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द बॉय हू लव्ड -34 in  | undefined undefined मे |  Audio book and podcasts

द बॉय हू लव्ड -34 in Hindi

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AuthorSaransh Broadways
मैं रघु गांगुली हूँ। आज मैं अपनी आपबीती लिखने बैठ ही गया हूँ। कागजों की सरसराहट और उस पर चलती हुई कलम की तीखी निब, धीरे-धीरे स्याही का सोखना तथा इन अजीब से लगने वाले मुड़े हुए अक्षरों को देखना निश्चित तौर पर संतुष्टि दे रहा है। मैं कह नहीं सकता कि मेरे जैसे मौनावलंबी (सिजोफ्रेनिक) के लिए इस डायरी लेखन में ही सारे सवालों के जवाब होंगे; पर मैं आज कोशिश कर रहा हूँ। मेरा सिर बुरी तरह से चकरा रहा है। पिछले दो साल से मैं जिंदगी की सबसे ऊँची लहरों पर सवार था। अधिकतर दिनों में मैंने जान देने के लिए तरह-तरह के साधनों की तलाश की—मेरे घर के आस-पास की सबसे ऊँची इमारत, रसोई का सबसे तेज धार चाकू, सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन, कोई केमिस्ट शॉप—जो बिना कोई सवाल किए सोलह बरस के लड़के को बीस या उससे ज्यादा नींद की गोलियाँ दे दे, एक पैकेट चूहे मारने की दवा और कभी-कभी तो यह भी चाहा कि माँ-बाबा से गणित के पेपर में अच्छे नंबर न लाने के लिए फटकार मिले। सुनिये क्या है पूरी कहानी| writer: दुर्जोय दत्ता Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Durjoy Dutta
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सत्रह जुलाई उन्नीस सौ निन्यानवे माँ दुनियाँ की सुंदर स्त्रियों में से एक है । मैं ऐसा इसलिए नहीं कह रहा क्योंकि मैं उनका बेटा हूँ । आज से दो साल पूर्व तक लोग अक्सर उन्हें दादा की सुंदरी बडी बहन मान लिया करते थे । दादा और मुझे इस बात पर गर्व होता और हम छेद भी जाते हैं । पीटीए मीटिंग में माँ सबसे सुंदर मम्मी देखती और उनकी स्माॅल और ऑफ देखते ही बनता था । उनकी अंग्रेजी और हिंदी जिससे वो बीच बीच में अपनी सुविधा के अनुसार बदल लेंगे । मेरे और दादा की तुलना में कहीं बेहतर थी पर आते हैं । सुबह वो किसी धूम जैसी लगी । उनका चेहरा पीना पडा हुआ था । उंगलिया लंबी और पतली लग रही थी और बाल बिखरे हुये थे और लैंड लाइन के पास बैठी उनकी घंटे बन जाने के इंतजार में थी । आज माँ का चन्दन था हर साल भले ही कितनी कोशिश कर रहा हूँ । पहले दावा ही उन्हें विश करते थे । मैं अपने कमरे से गरीब आधा घंटा जाता रहा कि राष् पहले ज्यादा कहीं हो ना जाए । पिछले कुछ सप्ताह तो माँ बाबा अक्सर रिसीवर को फोन से अलग रखते ताकि ज्यादा घूमना कर सके क्योंकि बाबा के मना करने पर भी बार बार कॉल कर रहे थे । उन नहीं बजा हाथ बहुत जेमा मैंने कहा ये दिखावा बंद करो । मैं जानती हूँ की तो इसमें प्यार नहीं करता हूँ । मैंने कहा और उठ गई उनकी आंखों में शोक का और आवास बर्फ जैसी ठंडी थी । पर कहते हैं कि बच्चे बडे होकर माँ बाप से भी ज्यादा अपने दोस्तों को प्यार करते हैं । पर तो मैं क्या यही वजह है कि तेरे पास कोई दोस्त भी नहीं है क्योंकि तू जरूरत पडने पर उनकी मदद नहीं कर सका । इस से तुमने हमारे साथ क्या? तो बस अपने बारे में सोचता है । चुनाव मैं अच्छी तरह जानती हूँ । उन लगातार कैसे खुद को अपनी डायरी के पीछे छिपा रहा है । मैं सब जानती हूँ । मैं मेरी कई दोस्त हैं और तो एक अच्छा दोस्त है । क्या तू अच्छा दोस्त था? सामी का दोस्त नहीं, उसका अच्छा दोस्त था । मुझे जहाँ लेना चाहिए था अगर तू स्वामी के बाबा आपसे उसके बारे में झूठ बोल सकता है तो किसी से भी झूठ बोल सकता है । वो तो आपका तो था अपने कमरे में नहीं दरवाजा बंद कर दिया । अभी बहुत हाँ, इतने अच्छे रिटर्न गिफ्ट के लिए शुक्रिया । माँ का जन्मदिन और अपने बारे में उनकी राय का जश्न मनाने के लिए मैं उस समय घर से बाहर निकला है जब कोई नहीं देख रहा था । एक घंटे बाद में शामिल किया था । मैं कहीं महीनों से नहीं गया था । इससे मेरे बारे में माँ की राय पुष्ट होती थी कि मैं एक स्वार्थी व्यक्ति था । दरवाजा बंद था । लडकियों पर मकडी के जाले लगे थे । दरवाजे के बाद पीले पड चुके अखबारों का ढेर था । स्वामी के माँ बाप कहीं चले गए । इस बारे में शर्मिंदगी होना लाजमी था । स्वामी की मौत के कुछ महीने बाद तक मैं उनके घर जाया करता देखता है कि वह किस तरह अपने काम से जूझने की कोशिश में थे । फिर मैंने जाना बंद कर दिया । मैं इधर उधर मान हमारा पडता रहा । माँ के शब्दों में छोडी की धार की तरह मेरे दिल को घायल कर दिया था और मैंने अच्छा खुद को भी नानी के घर के आस पास पाया । मैं उसके घर के बाहर फुटपाथ पर बैठकर उसकी खिडकी की और देखने लगा क्योंकि पर एक परछाई देखिए पक्का नहीं कह सकते की वही थी । मैंने जो भी किया मेरी भी हो चुकी थी और वहीं बैठे बैठे मुझे इसका एहसास भी हो गया था । पर मैं चाहकर भी उठ नहीं सका । मुझे लगा की थोडी राहत मिली है और घायल नर्सिंग वर्धमान यहाँ अपनी जगह वापस आ रही हैं । सारे तक जुड रहे हैं और रंगों में लघु फिर से दौड रहा है । फिर मैं उठाना पर घर लौटा । माँ बाबा को मेरी गैरमौजूदगी का पता तक नहीं चला ।

