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संघ तो परिपूरक परछाई भारतीय जनता पार्टी की जबरदस्त सफलता और सर डालने में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ हमेशा ही उसका स्रोत परिपूरक और परछाई रहा है और इस प्रक्रिया में उसका भी स्वरूप चल रहा है । संघ भाजपा का वैचारिक संरक्षक है तो भाजपा के लगभग समूचे नेतृत्व और उसके बॉर्डर की मात्र संस्था है । घर है जहाँ वो हमेशा ही सहायता के लिए आ सकते हैं । फिर भी ये एकतरफा मार्ग नहीं है । नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत लोकप्रियता भाजपा की एक समावेशी हिंदू पार्टी बनने की प्रक्रिया और राष्ट्रीय स्तर पर उसकी सफलता नहीं । पहले ही मूल संगठन और उससे उपजे संगठन के बीच समीकरण बदल दिए हैं । हमेशा ही संगठन पर अधिक जोर देने वाला सब किसी भी प्रकार की व्यक्ति उपासना का स्वाभाविक तैयारी है और इसीलिए मोदी जैसे अकेले ताकतवर नेता से भी जाती के प्रति उसका रवैया पार्टी से भी कहीं अधिक सावधानी वाला है । बहुत पुरानी बात नहीं है । जब आरएसएस की व्यापक राष्ट्रीय स्तर वाला संगठन था और भाजपा उससे निकला संगठन था तो निर्दिष्ट क्षेत्रों पडेगी, सीमित था । भारतीय जनता पार्टी आसन की पहुंच और उसके अनुसार को पीछे छोडते हुए एक अखिल भारतीय संगठन बनने की राह पर है । इसका मतलब ये हुआ । चुनावी संघर्ष में संघ एक परिपूरक की भूमिका निभाता है । आरएसएस और भाजपा के बीच नेतृत्व, मुद्दे और चुनाव प्रबंधन को लेकर लगातार विरोधाभास बना रहा । तीन मुख्य वजहों से आज से बाहर नहीं निकले नरेंद्र मोदी की मोहन भागवत के साथ व्यक्तिगत रिश्ते, वैचारिक समागम और नियमित समन्वय नरेंद्र मोदी ही संघ है । टीकाकार अशोक मलिक ने एक बार कहा है कि वह संघ के सबसे अधिक प्रतिभाशाली पूर्व छात्र हैं । संघ ही उन्नीस सौ अस्सी के दशक के अंत में मोदी को गुजरात में भाजपा के संगठन सचिव के रूप में भेजा था । मोदी अपने वैश्विक नजरिये आपने नेटवर्क, अपने राजनीतिक जीवन और आपने सदाचारी सिद्धांतों के लिए संघ के ऋणी हैं । यदि कोई व्यक्ति मोदी को पूरी तरह संघ से अलग मानता है तो वो तो मोदी और न ही संघ के साथ न्याय करता है । फिर भी मोदी सिर्फ पसंद नहीं है । उस से भी काफी आगे निकल गए हैं और महत्वपूर्ण अवसरों पर उन्होंने अपने मूल संगठन का मुकाबला किया है । उसे चुनौती दी है और उसे पीछे है । ये उस समझ लगता था की मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे । गुजरात के दो हजार दो के दंगों के बाद जहाँ मोदी या तो अनिच्छा या फिर अक्षमता की वजह से ही सभी से जुडे संगठनों के अल्पसंख्यकों पर हमले रोकने के लिए बहुत कम प्रयास किए । एक ऐसा भी दौर था जब मोदी और संघ के रिश्ते बिगड गए थे । संघ नेतृत्व के ही एक वर्ग ने तो छुटपुट समूहों और नेताओं को चुनाव में मोदी पर हमला बोलने के लिए प्रोत्साहित भी क्या हिंदुत्व के नेताओं में सबसे कट्टर और विश्व हिंदू परिषद के प्रवीण तोगडिया की तो सर ये मोदी से ठनी हुई थी कि टकराव व्यक्तिगत और अहम को लेकर और नियंत्रण तथा प्रत्यक्ष शासन में संघ के दखल को लेकर रहा । मोदी की लोकप्रियता और तक जैसे जैसे बडा मीडिया में ये अटकलें तेज होने लगी है, क्या संघ दो हजार चौदह के लोकसभा चुनाव में उन्हें भाजपा के चेहरे के रूप में स्वीकार करेगा? असंतोष की आवाज भी उठ रही थी परंतु उनकी बॉर्डर के बीच प्रचारकों और स्वयंसेवकों के बीच जबरदस्त अपील फॅार और सहानुभूति रखने वाले और नागपुर की व्यापक परिस्थितिकी प्रणाली का तब पता था कि संघ को नीचे से उठ रही आवाजों को ध्यान में रखना होगा । मोहन भागवत और दूसरे वरिष्ठतम नेता भैयाजी जोशी ने मोदी का समर्थन किया और यहाँ तक असंतुष्ट लालकृष्ण आडवाणी को भी रास्ते पर आने के लिए तैयार किया । लेकिन इसके बाद भी ये अटकलें जारी नहीं । यदि मोदी जबरदस्त बहुमत से जीत गए तो संघ मोदी के बीच रिश्ते कैसे होंगे हूँ । आरएसएस इस बात से असहज है जिससे वो व्यक्ति पूजा कहती है । हालांकि उसने अपने व्यापक संगठनों की व्यवस्था को अनुमति प्रदान कर दी थी परंतु पूरी तरह से अपना नियंत्रण गंवाने को लेकर और साहस थी । वो चीज थी । इसने अनेक मुद्दों पर संघ नेतृत्व और वाजपेयी सरकार के बीच रिश्तों को तनावपूर्ण बना दिया था । परन्तु मोदी ने प्रधानमंत्री के रूप में संघ के साथ उल्लेखनीय तरीके से सहज कामकाजी रिश्ते बना लिया थे और स्पष्ट है मोहन भागवत के साथ उनके व्यक्तिगत समीकरणों को जाता है । आरएसएस के पदाधिकारी सफाई देते हैं, अटल जी के समकालीन रज्जू भैया पूर्व सरसंघचालक राजेंद्र सिंह नहीं थे परंतु जब वह प्रधानमंत्री बने तो सरसंघचालक सुदर्शन जी थे, उनसे जूनियर्स है । इसमें समस्या पैदा की क्योंकि प्रधानमंत्री उनसे निर्देश लेने के मामले ने और सहस्त्र सरसंघचालक भी उन मुद्दों को लेकर थोडा आक्रमक थे जिनके लिए प्रधानमंत्री को थोडा मौका दिया जाना चाहिए था । अब स्थिति अलग है । मोदी और मोहन भागवत समकालीन है और दोनों ने जीवन में लगभग साथ साथ ही प्रगति की है और एक ही चरण में दोनों ने उच्च मुकाम हासिल किए हैं । दोनों का ही जन्म उन्नीस सौ पचास के दशक में हुआ । उन्नीस सौ सत्तर के दशक में पूर्णकालिक प्रचारक बने । अगस्त उन्नीस सौ निन्यानवे में संघ के महामंत्री बढें और मोदी तो हजार एक हम तो नहीं गुजरात के मुख्यमंत्री है । भागवत ने दो हजार