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कवित दो सौ तैंतीस हैं कोई गुरु यानी जो अलग भी लखकर आया है तोड के कर्म भ्रम दीवारी सत्य लाख नहीं आया है जाती पार्टी कुल मर्यादा अपना तो मिटाया है तजकर काम क्रोध मद लोग अहंकार बिसराया है रागद्वेष सीरीशा बडाई निजी के सिर से हटाया है सागर में गागर भर रखी शब्द में सूरत समाया है हरीश कभी जिसे ढूंढा जगह नहीं उसे अपने घर में पाया है हैं कोई गुरु यानी जो अलग भी लखकर आया है
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