरुपति इस तरफ अभी तक नहीं गए । प्रकाशचंद्र बुरी तरह चौपडे । तुम्हें भी उन के साथ जाना चाहती है । यदि ऐसा होता है तो प्रकाशचंद्र को इस अनपेक्षित समस्या का हल ढूंढने के लिए समय चाहिए होता है । वो बोले नहीं, नहीं तो मैं ज्यादा चाय बनाने वाली थी । अभी लाई मैंने तो पहले पूछा था क्या? तो वो थी और अंदर चली गई । लोन में चारों तरफ अंधेरा बिखर गया था । प्रकाशचंद्र को मनचाहा एकांत मिल चुका था । अगले कुछ ही मिनटों में उन्हें इस योजना को क्रियान्वित करने के लिए अपनी रणनीति को अंतिम रूप देना था । ये निश्चित था । इस दौरे पर वह निर्मला को नहीं ले जाना चाहते थे । इसका मुख्य कारण था सीमा को उनके साथ जाना । निर्मला को दो जब चाहे कहीं ले जा सकते हैं और सीमा के साथ जाने का उनका ये पहला और संभव ते आखिरी मौका था । सीमा और निर्मला दोनों का साथ नहीं । एक म्यान में दो तलवारें डालने का दो सास वो नहीं करेंगे । फिर वो क्या करें? निर्मला बैंगलौर यात्रा के लिए उत्सुक है तो भी उन्हें एक उपाय सूझा । बस उन्होंने फैसला कर लिया कि वो उसी के मुझसे मना करवा देंगे । इतने कम समय में इतनी महत्वपूर्ण रणनीति बनाकर उन्होंने मन ही मन अपनी पीठ होगी । तभी निर्मला चाय का प्याला लेकर बाहर आ गई । प्रकाशचन्द्र ने बडे उत्साह से भरकर कहा लेनी हो तो तुम भी बैंगलौर चल रही हो ना । मन तो कर रहा है तो फिर कलॅर लू अ वजह से जा रहे हैं । कितना टिकट है ग्यारह होगा दोनों तरफ से बाईस सौ रुपए ना भगवान ना ऐसा नहीं हो सकता । मैं ट्रेन से चार दिन वहाँ ठहरना है । उसके लिए चार दिन ट्रेन में लश्कर होगी । फिर अलग यात्रा करने में क्या मजा आएगा? हमारे यहाँ से चले जलोना ना बाबा अपने पास फिजूलखर्जी के लिए ढाई तीन हजार रुपये नहीं है । मम्मी इस बार दिसंबर में एलडीसी लेने का राजा खाना यू ना पूरे दक्षिण भारत की यात्रा की जाए । एक ही चक्कर में हैदराबाद, मद्रास, तिरुपति, रामेश्वरम, कन्याकुमारी, त्रिवेंद्रम, मधूर, मैसूर, बैंगलोर का चक्कर लगाया जाए । यही सर्वोत्तम रहेगा । इस बार आप अकेली हुआ ये आपको थोडी बोरियत तो जरूर होगी । पर क्या किया जाए? अब जहाँ उसके किराए इतने बढा दिए क्या आम आदमी तो उसमें यात्रा कर ही नहीं सकता । निर्मला के स्वर में उसकी आन्तरिक वेदना और असंतोष की भावना स्पष्ट परिलक्षित हो रही थी । प्रकाशचन्द्र एकदम खोजते । उनकी योजना शत प्रतिशत सफल हुई थी । अपनी पत्नी की किफायत शारी की प्रवृत्ति का उन्होंने पूरा लाभ उठाया था । चाय पी कर वो अंदर आ गए । अब उनका मन शकुंतला की समस्या से हटकर आने वाले चंद दिनों में मिलने वाली उत्तेजनापूर्ण मस्ती में राम चला था । सवा बारह बजते बजते प्रकाश अंदर का मन नियंत्रित हो चला । धैर्य की सीमाएं टुकटुक होकर बिखर गई । कल दौरे पर जा रहा है । इतने डेरो कम पढे हैं और सुधा का कोई पता नहीं है । देरी से आने की कोई सूचना भी नहीं है । उन्होंने महसूस किया जैसे अपने मित्र सुधाकर का अनुरोध मानकर उन्होंने बडा गलत काम किया है । करीब चार महीने पहले उन्होंने सुधा की सिफारिश करते हुए कहा था, ये महिला बडी परेशान और दुखी है और कहीं नहीं चल सकती तो जैसे आपने बात ही लगा लो । उनके साथ जो निजी सहायक था उसकी पदोन्नति हो गई और वह एक अन्य मंत्रालय में चला गया था और ते प्रकाशचंद्र ने तत्काली सुधार को