में सर संघचालक का पद ग्रहण किया और मोदी का इसके तुरंत बाद राष्ट्रीय सडक पर उदय हुआ । दो हजार चौदह में विजय दिलाई । इनके ऊपर संघ में मोदी के गुरु भागवत के पिता थे । सब ने दो हजार में उनकी उम्मीदवारी के लिए संघ का समर्थन प्राप्त करने में मदद की । इस पदाधिकारी का कहना था, मित्र हैं, सरसंघचालक भी काफी व्यवहारिक और खुले दिमाग वाले हैं । आप उनके समाजसुधार और एक मंदिर, एक शमशान और एक जलाशय अभियान के प्रति उनके ध्यान को देखिए या आरएसएस का जाति आधारित भेदभाव समाप्त करने और ऐसी व्यवस्था के सृजन का अभियान है जहाँ दलितों सहित सभी की बहुत सके और मोदी का ध्यान पार्टी के आधार का विस्तार पर केंद्रित है । इसमें समन्वय है । इसका मतलब ये नहीं है कि संघ जो कुछ भी कहता है उसे सरकार सुनती है और इसका मतलब ये भी नहीं कि संघ हर मामले में हस्तक्षेप करता है परन्तु अटल जी के शासन से रिश्ते बहुत धन है । यहाँ वैचारिक झुकाव का एक और पहलू है । विश्व हिंदू परिषद के सुप्रीमो और संघ के वरिष्ठ नेता अशोक सिंघल । वाजपेयी के समय में राजग सरकार के कटु आलोचक थे । जून दो हजार तेरह में मोदी को औपचारिक रूप से भाजपा का चेहरा बनाए जाने से पहले सिंगल गुजरात के मुख्यमंत्री को एक राष्ट्रीय नेता के रूप में लेकर बेहद उत्साहित थे । संघ के एकदम स्पष्ट अपेक्षाओं और एजेंडा का संकेत देते हुए सिंघल ने कहा था कि वो चाहते हैं मोदी देश में चल रहे हिंदुओं के धर्म परिवर्तन की प्रक्रिया रोकें । वो चाहते थे कि मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त करने के लिए संसद अयोध्या मुद्दे पर एक प्रस्ताव पारित करें । चंद परिवार चाहता था सरकार गंगा की सफाई पर ध्यान दे । राम की तरह ही गंगा भी हमें जोडती है और गंगा को नष्ट करने की सुनियोजित साजिश हो रही है तो वहाँ पर प्रतिबंध उनका अगला एजेंडा था । इसका सर धार्मिक ही नहीं बल्कि उन्नतिशील और पोषण संबंधी उद्देश्य भी है । दो हजार सत्रह में स्थिति का आकलन कीजिए और अपेक्षाओं से इसकी तुलना कीजिए । अयोध्या के अलावा जहाँ एकतरफा कार्रवाई की संभावना सीमित है, सरकार ने दोनों अन्य विषयों को आगे बढाने के लिए काफी जोर लगाया है । गंगा हो सकता है साफ नहीं हुई हो परन्तु किसी अन्य सरकार ने इसे कितनी प्राथमिकता और संसाधन नहीं दिए थे, कितने नरेंद्र मोदी सरकार ने दिए नहीं । गौसंरक्षण के इर्द गिर्द राष्ट्रीय स्तर पर इतनी प्रवचन हुए । राजनीतिक संकेत एकदम साफ है । बहुत पर एक नई अधिसूचना लाई जा चुकी है । उत्तर प्रदेश में गैरकानूनी का प्रतिष्ठानों के खिलाफ अभियान छेडा जा चुका है और खाने की बात तो छोडिए, गौमांस रखने का संदेह भर स्वयंभू गौरक्षकों के प्राणघातक हमलों को निमंत्रण दे सकता है । उत्तर प्रदेश के दादरी में दो हजार पंद्रह में मोहम्मद अखलाक की हत्या के साथ शुरू हुआ हम तो दो हजार सत्रह की गर्मी में गोमांस को लेकर भीड द्वारा पीटपीटकर हत्या करना भाजपा शासित चंदा राज्यों में एक नई सामान्य बात हो गई थी । हो सकता है इसके लिए स्पष्ट रूप से ऊपर से राजनीतिक मंजूरी नहीं हो । पर अब तो इस तरह की भीड की हिंसा के खिलाफ कठोर कार्रवाई के लिए सख्त राजनीतिक संदेश के आभाव और ऐसा करने वालों को दंड के भय से मुक्ति ने इन स्वयंभू गौरक्षकों के हौसले ही बढाए हैं । एक चीज इन सभी घटनाओं में एक जैसी थी और वो थी मुसलमान इनके प्रमुख निशाना थे और इसमें इन समुदाय में असुरक्षा की भावना पैदा कर दी थी । इस तरह की हिंसा इतनी अधिक हो गई कि मोदी को जून दो हजार सत्रह के अंत में हस्तक्षेप करना पडा और अनेक लोगों ने महसूस किया । ये काफी देर से उठाया गया और उसके साथ कठोर कार्रवाई की आवश्यकता थी । कुछ सप्ताह बाद ही दो हजार सत्रह के मध्य जुलाई में उन्होंने एक बार फिर राज्य सरकारों से कहा, ऐसी किसी भी घटना से सख्ती से निपटा जाए । मोदी की खुलकर अपनी धार्मिक पहचान के लिए तवे में भी उनका वैचारिक चुका पर लक्षित होता है । संघ से आने वाले भाजपा के प्रमुख नेता बताते हैं, जब महत्वपूर्ण अवसरों पर संघ गौरान्वित महसूस करता है वो कहते हैं, मोदी जब काठमांडू में पशुपतिनाथ मंदिर, क्या केदारनाथ या फिर बनारस जाते हैं तो वहाँ पूजा अर्चना करके माथे पर टीका लगाकर बाहर निकलते हैं तो कह रहे होते हैं वो हिन्दू है और उन्हें इस पर गर्व है । इससे पहले सार्वजनिक रूप से मंदिरों में जाने वाली आखिरी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थी, जो आपने अंतिम कार्यकाल के दौरान जाती थी । मोदी तो अपना धर्म का खुलकर आवरण करते हैं । वो अपनी संस्कृति के प्रदर्शन को लेकर किसी प्रकार की शर्मिंदगी महसूस नहीं करते । संघ इससे बहुत खुश है । उसका एकदम यही एजेंडा है । हमने अपने सारे प्रचार के दौरान गर्व से कहो हम हिंदू हैं नारे का ही तो इस्तेमाल किया है जमीन पर । संघ कार्यकर्ताओं को यही सब आकर्षित करता है और मोदी ने उनका भरोसा बरकरार रखता है । दिल्ली से आरएसएस के एक युवा कार्यकर्ता था । कहना था, अटल जी की सरकार पहली गैर कांग्रेसी सरकार थी । इसमें अपना कार्यकाल पूरा किया था और अब तो संघ में अधिकांश लोग संदेह करते थे । क्या सही में पूरी तरह भाजपा की सरकार है । इससे प्रदेश मिश्र चलाते थे जिनमें कांग्रेसी खून था । ये गठबंधन में भी थी । ये पूरी भाजपा सरकार है । छोटे छोटे मतभेद होने के बावजूद इस की वैचारिक प्रतिबद्धता और