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चुड़ैलों का पहाड़ -01 in Hindi

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12 K Listens
AuthorDevendra Prasad
Publisher:- FlyDreams Publications ... Buy Now:- https://www.amazon.in/dp/B086RR291Q/ ..... खौफ...कदमों की आहट कहानी संग्रह में खौफनाक डर शुरू से अंत तक बना रहता है। इसकी प्रत्‍येक कहानियां खौफ पैदा करती हैं। हॉरर कहानियों का खौफ क्‍या होता है, इस कहानी संग्रह को सुनकर आप समझ जाएंगे! कहानियों की घटनाएं आस-पास होते हुए प्रतीत होती हैं। आप भी सुनें बिना नहीं रह पाएंगे, तो अभी सुनें खौफ...कदमों की आहट …!
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चुडैलों का बाहर भाग एक मेरा मोबाइल काफी देर से घनघना रहा था । मैंने तपाक से फोन उठाया और जवाब दिया, चलो बहुत है दे भाई, तुम ऐसा ही करते हो । हमेशा एक तो ब्लॅक भी बनाओ और बिना बताए खुद कैंसिल भी करता हूँ । यदि प्लाॅन है तो बताइए तो कम से कम इतना कब से फोन कर रहा हूँ । उठा क्यों नहीं रहे? उस से मैं एकदम शताब्दी एक्सप्रेस की तरह फोन पर दूसरी तरफ से विकास की आवाज आई । अरे यार किसने कहा की प्लान कैंसिल हो गया? ऍसे प्रत्युत्तर में कहा जब फोन नहीं उठा रहे थे, उसको मैं क्या समझो? विकास ने फिर ताने मारते हुए कहा भाई जब तुमने फोन किया था तब मैं बाइक चला रहा था । पर घर आते ही मैं वाशरूम चला गया था । मैंने उसको शांत करवाने की कोशिश की तो चलो ठीक ऍम चलना है ना । विकास में उत्सुकता से मुझ से पूछा था बिलकुल भाई, मैंने हामी भरी । मैंने तो सब तैयारी कर लिया । बाकी तुम्हारे ऊपर है । विकास ने इस बार खुश होकर का तो पर बताऊँ । कल कब और कहां मिल हो गए । मैंने विकास से कल के प्लान को अमलीजामा पहनाने के लिए पूछा । देखो मैं आज रात साढे ग्यारह बजे गुरुग्राम से बस से निकलूंगा जो मुझे देहरादून आईएसबीटी सुबह साढे पांच बजे पहुंचा देगी । फिर मैं वहाँ से रेलवे स्टेशन पहुंच जाऊंगा तो कितने बजे तक आ जाओगे । मैं छह बजे तक आ जाऊंगा । तब तक तो मसूरी जाने के लिए टिकट ले लेना । मैंने जवाब दिया ठीक है हमेशा कहता देने मत करना । समय से आ जाना नहीं तो मैं वहाँ बैठे बैठे बोर हो जाऊंगा । विकास ने कहा तो मैंने उसको फोन पर ही दिलासा दिया और उम्मीद बनाए रखने को कहा । इतना देव देहरादून में शास्त्रीनगर अपने घर आया हुआ था । विकास गुरुग्राम में पिछले चार साल से किसी कंपनी में नौकरी करता था । हम दोनों ने शुक्रवार और शनिवार तो दोनों की ट्रैकिंग पर जाने की योजना बनाई थी । ट्रैकिंग के लिए तीन तरह की तैयारियाँ करनी पडती हैं, जिन्हें शारीरिक, मानसिक और आर्थिक तैयारियाँ कह सकते हैं । किसी भी यात्रा के लिए पूरा जोर मानसिक तैयारी पर ज्यादा रहता है । उसमें उस इलाके की अधिक से