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हूँ और कवित दो सौ तीस ऍम राम बस तुम हो मेरा और सकल जगह दुख धनेरा अब मैं जाना मर्म तुम्हारा दे गए बेट के मोह पर सारा तुम बिन व्याकुल जग माही । ढाया ना भी कस्तूरी परख नहीं पाया अच्छा रज तब जब निकट तुम्हें पाया नाम असुमल ॅ आया जागी जबसे लाभ भी मैं सोई रानी उलट दिया सब ज्ञान की खानी प्रथम हुआ जगह की तृषा न आसानी आप ही शिष्य ही गुरु यानी दूर सरे धरती गगन चली उडकर बीजेपी गया जगह का पानी चौथे वायु बंद हुआ आना जाना पांचवे सूरज चंदा सिमटा निगम में तारा छठवें कंट्री से बोली न निकले सात तवे गगन मानियां समाना आठ में भवन गुफा अंधियारा वहाँ पहुंचे कोई जिन मान मारा नौवें आगे नेहा तत्व डर से दस सवेरे दोनों एक में समाया जहाँ नहीं मन इंद्रिया जगह माया यही वो हुआ सृष्टि हम ही पसरा हरीश कभी मिला हर प्रश्न का उत्तर आप ही नदियां नहीं आप ही खेवन, हारा प्राण राम बस तुम हो मेरा और सकल रजक दुख बहनेरा
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