मोदी जी की मंशा को लेकर किसी प्रकार का संदेह नहीं है । और अंत था संघ और भाजपा के नेतृत्व के बीच अधिकतर निजी । लेकिन कई बार सार्वजनिक रूप से भी नियमित प्रचार का आदान प्रदान होता है । संघ से जुडे हुए भाजपा के एक नेता कहते हैं, प्रधानमंत्री सदैव ही विस्तार से जानने के लिए उत्सुक रहते हैं कि संघ ऐसा महसूस कर रहा है । वो हम से उन बैठकों की रिपोर्ट भी लेते हैं तो हमने संघ के पदाधिकारियों के साथ ही होती हैं । वो अपने प्रचार अभियान का समर्थन करने के लिए संघ को प्रोत्साहित करते हैं, उनके सरोकार को भी ध्यान में रखते हैं । पार्टी स्तर पर संघ संयुक्त महामंत्री कृष्णगोपाल के साथ संस्थागत समन्वय है और वो अमित शाह और संगठन के व्यक्ति रामलाल दोनों के साथ निकटता से काम कर रहे हैं । प्रत्येक मंत्रालय के दरवाजे संघ से संबद्ध हर उस संगठन के लिए खुले हैं जो उस क्षेत्र में काम कर रहा है । उनकी बात सुनी जाती है, भले ही हमेशा उस पर कार्यवाही नहीं होती हो और दो हजार पंद्रह में मोदी और उनके प्रमुख कैबिनेटमंत्री दिल्ली में आरएसएस के साथ एक मुलाकात के लिए गए थे जहां उन्होंने शासन की प्राथमिकताओं और विचार विमर्श किया और फीडबैक प्राप्त किया । एकदम स्पष्ट और सार्वजनिक रूप से पार्टी का संघ के प्रति आभार व्यक्त करना और शासनकला में संघ की भूमिका की स्वीकारोक्ति थी । शीर्ष स्तर पर भाजपा के साथ बेहतर व्यक्तिक रिश्ते, वैचारिक एजेंडे पर व्यापक झुकाव, सुचारू तालमेल की व्यवस्था और परस्पर सामंजस्य संघ की पृष्ठभूमि वाले व्यक्तियों को महत्वपूर्ण संस्थाओं में जगह दिला रहा है और अपने प्रिय विषयों को आगे बढाया जा रहा है तथा इसके बदले में संघ द्वारा शासन से संबंधित दूसरे मुद्दों पर भाजपा को ढील देने से दोनों को साथ साथ काम करने में मदद मिली है । इसलिए संघ के लिए सामंजस्य स्थापित करने और भाजपा के अधीन लोगों को भी अपनाने का अवसर प्रदान किया है । सितंबर दो हजार पंद्रह में प्रफुल्ल केतकर चेन्नई में थे जब उनके पास एक फोन आया । उन्हें बताया गया कि भाजपा आपके इंटरव्यू पर एक प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रही है । जरा देख लो ऍम ग्रेजी पत्रिका ऑर्गनाइजर के संपादक करने सरसंघचालक मोहन भागवत का इंटरव्यू दिया था । इसी इंटरव्यू में भागवत ने आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा का सुझाव दिया था । बिहार में चुनाव होने वाले थे और एक कुशाग्र बुद्धि वाले राजनीतिक की तरह लालू प्रसाद ने सुन लिया । इसे चुनावों में अगडे बनाम पिछ्डे में बदलने का यही मौका है । इसी अगडे पिछडे की लडाई को लेकर उम्मीद में सप्ताह में पहुंचे थे भाजपा जिसे चुनाव जीतने के लिए पिछडे वर्गों के मतों की दरकार थी । वो बचाव की मुद्रा में थी । शुरू में उसने सरसंचालक के इस बयान से दूरी बनाई जो एक व्यर्थ की कवायद थी क्योंकि कोई भी विश्वास नहीं करेगा कि संघ सुप्रीमों के बाद सिर्फ उनकी निजी राय है, व्यापक परिवार की नहीं । प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्वयं आरक्षण व्यवस्था जारी रखने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई परंतु इसके बावजूद आशंकाएं हम ही नहीं रही थी । इस वक्तव्य का इस्तेमाल ये सुद्ध करने के लिए किया गया । संघ अभी एक ब्राह्मणवादी संगठन है तो पिछडी जातियों का स्थान से और सहज है और उसे जगह देने के लिए तैयार नहीं है । करीब डेढ साल बाद दो हजार सत्रह के मध्य नहीं, बात कर दिल्ली के पहाडगंज में ऑर्गनाइजर के कार्यालय में बैठे अभी भी इसी में उलझे थे । किस तरह से इंटरव्यू की गलत व्याख्या की गई है । खेत करने मुझसे कहा, इंटरव्यू फिर से देखो । हम दीनदयाल उपाध्याय पर चर्चा कर रहे थे और हम ने ये पूछा था क्या आज की नीति मानवतावाद के अनुरूप है? और इस संदर्भ में उन्होंने आरक्षण का जिक्र किया था कि आरक्षण विरोधी नहीं बल्कि आरक्षण के समर्थन में रखता था । कर को दिए गए भागवत के जवाब में सामाजिक रूप से पिछडे वर्गों को आरक्षण के हमारे की थी क्योंकि यही इस तरह की नीतिगत पहल सही मिसाल थी । लेकिन इसके बाद उन्होंने ये भी सुझाव दिया यदि हमने इस पर राजनीतिक करने की बजाय संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित इस नीति पर अमल किया होता हूँ, मौजूदा स्थिति उत्पन्न नहीं होती । शुरू से ही इसका राजनीतिकरण हो गया । हमारा मानना है इस सारे राष्ट्र के हितों के लिए वास्तव में चिंतित और सामाजिक एकता के लिए प्रतिबद्ध समाज के कुछ प्रतिनिधियों सहित प्रबुद्ध लोगों की समिति बनाई जाएगी । इस से ये निर्णय करना चाहिए इस समुदाय को और कितने समय के लिए आरक्षण की जरूरत है । एक स्वायत्तता प्राप्त आयोग सरीखी गैरराजनीतिक समिति इस पर अमल की प्राधिकारी होनी चाहिए और राजनीतिक प्राधिकारियों को इनकी ईमानदारी और निष्ठा के लिए इन पर निगाह रखनी चाहिए । इस पर बहुत तेज और उग्र प्रतिक्रिया हुई । निश्चित ही भागवत ने इसकी व्याख्या के लिए यहाँ गुंजाइश छोड दी थी जब उन्होंने कहा कि संविधान निर्माताओं द्वारा परिकल्पित नीति लागू की जानी चाहिए थी । लोगों ने तत्काल याद किया के मूल प्रावधान सिर्फ दलितों और आदिवासियों के लिए ही थे । तो क्या उनका ये सुझाव था कि उस समय अन्य पिछडे वर्गों को आरक्षण का लाभ दिया जाना अलग था, के सारी व्यवस्था की समीक्षा के लिए समिति बनाने के लिए सुझाव नहीं