अधिक जानकारी हासिल करना शामिल होता है । कहने का मतलब ये हुआ कि वहाँ का मौसम था । कल एक परिस्थिति और उस जगह का इतिहास आपको जितनी ज्यादा जानकारी होगी, मुश्किल हालातों में ये उतनी ही काम आएगी । मानसिक पटल पर वैकल्पिक मार्ग पे तैयार होना चाहिए । बहरहाल, इसके लिए सबसे पहले हमें शुक्रवार की सुबह देहरादून में इकट्ठे होकर वहाँ से मसूरी निकलना था । देहरादून से मंजूरी लगभग पैंतीस किलोमीटर की दूरी और छह हजार एक सौ सत्तर फुट की ऊंचाई पर स्थित है या पहाडों की रानी के नाम से विख्यात है । मसूरी । हमलोग घर से ही जाने वाले थे तो देहरादून रेलवे स्टेशन के बाहर से ही मिलती थी । हम दोनों शुक्रवार को पर्यटन बात जैसे चुडैलों की पहाडी के नाम से भी जाना जाता था । वहाँ जाने का प्रोग्राम बना रहे थे, जो कि मसूरी से बारह किलोमीटर की पैदल ट्रैकिंग थी । फिर उसी दिन शाम डालने से पहले तक ट्रैकिंग खत्म करने के बाद पर्यटक बस से वापस मसूदी तक आना था । वहाँ से अगले दिन सात किलोमीटर दूर जॉॅब भी जाना था और उसके बाद मैं रात नहीं जॉॅब रिवर स्टोन कॉटेज में ही रुकना था । अगले दिन शनिवार को दोपहर तक जॉर्ज एवरेस्ट में वहाँ की वादियों का आनंद लेना था और फिर शाम को कंपनी गार्डन घूमकर जॉर्ज एवरेस्ट के पास एवरस्टोन कॉटेज में ही पिछले काम कर रहा था । अगली सुबह रविवार को देहरादून के लिए वापस आना था । वहाँ से शाम से पहले विकास को गुरुग्राम के लिए निकाला था और मुझे दोपहर के ट्रेन से लखनऊ फॅस । अभी घर से निकले नहीं किया । सुबह साढे पांच बजे विकास मुझे फोन पर कहता है अरे बस निकल ही रहा हूँ । मैं सवा छह बजे तक आ जाऊंगा । ऐसा करो तब तक काम मसूरी जाने के लिए दो टिकट ले लूँगा । विकास को ये कहकर तैयार होने लगा क्योंकि मैं उसके कॉल आने पर ही उठाता । रेलवे स्टेशन मेरे घर से मात्र चार किलोमीटर के अल्प दूरी पर ही था । मुझे वहाँ पहुंचने में केवल पंद्रह से बीस मिनट ही लगते हैं । आधे घंटे में ही मैं ना होकर फ्लैश हो गया और पिट्ठू बैग उठाकर चल नहीं वाला था कि मेरा फोन एक बार फिर से काम कराया । हर एक के घर पहुंचे । मैं टिकट लेने वाली पंक्ति में खडा हूँ और मेरी बारी आ गई है । यही तो मैं और वक्त लगेगा तो बोलो मैं थोडी देर बाद टिकट लूंगा । विकास ने काफी देश भर में बोला क्योंकि वहाँ भीड ज्यादा होने की वजह से शोरगुल में उसके आवाज दबती रही थी । अरे भाई में पहुंच गया हूँ । बस अभी विक्रम से उतर रहा हूँ । ऐसा करो दो टिकट ले लो । विकास को कहा । अभी फोन रखे । कुछ हुए थे कि फिर से विकास का फोन आ गया । अरे मसूरी में किधर जाना है? यह टिकट काटने वाले भाई साहब कह रहे कि मसूरी में दो स्टॉप से और केवल उन्हीं दो जगह बस रख दिया । पहला लाइब्रेरी और दूसरा पिक्चर पैलेस बोल रहे हैं । विकास ने मायूस होकर पूछा था लाइब्रेरी तक ले