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नमस्कार दोस्तो, ऍम पर मैं हुआ आपके साथ आजी शिखा से लेकर डॉक्टर तारा सिंह की लिखी किताब आंसू की गाॅव सुनी । जो मनचाहे शरणार्थी पौष का महीना था । सलीम अन्यमनस्कता मस्जिद की गुंबद को निहारता, उसकी आंखों में उसके नये राशि जीवन की क्रोधाग्नि किसी सैलाब की तरह डुबो देने उस की ओर बढता चला रहा था । जब से उसका विदेश सचिव प्रेम से आयुक्त हुआ, तब से उसके एकांत जीवन बिताने की सामग्री में इस तरह की जड सौंदर्यबोध भी एक स्थान रखने लगा । उसकी आंखों से नींद दूर जा चुकी थी, घर काटने दौडता था । आंखों में किसी कवि की कल्पना सी कोई स्वर्गीय आकृति नहीं बल्कि उसका बेटा जुम्मन रहता था, जिसे उसने अपने लघु से सृजा और पाला था, जिसके सामने सुख शांति का लालच सब कुछ था, जिस पर उसने तीनों काल लुटा रखा था और जिसे पाकिर पत्नी फातिमा से कहता था फातिमा जानती हूँ । ऊपर वाले के पास जितना भी धन था, सब के सब उसमें हमारी झोली में डाल दिया हूँ । फातिमा आग्रह स्वर्ग में पूछती थी वो कैसे? सलीम गर्व से बोल पडता था पुत्र के रूप में जुम्मन को हमारी गोद में सौंपकर पति की बात सुनकर फातिमा का मुख उसके त्याग के हवन कुंड की अग्नि के प्रकाश से दमक उठता था । उसका अचल खुशी के आंसू से भेंट जाता था और प्राण पक्षी जुम्मन को लेकर आसमान को छूने उडने लगता था । एक सलीम अपनी मुझे खडी कर पत्नी फातिमा से कहा फातिमा हम चाहिए जितना भी गरीबों मगर इस बात का खयाल रखना जुम्मन की खुराक में कभी कमीना जानती हो । जिस वृक्ष की जडी गहरी होती हैं उसे बार बार सोचना नहीं पडता है । वक्त जमीन से आद्रता खींचकर हरा भरा रहता है और हरा भरा वृक्ष ही अस्थिर प्रकाश में बागीचे के तथा अंधकार को अपने सिरों पर संभाले रखता है । इस विचार में हमारे जीवन के था अंधेरी को हमारा पुत्र संभालेगा दोनों पति पत्नी ने मिलकर मजदूरी करने का व्रत उठा लिया । कभी घास काटकर उसे बाजार में बेचकर, कभी जंगल से लकडी लाकर कभी मुखिया के दरवाजे पर रात रात भर लकडी के साथ अपना कलेजा भर्ती रहता था और इस से मिले पैसों से जुम्मन की पढाई लिखाई का खर्चा पूरा करता था । जो मन भी पढने लिखने में कुशाग्र बुद्धि का था उसने दशमी पास कर शहर जाकर कॉलेज की पढाई पूरी की । बाद उसे एक अच्छी नौकरी भी मिल गई । पुत्र को नौकरी मिल गई । जानकर दोनों पति पत्नी ने कहा आज हमारा ये पूरा हो गया । मेरा बेटा अपने पैर पर खडा हो गया हूँ । लेकिन इस खुशी को दो साल भी नहीं होगा था की साधुता और सज्जनता की मूरत सलीम पर भाग्य ने बहुत बडा कुठाराघात कर दिया । प्राथिमक गठिया के दर्द से परेशान रहने लगी । बच चल नहीं पाती थी । सलीम के लिए गांव में अकेला रहकर पत्नी को शहर इलाज के लिए ले जाना मुश्किल था । सोचने जुम्मन को फोन कर बताया बेटा तुम्हारी माँ उठ बैठ नहीं सकती है । गठिया का दर्द उसे नई पंगु बना दिया है । गांव में कोई डॉक्टर वैद्य भी नहीं है जो उसे ले जाकर दिखाऊँ शहर ले जाना मेरे लिए मून की नहीं है इसलिए तुम आकर हमें अपने पास ले चलो । वही रहकर किसी डॉक्टर से इलाज करवा देना । जो मैंने कहा ठीक है मैं जल्दी आने की कोशिश करता हूँ । देखते देखते महीना बीत गया लेकिन जुम्मन आने की बात तो दूर एक फोन कर हाल समाचार भी नहीं पूछा । पुत्र के इस रवैये से सलीम बहुत उदास रहने लगा । उसकी आंखें हमेशा आकाश की ओर लगी रहती थी । सोचता था सलीम हमें लेने नहीं आया । कोई बात नहीं एक सो नहीं कर लेता हूँ । मामूली शिष्टाचार भी नहीं निभाया सारी दुनिया हमें जलील किया कम से कम बिता जानकर वर तो छोड देता । रात हो चुकी थी लैंप केशिंग प्रकाश में फातिमा ने देखा उसका पति सलीम उसकी ओर प्रश्न सूचक दृष्टि से निहार रहा है । फातिमा समझ गई सलीम का भी घोर कम इस तरह की गंभीरता की कल्पना कर अधीर हो जा रहा है । उसने कहा सलीम! मैं जानती हूँ इस अपमान के सामने जीवन के और सारी क्लेश तो अच्छे हैं । इस समय तुम्हारी दशा उस बालक सी है जो