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वो कुकू एफएम पर आप सुन रहे हैं प्रभु दयाल मंढैया द्वारा लिखित मंथन अशोक व्यास की आवाज में ऍम सुने जो मन चाहे मंथन अध्याय पी एक रहस्य हूँ ये अद्भुत श्रृष्टि एक रहस्य है और मानव स्वभाव जिज्ञासु । अधिकार से ही मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को जानने के लिए प्रयत्नशील है । पेड पौधे जीव जंतु, रात दिन पृथ्वी आकाश सब रहस्य है बीज से पौधा कैसे बना? माँ के पेट में बच्चा कहाँ से आया? आंधी बरसात कैसे होती है? रात दिन कैसे बनते हैं? आसमान में दिखने वाले असंख्य तारीख दिन में कहाँ चले जाते हैं? कभी ठिठुराने वाली ठंड और कभी जुझ आने वाली गर्मी क्यों पडने लगती है? इस निरंतर चलने वाले महा आयोजन का नियंत्रन कौन और कैसे करता है? ऐसे अनगिनत प्रश्न मनुष्य की जिज्ञासा को बढाते रहे हैं और वह उनकी खोज में सतत प्रयत्नशील है । निरंतर अनुसंधानों से मनुष्य ने जाना है कि अखंड ब्रह्मांड में असंख्य नक्षत्र है । नक्षत्र की अपनी सकता है । सत्ता में शक्ति होती है । इस शक्ति को गुरुत्वाकर्षण कहते हैं । गुरूत्वाकर्षण संतुलन का आधार है । संतुलन उत्पत्ति का कारण है । खाद, पानी, हवा, प्रकाश के संतुलन से बीज अंकुरित होता है । मां शिशु को जन्म देती है । संतुलन बिगड जाने पर प्रलय होती है, तूफान आते हैं, समुद्र की जगह पहाड और पृथ्वी का स्थान समुद्र लेता है । आग बस्ती है, हिमपात होता है । फिर मछली, मेंडक, बंदर मानव बनने में युग बीत जाते हैं । इसलिए कहा गया है कि विवेकशील मनुष्य कहलाने का सौभाग्य दुर्लभ है । इस जीवन का सदुपयोग किया जाए । जिसका सृजन हुआ है, उन का विनाश भी अवश्यंभावी है । यह निर्विवाद रूप से मान लिया गया है और इसे शास्वत सत्य कहा गया है । मृत्यु इस संसार का शास्वत सकते हैं । जो इस संसार में आया है, वहाँ जाएगा भी । पेड पौधे, जीव जंतु, छोटे बडे, सबका अंत अपरिहार्य है । पहाड समुद्र तक को अपना स्थान बदलना पडता है । डायनोसोर की कल्पना ही रोमांचकारी है । उसके भयानक जबडों की कल्पना से ही पसीना छूटने लगता है, किंतु उन का भी अंत हुआ । किस लिए मारा उसे संभव है? सबसे सरल उत्तर है । असंतुलन में जब सर्वशक्ति साली महाकाय डायनोसोर ने सब जीवों को खा लिया तो उनके लिए भोजन का अभाव हो गया और वह भूख से मर गया । पृथ्वी का संतुलन अनिवार्य है । यदि पृथ्वी का नक्षत्रों का भ्रम मांड का संतुलन बना रहे हैं तो उत्पत्ति और विकास की ये अनवरत प्रक्रिया स्वतः ही चलती रहेगी । अब आज निरंतर इससे बडा आश्चर्य और क्या होगा? ब्रह्माण्ड के सबसे बडे आश्चर्य का जनक कौन है? ये प्रश्न इस आश्चर्य से भी महान आश्चर्य अनंत श्रृष्टि की उत्पत्ति, विनाश, संचालन नियंत्रन कौन करता है यह आज भी रहस्य है । वैज्ञानिकों ने बता दिया है कि ये एक प्राकृतिक प्रक्रिया मात्र है । बीस से अंगूर निकलता है । अंकुर से पौधा बनता है और पौधे सेव रक्षा अर्थात मुर्गी से अंडा और अंडे से और मुर्गियां पैदा होती है । लेकिन अंडा मुर्गी से बना या मुर्गी अंडे से । आखिर बीज आया तो कहाँ से? यदि मुर्गी पहले हुई तो उसे बनाया किसने? और यदि पहले अंडा हुआ तो दिया किस लिए? फिर वही प्रश्न वही आश्चर्य और वही रहे । असम की ऋषि मुनि योगी तपस्वी सृष्टि के सजक के रहस्य की जिज्ञासा के लिए जीवन पर्यंत उनकी खोज में प्रयत्नशील रहे । उन्होंने गौर तपस्याएं की गहन चिंतन किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि वह है । उन्होंने उसकी व्याख्या की और बताया कि वह असीम है, अनंत है, अक्षुण्ण है, अविनाशी है, शाश्वत है, निराकार है, अस्पर्शित है और अदृश्य हैं । उसे अनुभव तो किया जा सकता है, किंतु देखा नहीं जा सकता । किसी ने उसे पुष्पों की सुगंध कहा तो किसी ने पवन । किसी ने भावना बताया तो किसी ने अनुभव किन्तु निश्चित रूप से कोई उसे रंग रूप आकार नहीं दे सका । केवल नाम दिया सर्वशक्तिमान कृपानिधान प्रभु ईश्वर भगवान एक प्रकार से भगवान का अध्यक्ष स्पष्ट होना उसके लिए हितकर ही रहा । अन्यथा मनुष्य ने हाथ आए और उस के नाम को इतना रंगेगा है कि वह व्यक्ति के इस पान और सामर्थ्य के अनुसार सर्वनाम के रूप में भगवान सिंह, भगवानदास और भगवान ना तक बना दिया गया । यदि वह मनुष्य के रूबरू होता तो क्या होता है? उसकी पत्नी पडोसी से नमक मानती और उसके बच्चे रोज पिट कराते हैं, है भी और नहीं भी । मानो तो देव नहीं तो भीड का ले । जो उसे स्वीकारते हैं उनके लिए वह हर जगह है और जो उसे नहीं मानते उनके लिए वह कहीं भी नहीं । ईश्वर में आस्था अनास्था पूर्ण व्यक्तिगत है किंतु ईश्वरी सत्ता को प्रत्येक प्रकारांतर से मानना अवश्य है । घोर नास्तिक भी संकट की घडी में उसकी सत्ता स्वीकारने को विवश हो जाता है । किसी को अपनी सत्ता स्वीकार करवाने में सक्षम ही शक्तिशाली कहलाता है और जिसकी सत्ता को सब स्वीकार कर लें, वहीं सर्वशक्तिमान है । ईश्वर भी सर्वशक्तिमान है । कोई सीधे सीधे उसकी श्रेष्टता स्वीकार कर ले तो ठीक, वरना अपनी सत्ता मनवाने की सामर्थ्य भी उसमें है । मनुष्य विपत्ति के समय उसे पुकारता है तो अपने से श्रेष्ठ मान करिए । कमजोर को तो कोई अपनी सहायता के लिए बुलाता नहीं, निर्बल बलवान की शक्ति से आतंकित होकर ही उसकी श्रेष्ठता स्वीकार करता है और उसे अपना स्वामी देव भगवान मानता है । सब जानवरों ने शेर को, जंगल का राजा उसकी शक्ति के बल पर ही मना है । आदमी भी यदि ईश्वर को अपना स्वामी मानता है तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है, क्योंकि चल अचल, गोचर, अगोचर, सबका स्वामी तो वही है । मैं दृश्य है, स्पष्ट है और वह हर जगह हर समय विद्यमान है । कितना बलवान होगा, इसकी कल्पना से ही मनुष्य खबर आता है । बेचारा मनुष्य उसके सामने लगता कहाँ है जो सबका स्वामी है । वह सब का पालक भी है । वहाँ प्रत्येक जीव की रक्षा भी करता है और उसके भरण पोषण की व्यवस्था भी आती से लेकर ट्रेटी तक सब की आवश्यकता का प्रबंध उसने किया है । इन से जल और जल से वार्षिक लकडी और पत्थर में आग उस की अद्भुत कला के नमूने हैं । माँ के गर्भ में पलने वाला बच्चा और निर्जीव पत्थर के