लो, हमें उधर से निकलना है । पिक्चर वाले तो दूसरे छोर पर है । वहाँ से बहुत दूर पडेगा । एक अगर मैंने फोन को काट दिया और विकास की तरफ बढ चला । देहरादून उसके लिए नया शहर नहीं था । उसने देहरादून से उन्नीस किलोमीटर दूर शिवालिक कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग है । मेरे साथ ही अपनी इंजीनियरिंग पूरी की थी । तो जानता हूँ ये दिल्ली के जैसे भीडभाड वाली जगह से अलग होने के साथ सुकून भरी जिंदगी के लिए बेहतरीन जगह, भारी शहरों से प्राय यहाँ लडके और लडकियां, अच्छी शिक्षा व्यवस्था और रोमानी मौसम के कारण ये जगह सबको मंत्रमुक्त करती है । शहर की भाषा, लहजा, दफ्तार, आत्मविश्वास इत्यादि सभी में एक दीक्षित तेजी के साथ साथ एक जादुई अहसास था जो हर किसी को अपना घर का एहसास करवाता है । छोटे बडे शहरों से आने वाले लोगों को यहाँ खुद के अनुकूल ढालने में ज्यादा वक्त नहीं लगता था । इस शहर ने कभी किसी को बाहर ही होने का एहसास नहीं कराया और ये बात बाहर से आए लोगों को भी अच्छी तरह पता थी । लोग खुद को जरूरत के हिसाब से ढाल लेते थे और किसी बदलाव को लेकर सशंकित नहीं । अगले ही क्षण में विकास के सामने था और वो टिकट लेकर मुस्कुराते हुए मेरी तरफ पड रहा था । हम तो उन्होंने एक दूसरे से गर्मजोशी से अभिवादन किया । विकास ने मुझे घर से आने के लिए दोषी ठहराया । उन्होंने भी कुछ छोटे मोटे बहाने बना है । अपना बचाव करते हुए बोला, भाई मैं योजनाएं बनाने में विश्वास नहीं रखता, योजना बनाने का है क्या को प्रस्थान का एक दिन निर्धारित करना पडेगा । एक बजट निर्धारित करना पडेगा । जैसे जैसे दिन पास आता है, दबाव के साथ साथ तनाव हावी हो जाता है । पकाती करने में तो तुमने पीएचडी कर रहे क्या एक्सॅन से बस में जगह में लिया क्योंकि सामने मसूरी जाने के लिए दो बस खडिया । मैंने राहुल झाडते हुए कहा यूके जॅाइन वन थ्री फोर । ये बस का नंबर है और सीट नंबर सात और आठ है । इतना कहने के बाद विकास दोनों बस के नंबर प्लेट को देखकर मिलन करने लगा । हम तो उन्होंने देखा कि जस्ट बस की टिकट हमें मिली थी तो हम लोगों के दाई तरफ भी खरीदी विकास नॅान रखें और हम मसूरी जाने वाली बस में अपनी सीट पर बैठ गए । इस बात की भी खुशी हुई कि हमें जो सहित मिली थी उसमें एक सीट खिडकी वाली थी, जिससे हम देहरादून से मसूरी जाने तक इस नैसर्गिक सुंदरता का भरपूर नजारा ले सकते थे । हम दोनों आज बहुत रोमांचक है । उसके पीछे की वजह यह थी कि हम लोग ट्रैकिंग पर पहली बार एक साथ जा रहे हैं । रजत को विकास मेरे कॉलेज के बच्चे ही मित्र है और हम लोग काफी जगह एक साथ घूमे थे । तो ये पहला अवसर था जो कई महीनों से ट्रैकिंग का प्लान टालते टालते आज पूरा होने वाला था । हम दोनों की जो बातों का सिलसिला शुरू हुआ वह मसूरी जाकर ही दूसरा वो अपनी व्यथा सुना रहा था