फोडी पर नशनल कि शनि पीडा न सहकर उसके फूटने नासूर पडने, वर्षों खाट पर पडी रहने और कथाचित्र प्राणांत हो जाने के भाई को भी भूल जाता है । सलीम ने अपनी मनोव्यथा छिपाने के लिए सर झुका दिया बोला जिसका पूरा जीवन इस चिंता में कटा हो कि कैसे अपने संतान का भविष्य सुखी बनाई । वसंत आन बडा होकर अपने ही माँ बाप के दुख का कारण बनी तो कलेजा फटता है ना फातिमा आर्द्र हो बोली हमारी सभ्यता का आदर्श यहाँ तक गिर चुका है, मालूम नहीं था याद कर दुःख होता है जिस लडके ने कभी जबान नहीं खोली । हमेशा गुलामों की तरह हाथ बांधी हाजिर जहाँ वहाँ आजी का ये कितना बदल जाएगा चौंकाने वाली बात है । फातिमा कुछ बोलना चाह रही थी मगर सलीम बीच में बोल पडा फातिमा अपने गांव के मंदिर के पुजारी श्रीकांत को तो जानती हो ना, उसे भी एक बेटा है, नाम है भुवन । आजकल मंदिर का पुजारी वही है, लेकिन चढावे का प्रसाद हो या दान की हुई सोने चांदी से भरी आरती की थाली । घर पहुंचते ही श्रीकांत के हाथ में सौंपकर खुद दोस्तों के बीच गप्पें लडानी चला जाता है । घर लौटकर कभी नहीं जानने की कोशिश करता की थाली में हीरा था या मार्टी फातिमा कुछ जवाब देकर केवल इतना बोल कर चुप हो गई ऍम भित्ती कितनी अस्थिर है बाल ऊपर की दीवार तो वर्ष में गिरती है पर तेरी दीवार बेला पानी के बूंद की तरह रह जाती है । आंधी में दीपक का कुछ भरोसा तो किया जा सकता है, पर तीन या नहीं तेरी स्थिरता के आगे एक अबूद बालक का घरौंदा पर्वत है । सलीम जीवन के अलग भी सुख से व्यक्त हो चुका था । उसका कल्पित स्वर्ग धरती पर आगे रहा था । वह खुद पर काबू नहीं कर पाए और बोला फातिमा! अपनी ही संतान को इतना बिना को सोच सोच कर देखो तो उस पर हमारा कोई ऋण बाकी नहीं है, जिससे हम ना पाकर इतना निराश जीते हैं । हैरी जब हम उसे पाल रहे थे और वह तिल तिलकर बडा हो रहा था तब उसे देख हम भी कम आनंद नहीं उठाए थे । हमारी आत्मा ने उस त्याग में संतोष और पूर्णता का भी तो अनुभव किया था । सोचू फिर हमारा ऋणी कैसे हुआ? पत्नी फातिमा अपने पति सलीम की आंखों कि आद्रता से अनभिज्ञ नहीं थी । उसमें गंभीर भाव से कहा आप का भाव बिल्कुल गलत है । अगर ऐसा ही है तो माता पिता के लिए जो कहा गया है वो गलत हो जाएगा की धरती पर वो सब्जी नहीं देकर ऋण उत्तराय । इस तरह हर संतान अपने माँ बाप का ऋण पालने में ही उतार देता । फिर रवि तो बोली सलीम तुम कब तक आपने अंधेरी घर के उस दीपक की ज्योति में अपना भविष्य रौशन करते रहोगे जिसे तुमने अपने लघु से सीन सीजकर रोशन किया था । अब छोडो इन सब साडी पत्नी के प्यार के स्वाभाविक आलोक में बीते दिनों को जब आंखों में झिलमिलाते देखा वह काम गया और कातर स्वर में बोला फातिमा कैसे भूल जाऊ । उन दिनों को जहाँ हम जीवन की सत्तर साल छोड आए हैं, उन दिनों की गरीबी की प्रचंड अग्नि करता हूँ । आज मुझे और अधिक छूट जाता है । जब जो मन तेरे साथ था उसकी आंखों कि ठंडक में हिम मुकुटधारी पर्वत की शीतलता भी कम लगती थी । जानती हूँ मैंने अपने और जुम्मन के बीच कभी अल्लाह को नहीं आने दिया । क्योंकि मैं जो मन को अपना खुदा मानता था, जो बिहार करती हुई और कुलाची भर्ती हुई, किडनी को किसी ने तीर मारकर घायल कर दिया हूँ तो पति की बात सुनकर फातिमा के हृदय के भीतर एक दर्द उठा और वह वहीं गिर पडी । पत्नी को जमीन पर गिरा देख सलीम विचलित हो गया । उसमें वो इतना भरे स्वर में कई बार आवास लगाए । लेकिन फातिमा अपनी जगह से एक इंच ना ही नहीं सलीम ने छूकर देखा तो फातिमा संसार को छोड कर जा चुकी थी । इस घटना सिर्फ टूट गया । उसका जीते रह कर रूप धारण कर दिया । जोर का बुखार चढाया, सारी रात अचेत पडा रहा । सुबह बाकी खुली देखा जो मन आफंदी खडा है । उसने अपनी उभरते हुए आंसूओं को रोक कर कहा बेटा तुम्हारी माँ के साथ में अपना अंतिम कर्तव्य भी पूरा नहीं कर सका । मुझे माफ कर देना । आशा की मिट्टी हुई छाया को कब तक थामी रखती हूँ । इतना कहकर सलीम ने भी अपनी आंखें मूंद ली ।
Writer
Sound Engineer