संकल्पित । समूची सकारात्मक कार्रवाई को ही हल्का बना दिया और सिर्फ चुनिंदा जातियों को निशाने पर लेने तक ही सीमित रह गया की आशंकाएं अब अविश्वास का रूप ले चुकी थी । फॅसने सवर्ण जातियों के लिए ही ये कहा है और हिंदू एकता की उसकी प्यास सवर्ण जातियों के प्रभुत्व का कुछ शब्द है यह यह दृष्टिकोण सही है । फिर सामाजिक विस्तार के भाजपा के प्रयासों को झटका लगेगा क्योंकि सीमांत वर्ग दूसरे वर्ग का दर्जा स्वीकार नहीं करेगा । यदि ऐसा नहीं है तो क्या ये संघ के अनुकूलन में कोई मूलभूत परिवर्तन आया है? राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का लिखित वक्तव्य कुछ सुराग देता है, में तत्कालीन सरसंघचालक पाला सहित देवरस ने पुणे में एक व्याख्यान दिया था कि जातियों के बारे में संघ का निश्चित रुख बन गया । उन्होंने हिंदुओं के एकजुट होने के बारे में बोला और स्वीकार किया कि सामाजिक असमानता इस एकता में बहुत बडी बाधा है । उन्होंने घोषणा की, यदि अस्पृश्यता गलत नहीं है, दुनिया में कुछ भी गलत नहीं है । उन्होंने अपमान किया कि पिछले और स्पष्ट भाइयों ने इतनी साडियां, बहुत अधिक कष्ट, अपमान और अन्याय रहा है परन्तु साथ ही उन्होंने उन्हें भी आगाह किया कि वे अतीत के झगडे वर्तमान में नहीं लाए और कटु भाषा का प्रयोग और विश्व मन करना बंद करें । आरक्षण के बारे में देवरस ने कहा था कि पिछडों की अवसरों के लिए मांग न्यायोचित है परन्तु दीर्घकाल में उन्हें भी दूसरों के अनुसार प्रतिस्पर्धा करनी होगी और योग्यता के आधार पर समान दर्जा प्राप्त करना होगा कि भाषण जाति के प्रति संघ का रवैया दर्शाता है और समानता के प्रति सजग है । भेदभाव भी स्वीकार कर रहा है लेकिन उस के प्रति भी सजग है कि क्या करना है । धीरे धीरे सामाजिक बदलाव चाहता है, वो व्यक्तिगत आचरण पर जोर देता है और वह पिछडों तथा दलितों की उग्र राजनीति को लेकर सहज नहीं है । इस तरह संघ के छात्र संगठन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने हैदराबाद विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला के जुझारूपन पर जिस तरह प्रतिक्रिया व्यक्त वो आश्चर्यजनक नहीं था । मोहन भागवत ने मार्च दो हजार सत्रह में केतकर को एक और इंटरव्यू दिया । भागवत नहीं उन्नीस सौ चौहत्तर के व्याख्यान को श्रम सेवकों के लिए वैचारिक भवन बताया और रख दिया । किस अंधेरे इन समूहों पर पहुंचने का प्रयास किया था । इनके साथ भेदभाव हुआ था । उन्होंने व्यक्तिगत परिवार, पेशे, गा और सामाजिक व्यवहार में सुधार पर जोर दिया और अंतरजातीय विवाह का समर्थन किया । उन्होंने इस आक्रोश भर समझ पैदा करने पर भी जोर दिया । लेकिन देवरस की तरह ही उन्होंने पीडितों से अनुरोध किया कि वे अपनी भाषा का स्वर बदलेंगे । भारत में हाशिया पर रहने वाले हालांकि किसी तरह का प्रतीकात्मक प्रतिनिधित्व नहीं चाहते बल्कि असली ताकत चाहते हैं, प्रतिनिधित्व और गरिमा चाहते हैं । जैसा कि आरएसएस के पुराने प्रचारक ने मुझसे कहा, आपको संघ भी तनाव नजर आएगा क्योंकि वह सामाजिक एकता और सामाजिक न्याय चाहता है । वो चाहता है गरिमा परन्तु साथ ही असमानता वाले समाज में सद्भाव चाहता है । यह उतना रूढिवादी नहीं है जितना लोग सोचते हैं परन्तु वो विघटनकारी नहीं है । केतकर दावा करते हैं कि प्रतिनिधित्व के सवाल पर ध्यान देते समय वर्तमान संघ के दृष्टिकोण में गांधीवादी सोच का मिश्रण है । सवर्ण जातियों की सोच और आंबेडकरवादियों का नजरिया बदलना ये अनवरत है क्योंकि इसे संगठनात्मक ताकत का समर्थन हासिल है । हम तो ये दावा सवालिया है । संघ में कभी भी गैर सवर्ण जाति के किसी भी व्यक्ति का सरसंचालक नहीं बनना संभव तहर सबसे बडा उदाहरण है । पैसे भी राजू भैया के अतिरिक्त शेष सभी सरसंघचालक ब्राह्मण ही हुए हैं । हालांकि केतकर अब इनमें भी मंथन का दौर देखते हैं । आप संगठन को नीचे से देखते हैं । आपने बदलाव हुआ है प्रचारकों में राज्य के पदाधिकारियों में अन्य लोग भी हैं । आपको परिवर्तन नजर आएगा भाजपा की हाशिए के समुदायों के प्रति अनुकूल होने के प्रति । संघ के विकसित हो रहे दृष्टिकोण को समझने के लिए संघ के ऊपर दिए गए दृष्टिकोण को समझना जरूरी है । वो जब पिछडों को आकर्षित करने के भाजपा के प्रयासों के विपरीत एक राय जाहिर करता है तो पार्टी चुनाव हट जाती है । जैसा कि बिहार में हुआ । जब समर्थन करती है तो चुनाव जीत लिए जाते हैं जैसा कि दो हजार चौदह के लोकसभा चुनावों में हुआ । दो हजार चौदह के चुनावों में दो तरह का प्रचार अभियान था जिसने नरेंद्र मोदी को जीत दिलाई । पहला आधुनिक और उच्च प्रौद्योगिकी वाला चुनाव प्रचार था । इसका संचालन गांधीनगर से मोदी की टीम कर रही थी । नागरिकों ने छह महीने तक मोदी के चकाचौंध वाले प्रचार से रूबरू हुए क्योंकि भाजपा ने पूरे देश में अपना संदेश पहुंचाने के लिए सभी तरह कल्पनाशील प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल किया । भाजपा की सुविधाओं का इसके लिए इस्तेमाल किया गया था । ये तो वो है जो हम सभी ने देखा । सभाएं, विज्ञापन, होलोग्राम, चाय पे चर्चा और ये संदेश सिर्फ मोदी ही अच्छे दिन ला सकते हैं । दूसरा बहुत ही चुप चाप समानांतर चुनाव प्रचार था । आरएसएस बहुत ही कम इतनी गहराई से किसी चुनाव में शामिल होता है जितना वो दो हजार चौदह में था । देखा उसने जनसंघ को बनाया और उसका समर्थन किया । उसने