नीचे रहने वाला कीडा भी भोजन पाया है । ईश्वर सर्वशक्तिमान है । जब का पालन हार है, कण कण में विद्यमान है, इसलिए वहाँ महान है, महान है । इसीलिए वह पूजनीय है, वंदनीय हैं । वह सद्गुणों का प्रतीक है । जो ईश्वर को मानता है, वह निसंदेह है । उसकी उपस् थिति को स्वीकारता है और उसे हाजिर नाजिर मानकर उसके सामने अपने मनोभावों को निवेदित करता है । कोई किसी की वंदना अखार तो नहीं करता हूँ । मनुष्य भी ईश्वर की भक्ति करता है तो स्वार्थ से ही चाहे इस लोग की कामना से नहीं तो उस लोग की कामना से पूजा अर्चना अपने से बडे की ही की जाती है । बराबर वाले से मैत्रीभाव होता है । अपवाद स्वरूप किसी व्यक्ति विशेष की पूजा अर्चना, निस्वार्थ सही मगर उसके सामने हाथ जोडकर अपनी बात कहना, उसे स्वयं से ऊंचे स्थान पर प्रतिष्ठित करना, उसके सम्मुख नतमस्तक होकर उस की कृपा की याचना करना स्पष्ट है । उसकी श्रेष्ठता को स्वीकार करना हूँ । ईश्वर को आतंकित करने के लिए तो कोई उसके सामने जाता नहीं । कोई सिरफिरा ऐसी कुछ इंस्टा करता भी है तो मैं श्रम लहूलुहान होता है । ईश्वर का कुछ नहीं बिगडता, क्योंकि वह तो अदृश्य है, अस्पष्ट है । केवल पत्थर से सिर टकराकर कोई प्रसाद तो नहीं पा सकता । साधु संतों ने इश्वरीय सत्ता की संकल्पना से मानव को, संसार को, समाज को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया है । मनुष्य को उसके कष्ट निवारण हेतु ईश्वर का अवलंब दिया है । समाज में सद्भाव, सदाचार की प्रतिष्ठा की है । सब जीवों को सामान बताकर निर्बल ऐसा ही पर दया की शिक्षा दी है । मांसाहार के पीछे भी यही मूलभावना है । ईश्वर को हर पल, हर स्थान पर विद्यमान बताकर मनुष्य को दुष्कर्मों से बचने के लिए सावधान किया है, क्योंकि ईश्वर सर्वशक्तिमान है, संसार का स्वामी है, सबका पालन हार है । इसीलिए उसके किसी जी को कस्ट पहुंचाकर उसका कोपभाजन नहीं बना जाये । जानवर इश्वर के बारे में क्या सोचते हैं, ये वे जाने, लेकिन मनुष्य उससे अवश्य करता है । आदि मानव बरसात से डरता था । बिजली से घबराता था । आंधी तूफान से आतंकी था । वह गुफाओं में रहता था, कंदमूल खाता था, नंगा भी मिलता था, किन्तु सभ्यता के विकास ने उसे सब बना दिया । उसे घर में रहने, अनाज को पकाकर खाने का ढंग सिखा दिया । बिजली चमकने और बरसात के कारणों का वगैरह से जान गया, लेकिन ईश्वर उसके लिए आज भी रहस्य ही बना हुआ है । वह है भी या नहीं, मनुष्य अनिश्चय की स्थिति में भटक रहा है । निराकार की अपेक्षा साकार से संबंध स्थापित करना सरल है । इसीलिए ज्ञानियों और समाज सुधारकों ने निराकार को आकार दिया है । मानवीय तार कोई भी छवि मनुष्य के लिए भयावह ही होती है । इसलिए ईश्वर को मानव रूप में ही प्रस्तुत कर उसके सद्गुणों पर आचरन की शिक्षा दी गई । मनुष्य के शाम सात का रहे तो ईश्वर को पत्थर में, कागज पर, धातु में प्रतिष्ठित किया गया । मानव सुभाव की पराकाष्ठा देखिए, जब भगवान छपा तो छपता ही गया । उसके अनंत रूप हो गए । हमने अपनी सुविधा और इच्छानुसार उसे रूप दिया । कहीं वहाँ राम