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कवित दो सौ तिरेपन अब वक्त कहाँ दुनिया से मिले हम खुद में सामान्य निकले हैं अब संभाल संभाल कर चलते हैं क्यों कि कदम बहुत ही फिसले हैं देखा बहुत गरीब से हमने ये दुनिया वालों को जो पहले अपना कहते थे अब वहीं बदले से रहते हैं आवाज न देना लोगों आपने भी इरादे बदले हैं हरीश ये झूठी दुनिया को हम तो विसरा ने निकले हैं अब वक्त कहाँ दुनिया से मिले हम खुद में सामान्य निकले हैं
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