कि उसके परिवार वाले इस पर शादी का दबाव बना रहे हैं लेकिन वो अपने कॉलेज के दिनों से ही हमारे कॉलेज की है कि लडकी को पसंद करता है और उसी से शादी करने का विचार भी । मैंने उसे सुझाव भी दिया कि अगर वह कहे तो मैं उसके बाद आगे बढा सकता हूँ क्योंकि वो उस लडकी के प्रेम में गिरफ्तार था तो मेरे ही साथ मेरी कंपनी में जॉब कर रहे हैं । विकास ने कहा कि अपने दिल की बात खुद ही बताना बेहतर समझता है पर साफ शब्दों में मुझे उसे कुछ भी कहने से मना कर दिया । विकास के अंदर राजीव से जॅानी थी कि यदि उसने मना कर दिया तो शायद उसकी बच्चे कुछ भी उम्मीद भी चली जाएगी । विकास ने ये भी बताया कि उसे देख कर उसमें पहुंॅची आती है तो किसी भी तरह का काम को करने में असफल प्रदान करती है । उसकी बातों का सुनने के बाद मैंने उसे समझाते हुए कहा प्रेम के कारण नहीं होता । परिणाम होते हैं, मित्र हैं पर प्रेम में परिणाम की चिंता तब तक नहीं होती जब तक देर हो जाएगा । पंछी घर की छतों, मेट्रो की सीढियों, कॉलेज के खुले मैदानों में या फिर पार्क के पेडों के अर्तगत अपनी जिंदगी के नीड बताने के सपनों में खोए रहते हैं और परिणाम अपनी परिनीति की ओर बंद गति से चला जाता है । ये परिणिति सुखद हो गया तो खत्म या फिर दुखद । परिनीति का सुखद परिणाम या फिर इसका उल्टा होगा कि महज इस बात पर निर्भर करता है कि प्रेम का परिमाणों कितना है ही या नहीं । मेरी बातों का उसपर आसान होता देख मैंने भी उसे उसके हाल पर छोड दिया । बात और किस्सा से पता ही नहीं लगा कि डेढ घंटे की यात्रा इतनी सरलता से कैसे गुजर गए । हम ठीक आठ बजकर बारह मिनट पर मसूरी में खडे थे । मसूरी का इतिहास अठारह सौ पच्चास में एक साहसिक प्रदर्शन मिलिट्री अधिकारी और श्री शोर जो देहरादून के निवासी और अधीक्षक द्वारा वर्तमान मसूरी स्थल की फौज से आरंभ होता है । मसूरी भारत के उत्तराखंड राज्य का एक पर्वतीय नगर हैं जिससे पर्वतों की रानी भी कहा जाता है । देहरादून से पैंतीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है । मसूरी उन स्थानों में से एक है जहां लोग बार बार घूमने जाते हैं । यह पर्वतीय पर्यटन स्थल हिमालय पर्वतमाला के शिवालिक श्रेणी में पडता है । इसकी औसत ऊंचाई समुद्रतल से दो हजार पांच मीटर यानी छह हजार छह सौ फुट है । जिसमें हरी पर्वत विभिन्न पादप रानियों समेत पडते हैं । उत्तर पूर्व में है मंडल शिखर सर उठाए दृष्टिगोचर होते हैं तो दक्षिण में दूनघाटी और शिवालिक श्रेणी दिखती है । इसी कारण ये शहर पर्यटकों के लिए परिमहल जैसा प्रतीत होता है । मसूरी गंगोत्री का प्रवेश द्वार भी है । देहरादून में पाई जाने वाली वनस्पति और इसके जीव जंतु उसके आकर्षण को और फिर पढा देते हैं । दिल्ली और उत्तर प्रदेश के निवासियों के लिए ये लोकप्रिय कृष्ण कालीन पर्यटन स्थल जब विकास और