में जनता पार्टी के समर्थन में भरपूर काम किया और उसने पिछले तीन दशकों में भाजपा को सफलता दिलाने के लिए उसकी मदद की परन्तु हूँ उसने हमेशा ही एक सीमा तक और स्पष्टता बना कर रखी और इस तारे को भी बनाए रखा है कि वो एक सांस्कृतिक संगठन है । दो हजार चौदह में इसमें बदलाव किया और ये सोच समझकर नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाने की चाह में समूचे परिवार का इस्तेमाल करने का फैसला किया । संघ की सार्वजनिक अपील लोगों को वोट देने और अधिक से अधिक मतदाताओं को मतदान तक पहुंचाने के लिए प्रेरित करने तक ही सीमित थी । एक मिशन था इसे मोहन भागवत नागपुर में दो हजार तेरह में विजयदशमी के अवसर पर अपने वार्षिक संबोधन के दौरान रेखांकित किया था या दृश्य प्रचार अभियान था तो हमने देखा नहीं । ये दो प्रचार कई बार एक दूसरे को परस्पर मिलते भी थे । सर्वोच्च स्तर पर मोदी खुद भी सरसंचालक और उनके सह सरसंचालक भैया जी के संपर्क में थे । पार्टी स्तर पर भाजपा के प्रभारी संघ के संयुक्त महामंत्री के साथ सामंजस्य भी था । प्रत्येक राज्य के भाजपा नेता भी संपर्क में थे, जिसे वह वैचारिक परिवार कहते थे । विशेष का जनाधार वाले संगठन जैसे अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिंदू परिषद, भारतीय मजदूर संघ, बजरंग दल और वनवासी कल्याण आश्रम । स्थानीय स्तर पर भी एक सीमा संघ से संबद्ध जिला इकाइयों और पार्टी की जिला इकाइयों के बीच तालमेल था । परंतु दिल्ली में इन दोनों अभियानों के बीच एक सेतु की आवश्यकता थी । ये कोई ऐसा व्यक्ति होना चाहिए था, जो आधुनिक चुनाव प्रचार की भाषा समझता हूँ और उसके बावजूद संघ की जडों से जुडा हो । ऐसा व्यक्ति होना चाहिए था जो प्रौद्योगिकी से अभ्यस्त होने के बाद भी जानता हूँ । नब्बे साल पुराने संगठन को इसे अपनाने में किस तरह मदद की जाए, इसके लिए कोई व्यक्ति ऐसा नहीं था, जो राममाधव से अधिक इसके लिए उपयुक्त हो । मूलतः आंध्र प्रदेश के निवासी माधव लंबे समय से प्रचारक रहे हैं । हालांकि इससे पहले के दशक में नई दिल्ली में संघ के चेहरे के रूप में उभरेगी । दिल्ली में राष्ट्रीय मीडिया के लिए उनका संपर्क राजनयिक मिशन के साथ वार्ताकार भी थे और क्योंकि उनका स्थान दिल्ली था इसलिए वह भाजपा के साथ एक महत्वपूर्ण अनौपचारिक संपर्क बन गए थे और उनका प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के साथ बेहतर समीकरण थे । इंडिया फाउंडेशन एक वैचारिक मंच इसे बहुत ही सावधानी से उन्होंने आकार दिया था और जब दिल्ली में एक अत्यधिक प्रभावशाली संस्था के रूप में उभरा था, कार्यालय में बैठे माधव दो हजार चौदह के अनुभवों को याद करते हैं और स्वीकार करते हैं, मैंने चुनाव प्रचार के संघ के हिस्से को संभाला था । एक अपवाद वाला चुनाव था और हम इसमें पूरी तरह से शामिल थे । वो जानते थे कि संघ के तंत्र में सबसे महत्वपूर्ण प्रान्तीय प्रचारक थे क्योंकि ये पदाधिकारी अपने अपने राज्य में संघ की समस्त गतिविधियों के लिए जिम्मेदार होते हैं । बिलासपुर में नेतृत्व और जमीनी स्तर पर स्वयंसेवको प्रचारकों और शाखाओं के बीच संपर्क का काम करते हैं और जब भाजपा को चुनावों के दौरान इनकी मदद की जरूरत होती है तो ये प्रांत प्रचारक ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं परन्तु इन्हें प्रचार के पारंपरिक तरीके से आगे जाने के लिए जानकारी स्रोत उपलब्ध कराने की आवश्यकता होती है था । माधव ने सभी प्रांत प्रचारकों के लिए लेनोवा टैबलेट लेने का आदेश दिया और इसके इस्तेमाल के बारे में जानकारी देने के इरादे से सब के लिए प्रशिक्षण का आयोजन किया । उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, ऐसा कुछ था जिसके सभी अभ्यस्त नहीं थे और इस प्रशिक्षण के दौरान ही उन्होंने उन्हें चुनाव के दूसरे अहम उस तरह डॉक्टर से अवगत कराया । माधव ने दो स्रोतों से ये आंकडे प्राप्त किए । पहला तो गांधीनगर में चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की टीम से जिसने निर्वाचन क्षेत्रों के आधार पर प्रत्येक प्रत्याशी के लिए विस्तृत पुस्तिका तैयार की थी और निर्वाचन क्षेत्रों के बारे में राजेश जैन से आंकडे प्राप्त किए । जैन एक समर्पित संघ समर्थक और उद्यमी थे जिन्होंने नीति सेंटर स्थापित किया था । जैसे मैं दिल्ली की मीडिया के वैकल्पिक परिप्रेक्ष् की पेशकश कहते थे । माधव बताते हैं, मैंने प्रांत प्रचारकों कि मतदान केंद्र तक के आंकडों के महत्व को समझने में मदद की । उसके बाद संघ ने इन आंकडों का उपयोग चुप चाप, घर घर प्रचार करने और मतदाताओं को जुटाने के लिए क्या जो मतदान के दिन उन्हें मतदान केंद्रों तक लाने के लिए बेहद महत्वपूर्ण था । माधव पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह के साथ भी एक महत्वपूर्ण कडी बन गए थे और वो उन्हें प्रत्याशियों तथा टिकट वितरण के बारे में संघ के नेटवर्क से मिलने वाली जानकारी उन्हें उपलब्ध कराते थे । पहले से ही राजनीतिक गतिविधियों में संलिप्त उनका दो हजार चौदह के चुनाव में जीत के बाद भाजपा में जाना स्वाभाविक था और वो पार्टी में सबसे ताकतवर महामंत्रियों में से एक बनकर उभरे । लोकसभा चुनाव के अनुभव ने इस बात की एक झलक भी । यदि संघ किसी चुनाव में अपना पूरा संगठनात्मक तंत्र लगा दे तो क्या संभव है? इसका काम बहुत ही सहज काम था कि मतदाताओं को मतदान