अपने पास लगा लिया था । ये निर्णय एक बडा सिरदर्द साबित हुआ । पता नहीं इस लडकी को क्या बीमारी है । दफ्तर आने जाने का कोई समय नहीं । देर से आना, जल्दी चले जाना, अक्सर छुट्टी ले लेना । कई बार उन्होंने सुधार को छिडकने डालने का फैसला किया था । एक बार उसकी अंयंत्र नियुक्ति करने के विषय में भी सोचा था और जैसे वो सामने होती थी उनके आंतरिक रोज की अपनी आपसे आप ठंडी हो जाती थी । पता नहीं उसके सरों से गठित में और खासतौर से उसकी आपको मिला जाने कैसी मूड याचना व्याप्त है कि वो चाहकर भी उस पर क्रोधित नहीं हो पाते हैं और आज वो बेहद उखड गए थे । उन्होंने फैसला कर लिया था वो जिम्मेदार लडकी को अन्यत्र भिजवा देंगे । लंच के बाद जब वो तो प्रकाशचन्द्र ने उसे तुरंत अपने पास अंदर बुलाया और बोले लेकिए श्रीमती सुधार हमारा को तत्काल इस पद से मुक्त कर आशुलिपि पूल में न्यू किया जाता है मेरी और याचक बनी हो प्रस्तर मूर्ति सी बैठी रही । आप लिखते क्यों नहीं साहब मैं आपसे हाथ जोडकर माफी मांग हूँ । श्रीमती सुधा इस तरह गाडी नहीं चल सकती है । ये सरकारी दफ्तर है ना की आपकी निजी बैठक जब मन चाहे चले आए जब दिल क्या चले गए साहब मैं लज्जित हूँ । आपको जो सुविधा होती है उसके लिए मैं पूरी जिम्मेदारी लेती हूँ । अस्पतालों, डॉक्टरों के चक्कर कहते कहते सुधार का स्वर्ण भरा गया और उसकी आंखें छल चलाई । आखिर कौन बीमार है? प्रकाश उन्होंने खुलकर पूछा । बीमारी हारे तो हर घर में चलती रहती है तो वो उसके इस बहाने से ज्यादा प्रभावित नहीं हुए । छोडिए साहब, अपनी परेशानियों को सबके सामने रोने से क्या फायदा? चुनाव उदासी की प्रतिमूर्ति बानी बैठी थी । सुधा ये जिंदगी धूपछांव का खेल है । ऐसा कौन है? इस से कोई ना कोई गम या दुख ना उतर रहा हूँ । कोई बेकार है, कोई बीमार है, कोई विधवा है जो कोई भी जोर किसी के बेटा नहीं तो किसी की लडकी को वार नहीं मिल रहा है । जितने इंसान उतनी तरह की पीढी है । पर सच्चा इंसान वही है जो धर्य, साहस और दृढता से इन कष्टों को झेल जाता है । वो सोचता है कि दो सौ तो मौसम की तरह नहीं आते रहते हैं । कभी सर्दी तो कभी बसन कभी भूल खेलते हैं । तो अगले कुछ दिनों में पाँच लडकी बिनानी छा जाती है । प्रकाश अंदर ना जाने किस भाव से प्रेरित हो, एक लंबा सा भाषण दे गए । सुबह मंत्रमुक्त से उनकी बातें सुनती रही, पर वो संतोष नहीं लग रही थी । कुछ भगदड सोचने विचारने के बाद वो धीमे स्वर में बोली साहब आप बिलकुल ठीक है, पर कुछ इंसान ऐसे होते हैं कि उनके हिस्से में आयु ही मौसम ही आते हैं । मसलन अगर शीत ऋतु का आगमन हो जाए तो फिर दूर दूर तक आजीवन पसंद की आशा तक समाप्त हो जाती है । प्रकाषन हाँ, गरम रह गए अत्यंत महत्वपूर्ण बात कह दी थी । सुधारने क्या लडकी के साथ ऐसी कोई शाश्वत पीडा जोडी है । अवश्य इसकी जिंदगी पर होस्ट भी है और अभिशाप की छाया मंडरा रही हैं । उसे भावनात्मक सहारा देने के उद्देश्य से वो बोले सुधा पीढा को बांटो या व्यक्त करो तो वह हल्की हो जाती है । वो तो ठीक है साहब और कुछ प्राणी ऐसे भी होते हैं जिनकी जिंदगी विद्यालय में लबालब विश्व भरा होता है । अमृत नाम की वस्तु का अस्तित्व तक नहीं जानते । भावुकता को छोड थोडी वास्तविकता से कम लोग बहुत लंबी कहानी है । अनावश्यक विस्तार छोड केवल संक्षिप्त रूप में ही सुना । दो सुबह भरी बदली सी बैठी थी । आप नेता और भावनात्मक आश्रय की और डरता पाकर वह बरस गई । सब कुछ खुलकर वर्णन कर दिया । उसने उत्तर प्रदेश में एक संभ्रांत ब्राह्मण परिवार की एकमात्र संतान थी । उसके पिता दिल्ली में रक्षा मंत्रालय के कार्यालय में काम करते थे । महान न्यायाधी, पुरातनपंथी और धार्मिक विचारों वाली महिला थी । बीए तथा सचिवालय प्रक्रिया का प्रशिक्षण पूरा करने के पचास हो संघ लोकसेवा आयोग द्वारा आयोजित अखिल भारतीय आशुलिपि प्रतियोगी परीक्षा में बैठी और सफल हो गयी । सफल व्यक्तियों की सूची में उसका साथ वहाँ स्थान था । इधर उसे नौकरी मिली । उधर उसके पिता सेवा निवृत हो गए । कोई विशेष अंतर नहीं पडा क्योंकि जो सरकारी आवास उसके पिता के नाम था, उसके नाम हो गया क्योंकि वह भी बारह सरकार की सेवा में ड्यूटी श्रेणी की कर्मचारी बन गई थी । पिता की पेंशन और उसका वेतन दोनों मिलकर उतना धन आज आता था, जितना पिता को सेवाकाल में मिलता था । तो भी मुसीबतों की शुरुआत हो गई । सबसे पहले पिता गए सेवानिवृत्ति के पचास उन्होंने अपने आपको एकदम निष्क्रिय और अकर्मण्य बना दिया । जो व्यक्ति जीवन में अट्ठावन वर्ष तक व्यस्त रहा हो वो एकदम बेकार हो जाए तो क्या बनेगा । यही नहीं वो और शराब और सिगरेट तो पीते ही थे, अंदर ही अंदर बोलते हुए वो अपने को नष्ट करते रहे । एक दिन वो अपनी पेंशन लेने के लिए बस से गए और फिर कभी लौटकर नहीं आए । बस की भीड नहीं । उनका निधन हो गया । रह गई माँ, वैधव्य और एक अविवाहित लडकी का बोझा । उन्होंने उसे शादी के लिए मजबूर करना शुरू कर दिया । ये समस्या भी शीघ्र ही हाल हो गई । उनके पडोस में आंध्र प्रदेश निवासी रामाराव रहते थे । वो भारत सरकार के एक मंत्रालय में अवर सचिव थे । उनका लडका केंद्रीय लोग कर विभाग में सहायक इंजीनियर था । वो अक्सर उनके घर आता जाता था । काफी अच्छा लडका था । चार एक दृष्टि से रिश् पुरुष तथा आकर्षक बातचीत में सौम्य और शालीन व्यवहार में शीर्ष उसे कोई नहीं था । होना शराब पीता नाॅट था । उसे उसके साथ कई बार के लिए बाहर घूमी थी । एक और पिक्चर भी देखी थी । कॉफी हाउस में कई बार कॉफी भी पी थी । उस लडके के साथ प्रेम नहीं बढा । मैत्रीभाव अवश्य उत्पन्न हो गया था । एक दिन उस लडकी के पिता ने सुधा की माँ से इस विषय में चर्चा की तो वो भी वहां उपस्थि थी । मैं थोडा सा कुछ ऊंचाई थी वो उत्तर प्रदेश के ब्रामण और लडका आंध्र प्रदेश का उन्होंने तत्काल कोई उत्तर नहीं दिया । सोचने के लिए समय मांग लिया था । बाद में माने उसे विचार विमर्श किया था । उसने अपनी सहमती प्रकट की थी । इसके कई कारण थे । अपनी जाती और प्रवेश के लडके के साथ चौधरी करने का मतलब था रहे जुटाना । इस अंतर प्रदेशीय विवाह है । ये सब झंझट नहीं था । दूसरा वो लडका उनका जांचा परखा हुआ था । बडा सीधा साधा सच्चा और सामान्य नहीं था । माँ भी आखिर में मान गई । दोनों का विवाह हो गया । चांदी के एक वर्ष तो सब कुछ ठीक ठाक रहा और तभी एक दिन मां चल बसी । दमाद होने था ही उसका प्रभाव हिरदय पर हो चला था । बस उसी के कारण उनका निधन हो गया । पर दुख जब आते हैं तो एक साथ कहावत है कि पानी नहीं भरता तो नहीं बरास्ता पर अक्सर जब रहता है तो मुसलाधार वही सुधर के साथ हुआ हूँ ।

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