मैं मसूरी पहुंचे । चारों तरफ से बादलों ने अपने सफेद आंचल से मसूरी कोटा कर रखा था । ऐसा लग रहा था कि मानव मजबूरी ने बादलों की सफेद चादर ओड रखे हैं । गर्मी के मौसम में भी मसूरी में सैलानियों की काफी भीड थी । इसकी वजह मसूरी का ठंडा वातावरण था क्योंकि नीचे मैदानी क्षेत्रों में इस वक्त काफी गर्मी थी । मसूरी पहुंच गए सबसे पहले हम लोग बस स्टैंड से ऊपर की तरफ बडने लगे । लगभग डेढ सौ मीटर की दूरी तय करने के बाद हम लाइब्रेरी चौक पहुंच गए । वहाँ से मॉल रोड की तरफ चाहिए रहे थे कि तभी वहीं पांच की दुकान से गरमा गरम इलाइची और अदरक की चाय के हो स्कूल है । हमें उस मकान के अंदर जाने पर विवश कर दिया । हर एक कदम उस मनमोहक सुगंध की ओर अकस्मात ही चल पडे । वैसे भी हमें भूख तो लगी थी इसलिए वहां बैठ कर गर्मागर्म अदरक वाली चाय के साथ हाल ऊॅं लिया । चाय के साथ आलू के पराठे बहुत ही लजीज लग रहे थे । स्वादिष्ट पराठे होने के बावजूद भी हम लोगों ने एक एक पराठे ही है क्योंकि हमें बारह किलोमीटर की पैदल ट्रेकिंग करनी थी । विकास ने गूगल में आपने देखा और बताया कि हमें मॉल रोड से होते हुए वुडस्टॉक स्कूल तक जा रहा है । फिर वहाँ से दक्षिण की तरफ जाने पर नीचे की तरफ ढल मिलेगी । सीधे धोबीघाट पर जाएगी तो भी घट से मात्र साठ किलोमीटर की दूरी पर ही पर्यटन है । हम दोनों अपने लक्ष्य की तरह पढ चले थे । सफर में हमारा मौसम भी बखूबी साथ दे रहा था । धूपकर कही भी नामो निशान नहीं था और ठंडी ठंडी हवाएं हमारे हौसले को और बढा रही थी । थोडी देर में हम लोग वो स्टॉक स्कूल पहुंच गए नहीं । पास में हरे रंग की लकडी की तख्ती देखिए जिसमें सुंदरता के साथ एक तीर के निशान नीचे की तरफ धोबीघाट जाने का चंद्र को लेता हुआ था । हम लोग भी उसे निशान की तरफ पडेगा । चलते चलते पौन घंटा हो चला था । रास्ता लगातार ढलान वाला था । मेरे मन में भी ये चल रहा था कि जितना हम नीचे जा रहे हैं आते वक्त अपनी पढाई भी करनी होगी । चलते चलते दिमाग भी एक यात्रा पर निकल पडता है । वो यात्रा जब थकान के अहसास को कहीं पार्षद में डाल देती है । हमारे जहन के कई सारे खयालों के जवाब की तलाश में उलझाए रखता है । कई छोटे बडे खयाल सहन में यात्रा करने लगते हैं । ऐसी यात्राएं जिनकी कोई मंजिल नहीं होती जिनका कोई ठीक ठाक रास्ता भी नहीं होता । ऐसे कई खयाल इस वक्त दिमाग की दुनिया में अपनी अपनी यात्राओं में व्यस्त हैं । उन्हीं में से एक ये भी की इतनी लम्बी थकान भरी लगातार ट्रैकिंग पहली बार की जा रही है । इसे पहली बार किसने तय किया होगा और कौन होकर जैसे समझते को मापने का खयाल आया होगा । मिलके वो पत्थर रखने वाला और उन्हें मापी जा सकने वाले दूरियों में डालने वाला कोई तो रहा होगा जो सामान की को जीता होगा ।

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