केंद्रों तक निकाल कर लाया जाए । परंतु इस सरल का जो राजनीतिक नतीजों की शक्ल बदल सकता है, ये संभावित मतदाताओं की पहचान करना, व्यक्तिगत रूप से उन तक पहुंच रहा उन्हें राजी करना, अनुकूल राजनीतिक माहौल बनाना, संगठानात्मक सहयोग उपलब्ध कराना, विषेशकर उन क्षेत्रों में जहाँ पार्टी खुद ही कमजोर है और छात्रों, कामगारों तथा आदिवासियों के बीच काम कर रहे संगठनों का इस्तेमाल करके अपने नेटवर्क को सक्रिय करना एक और अप्रत्यक्ष भूमिका है । संघ की पारिस्थितिकी व्यवस्था इसमें भी लोग हैं जो पूर्णकालिक प्रचारक है । परंतु संघ के प्रति सहानुभूति रखने वाले स्वतंत्र पेशेवर हैं । वो अपने अपने क्षेत्रों में प्रभावशाली हैं और राई का रुझान बदल सकते हैं । संसाधन भी लगा सकते हैं । संघ की मशीनरी और संघ की अपनी व्यवस्था अकेले ही पार्टी को चुनाव नहीं जिता सकती है, परंतु इसके बगैर अक्सर पार्टी चरमराने लगती है । यह विशुद्ध रूप एकदम अलग तरह का समर्थन देती है । ये पार्टी का मनोबल बढाती है और एक परिपूरक की तरह ये अनमोल है । यही भूमिका इसने उत्तर प्रदेश में निभाई हैं । ये समझने के लिए जमीनी स्तर पर संघ परिवार किस तरह काम करता है? मैंने उत्तर प्रदेश चुनाव के अंतिम चरण के लिए । वाराणसी की यात्रा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय संघ के सबसे पुराने भर्ती स्थलों में से एक है । मोदी सरकार ने ये निश्चय कर लिया था । अपने कार्यकाल के पहले ही वर्ष में विश्वविद्यालय के संस्थापक पंडित मदन मोहन मालवीय को भारत रत्न प्रदान किया जाए । ऐसे कुलपति के साथ स्वयं के संघ की उपज होने पर कर महसूस करते हैं । विश्वविद्यालय ने दो हजार चौदह के बाद दूसरी अधिकांश भारतीय उच्च शिक्षण संस्थाओं की तरह ही अनेक ऐसी शिक्षाविदों को देखा । सार्वजनिक रूप से संगठन के व्यापक नजरिए के प्रति अपनी वफादारी जाहिर कर रहे थे । ऐसे ही एक प्रोफेसर नहीं जो स्वयं सेवक भी हैं । बता एक सौ एक प्रतिशत संघ इस चुनाव प्रचार में शामिल था तो भाजपा के टिकट वितरण से पूरी तरह सहमत नहीं थे । अब महसूस करते थे कि पार्टी के लिए ये सही नहीं था । लंबे समय तक टिकटार्थियों को जानबूझकर लटकाए रखा जाए तो ये भी महसूस करते थे कि भाजपा ने चुनाव जीतने की खाते दूसरे सभी तत्वों की बलि चढा दी थी । वो कहते हैं, पहले उन्होंने संघ से जानकारी प्राप्त की थी । इस बार भी उन्होंने यही किया । हम तो पिछली बार की तुलना में काम उन्होंने दूसरे दलों से दल बदलने वालों को वैचारिक प्रतिबद्धता की कीमत पर लिया । वो जोड देते हैं लेकिन जिसने पार्टी का समर्थन करने के व्यापक लक्ष्य से प्रमुख नहीं किया । आखिरकार भाजपा को ही चुनाव लडना है । नहीं । शिक्षाविद ने उस भूमिका को रेखांकित किया तो संघ निभा रहा था । उन असंतुष्टों को देख रहा था । इनमें टिकट नहीं मिलने के कारण असंतोष था । हम उन से कह रहे थे कि उन्हें अगली बार जगह दी जाएगी और उन्हें समाजवादी पार्टी की सरकार को सत्ता से हटाने के बारे में ही सोचना चाहिए । उनकी तरह के अनेक स्वयंसेवा अपने मित्रों और परिवार सहयोगियों और छात्रों तथा विश्वविद्यालय के कर्मचारियों से बात करके उन्हें ये बता रहे थे उत्तर प्रदेश में भाजपा की सरकार लाने से किस तरह के लाभ होंगे और हमारे प्रचारक वही कर रहे हैं तो उन्होंने दो हजार चौदह में किया था और वे मतदाताओं को बाहर ले आने के लिए मतदान केंद्र स्तर पर काम कर रहे थे । समर्थकों के दूसरे क्षेत्र को ही ले लीजिए । संघ को आर्थिक ताकत पुराने उद्यमियों और कारोबारियों से मिलती है । विक्रम मेहरा का प्रश्वास में घाट के निकट गोदौलिया में होटल स्वास्थ्य के नहीं है । होटल सकरीगली के अंदर एक इमारत की दूसरी मंजिल पर है । ये उन सैकडों होटलों में से एक है जिसने वाराणसी को शहरी भूल भुलैया बना दिया है । मेरा एक पुलिस अधिकारी के साथ बैठे थे जिन्होंने अपने परीक्षा ने बताया कि वो विश्वनाथ मंदिर और आसपास की सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हैं । वो आरएसएस से सहानुभूति भी रखते थे । मेरा तर्क देते हैं ये महत्वपूर्ण चुनाव था क्योंकि इसने उन्हें दिल्ली और लखनऊ में एक ही सरकार होने का अवसर प्रदान किया है । शिक्षक लोगों और व्यापारी समुदाय के बीच आम भावना है । इस बार विकास के लिए उत्तर प्रदेश में भाजपा को ही जीतना चाहिए । यही संदेह हम अपने दोस्तों और अपने सर्किल में प्रसारित कर रहे हैं । सबको मौका मिला है तो इस बार भाजपा को क्यों नहीं? ये दलील बहुत से लोगों को जज रही है । मेहता संघ समर्थक परिवार से आते हैं और वो स्थानीय संघ व्यवस्था के साथ घनिष्ठता से जुडे हुए हैं । मेहरा हसते हुए कहते हैं, मेरा इसी में जन्म हुआ है । हम ही संघ है । वो बताते हैं कि संगठन और उसके समर्थक किस तरह काम करते हैं । वो कहते हैं, संघ चुपचाप काम करता है । हमारे में से कोई भी प्रचार नहीं चाहता हूँ । मैं आपको एक उदाहरण देता हूँ । काशी क्षेत्र के एक प्रचारक नहीं । कल भाजपा के एक सांसद को व्यापारियों से मिलाया । हमारी उनके साथ बातचीत हुई और फिर हम लोगों ने फोटो चाहिए । जैसे ही लोगों ने सेल्फी लेना शुरू किया तो प्रचारक चुप चाप एक और खिसक गया । आप उन्हें देखेंगे नहीं और इसीलिए ऐसी अनुभूति होती है कि वे उपर स्थित नहीं है । संघ के लिए मेहरा सरीखे व्यक्तियों की महत्ता उनके पुरानी निष्ठा, स्थानीय बाजार और समुदाय