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मैं रघु गांगुली हूँ। आज मैं अपनी आपबीती लिखने बैठ ही गया हूँ। कागजों की सरसराहट और उस पर चलती हुई कलम की तीखी निब, धीरे-धीरे स्याही का सोखना तथा इन अजीब से लगने वाले मुड़े हुए अक्षरों को देखना निश्चित तौर पर संतुष्टि दे रहा है। मैं कह नहीं सकता कि मेरे जैसे मौनावलंबी (सिजोफ्रेनिक) के लिए इस डायरी लेखन में ही सारे सवालों के जवाब होंगे; पर मैं आज कोशिश कर रहा हूँ। मेरा सिर बुरी तरह से चकरा रहा है। पिछले दो साल से मैं जिंदगी की सबसे ऊँची लहरों पर सवार था। अधिकतर दिनों में मैंने जान देने के लिए तरह-तरह के साधनों की तलाश की—मेरे घर के आस-पास की सबसे ऊँची इमारत, रसोई का सबसे तेज धार चाकू, सबसे निकटतम रेलवे स्टेशन, कोई केमिस्ट शॉप—जो बिना कोई सवाल किए सोलह बरस के लड़के को बीस या उससे ज्यादा नींद की गोलियाँ दे दे, एक पैकेट चूहे मारने की दवा और कभी-कभी तो यह भी चाहा कि माँ-बाबा से गणित के पेपर में अच्छे नंबर न लाने के लिए फटकार मिले। सुनिये क्या है पूरी कहानी| writer: दुर्जोय दत्ता Voiceover Artist : Ashish Jain Author : Durjoy Dutta
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