बना तो कहीं कन्हैया । किसी ने अल्लाह कहा तो किसी ने वाहेगुरु जब पुरुष बनाया गया तो नारी क्यों नहीं? और जब ईश्वर नारी पुरुष दोनों बना तो इससे भी आगे देखने वालों ने उसे अर्धनारिश्वर भी बनाया हूँ । जहाँ की रही भावना जैसी तीन प्रभु मूरत देखी, वैसे एक राजा हो तो सारी प्रजा की उसके प्रति निष्टा स्वाभाविक है । किंतु जब संसद का प्रतीक सदस्य ही प्रधानमंत्री पद का दावेदार हो तो जनता का विश्वास स्थिर रहे पाना मुश्किल है । हजारों लाखों ईश्वरों में से किसी श्रेष्ठ माना जाए, इस विचार नहीं मनुष्य को नासिक बनाया है । संकट के समय वह चाहे उसके सामने सिर झुकाए मगर समर्पण भाव की आस्था उसमें नहीं है । ज्ञानियों ने अपने ढंग से उसके शुक्ला रूप की व्याख्या की तो वैज्ञानिकों ने उसके स्कूल रूप की भुखंड पवन मानने वालों ने आंखें बंद करके उसी देखा तो ठोस मानने वालों ने उसकी चीरफाड करके विज्ञानिकों ने जड चेतन सब के अंग प्रत्यंग को खोल डाला । एक एक रॉयल एशिया का तंतु का तन्त्रिका का अन्वेषण कर डाला, लेकिन उन्हें भगवान कहीं नहीं मिला । मान नाम का अंग मानव शरीर में होता ही नहीं और रक्त संचार के एक यंत्र से अधिक कुछ भी नहीं है । फिर भगवान ईश्वर कहाँ है? लेकिन वह है इस बात को वैज्ञानिक भी मानते हैं और ये उनके कठिन परिश्रम, गहन अध्ययन तथा शुक्ला अन्वेषण निष्कर्ष है । मृत्यु का अर्थ है कि शरीर नाम की मशीन का कार्य बंद कर देना । लेकिन जीव को चलाई मान उसे मुखरित रखने वाली शक्ति मशीन के फैल हो जाने पर वह कहाँ चली जाती है? ये रहस्य है मारती जी को पारदर्शी शीशे के खोल में रखकर देखा गया अमर अजर अमर अविनाशी कही जाने वाली आत्मा नाम की चीज कैसे सस्ती पंद्रह से निकलती है, वाह निकल भी जाती है और जीव की मृत्यु हो जाती है और वैज्ञानिक देखते रहे जाते हैं । उन्हें कुछ भी दिखाई नहीं देता । जी की बीमारी का तो उपचार कर सकते हैं । इन तुम मृत्यु का नहीं, मौत के कारण खोजी जा सकते हैं, किंतु मौत को नहीं । क्योंकि ईश्वर महान है, दयावान है, इसीलिए किसी की मृत्यु का उत्तरदायी उसे नहीं ठहराया जा सकता । ज्यादा हो तो जैसी हरी इच्छा कहकर श्रम को ढांढस बंधा सकते हैं, सांत्वना दे सकते हैं, कर कुछ भी नहीं सकते । जन्म की भी यही समस्या है । वैज्ञानिकों ने जांच परख लिया है कि किन्हीं विशेष परिस्थितियों में नर और मादा के समागम से संतान उत्पत्ति होती है और इसका ठोस कारण है कि नर में शुक्राणु और मादा में दिन में पैदा होता है । शुक्राणुओं और डिब्बे के सहयोग से सृजन होता है । जिन घरों में शुक्राणुओं और मादा में डिम उत्पन्न नहीं होते, उन्हें क्रमश है न कुसंकट और पांच कहा जाता है । मगर मानव बीज में जीवन कहाँ से आया? फिर वही प्रश्न फिर वही जिज्ञासा वहीं रहते हो । अबूझ पहेली ज्ञानियों को भी मत रही है और विज्ञानिकों को भी जाने । इस रहस्य का कोई सटीक उत्तर मिल पाएगा भी या नहीं । ईश्वर की इच्छा सर्वोपरी मान ली जाती है । हम भी इस सत्य को स्वीकार कर ले तो ।
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