में उन का महत्व और उनकी आर्थिक स्थिति चाहती है । मेरा और उनके व्यापक परिवार के लिए संघ और उससे संबद्ध राजनीतिक घटकों से यही अपेक्षा है वे कारोबार के लिए और बेहतर माहौल तैयार करेंगे । हालांकि प्रदर्शन जैसी बाधा डालने वाली गतिविधि अभी भी हुई है और इसने उनके कारोबार पर प्रतिकूल असर डाला है । फिर भी मेहरा की निष्ठा नहीं लगी है । मेरा कहते हैं सिर्फ बेमानी कारोबारी ही नाराज होगा । इसमें कुछ समय के लिए हमारे कारोबार को प्रभावित किया होगा । प्रंतीय संकट अब खत्म हो गया है । आप मुंबई नगर पालिका के चुनावों को ही देखी । वो तो भारत के कारोबार का केंद्र है और भाजपा ने नोटबंदी के बावजूद वहाँ चुनाव में इतना शानदार प्रदर्शन किया है । मेरा उसी शाम व्यापारियों की एक बडी सभा में जाने की तैयारी कर रहे थे । सभा को वित्त मंत्री अरुण जेटली संबोधित करने वाले थे और इसके लिए वो अपनी उत्सुकता छुपा नहीं पा रहे थे । वो कहते हैं, आप भी आइए, आप खुद देखिए कि व्यापारी समाज किस तरह से मोदी जी के साथ है । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शिक्षा और मेहरा संघ के स्वयंसेवकों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे । इनकी गणना इसमें नहीं होगी । क्या बहुत ही सीमित दृष्टिकोण नहीं । कैसे आरएसएस ने भाजपा का समर्थन किया या दृष्ट समर्थक हैं जिनकी प्रभावशाली होने के साथ ही अपने समुदाय में बैठ है और जो चुनाव में हवा बना सकते हैं । लोगों को संगठित करने का अधिक प्रत्यक्ष का संघ की मशीनरी करती है । वाराणसी में मेरा के होटल के ठीक सामने ऍफ का पुराना कार्यालय है । प्रचारक संगठन के हिंदू समाज की एकता के उद्देश्य के खाते इसे बनाए रखने और इसके विस्तार के लिए अपनी जिंदगी लगा देते हैं । ये वे लोग हैं तो चुनाव जैसे महत्वपूर्ण अवसरों पर पार्टी को कार्यकर्ता उपलब्ध कराते हैं । तीन बुजुर्ग एक शांत कमरे में रखी एक बडी सी में इसके इर्दगिर्द बैठकर अखबार पढ रहे हैं । एक प्रचारक अपना परिचय देता है कि वो संघ के साथ उन्नीस सौ पचपन से जुडा हुआ है । वो मेरा की हाँ में हाँ मिलाता है । इस तरह की भावना है कि केंद्र और राज्य स्तर पर एक ही पार्टी की सरकार होनी चाहिए । अमीर और गरीब दोनों ही मोदी जी को चाहते हैं । सेना का मनोबल ऊंचा है, विकास का काम आगे बढ रहा है । उन्होंने चुनावों के बारे में संघ और भाजपा के विचारों में महत्वपूर्ण अंतर को चिन्हित किया । संघ एक ऐसा स्कूल है जहां हम लोगों को उनकी योग्यता, कठोर परिश्रम और उसके नतीजे के आधार पर अंक देते हैं परन्तु राजनीति अलग है । एक राजनीतिक दल को जाती आर्थिक मजबूती, चुनाव जीतने की संभावना आधी को देखना होता है । आखिरकार उन्हें तो चुनाव लडना है और हम यहां उनका समर्थन करने के लिए हैं । वाराणसी में मतदान से छह दिन पहले की बात है । भाजपा के साथ तालमेल करने वाले प्रमुख व्यक्ति आरएसएस के संयुक्त महामंत्री कृष्णगोपाल वाराणसी पहुंच गए थे और वो विभिन्न जिलों के कार्यकर्ताओं की बैठकें बुला रहे थे । पूर्व उत्तर प्रदेश के प्रत्यक्ष प्रभारी होने की वजह से भोपाल पूरे राजनीतिक परिदृश्य से परिचित थे । बुजुर्ग प्रचारक ने बताया, इन बैठकों में क्या हुआ? वो सभी कार्यकर्ताओं से राजनीतिक माहौल, मतदान केंद्र स्तर के समीकरण और मतदाताओं के रुझान के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं । तो ये भी स्पष्ट निर्देश देते हैं उन्हें मतदान के लिए क्या करना है और बडी संख्या में मतदाताओं के मत डालने पहुंचने पर जोर देते हैं । यही जीत सुनिश्चित करेगी । लेकिन ये काम चुपचाप किया जाता है और यही वजह है कि संघ की भूमिका अक्सर ही ये पहली ही बनी रहती है । प्रचारक में अपनी बात जारी रखी मैं एक और तरह से आपको बताता हूँ पिता अपने बच्चे उसकी शिक्षा का ध्यान रखता है । उसे जीवन में बसने में मदद करता है, उसे घर मुहैया कराता है । परंतु वो चारों लागाकर लोगों को नहीं बताता है । संघ के कार्यकर्ता पोस्टर नहीं बांटते हैं । जनसभाओं में कुर्सिया नहीं लगाते हैं और नहीं खुद भीड जुटाते हैं । ये हमारा काम नहीं है और इसीलिए मीडिया को अक्सर गलतफहमी हो जाती है । गलत स्थानों पर देखते हैं । हम तो चुप चाप घर घर जाकर संपर्क करते हैं । लोगों को एक नेता और पार्टी को वोट देने के लिए लोगों को प्रोत्साहित करते हैं । राष्ट्र के बारे में सोचते हैं । दुनिया भर में भारत की प्रतिष्ठा बढाते हैं, सेना का मनोबल ऊंचा करते हैं । अब सबके विकास में विश्वास करते हैं । संघ की परिकल्पना और संदेशों में सिर्फ एक ही नेता और एक पार्टी इस कसौटी पर खरी उतरती है । नेता नरेंद्र मोदी हैं । वो पार्टी भाजपा है । संघ का नया कार्यालय गोदौलिया चौक से महज कुछ किलोमीटर की दूरी पर सिगरा में स्थित है । लेकिन शहर के पुरानी दरें यातायात का मतलब हमें अपने लिए रेंट पे हुए रास्ता बनाना है । इसी कार्यालय से काशी प्रांत के अठारह जिलों में संघ के कामकाज का प्रबंधन किया जाता है । भीतर एक छोटे से कमरे में एक व्यक्ति लगन के साथ अकाउंट का काम कर रहा है । उसने मुझे कहा, आप भी बाहर जाइए और आप आपने जिन मित्रों और लोगों को जानते हैं, उन्हें मोदी जी को वोट देने के लिए तैयार कीजिए । हमारा सांस्कृतिक संगठन है, परंतु विकास के लिए हम राज्य में भाजपा की सरकार चाहते हैं । उसने फिर इस तथ्य को रेखांकित किया कि संघ किस तरह से इस लक्ष्य को प्राप्त करने में मदद कर रहा था । हम मतदाता जागरूकता मंच नाम के प्लेटफॉर्म के माध्यम से काम करते हैं । हम अधिक से अधिक मतदान पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं । आरएसएस का मानना है कि प्रत्येक भारतीय नागरिक का ये कर्तव्य है लोकतंत्र में शामिल हो और मतदान करें । इसका निष्कर्ष यह था कि ये प्रोत्साहन उन मतदाताओं के लिए सुरक्षित था । इन की बहुत अधिक संभावना संघ से संबद्ध राजनीतिक दल को वोट देने की थी, लेकिन संघ नहीं । किस तरह से पार्टी की मदद की, इस बारे में सबसे अधिक विश्वसनीय जानकारी प्रमुख राजनीतिक वार्ताकारों ने स्वयं नहीं । भाजपा का एक प्रमुख नेता जो रोजाना संघ के साथ विचार विमर्श करते थे, घटनाक्रम का पुनर्निर्माण करते हैं । चुनावों के बारे में संघ के साथ हमारी पहली बैठक नवंबर दो हजार सोलह में हुई थी । और उस बैठक में ही निर्णय हो गया था कि वे जमीनी स्तर पर संपर्क पर ध्यान देंगे । चुनावों से पहले संघ के वरिष्ठ नेता मतदान वाले क्षेत्रों में पहुंचे और स्वतंत्र रूप से बैठकें आयोजित की और मदद की । उन्होंने बताया कि हालांकि दो हजार चौदह और दो हजार सत्रह में राज्य में चुनाव में संघ की भूमिका को लेकर तो बडे अंतर थे । पहला तो ये उत्तर प्रदेश में भाजपा खुद भी कमजोर थी और उसे इस तरह की मदद की जरूरत ही दो हजार सत्रह तक अमित शाह, सुशील बंसल और उनकी टीम द्वारा किए गए कामों से भाजपा संगठन काफी ताकतवर हो गया था और बाहर से मदद की जरूरत हो गई थी । ये निश्चित ही परंपरिक महत्वपूर्ण बिंदु था राष्ट्रीय स्तर पर लागू होता है जहाँ भाजपा अपने आप ही ताकतवर थी और उसकी गहरी पैठ थी । वहाँ पर चुनाव प्रक्रिया में संघ की आवश्यकता कम लेकिन जहाँ भाजपा कमजोर थी परंतु संघ की जडें काफी मजबूत थी, वहाँ ये अधिक महत्वपूर्ण हो गया था । इसका नतीजा दूसरे अंतर में आया । दो हजार चौदह में आरएसएस के अनेक कार्यकर्ताओं को उत्तर प्रदेश के बाहर से राज्य में सभी गतिविधियों में सहयोग के लिए लाया गया था । चाहे वह सूचना प्रौद्योगिकी हो, फीडबैक और निगरानी हो, घर घर संगठित करने का काम हो या प्रचार प्रबंधन हो, नजरिया कभी कभी उल्टा पड जाता है । बिहार के चुनाव में राज्य के शीर्ष नेता ने मुझे संकेत दिया । इसमें स्थानीय कार्यकर्ताओं में असंतोष पैदा कर दिया था । उत्तर प्रदेश में दो हजार सत्रह में भाजपा को बाहर से बडी संख्या में कार्यकर्ताओं की आवश्यकता नहीं थी । वास्तव में स्थानीय नेता जो पहले ही मतदान कर चुके थे, उन्हें उन क्षेत्रों में भेजा गया जहां मतदान होना था । अरे सबसे पुराना रिश्ता रखने वाले एक नेता ने कहा, बाहर के आरएसएस के कार्यकर्ता इतना अधिक संलिप्त नहीं थे । परन्तु ऐसा इसलिए था क्योंकि इस की जरूरत नहीं वही कर रहे थे तो जरूरी है । आखिरकार कृपा करके इसे समझे कि संघ जहाँ भी हो, हम उसी से आते हैं । वो तो मेरा माईबाप भी है । ये विभेद बनाओ टी है । निश्चित ही आरएसएस की भूमिका की तलाश में इस पत्ते का छूट जाना सहज कि समूचा नेतृत्व ही संघ से आया हुआ है । नरेंद्र मोदी संघ में ही प्रचारक थे । अमित शाह भी समय से ही हैं । सुनील बंसल तो सिर्फ तीन साल पहले ही संघ से आए थे । केशव प्रसाद मौर्य अभी कुछ समय पहले तक वीएचपी के कार्यकर्ता और पदाधिकारी थे । वरिष्ठता के क्रम में अगर नीचे आए चंद्रमोहन भी भाजपा में आने से पहले अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद और स्वदेशी जागरण मंच में राज्य स्तर के अनेक नेताओं का आधार संघ परिवार के एक या दूसरे संगठन से रहा है । अमित शाह से लेकर नीचे तक भाजपा नेताओं को सहयोग करने वाले सभी कर्मचारी संघ की पृष्ठभूमि से आते हैं । निश्चित ही भाजपा ही सब है । उपचुनावों में आरएसएस की शेष मशीनरी अधिक सक्रिय हो सकती है और कुछ में पीछे रह सकते हैं । ये खोज बाहरी व्यक्तियों का पता लगाने की भी थी, क्योंकि हम कुछ ऐसे रहस्यमय उपसेना की तलाश में थे । इस चुनाव के दौरान प्रचार के लिए अचानक ही अवतरित होती थी और फिर नवभारत हो जाती है पेशा ये इस तरह तो काम नहीं करती है । बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के शिक्षाविद संघ थे, वरुण मेहरा संघ थे । हमने सर प्रचारकों और हमने सुनिश्चित करने के काम में उनकी भूमिका पर ही ध्यान केंद्रित किया जो अपर्याप्त संघ में दूसरे सबसे अधिक ताकतवर व्यक्ति भैया जी जोशी ने ऑर्गनाइजर को दिए इंटरव्यू में कहा था, हमारा सारा प्रयास रहस्त कार्यकर्ताओं को अपने काम का मुख्य स्तंभ बनाने का है । आज हजारों परिवार इस काम को आगे बढा रहे हैं । व्यस्त कार्य करता हूँ की तुलना में प्रचारकों की संख्या बहुत कम है की व्यापक व्यवस्था थी और प्रत्येक व्यक्ति ने अक्सर चुपचाप भी अपनी तरह से वो काम किए कि चुनाव के दौरान उसे करने थे । अपनी स्थापना के नब्बे साल बाद संघ अपने अनुयायी नरेंद्र मोदी के माध्यम से खुद को और समावेशी बनाने के लिए उपलब्ध करने, आंशिक और धीरे धीरे और खामोशी से संगठनात्मक कार्यों के माध्यम से चुनावी सफलताओं के जरिए भारत में मैत्रीपूर्ण सरकार स्थापित करने में मदद कर रहा है । इस प्रक्रिया में इसका राजनीतिक संगठन पहले से कहीं अधिक ताकतवर हो रहा है । हिंदू एकता और हिंदू राष्ट्र हासिल करने के अपने लक्ष्य के लिए दोनों अविभाज्य हैं हैं ।
Producer
Sound Engineer
Voice Artist