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तीस जनवरी दो हजार इस साल स्कूल में महात्मा गांधी की पुण्यतिथि भर अवकाश है । वो वर्ष पूर्व आज के दिन ही पर रोक सुधारे थे । एक कट्टर हिन्दू तथा हिंदू महासभा के सदस्य रह चुके नाथूराम गोडसे ने उन पर गोली मार दी और उन पर इल्जाम लगाया कि वह भारत का विभाजन करने में सहायक रहे । ताजा ने कहा, अच्छा हुआ किसे मुसलमान की बजाय गौर से के हाथ उनकी हत्या हुई तो सोचो अगर वैसा हुआ होता तो कितने पहनकर दंगे हो जाते हैं । मुझे लगता है कि कई बार हम अपने लाभ के लिए ही अपनी ना पसंदगी को छुपा लेते हैं । जैसे माँ बाप को बहुत ही पर ऐसे प्याज उठा रहे थे । मानव उनकी अपनी बेटी हो या में मुझसे इतने समय तक प्यार करने का नाटक करती रही । अगर मैंने उस दिन माँ बाबा की बात नहीं सुनी होती तो मैं भी उन की बातों में आ गया होता । अगर मैंने ग्रामीण अलग होने को न कहा होता तो भगवान जाने वो कब तक मुझसे प्यार की नौटंकी जारी रखती । ब्राहमी ने दोबारा संपर्क नहीं साधा । मेरा हाल जानने के लिए कौन तक नहीं की? इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि उसके जीवन में मेरी क्या जगह बच्ची थी । पर उन्होंने मुझे जो दर्द दिया, अगर मुझे उनके झूठ और छल का पता नहीं चलता तो और भी गहरा जाता । रानी ने तो शुरू से ही झूठ बोल कर दिखा दिया था जब उसने मुझसे अपने माँ बाप की असलियत छुपाई । मुझसे प्यार का इजहार करने के बाद भी अतीत की बातें छिपाई और माँ बाबा के बारे में तो जितनी कम बात करें उतना ही बेहतर होगा । मानो इतने सालों में माँ बाबा के खोल में ऐसे घर जी जी रहे थे जो ज्यादा के जीवन में बहुत ही की कदम रखते ही अपने खोल से बाहर आकर महा बाबा के दल और दिमाग पर हावी हो जा रहे थे । जब भी हाँ बाबा बहुत ही को दुलार करते हैं, उनकी बातों पर हसते उनके चेहरे को सहलाते हुए अपना बिहार उडेलते तो मेरे पेट में जैसे तूफान साहने लगता । हमी ने भी मुझे कितनी बार कहा था कि वह मुझसे प्यार करती है जबकि वह नहीं करती थी । माँ मेरी प्यारी मां इसी दुष्ट राक्षसी में बदल गयी थी । उसने दीदी माँ का ही रूप धर लिया था । वैसे भी ये चीज तो उनके खून नहीं थी । मैं बात कहना नहीं चाहता था, पर कुछ शब्दों को कहे बिना भी बात नहीं बनती है । मुझे धीरे धीरे मासिक नफरत होने लगी थी । इस सब लिखते हुए मेरे हाथ कांप रहे हैं । पर मुझे यकीन है कि मैं अपने भीतर से यही महसूस कर रहा था । नफरत कृति सादी सी बात है, मुझे उनके दिखा गई । बिहार के झूठे नाटक, झूठी परवाह और तौर तरीके से नफरत थी । उन्होंने बहुत ही को एक इंसान समझने से ही इंकार कर दिया था । मुझे इस बात से नफरत थी । उन्हें लगता था कि बहुत ही के अंदर पालने वाली जान पर केवल दादा और उनका ही हक था । कुछ नफरत थी कि वो मेरे साथ भी वही हंसी हसती थी । मेरे लिए सब सहन करना कितना कठिन होगा, आप सब सोच भी नहीं सकते । मैं झूठे खेल को खत्म कर सकता था । मैं दादा को उनकी बातचीत के बारे में बता सकता था । उन्हें कह सकता था कि वह बहुत ही कोई झूठी दुनिया से दूर ले जाए । ये भूल जाएँ की उनके कोई माँ बाबा हैं जिन्होंने उन्हें पाला है और मैं अभी ऐसा नहीं करूंगा । देखना चाहता हूँ की माँ बाबा क्या कर सकते हैं तो जब मैं उन्हें छोडो तो पूरी सूची में क्यों के जवाब मिल सके । मैं चाहता था कि वह आजीवन अपने इस निर्णय पर पश्चाताप करें । पैसे भी अगर वे बहुत ही को फुसलाकर अपना स्वार्थ साथ सकते थे तो बहुत ही को भी पूरा हक था की वह माँ की ओर से मिल रही देख रेख लें । गर्भावस्था में उन्हें इस की जरूरत थी । पी । एस । मैंने भी कोई हमारा तय नहीं किए । एक बार बच्चे का जन्म हो जाएगा फिर देखना होगा ।
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