नमस्कार दोस्तो, मैं महेंद्र दोगने आपॅरेशन के नाम से जानते हैं और आप सुन रहे हैं उनको वैसे यहाँ पर मैं आप लोगों के लिए लेकर आया हूँ । संपूर्ण चाणक्य थी जिसके पूरे सत्र अध्याय यहाँ पर आपको सुनने को मिलेंगे । यदि आप अपने जीवन को बदलना चाहते हैं और चाहते हैं की आपको कुछ ऐसे तरीके पता चले जिससे आप जीवन को बहुत ही अच्छे ढंग से जी सकें तो ये सत्रह अध्याय आप सभी के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण है । तो चलिए इस चाणक्य नीति की शुरुआत करते हैं आचार्य चाणक्य के जीवन की एक प्रारंभिक घटना से । उनके चरित्र का बहुत सुन्दर खुलासा होता है । एक बार वे अपने शिष्यों के साथ दक्षिण जिला से मदद की और आ रही थी । मदद कर आजा महानंद हमसे द्वेष रखता था । वहाँ एक बार भरी सभा में चाणक्य का अपमान कर चुका था । तभी से उन्होंने संकल्प लिया था कि वे मगध के सम्राट महानंद को पद से नीचे उतारकर ही आपने शिखा में गार्ड मानेंगे । इसके लिए वे अपने सर्वाधिक प्रिय शिष्य चंद्रगुप्त को तैयार कर रहे थे । हम अगर पहुंचने के लिए वे सीधे मार्ग से न जाकर एक अन्य अक्टूबर खावन मार्ग से अपना सफर तय कर रहे थे उस मार्ग में काटे बहुत है । तभी उनके पैरों में एक काटा छूट गया । मैं क्रोध से भर उठे । तत्काल उन्होंने अपने शिष्यों से कहा उखाड से को इन नाखूनों को एक भी शेष नहीं रहना चाहिए । उन्होंने तब उन काटो को ही नहीं उखाडा उन काटो के वृक्षों के चरणों में मही डाल दिया ताकि मैं दोबारा न हो सके । इस प्रकार में अपने शत्रु का समूलनाश करने पर ही विश्वास करते थे । वे दूसरों के बनाये गए मार्ग पर चलने में कभी भी विश्वास नहीं करते थे । अपने द्वारा बनाए गए मार्ग पर ही चलने में विश्वास करते थे । आशा करता इन अध्यायों को सुनने के बाद आप भी अपनी जिंदगी में अपने मार्ग खुद तैयार करें । अपने ऊपर विश्वास करें और अपनी जिंदगी में आगे बढे । तो चलिए प्रारंभ करते हैं प्रथम अध्याय में श्री चाणक्य श्री विष्णु भगवान् को नमन करते हुए समझाते हैं कि राजनीति में कभी कभी कुछ कर्म ऐसे दिखाई पडते हैं जिन्हें देखकर सोचना पडता है कि यह उचित हुआ या अनुचित परन्तु जिस नीतिकार इसे भी जनकल्याण होता हूँ अथवा धर्म का पक्ष प्रबल होता हूँ तो कुछ अनैतिक कार्य को भी नीति सम्मत ही माना जाएगा । प्रधान के रूप में महाभारत के युद्ध में युधिष्ठिर द्वारा अश्वत्थामा की मृत्यु का उद्घोष करना है । यद्यपि नीति विरुद्ध था पर नीति कुशल योगीराज कृष्ण में इसे उचित माना था क्योंकि वे गुरु द्रोणाचार्य के विकेट संहार से अपनी सेना को बचाना चाहते थे । आगे चल के समझाते हैं कि मूत्र छात्रों को पढाने से, दुष्ट इस तरीके पालन पोषण से और दुखियों के साथ संबंध रखने से बुद्धिमान व्यक्ति भी दुखी होता है । इसका मतलब यह नहीं है कि मूर्ख शिष्यों को कभी उचित उद्देश् नहीं देना चाहिए । समझाने का तात्पर्य यह हैं की पत्र आसाराम वाले इस तरी की संगती करना तथा दुखी मनुष्यों के साथ समागम करने से विद्वान तथा भले व्यक्ति को दुखी उठाना पडता है । वास्तव में शिक्षा उसी इंसान को दी जानी चाहिए जो सुपात्र हो । जो व्यक्ति बताई गई बातों को ना समझे उसे परामर्श देने से कोई लाभ नहीं है । मुझे एक व्यक्ति को शिक्षा देकर अपना समय ही नष्ट किया जाता है । यदि बात दुखी व्यक्ति के साथ संबंध रखने की है तो दुखी व्यक्ति हर पल अपना ही रोना रोता रहता है । इससे विद्यान व्यक्ति की साधना और एकाग्रता भंग हो जाती है । आगे श्री चढा के हमें समझाते हैं कि दुस्त स्त्री छल करने वाला, मित्र पलट कर तीखा जवाब देने वाला नौकर तथा जिस घर में साफ रहता हूँ, उस घर में निवास करने वाले गृहस्वामी की मौत में संजय ना करें, वहाँ निश्चित ही मृत्यु को प्राप्त होगा । घर में यदि दुष्ट और दुष्चरित्र वाली पत्नी हूँ तो उस पति का जीना ना जीना बराबरी है । रहा अपमान और लग जा के बोल से एक तो वैसे ही मृतक के समान है, ऊपर से उसे सदैव यह भी बना रहेगा कि यहाँ इस्त्री अपने स्वास्थ्य के लिए कहीं उसे विष्णु देते हैं । दूसरे भी उस ग्रहस्वामी का मित्र भी दगाबाज हो, धोखा देने वाला हो तो ऐसा मित्र आज तीन का साथ होता है । वह कभी भी अपने स्वास्थ्य के लिए उस गृहस्वामी को ऐसी स्थिति में डाल सकता है जिससे उबरना उसकी सामर्थ से बाहर की बात होती है । तीसरा घर में यदि नौकर बच्चों बाद बात बात में झगडा करने वाला हूँ, पलट कर तीखा जवाब देने वाला हो तो समझ लेना चाहिए कि ऐसा नौकर निश्चित रूप से घर के भेद जानता है और जो घर के भेज जान लेता है उसी तरह से घर बार का विनाश कर सकता है । जैसे भीषण ने घर में भेद करके रावण का मिनाज करा दिया था । तभी मुहावरा भी बना घर का भेदी लंका ढाए, विपत्ति के समय काम आने वाले धन की रक्षा करें, धन से स्त्री की रक्षा करें और अपनी रक्षा, धन और तीसरी से सादा करें । अर्थात संकट के समय धान की जरूरत सभी को होती है । इसलिए संकटकाल के लिए धन बचाकर रखना उत्तम होता है । धन से अपनी पत्नी की रक्षा की जा सकती है अर्थात यदि परिवार पर कोई संकट आए तो धन का लोग नहीं रखना चाहिए । परन्तु यदि अपने ऊपर कोई संकट आज है तो उस समय उस धन, वहाँ इस्त्री, दोनों का ही बलिदान कर देना चाहिए । आगे श्री चाना के कहते हैं की आपत्ति से बचने के लिए धन की रक्षा करें क्योंकि पता नहीं कब आपदा जाए और लक्ष्मी तो चंचल है । संचय किया गया धन कभी भी नष्ट हो सकता है । श्री चाना के कहते हैं कि जिस देश में सम्मान नहीं, आजीविका के साधन नहीं बंधु बांधव अर्थात परिवार नहीं और विद्या प्राप्त करने के साधन नहीं, वहाँ में कभी भी नहीं रहना चाहिए । अगले शोक में श्री चाइना के कहते हैं कि जहाँ धनी वैदिक ब्राह्मण, राजा नदी और वैध ये पांच न हो, वहाँ एक दिन से भी ज्यादा नहीं रहना चाहिए । भावार्थ यह है कि जिस जगह पर इन पांचों का अभाव हो, वहाँ मनुष्य को एक दिन भी ठहरना उत्तर नहीं होगा । जहाँ धनी व्यक्ति होंगे वहाँ व्यापार अच्छा होगा । जहाँ व्यापार अच्छा होगा तो वहाँ आजीविका के साधन भी अच्छे होंगे । जहाँ श्रुतियों अर्थात वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण होंगे, वहाँ मनुष्य जीवन के धार्मिक तथा ज्ञान के क्षेत्र में भी विस्तृत रूप से पहले हुए होंगे । जहाँ स्वच्छ जल की नदियाँ होंगी, वहाँ जल का अभाव नहीं रहेगा और जहाँ कुशल वैद्य होंगे वहाँ बीमारी पास में नहीं आ सकती है । आगे चल के कहते हैं कि जहाँ जीविका, भय, लज्जा, चतुराई और त्याग की भावना ये पांच चीज न हो, वहाँ के लोगों का साथ कभी ना करें । शौचालय के कहते हैं कि जिस स्थान पर जीवन यापन के साधन ना हूँ, जहाँ साडी भय की परिस्थिति बनी रहती हूँ, जहाँ लग्नशील व्यक्तियों की जगह बेशर्म और खुद ही लोग रहते हूँ, जहाँ कलाकौशल और हस्तशिल्प का सर्वथा अभाव हो और जहाँ के लोगों के मन में जरा भी त्याग और परोपकार की भावनाएँ ना हूँ, वहाँ के लोगों के साथ ना तो रहे हैं और न ही उनसे कोई व्यवहार रखी । श्री चाइना के कहते हैं कि नौकरों को बाहर भेजने पर, भाई बंधुओं को संकट के समय तथा दोस्तों को विपरीत परिस्थितियों में और अपने इस तरी को धन के नष्ट हो जाने पर पर रखना चाहिए था । उनकी परीक्षा नहीं नहीं चाहिए । चाणक्य ने समय समय पर आपने सेव को भाई, बंद हुआ मित्रों और अपनी स्त्री की परीक्षा लेने की बात कही है । समय आने पर ये लोग आपका किस प्रकार साथ देते हैं या देंगे इसकी जांच उनकी कार्यों से ही होती है । वास्तव में संसार में मनुष्य का संपर्क आपने सेव को मित्रों और अपने निकट रहने वाली अपनी पत्नी से होता है । यदि ये लोग छल करने लगे तो जीवन दुभर हो जाता है । इसलिए समय समय पर इनकी जांच करना जरूरी है कि कहीं ये आपको धोखा तो नहीं दे रहे हैं । आगे समझाते हैं कि बीमारी में विपत्तिकाल में, अकाल के समय, दुश्मनों से दुख पाने या आक्रमण होने पर, राज दरवार में और शमसान भरने में जो साथ रहता है वही सच्चा भाई बंधु अथवा मित्र होता है । छह जाने की समझाते हैं कि जो आपने निश्चित कर्मों तथा वस्तु का त्याग करके अनिश्चित की चिंता करता है उसका अनिश्चित लाॅट हो ही जाता है, निश्चित भी नष्ट हो जाता है । किसी ने सही कहा है आदि को छोड सारी गोधाम आधी मिले । पूरी पावें जो भी थी आपने निश्चित लक्ष्य से भटक जाता है । उसका कोई भी लक्ष्य पूरा नहीं हो पाता है । अर्थाभाव यही है कि आदमी को उन्हीं कार्यों में अपने हाथ डालना चाहिए जिन्हें वहाँ पूरा करने की शामत रखता हूँ । आगे श्री चढा के कहते हैं कि बुद्धिमान इंसान को अच्छे कुल में जन्म लेने वाली कुरूप करने से भी बे वहाँ कर लेना चाहिए । परन्तु अच्छे रूप वाली मीट कुल की कन्या से मेवा नहीं करना चाहिए क्योंकि विवाह संबंध सामान कूल में ही श्रेष्ठ होता है । लम्बे नाखून वाले हिंसक पशुओं नदी हो, बडे बडे सिंह वाले पशुओं, शस्त्रधारियों, स्त्रियों और राजपरिवारों का कभी भी विश्वास नहीं करना चाहिए । पहचाना की कहते हैं कि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों का भोजन दुगना लग जा, चौगनी साहस छह गुना और कम आठ गुना अधिक होता है । इन बातों का हमेशा ध्यान रखना चाहिए । ये था भाग एक अब हम सुनेंगे अगले एपिसोड में भाग तो आप सुन रहे हैं कुक ऊॅं के साथ ऍम